Saturday, March 25, 2023

मिथिला मे कबीरक धमक (व्याख्यान)



तारानंद वियोगी


।।भूमिका।।

मिथिला मे कबीरक धमक-- चर्चाक एहन सन नाम रखबाक की अर्थ अछि? धमक कहल जाइ छै कोनो जीवित चलायमान वस्तुक ध्वनि कें, जे दृश्य नहि रहैत छैक, केवल श्रव्य होइत छैक। क्यो छै जकरा हम देखि तं नहि पाबि रहल छी मुदा सूनि पूरा रहल छी। नहि देखबाक पाछू दू कारण भ' सकै छै। कि तं ओहि वस्तु मे रूपे नहि हो वा हो तं तिमिराच्छन्न हो, अथवा देखनहार कें ओ आंखिये नहि होइक जकरा सं ओहि कोटिक वस्तु कें देखल जा सकय। कबीरक संदर्भ मे कही तं मिथिलाक संग ई दूनू कारण हमरा समान रूप सं जिम्मेवार देखाइत अछि।

            दोसर एक प्रश्न ई उठै छै जे ई धमक निज आइये सुनि पड़ि रहल अछि आ कि एकर कोनो इतिहासो छै? बहुतो लोक एहन हेता जिनका लागतनि जे कबीरक कनेक्शन मिथिला संग! आश्चर्यजनक! कबीरक पदावली मैथिली मे? आश्चर्यजनक! जेना हमसब आयुवृद्ध भेला पर कोनो व्यक्ति कें विस्मृतिक गंभीर रोग सं ग्रस्त होइत देखै छियै, लोक अपनो नाम बिसरि जाइए, अपन परिवारोक लोक अनचीन्ह भ' जाइ छै। मोन रखबाक चाही जे एहन केवल व्यक्तियेक संग होइत हो से नहि होइ छै। कोनो जाति, कोनो समुदाय, कोनो राष्ट्र सेहो एहि प्रकारक विस्मृतिक शिकार भ' सकै छै। दुनियाक इतिहास एकर उदाहरण सब सं भरल पड़ल अछि।

            बहुतो लोक कें लगै छनि जे कबीर हाशियाक आवाज छला, जे कि एकदम्मे असत्य अछि। सन् 1518 मे कबीरक निधन मानल जाइछ आ किछुए दशकक भीतर हुनकर जीवनी लिखा गेल। गागरौनक राजा पीपा, ने केवल कबीरक अनुयायी भेला, हुनका पर बेहद मार्मिक काव्यक रचना केलनि। सतरहम शताब्दीक शुरुआतिये चरण मे कबीरक शिष्य लोकनि ओहि समस्त जगह पर कबीरमठक स्थापना केलनि जतय सं कबीरक कनेक्शन छलनि। कबीरपंथ चलि पड़ल, यद्यपि कि बुझले बात अछि जे स्वयं कबीर कें कोनो पंथ वा संप्रदाय शुरू करबा मे दूर-दूर धरि कोनो रुचि नहि छलनि।

            तं, कबीरक ई आदिम चारि मठ जतय-जतय बनल रहै, ओहि मे सं एक मिथिलो छल। एकर प्रवर्तक जागूदासक बारे मे तं कहल जाइत अछि जे अपन पहिल मठ ओ अंधराठाढ़ी मे बनौने छला आ ई मठ जखन सुव्यवस्थित भ' गेल तकर बादे ओ पहिने तं शोभाबसन्तपुर पछाति बिदुपुर गेला जतय अंतकाल धरि रमला आ जे आइ जागूदासी संप्रदायक मुख्यालय(गुरुगादी) थिक। अइ तरहें देखी तं कबीरक धमक सतरहम शताब्दी मे जहिया अखिल भारत मे कतहु आन ठाम सुनाइ पड़ल रहै, ठीकमठीक तहिये, संग-संग, मिथिला मे सेहो सुनाइ पड़ल रहै। तें ई धमक चारि सौ बरस पुरान धमक थिक। हमरा जं आइ पहिल बेर धमक सन लगैत हो तं एकर मतलब थिक जे हम वा हमर समुदाय वा हमर प्रान्त जातीय विस्मृति-रोगक चपेट मे आबि गेल अछि।

            मिथिलाक कबीरमठक सम्बन्ध मे दूटा बात एतय हमरा मोन पड़ैत आछि, जकर चर्चा क' देबय चाहै छी। एक तं औराही हिंगनाक कबीरमठ, जकर पूरा वर्णन फणीश्वरनाथ रेणुक उपन्यास 'मैला आंचल' मे आएल अछि। ई मठ छतीसगढ़ी शाखाक मठ थिक जे आइयो व्यवस्थापूर्वक संचालित अछि। दोसर, बरहा गामक कबीरमठ जे वचनवंशीय  शाखा सं संबद्ध अछि आ जकर सम्बन्ध मिथिलाक एक महान नेता कामरेड भोगेन्द्र झा सं छैक। जानि नहि कतेको ठाम भोगेन्द्र बाबू अइ प्रसंगक चर्चा केलनि आ लिखलनि। प्रसंग अछि जे एक बेर हुनका कोनो प्राश्निक पुछलखिन जे मिथिला सन रूढ़िवादी प्रान्त मे जनमियो क' आ प्रतिपाल पाबियो क' अहां कें मार्क्सवादी क्रान्तिकारी विचार दिस बढ़बाक प्रेरणा कोना आ कतय सं भेटल। ओ जे उत्तर देने रहथिन तकर सार रहै जे हुनका घरे लग कबीरमठ रहनि, नेनपन सं ओतय जेबाक, साधु लोकनिक संगति मे बैसबाक-उठबाक, चर्चा करबाक, संस्कार अर्जित करबाक अवसर भेटल रहनि। से जं नहि भेटल रहितनि तं रूढ़ि कें तोड़ि ओ एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नहि बनि सकै छला।


।।कबीरक मिथिला-कनेक्शन।।

           अहां कें साइत ई जानि क' आश्चर्य लागत जे कबीरपंथक चारि संप्रदाय जे छलै-- कबीरचौरा, छतीसगढ़ी, जागूदासी आ धनौती-- सब अपन-अपन शाखा-मठ मिथिला मे आबि क' बनेलक। से कोनो एकाध टा बनेने हो सेहो नहि, एहि मठ सभक संख्या सैकड़ा मे छै। स्थानीय जमींदार ओइ मठ कें जमीन देलकै, समाज ओकरा श्रद्धा देलकै, अनुयायीवर्ग ओकरा बल देलकै। बोधगया मे देखने हेबै जे बौद्धधर्मक अनुयायी जे देश सब अछि, सब अपन-अपन मंदिर ओतय बनबेने अछि।‌ कनेक्शन छै कोनो, तें ने? के जानय जे ओइ पुरान पुरखा लोकनि कें ओ सबटा जगह, ओ कुटी बूझल होइन जतय कबीर रमला। विस्मृतिक चपेट मे आएल आजुक के लोक कहि सकैत अछि? मुदा कहबी छै जे जे अकारण तं टिटही सेहो नहि बजैत छैक। भ' सकै छै जे जागूदास अंधराठाढ़ी मे एही दुआरे पहिल मठ बनेने होथि। पंडित गोविन्द झा कतहु लिखने छथि जे सौराठ लगक कोनो गाम कबीरक गाम छलनि, से हुनका गुरु-परंपरा सं सुनल छनि।

           दोसर दिस अहां देखबै, एहन मैथिल लोकक संख्या लाखो मे अछि जे कबीरपंथी छथि। हुनकर धार्मिक कृत्य सं ल' क' कौलिक संस्कार धरि कबीरपंथक संहिताक अनुसार होइ छनि। मैथिल कबीरपंथी लोकनिक सुरुहे सं ई हिसाब रहलनि जे हुनका अहां कपड़ा सं, वा विन्यास सं अलग सं नहि चीन्हि सकै छियनि। ओ ठीक ओही तरहें मैथिल जीवन जिबै छथि जेना हम-अहां जिबै छी। हं, भोजन, संस्कार आ धार्मिक क्रियाकांड हुनकर अपन छनि जे कि निजी छनि। उद्दंड समुदाय जकां झंडा फहरबैत, नारा चिचियबैत इतिहास मे कहियो हुनका लोकनि कें नहि देखल गेलनि। 

           तखन अहां देखबै जे मिथिला मे पचासो एहन गाम छै जकर नाम कबीरक नाम पर छै। जेना कबीरपुर, कबीरचक, कबीरगंज, कबिराहा आदि। दर्जन भरि नाम तं हमरो बुझल अछि, तहिना सब कें बुझल हेतनि। कबीरक नाम पर जे मैथिली मे पद सब गाओल गेल छै तकर संख्याक हिसाब करय लागी तं पांच हजार सं कम नहि हैत। अइ गीत सब कें अहां यूट्यूब पर सेहो सुनि सकै छी। ई गीत सब प्राचीन पांडुलिपि सब मे दर्ज गीतक अतिरिक्तो अछि। मिथिला मे क्यो एहन लोक नहि हेता जे कबीरक बारे मे किछु ने किछु नहि जनैत हेता। कबीरक नाम पर बनल दू-चारि टा फकड़ा सब कें बूझल हेतनि-- कहय कबीर हम कहबे करबह/ नै बुझबह त हम की करबह। कहय कबीर एक लक्कड़ चाही। कबीरदास के उनटे बानी,कहय कबीर सुनो भाइ सन्तो, असली मारि कबीर के आदि-आदि।  

           ई तं भेल हुनकर व्याप्ति। मुदा, सांस्कृतिक समन्वयन के वास्तविकता की अछि? मैथिली लोकगाथा पर विचार करैत पंडित गोविन्द झाक लिखल एक बात एतय हमरा मोन पड़ैए। कहने छथि, जकरा हमसब मिथिला कहै छियै ओकरा भीतर मे दू अलग-अलग मिथिला बसैए, दू अलग-अलग समुदाय। दुनू एक दोसर सं सर्वथा अनजान, अनचीन्ह, जेना दू अलग-अलग ग्रह के बसिन्दा होथि। ओइ दोसर ग्रहक बसिन्दा समाज कबीरक समाज छियनि। मैथिली साहित्य जें कि एक ग्रह-विशेषेक प्रभाव मे रहल तें ओहि दोसर ग्रहक समुदाय के एतय कोनो मान्यता नहि रहल अछि। मजा के बात ई छै जे ओहि दोसर ग्रहक बसिन्दा कें सेहो कहियो मैथिली साहित्यक कोनो जरूरति नहि पड़लै। ओकर अपन समुन्नत संस्कृति छै, साहित्य छै जे कि मौखिक छै। अपन धार्मिक परंपरा छै। ओ अपनहि मे मस्त अछि।


।।कबीरक वैचारिकता आ हुनकर सरोकार।।

                  कबीरक अपन खास जीवनदर्शन रहलनि आ जीवनशैली सेहो। कबीर कें अहां निरा साधू, वा गंभीरो अर्थ मे कहू तं मात्र आध्यात्मिक पुरुष, नहि कहि सकै छियनि। हुनकर अपन स्पष्ट सामाजिक लक्ष्य छलनि। हुनकर अध्यात्म के दुइये टा तं खासियत अछि। एक। जे पिंड मे अछि, ठीक-ठीक वैह ब्रह्मांड मे अछि। दोसर जे अछि से एही सिद्धान्त सं जनमल अपर सिद्धान्त थिक। आब जें कि पिंड आ ब्रह्मांड एक्के अछि, तें ई आखिर भैये कोना सकैए जे आदमी-आदमी मे फर्क होइ, धर्म वा संप्रदाय के नाम पर, जाति, नस्ल वा लिंग के नाम पर।

                   मुदा वास्तविक मे ई दुनिया केहन अछि,देखिये रहल छियै। कबीर नाइंसाफीक अइ दुनिया कें बर्दाश्त नहि करै छथि। ओ उनटि क' कहै छथि-- तुम कत बाभन हम कत सूद? ई भैये कोना सकैए जे आदमी आ आदमी मे फर्क हो, क्यो बाभन हो क्यो शूद्र! ओ तं करारा चाट मारै छथि वर्णवाद पर-- 'मरली मैया चमरा खाले ओका नाम चमाला है/ जीत जीव के जो वध करता ओका कवन हवाला है।' प्रश्न तं सही मे बहुत कड़ा छै। धर्म के नाम पर वध तं भ' रहल अछि जरूर। गैरबराबरी कयल जाइए रहल अछि। आदमी आदमी मे भेद कयल जाइए रहल अछि। एते आक्रमण कबीर पर भेलनि मुदा ओ किए नहि मरै छथि, किए आइयो एते प्रासंगिक छथि, बुझि सकै छी।

