Sunday, June 6, 2010

।।विद्यापतिक डीह पर।।

।।विद्यापतिक डीह पर।।

तारानंद वियोगी

गाम छल सूतल, सगर तम व्याप्त देखलहुँ
दांव सुतरक फेर मे जन आप्त देखलहुँ
नहि छलै कत्तहु कोनो उत्साह, उद्यम
नहि छलै निज मातृभूमिक लेल स्पन्दन

एक दिस पाथर बनल कविगुरु छला थिर
एक दिस छल भांग के जंगल अनस्थिर
डीह पर छल गेट, गेटक बन्न छल मुँह
लोक सब कहलनि--कतय के ई थिका,उँह

कविगुरुक ओ ओज कत्तहु नहि बचल छल
जतहि देखू ततहि नेतागिरि मचल छल
चुप छली ओ भगवती घन घुँघुँरु वाली
मन्दिरक पीडी ओगरने कत सवाली

गाछ बडका ठाठ सं मस्ती करै छल
गाछ तरके दूभि बे-हालेँ मरै छल
जे छला जत्तहि, ततय कुंडलि लगौने
जागि क्यो सकला कहू कविगुरु, जगौने

गुम्म भ' क' राधिका चिन्ता करै छलि
आर, एखनो कृष्ण ले' जीबै-मरै छलि
कृष्ण, जे कमब' गेला पंजाब-बम्बै
ओतहि बुडला, राधिका अहँ कते कनबै

पाथरक कविगुरु छला चुप, नगर छल गुम
हम कही जे एना सब किछु किए गुमसुम
आ कि तखने 'जयति जय भैरवि' गुँजल छल
जागतै ई डीह कहियो, से गुनल छल।

के कहत, ई स्वप्न छल कि वास्तविकता
ई कथा की आगुओ क्यो आन लिखता?

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