Monday, March 29, 2010

नागार्जुन की संस्कृत कविता


इधर जो मैंने पढा

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नागार्जुन की संस्कृत कविता

तारानन्द वियोगी

जाननेवाले जानते हैं कि नागार्जुन ने हिन्दी, मैथिली और बंगला के साथ-साथ संस्कृत में भी कविताएं लिखीं। अपनी तरुणाई और युवावस्था में उन्होंने जैसा परिवेश, जैसा वातावरण पाया था उसमें कविताई की कसौटी संस्कृत में लिखना थी। संस्कृत मे लिखने के लिए ही प्रोत्साहन था और यश भी वहीं था। कविताभ्यास के तौर पर जो उन्होंने समस्या-पूर्ति के सैकडो छन्द लिखे थे,आज अगर वे उपलब्ध होते तो हम उनकी ऊंची उडानें देख सकते थे। उनके मुंह से कई लोगों ने सप्रसंग ये छन्द सुने होंगे। मैंने भी सुने हैं। लेकिन अब ये कविताएं उपलब्ध नहीं हैं। उनकी रचनावली में संस्कृत की केवल १८ कविताएं संकलित हैं। लेकिन देखनेवाले देख सकते हैं कि इतनी ही कविताएं उनके काव्य-स्वभाव और सौन्दर्य-दृष्टि की लगभग पूरी कहानी कह जाते हैं।

संस्कृत में काव्य-रचना की प्रेरणा उन्हे अपने संस्कृतमय वातावरण से मिली थी। संस्कृत-साहित्य का विधिवत अध्ययन उन्होंने पाठशालाओं में और मर्मज्ञों के सत्संग में किया था।कविता से मिथिला का रिश्ता बहुत पुराना रहा है। यहां हम देखते हैं कि शुष्क-निर्मम तर्कशास्त्रियों ने भी एक-से-एक सुन्दर कविताएं रची हैं जिनका आस्वाद संस्कृतज्ञों की टोली में मुखामुखी लेने का रिवाज आजतक रहा है। दूसरे हम यह भी देखते हैं कि एक ही साथ कई भाषाओं में काव्य-रचना को यहां विशिष्टता का दरजा प्राप्त है। विविध भाषा-ज्ञान की यहां बडी प्रशंसा रही है, साथ ही यह भी माना जाता रहा है कि किसी भाषा-ज्ञान की इयत्ता तभी प्रमाणित होती है अगर उसमें कविता की रचना की गई हो,और वह भी ऐसी, जिसे सराहे जाने योग्य पाया गया हो। हम देखते हैं कि ज्योतिरीश्वर ने भी कई भाषाओं में लिखा और विद्यापति ने भी। तीसरे, यह कि मुक्तक-कविता का बोलबाला मिथिला मे सदा से रहा है।और यहां 'मुक्तक कविता' का अर्थ ही है-- लीक से हटकर चलना, चीजों को थोडे अलग नजरिये से कुछ इस तरह देखना कि परंपरावादियों को, सत्ताधारियों को वह जरा उकडू लगे। ग्यारहवीं सदी में कर्णाटशासन के महामंत्री श्रीधरदास ने 'सदुक्ति-कर्णामृत' नाम से मुक्तकों का एक विशाल संग्रह तैयार किया था। अब यह साहित्य अकादमी से प्रकाशित है। मिथिला की कविताई का अंदाज हमें इसमें भी दिख जाता है।चौदहवीं सदी के ज्योतिरीश्वर की कविता देखें या सोलहवीं सदी के शंकर मिश्र की देख लें, मिथिला की मुक्तक-परंपरा का एक ठोस चेहरा हमारे सामने उभरकर आता है।

नागार्जुन नेअपनी लोकमुखी परम्परा से बहुत सारी चीजें लीं और उनमें उल्लेखनीय रूप से बहुत सारी नई चीजें जोडीं। अपनी एक कविता 'वाग्विभूतिः' में अपनी कविताई का चेहरा चीन्हाते हुए वह कहते हैं--मंगल की कामना से उपजे क्रोध से यह उत्पन्न हुइ है, विक्षोभ का उद्रेक ही इसका रूप है और स्वभाव इसका ऐसा है कि निद्रा को यह चीड-फाड डाले। निश्चय ही यह एक नई चीज है और प्रगतिशील संस्कृत काव्य-परंपरा में नए आयाम जोडती है।