           जे उच्चवर्णक बौद्धिक हेता हुनकर ध्यान किनसाइते अइ बात दिस गेल हेतनि जे वास्तव मे जे विक्टिम अछि, पीड़ित अछि वर्णव्यवस्था के, ओकरा मनोविज्ञान पर एकर की असर पड़ैत हेतै? ओइ लोक के आवाज छथिन कबीर। बिहार मे अहां ओइ लोक के संख्या देखियौ, तखन मिथिलो कें देख लियौ, यैह लोक बहुसंख्यक छथि। हिनकर आवाज छथिन कबीर। ई कबीरपंथक सामाजिक पक्ष छिऐ। बांकी हुनका सभक धार्मिको पक्ष अइ लोक सं भिन्न छनि। ओ मंदिर नै जेता, सत्संग करेता। ओइ मे प्रवचन हेतै। बुद्धदेव के देशना सब कें मोन पाड़ियौ। ओइ अवसर पर ज्ञान आ चेतना के माहौल बनै छलै। ओकर परतर मंदिर-तीर्थ जाइ बला लेकिन आदमी-आदमी मे फर्क करैबलाक चेतनाविहीन कर्मकांड कोना क' सकैत अछि? ओइ ठाम बेहोशी नहि छै। चेतना छै। कबीर अपन कविता मे अही चेतना के बात करै छथिन। मने मूल अभिप्राय मे। बांकी तं हुनकर कविता पूरे दृश्यात्मक छनि। ओइ ठाम ब्याह अछि, गौना अछि। पिया अछि, विरहिणी अछि। नैहर के लोक बहुत चंठ छै। बेचारो कें सुरक्षित अपन सासुर जेबाक छै। पंथ बहुत दूर छै। दृश्य के तं बुझू पूरा महाकाव्य छनि कबीर के काव्य। ओइ दृश्य के भीतर अध्यात्म छै, ओइ मे मनुष्यता के गुणगान अछि। मुदा ओकरो भीतर एक सामाजिक कारक सक्रिय छै। ओ छियै-- आदमी आ आदमी मे भेद कोना भ' सकै छै? आखिर पिंड आ ब्रह्मांड तं एक्के छथि। कबीर बेर-बेर ई प्रश्न उठबैत भेटता जे जाहि प्रेम के साधना सं स्वयं राम भेटि सकै छथि, ओही राम के बनाओल एत्तेक सारा लोक अपना मे प्रेमपूर्वक किए नहि रहि सकैत अछि? विद्वान लोकनि कें ई बात बुझल हेतनि जे कबीरक कविता संग पहिल बेर न्याय केनिहार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हुनका कविता कें 'फोकट के माल' कहने रहथिन। फोकट के माल अर्थात ऊपरी आमदनी। मने जे कबीरक तं सामाजिक सरोकारे तते व्यापक छनि जे कविता जं हुनका लग नहियो रहितनि तं हुनकर पूज्यता मे कोनो कमी नहि आबितनि। मुदा ई तं तत्व के बात भेलै। कबीरक कविते तं कारण थिक जे ओहि युग सं हमरा लोकनिक आजुक युग धरि हुनका पहुंचेने छनि।

।।की कबीर मैथिल छला?।।

             कबीरक संदर्भ मे मिथिलाक उच्चवर्ण सदा असहिष्णु रहल। उच्चवर्णक महात्मा वा परमहंसे ने क्यो भने भ' गेल होथि, कबीरक प्रति एहि असहिष्णुता आ अवमानना मे कमी नहि आनि सकला। कते भारी विडंबनाक बात छी जे अपना ओतक लोक परमहंस भैयो क' आदमी-आदमी मे विभेदक बिमारी सं मुक्त नहि भ' पबैत अछि। विना उदाहरण देने कहब तं साइत अहां विश्वास नहि करबै। परमहंस लक्ष्मीनाथ गोसांइ मैथिलीक बड़ भारी संतकवि मानल जाइत छथि, यद्यपि कि हुनकर पूरा गीतावली उनटा लिय' कुल्लम बाइसे टा पद मात्र हुनकर मैथिली मे छनि बांकी छनि सधुक्कड़ी वा ब्रजभाषा मे। कबीर सं हुनका कते घृणा रहनि तकर पता हुनकर अइ पांती सं पाबि सकै छी-- 'रहे एक कोइ पापी घाती, मरल मगह मे जाई/ खात न ताहि गिद्ध कौआ खग, कुक्कुर देख पड़ाई/ गलि गये मांस चाम भौ न्यारा केश हाड़ बिलगाई/ जय गंगा, गंगा कहु भोरे जौं सुख चाहत भाई।' भोरे उठि क' जय गंगा जय गंगा करू, अइ मे चेतना के कोनो जरूरत छै दूर दूर धरि? मुदा, कबीर कहै छथि-- 'चेत करू बाबा, बिलैया मारय मटकी।' कतय पाबी चेत? ओतय तं भोरे उठि गंगा-गंगा कहने सब पाप नष्ट भ' जाइत अछि। कबीर मुश्किल पैदा करै छथिन। क्यो देवता मनुक्खक उपकारी नहि भ' सकैए, जागय पड़तै आदमी कें अपने। अपने चेतना ओकर उपकारी भ' सकै छै।

             आधुनिक मैथिली साहित्य मे डा. सुभद्र झा पहिल व्यक्ति भेला जे आत्मबुद्धि रखैत कबीरक अध्ययन केलनि। अपन विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ 'फोरमेशन आफ मैथिली लैंग्वेज' के तैयारी-काल मे ओ कबीरोक मैथिली पदक अध्ययन जरूरी बुझलनि। ओ ओहि विस्मृतिक घटाटोप कें चीरि क' कबीरक मिथिला-कनेक्शन के खोज केलनि। अपन ओ ग्रन्थ छपबा सं दू-तीन बरस पहिनहि ओ कबीर पर एक गंभीर लेख 'संत कबीर की जन्मभूमि तथा उनके कुछ मैथिली पद' लिखलनि। ई लेख बिहार यूनिवर्सिटी जर्नल के भाग दू मे 1956 मे प्रकाशित भेल। लेख मे ओ सबल तर्कपूर्वक मिथिला कें कबीरक जन्मभूमि साबित केलनि। पूरा दुनिया मे कबीरक अध्येता लोकनिक बीच ई लेख खलबली मचा देने रहैक। उनैसम शताब्दीक अंतिम चरण सं ल' क' बीसम शताब्दीक मध्य धरि, जखन मैथिल विद्वान लोकनि विद्यापति कें स्थापित करबाक कोशिश मे लागल छला, ठीक यैह समय छल जखन हिन्दीक विद्वान लोकनि कबीर कें स्थापित करबाक कोशिश मे रहथि। बीच मे सुभद्र बाबू आबि क' ई स्थिति बना देलनि जे कबीरक जन्मभूमिक मुद्दा पर अध्येता लोकनि आगां विचारे करब बंद क' देलनि। एहि मुद्दा कें पूरेपूरी कबीरपंथी लोकनिक आस्था आ विश्वास पर छोड़ि देल गेल। हालसाल मे छपल कबीरपरक किताब सब मे अहां ई चीज देखि सकै छियै।

             सुभद्र बाबू की सब तर्क देने रहथि, ताहि पर बात करबा सं पहिने ई जानि लेबाक चाही जे कबीरक कार्यक्षेत्र काशी रहलनि ताहि मे कोनो विवाद नहि छल, एक। दोसर जे तीन स्थान एहन छल-- मगहर, बेलहरा आ काशी, जकरा कबीरक जन्मभूमि सिद्ध करबाक घमासान रहैक। तर्क कोन्नो पक्षक सबल नहि, सभक तर्क मे किछु ने किछु झोल। जेना मगहर बला समर्थक लोकनि के तर्क रहनि जे कबीर अपने लिखने छथि-- 'पहिले दरसन मगहर पाइयो पुनि काशी बसि आई।' हिनका लोकनिक मतें दरसन के मतलब संसारक दर्शन अर्थात जन्म छैक। सुभद्र बाबू विस्तारपूर्वक बतौलनि जे दरसन के अर्थ अइ ठाम मात्र 'ज्ञानक प्रत्यक्षीकरण' छै। काशी मे कबीरक जन्म हेबाक उल्लेख जाहि प्राचीनतम पुस्तक सब मे भेटैए, ओइ मे सं कोनो बीसम शताब्दी सं पहिनेक लिखल नहि थिक। तहिना, बेलहारा‌ के दावा एही दुआरे  कयल गेल जे एकर उल्लेख 1909 मे प्रकाशित बनारस जिला गजेटियर मे छपल छै। सब सं प्रबल तर्क काशीक लहरताराक पक्ष मे छल जकरा सुभद्र बाबू तर्कपूर्वक सर्वाधिक व्यर्थ कहलनि। कबीरक जाहि पांती सब-- सकल जनम शिवपुरी गमाया, काशी मे हम प्रकट भये हैं रामानंद चेताये,जनम जनम हम काशी सेइया-- कें आधार बनाओल गेल छल, सुभद्र बाबूक कहब भेलनि जे एहि मे सं कोनो पांती, भने ई कबीरक लिखल होइन कि किनको आनक, मात्र एतबे पता लगैत अछि जे हुनकर जीवनक अधिकांश भाग काशी मे बितलनि, ने कि ई जे काशी मे हुनकर जन्म भेलनि।

             सुभद्र बाबू कबीरक मनोविज्ञान कें आधार बना क' जन्मभूमि-विवादक शुरुआत केलनि। ओ कहलनि जे मिला क' देखि लियौ, कबीर जे 'वैष्णव' आ 'शाक्त' शब्दक प्रयोग अपन कविता सब मे केलनि अछि से 'विष्णुक उपासक' वा 'शक्तिक उपासक' के रूप मे करबे नहि केलनि अछि। वैष्णव सं हुनकर अर्थ छनि जे मांसाहारी नहि होथि, सात्विक होथि। तहिना शाक्त, जकरा लेल ओ साकत अथवा साकट शब्द के प्रयोग केने छथि, तकर अर्थ थिक माछ-मासु खाइबला, जीवहत्या करैबला। ओ देखौलनि जे कोना आइयो एहि दुनू शब्दक ठीक-ठीक यैह अर्थ मिथिला मे प्रचलित छै। ओ कहलनि, की भगवान महावीर कें छोड़ि क' कोनो आन संप्रदायक क्यो संत मत्स्यभक्षणक एहन जोरदार खंडन कयने छथि, जेहन कबीरक ओतय पाओल जाइछ? साकत के विरुद्ध कबीर जे सब युक्ति देलनि, काशी वा मगहर मे उत्पन्न संतक एहि तरहक युक्ति कदापि संभव नहि भ' सकैत अछि। निश्चिते कबीर जतय जन्म लेने हेता ओहि ठामक ब्राह्मणलोकनि मत्स्यभोजी रहथि। जतय मत्स्यभक्षणक परंपरा नहि रहतै ओहि ठामक संत कें एहि तरहक युक्ति देबाक आवश्यकते की रहतै? सुभद्र बाबू प्रश्न उठेलनि जे की सूर, तुलसी, मीरा, नामदेव आदिक पद मे एहि तरहें मत्स्यभक्षणक खंडन भेटैए? किए? अइ लेल जे हुनका सब कें एकर आवश्यकते नहि रहनि। 

             शाक्त वा साकत सं कबीरक घृणा जगजाहिर अछि-- 'साकत बाभन मत मिलै, बैस्नो मिले चंडाल'; 'बैस्नो की छपरी भली ना साकत का बड़ गांव'; 'साकत सुनहा दोनों भाई, वौ नींदै वौ भौंकत जाई।' आब मजेदार बात ई छै जे कबीरक निधनक थोड़बे दशक बाद जे अनन्तदास (1590क आसपास) 'परिचई' लिखने छला ओकर आरंभे अइ पद सं होइ छलै-- 'कासी बसे जुलाहा एक/ हरि भगतन की पकड़ी टेक/ बहुत दिना साकत मैं गइया/ अब हरि का गुण ले निरबहिया'-- अइ सं ई पता लगै छै जे कबीर अपने सेहो पहिने साकत छला। ई एक स्थापित तथ्य छै, कारण आनो सूत्र सब सं एकर पुष्टि होइ छै। सुभद्र बाबूक आकलन छनि जे कबीर जखन मिथिला मे रहै छला तखनहि अन्यान्य धार्मिक-सामाजिक वैचारिकता सभक संग हुनकर परिचय भ' गेल छलनि। मैथिल लोकनिक जीवनशैली आ कर्मकांडक ततेक विपरीत प्रभाव हुनका पर पड़लनि जे ओ सदाक लेल हिनका सभक विरोधी भ' गेला, अन्तत: हुनका अपमानित भ' क' मिथिला छोड़ि देब' पड़लनि। कबीर पर लिखल अपन सुप्रसिद्ध किताब 'अकथ कहानी प्रेम की' मे पुरुषोत्तम अग्रवाल शाक्तक प्रति कबीरक घृणाक पृ़्ष्ठभूमि मादे लिखलनि अछि-- 'जिस समूह से जुड़े रहकर आप कट जाएं, उसके साथ आपके सम्बन्ध कुछ ज्यादा ही तनावपूर्ण हो जाते हैं। नापसंदगी में सैद्धान्तिक से कहीं ज्यादा मानीखेज व्यक्तिगत आयाम जुड़ जाता है। भूतपूर्व स्वयंसेवक, संघ के कठोरतम आलोचक होते हैं, और भूतपूर्व कामरेड, कम्युनिस्ट पार्टी के।' मुदा, तैयो फरक अछि। कबीर कें जे घृणा शाक्त सं छलनि, तुलसीदास कें लगभग सैह घृणा, बरु ओहू सं बेसी, निर्गुणियां सब सं छलनि। मुदा फर्क देखू जे तुलसीक घृणा साम्प्रदायिक छनि कारण हुनका जीवन कें जे लोकनि पीड़ित आ संतापित करैत रहलखिन से निर्गुणियां सब नहि रहथि, वैह ब्राह्मण आ ब्राह्मणवादी सब छला जकर समर्थन तुलसी जीवन भरि करैत रहल छला। दोसर दिस, कबीरक घृणा हुनकर व्यक्तिगत संताप, जातीय उपेक्षा, गैरबराबरीक दंश सं जनमल ईमानदार घृणा छलनि। एकरा अहां साम्प्रदायिक नहि कहि सकै छियै।

             डा. सुभद्र झाक दोसर तर्क कबीरक बीजक मे संकलित एक पदक समुचित व्याख्या पर आधारित छनि। मानल जाइछ जे ई हुनकर आखिरी कालखंडक रचना छियनि। पंक्ति छनि-- 'लोगा, तुम ही मति के भोरा/ ज्यों पानी पानी मे मिलि गो/ त्यों दुरि मिला कबीरा/ ज्यों मैथिल को सच्चा वास/ त्योंहि मरण होय मगहर पास।' अर्थसंकेत छैक जे एक आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप मे मैथिल हैब असाधारण बात थिक जकरा लेल काशी आ मगहर मे कोनो भेद नहि रहि जाइत अछि। एहि ठाम हमरा लोकनि कें मिथिलाक आदिम ज्ञान-परंपरा-- जनक, याज्ञवल्क्य आ गौतम बुद्ध-महावीरक स्मृति आबि सकैत अछि। 

