Thursday, December 16, 2010
आत्म-गीत रवीन्द्रनाथ ठाकुर
Wednesday, December 8, 2010
साहित्य अकादेमी के विशेष समारोह(१५.११.१०)में तारानन्द वियोगी का वक्तव्य
सन्दर्भ : साहित्य अकादेमीक बाल साहित्य पुरस्कार =============================== साहित्य अकादेमी के विशेष समारोह(१५.११.१०)में तारानन्द वियोगी का वक्तव्य =============================================== आदरणीय अध्यक्ष महोदय और मित्रो, साहित्य अकादेमी के इस विशेष समारोह में हम सभी यहां एकत्र हुए हैं। भारतीय साहित्य का जीता-जागता उपवन यहां मौजूद है, जिसमें रंग-रंग के, किस्म-किस्म के फूल खिले हुए हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहा करते थे कि मेरी भारत माता बीसियों भाषाओं में बोलती हैं। उस भारत माता को यहां जीवन्त महसूस किया जा सकता है। ऐसे अवसर पर अपने आपको यहां, आप सबके बीच पाकर मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। मैं साहित्य अकादेमी को, और हमारी मैथिली भाषा के प्रतिनिधि को, उनके सहयोगियों को हृदय से धन्यवाद देता हूं। मुझसे अनुरोध किया गया गया है कि इस अवसर पर मैं अपने कुछ अनुभव, अपनी चिन्ताएं आपके साथ शेयर करूं। यह जरूरी भी है। हमारा भारतीय साहित्य आज जिस दौर से गुजर रहा है,, जो संकट और चुनौतियां आज इसके सामने है,यह और भी जरूरी है। मित्रो, मैं कोशी क्षेत्र का रहने वाला हूं। आप शायद जानते हों कि कोशी बडी ही विकराल, बडी ही मनमौजी नदी है। जगह-जगह इसपर बांध बनाए गए हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बरसात के दिनों में नदी बांध तोड देती है। पानी का बहुत भयावह रेला चल निकलता है। लोग जहां-तहां फंस जाते हैं। सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियां तो बाद में पहुंचती हैं, पहले तो ये होता है कि लोग अपनी मदद आपस में मिल-जुल कर करते हैं। पानी के तेज बहाव में अगर अकेला आदमी पड जाए तो उसका बचना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में लोग क्या करते हैं कि हाथों में हाथ डालकर एक मानव-शृंखला बना लेते हैं, टेक के लिए हाथों में लाठियां थाम लेते हैं और इस तरह सुरक्षित स्थान तक पहुंच जाते हैं। आप भी शायद महसूस करते हों कि कुछ ऐसे ही हालात से आज हम भी गुजर रहे हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में छोटी-छोटी भाषाओं की नित्य प्रति मृत्यु हो रही है। साहित्य को निरन्तर अप्रासंगिक करार दिया जा रहा है। भावाभिव्यक्ति में एक जाहिल उताबलापन चारों तरफ दिख रहा है। इतनी तेजी से रोज-रोज दुनिया बदल रही है कि युग और काल की हमारी अवधारणा भी कई बार हमसे धोखा करती प्रतीत होती है। ये तो हुआ एक पहलू। दूसरी तरफ हम ये भी देख रहे हैं कि हमारी जो पीढी युवा होकर आज दुनिया का मुकाबला करने को तैयार हो रही है, उसमें अपनी आइडेन्टिटी, अपनी अस्मिता को लेकर एक सात्विक तडप भी साफ दिख रही है। एक व्यापक और परिपूर्ण भारतीयता की समझ उनकी आत्मा की मांग बन रही है। तो, ये ऐसा समय है कि समझ लें--थोडा खट्टा है थोडा मीठा है, थोडा धुंधला है थोडा उजला है। चुनौती हमारे सामने ये है कि ऐसे में हम, और हमारा साहित्य, इस पीढी के, आने वाली पीढियों के किस काम आ सकता है। एक जमाना था कि जब बडे-बडे लोग छोटे-छोटे ब्च्चों के लिखना गौरव का विषय समझते थे। पर, वह जमाना भी अब बीत चुका है। तो, ऐसे हालात में, मैं समझता हूं कि एक तो मिलजुलकर लगातार काम करने की जरूरत है, दूसरे युग की चुनौती को इस तरह स्वीकार करने की भी जरूरत है कि आनेवाली पीढियां हमपर ये इल्जाम न लगाए कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था। मित्रो, आप बुरा न मानें, इस तरह मैं सोचता हूं तो घोर अंधेरी रात में बिजली की चमक-जैसी जो चीज मुझे दिखाई देती है, वह है--बाल साहित्य। सार्थक ढंग से लिखा गया बाल साहित्य ही ये कर सकता है कि आनेवाली पीढियों के लिए साहित्य भी एक प्रासंगिक चीज, उनके जीवन के काम आनेवाली चीज बनकर रह सके। पीढियों के भाषा-संस्कार को यह परिमार्जित कर सकता है। भावाभिव्यक्ति में पाए जानेवाले जाहिल उताबलेपन की जगह एक स्थैर्य, एक गहराई को उनकी जीवन-शैली का हिस्सा बना सकता है। बाजार की जीवन-पद्धति है--द्विआयामी, जिसमें वस्तु है और क्रिया है। त्रिआयामी जीवन-पद्धति, जिसमें वस्तु और क्रिया के साथ-साथ चिन्तन भी हो, इसका विकास बाल साहित्य कर सकता है। मुझे तो लगता है कि सार्थक और प्रासंगिक बाल साहित्य का प्रसार छोटी-छोटी भाषाओं की मृत्यु-दर को कम कर सकता है और हमारे उखडते हुए पांवों को एक ताजगी-भरी मजबूती दे सकता है। जो चिन्ता आज मेरी है, मेरा खयाल है कि यह आपकी भी चिन्ता है , सारे देश की, सारी दुनिया की चिन्ता है। ऐसे में, बडे ही आभार के साथ मैं साहित्य अकादेमी को और संस्कृति मंत्रालय को धन्यवाद देता हूं कि भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य के विकास के लिए नए ढंग से उन्होंने सोचना शुरू किया है। प्रायः चार साल हुए कि इन्हीं चिन्ताओं से जूझते हुए मैंने अपनी भाषा मैथिली में, इस दिशा में कुछ काम करने की शुरुआत की थी। मैथिली में बाल साहित्य की दशा अत्यन्त दुर्बल है। दूसरी बात यह कि हमारे यहां, मैथिली पुस्तक-प्रकाशन के मामले में यह जुमला बडा ही प्रसिद्ध है कि लेखकों की छपाई किताब बिकती नहीं है और पाठकों को उनकी पसन्द की किताब मिलती नहीं है। हमने कुछ नए ढंग से समाधान की कोशिश की। युवा लेखकों और साहित्यकर्मियों की हमने एक टीम बनाई। बाल साहित्य पर गंभीरता से काम करना शुरू किया। हमने सातवीं-आठवीं कक्षा के बालपाठकों को टारगेट किया। विषय हमने ऐसे चुने जो इक्कीसवीं सदी में वयस्क होनेवाले हमारे बालपाठकों के जीवन के काम आ सके। उपजीव्य ग्रन्थ ही अगर चुनना हो तब भी हमने लीक से हंटकर चलने का मन बनाया। हमारे यहां मुख्यतः दो उपजीव्य चलन में रहे हैं--रामायण और महाभारत। हमने उपनिषदों को लिया, जातक-कथाओं को लिया। आप देखेंगे कि महाभारत में जंगल को जलाया जाता है, जबकि उपनिषद में जंगल से दोस्ती की जाती है। किताबों को फारमेट भी हमने कुछ अलग ढंग से किया। भाषा, अभिव्यक्ति-शैली, कथन-भंगिमा-- इन सबके प्रति भी हम अत्यन्त सजग रहे। हमारे महाकवि विद्यापति ने कभी 'सुपुरुष' की अवधारणा प्रस्तुत की थी। हमारा लक्ष्य इक्कीसवीं सदी