Saturday, February 17, 2024

लोकगाथा, लोकगीत आ मैथिली साहित्यक विकास

--तारानंद वियोगी


मैथिलीक आदिकालीन साहित्यक बारे मे आचार्य रमानाथ झा लिखलनि अछि-- 'आदिअहि सँ  मिथिला जनपदक एक गोट अपन भाषा छल जे पूर्व मे द्विजाति सँ भिन्न लोक बजैत छल। क्रमश: द्विजाति सेहो ई भाषा बाजए लगलाह। एहि भाषा मे जे रचना भेल से सब जनभाषाक हेतु ओ एकर प्रचार पंडित सँ भिन्न जनता मे भेल ओ वर्णरत्नाकर सँ पूर्व प्राय: एहि मे रचना सेहो पंडित सँ भिन्ने लोक करथि। एहि भाषाक साहित्य तें मौखिक रूपें प्रचलित होइत रहल। राजाक आश्रय नहि रहलें कोनो पैघ ग्रन्थक निर्माण नहि भेल।' (प्राचीन मैथिली साहित्यक रूपरेखा/रचनावली/ खंड-2 पृ.55-56) अपन एही लेख मे, आदिकालीन रचनाकार लोकनिक सोह लैत ओ इहो लिखलनि जे 'अवहट्ठक रूप मे एहि भाषाक जे कोनो रचना उपलब्ध अछि से सब मुख्यत: पंडितक रचना नहि, ब्राह्मणक रचना नहि, साधारण जनसमाजक साहित्य थिक, यथार्थ अर्थ मे लोकसाहित्य थिक जकर रचना प्राय: डाक गोआर अथवा भूसुक राउत सदृश ब्राह्मणेतर जातिक कयल थिक।' (उपर्युक्त/पृ.53)

           दू-तीन बात एतय ध्यान मे राखि लेबा योग्य अछि।  पहिल तँ जे जहिया सँ आधुनिक भारतीय भाषा सब अपन स्वतंत्र स्वरूप धारण करय लागल, ओहि भाषा सब मे मैथिली सेहो एक भाषा छल। दोसर, एहि भाषाक विकास संस्कृत सँ वंचित समाज द्वारा अपन भाषिक अभिव्यक्ति लेल कयल गेल छल। तेसर, राजा वा पंडितक संरक्षण जें कि संस्कृत सँ भिन्न, मैथिली-सन भाषा कें प्राप्त नहि रहलैक, तें एकर संपूर्ण रचनाशीलता मौखिक रूप सँ अभिव्यक्त होइत रहल। एहि सब कारण सँ हमरा सदति ई उचित आ विधेय लगैत अछि जे जखन अहाँ मिथिलाक लोकसाहित्य पर बात करैत छी, तँ ई चीज स्पष्टत: मैथिलीक प्राचीन साहित्य पर बात करब थिक।


मिथिलाक लोकसाहित्य

               आइ 'लोक' शब्द जाहि अर्थ मे प्रयुक्त होइत अछि, ठीक-ठीक एही अर्थ मे एकर प्रयोगक इतिहास कैक हजार साल पुरान अछि। ऋग्वेद मे यद्यपि कि ठीक एही अर्थ मे 'जन' शब्दक प्रयोग बेसी ठाम भेल अछि मुदा 'लोक' सेहो अनेको ठाम प्रयुक्त भेले अछि। पाणिनिक अनुसार लोकृ दर्शने क्रियापद सँ घञ् प्रत्यय केलाक पछाति 'लोक' शब्द बनैत अछि जकर अर्थ भेल देखनिहार, द्रष्टा। एहि 'लोक'क व्यापकता कतेक छल तकर पता महाभारतक एहि कथन सँ पाओल जा सकैत अछि जे 'प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नर:।' लोक कें गहिराइ सँ देखि सकबाक हुनर जे व्यक्ति सीखि लियय से सर्वदर्शी भ' जाइत अछि। ध्यान दी जे सर्वदर्शी शब्दक एतय वैह अर्थ छैक जकरा लेल हमसब त्रिकालज्ञ शब्दक व्यवहार करैत छी। दोसर दिस जँ प्रामाणिकताक विचार करी तँ सब गोटे अवगते छी जे अपना ओतय शास्त्राचार पर लोकाचार भारी पड़ैत अछि। मैथिल संस्कृति मे आइ बहुतो रास एहन वस्तु आ रेवाज शामिल अछि जकर स्रोत विदेहेतर, आर्येतर अछि। जेना गोसांउनिक पीड़ी(चैत्य) लिच्छवि लोकनि, बौद्ध लोकनि सँ आएल अछि, तहिना विवाह मे सिन्दूरदान आदिवासी नागपरंपरा सँ आएल वस्तु थिक। संस्कृत व्याकरणक ई स्मरणीय प्रसंग थिक जे कोनो प्रयोगक शुद्धाशुद्धिक निर्णय वास्ते वार्तिककार ई हल देने रहथि जे 'लोकान् पृच्छ।' अर्थात कोनो प्रयोग शुद्ध अछि कि अशुद्ध, तकर अंतिम निर्णयन लोक-प्रयोगे सँ भ' सकैत अछि।