             तेसर तर्क 'सर्वज्ञसागर' नामक सुप्रसिद्ध कबीरपंथी ग्रन्थ मे आएल एक पदांश सं संबंधित अछि। पदांश अछि-- 'सावन भादव बरसे मेहा/ एते सबद हम कह्यो विदेहा।' प्रसंग कबीर आ धनी धर्मदासक बीच होइत संवादक अछि। एहि पदांश मे आएल 'विदेहा' शब्दक अर्थ हिन्दीक विद्वान लोकनि 'जीवनमुक्त' अवस्था सं लैत रहल रहल छला। सुभद्र बाबू अनेक उदाहरण रखैत ई तथ्य रखलनि जे कबीरक ओतय जीवन्मुक्त अवस्थाक कोनो अवधारणे नहि अछि। मृत्युक अर्थ कबीर लग मे सीधा मृत्यु अछि, जतय ओ अनेक काव्यात्मक उपमान सभक प्रयोग केलनि अछि। कतहु नैहर छुटि जाइत अछि, कतहु सासुर सं लियौन आबि जाइ छै, कतहु घैल फूटि जाइछ, जल मे जल समा जाइत अछि। कबीरक अनेक पद एकर प्रमाण थिक-- 'जा मरने से जग डरे मेरो मन आनंद/ कब मरिहूं कब देखिहूं पूरन परमानंद।' 'कहै कबीर अंत की बारी/ हाथ झाड़ि जैसे चले जुआरी।' सुभद्र बाबूक कहब भेलनि जे 'एते सबद हम कह्यो विदेहा' के अर्थ थिक जे ई सब बात हम अहां कें मिथिलाक भूमि पर ठाढ़ भ' क' कहि रहल छी। मिथिलाक आदिम ज्ञानकर्मसमुच्चय सं भरल परिपूर्ण आध्यात्मिकता के संदर्भ सं भरल परिप्रेक्ष्य मे कबीरक एहि कथनक अर्थ करबाक चाही, से सुभद्र बाबूक तात्पर्य रहनि।

             कबीरक मैथिलत्व प्रतिपादित करैत डा. सुभद्र झा हुनकर एक आरो उक्ति उद्धृत केलनि-- 'बोली हमरी पूरबी हमें लखा न कोइ/ हमको तो सोई लखे धुर पूरब का होइ।' हिन्दीक विद्वान लोकनिक मान्यता छलनि जे पूर्वी भाषा मैथिलिये हो से जरूरी नहि। सुदूर पूर्वी भारत मे अवस्थित सब भाषा पूर्वी भाषा थिक। मुदा, सुभद्र बाबू 'सापेक्षता'क प्रश्न ठाढ़ करैत कहलनि जे क्यो व्यक्ति कोन जगह पर ठाढ़ भ' क' कोनो दिशाक बात करैत अछि से एक महत्वपूर्ण अर्थसंकेत होइत छैक। ओ काशीक धरती पर सं अपन बोली कें 'धुर पूरबक बोली' कहि रहल छला तें एकर अर्थ बनारस के बोली वा ओकर लगपास के बोली तं कदापि नहि भ' सकै छै।

             कुल मिला क' सुभद्र बाबूक ई परिकल्पना छलनि जे मिथिला मे कबीरक जन्म भेलनि आ युवापन मे प्रवेशक अवस्था धरि ओ मिथिले मे रहला। हुनका सन स्वतंत्रचेता व्यक्ति, जे एक विधर्मी-अवर्णी परंपरा सं अबैत छला, कें मिथिलाक कर्मकांडी आ मिथ्याचारी समाज कोन तरहें परेशान कयने हैत तकर सहजे अनुमान अइ बात सं कयल जा सकै छै जे आइ, एकैसमो शताब्दी मे मिथिला मे एहन स्वतंत्रचेता कें बर्दाश्त करबाक सहिष्णुता आ समझदारी नहि आबि सकलैए। एवंक्रमें अपमानित भ' क' कबीर मिथिला सं मगहर गेला आ ओतय अनेक वर्ष बितेलाक बाद काशी। 'गुरुग्रन्थ साहिब' (संकलन वर्ष 1604) मे संकलित एक पद मे कबीर कहै छथि-- 'बारह बरस बालपन बीते, बीस बरस कछु तप न कियो/ तीस बरस कछु देव न पूजा, फिरि पछताना बिरधि भयो।' एहि तीस वर्षक अवस्था धरि कें सुभद्र बाबू मिथिला मे बिताओल अवस्था मानैत छथि। कबीरक जीवन मे महान परिवर्तन एकर बादे आबि क' भेल। 

             सुभद्र बाबूक अध्ययन मे एहि सूक्ष्म पीड़ा कें हमसब पृष्ठभूमि मे संगीत जकां बजैत देखि सकै छियै जे कबीरक आत्मोन्नति मे मिथिला कोनो उल्लेखनीय भूमिका नहि अदाय क' सकल, तकर बादो कबीर मिथिलाक आध्यात्मिक परंपरा सं अपना कें जुड़ल अनुभव करैत रहला। अंतकाल मे कबीर कें काशी किएक छोड़य पड़लनि-- राजदंड वा कर्मकांडी सभक उत्पातक कारण कि अपन रूढ़िभंजक चेतनाक कारण, तकर कोनो स्पष्ट साक्ष्य नहि भेटैत अछि। मुदा, एतबा धरि साफ अछि जे मगहर के ख्याति एक एहन पापिष्ठ स्थलक रूप मे रहै जतय मुइने लोक कें गदहाक योनि मे जन्म प्राप्त करय पड़ैत छैक। एकर एक दृष्टान्त हमरा लोकनि परमहंस लक्ष्मीनाथक उक्ति मे ऊपर देखिये आएल छी। एहि रूढ़ि के तोड़ब कबीर कें जरूरी लगलनि। अंतकाल मे काशी छोड़ि क' ओ मगहर तं अवश्य आबि गेला मुदा मिथिला घुरबाक उत्साह हुनका नहि भेलनि। एकरा लेल हमसब मिथिलाक कटु पूर्वस्मृति कें जिम्मेवार मानि सकै छियनि। एकर बाद ओ मिथिला आनल गेला अपन शिष्य लोकनिक द्वारा, मठस्थापनाक रूप मे। पहिल मठ अंधराठाढ़ी मे बनल तं के जानय जे ओही ठाम हुनकर जन्मस्थान रहल हेतनि जे कि हुनकर शिष्य सब कें बूझल रहल छल हेतनि।

।।कबीरक मैथिली पदावली।।

                मिथिला मे कबीरक पद जाहि रूप मे भेटैत अछि आ मिथिला सं बाहर जाहि रूप मे, ओइ मे बहुत अंतर छैक। आन ठाम कबीरक रचना तीन फारमेट मे छनि-- दोहा, मुक्तक आ गीत।एकरा कहल जाइ छै-- साखी, रमैनी आ पदावली। मिथिला मे भेटल पांडुलिपि सब मे दोहा के अभाव छै। तहिना मैथिली मुक्तक के सेहो। मिथिला मे जे मुक्तक लिखल गेल, जेना कृष्णकारख दास लिखलनि, ओकर भाषा ब्रजभाषा अथवा कचराही छै। कबीरेक नहि, विद्यापतियोक समाज मे भाषाक ई द्वैध मिथिलाक तमाम बौद्धिक लोकनि कें व्यामोह मे ढाठने रहलनि आ मातृभाषाक प्रति निष्ठा कें प्रश्नांकित बनेने रहलनि। जेना लोचन, जे अपन रागतरंगिनी के भाषानुवाद ब्रजभाषा मे लिखलनि, मैथिली मे नहि। मैथिली मे खाली उदाहरण गीत टा देलनि।

       मिथिला सं बाहर जे कबीरक पदावली भेटैत अछि, ओकर पांडुलिपि मे देशी-शास्त्रीय राग सभक निर्देश ठीक ओहिना लिखल भेटैत छैक जेना एतय विद्यापतिक पदावली मे। राग गौड़ी, रामकली, आसावरी, केदार, ललित, सारंग, मलार, घनाश्री आदि किछु राग सब थिक जाहि मे कबीरक पद भेटैत अछि। मिथिलाक पांडुलिपि एहि सं सर्वथा भिन्न छै। सुभद्र बाबू लग मे जे पांडुलिपि छलनि, ओ प्राय: डेढ़-दू सौ वर्ष पुरान रहनि। आरंभिक गीत सब तिरहुता मे लिखल छल, बादक कैथी मे। कुल गीतक संख्या 739 रहै, जाहि मे सं 97 टा कें सुभद्र बाबू शुद्ध मैथिली गीत मानने छला।

       मैथिली मे कबीरक पद एक्के फारमेट, गीत मे भेटैत अछि। ओहि गीत सभक नौ प्रकार छै-- मंगल, सोहर, झुम्मरि, लगनी, बसन्त, समदाउन, निर्गुण आ सबद। बचल-खुचल गीत सीधे पद कहल जाइ छै जे नवम प्रकार छियैक। अइ गीत सभक जे प्रकार-भेद अछि से लोकभास पर आधारित अछि। मिथिला मे 'लोके' कबीर कें जिन्दा राखलकनि। तें अपन लोकगीतक बाना मे हुनका ढालियो लेलकनि। किछु गीत-प्रकार तं वास्तव मे दुर्लभ अछि। जेना लगनी। ओइ मे जतसारि के गीत, सब सं विरल छै। मैथिली लोकगीतक जे संग्राहक सब भेला, एक अणिमा सिंह कें छोड़ि किनको मैथिली श्रमगीतक संकलन के चेष्टा नहि रहलनि। आइयो ई सब गीत लोक मे जीबैए लेकिन बहुत पछड़ल समाज मे जीबैए। ओतय धरि संग्राहक सब के पहुंच नहि छनि।चाहे बुचरू राम किए ने होथि, हुनको नहि छनि। कहि नहि, दृष्टि नहि छनि कि पैरुख नहि छनि। मजा के बात थिक जे कबीरक सत्संग मे आइयो लगनी-जतसारि गाओल जाइत छनि। 

       समदाउन आ निर्गुण मैथिली कविता कें कबीरक देन छियनि। बाद मे उच्चवर्णक संतकवि लोकनि सब सेहो अइ गीत-प्रकार के विकास मे पर्याप्त योगदान देलनि। कते आश्चर्यक बात थिक जे ई गीत सब मूलत: मृत्युक गीत थिक, जखन कि मिथिला मे मृत्युक चर्चो धरि कें अशुभ मानल जाइछ। एकर विपरीत कबीरपंथ मे मृत्यु एक उत्सव थिक। उत्सवबला ई रूप कबीरक बाद आनो समूह धरि पसरल। कहब जरूरी नहि जे विद्यापति जीवन-राग के कवि छला, जखन कि कबीर मृत्यु कें नित्यचर्याक विस्मृति सं बाहर निकालि चेतनाक रूप मे प्रतिष्ठित केलनि। कबीरक कविता मे मानवीय वेदना, प्रश्नाकुलता, रूपासक्ति, सामाजिक संवेदनशीलता आ अस्तित्वगत बेचैनी-- ई सब कथू चेतना सं भरपूर एक एहन निजी अनुभव के रूप मे व्यक्त भेलैए जे देश-कालक सीमा कें तोड़ैत हरेक हृदय कें निजत्वक आभा सं भरि दै छै, बशर्ते कि ओ व्यक्ति कबीर लग ठमकबाक साहस क' सकय। हम बेर-बेर कहैत रहल छी जे विद्यापतिक नकल करब बहुत आसान छै, तें पंडी जी लोकनि अपन रोजी-रोटी लेल (मने राजदरबार मे गायनक लेल) पांच सौ बरख धरि विद्यापतिक नकल करैत रहला। एक आम मैथिल के जे मनोनिर्मिति, संस्कार आ अनुकूलन होइ छै, ठीक-ठीक वैह संस्कार विद्यापतिक रहनि। तें नकल करबाक लेल कुल्लम दुइये टा चीज चाहै छलै-- विषय मे राधा-कृष्णक प्रणय, आ फारमेट मे गीत। ई ककरो लेल, भने ओ कतबो भुसकूल किए नहि हुअय, कोन कठिन छलै? कबीर एकर ठीक विपरीत छला, अति कठिन छला। 'जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।' हुनका धरि पहुंचबाक लेल अर्जित संस्कार कें झाड़ि लेबय पड़ैत छलैक।

       कबीरक मैथिली गीत मे समुच्चा मिथिला के हबगब अहां कें साफ-साफ देखना जाएत। एही कारणें ई गीत सब नितान्त सरल अछि। बीच-बीच मे पारिभाषिक शब्द सब अबै छै जे कबीरक आध्यात्मिक अवधारणा सब सं जुड़ल अछि। कबीर अपन कविता मे भने सिद्धइ के खूब मखौल उड़ेने होथि, मुदा सरोकार आ परिणति मे हुनकर रचना सब हुनका चर्यागीतेक परंपरा मे ल' जा क' ठाढ़ करै छनि। कोनो कविक कविता के मुख्य शक्ति थिक जे शब्दक कते हद धरि ओ सर्जनात्मक प्रयोग क' पबैत अछि। एहि मे तं कबीर बेजोड़ छथि। पुरान मोहाबरा मे नव संदर्भ भरि दै छथिन। घसल-पिटल शब्दो कें उठा क' अपूर्व चमक सं जगमगा दै छथिन। 

       कबीरक काव्यरचना कें हजारी बाबू दू फेज मे बांटलखिन अछि। पहिल, आरंभिक कालक, जखन ओ शाक्त-सहित नानाविध साधना मे लागल छला। हुनकर एहन गीत सब मे सामाजिक प्रश्न मुख्य छैक आ आक्रोश प्रधान स्वर। गुरु रामानंदक संगति मे एलाक बाद जखन हुनका सिद्धि भेटि गेलनि, तखनुक गीत सब दोसर फेजक गीत थिक, जकर प्रधान स्वर छैक प्रेम। हुनकर जे मैथिली गीत सब अछि से एही दोसर फेज के थिक। प्रेम आ एहि सं जुड़ल समस्त मनोभाव एहि गीत सभक केन्द्र मे अछि। कतोक गीत मे ओ नितान्त रहस्यात्मक भेल लगैत छथि, एहन गीत सब बुझौवलि सन लगैत अछि जकरा चलन मोताबिक उलटबांसी कहल जाइ छै, यद्यपि अपन अभिप्राय मे ई गीत सब अत्यन्त चेतनाप्रवण अछि। हुनकर किछु एहनो गीत सब मैथिली मे उपलब्ध छनि।

।।समापन।।

            कबीरक एक शिष्य छलखिन-- पीपा। ओ गागरोन इस्टेटक राजा छला। कबीर सं जुड़ला तं संत भ' गेला। आइ ओ संत पीपा नामें जानल जाइ छथि। जखन कबीर मरि गेलखिन तं स्वाभाविके जे ओ बहुत दुखी भेला। हुनका स्मृति मे ओ एक पद लिखलनि जे कि प्राय: कबीर पर लिखल पहिल माहात्म्य छल। ओहि पदक आरंभे एहि तरहें होइ छै-- 'जो कलिनाम कबीर न होते/ लोक, बेद अरु कलिजुग मिलि करि भगति रसातल देते।' जं कबीर नहि भेल रहितथि तं भेड़ियाधसान लोक, आडम्बर मे भटकल वेद आ स्वयं कलियुग मिलि क' भक्ति नामक तत्वे कें लुप्त क' दितियै।  सोचू तं कोनो संतपुरुषक बारे मे कहल ई कते पैघ बात भेलै!

