Thursday, April 15, 2010

जोगीलालक कविता


जोगीलालक कविता

तारानन्द वियोगी

।। घर ।।

कतय अछि हमर घर??

जतय अछि
ततय बस डेरा ,
जतय अछि
ततय बस मकान ;
लोके लोक,समाने समान।

एक इच्छा बामा
एक इच्छा दहिना
जोताल रह रे मन जोतल रह
कि कंक्रीट तर मे गोंतल रह।

घर अछि जं हमर सपना
तं से तोरो सपना हेतह ;
हौ बाबू जोगीलाल
ई सपना कहिया आकार लेतह??


हम तं अपने घर मे बौआइ छी
अपने घरक लेल ;
कने जांचि लैह
जे तोरा घर सं तोहर घर
कतेक खाइ छह मेल ।।


।। स्त्रीक दुनिञा ।।

स्त्रीक एक दुनिञा
ओकरा भीतर।
एक दुनिञा ओकरा बाहर।

भीतर---
किसिम किसिम के
फूल फुलबाडी ;
बाहर---
एक एक डेग
संकट सं भारी।

भीतर---
एकटा राधा अछि
एकटा कन्हैया अछि ;
बाहर---
जनक छथि लाचार
आ राम निरदैया अछि।

हौ बाबू जोगीलाल
स्त्री कें बुझिहह
तं ठीक एही तरहें बुझिहह---

तोरा जकां एक दुनिञा कहियो
नै हेतै ओकर ;
जे ओकरा ले' ठमकि क' चलतै
से हेतै ओकर।

स्त्री जं रहती सृष्टि मे
तं बस एहिना रहती ;
से चाहे तोरा सं किछु
कहती, नै कहती।


॥ ककरा लेल लिखै छी ॥

जै काल मे लिखै छी
मुलुकक रहै छी आनन्दित।
लिखळ जखन भ' जाइए
होइए जे बडका काज केलहुंए।

पढै छी जखन सद्यः लिखलका कें
तं बड तोष होइए जे चलह
धरतीक अन्न-तीमन खेलियै
तं ओकरा लेल काजो किछु केलियै।

बाद मे फेर जं कहियो पढै लिखलका कें
तं भारी अचरज मे पडै छी अपने
--अरे, ई बात हम लिखलियै? हम?
--ई तं बहुत जीवन्त बात लिखि सकलियै...

अइ आत्मबोध सं जे भीतर ऊर्जा खदबदाइए
से फेर सृजन करबाक लेल
हृदय सुगबुगाइए..

तों जुनि दुखी हुअह हौ बाबू जोगीलाल,
हम तं जते बेर सोचै छी
यैह बात पाबै छी
जे अपने लेल अपने
कलम उठाबै छी।


।। मृतक-सम्मान ।।

जीवित पिता कें पानियो ने देलह
मरल पर उपछै छह पानि
घर मे बुढिया़ हकन्न कनै छह
कोना भेटै छह सुख-चैन?
हौ भाइ जोगीलाल
नान्हिटाक जिनगी छह
एना कहिया धरि करबह?
हौ, ई दुनिञा ओही दिन नहि मरि जेतै
जहिया तूं मरबह....

(ई कविता मैथिलीक आन्तरिक साहित्यिक राजनीतिक बारे मे लिखल गेल अछि। एतय "बुढिया" मैथिली कें कहल गेल छै)

2 comments:

Shekhar Kumawat said...

bahut sundar rachna

acha laga pad kar

shekhar kumawat

http://kavyawani.blogspot.com/

Unknown said...

JOGILAL MARAT NAHI
O DEH BADALI LET
AAI JON HAM LATIYABI;
KALHI AHANK PAKARI LET.
O AEHINA RAHE BEHAAL,
SHARIRAK KI?
AATMA ME NAI RAHAY JOGILAL.
MRITYUNJAY