             मिथिलाक भूभाग लोकसाहित्यक मामिला मे बहुत सम्पन्न रहल अछि। एहि विषयक अधिकारी अध्येता मणिपद्म लिखलनि अछि जे भारतक आन क्षेत्रक तँ बाते छोड़ू, पड़ोसिया बंगाल, असम आ उड़ीसा धरि कें एतेक भारी संख्या मे लोकसाहित्य उपलब्ध नहि छैक। लोकगाथाक प्रसंग मे मणिपद्म लिखलनि अछि-- 'जहाँधरि पूर्वांचलीय लोकगाथाक बात छैक, बंगला, असमिया, उत्कल आ नेपाली भाषा सब मे एतेक उत्कृष्ट कोटिक एतेक लोकगाथा सब नहि छैक। बंगला भाषाक लोकगाथा मे अइ कोटिक दुइये टा लोक-महागाथा छैक-- धर्ममंगल आ विद्या-सुन्दर। असमिया मे जे एकटा तांत्रिक-वैष्णव पृष्ठभूमि पर लोकगाथा छैक ओकर नाम भेल बड़नाथ। नेपाली भाषा मे लोककथा तँ पर्याप्त छैक, किन्तु कोनो एहन (तात्पर्य छनि दुलरा दयाल, सलहेस, अनंगकुसुमा सन अनेको लोकगाथा सँ) जगता ज्योति लोकमहाकाव्य नहि छैक।' (मैथिली लोकगाथाक इतिहास, पृ. 222-223)

             मैथिली लोकसाहित्यक विस्तार अनंत छैक। एकर अध्येता कें एक बात सुरुहे मे गीरह बान्हि लेबाक चाही जे एतुक्का लोकसाहित्ये अन्तत: मिथिला भूभाग मे बसनिहार करोड़ो लोकक आदिम जातीय साहित्य थिक। स्पष्ट क' दी जे 'जातीय' शब्दक अर्थ एतय नस्ल (Race) वा वर्णगत जाति (Caste) सँ नहि, अपितु राष्ट्रीयता (Nationality) सँ अछि। भाषाक आधार पर जेना हमरा लोकनिक बीच बंगाली, गुजराती, मराठी, उड़िया, तमिल आदि जातिक पहचान थिक, ठीक तहिना मैथिल जातिक भाषाई पहचान सँ ई शब्द जुड़ल‌अछि। आन-आन भाषाभाषी प्रदेश सब आगां राजनीतिक इकाइक रूप मे सेहो विकसित भ' सकल तकर मूल कारण छल जे भाषाक आधार पर हिनका लोकनिक जातीयता-बोध सबल छल, जकर अभाव मिथिला मे रहल। 

          मैथिली लोकसाहित्यक विस्तार व्यापक अछि। अनेक विधा, जेना कथा, दीर्घकथा, कथाकाव्य। कविता विधा कें लिय' तँ प्रबन्धात्मक काव्य लोकगाथा, प्रदर्शकाव्य गद्यपद्यात्मक नाच, गीतिकाव्य मे ततेक विस्तार जे स्वयं लोकगीतेक दस सँ ऊपर प्रकार, आ उपप्रकारक गिनती करी तँ सौ सँ ऊपर। अगेय काव्य फकड़ा, जकरा उक्तिकाव्य कहल जा सकैछ। वचनकाव्य जेना डाकवचन। नेनागीतक स्वभाव अकानी तँ लय आ तुक मे कहल गेल कथाकाव्य सन प्रतीत होयत। आ एहि समस्त विधा सभक पाठशाला कतय? परिवार। अणिमा सिंह लिखने छथि-- 'मुख मे एकर सृष्टि होइछ आ हृदय मे एकर निवास होइछ। एकर केवल मौखिक प्रचार होइत आएल अछि।' (मैथिली लोकगीत/पृ.9) कामरेड चतुरानन मिश्र अपन प्रसिद्ध विनिबंध 'मैथिल संस्कृति के पुनरुत्थान का सवाल' मे एहि ठामक परंपरित परिवार-व्यवस्था कें लोकसाहित्यक प्रधान कर्मशाला कहैत छथि। एकर विस्तार आगू समाज धरि जाइत अछि, जाहि मे कीर्तनमंडली, नाचपार्टी आदि-आदि रूप मे विस्तार पबैछ। एक पीढ़ी सँ दोसर पीढ़ी मे लोकसाहित्य कें संचरित करबाक ई सब स्थायी पाठशाला थिक।