का 'सु-मानुस' ठहरा, जिसमें सुपुरुष के साथ 'सु-नारी' भी शामिल हैं, और जो एक ही साथ जितने मैथिल हैं, उतने ही भारतीय और ठीक-ठीक उतने ही वैश्विक। हमारी टीम के युवा साहित्य-कर्मी मध्य और उच्च विद्यालयों में पहुंचते, और सस्ते संस्करणों वाली ये पुस्तकें प्रत्यक्ष रूप से अपने पाठकों को सौंप आते। एक हजार प्रतियों का हमारा संस्करण महीनों में बिक जाता। जिस घर में किताब की एक प्रति पहुंचती, उसके परिवारी-जनों के साथ-साथ अडोसी-पडोसी मिलाकर औसतन हमें पन्द्रह पाठक मिल जाते। मित्रो, आपको लग सकता है कि मैं विषयान्तर हो रहा हूं, साहित्यकार के दायरे से बाहर जाकर एक्टीविज्म पर पहुंच रहा हूं। लेकिन यकीन कीजिए, मैं भी मूलतः एक साहित्यकार ही हूं। साहित्य-सृजन के लिए सघन एकान्त मुझे भी चाहिए। किन्तु, साहित्य के साथ जीते हुए कभी ऐसी भी स्थितियां बनती हैं, जब आपको टीम बनाने की जरूरत पडती है। यूं तो आप अदृश्य पाठकों के लिए लिखते हैं, पर वक्त आता है कि जब आपको उन्हें दृश्यमान करने की जरूरत पडती है। मैंने महसूस किया है कि ऐसे हालात में 'साहित्यकार' और 'साहित्यकर्मी' के बीच की दूरियां सिमट जाती हैं। मित्रो, हमारे संकट अथाह हैं। उत्तर आधुनिकता के इस दौर में आज जब हमारे लोग अपनी अस्मिता के प्रति साकांक्ष हुए हैं तो अपनी जड, अपनी भाषा से जुडना चाहते हैं। इधर विडम्बना यह कि दुनिया-भर की चीजें उन्हें पता है, मगर अपनी मातृभाषा पढ पाने का हुनर उन्हें नहीं है। एक दौर था, जब मातृभाषा को अयोग्य मानकर उन्होंने उसकी उपेक्षा की। मातृभाषा को उन्होंने कभी इस लायक माना ही नहीं कि उसमें बडी-बडी, ऊंची-ऊंची बातें की जा सकती हो। याद कीजिए कि इन्हीं लोगों की उपेक्षा ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं को उजाडा। पर, आज वे आइडेन्टिटी ढूंढते हैं और मातृभाषा से जुडना चाहते हैं। हम तो दरअसल, उनके बच्चों के लिए लिखते हैं। लेकिन, बच्चों के लिखी गई किताब जब हमारे ये बन्धु पढते हैं तो खुद भी मातृभाषा पढने का हुनर सीखते हैं। हमें तो समझिए दोहरी खुशी मिलती है। भविष्य को ठीक करने की कोशिश में हमारा वर्तमान भी सुधरता जाता है। यह बाल साहित्य कर रहा है। बाल साहित्य ही यह कर भी सकता है। मित्रो, इतनी बातें मैंने इसलिए कहीं कि आपको सामने पाकर सुख-दुख बतियाने का एक अवसर मुझे मिला। इस अवसर के लिए पुनः धन्यवाद। अपनी भाषा के कर्णधारों, अपनी टीम के युवा साहित्यकर्मियों को भी धन्यवाद। इतने ध्यान-पूर्वक आप सबने मुझे सुना, इसके लिए पुनः धन्यवाद। तारानन्द वियोगी
Tuesday, December 7, 2010
बाल साहित्य पुरस्कार २०१० अर्पण समारोह
लेखक लोकनि कें बाल साहित्य मे विशिष्ट अवदानक लेल पुरस्कृत=सम्मानित कएल गेलनि। मैथिली मे प्रथम बाल साहित्य पुरस्कार तारानन्द वियोगी कें हुनक बाल-पुस्तक 'ई भेटल तं की भेटल'के लेल देल गेलनि। एहि यादगार अवसरक किछु फोटोग्राफ एतए देखू।
Taranand Viyogi
Tuesday, July 20, 2010
।।मिथिलाक लेल एकटा शोकगीत।।
हमरे चेतनाक दोमट सॅ जनमल छल
ई छांहदार वृक्ष सभ,
जकर एक-एक डारि-पात काटि-काटि
हम अपना पशु-वर्ग कें खुआएल अछि।
राजा शिवसिंहक पगडी कें हम
लुंगी बना क’ पहिरल अछि अपन एकान्त मे।
अपन एकान्त मे हम
कहियो नहि सुन’ चाहलहुं अछि अपने अबाज।
मिथिला बिराजै तॅ छली
हमरा तन-मन मे संपृक्त
मुदा व्यसनी हम तेहन
जे अपने तन-मन खखोडि-खखोडि
समिधा जकां झोकलहुं अछि
बेहोशीक कुण्ड मे।
सौंसे पृथ्वी,सम्पूर्ण देश, समस्त समाज
हमर बेहोशीक केलक अछि अभ्यर्थना
मुदा विडम्बना एहि समयक
जे लटुआएल झूर-झमान मिथिला
हमरे अतमा मे थरथराइत रहल छथि
पीपरक पात जकां पूरे समय।
एहि भूमंडलीकृत समय मे
सभ क्यो क’ रहल अछि
हमर बेहोशीक अभ्यर्थना
जखन कि देखू---
अपने दुनू पएरक
सिन्दूराभिषिक्त अरिपन बना क’
टांगि जॅ लीतहुं कोठली मे चौबगली
तॅ सेहो बनि सकै छल
हमर जागरणक कारण।
Sunday, June 27, 2010
बाबा के शताब्दी जन्म-दिवस पर उनका स्मरण
बाबा के शताब्दी जन्म-दिवस पर उनका स्मरण
उनकी आदत थी कि अपने-आपको कभी गंभीरता से नहीं लेते थे। किसी नौजवान विद्यार्थी की तरह खुद को वर्तमान चुनौतियों की कसौटी पर कसते थे और जहां थोडी कमजोरी दिखी कि अपना ही मजाक जमकर उडाते थे। खुद को अद्यतन किए रहने की यह उनकी खास शैली थी।
उनकी संस्कृत कविताओं में से एक कविता ऐसी है, जहां वह थोडी देर को, स्वयं को जरा गंभीरता से लेते दीखते हैं।
मैथिली के एक बडे लेखक हैं-पं० गोविन्द झा। पटने में रहते हैं और पेशे से भाषाशास्त्री हैं। उनपर एक अभिनन्दन-ग्रंथ 1995 में निकला था। उसमें, उनके बारे में बाबा ने बडे ही प्यार और आदर से एक संस्कृत कविता लिखी थी। चार श्लोकों की उस कविता के अंत में बाबा ने यह पंक्ति जोड दी थी---
श्लोकचतुष्ट्यमलं रचितं श्री वैद्यनाथेन
यात्रीनाम्ना प्रथितं यस्य यशः को न जानाति।
त्रिभुवनविदिता मिथिला जनकनंदिनी यत्र संभूता
विख्यातोऽभूत् तत्रैव कविर्नागार्जुनो महान्।।
(ये चार श्लोक श्री वैद्यनाथ ने लिखे हैं, जो यात्री के नाम से प्रसिद्ध है और जिसका यश कौन नही जानता? जनकनंदिनी सीता जहां पैदा हुईं, वह मिथिला तो सारे संसार को विदित ही है। वहीं यह कवि भी पैदा हुआ,जिसे लोग महान कवि नागार्जुन के रूप में ख्याति प्रदान करते हैं।)
देखिए, बाबा के बारे में जो बात हमारे लिए सच है, जिस बात को हम कहते रहे हैं, जरा देर के लिए बाबा भी उस बात से राजी हो गए हैं। वाह बाबा, वाह।
Saturday, June 26, 2010
युवा मित्र कें पत्र
परम्परा आ लेखक
डॉ० तारानन्द वियोगी
अहां पुछलहुं अछि जे परम्पराक प्रति नवतुरिया लेखकक की रुख हेबाक चाही। हमर जबाव अछि जे अपन परम्पराक प्रति हमरा लोकनि मे आलोचनात्मक आस्था हेबाक चाही। प्राथमिक बात ई अछि जे आस्था हेबाक चाही। से आस्था केहन हेबाक चाही, से भिन्न बात थिक।
ई 'आस्था' शब्द बड व्यापक। सामान्यतः एकरा विश्वासक लगीच क' क' देखल जाइ छै। लोक कहितो अछि--आस्था-विश्वास। दुनू शब्द मे मुदा, बड अंतर। विश्वास तॅ लोक ओहुनो, विना कोनो कारणोक, क' सकैत अछि, करिते अछि। मुदा, 'आस्था'क लेल 'ज्ञान झाक योग पडब' आवश्यक। माने, बौद्धिक स्तर पर ओकरा प्रति अहां सजग होइऐक, तखन भेल--आस्था। अपन परम्पराक प्रति हमरा आस्था हेबाक चाही। से आस्था केहन, तॅ आलोचनात्मक। तात्पर्य जे नीक कें ग्रहण करबाक आ अधलाह कें त्याग करबाक बुद्धि आ साहस हमरालोकनि मे हेबाक चाही।
