Thursday, September 6, 2012

मैथिली लेखनक समस्या


मैथिली लेखनक समस्या 
तारानंद वियोगी 

सबगोटे अनुभव करैत हएब जे मैथिलीक प्रमुख लेखक लोकनि आइ ठहराव के अवस्था मे आबि गेल छथि। सब के मोन मे योजना छनि जे एक दिन कोनो धांसू किताब लिखता, मुदा दिन कहिया आएत, तकर कोनो ठेकान नहि छै। एखन लोक सुस्ता रहल छथि।
   प्रत्येक वर्ष बहुतो बहुत किताब छपि ' आबि रहल अछि। अधिकतर निहित उद्देश्य सं। मुदा, तहि मे सं अधिकांश के की स्तर छै, ओकरा सं मैथिलीक कतेक संपदा-वृद्धि ' रहल अछि, से सबहक सामने अछि। आठम अनुसूचीक बाद जे रचनात्मक उत्तेजना मैथिली-लेखनक क्षेत्र मे हेबाक चाही छल, तकर कत्तहु नामोनिशान नहि अछि। लोक आराम सं सुस्ता रहल छथि।
    राष्ट्रीय पुस्तक-बाजार मे बिहार पर बहुतो पुस्तक उपलब्ध अछि, मुदा ओहि मे मिथिला कतहु नहि अछि। मिथिलो के लोक जखन लिखै छथि तं ओहि मे मिथिला नहि रहैत अछि। तं हालति अछि। , हम सब सुस्ता रहल छी।
     छोडि देल जाए सुस्ताबैत, से एक रस्ता। किछु उद्यम करी जगबाक, से दोसर रस्ता। दोसर कें क्यो दोसर जगा नहि सकैए--सबहक अपन लोकतांत्रिक वजूद छनि, तें। जगब' पडत अपने सं अपने आप कें। हमरा जागल देखि ' किनसाइत दोसरो जागि जाथि। एहि 'किनसाइत' के व्याप्ति घटैत जाए, 'जरूर' के संभावना बढए, तकरो जतन कर' पडत।
            हम सब देखि लेलहुं जे दोसर कें खगता नहि छै। बाजार के सिद्धान्त छै जे जे चीज उपलब्ध अछि, तकरे उपभोग ' ' संतुष्ट भेनाइ सीखू। जे चीज उपलब्ध नहि अछि, तकरा लेल अहां तपस्या करी कि जतन करी, से बाजारवादक विरुद्ध बात थिक।
            तें, दोसर क्यो आबि ' जगाएत, तकर आशा करब निरर्थक थिक।एहि मिथिला-भूमि पर, एकैसम शताब्दी मे, एकटा हमहूं भेलहुं---से अपन अस्तित्व प्रमाणित करबाक लेल----आउ, हम सब सुस्ती छोडी, किछु करी, किछु बडका काज करी।
     (1) हम सब एकहक टा किताब लिखी----पांच बरखक अंदर मे।
     (2) किताब खिस्सागोई बला गद्य मे हो--फिक्शन अथवा नॅान-फिक्शन। किताब ओहन जे आइ दुनिया भरि मे सब सं बेसी पढल जाइत अछि।
     (3) अपन जीवन के 'बेस्ट' लिखि रहल छी, ताहि मनसूबाक संग लिखी। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमर लेखन के हमर मिथिला के पहचान कायम ' सकए, तेहन लिखी।
     (4) जे 'लोकल' अछि, सैह 'ग्लोबल' अछि---तें, अपन टोल के बारे मे, अपन गाम के बारे मे, खास अपना बारे मे लिखी। ओहि चीज के बारे मे, जकरा हम सब सं बेसी नीक सं बुझै छियै।
     (5) भाषा मैथिली हो, से जं नहि तं अंग्रेजी हो, हिन्दी हो---मुदा, विषय-भूमि मिथिला जरूर हो।
     (6) टॅापिक मुद्दा भने जे कोनो हो, मुदा किताब पठनीयताक गुण सं भरल जरूर हो। जे पढब शुरू करए, तकरा बान्हि लियय।
     (7) सब गोटे मिलि ' चलब संस्था-बद्ध ढंग सं काज करब तं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रय स्तर पर प्रकाशनो संभव हेतै, अनुवादो हेतै। बात निकलतै तं दूर तक जेबे करतै।
                 हम सब किछु गोटे बैसि ' किछु ठोस कार्य-योजना बनेलहुं-, ताहि पर गप करी, मुदा पहिने अहांक विचार जान' चाहब। विमर्श आमंत्रित।

रज़ी अहमद तन्हा


रज़ी अहमद तन्हा उर्दू के सुपरिचित गज़लगो हैं। अररिया (बिहार) के रहने वाले हैं। बिहार राज्य खाद्य निगम में प्रबन्धक हैं। उनकी पहली पोस्टिंग महिषी में हुई। महिषी मेरा गांव है, और यह राजकमल चौधरी एवं मण्डन मिश्र का भी गांव है। मै उन दिनों गांव के कालेज का विद्यार्थी था। मैंने उनसे उर्दू सीखी, उन्होंने मैथिली में कविताएं लिखीं। साहित्य की ढेर सारी बातें मैंने तन्हा जी से सीखी हैं, जिन्हें मैं सम्मान से "सर" कहता हूं। १९८२ का वाकया है कि उन्होंने एक गजल लिखी, जिसकी रदीफ 'वियोगी' थी, और वो गजल उन्होंने मुझे समर्पित की। अब उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया है कि वो गजल "बज्म-ए-सहरा" के अगस्त २०१२ के अंक में प्रकाशित हुई है। देखा तो वो दिन आखों के आगे मूर्तिमान हो उठे।

चंदा, तारे, आकाश वियोगी
किरण-किरण परकाश वियोगी

कुछ पल उसको गुमसुम तकते
मिल जाए वो काश, वियोगी

कौन मिलेगा हमसे आकर
किसको है अवकाश, वियोगी

कंधा दे, तो दे अब कौन
जीवन बेबस लाश, वियोगी

चारों मिलके फेंट रहे हैं
जीवन जैसे ताश, वियोगी

तेरा ही तो मीत है तन्हा
खोल दे बाहुपाश, वियोगी