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बाबा के शताब्दी जन्म-दिवस पर उनका स्मरण
उनकी आदत थी कि अपने-आपको कभी गंभीरता से नहीं लेते थे। किसी नौजवान विद्यार्थी की तरह खुद को वर्तमान चुनौतियों की कसौटी पर कसते थे और जहां थोडी कमजोरी दिखी कि अपना ही मजाक जमकर उडाते थे। खुद को अद्यतन किए रहने की यह उनकी खास शैली थी।
उनकी संस्कृत कविताओं में से एक कविता ऐसी है, जहां वह थोडी देर को, स्वयं को जरा गंभीरता से लेते दीखते हैं।
मैथिली के एक बडे लेखक हैं-पं० गोविन्द झा। पटने में रहते हैं और पेशे से भाषाशास्त्री हैं। उनपर एक अभिनन्दन-ग्रंथ 1995 में निकला था। उसमें, उनके बारे में बाबा ने बडे ही प्यार और आदर से एक संस्कृत कविता लिखी थी। चार श्लोकों की उस कविता के अंत में बाबा ने यह पंक्ति जोड दी थी---
श्लोकचतुष्ट्यमलं रचितं श्री वैद्यनाथेन
यात्रीनाम्ना प्रथितं यस्य यशः को न जानाति।
त्रिभुवनविदिता मिथिला जनकनंदिनी यत्र संभूता
विख्यातोऽभूत् तत्रैव कविर्नागार्जुनो महान्।।
(ये चार श्लोक श्री वैद्यनाथ ने लिखे हैं, जो यात्री के नाम से प्रसिद्ध है और जिसका यश कौन नही जानता? जनकनंदिनी सीता जहां पैदा हुईं, वह मिथिला तो सारे संसार को विदित ही है। वहीं यह कवि भी पैदा हुआ,जिसे लोग महान कवि नागार्जुन के रूप में ख्याति प्रदान करते हैं।)
देखिए, बाबा के बारे में जो बात हमारे लिए सच है, जिस बात को हम कहते रहे हैं, जरा देर के लिए बाबा भी उस बात से राजी हो गए हैं। वाह बाबा, वाह।
1 comment:
baba ko naman!!!!
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