मैथिली लोकगाथा


मैथिली लोकगाथाक प्रथम संकलयिता जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) छथि। ओ मैथिलीक तीन गाथा-- गीत दीनाभद्री, गीत सलहेस एवं गीत नेवारक-- संकलित एवं प्रकाशित करौलनि। एकरा अतिरिक्त गोपीचन्दक गाथा सेहो हुनकर प्रकाशित छनि, जे बहुजनपदीय (जे मिथिलाक संग-संग आनो जनपद मे प्रचलित हो) गाथा थिक। एतय ध्यान देबाक बात थिक जे एहि लोककृति सब कें ओ 'गाथा' नहि, 'गीत' कहलनि। तात्पर्य अछि जे मिथिला-क्षेत्र मे साबिक मे गाथा कें सेहो गीत कहल जाइत छल--एहन गीत जे महाकाव्यात्मक हो आ जकर गायन लेल अधिक समयक अपेक्षा हो। एहि लोककृति सभक लेल अंग्रेजीक 'बैलेड'क अर्थ मे सर्वप्रथम मणिपद्म एकरा 'गाथा' कहलनि। ज्ञात हो जे 'गाथा' एक ऋग्वेदकालीन विधा थिक जे आगां संस्कृतक संग-संग प्राकृत मे सेहो लिखल जाइत जाइत रहल। मुदा, लोकगाथा शब्द सँ जाहि प्रकारक रचना अभिप्रेत अछि, ताहि सँ ई सर्वथा भिन्न छल। मणिपद्म मैथिलीक आठ गोट लोकगाथाक विवरण देने छथि। डा. जयकान्त मिश्र अपन पुस्तक 'मिथिलाक लोकसाहित्यक परिचय' मे दस गोट लोकगाथाक विवरण देने छथि, यद्यपि कि एकरा ओ लोकगाथा नहि 'गाथाकाव्य' कहने छथि। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद सँ प्रकाशित 'लोकगाथा परिचय'(1959) मे मिथिला-क्षेत्रक बीस गोट लोकगाथा कें शामिल कयल गेल अछि। राजेश्वर झा अपन पुस्तक 'लोकगाथा-विवेचन'(1974) मे पांच गोट तथा डा. विश्वेश्वर मिश्र अपन पुस्तक 'मैथिली लोकगाथा विवेचन'(2007) मे अठारह गोट लोकगाथा कें शामिल केलनि अछि। डा. प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन कुल मिला क' अड़तीस गोट लोकगाथाक विवरण विभिन्न पुस्तक मे देने छथि। डा. रामदेव झा अपन प्रसिद्ध पुस्तक 'मैथिली लोकसाहित्य: स्वरूप ओ सौन्दर्य' मे बहत्तर गोट लोकगाथाक सूची देने छथि। चन्द्रेशक एक एक लेख मे मैथिली लोकगाथाक संख्या 109 बताओल गेल अछि। युवा लोकविद् आ शोधप्रज्ञ डा. ओमप्रकाश भारती एही संख्या 109 कें प्रामाणिक मानलनि अछि।

        मैथिली लोकगाथा सब वास्तव मे कतेक अछि, तकर ठीक-ठीक गणना कठिन अछि। तकर कारण दूटा। एक तँ मिथिलाक किछु सामाजिक संवर्गक बीच प्रचलित लोकगाथाक एखनहु संकलन संभव नहि भ' सकल होयब संभावित अछि। दोसर, मिथिलाक आधुनिक कालक प्रवेशद्वार पर अवतरित किछु एहनो चरितनायक छथि, जिनकर गाथा एखन हाल-साल मे विकसित भेल अछि। उदाहरणक लेल हमरा लोकनि कारू खिरहरिक गाथा कें देखि सकैत छी। बाबा कारू लक्ष्मीनाथ गोसांइ (1793-1873)क समकालीन छला। बीसम शताब्दी मे आबि क' हुनकर गाथा विकसित भेल आ एकैसम सदी मे एकर लोकप्रियता दिनानुदिन बढ़ि रहल अछि।

      विभिन्न विद्वान लोकनि लोकगाथाक वर्गीकरण भिन्न-भिन्न तरहें कयने छथि। भौगोलिकताक आधार पर डा. रामदेव झा एकर दू वर्ग-- मिथिला जनपदीय आ बहुजनपदीय-- कयने छथि। बहुजनपदीय सँ तात्पर्य अछि एहन गाथा जे आनो प्रान्त मे प्रचलित हो। उदाहरणक लेल बिहुला-विषहरिगाथा कें लेल जा सकैए जे मिथिलाक संग-संग बंगाल आ असम मे सेहो प्रचलित अछि। तहिना लोरिकगाथाक एक वर्सन बंगाल मे प्रचलित अछि तँ एक भिन्न वर्सन छत्तीसगढ़ मे सेहो गाओल जाइत अछि। डा. ओमप्रकाश भारती गाथा-प्रवृत्तिक आधार पर एकर दू वर्ग केलनि अछि-- भगैत(भक्ति-सम्बन्धित) आ महराइ(वीरगाथा)। ज्ञात हो जे महराइये के प्रचलित नाम 'गीत' थिक, जकर उल्लेख ग्रियर्सनक प्रसंग मे कयल गेल। डा. मौन विषयवस्तुक आधार पर तीन वर्ग क्रमश: पौराणिक-अर्द्धपौराणिक, वीरकथात्मक एवं प्रेमकथात्मक केलनि अछि। 