और इसी कविता में, कुछ इस अंदाज में कि 'मैं तो ऐसा ही हूं' वह कहते हैं कि मेरा मनोघोटक (मनरूपी घोडा) इसी छान्दसी वाग्विभूति के रस में पगा हुआ बगैर किसी दीनता तथा भ्रान्ति के समूची पृथ्वी पर विचरण करता है। यहां 'समूची पृथ्वी' थोडे गहरे अर्थों मे है। यह केवल भूमि या क्षेत्र का ही विस्तार नहीं है, विषयों, सरोकारों और सम्बन्ध-बन्ध का भी विस्तार है। यह दरअसल नागार्जुन का स्वभाव है, जिसके विरुद्ध वह कभी जा नहीं सके। सबको जोडना, सबतक पहुचना। इसीलिए उनकी कविताऔं में स्थूल रूप से भी हमें विस्तार दीखता है। यह विस्तार केवल रूप का ही नहीं, भाव का भी और विचार का भी।

अपनी एक कविता 'गोविन्दाय नमो नमः' में शायद पहली बार और शायद आखिरी बार भी उन्होनें अपने आपको गम्भीरता से लेते हुए कहा है कि यात्री नागार्जुन नामधारी इस प्रथितयश कवि को कौन नहीं जानता--'यात्रीनाम्ना प्रथितं यस्य यशः को न जानाति'--तो यह सच ही कहा है। अवश्य ही वह उन भाग्यशाली कवियों में से हैं जिनकी कविता दूर-दूर तक पहुंची, यानी कि हाशिये पर खडे उस अन्तिम आदमी तक, जिसको केन्द्रविन्दु रखकर वह कविताई करते थे।

संस्कृत में लिखी नागार्जुन की कविताएं विविध विषयों तथा भावभूमियों पर हैं। प्रकृति का गहरा रंग तो इनमें दीखता ही है, वे तमाम चीजें भी इनमें साफ झलकती हैं, जिनके लिए वे मशहूर हैं। एक तो उनकी राजनीतिक कविताई,जिसके लिए वह कहा करते थे कि प्रतिहिंसा ही उनका स्थायीभाव है, दूसरे आमजन से गहरा सरोकार,जिनसे वह अपने आपको आबद्ध,संबद्ध और प्रतिबद्ध बताते थे। नागार्जुन को ऐसे लोग हमेशा प्रिय रहे जो संघर्षधर्मा थे और जिन्होंने तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद कुछ सृजनात्मक करने की कोशिश की। अपने ऐसे कुछ समकालीनों पर उन्होंने लिखा है। इसी प्रकार के मिथकपुरुष महामुनि अगस्त्य पर भी उनकी कविता है। फिर, काफी विस्तार में जाकर उन्होंने युगपुरुष लेनिन पर लिखा है। फिर, उनकी कविता अपने प्रिय देश भारत के माहात्म्य पर भी है। कुल मिलाकर 'बीज में बरगद' वाली बात इस छोटे-से संकलन में हमें चरितार्थ हुई दीखती है।

राजनीतिक कविता नागार्जुन की खास पहचान रही है। राजनीति के दो रूपों पर अलग-अलग उन्होंने कविताएं लिखीं हैं। एक रूप है, जो जनविरोधी है,जनता के हितों और सरोकारों की न उसे कोई खबर, न कोई चिन्ता है। नागार्जुन सदैव इसके विरुद्ध जाते हैं। दूसरा रूप जनपक्ष से जुडा है। अवश्य ही इसमें भी उनकी अपनी शर्तें हैं पर कुल मिलाकर इसके प्रति उनमें प्रशंसा का भाव है। संस्कृत की दो कविताओं--'हिंसा-महिमा' तथा लेनिन-स्तोत्रम्' में राजनीति के इन दो रूपों पर अलग-अलग उनकी प्रतिक्रिया का आकलन किया जा सकता है।

