Thursday, December 16, 2010

आत्म-गीत रवीन्द्रनाथ ठाकुर



































  सत् चितक मानि अनुरोध 
पन अथ-उथ के कयल विरोध 
कयल अपनहि पर जमि क' शोध
 प्राप्त निष्कर्ष करौलक बोध 
अपन अवरोध थिकहुं हम अपने। 
अपन गतिरोध थिकहुं हम अपने।। 

 कुलबोड़न,भव-युग-ताड़न हम 
छी कारण तथा निवारण हम 
मुंहझांपन, देहउघाड़न हम 
हम अगिलह, आगि-पझाबन हम 
से जानि भेल उत्पन्न महाविक्षोभ 
तं आयल क्रोध, क्रोध पर क्रोध 
पन जड़िखोध थिकहुं हम अपने।।

 कटु सत्यक तथ्य मथन कयलहुं 
शुभ जीवन हेतु जतन कयलहुं 
सब ओझराहटि सोझरा-सोझरा
संतुलनक विधिक चयन कयलहुं 
प्रतिशोधक कयल विरोध, 
मरल दुर्योध विना प्रतिरोध 
कयल सुख-बोध 
स्वयं हरिऔध थिकहुं हम अपने 
स्वयं हरिऔध थिकहुं अपने।। 

(प्रस्तुति--तारानंद वियोगी)