आधुनिक मैथिली साहित्यक जन्म कोना भेल? एकर उत्स के मूल प्रेरणा की छल? खोज कयला पर देखबै जे आरंभिक दशकक लेखक लोकनिक इष्ट छलनि--अपन परम्परा मे सुधार। एही दुआरे एहि युग कें सुधारवादी युग कहल गेलै। एकर मूल प्रेरक छल--भारतीय नवजागरण। भारतीय नवजागरणक जे प्रभाव मिथिला पर देखार रूप मे पडलै, तकरे हम 'मैथिली जागरण' कहैत छिऐक। एकरे बदौलत हमरा लोकनि कें आधुनिक मैथिली साहित्य प्राप्त भेल। प्रश्न अछि जे सुधार के जरूरति ककरो किएक पडैत छैक? पहिने सॅ जे परम्परा चलि आबि रहल अछि, ताहि मे जखन निघेंस वस्तु सभक मात्रा बढि जाइ छै, तखन सुधारक जरूरति पडैत अछि। ई निघेंस वस्तु सभ मृत आ गतिहत्या करैबला होइत अछि। एकरा देखार करब साहित्यक मूल दायित्व, एही प्रेरणा सॅ आधुनिक मैथिली साहित्यक आरम्भ भेल अछि। सुधारवादी साहित्यक चरम विकास हमरा लोकनि हरिमोहन झाक साहित्य मे देखैत छिऐक। निघेंस वस्तु सभ कें ओ सर्वाधिक त्वराक संग आ बेस निर्मम ढंग सॅ देखार केलनि, तें हुनकर साहित्य एतेक महत्वपूर्ण अछि। आगू चलि क' जबाना बदलि गेलै। सामाजिक सुधार भेलै। जबाना जे बदलैत अछि, ताहि मे साहित्योक अपन विलक्षण योगदान जरूर होइ छै। मुदा असल कारक होइत अछि--युग-प्रवृत्ति। युग-विशेषक जे ध्वनि होइ छै से तमाम माध्यम सभ सॅ एक्कहि संग अनुगूंजित होइ छै। एक जिम्मेदार लेखक सॅ ई आशा कएल जाइ छै जे ओ बदलैत युगक ध्वनि कें ठीक-ठीक अकानय, अखियास करए। पॉजीटिव आ निगेटिव तत्व सभ कें बेराबए। पॉजीटिव कें प्रोमोट करए आ निगेटिव के तर्कसंगत ढंग सॅ खंडन करए। दोसर एकटा रस्ता छै जे युगक पॉजीटिव ध्वनि मे जे सौन्दर्य, जे आदर्श निहित छै, तकरा अपन रचनाक माध्यम सं प्रकाश मे आनए। यात्रीजी यैह काज केलनि।
आगू चलि क' अपन साहित्य मे एकटा एहनो युग आएल, जखन परम्पराक सम्पूर्णतः निषेधक मांग कएल गेल। जतेक गतिहत समाज छल मिथिलाक, तकरा देखैत 'सामाजिक सुधार' कें ई लोकनि पर्याप्त नहि मानैत छलाह। हिनका लोकनिक मतें आवश्यकता छलै- सामाजिक परिवर्तन के। ई पीढी बहुत पढल-लिखल लोकक पीढी छल। ई लोकनि प्रश्न उठौलनि जे परम्परा माने की? एकटा सडल लहास, जाहि मे सुधारक आशा क्यो बताहे लोक क' सकैत अछि। परम्परा जॅ किछु थिक तॅ किछु सुविधाभोगी लोकक इच्छा-पूर्ति आ विलासक साधन थिक। ओ लोकनि कहलनि जे युगक संग चलबाक लेल सामाजिक परिवर्तन आवश्यक थिक। व्यापक समाजक हित एही सॅ सधि सकैत अछि। एहि पीढीक नेतृत्वकर्ता राजकमल चौधरी छला।
ध्यान सॅ जॅ अहां देखब तॅ पाएब जे बात ई बहुत उचित आ व्यावहारिक छल। कतेक डोज के दबाइ पडबाक चाही, ई एहि बात पर निर्भर करैत अछि जे रोग कतेक जडिआएल अछि। मिथिलाक रोग ततेक जडिआएल छल जे निषेधक मांग जरूरी छल। युगक संग चलबाक लेल अहां तैयार नहि छी, कारण जे बाप-ददा सॅ अहां कें बहुत मोह अछि। ई परम्पराक बचल रहबाक कोनो तर्क तॅ नहि भेलै। माने जे तर्कहीनता। परम्परावादी लोकनिक सब सं प्रधान तर्क थिक--तर्कहीनता। ओ लोकनि एही पर प्रहार केलनि। आब हमसब युगक समक्ष ठाढ छी तं अपन पूर्वज लोकनिक आशय कें बुझैत छी। निशां मे मातल समाजकें चेतेबाक लेल पूर्ण निषेधक नारा जरूरी छै। ओ लोकनि ठीक कहै छला। मुदा जुलुम बात जे हुनका लोकनिक रचना कें देखू तॅ परम्परा ओहूठाम विद्यमान भेटत। अपन सम्पूर्ण निहितार्थक संग। मुदा कमाल, जे ओ परम्पराक निषेध केलनि। बेसी की कहू, आशय पर जेबाक चाही। कथित शब्दे टाक ओझरा मे फॅसबा सॅ बचबाक चाही।
आब हमसब साहित्यक द्वार पर ठाढ छी आ कहै छी जे लेखक कें परम्पराक प्रति आलोचनात्मक आस्था सं परिपूर्ण हेबाक चाही। सुधारक फेज बीति चुकल अछि। आब सुधार कएल नहि जा सकैछ। निषेध सेहो उचित नहि थिक, कारण हमर परम्परा आइ मात्र परम्परा नहि रहल, हमर अस्तित्वक अस्मिता(identity)बनि गेल अछि। एहि भूमंडलीकृत आ बाजारवादी समय मे जॅ हमसब जीयब, आ अपन पहिचान ताकब तॅ से हमर परम्परा टा, सैह टा भ' सकैत अछि। आब परम्पराक निषेध नहि, ओकर पॉजीटिव तत्व सभक समाहार चाही हमरा, हमर अपन पहिचान प्रतिख्यापित करबाक लेल, सौंसे दुनियां मे। एहना स्थिति मे की करबाक चाही? नीक कें पकडबाक चाही, अधलाह कें छोडबाक चाही। विना कोनो मोहक। विना कोनो ममताक।
मुदा, प्रश्न अछि जे परम्परा माने कोन परम्परा? ध्यान सॅ देखबै तॅ पाएब जे परम्परा कौखन एकटा नहि होइ छै। सभ युग मे ई चलन रहल अछि जे एकटा जॅ मुख्यधाराक परम्परा, तॅ दोसर अवान्तर परम्परा अथवा अतःसलिला परम्परा। एकटा खिस्सा हमरा एहिठाम मोन पडैत अछि। खिस्सा थिक शान्तिनिकेतनक। गुरुदेव टैगोर के युगक। एकबेर की भेल जे आश्रम मे काज कर' बाली एक विधबा ब्राह्मणी युवती एक आन स्टाफ सॅ प्रेम करै छली। रवीन्द्रनाथ एहि प्रेम कें लक्ष्य करै छला। रवीन्द्रनाथ कें चिन्हैत छियनि? आधुनिक भारतीय साहित्यक ओ एहन अनुपम लेखक थिकाह, जिनका मे परम्परा, राष्ट्रीयता आ वैश्विकता--तीनूक तूलमतूल संतुलित विकास हमरा लोकनि कें भेटैत अछि। सही माने मे ओ एक 'भारतीय लेखक' छला। आ, से रवीन्द्रनाथ शुद्ध हृदय सॅ चाहै छला जे जॅ संभव हो तॅ एहि दुनूक विवाह भ' जेबाक चाही। मुदा संकट ई जे ब्राह्मण-समाज मे विधवा-विवाह मान्य नहि। व्यवस्था जॅ क्यो देताह, तॅ से क्यो पंडिते। गुरुदेव आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कें बजौलनि। हजारी बाबू महान लेखक तॅ छलाहे, तकरा संग-संग बड भारी ज्योतिषी सेहो छला आ 'पंडितजी'क नामें मशहूर छला। गुरुदेव पुछलखिन--विधवा-विवाहक संबंध मे अपन परम्परा की कहैत अछि? पंडितजी शास्त्र सभक अवलोकन केलनि आ जा क' कहलखिन--शास्त्र आज्ञा नहि दैए। गुरुदेव मुदा, बहुत सहानुभूतिपूर्ण छला। बजला--पंडितजी, कोन परम्परा आज्ञा नहि दैए? अहां तॅ कोनो एक परम्पराक बात बात कहैत छी। सभ परम्पराक तॅ अपन-अपन मान्य आचार्य सभ छथि। हम ई कोना कहि सकै छी जे एक परम्पराक आचार्य हमर आदरणीय आ दोसर परम्पराक आचार्य निषेध्य? कने देखि क' कहू जे दोसर परम्परा की कहैए? अगिला दिन हजारी बाबू दोसर-दोसर परम्पराक आचार्य लोकनिक मतक परायण केलनि आ गुरुदेव कें जा क' कहलखिन जे दोसर परम्परा विधवा-विवाहक अनुमति दैए। गुरुदेव कें मानवताक हित मे आ युग-धर्मक अनुरूप जे करबाक छलनि, तकर रस्ता भेटि गेल छलनि।