'लेनिन-स्तोत्रम्' संस्कृत की उनकी सर्वाधिक लंबी कविता है जो कि लेनिन के प्रति उनकी श्रद्धा के अनुरूप ही है। २५ श्लोकों मे यहां उन्होंने लेनिन की पृष्ठभूमि,उनकी विचारधारा,उनके कृत्य,उनके अवदान तथा उनके यश का वर्णन किया है।अपनी रूस-यात्रा के क्रम में कवि क्रेमलिन का प्रासाद देखने जाता है, जहां वह स्फटिक की बनी शवाधानी में लेनिन का शव देखता है। लेनिन की आंखों में झांकते हुए उसे यह अहसास होता है कि वे (आंखें) इतनी भास्वर हैं कि किसी सोए हुए आदमी की आंखें हो ही नहीं सकतीं। इसी अहसास से इस कविता का जन्म हुआ है। यहां नागार्जुन कार्ल मार्क्स को 'मुनियों में सर्वश्रेष्ठ मुनि' कहते हैं और बताते हैं कि लेनिन उनके प्रथम शिष्य हुए और उन्होंने ही उनके विचारों को परम सिद्धि तक पहुंचा दिया। वह कहते हैं कि क्यूबा,अंगोला,वियतनाम आदि देशों में लेनिन का नाम दीप्त है और पृथ्वी के नगरों,ग्रामों,सिकता,हिमानी,वनप्रान्तरों में विराजमान वह, समकालीन मनुष्यों के मन,वचन और कर्म में शामिल होकर विश्वात्मा बन चुके हैं। वह पूछते हैं कि जब इतना है तो क्या इस पुण्यश्लोक की गाथा अन्तरिक्ष में और अन्यान्य ग्रहों पर भी नही गूंज रही होगी?

जार के साथ हुए युद्ध के वर्णन में वह पुराने मुहाबरे को आजमाते हैं और अपेक्षा के अनुरूप ही उसमें एक नई चमक पैदा कर देते हैं।वह कहते हैं--

गगनं गगनाकारं सागरः सागरोपमः।

जार-लेनिनयोर्युद्धं जार-लेनिनयोरिव।।

(आकाश किसके समान है? उसकी उपमा किससे दी जाए? किसी से नहीं। और कौन है वैसा? कहना होगा कि आकाश आकाश के ही समान है। यही बात सागर के साथ लागू होती है और ठीक यही बात उस अनुपम युद्ध के साथ भी लागू होती है जो जार और लेनिन के बीच हुआ था।)

इस कविता में हमें नए विषय-क्षेत्र की तलाश तो दीखती ही है, यथार्थ को साफ-साफ परिभाषित करने की कोशिश भी है । यह विशेषता हमें उनकी अन्यान्य संस्कृत कविताओं में भी दिखाई देती है। यही कारण है कि परंपरागत कवियों की तरह अलंकारवादी शैली को न अपनाकर उन्होंने यथार्थवादी शैली का सहारा लिया। बडे ही सरल शब्दों में बगैर किसी तामझाम के, विना किसी छान्दस जटिलता के, तथ्यों और भावनाओं को उपस्थापित कर देना--निश्चय ही समकालीन संस्कृत कविता के क्षेत्र में नागार्जुन की पहल है। ऊपर से उनकी खूबी यह कि आम कवियों की तरह वह भावुक कवि नहीं हैं, तर्क की कसौटी पर भी उनके आकलन कभी असंगत सिद्ध नहीं होते। 'लेनिन-स्तोत्रम्' को ही लें। आम पाठक को यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि उस राजनेता में आखिर क्या ऐसी खूबी है कि नागार्जुन उनके गुण गाते नहीं अघाते। यह तो उन्हें बताना चाहिए कि ऐसा क्या था कि वह उनकी अभ्यर्थना में वह स्तोत्र की रचना कर रहे हैं। नागार्जुन बताते हैं। लेनिन की व्यवस्था-वर्णन के क्रम में एक श्लोक आता है--