Wednesday, December 8, 2010

साहित्य अकादेमी के विशेष समारोह(१५.११.१०)में तारानन्द वियोगी का वक्तव्य


सन्दर्भ : साहित्य अकादेमीक बाल साहित्य पुरस्कार =============================== साहित्य अकादेमी के विशेष समारोह(१५.११.१०)में तारानन्द वियोगी का वक्तव्य =============================================== आदरणीय अध्यक्ष महोदय और मित्रो, साहित्य अकादेमी के इस विशेष समारोह में हम सभी यहां एकत्र हुए हैं। भारतीय साहित्य का जीता-जागता उपवन यहां मौजूद है, जिसमें रंग-रंग के, किस्म-किस्म के फूल खिले हुए हैं। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर कहा करते थे कि मेरी भारत माता बीसियों भाषाओं में बोलती हैं। उस भारत माता को यहां जीवन्त महसूस किया जा सकता है। ऐसे अवसर पर अपने आपको यहां, आप सबके बीच पाकर मैं स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। मैं साहित्य अकादेमी को, और हमारी मैथिली भाषा के प्रतिनिधि को, उनके सहयोगियों को हृदय से धन्यवाद देता हूं। मुझसे अनुरोध किया गया गया है कि इस अवसर पर मैं अपने कुछ अनुभव, अपनी चिन्ताएं आपके साथ शेयर करूं। यह जरूरी भी है। हमारा भारतीय साहित्य आज जिस दौर से गुजर रहा है,, जो संकट और चुनौतियां आज इसके सामने है,यह और भी जरूरी है। मित्रो, मैं कोशी क्षेत्र का रहने वाला हूं। आप शायद जानते हों कि कोशी बडी ही विकराल, बडी ही मनमौजी नदी है। जगह-जगह इसपर बांध बनाए गए हैं। अक्सर ऐसा होता है कि बरसात के दिनों में नदी बांध तोड देती है। पानी का बहुत भयावह रेला चल निकलता है। लोग जहां-तहां फंस जाते हैं। सरकारी-गैर सरकारी एजेंसियां तो बाद में पहुंचती हैं, पहले तो ये होता है कि लोग अपनी मदद आपस में मिल-जुल कर करते हैं। पानी के तेज बहाव में अगर अकेला आदमी पड जाए तो उसका बचना मुश्किल हो जाता है। ऐसे में लोग क्या करते हैं कि हाथों में हाथ डालकर एक मानव-शृंखला बना लेते हैं, टेक के लिए हाथों में लाठियां थाम लेते हैं और इस तरह सुरक्षित स्थान तक पहुंच जाते हैं। आप भी शायद महसूस करते हों कि कुछ ऐसे ही हालात से आज हम भी गुजर रहे हैं। भूमंडलीकरण के इस दौर में छोटी-छोटी भाषाओं की नित्य प्रति मृत्यु हो रही है। साहित्य को निरन्तर अप्रासंगिक करार दिया जा रहा है। भावाभिव्यक्ति में एक जाहिल उताबलापन चारों तरफ दिख रहा है। इतनी तेजी से रोज-रोज दुनिया बदल रही है कि युग और काल की हमारी अवधारणा भी कई बार हमसे धोखा करती प्रतीत होती है। ये तो हुआ एक पहलू। दूसरी तरफ हम ये भी देख रहे हैं कि हमारी जो पीढी युवा होकर आज दुनिया का मुकाबला करने को तैयार हो रही है, उसमें अपनी आइडेन्टिटी, अपनी अस्मिता को लेकर एक सात्विक तडप भी साफ दिख रही है। एक व्यापक और परिपूर्ण भारतीयता की समझ उनकी आत्मा की मांग बन रही है। तो, ये ऐसा समय है कि समझ लें--थोडा खट्टा है थोडा मीठा है, थोडा धुंधला है थोडा उजला है। चुनौती हमारे सामने ये है कि ऐसे में हम, और हमारा साहित्य, इस पीढी के, आने वाली पीढियों के किस काम आ सकता है। एक जमाना था कि जब बडे-बडे लोग छोटे-छोटे ब्च्चों के लिखना गौरव का विषय समझते थे। पर, वह जमाना भी अब बीत चुका है। तो, ऐसे हालात में, मैं समझता हूं कि एक तो मिलजुलकर लगातार काम करने की जरूरत है, दूसरे युग की चुनौती को इस तरह स्वीकार करने की भी जरूरत है कि आनेवाली पीढियां हमपर ये इल्जाम न लगाए कि जब रोम जल रहा था तो नीरो बांसुरी बजा रहा था। मित्रो, आप बुरा न मानें, इस तरह मैं सोचता हूं तो घोर अंधेरी रात में बिजली की चमक-जैसी जो चीज मुझे दिखाई देती है, वह है--बाल साहित्य। सार्थक ढंग से लिखा गया बाल साहित्य ही ये कर सकता है कि आनेवाली पीढियों के लिए साहित्य भी एक प्रासंगिक चीज, उनके जीवन के काम आनेवाली चीज बनकर रह सके। पीढियों के भाषा-संस्कार को यह परिमार्जित कर सकता है। भावाभिव्यक्ति में पाए जानेवाले जाहिल उताबलेपन की जगह एक स्थैर्य, एक गहराई को उनकी जीवन-शैली का हिस्सा बना सकता है। बाजार की जीवन-पद्धति है--द्विआयामी, जिसमें वस्तु है और क्रिया है। त्रिआयामी जीवन-पद्धति, जिसमें वस्तु और क्रिया के साथ-साथ चिन्तन भी हो, इसका विकास बाल साहित्य कर सकता है। मुझे तो लगता है कि सार्थक और प्रासंगिक बाल साहित्य का प्रसार छोटी-छोटी भाषाओं की मृत्यु-दर को कम कर सकता है और हमारे उखडते हुए पांवों को एक ताजगी-भरी मजबूती दे सकता है। जो चिन्ता आज मेरी है, मेरा खयाल है कि यह आपकी भी चिन्ता है , सारे देश की, सारी दुनिया की चिन्ता है। ऐसे में, बडे ही आभार के साथ मैं साहित्य अकादेमी को और संस्कृति मंत्रालय को धन्यवाद