       अपन एक लेख 'लोकगाथाक उद्भव आ स्वरूप' मे पं. गोविन्द झा पुराण संग लोकगाथाक भिन्नताक प्रसंग मे बहुत महत्वपूर्ण बात कहने छथि-- 'मंदिर आ गहबर मानू समाजक बीच विभाजक बनि गेल। शिष्टजन मंदिर धयलनि तँ सामान्यजन गहबर। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि साकार देवताक चरित सूत, व्यास, मुनि आ विविध धर्माचार्य सब रचल जे शिष्टजन मे प्रचलित देवभाषा संस्कृत मे लिपिबद्ध होइत गेल आ आइ बढ़ैत-बढ़ैत रामायण, महाभारत, पुराण आ विविध धर्मग्रन्थक रूप मे ढेर लागल अछि। एहिना गहबर मे स्थापित निराकार दिव्य प्रेतात्मा लोकनिक चरितगाथा अज्ञातनामा लोकसब सामान्यजनक मौखिक भाषा मे रचैत गेलाह जकरा आइ हमरा लोकनि 'लोकगाथा' कहैत छिऐक।'(मैथिली दलित लोकगाथा ओ संस्कृति/ सा.अ./ पृ.183) गहबर मे देवमूर्ति नहि, पिण्ड अथवा पीड़ीक पूजा होइत अछि। ई असल मे चैत्य थिक, जे बौद्धसंस्कृति सँ आयल अछि आ लोकायतक पर्याय बनि गेल अछि। पुराण आ लोकगाथा मे की अंतर छैक, एहि विषय मे पं. गोविन्द झा कहैत छथि जे 'पुराणक ऐतिहासिकता बड़ संदिग्ध मानल जाइत अछि, जखन कि लोकगाथाक ऐतिहासिकता वा सत्यता मे सन्देह करब कठिन। ई नहि कहब जे लोकगाथा मे कल्पना नहि अछि। एकर कल्पना पुराणक कल्पना जकाँ अविश्वसनीय नहि लगैत अछि।दोसर, पुराण मे जे किछु विश्वसनीय वा अविश्वसनीय बात सब भेटैत अछि से संस्कृत साहित्यक भंडार मे बहुतो ठाम भेटि जाइत अछि, किन्तु लोकगाथा मे जे किछु भेटैत अछि से आन कोनहु स्रोत सँ कदाचिते भेटत। लगैत अछि जे हमरा लोकनि युग-युग सँ एक ठाम रहितहु जेना दू भिन्न-भिन्न दुनियांक लोक होइ। एक दुनियांक लोक दोसर दुनियांक लोक सँ एकदम अनचिन्हार, अनभुआर। तेसर, लौकिक जीवनक जे यथार्थ आ रोचक झलक लोकगाथा मे भेटैत अछि से ने पुराण मे भेटत, ने कतहु अन्यत्र।'(उपर्युक्त/ पृ.182)

       मिथिलाक सामाजिक आ सांस्कृतिक जीवनक अत्यन्त सूक्ष्म आ व्यापक  चित्रण लोकगाथा सब मे भेल छैक। यैह कारण थिक जे अपन प्रसिद्ध लेख 'मैथिली लोकगाथाक इतिहास' मे मणिपद्म एहि निष्कर्ष पर पहुँचल रहथि जे 'लोकगाथाक आधार पर मिथिलाक लोक इतिहास (पीपुल्स हिस्ट्री) ज्योतिर्मय भ' उठत। एखन धरि चलि अबैत इतिहासक रूपरेखा, क्रम आ मान्यता बदलि जायत।'(मैथिली लोकगाथाक इतिहास/पृ.223) अद्भुत बात ई छैक जे मैथिलीक जतेक जे कोनो लोकगाथा अछि, ओहि सबटा के चरितनायक लोकनि कमजोर वर्ग, दलित, पछड़ल समूह सँ अबैत अछि। एकर एकमात्र जँ अपवाद अछियो तँ से 'लवहरि-कुसहरि'थिक, जकर नायिका सीता छथि। मुदा, हुनको लोकगाथाक चरितनायक एही दुआरे बनाओल गेल जे पतिगृह सँ निष्कासित ओ एक प्रताड़ित स्त्री छली, जे कि स्वयं संघर्ष क'क' अपन दुनू पुत्र कें सुयोग्य बनेबा मे सफल रहली। लोकगाथाक गहन अवलोकन सँ हमरा लोकनि देखि सकैत छी जे लोकगाथाक समाज जें कि भिन्न अछि, तें एकर आदर्श सेहो भिन्न अछि। एक उदाहरण सँ बात बेसी स्पष्ट भ' सकत। 'नैका बनिजारा' गाथाक नायिका फुलेश्वरी पतिक परदेस चलि गेलाक बाद बहुत प्रताड़ना सहैत अछि, आ अन्तत: अपन दुष्टा ननदि द्वारा स्त्रीदेहक व्यवसायी कुम्भा डोमक हाथें बेचि देल जाइत अछि। जखन परदेसक अभियान पूरा क' क' नैका घर घुरैत छथि तँ अपन स्त्री कें नहि देखि दुखी होइत छथि। समाज सँ जखन सब वृत्तान्त ज्ञात होइत छनि तँ कठिन संघर्ष करैत कुम्भा डोमक चांगुर सँ अपन स्त्री कें मुक्त करबैत छथि आ स्नेहपूर्वक अपन घर अनैत छथि। ओहि गाथाक चरमोत्कर्ष कदाचित एही घटना मे छैक। अपन प्रताड़ित बेकसूर स्त्री कें इंसाफ देबाक जे नैकाक आदर्श छलैक, वैह हुनका अपना समाज मे ततेक पूज्य बनौलकनि जे हुनकर गाथा गाओल जाय लागल। दोसर दिस शिष्ट साहित्यक आदर्श कें देखी तँ हमरा लोकनि बेकसूर सीता कें प्रताड़ित केनिहार पतिये कें पूज्य आ चरितनायक होइत देखैत छी, जखन कि सीताक हरण केनिहार रावण स्त्रीदेहक व्यवसायियो नहि, एक ब्राह्मण राजा छल।