दरिद्रा लुंठिता भीता ध्वस्तप्रज्ञा निरक्षराः ।

त्वयानुशिष्टास्ते सर्वे स्वयं शासकतां गताः ।।

स्पष्ट है कि ये सारे विशेषण सर्वहारा के लिए प्रयुक्त हुए हैं। दरिद्र,लुंठित,भीत के साथ-साथ वह उसे 'ध्वस्त-प्रज्ञ' भी कहते हैं। जरा इस शब्द पर गौर करें। हित और अहित, सद् और असद् का निर्णय कर सकने में समर्थ बुद्धि को सामान्यतः प्रज्ञा कहते हैं। प्रज्ञा की पराकाष्ठा है--'स्थितप्रज्ञ' होना, जिसका गीता में बडा गुण गाया गया है। और, दूसरी ओर स्थितप्रज्ञ के बिल्कुल दूसरे ध्रुव पर खडा शब्द है--ध्वस्तप्रज्ञ। 'उसकी प्रज्ञा ध्वस्त हो चुकी थी' कहते हुए नागार्जुन दरअसल बताना यह चाहते हैं कि उसे अपने दुश्मन तक की भी सही पहचान नहीं थी। और सबसे दिलचस्प तो यह कि एक ध्रुव पर ध्वस्तप्रज्ञता की यह दुर्गत अवस्था और दूसरी ओर उन सबको इस गौरवशाली ऊंचाई तक ले चलना कि वे स्वयंशासकता की स्थिति में आ जाएं।इसे सम्पन्न कर सके थे लेनिन। अतः वह अभ्यर्थना के योग्य हैं क्योंकि यही अन्ततः कवि की अभीप्सित राजनीति है।

लेकिन,राजनीति का एक दूसरा रूप भी है जो अधिक प्रचलित है। इसमें तमाम सारे तामझाम होते हैं, नहीं होता तो बस वह सरोकार जो आमजन के लिए इसे काम्य बनाता है। यह राजनीति व्यक्ति-केन्द्रित होती है। धीरे-धीरे एक थेथर किस्म की निर्लज्जता इसमें घर करती जाती है, छिपकर घी पीने के लिए कंबल की जरूरत खत्म होती जाती है, बाद को छिपने की भी जरूरत नहीं रह जाती। विरोध हो तो उसे अनसुना किया जाता है। फिर भी विरोध कायम रहे तो उसे कुचल दिया जाता है। तानाशाही की यह राजनीति दुर्बल रहे तब भी, और सबल रहे तब तो और भी, क्या चेहरा अख्तियार करती है, इसका बहुत ही प्रामाणिक चित्र हमे नागार्जुन की कविताओं में मिलता है। इसकी सबलता के कारनामों पर उन्होंने एक-से-एक जबर्दस्त कविताएं लिखीं। ऐसी अधिकांश कविताएं आपातकाल के दौरान और उसके तुरंत बाद लिखी गईं। ये हिन्दी में तो हैं ही, मैथिली में भी हैं और संस्कृत में भी। अपनी हिन्दी कविता की नायिका 'हिटलर की नानी' को वह संस्कृत में 'हिंसा देवी' कहते हैं। उसकी अभ्यर्थना मे उन्होंने 'हिंसा-महिमा' लिखी है।

'हिंसा-महिमा' काफी लोकप्रिय कविता रही है। इसमें उन्होंने हिंसा देवी को 'महाकाल का सहोदर' बताते हुए प्रणाम निवेदित किया है और बडाई की है कि उसकी जिह्वा शोणित पीते-पीते अबतक भी तृप्त नहीं हुई है। वजह यह कि आम आदमी की तरह उसकी एक जिह्वा नहीं,हजारों जिह्वाएं हैं। महत्वाकांक्षा ही तो किसी को हिंस्र बनाती है। स्थितियां बताते हुए वह कहते हैं कि आज कोई 'भुक्ति' (सम्पन्नता,सफलता) पाना चाहे या 'मुक्ति' (मृत्यु) , हिंसा देवी की इकलौती कृपा के बगैर कुछ भी नहीं हो सकता, क्योंकि हालात ये है कि साक्षात यमराज भी बेचारा केवल उसी का प्राण-हरण करके संतुष्ट हो जाने को बाध्य है, जिसे हिंसा देवी ने सूंघकर (अर्थात नालायक समझकर) थूक दिया हो--'यमस्तु हरते प्राणान् त्वयैवाघ्राय थूत्कृतान्'। यह दरअसल उत्पीडन की पराकाष्ठा का चित्रण है । नित्य शोणित पीकर भी अतृप्त रहनेवाली यह महाकाल की सहोदर ध्वंसस्तूप पर ही विराजमान होकर संतुष्ट हो सकती है,ऐसा कवि का आकलन है।