हमरा लोकनि कें एतबा बुद्धिमान आ विवेकपूर्ण हेबाक चाही जे अपना ओतक समस्त परम्परा हमरा अपन परम्परा बुझना जाय। ब्राह्मण हएब, आ कि ब्राह्मण नहि हएब हमर बिलकुल निजी मामिला थिक। तहिना, जेना हम राति कें पैजामा पहिरि क' सुतै छी कि लुंगी पहिरि क', ई हमर निजी मामिला छी। युगधर्मक उपेक्षा नहि करबाक चाही। दुनू परम्परा हमर अपने परम्परा थिक। कट्टर सनातनी हेबाक जे थोडेक हानि सभ छैक, तकरा सॅ आब हमरा लोकनि कें मुक्त हेबाक चाही, ई बात जखन हम कहै छी तॅ किछु लोक हमरा विरोधी बुझैत छथि। मुदा ताहि डर सॅ की हम ई बात कहब छोडि दी जे एकैसम शताब्दीक एहि संश्लिष्ट युग मे हमरा लोकनि कें टिकल रहबाक लेल कोन रणनीति विधेय थिक। दुनू परम्परा हमर अपन परम्परा थिक, जे हमरा युगानुरूप समायोजन लेल पॉजीटिव सजेस्ट करय, से ताहिकाल हमरा लेल विधेय थिक। मिथिलाक समन्वित परम्पराक हम अन्वेषी थिकहुं। सौंसे मिथिला हमर अपन मिथिला थिक। हमर जे समन्वित परम्परा अछि, तकर संरक्षण आ विकासक वास्ते हमरा अग्रसर हेबाक अछि। से आलोचनात्मक आस्था राखि क'। हमरा लोकनि जॅ समाजक जागरूक वर्ग छी, तॅ हमर यैह कर्तव्य थिक।
एखन चहुंदिस उत्तर-आधुनिकता (post modernism) के खूब हल्ला मचल छै। कहियो अखियास केलियैए जे ई कोन चीज थिक आ एकर दार्शनिक आधार-भित्ति की छिऐक? हम तॅ सनातन सॅ चलि आबि रहल काल-प्रवाह कें देखै छी तॅ लगैए जे ई दुनियां लगातार वर्ग-न्याय दिस बढि रहल अछि। पहिने सामंतवादक युग छल। थोडेक लोक ऐश्वर्य-मदमत्त छला आ बहुसंख्यक लोक न्याय सं बंचित छल। युग बदलल तॅ तखन आधुनिकता आएल। एहि बहुसंख्यक न्याय-बंचित लोक मे सॅ थोडेक कें न्याय भेटलैक। मुदा की सभ कें भेटि सकलैक? जतेक लोक आबो न्याय-बंचित रहि गेला, तिनका अहां 'बहुसंख्यक' सॅ कम की कहबै? आधुनिकताक तॅ सेहो अपन जटिलता छै। लोकतंत्री शासन आ व्यवसाय-मुखी विज्ञान नित्त एकर जटिलता बढौने जाइत अछि। तात्पर्य जे आधुनिकता सॅ सेहो समस्त मनुक्ख कें न्याय नहि भेटि सकलैक। एम्हर आबि युग-प्रवृत्ति देखैत छी जे जे कोनो वर्ग वा समूह आधुनिकताक मुख्यधारा मे नहि आबि सकल, छूटल-पिछडल रहि गेल, से सभ अपनहि कें अपन केन्द्र मानि, अपन अस्तित्व सॅ अपनहि संतुष्ट होइत, अपन दाबीदारी ठोकि देलक। दाबीदारी कथीक लेल? आन कथूक लेल नहि। मात्र एही लेल जे अहांक सर्टिफिकेटक खगता हमरा नहि अछि। अहांक नीक कहने ने हम नीक आ खराब कहने ने हम खराब भ ' सकैत छी। हम जे छी, जेहन छी, स्वयं मे पूर्ण आ महत्वपूर्ण छी। एक तरहक स्वयंभू आत्मविश्वास एकरा अहां कहि सकै छिऐक। सौंसे दुनियां मे, सभ देश, सभ बंचित समुदाय मे आइ ई प्रवृत्ति देखल जा रहल छै। ई स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श आदि-आदि की थिक? क्षरणशील पर्यावरणक चिन्ता, विलुप्त होइत जीवजन्तु-वनस्पतिक चिन्ता, अप्पन जडि कें चिन्हबाक चिन्ता-- ई सभ की थिक? आजुक युगक प्रवृत्ति थिक। आधुनिकताक विफलताक पश्चात जे प्रतिक्रिया सभ सौंसे दुनियां मे भेल अछि, ई तकर देन थिक। मुक्त बाजार एकरा अपना लेल नीक बुझैए, से एक बात। दोसर दिस मार्क्सवाद एकरा शंकालुताक दृष्टियें देखि रहल अछि। कारण, एहि बात मे ओकरा संदेह बुझाइत छै जे एहि बाट पर चलने बंचित समुदाय अपना लेल न्याय प्राप्त क' सकत। अस्तु, एहि पॉजीटिव-निगेटिव के तसफिया चिन्तक लोकनि अपन करथु। युग-प्रवृत्ति तॅ जे थिक, से थिक।
स्त्री-विमर्शेक प्रसंग कें लिय'। मिथिलाक गामो घर मे आइ अहां देखबै जे अहां छोट उमेर मे बेटीक बियाह करियौ तॅ स्वयं बेटिये अहांक प्रबल विरोधी भ' क' ठाढ भ' जाएत। कहुना ठकि-फुसिया क' जॅ अधलाह वर संग बियाह कराब' लगियौ तॅ मडबा पर सॅ भागि पडाएत। अनजाति संग बियाह करबाक दंडस्वरूप जॅ ओकरा चांप चढा क' मारि दियौ तॅ पुलिस-कचहरी तॅ छोडू, सौंसे दुनियांक समाज तेना क' क' अहांक दुश्मन भ' जाएत जे लाख घूस-पेंच लगाइयो क' बचि नहि सकब। एखन निरुपमा पाठकक हत्या-काण्ड मे यैह तॅ भेल अछि।
एहना स्थिति मे लेखकक की दायित्व थिक? पहिने तॅ अहां पॉजीटिव-निगेटिव के निर्णय करू। आ, अहांक जे समन्वित परम्परा अछि, तकरा संग युगक पॉजीटिव ध्वनि कें जोडू। युगक मोताबिक जकर औचित्य बनैत होइक, तकरा अपन समर्थन दियौ। रचनात्मक लेखन (creative writing) मे ओकरा उतारू जे अहांक समाज एहि युगक संग कोन तरहें समायोजन बैसा सकैत अछि। की अहां कें बूझल अछि, यात्रीजी 'लिव-इन-रिलेशनशिप' के समर्थन केने छलखिन। आ, नवतुरिया लेखक लोकनि सॅ अपील सेहो केने छलखिन जे एकर सकारात्मक पक्ष पर ओ लोकनि कथादि लिखथु। मुदा, मैथिलीक ई दोसर पहलू सेहो देखू जे हमर चुनौटा मंचीय हास्यकवि, जनक जी महाराज जान-प्राण अडपि क' स्त्री-विमर्शक विरोध करैत छथि, जागरूक होइत स्त्रीक एक सॅ एक हास्यास्पद आ वीभत्स वर्णन क' क' पुरुख श्रोता लोकनि कें हॅसी लगबैत छथि। स्त्री लोकनि एहि पर की सोचैत हेती? अहां पुरुख छी तॅ स्त्रीक निन्दा तॅ करबे करबै। युग-युग सॅ करैत एलियैए। सोचू, एहि तरहें एकभग्गू भ' क' चलने की हम अपन घरोक रक्षा क' सकब? समाजक रक्षाक तॅ बाते छोडू। हम तॅ बन्धु, यैह कहब जे युग-प्रवृत्ति सॅ आंखि मूनि क' हमरालोकनि युगक सामना नहि क' सकैत छी।
अपन परम्पराक प्रति दृष्टिकोण कें हमरा लोकनि आलोचनात्मक कोना बनौने राखि सकैत छी, तकर एक बहुत सटीक दृष्टान्त एखन हाल मे सामने आएल अछि। ई पं० गोविन्द झाक नवीनतम शोधक परिणाम थिक। पं० गोविन्द झा कें अहां 'चिन्है' छियनि? ओ आयुवृद्ध भने होथु, मुदा कोनो युवे-सन ओजस्वी-तेजस्वी छथि। उत्साह आ उत्सुकता सॅ एकदम भरल-पुरल छथि, जे हुनका सदति नव-नव संधान-अनुसंधान लेल प्रेरित करैत रहैत छनि। ओ विद्यापति-साहित्यक विशेषज्ञ छथि। हमरा मोन पडैए, आचार्य रमानाथ झा भारी मन सॅ कतहु लिखने छथिन जे विद्यापतिक विशेषज्ञ, समूचा संसार मे आब एक हमही टा बचि गेल छी, आन ककरो मे तकर प्रवृत्तियो नहि देखैत छिऐक। मैथिलीक सौभाग्य जे हुनका बादो, आइयो पं० गोविन्द झा-सन अनुसंधानी पुरुष हमरा लोकनिक बीच छथि। पंडित जीक एक नव पोथी एहि बीच बहार भेलनि अछि--'अनुचिन्तन'। एहि पोथी मे एक लेख अछि--'विद्यापतिक प्रसंग'। एहि लेख मे ओ विद्यापति-गीतक मादे अपन नवीनतम शोधक किछु निष्कर्ष प्रस्तुत केलनि अछि।