       अपन लेख 'मैथिली लोकगाथाक इतिहास' मे मणिपद्म आठ टा लोकगाथा कें महागाथाक दरजा देने छथि-- दुलरा दयाल, राजा सलहेस, लोरिकाइन, नैका बनिजारा, दीनाभद्री, राय रणपाल, लवहरि-कुसहरि आ अनंगकुसुमा। प्रफुल्ल कुमार सिंहक सूची मे बिहुला सुन्नरि आ विजयमल्ल कें सेहो महागाथा मानल गेल अछि। 'महा' केवल एहि अर्थ मे नहि जे एकर सभक वितान नमहर अछि। जखन हमसब मैथिली लोकगाथा-जगतक अंतरंग मे प्रवेश करैत छी तँ कैकटा रोचक तथ्य सँ सामना होइत अछि। असल मे, मैथिली लोकगाथाक संसार ततेक नम्हर आ जटिल अछि जे कतोक बेर विस्मय मे पड़ा दैत अछि। एहि ठाम महागाथाक संग-संग गाथा-गुच्छ आ गाथा-चक्र कें बुझबाक हम अनुरोध करब। उदाहरणक लेल, जँ अहाँ दुलरा दयाल गाथाक अध्ययन केलाक बाद बहुरा गोढ़िन, केवल महराज, अमर सिंह आ जय सिंहक गाथाक अध्ययन करी तँ एहि सब गाथाक पृष्ठभूमि मे एक गोट तात्विक समरूपता, एकसूत्रता आ एकतानता सन के अनुभव होयत, जेना एक्के राग एहि सब गाथा मे अलग-अलग बंदिश संग गूंजैत हो। प्राय: एहने स्थिति तखन बनैत अछि जखन अहाँ राय रणपाल गाथा पढ़लाक बाद गांगो गोढ़िन आ गुगुलिया गाथाक अध्ययन करी। ठीक तहिना, जोतिक गाथाक बाद जखन कारिख गाथा वा कालिदास गाथा, अन्दू मालि, बेनी महराज, उदय साहु, हरिया-हरिनियां गाथा देखैत छी, किछु एहने प्रतीति होइत अछि। प्रश्न अछि जे एना किएक होइत अछि आ एकर कारण की थिक? जखन मणिपद्म दुलरा दयाल कें महागाथा कहैत छथि तँ हुनका ध्यान मे इहो बात रहै छनि जे एहि गाथाक सहायक गाथा सब सेहो अनेक छैक जे समय बितलाक संग स्वयं मे एक स्वतंत्र गाथाक रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त क' लेलक अछि। मणिपद्म दुलरा दयाल कें महागाथा कहलनि, मुदा असल मे हुनका कमला-गाथा कें महागाथा कहबाक चाहैत छलनि कारण दुलरा दयाल, बहुरा गोढ़िन सहित एहि वर्गक आन गाथा सब कमलाक देव-परिवार सँ संबद्ध अछि। एहि विषयक जिज्ञासु लोकनि कें हमर पुस्तक 'मैथिली कविताक हजार वर्ष' भाग1 के अनुशीलन करबाक चाहियनि जतय लोकगाथा आदि सँ संबद्ध विषय सब पर विस्तार सँ प्रकाश देल गेल अछि।

