।।मिथिलाक लेल एकटा शोकगीत।।
हमरे चेतनाक दोमट सॅ जनमल छल
ई छांहदार वृक्ष सभ,
जकर एक-एक डारि-पात काटि-काटि
हम अपना पशु-वर्ग कें खुआएल अछि।
राजा शिवसिंहक पगडी कें हम
लुंगी बना क’ पहिरल अछि अपन एकान्त मे।
अपन एकान्त मे हम
कहियो नहि सुन’ चाहलहुं अछि अपने अबाज।
मिथिला बिराजै तॅ छली
हमरा तन-मन मे संपृक्त
मुदा व्यसनी हम तेहन
जे अपने तन-मन खखोडि-खखोडि
समिधा जकां झोकलहुं अछि
बेहोशीक कुण्ड मे।
सौंसे पृथ्वी,सम्पूर्ण देश, समस्त समाज
हमर बेहोशीक केलक अछि अभ्यर्थना
मुदा विडम्बना एहि समयक
जे लटुआएल झूर-झमान मिथिला
हमरे अतमा मे थरथराइत रहल छथि
पीपरक पात जकां पूरे समय।
एहि भूमंडलीकृत समय मे
सभ क्यो क’ रहल अछि
हमर बेहोशीक अभ्यर्थना
जखन कि देखू---
अपने दुनू पएरक
सिन्दूराभिषिक्त अरिपन बना क’
टांगि जॅ लीतहुं कोठली मे चौबगली
तॅ सेहो बनि सकै छल
हमर जागरणक कारण।
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