यह कविता उन्होंने १० मार्च १९७६ को लिखी थी। लेकिन हमें साक्ष्य मिलता है कि कविता लिख चुकने के बाद भी वह इसके आवेग से मुक्त नहीं हो पाए। ११ मार्च को उन्होंने फिर उसमें एक पंक्ति जोडी। उसमें हिंसा देवी का वंशवृक्ष दिया गया है। हिंसा देवी की प्रवृत्ति और उसके कृत्यों को देखकर उन्हें लगता है कि नहीं, ऐसी दारुण वस्तु मनुष्य की पैदाइश नहीं हो सकती। मनुष्यता पर नागार्जुन को बहुत भरोसा है। कितना भी गिर जाए,मगर मनुष्य इस हद तक नहीं गिर सकता। वह बताते हैं कि विषमता ही इस देवी की मां, लोभ ही इसके पिता और क्रोध ही इसका भाई है। एक कोमलांगी बहन जरूर है उसकी, मगर वह तो उसकी दुश्मन है। कविता के इस अंश में हम काव्यानुभूति को आक्रोश में अन्तरित होने का दृष्टान्त पा सकते हैं।

मगर नागार्जुन थे कि इतना लिख जाने के बाद भी कविता का आवेग उनपर से नहीं उतरा। जो लोग उन्हें निकट से जानते हैं, उन्हें पता है कि कविता का आवेग अक्सर लम्बे समय तक उनके भीतर बना रहता था। इस आवेग का सृजनात्मक उपयोग भी वह करते थे और उससे निकलने के तरीके भी उन्होंने इजाद कर लिए थे। अस्तु। १५ मार्च १९७६ को उन्होंने इसमें एक और पंक्ति जोडी।

नागार्जुन की कविता का स्वभाव है कि वह हमेशा एक निष्पत्ति तक पहुंचती है--चाहे वह किसी स्थूल विषय पर लिखी गई हो या फिर क्षणमात्र-व्यापी किसी तरल अनुभूति पर। क्षणमात्र की अनुभूति भी यदि नागार्जुन के हाथ लगे तब भी वह उसे कहीं-न-कहीं पहुंचाकर ही दम लेनेवाले कवि हैं। यह स्वभाव उन्हें एक बडा कवि बनाता है और ऐसा कवि,जो हमारे जीवन के काम आ सके। इसी अर्थ में वह एक प्रतिबद्ध कवि भी हैं।

१५ मार्च को उन्होंने यह पंक्ति इसमें जोडी--

कर्णाज्जलं जलेनैव कंटकेनैव कंटकान् ।

हिंसयैव हि हिंसाऽपि तदौपम्येन नश्यति ।।

(कान में अगर पानी चला जाए तो और अधिक पानी डालकर ही उसे बाहर निकाला जाता है। कांटा अगर चुभकर भीतर टूट जाए तो उसे कांटे से खोदकर ही बाहर निकाला जाता है। हिंसा का प्रतिकार भी अगर हम करना चाहते हों तो वह समरूप हिंसा से ही संभव हो सकता है।)

यहां दूसरी एक बात गौर करने लायक यह भी है कि जो दृष्टान्त यहां उन्होंने दिए हैं वे आम आदमी के जीवन के हैं, जो नदियों-तालाबों मे नहाते हैं और खेतों-कारखानों में काम करते हैं। वरना,सुसज्जित बाथरूम में नहाकर, ब्रान्डेड कंपनी के जूते पहनकर कार में घूमनेवालों के न तो कान में पानी जाएगा और न ही पैर में कांटे चुभेंगे। उन्हें हिंसा का प्रतिकार भी तो नहीं करना है, वे तो उसी में शामिल हैं।