       भगैत(भक्ति) शैलीक जे मैथिली लोकगाथा सब अछि, से अद्भुत रूप सँ सर्वभारतीय शास्त्रीय आदर्श सँ छिटकि क' क्षेत्रीय (एहि ठाम तात्पर्य मैथिल) संस्कृतिक आ धर्मनिष्ठाक अपूर्व ऐतिहासिक घटनाक्रमक साक्षी अछि। ऊपर जोतिक आदि गाथा-गुच्छक हम चर्चा केने छी। ई संपूर्ण गाथा-गुच्छ मूलत: धर्मराज-महागाथाक सहायक गाथा सब थिक। जोतिक आ कारिख गाथा पर मैथिली मे शोध भ' चुकल अछि। मुदा आठम शताब्दीक बाद सार्वत्रिक आदर्शक स्थान पर कोना मिथिलाक अपन क्षेत्रीय धर्मनिष्ठा आ संस्कृति विकसित भ' रहल छल आ तकर बचल अवशेष हमरा लोकनि एखनहु की सब देखि पाबि रहल छी, ई बोध कोनहु शोधप्रज्ञक भीतर नहि पाओल गेल अछि। उदाहरणक संग बात करी तँ बेसी स्पष्ट भ' सकत। हमरा अध्ययनक अनुसार धर्मराज-महागाथा सर्वाधिक प्राचीन अछि, जाहि मे वज्रयानी पूजा-पद्धतिक अवशेष हमसब आइयो पाबि सकै छी। एहि पद्धति मे पूजा वा ध्यान ब्राह्मणधर्म जकाँ व्यक्तिगत नहि, अपितु सामूहिक होइत अछि। धर्मराजक पूजा होइत अपना गाम मे देखि सकैत छी, जाहि मे गोलाइ मे भगतिया सब बैसैत छथि आ बीच मे भगता। गाथा जे गाओल जाइछ से मैथिली मे तँ होइतहि अछि, उच्च सामूहिक स्वर मे विविध वाद्ययंत्रक संग भारी गर्जन-तर्जन करैत गाओल जाइछ। ओमप्रकाश भारती एहि गर्जन-तर्जनक सम्बन्ध मानसिक विरेचन संग जोड़ैत कहलनि अछि जे कठोर श्रमक अभ्यास सँ निम्नवर्गक लोक मे शारीरिक शक्ति पर्याप्त होइत छनि, मुदा जीवन मे वीरता प्रदर्शन करबाक अवसर नहि रहैत छनि। अपने सन एक गाथानायकक वीरता-प्रदर्शन गबैत ओ अपना जीवनक विषमता बिसरि जाइत छथि आ एकर भरपाइ ई चिकारी-भोकारी करैत अछि। ( भारती जीक लेख लेल देखी-- मैथिली दलित लोकगाथा ओ संस्कृति/पृ. 32-35) जखन भगताक देह मे देवता अबैत छथि तँ उपस्थित समस्त सामाजिक समुदायक गोहारि होइछ। कमाल बात ई अछि जे धर्मराज एक निराकार देवता छथि, स्वयं गाथा सब मे हुनका निर्गुण आ निरंकार कहल गेल अछि, जखन कि मैथिलीक अनवधान अध्येता लोकनि केवल एहि आधार पर धर्मराज कें सूर्यदेवता कहैत छथि जे हुनकर एक नाम गाथा सब मे 'दिनानाथ' आएल छनि। एहि विषयक गंभीर जानकारीक  लेल जिज्ञासु लोकनि कें शशिभूषण दासगुप्तक प्रख्यात पुस्तक 'Obscure Religious Cults'क अध्ययन करबाक चाही।

      धर्मराजक देव-परिवार चौदह देवताक छनि, जिनका समेकित नाम 'चौदह देवान' सँ संबोधित कयल जाइछ। सब सँ रोचक बात ई अछि जे एहि चौदह देवता मे सँ एक मीरा साहेब छथि। मीरा साहेब मुसलमान छथि। हुनकर गाथा 'मीरायन' मैथिली मे अछि। मीरा साहेब धर्मराजक संग-संग पूजित होइत छथि, मने हुनकर पूजाक विना अनुष्ठान पूर्ण नहि भ' सकैछ। एहन प्रतीत होइत अछि जे लोकायतक धर्मधारणा मे सातक संख्या अतिरिक्त रूप सँ महत्वपूर्ण अछि। धर्मराजक पत्नी छथिन शीतला, वा सितला, जिनकर सेहो अपन देव-परिवार छनि, एहि मे सात देवी छथिन। तहिना, कमलाक देव-परिवार मे सेहो सात देवी छथिन। कमाल बात ई अछि जे एहि देव-परिवार मे दुलरा दयाल शामिल नहि छथि, हुनकर हैसियत मात्र एक 'सेवक'क छनि, जखन कि हुनकर पत्नी अमरावती आ सासु बहुरा गोढ़िन कमलाक देव-परिवार मे शामिल छथि। जोतिक, कारिख, कालिदास, अन्दू मालि, बेनीराम आदिक गाथा मूलत: धर्मराज महागाथाक गाथा-गुच्छ थिक। जोतिक अपन कठिन तप सँ धर्मराजक सिद्धि प्राप्त केलनि जकर बदौलत ओ गाथा-नायक भेला। हुनकर पुत्र कारिख सेहो अपन तप मे विशेष रहला, तें ओहो नायकत्व कें प्राप्त केलनि। आ, बिलकुल यैह बात कारिखक पुत्र कालिदासक संग रहलैक। एही क्रमें हमसब आन-आन गाथा-नायकक प्रताप कें बूझि सकैत छी। मिथिलाक स्वतंत्र धर्म-धारणा कतेक संघर्षक बाद स्थापित भ' सकल, तकर बहुतो रास सामग्री हमरा लोकनि कें एहि गाथा सब मे भेटैत अछि। कामरु कमख्याक वर्चस्व कें तोड़ैत कोना कमला  आ धर्मराज मिथिलाक लोकायत परंपरा मे स्थापित भ' सकला तकर वृत्तान्त जतबे रोचक अछि ततबे मार्मिक। गाथा-गुच्छ आ गाथा-चक्र मे अंतर यैह छैक जे गुच्छ मे जतय एकहि महागाथाक अनेकवंशीय चरितनायकक कथा आयल रहैत छैक ओतहि चक्र मे एक्कहि वंश मे उत्पन्न अलग-अलग नायकक यशोगाथा गाओल जाइछ। गाथा-चक्रक एक स्पष्ट दृष्टान्त जोतिक, कारिख आदिक गाथा थिक।