            से कबीर मिथिलाक छला कि मिथिलाक नहि छला, तकर निश्चय करब आब बहुत कठिन भ' गेलैए। ओहुना, पोखरिक कात मे फेकल जन्मौटी बच्चा कोन जगह फेकल भेटल, एकर निश्चय के क' सकैए? व्यक्ति जखन महापुरुष भ' चुकल रहैत अछि, तं पुरना समयक सब कथा कें गढ़ि लेल जाइ छै, एकटा तरतीब द' देल जाइ छै। हुनकर जन्मभूमिक निर्णय जें कि आब तर्क आ प्रमाणक विषये नहि रहल, ई आब कबीरपंथी लोकनिक आस्था आ विश्वासक विषय भ' गेल अछि, आ कबीरपंथी लोकनिक विश्वास छनि जे कबीरक जन्म काशी मे भेल रहनि, तं एहि मे हम-अहां की क' सकै छी? मिथिलाक लेल तं बहुत पैघ बात आइ यैह छियै जे मैथिली मे हुनकर पद छनि, हजारो पद छनि, लाखो ओकर गेनिहार-सुननिहार छथि।

            से, अंत मे हम कहब, अहां भने अइ रामक भक्त होइ कि ओइ रामक-- तुलसी जेना रामक भक्त छला, कबीरो ठीक तहिना रामेक भक्त छला, अंतर यैह जे दुनू गोटेक राम अलग-अलग रहथिन। कबीरक एक मजेदार पद छनि जाहि मे ओ चारि प्रकारक राम हेबाक बात कहलनि अछि-- 'एक राम दशरथ के जाया/ दोसर घट-घट मांहि समाया/ तीजे रामक सकल पसारा/ चारिम राम सबहि सञे न्यारा।'  भक्ति दुइये प्रकारक होइ छै-- शास्त्रोक्त भक्ति आ काव्योक्त भक्ति। से, अहां भने कोनो रामक विश्वासी होइ, यकीन करू, अहां काव्योक्ते भक्तिक शरणागत होइ छी। आन कोनो उपाय नहि अछि, कारण शास्त्रोक्त भक्ति सं हम-अहां बहुत बहुत दूर आबि गेल छी, एकरे साइत कलियुग कहल जाइत हो। तें हम आग्रह करब, जं अवसर भेटय तं कबीरक देशना कें सुनबा सं नहि चुकब। दुर्लभ छथिन ओ। हमरा सभक बड़भाग से मैथिली मे सेहो छथिन।

            

       अंत मे, कबीरक किछु गीत सं हम व्याख्यानक समाप्ति करय चाहब। पहिल गीत, मंगल--


एकहि हे सखि एक संग विलसय एकहि पलंग रहु सोइ हे

तब तब पिया मोहि देल जगाय जब जब आलस होइ हे।।

एक सखि पूछय पिया के पियारी, दोसर पुछय साधु भाइ हे

कवन रूप तोर पिय के साजनि सो मोहि कहहु बुझाइ हे।।

अदभुद रूप अखंडित साहेब आबय बास सुबास हे

श्वेत कमल ओह पुरुष विराजय असंख ज्योति परकास हे।।

साहेब कबीर मुखमंगल गाओल सन्तो जन लीअउ विचारि हे

एमरिक गौना बहुरि नहि औना फेरु न मनुष अवतार हे।।


 दोसर गीत। समदाउन--       

मिलि चलु सखिया दिवस भेल रतिया चित भेल जग सञे उदास

पांच भैया के एक बहिन दुलहिनि निशिदिन फिरय उदास

सासुर हमरो दुर बसु साजन नैहर नहि भेल बास।।

लालेलाले डोलिया सबुजिरंग ओहरिया लागि गेल बतिसो कहार

गोड़ लागुं पैयां पडुं अगिला कहरिया तिल एक डोलि बिलमाय।

आएल समदिया उठि चलु साजनि जहां होएत सत बेबहार

औन-पौन के डोलिया हे साजन अमर पड़ल ओहार।।

कौने भैया जयतै संग मोरे सखिया कवने लगौतै पार

सगुण भैया जयतै संग मोरे सखिया निर्गुण लगौतै पार।।

भवजल नदिया अगम बहु धरबा कवने विधि उतरब पार

नैया हमरो सत्य के साजन सतगुरु धयलनि करुआरि।।

साहेब कबीर एह गाओल समदनियां सन्तो जन लिय' न बिचारि

अपन अपन गेंठि सम्हारि राखु ओतय नाहि पैंच-उधार।।


तेसर गीत। चैतावर--

ससुरा से आओल लियनमा हो रामा, सोच लगनमा।।

आओ रे ब्राह्मण, बैसु मोरा आंगन

दिनमा देखु ने सुदिनमा हो रामा, सोच लगनमा।।

गोर लागुं पैयां पड़ुं संग के सहेलिया

चितबत रखियो नयनमा हो रामा, सोच लगनमा।।

छुटि जेतै नहिरा भाइ रे भतिजबा

लुटि जेतै माल खजनमा हो रामा, सोच लगनमा।।

दास कबीर मिलि लीहें सब सञे

दुर्लभ बहुरि अबनमा हो रामा, सोच लगनमा।।


चारिम गीत। बसन्त--

बुझु बुझु पंडित मनचित लाए

कबहु भरल बहए कबहु सुखाए।

खन उगय खन डूबय खन आह

रतन न मिलय पाबे नहि थाह।

नदिया नहि सांकरी बहय बड़ नीर

मच्छ न मरय कमल रहय तीर।

पोहकर नहि बांधल तह घाट

पुरइन नहि कमल मह बाट।

कहहि कबीर ई मन केर धोख

बैठल रहय चलन चहय चोख।।

       

             






           


Friday, March 10, 2023

साखी : मैथिलीक दलित कविता वा मैथिलीक प्रतिनिधि कविता ? एकटा ऐतिहासिक प्रश्न

 


- सतीश वर्मा

साल 2020क अंत मे तारानन्द वियोगीक एकटा कविता संग्रह बिना कोनो शोरगुल के बहरायल। कविता संग्रहक नाम अछि ‘साखी’। जखन कि होयबाक त’ ई चाही रहय जे एहि कविता संग्रह कें पूरा धूम-धाम संग लोकार्पण होयबाक चाही। से कियैक नहि भेल, ओहि पर विस्तार सँ बहस केर जरूरत अछि। ‘साखी’ कविता संग्रह के कवरक फ्लैपक बादक पृष्ठ पर लिखल अछि-  ‘साखी-मैथिली दलित कविता’। कवि अथवा प्रकाशक जे कियो ई लिखलनि अछि-  ओ संभवतः परंपरा मे आयल संस्कारवश एना लिखने होताह। ओना हमरा बूझने लिखबाक चाही छल- ‘साखी-मैथिलीक मूल कविता’ अथवा ‘साखी- मैथिलीक प्रतिनिधि कविता’। ओना दलित शब्द भारतीय भाषा साहित्यक स्वीकार्य पद थिक, मुदा हमरा लगैत अछि कोनो साहित्य कें दलित लिखब वा ओकरा श्रेणीबद्ध क' क' हम ओकर व्यापकता आ ओकर सर्व स्वीकार्यता कें रिड्यूस करैत छियै। ओना एकटा बात इहो अछि जे दलित आ स्त्री साहित्यक श्रेणीबद्धता साहित्य कें पाठकीय आ आलोचकीय संस्कार के संग-संग पब्लिक डिस्कोर्स मे सेहो अलग सँ नोटिस करेबा मे मदति पहुंचाबैत अछि।

हमरा हाथ मे जखन साखी कविता संग्रह आयल त’ हम चकित रही। चकित की हतप्रभ रही। आ किछु कविता पढते जे हमर पहिल पाठकीय प्रतिक्रिया छल ओ छल- जुलूम, विस्फोटक। लगैत अछि जे एहि सँ पहिने जतैक मैथिली कविता पढलहुँ से बुढियाक फुसि। वाजिब आ ओरिजनल मैथिली कविता त’ ई थिक।  साखी मे आयल कविते टा मैथिलीक मौलिक कविता थिक, मैथिलीक निज कविता थिक आ साखी मे आयल कविता सँ इतर जतेक रास मैथिली कविता एखनधरि लिखल गेल आ लिखल जा रहल अछि, ओ सबटा मैथिलीक कृत्रिम कविता थिक। मैथिलीक अभिजन कविता थिक। आ हमरा जखन कखनहुँ मैथिली साहित्यक गवाही देबाक जरूरति पड़त त’ हम त’ साखी कविता संग्रहक कविता सभ केँ मैथिली साहित्यक Testimonial के रुप मे पटल पर राखब। जेना संग्रह मे आयल कवि तारानन्द वियोगीक ई कविता देखियो- ‘आगू मैथिलीक बाट नहि’

‘ब’ सँ बाभनक

‘भ’ सँ भाषा

‘म’ सँ मैथिली

तखन बीच मे अहां के?

अहां हींग मे आ कि हरदि मे?

अहां गाय मे आ कि बाछा मे?

तखन हँ

कोनो भाँज जँ हो भजियेबाक

आ कि अरजिये जँ कोनो करबाक

तँ जाउ

गुरुआइन सँ मिलियनु ग’

पाछां मे

आ से सत्ते यैह सत अछि, जे मैथिली साहित्य ब्राह्मण साहित्य थिक आ मैथिली भाषा ब्राह्मण भाषा थिक। ब्राह्मण वर्ण सँ इतर जे वर्ण मैथिली भाषा मे साहित्य रचि-गुण रहल अछि ओ न हींग मे अछि, नहि हरदि मे। ओ कतहु नहि अछि। एतबे टा नहि, एही सँ बेसी मैथिली भाषा आ साहित्यक मारूख यथार्थ त’ वियोगीक कविता ‘जय मैथिली जय मिथिला’ मे आयल अछि, खास क’ कविताक अंतिम पांति-

जतय पेट मे बसैत हो दिमाग

आ माथ मे शैतानक अंतरी,

कुंडली मारि बैसब सनातन थिक

प्रेम स कहियो- जय मैथिली जय मिथिला

मैथिली साहित्य आ भाषा दुनू सही अर्थ मे मैथिली महासभाक ओ महाभोजे थिक, जाहि मे रोहू माछक मुड़ी खयबा लेल सभ कियो अपस्यांत रहैत अछि। ब्राह्मण आ कायस्थे टा नहि, राजपूत आ पचपनिया सेहो, आ दलित सेहो खुश रहैत छथि। तखन त' कवि कहैत अछि-

मुदा, कहियो पुछियनु जँ कायस्थ-राजपूत केँ

भाई यो- कै मैथिल

तखन सुनि लिय खेरहा-

गोनूझाक गोंत मे उबडूब करैय मिथिला

उबडुब करैत हो मिथिला कि नहि करैत हो,

मैथिल महासभा बड़का भोज केलक अछि

निमंत्रण देबय आयल छी

बिझो संगहि बुझी

एहि पर तँ राजपूतो खुस, पचपनियो...

आ कि दलिते की कम खुश

मैथिली भाषा आ साहित्य त’ ओनाहितो एकटा महाभोजे थिक। गिद्धक महाभोज। आ गिद्धक एहि महाभोज मे दलितक की काज? गिद्ध सभ बड़ खुश होताह त’ दुटा कुटिया माछ अहां लेल छोड़ि दैत, नहि तँ आंठि-कूठ सँ काज चलाऊ। आ बेसी कबीलती झारबै त’ गिद्धक ग्रास बनबाक सेहो खतरा छै। कतेक लेखक एहि गिद्ध भोज मे गिद्धक ग्रास बनल अछि।

हम सहीये मे गलत रही। हमरा लागल जे साखी मे जे कविता अछि सैह मैथिलीक मूल कविता थिक, मैथिलीक मौलिक कविता थिक। मैथिलीक ओरिजनल कविता थिक। मुदा हमरा मानने सँ की? अनहरा के जागले की आ सूतले की? हमरा मानने सँ कोनो उनटन थोड़बेक भ’ जेतै। मैथिली जकर भाषा छियै, मैथिली भाषाक खतियानी जिनक नाम लिखल छै, ओ जे मानताह वैह हैते ब्रह्म वाक्य।  तँ कवि तारानंद वियोगी आ प्रकाशक किसुन संकल्प लोक द्वारा ई लिखब जे साखी- मैथिलीक दलित कविता थिक से सोलहो आना सत थिक आ वाजिब थिक। आ ई लिखब जरूरियो। जँ हिन्दी मे हंस पत्रिकाक संपादक आ बीसम शताब्दीक प्रखर बुद्धिधर्मी राजेन्द्र यादव दलित साहित्य केँ प्रमुखता नहि दैने रहतियथिन त’ हिन्दी साहित्य मे दलित साहित्य कहियो केंद्रीय विषय नहि बनि सकैत रहैक।