हमरा लोकनि अवगत छी जे विद्यापति-गीतक छव गोट प्राचीन स्रोत अछि--रामभद्रपुर तालपत्र, नेपाल तालपत्र, तरौनी तालपत्र, भाषागीत-संग्रह, रागतरंगिणी आ हरगौरी-विवाह। हमरा लोकनि एहू बात सॅ अवगत छी जे मध्यकालीन मिथिला मे दर्जनो एहन ज्ञात-अज्ञात-अल्पज्ञात कविलोकनि भेला जे गीत-रचना केलनि। बाद मे हुनको लोकनिक गीत जे भेटल तॅ ताहि मे 'भनहि विद्यापति'क भनिता जोडल अथवा विद्यापतियेक गीत-रचनाक रूप मे प्रसिद्धि-प्राप्त। हमरा लोकनिक परम्परा गौरवपूर्वक स्वीकार केलक जे ई सबटा गीत विद्यापतियेक छियनि। तखन, आब? आलोचनात्मक आस्था जॅ हो तॅ तकर मांग थिक जे हमर विशेषज्ञ लोकनि निर्णय करथु जे सत्य की थिक। पंडित जी सैह केलनि अछि। विद्यापति-गीतक निर्लेप पहिचान देखार करबाक लेल ओ एक कसौटी बनौलनि अछि। विद्यापतिक निर्विवाद प्राचीन गीत सभक तुलना मे अन्यान्य गीतक विश्लेषण जॅ ( 1)भाषा (2 )शब्द (3 )शैली (4 )अन्त्यानुप्रास (5 )भनिता मे पुनरुक्ति (6 )भाव (7 )आ, महाभाव-- एहि सभक आधार पर कएल जाय, तॅ ठीक-ठीक निष्कर्ष निकालल जा सकैए जे कोन गीत विद्यापतिक थिक कोन नहि। पंडित जी सैह केलनि अछि। हुनक अनेक निष्कर्ष (कुल 48 सुप्रसिद्ध गीत कें ओ विद्यापति सॅ भिन्न कविक रचना मानलनि अछि) सभ मे सॅ एक निष्कर्ष ई थिक जे 'जय जय भैरवि' विद्यापतिक गीत-रचना नहि थिक। तखन, आब? जानिते छी जे ई गीत मिथिला मे राष्ट्र-गीतक गौरव-गरिमा हासिल क' लेने अछि। एकरा लोक तेना क' विद्यापतिक गीत मानि लेलक अछि जे सपनो मे नहि सोचि सकैछ जे ई विद्यापतिक गीत नहियो भ' सकैत अछि। प्रायः एही परिस्थिति कें गमैत, पंडित जी अपन लेख मे ईहो विनम्र वचन जोडलनि--'प्रथमदृष्ट्या तॅ इएह प्रतीत होइत अछि जे ई गीतसभ विद्यापतिक रचना नहि भए सकैत अछि। परन्तु हमरा से कहबाक साहस नहि होइत अछि किएक तॅ सम्भवतः हमरा छाडि प्रायः सभ कें प्रगाढ विश्वास छनि जे ई गीत विद्यापतिक रचल थिक। विश्वासे नहि, सभ कें एहि गीतसभ पर प्रगाढ आस्था सेहो छनि। हम कथमपि नहि चाहब जे कनिको आस्था पर चोट पडय।'
पंडित जी कें कहबाक साहसो भेलनि अछि आ हमरा लोकनिक आस्था पर चोटो नहि पडल अछि। कारण, मात्र आस्था नहि, हमरा लोकनि अपन परम्पराक प्रति आलोचनात्मक आस्था रखैत छी। जे सत्य थिक, से तॅ अन्ततः सत्य थिक। आ, ओकर अपन लाभो तॅ छै। आइ धरि दुनिया कहैत छल--मिथिला कें विद्यापति छोडि क' आर की छै? पद्धतिबद्ध ढंग सॅ उद्घाटित सत्य दुनिया कें जवाब द' सकैत अछि जे मध्यकालो मे, एक विद्यापतिये नहि, मिथिला कें बहुत किछु छलैक।
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Sunday, June 6, 2010
।।विद्यापतिक डीह पर।।
तारानंद वियोगी
गाम छल सूतल, सगर तम व्याप्त देखलहुँ
दांव सुतरक फेर मे जन आप्त देखलहुँ
नहि छलै कत्तहु कोनो उत्साह, उद्यम
नहि छलै निज मातृभूमिक लेल स्पन्दन
एक दिस पाथर बनल कविगुरु छला थिर
एक दिस छल भांग के जंगल अनस्थिर
डीह पर छल गेट, गेटक बन्न छल मुँह
लोक सब कहलनि--कतय के ई थिका,उँह
कविगुरुक ओ ओज कत्तहु नहि बचल छल
जतहि देखू ततहि नेतागिरि मचल छल
चुप छली ओ भगवती घन घुँघुँरु वाली
मन्दिरक पीडी ओगरने कत सवाली
गाछ बडका ठाठ सं मस्ती करै छल
गाछ तरके दूभि बे-हालेँ मरै छल
जे छला जत्तहि, ततय कुंडलि लगौने
जागि क्यो सकला कहू कविगुरु, जगौने
गुम्म भ' क' राधिका चिन्ता करै छलि
आर, एखनो कृष्ण ले' जीबै-मरै छलि
कृष्ण, जे कमब' गेला पंजाब-बम्बै
ओतहि बुडला, राधिका अहँ कते कनबै
पाथरक कविगुरु छला चुप, नगर छल गुम
हम कही जे एना सब किछु किए गुमसुम
आ कि तखने 'जयति जय भैरवि' गुँजल छल
जागतै ई डीह कहियो, से गुनल छल।
के कहत, ई स्वप्न छल कि वास्तविकता
ई कथा की आगुओ क्यो आन लिखता?
Monday, May 31, 2010
प्रभात झा
की हौ नेता चलल हेतौ तोरा ओहि बियाबान मे?
देखाइत छौ तोरा मनुख अन्हार मे?
तेज़ रौशनी के आदत हेतौ ने?
सुझैत छौ ओ मनुख जे पतंगा जकां निर्भर अछि
गाछ, पात, पशु, पक्षी पर?
जीवन मे कखनौं गेलह हे ओहि दीस?
सोचलहक हे केना हेतै ओकर जीवन निरबाह
बिना अइ सबहक?
कोंन अधिकारे हम पुछैत छी ई प्रश्न?
केना छी हम ओहि लोकक आवाज़?
की ओकरा सब द' नै बाजिब छइ बाजब?
किया टिपइ छी बीच मे अनेरो?
अधिकार की अछि हमर?
लेकिन की करी?
कोना चुप रही?
किछु त' बाजब?
कोइ त' बाजत?
ओ नै त' हम सही,
हम नै त कोइ और सही.
Tuesday, April 27, 2010
सब धन बाइस पसेरी बाबा
तारानंद वियोगी
की जल्दी की देरी बाबा
सब धन बाइस पसेरी बाबा
राजा-नाम सु-राजा जानू
देसक नाम नशेडी बाबा
साधू चोर, गिरहकट नायक
चोरी, तुम्माफेरी बाबा
नेता छी ई, माया बुझियौ
नै तेरी, नै मेरी बाबा
थोक-भाव सं देखू सपना
टूटत बेरा-बेरी बाबा
Thursday, April 15, 2010
जोगीलालक कविता
जोगीलालक कविता
तारानन्द वियोगी
।। घर ।।
कतय अछि हमर घर??
जतय अछि
ततय बस डेरा ,
जतय अछि
ततय बस मकान ;
लोके लोक,समाने समान।
एक इच्छा बामा
एक इच्छा दहिना
जोताल रह रे मन जोतल रह
कि कंक्रीट तर मे गोंतल रह।
घर अछि जं हमर सपना
तं से तोरो सपना हेतह ;
हौ बाबू जोगीलाल
ई सपना कहिया आकार लेतह??
हम तं अपने घर मे बौआइ छी
अपने घरक लेल ;
कने जांचि लैह
जे तोरा घर सं तोहर घर
कतेक खाइ छह मेल ।।
।। स्त्रीक दुनिञा ।।
स्त्रीक एक दुनिञा
ओकरा भीतर।
एक दुनिञा ओकरा बाहर।
भीतर---
किसिम किसिम के
फूल फुलबाडी ;
बाहर---
एक एक डेग
संकट सं भारी।
भीतर---
एकटा राधा अछि
एकटा कन्हैया अछि ;
बाहर---
जनक छथि लाचार
आ राम निरदैया अछि।
हौ बाबू जोगीलाल
स्त्री कें बुझिहह
तं ठीक एही तरहें बुझिहह---
तोरा जकां एक दुनिञा कहियो
नै हेतै ओकर ;
जे ओकरा ले' ठमकि क' चलतै
से हेतै ओकर।
स्त्री जं रहती सृष्टि मे
तं बस एहिना रहती ;
से चाहे तोरा सं किछु
कहती, नै कहती।
॥ ककरा लेल लिखै छी ॥
जै काल मे लिखै छी
मुलुकक रहै छी आनन्दित।
लिखळ जखन भ' जाइए
होइए जे बडका काज केलहुंए।
पढै छी जखन सद्यः लिखलका कें
तं बड तोष होइए जे चलह
धरतीक अन्न-तीमन खेलियै
तं ओकरा लेल काजो किछु केलियै।
बाद मे फेर जं कहियो पढै लिखलका कें
तं भारी अचरज मे पडै छी अपने
--अरे, ई बात हम लिखलियै? हम?
--ई तं बहुत जीवन्त बात लिखि सकलियै...
अइ आत्मबोध सं जे भीतर ऊर्जा खदबदाइए
से फेर सृजन करबाक लेल
हृदय सुगबुगाइए..
तों जुनि दुखी हुअह हौ बाबू जोगीलाल,
हम तं जते बेर सोचै छी
यैह बात पाबै छी
जे अपने लेल अपने
कलम उठाबै छी।
।। मृतक-सम्मान ।।
जीवित पिता कें पानियो ने देलह
मरल पर उपछै छह पानि
घर मे बुढिया़ हकन्न कनै छह
कोना भेटै छह सुख-चैन?
हौ भाइ जोगीलाल
नान्हिटाक जिनगी छह
एना कहिया धरि करबह?
हौ, ई दुनिञा ओही दिन नहि मरि जेतै
जहिया तूं मरबह....
(ई कविता मैथिलीक आन्तरिक साहित्यिक राजनीतिक बारे मे लिखल गेल अछि। एतय "बुढिया" मैथिली कें कहल गेल छै)
Monday, March 29, 2010
नागार्जुन की संस्कृत कविता
इधर जो मैंने पढा
.