        मौखिक साहित्य कें संतरणशील साहित्य(foating literature) कहल जाइत अछि। एहन साहित्य जे मानू बसात मे उड़ियाइत रहैत अछि। एकर असल तात्पर्य थिक जे हरेक पीढ़ीक प्रस्तोताक रुचि आ प्रतिभाक हिसाब सँ एकर पाठ मे परिवर्तन अबैत जाइ छैक। गाथागायकक अलग-अलग पीढ़ीक दू व्यक्ति मे ने तँ कवित्वशक्ति के समानता संभावित रहै छै आ ने कल्पनाशीलताक। एकर उदाहरण देखने बात बेसी स्पष्ट होयत। दुलरा दयाल गाथाक एक पाठ मणिपद्म कें भेटल रहनि जकरा आधार पर ओ अपन प्रसिद्ध उपन्यास 'दुलरा दयाल' लिखलनि। ओहि उपन्यास कें देखितहि स्पष्ट भ' जाइछ जे ओहि गाथागायक मे कतेक उन्नत कोटिक सौन्दर्यदृष्टि आ कवित्वशक्ति रहल हेतै। मणिपद्म एहि बातक अपील तँ सदति करैत रहला जे मैथिली लोकगाथा सब पर लुप्त भ' जेबाक खतरा मँडरा रहल अछि, मुदा हुनका अपना लग जे पाठ उपलब्ध रहलनि, ओ चाहितथि तँ ग्रियर्सन जकाँ हू-ब-हू ओकरो पाठ प्रकाशित क' दीतथि। मुदा जानि नहि किएक, ई काज ओ नहि क' सकला। गाथाक उक्त पाठ वास्तव मे लुप्त भ' गेल। डा. विश्वेश्वर मिश्र कें दुलरा दयाल गाथाक जे पाठ भेटल रहनि, आ जकरा ओ प्रकाशित करौने छथि, हमसब साफ देखि सकै छी जे एहि गाथागायक लग ने तँ ओ सौन्दर्यदृष्टि छैक ने ओहि कोटिक कवित्वशक्ति। 

एकरा अतिरिक्त एक आर स्थिति होइत छैक जे समयक संग लोकगाथाक आकार आ वर्ण्यविषय मे परिवर्तन होइत जाइत छैक। एकर एक नीक दृष्टान्त दीनाभद्री गाथा भ' सकैत अछि जकर तीन गोट अलग-अलग पाठ मैथिली मे प्रकाशित छैक। एकर प्रथम पाठक संकलन स्वयं ग्रियर्सन 1885मे प्रकाशित करौने छला। असल मे, मैथिली भाषाक लोकगाथा, लोकगीत वा समकालीन लेखन मे किछु सारतत्वो छैक, एहि बातक दिस संसारक ध्यान आकृष्ट केनिहार प्रथम व्यक्ति एक यूरोपीय विद्वान ग्रियर्सने छला, कोनहु मैथिल नहि। ग्रियर्सनक एहि दीनाभद्री गाथा मे कुल सात अध्याय छैक। ग्रियर्सन कें ई गाथा कोन गाम मे कोन गाथावाचक सँ भेटलनि, तकर ओ कोनो उल्लेख नहि कयने छथि। ओ तँ खैर विदेशी मूलक शासकवर्गक अधिकारी रहथि, एकर दोसर पाठ 2007 मे महेन्द्र नारायण राम आ फूलो पासवानक संपादन मे छपल। खेदक विषय जे एहू मे गाथागायकक कोनो नामोल्लेख नहि अछि, जखन कि एकर दुनू संपादक स्वयं दलित समुदाय सँ रहथि। एतय धरि जे सवा सौ वर्ष पहिने ग्रियर्सन द्वारा छपाओल पाठक कोनो सूचनो हुनका लोकनि कें प्राय: नहि छलनि। अस्तु, डा. राम एवं डा. पासवान द्वारा संपादित ई गाथा बढ़ि क' तेरह अध्यायक भ' गेल। एकर तेसर पाठ रमेश रंजनक संपादन मे नेपालक प्रज्ञा प्रतिष्ठान सँ प्रकाशित अछि जाहि मे कथानक अध्याय मे विभाजिते नहि छैक, अपितु निरंतरता मे चलल अछि। एकर गाथागायक सातैन राम (खुरखुरिया, राजबिराज)क ने केवल नाम-गाम देल गेल अछि अपितु फोटुओ छापल हेल अछि। 