देता हूं कि भारतीय भाषाओं में बाल साहित्य के विकास के लिए नए ढंग से उन्होंने सोचना शुरू किया है। प्रायः चार साल हुए कि इन्हीं चिन्ताओं से जूझते हुए मैंने अपनी भाषा मैथिली में, इस दिशा में कुछ काम करने की शुरुआत की थी। मैथिली में बाल साहित्य की दशा अत्यन्त दुर्बल है। दूसरी बात यह कि हमारे यहां, मैथिली पुस्तक-प्रकाशन के मामले में यह जुमला बडा ही प्रसिद्ध है कि लेखकों की छपाई किताब बिकती नहीं है और पाठकों को उनकी पसन्द की किताब मिलती नहीं है। हमने कुछ नए ढंग से समाधान की कोशिश की। युवा लेखकों और साहित्यकर्मियों की हमने एक टीम बनाई। बाल साहित्य पर गंभीरता से काम करना शुरू किया। हमने सातवीं-आठवीं कक्षा के बालपाठकों को टारगेट किया। विषय हमने ऐसे चुने जो इक्कीसवीं सदी में वयस्क होनेवाले हमारे बालपाठकों के जीवन के काम आ सके। उपजीव्य ग्रन्थ ही अगर चुनना हो तब भी हमने लीक से हंटकर चलने का मन बनाया। हमारे यहां मुख्यतः दो उपजीव्य चलन में रहे हैं--रामायण और महाभारत। हमने उपनिषदों को लिया, जातक-कथाओं को लिया। आप देखेंगे कि महाभारत में जंगल को जलाया जाता है, जबकि उपनिषद में जंगल से दोस्ती की जाती है। किताबों को फारमेट भी हमने कुछ अलग ढंग से किया। भाषा, अभिव्यक्ति-शैली, कथन-भंगिमा-- इन सबके प्रति भी हम अत्यन्त सजग रहे। हमारे महाकवि विद्यापति ने कभी 'सुपुरुष' की अवधारणा प्रस्तुत की थी। हमारा लक्ष्य इक्कीसवीं सदी का 'सु-मानुस' ठहरा, जिसमें सुपुरुष के साथ 'सु-नारी' भी शामिल हैं, और जो एक ही साथ जितने मैथिल हैं, उतने ही भारतीय और ठीक-ठीक उतने ही वैश्विक। हमारी टीम के युवा साहित्य-कर्मी मध्य और उच्च विद्यालयों में पहुंचते, और सस्ते संस्करणों वाली ये पुस्तकें प्रत्यक्ष रूप से अपने पाठकों को सौंप आते। एक हजार प्रतियों का हमारा संस्करण महीनों में बिक जाता। जिस घर में किताब की एक प्रति पहुंचती, उसके परिवारी-जनों के साथ-साथ अडोसी-पडोसी मिलाकर औसतन हमें पन्द्रह पाठक मिल जाते। मित्रो, आपको लग सकता है कि मैं विषयान्तर हो रहा हूं, साहित्यकार के दायरे से बाहर जाकर एक्टीविज्म पर पहुंच रहा हूं। लेकिन यकीन कीजिए, मैं भी मूलतः एक साहित्यकार ही हूं। साहित्य-सृजन के लिए सघन एकान्त मुझे भी चाहिए। किन्तु, साहित्य के साथ जीते हुए कभी ऐसी भी स्थितियां बनती हैं, जब आपको टीम बनाने की जरूरत पडती है। यूं तो आप अदृश्य पाठकों के लिए लिखते हैं, पर वक्त आता है कि जब आपको उन्हें दृश्यमान करने की जरूरत पडती है। मैंने महसूस किया है कि ऐसे हालात में 'साहित्यकार' और 'साहित्यकर्मी' के बीच की दूरियां सिमट जाती हैं। मित्रो, हमारे संकट अथाह हैं। उत्तर आधुनिकता के इस दौर में आज जब हमारे लोग अपनी अस्मिता के प्रति साकांक्ष हुए हैं तो अपनी जड, अपनी भाषा से जुडना चाहते हैं। इधर विडम्बना यह कि दुनिया-भर की चीजें उन्हें पता है, मगर अपनी मातृभाषा पढ पाने का हुनर उन्हें नहीं है। एक दौर था, जब मातृभाषा को अयोग्य मानकर उन्होंने उसकी उपेक्षा की। मातृभाषा को उन्होंने कभी इस लायक माना ही नहीं कि उसमें बडी-बडी, ऊंची-ऊंची बातें की जा सकती हो। याद कीजिए कि इन्हीं लोगों की उपेक्षा ने अपनी-अपनी मातृभाषाओं को उजाडा। पर, आज वे आइडेन्टिटी ढूंढते हैं और मातृभाषा से जुडना चाहते हैं। हम तो दरअसल, उनके बच्चों के लिए लिखते हैं। लेकिन, बच्चों के लिखी गई किताब जब हमारे ये बन्धु पढते हैं तो खुद भी मातृभाषा पढने का हुनर सीखते हैं। हमें तो समझिए दोहरी खुशी मिलती है। भविष्य को ठीक करने की कोशिश में हमारा वर्तमान भी सुधरता जाता है। यह बाल साहित्य कर रहा है। बाल साहित्य ही यह कर भी सकता है। मित्रो, इतनी बातें मैंने इसलिए कहीं कि आपको सामने पाकर सुख-दुख बतियाने का एक अवसर मुझे मिला। इस अवसर के लिए पुनः धन्यवाद। अपनी भाषा के कर्णधारों, अपनी टीम के युवा साहित्यकर्मियों को भी धन्यवाद। इतने ध्यान-पूर्वक आप सबने मुझे सुना, इसके लिए पुनः धन्यवाद। तारानन्द वियोगी

Tuesday, December 7, 2010

बाल साहित्य पुरस्कार २०१० अर्पण समारोह

बाल दिवसक अवसर पर दिनांक १४ नवंबर २०१० कें साहित्य अकादेमी, नई दिल्लीक परिसर स्थित मेघदूत मुक्ताकाश मंच पर एक अतीव गरिमापूर्ण समारोह मे साहित्य अकादेमीक बाल साहित्य पुरस्कार २०१० के अर्पण कएल गेल। २४ भारतीय भाषाक
लेखक लोकनि कें बाल साहित्य मे विशिष्ट अवदानक लेल पुरस्कृत=सम्मानित कएल गेलनि। मैथिली मे प्रथम बाल साहित्य पुरस्कार तारानन्द वियोगी कें हुनक बाल-पुस्तक 'ई भेटल तं की भेटल'के लेल देल गेलनि। एहि यादगार अवसरक किछु फोटोग्राफ एतए देखू।








Taranand Viyogi