नागार्जुन की संस्कृत कविता
तारानन्द वियोगी
जाननेवाले जानते हैं कि नागार्जुन ने हिन्दी, मैथिली और बंगला के साथ-साथ संस्कृत में भी कविताएं लिखीं। अपनी तरुणाई और युवावस्था में उन्होंने जैसा परिवेश, जैसा वातावरण पाया था उसमें कविताई की कसौटी संस्कृत में लिखना थी। संस्कृत मे लिखने के लिए ही प्रोत्साहन था और यश भी वहीं था। कविताभ्यास के तौर पर जो उन्होंने समस्या-पूर्ति के सैकडो छन्द लिखे थे,आज अगर वे उपलब्ध होते तो हम उनकी ऊंची उडानें देख सकते थे। उनके मुंह से कई लोगों ने सप्रसंग ये छन्द सुने होंगे। मैंने भी सुने हैं। लेकिन अब ये कविताएं उपलब्ध नहीं हैं। उनकी रचनावली में संस्कृत की केवल १८ कविताएं संकलित हैं। लेकिन देखनेवाले देख सकते हैं कि इतनी ही कविताएं उनके काव्य-स्वभाव और सौन्दर्य-दृष्टि की लगभग पूरी कहानी कह जाते हैं।
संस्कृत में काव्य-रचना की प्रेरणा उन्हे अपने संस्कृतमय वातावरण से मिली थी। संस्कृत-साहित्य का विधिवत अध्ययन उन्होंने पाठशालाओं में और मर्मज्ञों के सत्संग में किया था।कविता से मिथिला का रिश्ता बहुत पुराना रहा है। यहां हम देखते हैं कि शुष्क-निर्मम तर्कशास्त्रियों ने भी एक-से-एक सुन्दर कविताएं रची हैं जिनका आस्वाद संस्कृतज्ञों की टोली में मुखामुखी लेने का रिवाज आजतक रहा है। दूसरे हम यह भी देखते हैं कि एक ही साथ कई भाषाओं में काव्य-रचना को यहां विशिष्टता का दरजा प्राप्त है। विविध भाषा-ज्ञान की यहां बडी प्रशंसा रही है, साथ ही यह भी माना जाता रहा है कि किसी भाषा-ज्ञान की इयत्ता तभी प्रमाणित होती है अगर उसमें कविता की रचना की गई हो,और वह भी ऐसी, जिसे सराहे जाने योग्य पाया गया हो। हम देखते हैं कि ज्योतिरीश्वर ने भी कई भाषाओं में लिखा और विद्यापति ने भी। तीसरे, यह कि मुक्तक-कविता का बोलबाला मिथिला मे सदा से रहा है।और यहां 'मुक्तक कविता' का अर्थ ही है-- लीक से हटकर चलना, चीजों को थोडे अलग नजरिये से कुछ इस तरह देखना कि परंपरावादियों को, सत्ताधारियों को वह जरा उकडू लगे। ग्यारहवीं सदी में कर्णाटशासन के महामंत्री श्रीधरदास ने 'सदुक्ति-कर्णामृत' नाम से मुक्तकों का एक विशाल संग्रह तैयार किया था। अब यह साहित्य अकादमी से प्रकाशित है। मिथिला की कविताई का अंदाज हमें इसमें भी दिख जाता है।चौदहवीं सदी के ज्योतिरीश्वर की कविता देखें या सोलहवीं सदी के शंकर मिश्र की देख लें, मिथिला की मुक्तक-परंपरा का एक ठोस चेहरा हमारे सामने उभरकर आता है।
नागार्जुन नेअपनी लोकमुखी परम्परा से बहुत सारी चीजें लीं और उनमें उल्लेखनीय रूप से बहुत सारी नई चीजें जोडीं। अपनी एक कविता 'वाग्विभूतिः' में अपनी कविताई का चेहरा चीन्हाते हुए वह कहते हैं--मंगल की कामना से उपजे क्रोध से यह उत्पन्न हुइ है, विक्षोभ का उद्रेक ही इसका रूप है और स्वभाव इसका ऐसा है कि निद्रा को यह चीड-फाड डाले। निश्चय ही यह एक नई चीज है और प्रगतिशील संस्कृत काव्य-परंपरा में नए आयाम जोडती है।
और इसी कविता में, कुछ इस अंदाज में कि 'मैं तो ऐसा ही हूं' वह कहते हैं कि मेरा मनोघोटक (मनरूपी घोडा) इसी छान्दसी वाग्विभूति के रस में पगा हुआ बगैर किसी दीनता तथा भ्रान्ति के समूची पृथ्वी पर विचरण करता है। यहां 'समूची पृथ्वी' थोडे गहरे अर्थों मे है। यह केवल भूमि या क्षेत्र का ही विस्तार नहीं है, विषयों, सरोकारों और सम्बन्ध-बन्ध का भी विस्तार है। यह दरअसल नागार्जुन का स्वभाव है, जिसके विरुद्ध वह कभी जा नहीं सके। सबको जोडना, सबतक पहुचना। इसीलिए उनकी कविताऔं में स्थूल रूप से भी हमें विस्तार दीखता है। यह विस्तार केवल रूप का ही नहीं, भाव का भी और विचार का भी।
अपनी एक कविता 'गोविन्दाय नमो नमः' में शायद पहली बार और शायद आखिरी बार भी उन्होनें अपने आपको गम्भीरता से लेते हुए कहा है कि यात्री नागार्जुन नामधारी इस प्रथितयश कवि को कौन नहीं जानता--'यात्रीनाम्ना प्रथितं यस्य यशः को न जानाति'--तो यह सच ही कहा है। अवश्य ही वह उन भाग्यशाली कवियों में से हैं जिनकी कविता दूर-दूर तक पहुंची, यानी कि हाशिये पर खडे उस अन्तिम आदमी तक, जिसको केन्द्रविन्दु रखकर वह कविताई करते थे।
संस्कृत में लिखी नागार्जुन की कविताएं विविध विषयों तथा भावभूमियों पर हैं। प्रकृति का गहरा रंग तो इनमें दीखता ही है, वे तमाम चीजें भी इनमें साफ झलकती हैं, जिनके लिए वे मशहूर हैं। एक तो उनकी राजनीतिक कविताई,जिसके लिए वह कहा करते थे कि प्रतिहिंसा ही उनका स्थायीभाव है, दूसरे आमजन से गहरा सरोकार,जिनसे वह अपने आपको आबद्ध,संबद्ध और प्रतिबद्ध बताते थे। नागार्जुन को ऐसे लोग हमेशा प्रिय रहे जो संघर्षधर्मा थे और जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कुछ सृजनात्मक करने की कोशिश की। अपने ऐसे कुछ समकालीनों पर उन्होंने लिखा है। इसी प्रकार के मिथकपुरुष महामुनि अगस्त्य पर भी उनकी कविता है। फिर, काफी विस्तार में जाकर उन्होंने युगपुरुष लेनिन पर लिखा है। फिर, उनकी कविता अपने प्रिय देश भारत के माहात्म्य पर भी है। कुल मिलाकर 'बीज में बरगद' वाली बात इस छोटे-से संकलन में हमें चरितार्थ हुई दीखती है।
राजनीतिक कविता नागार्जुन की खास पहचान रही है। राजनीति के दो रूपों पर अलग-अलग उन्होंने कविताएं लिखीं हैं। एक रूप है, जो जनविरोधी है,जनता के हितों और सरोकारों की न उसे कोई खबर, न कोई चिन्ता है। नागार्जुन सदैव इसके विरुद्ध जाते हैं। दूसरा रूप जनपक्ष से जुडा है। अवश्य ही इसमें भी उनकी अपनी शर्तें हैं पर कुल मिलाकर इसके प्रति उनमें प्रशंसा का भाव है। संस्कृत की दो कविताओं--'हिंसा-महिमा' तथा लेनिन-स्तोत्रम्' में राजनीति के इन दो रूपों पर अलग-अलग उनकी प्रतिक्रिया का आकलन किया जा सकता है।
'लेनिन-स्तोत्रम्' संस्कृत की उनकी सर्वाधिक लंबी कविता है जो कि लेनिन के प्रति उनकी श्रद्धा के अनुरूप ही है। २५ श्लोकों मे यहां उन्होंने लेनिन की पृष्ठभूमि,उनकी विचारधारा,उनके कृत्य,उनके अवदान तथा उनके यश का वर्णन किया है।अपनी रूस-यात्रा के क्रम में कवि क्रेमलिन का प्रासाद देखने जाता है, जहां वह स्फटिक की बनी शवाधानी में लेनिन का शव देखता है। लेनिन की आंखों में झांकते हुए उसे यह अहसास होता है कि वे (आंखें) इतनी भास्वर हैं कि किसी सोए हुए आदमी की आंखें हो ही नहीं सकतीं। इसी अहसास से इस कविता का जन्म हुआ है। यहां नागार्जुन कार्ल मार्क्स को 'मुनियों में सर्वश्रेष्ठ मुनि' कहते हैं और बताते हैं कि लेनिन उनके प्रथम शिष्य हुए और उन्होंने ही उनके विचारों को परम सिद्धि तक पहुंचा दिया। वह कहते हैं कि क्यूबा,अंगोला,वियतनाम आदि देशों में लेनिन का नाम दीप्त है और पृथ्वी के नगरों,ग्रामों,सिकता,हिमानी,वनप्रान्तरों में विराजमान वह, समकालीन मनुष्यों के मन,वचन और कर्म में शामिल होकर विश्वात्मा बन चुके हैं। वह पूछते हैं कि जब इतना है तो क्या इस पुण्यश्लोक की गाथा अन्तरिक्ष में और अन्यान्य ग्रहों पर भी नही गूंज रही होगी?