प्रायः इसी कालखंड की लिखी उनकी एक और कविता है--'कुमार-लीला' । इसमें शिव-पार्वती के प्रणय से उत्पन्न दो कुमारों--कार्तिकेय और गणेश--की लीला का वर्णन किया गया है। खेल-खेल में वे यूं करतब दिखाते हैं कि उनके फेंके गेंद करोडों शिखरों को स्पर्श करते हुए कुछ इस तरह भागते हैं कि धावन-कला की माहिर शतद्रु (सतलज) भी लज्जित हो जाती है। यह कविता पढते हुए लोगों को उन दिनों के राजकुमार के करतब याद आ सकते हैं।

अपने देश भारत की प्रणति में नागार्जुन ने 'देश-दशकम्' की रचना की। इस कविता में उन्होंने देश के प्रति बडी ही भावनात्मक कृतज्ञता ज्ञापित की है। कविता पढते हुए मुझे बार-बार उनकी कही वह बात याद आई--'भारत या बिहार मेरे लिए अमूर्त है। मूर्त है तो मात्र वह स्थान,जहां हम निवास करते हैं।' ('तुमि चिर सारथि' में उनका एक कथन) वस्तुतः सच भी तो यही है कि वे ही स्थान, वे ही लोग,जो हमारे सम्पर्क-सामीप्य में आते हैं, वे ही वस्तुएं जिनसे हम किसी-न-किसी तरह जुडे होते हैं, हमारे मन में बसे देश का निर्माण करते हैं। एक सुनिश्चित चौहद्दी का क्षेत्र हमारा देश है, मगर उसकी अभिव्यक्ति हमारी चेतना मे बसी मूर्ति से होती है।वह कहते हैं---

नाना-नदी-नद-शतानि शिरा यदीया, नाना-विहंग-विरुतानि गिरा यदीया

कश्मीर-कूर्म-सुषमा हसितिर्यदीया, तत् पादयोःप्रणतिरस्त्वियं मदीया

लेकिन इसकी प्रतिमा जो कवि के मन में विराजमान है, वह यह है--

गोधूम-शालि-यव-मुग्द-तिलादिपुष्टा

मध्विक्षु-गव्य-मसृणा सुखिता स्वतंत्रा

क्षीरोदकीभवदनेक-विभाग-युक्ता

तिष्ठेत् सदा मनसि मे प्रतिमा त्वदीया

(हे देश,मेरे मन में विराजमान तुम्हारी प्रतिमा सदा-सर्वदा आबाद रहे, जो गेहूं-चावल-जौ-मूंग-तिल आदि खाद्यान्नों का भोग कर पुष्ट हुई है और शहद-ईख-दूध-दही-घी-आदि चीजें जिनसे न जाने कितने-कितने पक्वान्न तैयार होते हैं -- इन सब चीजों ने जिसे सुख और स्वतंत्रता की चेतना प्रदान की है।)

उनकी एक कविता मिजोरम पर है, एक डल झील पर है, मगर उनकी कविता डालर पर भी है और भारत-भवन पर भी है। 'डालराः' कविता में वह कहते हैं कि यहां डालर तो सोने का अनार है, जिसकी सुन्दरता का क्या कहना। मगर, इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं क्योंकि हवाई जहाज में सफर करनेवाली जूएं और लीखें भी तो योगिनी की हैसियत पा ही लेती हैं। हवाई सफर करनेवाली सम्भ्रान्त महिलाओं के बालों में निवास करनेवाली जूओं के प्रसंग से वह डालर की औकात तौलते हैं। गौर करना चाहिए कि इस तुला-प्रक्रिया में भी एक 'देश' है। वह किसका देश है? खेतिहर-मजदूरों का, भूखे-नंगों का और आक्रोश से फट रहे नौजवानों का। लेकिन दूसरी ओर देखिए। इन भूखे-नंगों की पीठ,पेट और सिर पर क्या लदा है? वह बताते हैं कि 'भारत-भवन'-जैसी महाविशाल आकृतियां इन पर लाद दी गई हैं--