दलित कविता, सभ भारतीय भाषा मे लिखल गेल आ लिखल जा रहल अछि। मुदा मैथिली मे कियैक नहि? मराठी, गुजराती, कन्नड, तेलुगू आदि भाषा मे लिखल गेल आ जा रहल दलित कविता सभ त’ सामाजिक आ राजनीतिक परिवर्तनक लेल उर्वर भूमि तैयार कयने अछि। आ हिन्दी मे त’ दलित चेतना वा दलित विमर्श समकालीन हिंदी कविताक केंद्रीय विषये बनि गेल अछि। दलित कविता नहि सिर्फ हिंदी कविता केँ एकटा नव साँचा मे ढालि देने अछि, बल्कि ओकरा नव मोहावरा आ अर्थ प्रदान क’ जीवंत सेहो बनौलैक अछि। सत मानी त’ दलित कविताक आमदक पश्चाते समकालीन हिन्दी कविता केँ मानवीय गरिमा भेटलै आ ओकर फलक लोकतांत्रिक सेहो भेलै। मुदा अफसोच जे सबसँ पुरान भाषा मैथिली भाषाक साहित्य मानवीयताक एहि क्रांति सँ एक्को मिसिया नहि आंदोलित भेल। दलित चेतना मैथिली साहित्य मे ओना त’ मुखर भ’ क’ कमे आयल अछि आ जँ आइलो अछि त’ सहानुभूति आ उपकारे जकां। पहिल बात त’ ई जे मैथिली भाषा मे दलित कवि, दलित कथाकारक गिनती जँ करी त’ ओ गिनती संभवत हाथक दस आंगुरे धरि जाइ क’ खत्म भ’ जाइत आ भ’ सकैत अछि जे दसो आंगुर धरि ओ गिनती नहि जाइ। तखन मैथिली साहित्य मे दलित चेतना आ दलित विमर्श कें हेरब सर्वथा बेमानी। मुदा तारानन्द वियोगीक कविता संग्रह ‘साखी’क आयब मैथिली साहित्य मे सर्वथा एकटा क्रांतिकारी घटना भ’ सकैत अछि, जँ एकरा दलित विमर्शक प्रस्थान बिन्दु मानि लेल जाय। साखी कविता संग्रह पढलाक बाद ओहि ताप आ धाह सँ आंदोलित होयबाक बाद की मैथिली साहित्य मे प्रगतिशील दलित चिंतनक एकटा नव काव्य धारा ल’ क’ समर्थवान कविक खेप आबि सकैत अछि? अयबाक चाही, जँ एहि कविता संग्रहक कविता सभ कें व्यापक बहुजन मानस तक प्रसारित कयल जाय। मुदा से मैथिली मे त’ संभव नहि। स्वयं कवि तारानन्द वियोगी ‘अकादमी मे दलित’ कविता मे लिखैत छथि-

अकादमी मे दलित, माने की?

जेना गोसाउनि घर मे चाली!

आब चाली माने की आ गोसाउनि घर मे चाली माने की-तकर अर्थ बुझवा मे दलित समाज के कोनो परेशानी नहि होयबाक चाही। ई ओतबो मेटाफोरिक नहि छै। चालीक ई बिंब त’ सरिपहुँ मारूख आ बिसबिस्सी उठाय दैय वला अछि। एहि कविताक दोसर पांति मे कवि कहैत छथि-

सम्हरि क’ भैया जोगी, सम्हरि क’

बड़ छलह काबिल तें लेलखुन

-से जुनि पतयबिहह

खगता रहनि, एक

दोसर, यस सर यस सर करबहुन

-तै भरोस पर उठेलखुन!

मैथिली साहित्य मे दलितक स्थिति यस सर यस सर सँ बेसी उपर कहां अछि। से त’ हम आंखि सँ देखल। मैथिली मे दलित साहित्य आ दलित विमर्श तखने केन्द्र मे आयत, जखन दलित स्वयं अपन दर्द, अपन पीड़ा, अपन शोषण आ भेदभावक कथा कहथिन। स्वानुभूति आ सहानुभूति मे बड़ पैघ फर्क होइत छैक। शोषित-पीड़ित दलितक दुख-दर्द, भेदभाव, संघर्ष आ पीड़ा पर कतेक गैर-दलित कवि-लेखक द्वारा सेहो लिखल गेल अछि। किंतु हुनक संवेदना आ चेतना दलितक के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति सँ आगू नहि बढ़ि सकल अछि। ओ दलितक प्रति सहृदय त’ अछि, किंतु हुनक पक्षधर कदापि नहि। एक ठाम ओ दलितक प्रति दया आ सहानुभूति देखाबैत छथि आ दोसरे ठाम ओ दलितक दलन आ दुर्दशाक मूल-आधार जाति-व्यवस्थाक कोनो न कोनो रूप मे समर्थन करैत छथि वा ओकरा बारे मे मौन रहैत छथि। दलितक प्रति हुनक चेतनाक ऊत्स ऊर्जा, सक्रियता आ परिवर्तनकामी चेतना सँ रहिते रहैत अछि। ताहि लाथे कोनो दलित कवि केँ दलितक प्रति फुसियाही सहानुभूति प्रदर्शित करय वला गैर-दलित लेखक-कवि सँ कहय पड़ैत अछि जे- 'दो-चार दिन के वास्ते अछूत बनके देख।'  दलितक पक्षधरता मे ठाढ भेने बिना दलितक बात करब वा हुनक प्रति सहानुभूति व्यक्त करब बेमानी अछि।

हिन्दी मे दलित साहित्यक अवधारणा तेजी सँ अभरैत ओ धार थिक, जे संपूर्ण हिन्दी साहित्य के पाठ आ समझ केँ नव ढंगे देखबा आ बूझबाक लेल मजबूर करैत अछि। एहि अन्तर्गत एकर अन्तर्वस्तु, स्वरूप आ रचनाकार क’ ल’ एकटा बहस चल रहल अछि, जे कि दलित साहित्यक अन्तर्गत केवल दलितक द्वारा रचित साहित्य कें राखल जयबाक चाही अथवा ओहु साहित्य के, जे गैर दलित द्वारा दलितक जीवन आ दशा पर लिखल गेल अछि। दलित साहित्यकार जेना कि डॉ. धर्मवीर, मोहन दास नैमिशराय, जय प्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी आदि मानैत छथि जे वास्तविक दलित साहित्य वैह थिक जे दलित द्वारा लिखल गेल अछि। एहि बहस मे ओमप्रकाश वाल्मीकिक मान्यता कने बेसी यथार्थपरक बुझाइ पड़ैत अछि। ओ लिखैत छथि, जे गैर दलितक जीवन मे दलितक प्रवेश सिर्फ पिछला दरवाजाक बाहर धरि अछि आ दलितक जीवन मे गैरदलितक प्रवेश नहि के बराबर अछि। ताहि कारणे ई कहल जा सकैत अछि, जे कोनो गैर दलित जखन दलित पर लिखैत अछि त’ ओहि मे कल्पना अधिक होइत अछि। एकर सबसँ पैघ प्रमाण ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ अछि, जकर लेखक अमृत लाल नागर स्वयं स्वीकारने छलाह, जे ओ दलितक जीवन कें सिर्फ खिड़की सँ देखने छलाह। खिड़की सँ देखब आ ओकरा भोगब दूनू दू बात। दलिते दलितक पीड़ा कें समझि सकैत अछि आ ओहि पीड़ाक प्रामाणिक प्रवक्ता भ’ सकैत अछि। बिना भोगने ओ यथार्थक जड़ि मे पैठ बना पायब दुर्लभ काज थिक। हालांकि परकाया प्रवेशक विद्या सँ कखनहुँ-कखनहुँ साहित्यकार ई संभव क’ लैत अछि। मुदा ई विद्या दुर्लभ अछि। ताहि कारणे यैह अटल सत्य अछि, जे दलित साहित्य जखन दलित साहित्यकारे लिखत तखने ओ ज्यादा यथार्थपूर्ण, प्रभावी आ संवेदनशील होइत। आब सब दुख आ बेलल्ल सन कविता त’ तारानन्द वियोगिये लिख सकैत छलाह, यात्री जी तँ कदापि नहि।

सब दुख दीहह गोसाँइ

लेकिन बाभन पड़ोसिया नै दीहह

चंठ बाभन पड़ोसिया

नै सठै जोगी हो,

मोचाड़ि क’ गाड़ि देतह तोरा माटितर खन्दान समेत

लेकिन बाभनक द्वेष तैयो नै सठै छै

जनम-जनम के भरल छै बिखक घैल

ओकर बुन्न छलके छै चहुँदिस हमरा लेल तोरा लेल

झरके छै ओहि सँ ओकर संततियो, से अलग बात छै

हौ, असली बाभन अपन सन्ततियो के नै होई छै

ओ होई छै सिरिफ-सिरिफ अपन आप केँ

आ कि ककर होई छे- कहह

अपना दुखेँ कानै छी जँ

तँ कानियो नै होइए

लागैए खुशी मनबैत हएत पड़ोसिया हमर रुदन पर

हँसे छी तँ हँसि ने होइए जोगी हो

अनचोक्के जँ सुनलक डकूबा

तँ उनट-बिनट करत पोलटिस

परदेसी जँ कियो एला पाहुन हमर दरवज्जा

ओह तेना-तेना करत छल-छद्म सँ हमला

जे होइए, कोशी मे जा डूबि मरी नीज एहि काल

एहन कोन वेदना आ यातना कवि केँ ई कहबा लेल विवश करैत अछि, जे ओ कहैत छथि कोशी मे जाय क’ डूबि मरी। जातिगत अपमान आ भेदभावक पीड़ा आ दंश झैलेत-झैलैत कविक दुख एतेक निसहाय भेल अछि, जे कवि कहैत छथि जे- सब दुख दीहह गोसाँइ/लेकिन बाभन पड़ोसिया नै दीहह/चंठ बाभन पड़ोसिया।

ई कविता दरअसल बाभनक प्रति कोनो डाह आ आक्रोश भाव सँ नहि लिखल गेल अछि। ई त’ वर्चस्ववादी वर्ण व्यवस्थाक ओ सनातन दंश थिक, जकर दर्द कें दलित सदियो सँ सहैत आबि रहल अछि। एहि मे बाभनक कोनो दोष नहि। साहित्य संवेदनाक क्षेत्र अछि। सत्ते लिखने छलाह छायावादक प्रवर्तक कवि सुमित्रानंदन पंत जे -'वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान'। एहि काव्य पंक्तिक कविता आह आ दर्द सँ निकलैत अछि। एहि सँ ई आशय आ अर्थ निकलैत अछि जे नीक कविता वैह होयत जे आहत मन वा पीड़ाक गर्भ सँ निकलत आ एहने कविता जीवंत सेहो होयत। दर्दक अनुभूति जतेक गहींर आ तीव्र होयत, कविता ओतबेक नीक आ उत्कृष्ट होयत। कविताक संदर्भ मे आह आ दर्द मुहावरा नहि, अकाट्य सत्य थिक आ ई दलित कविता पर एकदम सटीक बैठैत अछि। दलित कविता दर्द सँ निकलैत अछि, कियैक तँ सदियों सँ दलित दर्द कें सहैत आबि रहल अछि आ पीड़ाक अनुभव करैत आबि रहल अछि। दर्द के अलावा ओकरा किछु नहि भेटल अछि। दलित कविता मे दर्दक अभिव्यक्ति प्रमुख होइत अछि। यैह दर्द आ पीड़ाक टीस मे तारानन्द वियोगी ‘बेलल्ल’ सन कविता लिखने हेताह। एहि कविता मे त’ दलित मनक लाचारगी, बेचारगी आ निसहाय होयबाक एकटा पीड़ा अभरि क’ आबैत अछि-

बहुत घृणास्पद कोनो एक शब्द

हम हुनका लेल प्रयोग करय चाहैत छी

नमहर गर्भवला शब्द

जाहि मे हमरा मोनक सबटा घृणा ल’ सकय अटान

हम आब ओहि शब्दें हुनका

कोना क’ गरियाबियनि हो कोना क’

कहै छियनि नीच, जे कि ओ हजार गुना छथि

मुदा ‘नीच’ तँ पहिनहि हमरा कहि चुकला अछि

महिषासुर थिका चंड-मुंड के जोड़ी बनैने

मुदा सेहो तँ हमरे लोकनिक नाम छल

ने चंडाल कहि सके छियनि ने म्लेच्छ

अनार्य जँ कहबनि तँ तोंही हमरा टोकबह

जे हम अपन पदक दुरुपयोग क' रहल छी।

निरुपाय बनल छी जोगी, से इतिहास मे लिखिहह

लिखिहह जे एक दिन हम नचार

एकटा निखंड गारि धरि लेल बेलल्ल रहि,

लिखिहह

इतिहास मतलब दलित-शूद्रक गारि देब, इतिहास मतलब दलित-शूद्रक संग भेल अन्याय आ शोषण, इतिहास मतलब दलित-शूद्र पर केल गेल दमन आ दलन। इतिहास मतलब दलितक उत्पीड़न। एहि इतिहास के नहि त’ कवि उनैट सकैत छथि आ नहि कविक मित्र जोगी। ‘बेलल्ल’ कविता मे कवि जोगी सँ त’ यैह कहय लेल चाहैत छथि, जे गारि पढ़वा लेले शब्दो दलित सं छीनि लेल गेल अछि आ ओ ताहू लेल बेलल्ल भेल अछि। 

दलित साहित्य, आनंद आ मनोरंजनक साहित्य नहि थिक, बल्कि हिन्दू धर्म आ संस्कृति सँ दलित कें जे यातना आ वेदना भेटल अछि, ओकरा परिवर्तनकामी स्वर मे बदलबाक साहित्य थिक। सम्पूर्ण जनमानस कें संवेदनशील बनेबाक साहित्य थिक दलित साहित्य। दलित साहित्य मे, अनुमान, कल्पना तथा ईश्वरोपासना कतहुँ नहि भेटत। दलित रचनाकारक स्वयंक दुःख-दर्द, पीड़ा, आक्रोश आ दलित समाजक खांटी सच, कविता-कहानी, आत्मकथा आ उपन्यासक रूप मे व्यापक स्तर पर सृजित भ’ रहल अछि। सिर्फ इतिहासेटा मे एकलव्य नहि बनायल गेल छलाहे। एकलव्य त' आइयो बनि रहल छै। जेना देखियो वियोगीक कविता- ‘समाधि पर जनमल तुलसी।’