जार के साथ हुए युद्ध के वर्णन में वह पुराने मुहाबरे को आजमाते हैं और अपेक्षा के अनुरूप ही उसमें एक नई चमक पैदा कर देते हैं।वह कहते हैं--
गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः।
जार-लेनिनयोर्युद्धं जार-लेनिनयोरिव।।
(आकाश किसके समान है? उसकी उपमा किससे दी जाए? किसी से नहीं। और कौन है वैसा? कहना होगा कि आकाश आकाश के ही समान है। यही बात सागर के साथ लागू होती है और ठीक यही बात उस अनुपम युद्ध के साथ भी लागू होती है जो जार और लेनिन के बीच हुआ था।)
इस कविता में हमें नए विषय-क्षेत्र की तलाश तो दीखती ही है, यथार्थ को साफ-साफ परिभाषित करने की कोशिश भी है । यह विशेषता हमें उनकी अन्यान्य संस्कृत कविताओं में भी दिखाई देती है। यही कारण है कि परंपरागत कवियों की तरह अलंकारवादी शैली को न अपनाकर उन्होंने यथार्थवादी शैली का सहारा लिया। बडे ही सरल शब्दों में बगैर किसी तामझाम के, विना किसी छान्दस जटिलता के, तथ्यों और भावनाओं को उपस्थापित कर देना--निश्चय ही समकालीन संस्कृत कविता के क्षेत्र में नागार्जुन की पहल है। ऊपर से उनकी खूबी यह कि आम कवियों की तरह वह भावुक कवि नहीं हैं, तर्क की कसौटी पर भी उनके आकलन कभी असंगत सिद्ध नहीं होते। 'लेनिन-स्तोत्रम्' को ही लें। आम पाठक को यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि उस राजनेता में आखिर क्या ऐसी खूबी है कि नागार्जुन उनके गुण गाते नहीं अघाते। यह तो उन्हें बताना चाहिए कि ऐसा क्या था कि वह उनकी अभ्यर्थना में वह स्तोत्र की रचना कर रहे हैं। नागार्जुन बताते हैं। लेनिन की व्यवस्था-वर्णन के क्रम में एक श्लोक आता है--
दरिद्रा लुंठिता भीता ध्वस्तप्रज्ञा निरक्षराः ।
त्वयानुशिष्टास्ते सर्वे स्वयं शासकतां गताः ।।
स्पष्ट है कि ये सारे विशेषण सर्वहारा के लिए प्रयुक्त हुए हैं। दरिद्र,लुंठित,भीत के साथ-साथ वह उसे 'ध्वस्त-प्रज्ञ' भी कहते हैं। जरा इस शब्द पर गौर करें। हित और अहित, सद् और असद् का निर्णय कर सकने में समर्थ बुद्धि को सामान्यतः प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा की पराकाष्ठा है--'स्थितप्रज्ञ' होना, जिसका गीता में बडा गुण गाया गया है। और, दूसरी ओर स्थितप्रज्ञ के बिल्कुल दूसरे ध्रुव पर खडा शब्द है--ध्वस्तप्रज्ञ। 'उसकी प्रज्ञा ध्वस्त हो चुकी थी' कहते हुए नागार्जुन दरअसल बताना यह चाहते हैं कि उसे अपने दुश्मन तक की भी सही पहचान नहीं थी। और सबसे दिलचस्प तो यह कि एक ध्रुव पर ध्वस्तप्रज्ञता की यह दुर्गत अवस्था और दूसरी ओर उन सबको इस गौरवशाली ऊंचाई तक ले चलना कि वे स्वयंशासकता की स्थिति में आ जाएं।इसे सम्पन्न कर सके थे लेनिन। अतः वह अभ्यर्थना के योग्य हैं क्योंकि यही अन्ततः कवि की अभीप्सित राजनीति है।
लेकिन,राजनीति का एक दूसरा रूप भी है जो अधिक प्रचलित है। इसमें तमाम सारे तामझाम होते हैं, नहीं होता तो बस वह सरोकार जो आमजन के लिए इसे काम्य बनाता है। यह राजनीति व्यक्ति-केन्द्रित होती है। धीरे-धीरे एक थेथर किस्म की निर्लज्जता इसमें घर करती जाती है, छिपकर घी पीने के लिए कंबल की जरूरत खत्म होती जाती है, बाद को छिपने की भी जरूरत नहीं रह जाती। विरोध हो तो उसे अनसुना किया जाता है। फिर भी विरोध कायम रहे तो उसे कुचल दिया जाता है। तानाशाही की यह राजनीति दुर्बल रहे तब भी, और सबल रहे तब तो और भी, क्या चेहरा अख्तियार करती है, इसका बहुत ही प्रामाणिक चित्र हमे नागार्जुन की कविताओं में मिलता है। इसकी सबलता के कारनामों पर उन्होंने एक-से-एक जबर्दस्त कविताएं लिखीं। ऐसी अधिकांश कविताएं आपातकाल के दौरान और उसके तुरंत बाद लिखी गईं। ये हिन्दी में तो हैं ही, मैथिली में भी हैं और संस्कृत में भी। अपनी हिन्दी कविता की नायिका 'हिटलर की नानी' को वह संस्कृत में 'हिंसा देवी' कहते हैं। उसकी अभ्यर्थना मे उन्होंने 'हिंसा-महिमा' लिखी है।
'हिंसा-महिमा' काफी लोकप्रिय कविता रही है। इसमें उन्होंने हिंसा देवी को 'महाकाल का सहोदर' बताते हुए प्रणाम निवेदित किया है और बडाई की है कि उसकी जिह्वा शोणित पीते-पीते अबतक भी तृप्त नहीं हुई है। वजह यह कि आम आदमी की तरह उसकी एक जिह्वा नहीं,हजारों जिह्वाएं हैं। महत्वाकांक्षा ही तो किसी को हिंस्र बनाती है। स्थितियां बताते हुए वह कहते हैं कि आज कोई 'भुक्ति' (सम्पन्नता,सफलता) पाना चाहे या 'मुक्ति' (मृत्यु) , हिंसा देवी की इकलौती कृपा के बगैर कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि हालात ये है कि साक्षात यमराज भी बेचारा केवल उसी का प्राण-हरण करके संतुष्ट हो जाने को बाध्य है, जिसे हिंसा देवी ने सूंघकर (अर्थात नालायक समझकर) थूक दिया हो--'यमस्तु हरते प्राणान् त्वयैवाघ्राय थूत्कृतान्'। यह दरअसल उत्पीडन की पराकाष्ठा का चित्रण है । नित्य शोणित पीकर भी अतृप्त रहनेवाली यह महाकाल की सहोदर ध्वंसस्तूप पर ही विराजमान होकर संतुष्ट हो सकती है,ऐसा कवि का आकलन है।
यह कविता उन्होंने १० मार्च १९७६ को लिखी थी। लेकिन हमें साक्ष्य मिलता है कि कविता लिख चुकने के बाद भी वह इसके आवेग से मुक्त नहीं हो पाए। ११ मार्च को उन्होंने फिर उसमें एक पंक्ति जोडी। उसमें हिंसा देवी का वंशवृक्ष दिया गया है। हिंसा देवी की प्रवृत्ति और उसके कृत्यों को देखकर उन्हें लगता है कि नहीं, ऐसी दारुण वस्तु मनुष्य की पैदाइश नहीं हो सकती। मनुष्यता पर नागार्जुन को बहुत भरोसा है। कितना भी गिर जाए,मगर मनुष्य इस हद तक नहीं गिर सकता। वह बताते हैं कि विषमता ही इस देवी की मां, लोभ ही इसके पिता और क्रोध ही इसका भाई है। एक कोमलांगी बहन जरूर है उसकी, मगर वह तो उसकी दुश्मन है। कविता के इस अंश में हम काव्यानुभूति को आक्रोश में अन्तरित होने का दृष्टान्त पा सकते हैं।
मगर नागार्जुन थे कि इतना लिख जाने के बाद भी कविता का आवेग उनपर से नहीं उतरा। जो लोग उन्हें निकट से जानते हैं, उन्हें पता है कि कविता का आवेग अक्सर लम्बे समय तक उनके भीतर बना रहता था। इस आवेग का सृजनात्मक उपयोग भी वह करते थे और उससे निकलने के तरीके भी उन्होंने इजाद कर लिए थे। अस्तु। १५ मार्च १९७६ को उन्होंने इसमें एक और पंक्ति जोडी।
नागार्जुन की कविता का स्वभाव है कि वह हमेशा एक निष्पत्ति तक पहुंचती है--चाहे वह किसी स्थूल विषय पर लिखी गई हो या फिर क्षणमात्र-व्यापी किसी तरल अनुभूति पर। क्षणमात्र की अनुभूति भी यदि नागार्जुन के हाथ लगे तब भी वह उसे कहीं-न-कहीं पहुंचाकर ही दम लेनेवाले कवि हैं। यह स्वभाव उन्हें एक बडा कवि बनाता है और ऐसा कवि,जो हमारे जीवन के काम आ सके। इसी अर्थ में वह एक प्रतिबद्ध कवि भी हैं।