कृषकाणां श्रमिकाणां यूनां क्षुत्क्षाम-कण्ठानाम् ।

पृष्ठे जठरे शिरसि च भारत-भवनम् मया दृष्टम् ।।

नागार्जुन को हमेशा संघर्षशील व्यक्ति प्रिय रहे हैं। संघर्ष को जिसने जीया है वही इसकी महत्ता समझ सकता है। इसे नागार्जुन बखूबी समझते हैं। ऐसे लोगों के प्रति उनमें सम्मान तो दीखता ही है, उसकी सफलता के लिए शुभाशंसा भी होती है। यही वजह है कि उनके निर्बल से निर्बल चरित्रों को भी हम कभी हताश होते हुए नहीं देखते। घना अंधकार हो तब भी कहीं से रोशनी का एक कतरा दीख ही जाता है। मिथकों से भी ऐसे लोगों को वह ढूंढ लाते हैं और उनका उत्साह देखना हो तो ऐसी कविताएं देख लें। एक कविता उन्होंने 'महामुनि' अगस्त्य पर लिखी है। कहा है--

लक्ष्मीः प्रतीक्षते विष्णुं

बहिरागन्तु-मुद्यतम् ।

सागरं चुलके कृत्वा

सुखं शेते महामुनिः ।।

(सूखे सागर को त्याग कर लक्ष्मी बाहर निकल आई हैं और अब बाहर निकलने को उद्यत आलसी विष्णु का इन्तजार कर रही हैं। और इधर यह महाशय अगस्त्य हैं कि चुल्लू में समुद्र को पीकर आराम की नींद सो रहे हैं।)

प्रसंगवश, यहां मुझे श्रीधर के 'सदुक्ति-कर्णामृत' में संकलित एक सहस्राब्दी पहले की मिथिला की एक सगोत्रीय कविता याद आ रही है। इसमें भी जरा विष्णु की दुर्दशा देख लें--

लक्ष्मी-पयोधरोत्संग कुंकुमायितो हरेः ।

बलिरेष स येनास्य भिक्षा-पात्रीकृतः करः।।

(विष्णु के जो हाथ केवल लक्ष्मी के स्तन पर फिरने के अभ्यस्त थे और इतने कोमल तथा सम्भ्रान्त थे कि कुमकुम की लाली से लाल बने रहते थे; धन्यवाद हो उस बलि का, जिसने इन हाथों को भिक्षापात्र की तरह फैलाने को मजबूर किया।)

अस्तु। यह संघर्ष की महत्ता ही है कि नागार्जुन ने अपने कनिष्ठ साहित्यकार पं० गोविन्द झा की प्रशस्ति में यह पंक्ति लिखी--

निर्भीकाय वरेण्याय पैशुन्य-ध्वंस-कारिणे।

स्वतेजसैव दीप्ताय गोविन्दाय नमो नमः।।

अलंकारवादी लोग यहां श्लेष ढूंढेंगे। ढूंढें। मगर तब भी तो चरित्र की विराटता उभर ही आएगी। वरना, नाम अगर कुछ और होता तो क्या इससे तथ्य भी बदल जाते? अपने समकालीन कवि-मित्र त्रिलोचन की प्रशस्ति में उन्होंने लिखा--

भूतलं सुतलं येन पदाभ्यामेव संभृतम् ।

सूर्याच्चन्द्रमसौ श्रान्तौ धरिणी हि सुखमास्थिता।।

(सूर्य और चन्द्रमा चलते-चलते थक जा रहे हैं। पर, यह पृथ्वी है कि बडे आराम से आस्थित बनी है। क्यों? क्योंकि त्रिलोचन ने अपने पावों चलकर इसे नापा है।) श्रद्धा की पराकाष्ठा ही तो इसे कहा जाएगा।

नागार्जुन ने अपनी कविताओं में गुरु-कृपा का बखान भी किया है और विद्या की देवी सरस्वती की प्रार्थना भी की है। पर क्या मांगा है उन्होंने देवी सरस्वती से? मांगा है-- लुनातु जन-मानसाद् विमति-तन्तु-जालावलीः' ' -- कि आमजन के मन से विमति के जाले साफ करो ताकि वे ठीक-ठीक समझ सकें कि कौन दुश्मन है, कौन दोस्त !

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