मंच पर भाषण क’ रहल छलाह विद्वान

ओ हमरे लिखल पोथी सँ संकलित केने छला तथ्य

ओहि ढूह पर चढ़ि ओ फुलौने छला छाती

जकर अन्वेषण हम कने छलहुँ

ओ द’ रहल छला भाषण

आ हम पतियानीक सब सँ पाछूक कुर्सी पर

बैसि क’ सुनि रहल छलहुँ

ओ गरजि रहल छला

आ हम सुनै छलहुँ चुपचाप मौन

हम छलहुँ चुपचाप सुनैत मौन

की हम प्रतीक्षा क’ रहल छलहुँ

जे कतहु एक बेर नाम लेता वक्ता महोदय हमरो,

असहमतिक चरम बिन्दु धरि जा क’

की हम सहमतिक तलाश क’ रहल छलहुँ

स्मृति कें बचौने रखबाक भार

की एक हमरे कपार पर छल

जेना समाधि पर जनमल तुलसी

मने बाभनक गाम मे जनमल शुद्र।

एकलव्य के तँ गुरुदक्षिणा मे द्रोणाचार्य आंगुर काटि क’ मांगि लेने छलाह, मुदा एहि कविता मे त’ गर्दने काटि लेल गेल। एकलव्य के समय मे ऐतिहासिक अन्याय भेल, मुदा कवि वियोगीक समय मे ऐतिहासिक डकैती भेल। दलित विचारक अन्वेषण आ अध्ययन कयल किताब सँ तथ्य कें बलजोरी डाका मारि अपन नाम सँ क' लैब आ फेर सार्वजनिक रुपें ओहि किताबक तथ्य सँ भाषण द’ अपन छाती फुलायब- ई कतुका बौद्धिकता भेल। ई सिर्फ छल-कपटे टा नहि एकरा त’ बौद्धिक छिनतई आ गुंडागर्दीक संज्ञा देबाक चाही, जे एकलव्य सँ ल’ क’ रोहित वेमुला धरि जारी अछि।

वस्तुतः आई राम, कृष्ण ब्राह्मणवाद आ हिंदू धर्म आ संस्कृतिक नायक छथि आ तकरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहल जाइत अछि। मुदा राम आ कृष्णक जिक्र होइते दलित कवि कें शंबूक आ एकलव्य कियैक याद आबि जाइत अछि? कियैक दलित कें हिंदू संस्कृतिक ओ स्वर्णिम अतीत गारि जकां बुझाइत अछि? ताहि कारणे दलित कवि हिंदू संस्कृतिक ओहि तथाकथित गौरवपूर्ण इतिहास आ परंपरा कें न सिर्फ नकारैत आ धिक्कारैत अछि, अपितु ओहि पर थूकैत सेहो छथि। बुद्धशरण हंसक एकटा हिन्दी कविता मे दलित चेतनाक एहि खदबदाहट कें बहुत स्पष्टता से सुनल जा सकैत अछि।

'जब तुम राम का नाम लेते हो

मुझे शंबूक का

कटा सिर दिखने लगता है

जब तुम हनुमान का नाम लेते हो

मुझे गुलामी का दर्द सताने लगता है

तुम्हें अपने घृणित अतीत पर गर्व है

मैं तुम्हारे अतीत पर थूकता हूँ।

मुदा मैथिलीक दलित कवि तारानन्द वियोगी हिन्दू धर्म आ संस्कृति कें धिक्कारे आ नकारे सँ बेसी ओहि धर्म आ संस्कृति मे छिपल राजनीतिक छल-छद्म आ ऐतिहासिक अन्याय, डकैती आ कपट कें नहि सिर्फ नांगट करैत छथि, बल्कि इतिहासक ओरिजनल भाष्य सेहो प्रस्तुत करैत छथि। ‘कृष्ण’ आ ‘कतेक टाक छथि शिव’ हुनक ई दु टा कविता त' सरिपहुँ इतिहास आ हिन्दू धर्मक सभटा भाष्य आ मान्यता केँ उनटि क’ राखि दैत अछि आ से संपूर्ण प्रमाणिकताक संग। एहि संग्रह मे कवि तारानन्द वियोगीक एकटा कविता अछि ‘कृष्ण’। ई अनायास नहि थिक, जे कृष्ण एकटा एहन चरित्र अछि जे सदति लगैत अछि कि ओ हमरे सन अछि आ हमरे बीचक एकटा मनुष्य थिक। कृष्ण पर लिखल वियोगीक एहि कविता मे कृष्णक एकटा दोसरे भाष्य अछि, जे अपना सन लगैत अछि। ई भाष्य थिक कृष्णक मानवीयकरणक भाष्य। कृष्णक लौकिकीकरणक भाष्य।

ततेक सताओल गेला एक नेनपन सं

ततेक

जे 'कृष्ण' बहरेला

नै चिन्ता करी जोगी हौ,

संघर्षे सं बहराइ छथि कृष्ण

जेना छेनी सं प्रतिमाक सौन्दर्य

कृष्णो बुढ़ेला कहिया?

जहिया राजा भेला,

जेना जनको ढहला तखने

जखन दशरथ-घर मे बेटी ब्याहलनि

सोचहक

कोना सन-सन करैत रहै संकट

जम-जम करैत रहै कसाइ

मुदा तखनो

कृष्ण कने काल बंसुरी बजाइये लेथि

नाचिये लेथि थोड़बो थोड़

दोस-महीम संग

मोन पाड़ह

कृष्ण तैखन राजा नै भेल रहथि

जोगी हौ, तोरा तँ कहियो राजा हेबाके नै छह

नै चिन्ता करी

एहि कविता में कवि कृष्ण केँ संघर्ष स’ तपि क’ बाहर निकलल लोकनायक के रूप मे देखैत छथि। ई कविता हमरा बूझने एकटा गंभीर ऐतिहासिक आ सामाजिक विमर्शक मांग करैत अछि। हमरा सत्ते लागि रहल अछि, जे एहि कविता मे कृष्णक मानवीयकरण भेल अछि, कृष्णक लौकिकीकण भेल अछि। माने कवि के मन मे ई बात छै जे कृष्ण कोनो देवता, अवतार नहि, बल्कि एकटा साधारण सन ग्वाला रहैक। ओना त' सभ कियो जानिते अछि जे कृष्णक जन्म पृथ्वीलोक पर मानव रुप मे भेल रहै, मुदा सभटा धर्म ग्रंथ आ भागवत में त' कृष्ण लीलाक मायावी रूप के महिमामंडित करैत हुनका ईश्वर यानी नारायण कहल गेल अछि। मुदा हमरा लागैत अछि, जे एहि कविता मे कवि कृष्ण के देवता नहि मानि, संघर्ष सँ बहराइल एकटा जननायक के रूप में देखि रहल छथि। तहन त’ कवि लिखैत छथि जे- कृष्णो बुढ़ेला कहिया? जहिया राजा भेला। आब हमरा सभ कें ई बूझबा मे कोनो भ्रम नहि होयबाक चाही, जे भगवानो कहियो बूढि होइत छै की? आ ततबे टा नहि, एहि कविता मे कृष्ण प्रतिरोध के पुरोधा के रूप अछि। ई कविता स्पष्ट रूप सँ ई स्थापित करैत अछि जे कृष्ण कें भगवान मानबाक घटना ब्राह्मणवादी कुटिलता अछि। जखन कि सत त’ ई अछि, जे कृष्ण दुख मे पलल-बढ़ल मानवेक रूप मे हमर- अहांक प्रेरणास्रोत छथि।

धर्म, वेद आ ब्राह्मणवाद-ई सभटा प्रपंचक पुलिंदा थिक। एहि मे जे किछु अछि ओ सभटा बाभनक द्वारा आ बाभने के लेल अछि। दलितक हित, सम्मान वा अधिकारक लेल हिन्दू धर्म, वेद आ ब्राह्मणवाद मे कोनोटा जगह आ संरक्षण नहि अछि। ताहि कारणे कवि कें वेद-धर्म मे अपना लेल किछु नहि देखाई दैत अछि। तखन नै वियोगी अपन कविता ‘धरम के नाम पर’ मे लिखैत छथि-

ने हम वेद मे, ने विभेद मे

जेन्ने सँ एले करुण पुकार हम तकर संवेद मे

ने हम जन्तर मे ने मन्तर मे

बुद्धि मे अँटल जैह, सैह हमर अन्तर मे,

तखन, हम कोना हिन्दू

मुदा तै सँ की

चाहता तँ ओ यैह जे वोट दे काल मे हम हिन्दू

अनिष्ट मोल लै काल मे हिन्दू हम

दारू कें सस्त करै काल मे हिन्दू हम

हिन्दू हम भैयारी सँ लड़ै काल मे

हिन्दू हम बम खा क’ मरै काल मे

एहि कविताक राजनीतिक निहितार्थ कतैक पैघ छै आ कतैक मारूख- तकर विस्तार सँ चर्चा होयबाक चाही। एहि कविता मे कवि हिन्दू धर्मक ओहि सांप्रदायिक आ फासीवादी क्रूर चेहरा कें नांगट क’ रहल छथि, जेकरा लेल दलित सिर्फ आ सिर्फ एकटा वोट बैंक आ ओतबे टा नहि, जँ कतो एहि सांप्रदायिक आ फासीवादी हिन्दू धर्म कें धर्म आ जातिक नाम पर दंगा फसाद करबा अपन राजनीतिक गोटी सेट करबाक रहै छै, तखन दलित अचानक सँ हिन्दू भ’ जाइत अछि। सब कें मोने हैत जे साल 2002क गुजरात दंगा मे एकटा फोटो आयल छल। माथ पर भगवा कपड़ा बन्हने, दुनू हाथ ऊपर उठौने हुंकार भरैत एक शख्स के। ओकर एक हाथ मे लोहाक रॉड छल आ चेहरा पर उन्माद आ गुस्सा आ पांछा जरैत अहमदाबाद शहरक धधरा। ई फोटो गुजरात दंगाक सबसँ कुख्यात तस्वीर मे सँ एक छल, जे बाद मे जा क’ 2002क गुजरात दंगाक पोस्टर बॉय बनि गेल। हैवानियत आ दहशत सँ तरबतर एही व्यक्तिक नाम छल अशोक भावनभाई परमार उर्फ अशोक मोची।

 अशोक मोचीक एहि फोटो कें देखि क’ कतेक कट्टर हिंदू सभ अपन छाती चौड़ा करैत छल, मोंछ ऐंठत छल। अशोक पर गर्व क’ स्वयं कें ओकरा सँ रिलेट करैत छल। मुदा की अहां जानैत छी 2002क गुजरात दंगा मे शामिल अशोक मोची आब की करैत अछि आ दंगाक बारे मे ओ आब की कहैत अछि? दंगाक समय अशोक बेघर आ बेरोजगार छल। आब ओ अहमदाबाद शहर मे जूता-चप्पल सिबाक काज करैत अछि। ओ एतेक नहि कमा पाबैत अछि, जे अपना सिर लेल छतक इंतजाम क’ सकय। बेघर, फुटपाथ पर सुतैत अछि ओ। गरीबीक कारणे बियाह नहि भ’ सकलै। आ सबसँ पैघ बात जे आब अशोक गुजरात दंगाक निंदा करैत अछि। एतबे टा नहि, ओ दंगा मे शामिल होयबा सँ सेहो इनकार करैत अछि। ओकरा मोताबिक, जाही दिन ओकर तस्वीर लेल गेल, ओहि दिन दंगा भ’ रहल छल। हिंदू मारैत छल मुसलमान सभ कें। कियो हिन्दू ओकरा हाथ मे रॉड थमा क’ गोधरा कांडक बदला लेबय लेल कहने छल। एही दौरान एकटा फोटोग्राफर ओकर फोटो खींच लेलकै। जे फोटो बाद मे कतेक ठाम पब्लिश भेल। मैगजीन्स, अखबार आ न्यूज चैनलो मे छायल रहल। साफ छै जे अशोक मोची सन दलितक इस्तेमाल सिर्फ दंगा मे भीड़ बढ़ेबा लेल आ मारि-काट मचेबा लेल फासीवादी हिन्दू ताकत करैत अछि।

एतबे टा नहि हिन्दूक लेल दलित सिर्फ आ सिर्फ वोट बैंक होइत छैक। एकर सब सँ जीवित आ जीवंत प्रमाण थिक- मिथिलाक कामेश्वर चौपाल। भाजपा नेता आ श्रीराम जन्मभूमि न्यास समितिक सदस्य कामेश्वर चौपाल कें एखन बिहार चुनावक नतीजा आबैक बाद उपमुख्यमंत्री बनेबाक चर्चा बड़ जोर पकड़ने रहैक। मुदा सब खत्म। की कामेश्वर चौपाल बिहारक डिप्टी सीएम बनि सकलाह? कियैक नहि बनलाह? ओकर कारण अहां सभ सेहो बूझैत छियैक। ई वैह कामेश्वर चौपाल थिकाह, जे राम मंदिर निर्माण आंदोलनक अग्रणी कारसेवक रहथि आ राम मंदिर शिलान्यास कार्यक्रम मे राम मंदिर निर्माणक लेल पहिल शिला कामेश्वर चौपाले राखने छलाह। रोटीक संग रामक नारा देबय वला कामेश्वर चौपाले 9 नवंबर, 1989 कें राम मंदिर निर्माणक लेल भेल शिलान्यास कार्यक्रम मे पहिल ईंट राखने छला।  