१५ मार्च को उन्होंने यह पंक्ति इसमें जोडी--
कर्णाज्जलं जलेनैव कंटकेनैव कंटकान् ।
हिंसयैव हि हिंसाऽपि तदौपम्येन नश्यति ।।
(कान में अगर पानी चला जाए तो और अधिक पानी डालकर ही उसे बाहर निकाला जाता है। कांटा अगर चुभकर भीतर टूट जाए तो उसे कांटे से खोदकर ही बाहर निकाला जाता है। हिंसा का प्रतिकार भी अगर हम करना चाहते हों तो वह समरूप हिंसा से ही संभव हो सकता है।)
यहां दूसरी एक बात गौर करने लायक यह भी है कि जो दृष्टान्त यहां उन्होंने दिए हैं वे आम आदमी के जीवन के हैं, जो नदियों-तालाबों मे नहाते हैं और खेतों-कारखानों में काम करते हैं। वरना,सुसज्जित बाथरूम में नहाकर, ब्रान्डेड कंपनी के जूते पहनकर कार में घूमनेवालों के न तो कान में पानी जाएगा और न ही पैर में कांटे चुभेंगे। उन्हें हिंसा का प्रतिकार भी तो नहीं करना है, वे तो उसी में शामिल हैं।
प्रायः इसी कालखंड की लिखी उनकी एक और कविता है--'कुमार-लीला' । इसमें शिव-पार्वती के प्रणय से उत्पन्न दो कुमारों--कार्तिकेय और गणेश--की लीला का वर्णन किया गया है। खेल-खेल में वे यूं करतब दिखाते हैं कि उनके फेंके गेंद करोडों शिखरों को स्पर्श करते हुए कुछ इस तरह भागते हैं कि धावन-कला की माहिर शतद्रु (सतलज) भी लज्जित हो जाती है। यह कविता पढते हुए लोगों को उन दिनों के राजकुमार के करतब याद आ सकते हैं।
अपने देश भारत की प्रणति में नागार्जुन ने 'देश-दशकम्' की रचना की। इस कविता में उन्होंने देश के प्रति बडी ही भावनात्मक कृतज्ञता ज्ञापित की है। कविता पढते हुए मुझे बार-बार उनकी कही वह बात याद आई--'भारत या बिहार मेरे लिए अमूर्त है। मूर्त है तो मात्र वह स्थान,जहां हम निवास करते हैं।' ('तुमि चिर सारथि' में उनका एक कथन) वस्तुतः सच भी तो यही है कि वे ही स्थान, वे ही लोग,जो हमारे सम्पर्क-सामीप्य में आते हैं, वे ही वस्तुएं जिनसे हम किसी-न-किसी तरह जुडे होते हैं, हमारे मन में बसे देश का निर्माण करते हैं। एक सुनिश्चित चौहद्दी का क्षेत्र हमारा देश है, मगर उसकी अभिव्यक्ति हमारी चेतना मे बसी मूर्ति से होती है।वह कहते हैं---
नाना-नदी-नद-शतानि शिरा यदीया, नाना-विहंग-विरुतानि गिरा यदीया
कश्मीर-कूर्म-सुषमा हसितिर्यदीया, तत् पादयोःप्रणतिरस्त्वियं मदीया
लेकिन इसकी प्रतिमा जो कवि के मन में विराजमान है, वह यह है--
गोधूम-शालि-यव-मुग्द-तिलादिपुष्टा
मध्विक्षु-गव्य-मसृणा सुखिता स्वतंत्रा
क्षीरोदकीभवदनेक-विभाग-युक्ता
तिष्ठेत् सदा मनसि मे प्रतिमा त्वदीया
(हे देश,मेरे मन में विराजमान तुम्हारी प्रतिमा सदा-सर्वदा आबाद रहे, जो गेहूं-चावल-जौ-मूंग-तिल आदि खाद्यान्नों का भोग कर पुष्ट हुई है और शहद-ईख-दूध-दही-घी-आदि चीजें जिनसे न जाने कितने-कितने पक्वान्न तैयार होते हैं -- इन सब चीजों ने जिसे सुख और स्वतंत्रता की चेतना प्रदान की है।)
उनकी एक कविता मिजोरम पर है, एक डल झील पर है, मगर उनकी कविता डालर पर भी है और भारत-भवन पर भी है। 'डालराः' कविता में वह कहते हैं कि यहां डालर तो सोने का अनार है, जिसकी सुन्दरता का क्या कहना। मगर, इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं क्योंकि हवाई जहाज में सफर करनेवाली जूएं और लीखें भी तो योगिनी की हैसियत पा ही लेती हैं। हवाई सफर करनेवाली सम्भ्रान्त महिलाओं के बालों में निवास करनेवाली जूओं के प्रसंग से वह डालर की औकात तौलते हैं। गौर करना चाहिए कि इस तुला-प्रक्रिया में भी एक 'देश' है। वह किसका देश है? खेतिहर-मजदूरों का, भूखे-नंगों का और आक्रोश से फट रहे नौजवानों का। लेकिन दूसरी ओर देखिए। इन भूखे-नंगों की पीठ,पेट और सिर पर क्या लदा है? वह बताते हैं कि 'भारत-भवन'-जैसी महाविशाल आकृतियां इन पर लाद दी गई हैं--
कृषकाणां श्रमिकाणां यूनां क्षुत्क्षाम-कण्ठानाम् ।
पृष्ठे जठरे शिरसि च भारत-भवनम् मया दृष्टम् ।।
नागार्जुन को हमेशा संघर्षशील व्यक्ति प्रिय रहे हैं। संघर्ष को जिसने जीया है वही इसकी महत्ता समझ सकता है। इसे नागार्जुन बखूबी समझते हैं। ऐसे लोगों के प्रति उनमें सम्मान तो दीखता ही है, उसकी सफलता के लिए शुभाशंसा भी होती है। यही वजह है कि उनके निर्बल से निर्बल चरित्रों को भी हम कभी हताश होते हुए नहीं देखते। घना अंधकार हो तब भी कहीं से रोशनी का एक कतरा दीख ही जाता है। मिथकों से भी ऐसे लोगों को वह ढूंढ लाते हैं और उनका उत्साह देखना हो तो ऐसी कविताएं देख लें। एक कविता उन्होंने 'महामुनि' अगस्त्य पर लिखी है। कहा है--
लक्ष्मीः प्रतीक्षते विष्णुं
बहिरागन्तु-मुद्यतम् ।
सागरं चुलके कृत्वा
सुखं शेते महामुनिः ।।
(सूखे सागर को त्याग कर लक्ष्मी बाहर निकल आई हैं और अब बाहर निकलने को उद्यत आलसी विष्णु का इन्तजार कर रही हैं। और इधर यह महाशय अगस्त्य हैं कि चुल्लू में समुद्र को पीकर आराम की नींद सो रहे हैं।)
प्रसंगवश, यहां मुझे श्रीधर के 'सदुक्ति-कर्णामृत' में संकलित एक सहस्राब्दी पहले की मिथिला की एक सगोत्रीय कविता याद आ रही है। इसमें भी जरा विष्णु की दुर्दशा देख लें--
लक्ष्मी-पयोधरोत्संग कुंकुमायितो हरेः ।
बलिरेष स येनास्य भिक्षा-पात्रीकृतः करः।।
(विष्णु के जो हाथ केवल लक्ष्मी के स्तन पर फिरने के अभ्यस्त थे और इतने कोमल तथा सम्भ्रान्त थे कि कुमकुम की लाली से लाल बने रहते थे; धन्यवाद हो उस बलि का, जिसने इन हाथों को भिक्षापात्र की तरह फैलाने को मजबूर किया।)
अस्तु। यह संघर्ष की महत्ता ही है कि नागार्जुन ने अपने कनिष्ठ साहित्यकार पं० गोविन्द झा की प्रशस्ति में यह पंक्ति लिखी--
निर्भीकाय वरेण्याय पैशुन्य-ध्वंस-कारिणे।
स्वतेजसैव दीप्ताय गोविन्दाय नमो नमः।।
अलंकारवादी लोग यहां श्लेष ढूंढेंगे। ढूंढें। मगर तब भी तो चरित्र की विराटता उभर ही आएगी। वरना, नाम अगर कुछ और होता तो क्या इससे तथ्य भी बदल जाते? अपने समकालीन कवि-मित्र त्रिलोचन की प्रशस्ति में उन्होंने लिखा--
भूतलं सुतलं येन पदाभ्यामेव संभृतम् ।
सूर्याच्चन्द्रमसौ श्रान्तौ धरिणी हि सुखमास्थिता।।
(सूर्य और चन्द्रमा चलते-चलते थक जा रहे हैं। पर, यह पृथ्वी है कि बडे आराम से आस्थित बनी है। क्यों? क्योंकि त्रिलोचन ने अपने पावों चलकर इसे नापा है।) श्रद्धा की पराकाष्ठा ही तो इसे कहा जाएगा।
नागार्जुन ने अपनी कविताओं में गुरु-कृपा का बखान भी किया है और विद्या की देवी सरस्वती की प्रार्थना भी की है। पर क्या मांगा है उन्होंने देवी सरस्वती से? मांगा है-- लुनातु जन-मानसाद् विमति-तन्तु-जालावलीः' ' -- कि आमजन के मन से विमति के जाले साफ करो ताकि वे ठीक-ठीक समझ सकें कि कौन दुश्मन है, कौन दोस्त !