'रामराज्य में दूध मिला था, कृष्ण राज्य में घी'। ई एकटा जन-गीतक पंक्ति अछि, जे सत्तरक दशक मे उत्तर भारत मे राजनीतिक आ सामाजिक मंच सँ गायल जायत छल। एहि गीतक माध्यमे समाज मे ई संदेश देल जायत छल, जे देशक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था ठीक नहि अछि। जखन-जखन देशक सामाजिक-आर्थिक स्थिति मे सुधारक बात कयल जायत अछि, तखन-तखन हिंदू नेता सभ रामराज्य के स्थापनाक बात कहैत छथि। एकर अलावा ओ स्वयं कें हिन्दू हेबा पर गर्व करैत अछि आ दलित सभक सेहो आह्वान करैत छथि, जे ओहो स्वयं कें हिंदू मानथि आ हिंदू होयबा पर गर्व करथि। जाहि मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा अपने हाथ सँ शूद्र ऋषि शंबूकक गर्दन काटल गेल छल, ओही रामराज्य मे दलितक कोन स्थान? ई एकटा पैघ सवाल अछि। दलित कविता पूरा शिद्दतक संग ऐहन प्रश्न सभ केँ उठाबैत अछि। रामराज्य सवर्ण हिंदूक लेल कल्याणकारी वा स्वर्णिम भ’ सकैत अछि, दलितक लेल ई त स्वतंत्रता विरोधी, दमनकारी आ अन्हार युग सँ बेसी खतरनाक साबित भ’ रहल अछि। बाबा साहेबक लिखल गेल भारतीय संविधान मे देशक समस्त नागरिक लेल समान मौलिक अधिकार प्रदान केल गेल अछि, किंतु दलित केँ आइ धरि हुनक अधिकार नहि भेटल अछि।

एखन धरि दलित कें छोट-मोट अधिकार आ सुविधा द’ हुनक संघर्ष-चेतना के शांत करबाक कोशिश भ’ रहल अछि। मुदा डॉ. अंबेडकरक पैघ संघर्ष आ प्रयास सँ शिक्षित भेल दलित सभ मे आयल अधिकार चेतना अधिकारक नाम पर झुनझुना थामय लेल तैयार किन्नहुँ नहि होयत। सामाजिक आ आर्थिके टा नहि, आब दलितक अधिकार चेतना राजनीतिक अधिकार लेल सेहो पिछला दू दशक सँ संघर्षरत अछि आ एहि आधारभूमि पर लिखल गेल तारानन्द वियोगीक दीर्घ कविता ‘बाभनक गाम’ जे एहि संग्रहक अंत मे अछि, ओकर चर्च कयने बिना एहि कविता संग्रह चर्चा बेमानी। मुदा ‘बाभनक गाम’ दीर्घ कविताक जे वितान अछि आ जे पैघ कैनवास अछि, ओहि पर हमर मानब अछि जे एकटा पूरा पोथी लिखल जा सकैत अछि। ताहि कारणे हम सोचने छी जे ‘बाभनक गाम’ पर विस्तार सँ आ अलग सँ लिखब।  

दलित कविताक स्पष्ट मत होइत अछि, जे हमरा आदमी चाही, आ आदमियत चाही। मनुष्यता समाज मे शांति, सदभाव आ सह-अस्तित्वक आधार होइत छै। मनुष्यता होइत तखने दलितक जीवनक अंधकार मिटत आ ओकरा अंदर आत्म-विश्वास आओत। मानवता पनपत तखने दमन, शोषण, अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न खत्म होयत आ समानता संग लोकतंत्रक स्थापना होयत। ताहि कारणे दलित कविता कें ईश्वर, धर्म, धर्माचार्य ककरो चाह नहि अछि। कियैक तँ ईश्वर, आत्मा आदिक अस्तित्व मनुवाद/ब्राह्मणवादक प्रपंच थिक।

Friday, March 3, 2023

रेणु की मैथिली रचनाएं

 रेणु की मैथिली रचनाएं


तारानंद वियोगी


रेणु के समकालीन कनिष्ठ मित्रों में से एक भारतीभक्त ने उनकी मैथिली कहानियों के बारे में लिखा है-- 'आकाशवाणी के पटना केन्द्र से उनकी मैथिली कहानियां प्रसारित हुई थीं, कुल छह या आठ। गंगेश गुंजन और छत्रानंद के सहयोग से दो कहानियां मुझे उपलब्ध हो पाई थीं-- 'जहां पमन को गमन नहि' और 'अगिनखोर'। शेष पांडुलिपियों का कुछ पता नहीं चला। वे आज तक अनुपलब्ध हैं। उपर्युक्त दो में से पहली 'सोनामाटि' में छपी थी, दूसरी छपकर भी नहीं छपी-- यानी सोनामाटि बीच में ही दम तोड़ बैठी और वह कहानी छपे फार्मों के साथ दबी-घुटी प्रेस में ही रह गयी।'

              लेकिन वास्तविकता है कि वह कहानी प्रेस में दबी-घुटी नहीं रह गयी। उसकी पांडुलिपि की प्रति रेणु ने अपने साथ रख ली थी। नागार्जुन-राजकमल और रेणु के रखरखाव में यह बड़ा अंतर था। हम पाते हैं कि मूल मैथिली में जब यह कहानी नहीं छपी-- मैथिली में जब भी कभी वह लिखते, आग्रह-अनुरोध पर ही लिखते थे, आत्म-प्रेरणा से नहीं, और संपादकों को अयाचित रचना भी नहीं भेज सकते थे-- रेणु ने 'अगिनखोर' को हिन्दी में रूपान्तरित कर लिया और यह कहानी 'धर्मयुग' (5-12 नवंबर 1972) में छपी।

              मैंने गंगेश गुंजन से पूछा-- 'क्या उन्होंने छह-आठ कहानियां मैथिली में लिखी थीं?' उन्होंने उन पुराने दिनों को याद करते हुए बताया-- 'नहीं, कहानियां तो इतनी नहीं होंगी, लेकिन संस्मरण-वार्ता आदि को भी शामिल कर लें तो इतनी क्या, इससे ज्यादा ही होंगी। दरअसल 'भारती' और 'बाटे-घाटे' (आकाशवाणी पटना के मैथिली कार्यक्रम) में हम उन्हें अक्सर बुलाते रहते थे, और वे भी हमारा आमंत्रण सहर्ष स्वीकार करते। मैथिली लिखने में न उन्हें संकोच था न असुविधा। हम इसका यथासंभव लाभ उठाते।'

              -- लेकिन वे पांडुलिपियां?

              -- 72 के बाद तो मैं पटना रेडियो में रहा नहीं। बाद में जब लौटकर आया, पता चला, 75 की बाढ़ में सारी चीजें नष्ट हो गयीं।'

               फिर, गुंजन जी को जैसे लगा कि मैं उन्हें मैथिली लेखक साबित करनेवाला हूं, उन्होंने साफ किया-- 'मैथिली में लिखने के प्रति उनमें कोई उत्कंठा नहीं थी। व्यक्तिगत पत्रों के सिवा शायद ही कभी उन्होंने स्वप्रेरणा से कभी कुछ मैथिली में लिखा हो। हां, तब यह जरूर था कि मेरे गुरु मधुकर गंगाधर की तरह वे मैथिली-विरोधी नहीं थे।'

               उन्हें मैथिली लेखक साबित करने की जरूरत भी क्या है? मिथिला तो उनकी रचनाओं में इस कदर टनाटन बोलती है, तमाम आरोह-अवरोहों के साथ कि इसके पहले दुनिया ने विद्यापति में ही भाषा का यह उत्सव चलते हुए देखा था। विद्यापति रेणु के प्रिय यों ही नहीं थे। आज जब मैथिलों ने अपनी संकीर्णता के कारण मैथिली को दो जिलों में समेट लिया है, बड़े-बड़े भाषाविद् भी सिर पीटते हैं कि विद्यापति द्वारा प्रयुक्त शब्द आज दरभंगा-मधुबनी में प्रचलित नहीं हैं, लेकिन अररिया, मुंगेर और बेगूसराय में समूचे कलरव, समूची गूंज के साथ विद्यापति का वह समूचा भाषा-वितान मौजूद है।

               गुंजन जी के वर्षों पहले मायानंद मिश्र पटना रेडियो में कम्पीयर थे जब रेणु ने भी थोड़े दिन आकाशवाणी में अधिकारी की नौकरी की थी। पहली मुलाकात का वर्णन मायानंद मिश्र ने किया है-- 'उस दिन मैं उनकी टेबुल पर गया और मैथिली में अपना नाम तथा रेडियो में अपने काम के बारे में बताया। साथ ही, मैला आंचल पढ़ने, सराहने और मिलने की उत्सुकता की बातें भी बताईं। उन्होंने वहीं अपने तात्कालिक काम को रोक दिया। उठ खड़े हुए और अति प्रसन्न भाव और आन्तरिकता से हाथ मिलाते हुए मैथिली में ही उत्तर दिया-- 'तो आप ही हैं! अरे! मैं भी आपसे मिलने के लिए उत्सुक था।' (मायानंद उन दिनों दैनिक कार्यक्रम चौपाल में आते थे और अपनी मैथिली बोलने की शैली के कारण अत्यन्त लोकप्रिय थे।)...और, मेरा हाथ पकड़े ही कैन्टीन की तरफ चले। यह रेडियो और मेरे, दोनों के लिए अप्रत्याशित घटना थी। मेरे लिए इसलिए कि इतना बड़ा लेखक मुझसे पूर्वपरिचित है, भले लेखकीय स्तर पर नहीं। और रेडियो के लिए इसलिए कि उन दिनों कोई भी अफसर एक अदना स्टाफ आर्टिस्ट का हाथ पकड़कर नहीं चलता था, और वह भी कैन्टीन में तो चाय नहीं ही पीता था। बहुत बातें हुईं। घर-परिवार, कोशी, सहरसा, पूर्णियां आदि के बारे में। उठते समय उन्होंने फिर मेरा हाथ पकड़ लिया, कहा-- देखिये, पटना में अपनी मातृभाषा में बोलनेवाले, कम से कम मुझसे, आप पहले आदमी हैं। मैं यहां अपनी मातृभाषा के लिए तरस जाता हूं।' आगे भी उनलोगों का मिलना-जुलना जारी रहा।

               बाद में सन साठ में, जब रेणु ने आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी थी और स्वतंत्र रूप से पढ़ने-लिखने का काम कर रहे थे, मायानंद मिश्र ने मैथिली में एक द्वैमासिक पत्रिका 'अभिव्यंजना' नाम से निकालने का विचार किया था। रेणु के संपर्क-सामीप्य का लाभ उठाते हुए उन्होंने उनसे पत्रिका के लिए मैथिली कहानी की मांग कर दी। लिखा है-- 'मैं जानता था कि यह मेरा आग्रह नहीं, दुराग्रह था। तबतक (शायद) रेणु जी रेडियो छोड़कर शुद्ध कलमजीवी हो चुके थे। मेरे इस आग्रह पर वह थोड़ा चौंके। मैथिली में ही कहा-- 'मैथिली कहानी? लेकिन ऐसा आग्रह तो आजतक किसी ने नहीं किया था। मैं जरूर दूंगा।' उन्होंने जो कहानी दी, वह 'नेपथ्यक अभिनेता' है, जो मैथिली में उनकी पहली कहानी थी। मायानंद मिश्र ने लिखा है, रेणु ने बगैर शीर्षक डाले यह कहानी उन्हें दी थी, और जब संपादक ने शीर्षक दिया, यह नाम रेणु को बहुत पसंद आया था। मायानंद, जो खुद भी कथाकार थे, ने इस कहानी को 'जमी हुई कहानी' बताया है जो 'अभिव्यंजना' के दूसरे अंक में छपी, 'जो उस पत्रिका को एक अन्य ऐतिहासिकता देती है।'

               गौर करने की बात यह है कि मैथिली में छपी अपनी दोनों कहानियों को रेणु ने हिन्दी में नहीं छपवाया। उनकी तिरसठ हिन्दी कहानियों में ये शामिल नहीं हैं। बहुत बाद में आकर भारत यायावर ने इनका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराया। 'अगिनखोर' चूंकि मैथिली में छपकर निकल ही नहीं पाई थी, उन्होंने इसका हिन्दी में पुनर्लेखन किया। अगिनखोर के मैथिली प्रसारण को याद करते हुए गंगेश गुंजन को उनकी एक और मैथिली कहानी की याद आई, जिसमें रामकृष्ण परमहंस का प्रसंग आता था और रामकथा के एक क्षेपक की भी विस्तार से चर्चा थी। उसका शीर्षक गुंजन जी को याद नहीं आ पाया। वह कहानी कहीं छपी भी नहीं। हिन्दी में भी नहीं। कितने खेद की बात है, उसी पटने से 'मिथिला मिहिर' साप्ताहिक नियमित निकलता रहा था, जहां रेणु रहते थे। जब भी लोगों ने उनसे मैथिली में लिखने का आग्रह किया, उन्होंने टाला नहीं। जाहिर है, अपनी मैथिली रचना के लिए उनमें पर्याप्त निष्ठा भी थी, वरना इन्हें हिन्दी में भी छपवाकर वह पारिश्रमिक प्राप्त कर सकते थे।  उनकी वह बात-- 'मैथिली कहानी? लेकिन ऐसा आग्रह तो अबतक मुझसे किसी ने नहीं किया था। मैं जरूर दूंगा।'-- मैथिली के संपादकों, खास तौर पर मिथिलामिहिर, के ललाट पर मुद्रित कलंक-लेख है। क्यों भाई? इसीलिए न कि मैथिली को आपलोग ब्राह्मणों की भाषा मानते थे, और रेणु ब्राह्मण नहीं थे। या फिर, वह तो हिन्दी में लिखते थे इसलिए अछूत थे! मैथिली को संकुचित करने में कितने युगों से कितने महारथी लगे रहे हैं, आप कल्पना कर सकते हैं।

               रेणु की मैथिली कहानी की सबसे बड़ी खासियत तो यह है कि वह मुख्यधारा की कहानी है। जैसी कहानी रेणु हिन्दी में लिखते रहे थे, ठीक वैसी। कहने की जरूरत नहीं कि हर भाषा के लिए/ भाषा का, लेखक के मन में एक स्पष्ट आभामंडल बना होता है। जब लेखक किसी एक भाषा में लिख रहा होता है तो इस आभामंडल से आवश्यक रूप से घिरा होता है। किसी भाषा के प्रति यदि लेखक का खयाल कमतर है तो जाहिराना तौर पर यह चीज उसके कथ्य और ट्रीटमेन्ट दोनों में ही साफ प्रतिध्वनित होगी। जैसे, अपने आखिरी दिनों के एक संस्मरण में नंदकिशोर नवल ने मैथिली रचनाशीलता के बारे में लिखा कि वहां तो अब भी महाकाव्य लिखे जा रहे हैं, महाकाव्यों का युग चल रहा है। और, उन्होंने कोई गलत नहीं लिखा। फिर तो उसके जो पाठक होंगे वे भी तो उसी स्तर के होंगे। ऐसे में कोई आधुनिक लेखक मैथिली में लिखेगा तो इस आभामंडल से प्रभावित तो होगा। केवल जो सचमुच के बड़े लेखक होंगे, वही इस चीज से बचे रह सकते हैं। आप शायद यकीन न करें, मैथिली के नामचीन आलोचक रमानाथ झा जब अंग्रेजी लिख रहे होते तो टी एस इलियट को अपना आदर्श मानते हुए गजब के वस्तुनिष्ठ और विश्लेषक दीखते, लेकिन वही अपने मैथिली लेखन में प्राचीन ब्राह्मणवादी आदर्शों तक सीमित रखने को ही मैथिली रचनाशीलता का पर्याय मानते थे। राजकमल चौधरी भी अपने हिन्दी और मैथिली लेखन में अलग-अलग पहचाने जा सकते हैं, यूं अपनी-अपनी तरह की नवता और प्रयोगशीलता दोनों जगह मौजूद है। नागार्जुन इनमें सबसे अलग हैं जिनमें यह फांक लगभग गायब है। रेणु के मैथिली लेखन में भी यह चीज हमें मिलती है। लेखक अगर सचमुच बड़ा है तो अपनी मेधा से किसी खास भाषा की बनी-बनाई लीक को, उसके आभामंडल को तोड़ डालता है।

               उदाहरण के साथ बात करें तो बात ज्यादा साफ होगी। 'नेपथ्यक अभिनेता' कहानी ठीक उसी हादसे की बात उठाती है जो हमें 'ठेस' में या 'रसप्रिया' में देखने को मिलता है। न सिरीचन हार मानने को तैयार है न मिरदंगिया। इस कहानी का अभिनेता भी हारने को तैयार नहीं। इधर जमाना इतनी तेजी से बदल रहा है कि इन सबका जीना दूभर होता गया है। 'लोक' की युग-युगव्यापी संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है। अधकचरी आधुनिकता और दिखावे का लोकतंत्र पाकर और भी अधिक बलिष्ठ, और भी अधिक घातक हो चुकी पूंजी ने इन धरोहरों का सत्यानाश कर डाला है। कल तक जो सामंत थे, अब पूंजीपति हैं और राजनीति उनकी चेरी है। उनके लिए संस्कृति क्या और धरोहर क्या? हम सब जानते हैं कि लोक की जीवन्त संस्कृति से लगातार दूरी बरतने वाली इस गोबरपट्टी से रेणु कितने आहत थे। लोक-धरोहरों के उजड़ते जाने की जितनी दारुण चिन्ता हमें रेणु के यहां दिखती है, इस कारण भी अपने समकालीनों में वह अन्यतम हैं। 

               ठेस का सिरीचन इस कारण उजड़ता है कि अब प्लास्टिक बाजार में आ गया है और उससे बनी शीतलपाटी लोगों को सस्ती ही नहीं आकर्षक भी लगने लगी है। मिरदंगिया विदापत नाच का मूलगैन रहा है। विदापत नाच अब बीते जमाने की चीज बनकर रह गया जिसके कलाकार अब संभ्रान्त बाबू-भैयों के यहां भीख भी पाने के हकदार नहीं रहे। क्यों? क्योंकि यह नीच और जाहिल समुदाय के मनोरंजन की चीज है। लोकतंत्र चूंकि आ चुका इसलिए अब कोई भी नीच और जाहिल नहीं बने रहना चाहता। अत: जिनकी यह विरासत थी वे भी इसे त्यागे दे रहे हैं। रेणु के रेखाचित्र 'विदापत नाच'(1941) को ध्यान रखकर कहें तो उन्होंने अपनी लेखकीय यात्रा की शुरुआत ही इन्हीं चिन्ताओं से की थी।

               नेपथ्य का यह अभिनेता पारसी थियेटर का मशहूर हीरो रहा है। देश के चुनिंदा पन्द्रह कंपनियों में वह काम कर चुका है। अपने जमाने में उसकी लोकप्रियता ऐसी थी कि लोग उसकी एक झलक पाने के लिए ललकते थे। सिनेमा ने थियेटर को उजाड़ दिया। सारी कंपनियां बंद हो गयीं। मिरदंगिया की ही तरह अभिनेता भी रोड पर आ गया। बदले माध्यम के साथ एडजस्ट करने की कोशिश उसने न की हो, ऐसा भी नहीं। इस मायने में वह सिरीचन और मिरदंगिया दोनों से आगे का नायक है। कहानी से हमें पता मिलता है, फिल्मों की बड़ी चला-चलती देखकर वह फिल्मनगरी बंबई भी गया, लेकिन वहां का कल्चर कुछ और था। वह उसके भीतर के कलाकार को रास नहीं आया। गर्दिश का मारा है लेकिन अभिनेता हारा नहीं है। अब उसने एक बिल्कुल नयी विधा में काम शुरू किया है। अब उसकी अटैची में तरह-तरह के मुखौटे भरे पड़े रहते हैं, वे सारे के सारे जिनकी भूमिकाओं के कद्रदान यहां-वहां मौजूद हैं। अपनी लुंगी से सिर ढंककर वह ग्रीनरूम का काम निकाल लेता है, झट से मुखौटे बदले और उसके अनुसार डायलाग। लोग जमा हो जाते हैं। वे पुराने दिन लोगों की आंखों में नाच उठते हैं। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबका भरपूर मनोरंजन होता है। और, सबके अंत में वह अपनी टोपी को भिक्षापात्र बनाकर लोगों से आने-दो आने मांग लेता है। बंबई ने छीना भले जितना भी हो उससे, एक सीख भी जरूर दे दी है। अब वह बेझिझक कह सकता है कथावाचक से कि 'साब, एक्सक्यूज मी, फार लास्ट टू डेज आइ एम हंगरी, वेरी हंगरी, मांगने की हिम्मत नहीं होती किसी से।' ऐसे में अभिव्यंजना-संपादक की कही यह बात तो ठीक है कि यह कहानी नौटंकी के प्रख्यात पात्र के अंतिम दिनों की आर्थिक तंगी और उपेक्षा की कहानी है जिससे बात करने के लिए लड़कों-बच्चों से लेकर बड़ी उम्र के लोग तक    एक जमाने में तरसते थे। फिर भी, यह मानने की संगति नहीं कि वह रिटायर्ड हो चुका है। नहीं, वह जीवनसंघर्ष में शामिल है और कलासाधना में भी, जिसके माध्यम और रूप भले बदल गये हों लेकिन उसे रोजी-रोटी देने में भी आज भी कला ही काम आ रही है। 

               सुदूर इलाके से चलकर वह फारबिसगंज आया है, जहां के बारे में उसकी समझ है कि 'मिथिला देस में आज भी नाटक के काफी शौकीन लोग हैं।' मजे की बात है कि साठ बरस पहले दुनिया फारबिसगंज को भी 'मिथिलादेस' मानती थी। सच यह भी है कि इस कहानी के लिखे जाने के कम-से-कम चालीस बरस बाद तक इस समूचे इलाके में, गांव-गांव में नाटक जिंदा था। ठीक उसी ढब-ढांचे का जैसा कि नौटंकी कंपनियों के नाटक हुआ करते थे। इसे लोग उत्तर बिहार का ग्रामीण रंगमंच कहते हैं। इसे फिल्म न खा सकी थी। फिल्म के गाने जब नीचे उतरके आर्केष्ट्रा के रूप में गांव-गांव पहुंचे तभी इस कला का आखिरी खात्मा हुआ। 

               इस कहानी में कला-समीक्षक का भी आगमन हुआ है और यह देखना दिलचस्प है कि आम तौर पर समीक्षा-दृष्टि के बूते बांह पुजानेवाले कितने पश्चगामी होते हैं। सांप के निकल जाने के बाद रास्ते पर लाठी पटकनेवालों की जमात का लोक मे खूब मजाक उड़ाया जाता है। रेणु के समीक्षक को इनसे कम न समझा जाए। उनकी कितनी ही रचनाओं में उनका यह नजरिया जाहिर हुआ है। यानी कि पश्चगामिता, जिसे समीक्षा-सिद्धान्त के नाम से महिमामंडित करने का चलन भी रहा है, जबकि वास्तविक हालत यह है कि की सृजनात्मक लेखन का मामला हो या कि स्वयं जीवन की मार्मिकता का-- हम पाते हैं कि यह चीज कैसे उसके हाथ आते-आते हर बार फिसल जाती है, इस कहानी का वाकया इसका है।

               आठ-नौ की उमर रही होगी जब कथावाचक ने गुलाबबाग के मेले में पहली बार कोई भी थियेटर देखा था और उसी पहले शो में इस कलाकार को भी, जिसके नाम का उल्लेख यहां रेणु ने समूची कहानी के भीतर कहीं भी नहीं किया है। ये छुट्टी के दिन थे। स्कूल जब खुला तो इस अतीन्द्रिय आनंद का वर्णन दोस्तों को सुनाया ही जा रहा था कि समीक्षक का आगमन हुआ। वह कथावाचक का सहपाठी बकुल बनर्जी भी आठ-नौ वर्ष का ही था, लेकिन रेणु लिखते हैं-- 'बड़ चंसगर, जन्मजात आर्ट क्रिटिक, ओकरा कथनानुसार अइ नकली कंपनी मे-- पछिला बरस नागेसरबाग मेला मे ऐल असली कंपनीक छटुआ लोक सब छलै।' किसी एक कंपनी में काम करनेवाले कलाकार का उसे छोड़ किसी अन्य में आ जाने से वह कंपनी नकली कैसे हो जाएगी? लेकिन रेणु बताते हैं, केवल कलाकार ही जन्मजात नहीं होता, समीक्षक भी जन्मजात ही होता है। समीक्षक की एक तीसरी मुद्रा भी होती है, उसे भी रेणु यहां उठा ले आए हैं। इतने मजे की चीज के नकली ठहराये जाने से कथावाचक‌ जब उदास हो गया होता है, दोस्त समीक्षक झट अपनी मुद्रा बदल लेता है-- 'तोव एक ठो बात हाइ-- ईस कंपनी में जिस मानुस ने रेलवे पोर्टर का पार्ट ये किया है, वह नागेसरबाग में आया कंपनी में भी यही पार्ट करता था, उसको तो नकली नेही कहने सोकते।' मतलब, जिन्हें हम समीक्षा-सिद्धान्त कहते हैं उनके प्रावधान मानो सुविधा और परिस्थिति के अनुसार बदल दिये जाने को अभिशप्त होते हैं।

               अंत में जाकर कहानी जहां अपने सर्वाधिक मार्मिक स्थल पर पहुंचती है, यानी कि बूढ़े कलाकार का यह कहना कि-- 'साब, एक्सक्यूज मी, फार लास्ट टू डेज आइ एम हंगरी, वेरी हंगरी'-- बकुल बनर्जी वहां भी उपस्थित है। रेणु लिखते हैं-- 'जन्मजात आर्ट क्रिटिक हमर सहपाठी बकुल बनर्जी आइयो कला आ कलाकार कें चिन्हबाक धंधा ओहिना करैत अछि, सब दिन ओ एके रहल। हमरा दिस तकैत बकुल बाजल--'तू भी इसका बात में फंस गये, मुझसे काल यह कह रहा था--फार टू डेज आइ एम हंगरी...।'

               एक विंदु आता है जब मार्मिकता और समीक्षा के बीच सीधे मुठभेड़ होने से बचना संभव नहीं रहता। वही इस कहानी के अंत में आकर हुआ है। कथावाचक को बकुल की यह बात बहुत बुरी, बहुत तुच्छ लगती है। दुखी होकर वह पूछता है, 'ठीक-ठीक बताना बकुल, इसके डोलते हुए काया के पिंजड़े में जो पंछी बोल रहा है, उसकी बोली को सुनकर तुमको कुछ नहीं लगा?'

               --'कुछ नहीं लागता तो काल्ह ठो सारा दिन इसके साथ भीख मांगता? चोन्दा तो भीख ही हुई!' --यह बकुल है, जो अपनी समीक्षा की सीमा स्वीकार कर रहा है। फिर लंबी नि:श्वास के साथ वह सीमा लांघ जाता है। कहता है--'क्या बताएं--कैसा लगा! लगा... तुम्हारे अथवा अन्य मित्रगणों के साथ रात-भर भागकर थियेटर देखने गया हूं, होस्टल से।' कथावाचक की प्रतीति भी कुछ ऐसी ही है-- 'हां बकुल, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा।' यह अनुभूति की एकता समीक्षा के दंभ के धराशायी होने पर ही संभव है, जिसका अर्थ है जीवन की मार्मिकता का स्वीकार। इस तरह से देखें तो इस कहानी का विषय सामने दिख रहे दृश्यों से कहीं अधिक गहन, अधिक व्यापक है।  

              जैसा कि पहले कह चुका हूं, भाषा का प्रश्न रेणु के लिए दोयम था। मुख्य प्रश्न वस्तु का था और उसके विन्यास का, जिसका ऐसा बड़ा सिद्ध कलाकार यहां कोई और न हुआ। चूंकि जो कुछ भी उन्होंने लिखा, वह मिथिला के बारे में है, वहीं की कहन में, वहीं के दिल के पतियाने में, अत: स्वाभाविक रूप से हिन्दी और मैथिली में लिखी चीजें हमें अलग-अलग स्केल पर नहीं दिखतीं। कितने आश्चर्य की बात है कि 'अगिनखोर' जैसी कहानी उन्होंने मैथिली में लिखी थी, जबकि हिन्दी में भी तब ऐसी चीजें लिखने का चलन मुश्किल से ही था। 'जहां पमन को गमन नहीं' मैथिली में है, एक ऐसे विषय पर मानो कि समूचा रेणु-साहित्य इसी आशय का विस्तार हो। सब जानते हैं कि उन्होंने जब-तब मौज में आकर कविताएं भी लिखीं। जो चीजें अब बची ही नहीं उनकी तो बात ही क्या करना, लेकिन पढ़कर देख लीजिए, रेणु की सबसे अच्छी कविता जो आपको लग सकती है, वह 'जित्तू बहरदार' है, और वह मैथिली में लिखी गयी है।