        दीनाभद्री गाथा आर्य-अनार्यक बीच युग-युग सँ चलि अबैत  संघर्ष आ आर्यीकरणक दमनकारी प्रक्रियाक दू टूक जानकारी दैबला एक दुर्लभ गाथा थिक। एहि ठाम सब सँ मजेदार स्थिति धर्मक बताओल गेल अछि। तात्पर्य जे शोषण आ दमनचक्रक संदर्भ मे धर्मक अलग सँ कोनहु मूल्ये नहि रहैछ। एहि गाथा मे हमसब देखैत छी जे कनक सिंह(हिन्दू) आ ताहिर मियां(मुसलमान) दुनू एक्कहि समान आर्य छथि, कृषिजीवी आ गोपालक छथि। एतय धरि जे दुर्लभ कामधेनु गाय जाहि कोनो एक व्यक्ति लग उपलब्ध छैक, से कनक सिंह(हिन्दू) नहि अपितु ताहिर मियां(मुसलमान) थिका। अनार्य दीनाभद्रीक अन्यायपूर्ण हत्या मे, आ हुनक समुदाय कें जबरन आर्यीकरणक भीतर समाविष्ट करबा मे एहि दुनू आततायीक बराबर-बराबर भूमिका छनि, धर्मक आधार पर कोनो वैभिन्य नहि अछि। मुदा, मौखिक साहित्यक जाहि संतरणशील स्वभावक ऊपर चर्चा कयल गेल, आगामी पाठ सब मे हमसब देखैत छी जे कतहु दीनाभद्री महादेव मंदिर कें विधर्मी सँ बचेबाक संघर्ष करैत देखल जाइत छथि तँ कतहु मक्का-मदीना पर हुनका विजयपताका फहराबैत देखल जाइत अछि। संतरणशील हेबाक कारण लोकगाथा सभक प्रस्तुति मे अपन समकालीन समयक महाप्रश्न सब कें, संघर्ष सब कें अंटाबेस क' लेबाक अपूर्व क्षमता होइत छैक। तें, एहि दुर्लभ घटना कें एतय घटित होइत अक्सरहां देखल जा सकैछ जे कोना प्राचीन मिथक आ यथार्थवादी समकाल संग-संग लोकगाथा सब मे विहार करैत अछि।

        मैथिलीक विद्वान लोकनि मे कोनो गाथा-विशेष कें कोनो खास जातिक संग जोड़ि क' देखबाक चलन रहलनि अछि। कहि नहि, एहि चलनक आरंभ कोना आ कहिया भेल, मुदा हमसब देखैत छी जे मणिपद्म समान विचक्षण लोकविद् सेहो रहरहां एहि प्रकारक वाक्य निधोख लिखैत देखल जाइत छथि जे 'राजा सलहेस दुसाध जातिक छथि' अथवा 'लोरिक स्वयं यादव छला' अथवा 'दीनाभद्री मुसहरक महापुरुष छला' आदि। एकरा पाछां कारण अक्सर ई बताओल जाइछ जे एहि-एहि महापुरुषक गाथा एही-एही जातिक गाथागायक लोकनि गबैत छथि। खेद अछि ई कहैत जे तथ्यात्मक अध्ययन सँ एहि बातक पुष्टि नहि होइत अछि। अतीतक महापुरुष संग सब क्यो अपन आत्मीयता रखैत अछि, पचपनिया समुदायक सब लोक हुनका प्रति श्रद्धा-भक्ति रखैत छथि, आ सब जातिक लोक गुरु-परंपरा सँ एहि गाथा कें गेबा मे अधिकारिता रखैत छथि, तथ्य सैह कहैत अछि। विद्यापतिक वंश-निर्णय जेना विद्वान लोकनि असंदिग्ध रूप सँ पंजी-ग्रन्थक आधार पर क' सकलाह अछि, कहब आवश्यक नहि जे लोकायतक महापुरुष लोकनिक वंशादि निर्णयनक लेल एहन कोनो दस्तावेज उपलब्ध नहि अछि। दोसर, गाथागायकक जहाँ धरि प्रश्न अछि, कहबे केलहुँ जे विद्वान लोकनि गाथागायकक कंठ सँ गाथा तँ ल' लेलनि मुदा हुनकर नामोल्लेखो धरि करब जरूरी नहि बुझलनि। सोचू तँ ई कते पैघ अन्याय थिक जे जे लोकनि व्यक्तिगत जतन क' क' सैकड़ो-हजारो वर्षक गाथा कें लुप्त हेबा सँ बचौलनि, हुनकर तपस्याक आगू संग्रहकर्ता संपादकक प्रयत्न वास्तव मे कते लघु छनि। गाथागायक लोकनिक जतबा जे नाम-गाम हमरा लोकनि कें उपलब्ध होइत अछि ताहि सँ एहि जाति-संबद्धता विचारक समर्थन नहि होइत अछि। उदाहरणक लेल डा. विश्वेश्वर मिश्र कें नैका बनिजारा गाथा हरिपुर गामक सरोवर यादव सँ प्राप्त भेल रहनि, जखन कि एहि गाथा कें तेली जातिक गाथा कहबाक चलन रहल अछि। तहिना, लोरिक गाथा कें यादवक संग जोड़ल जाइछ, जखन कि ई गाथा हुनका असमा गामक फचन दास आ बाहुरलाल हजाम सँ प्राप्त भेल रहनि। तहिना, बिहुला गाथाक सम्बन्ध तेली जातिक संग जोड़ल जाइछ मुदा एकर प्राप्ति हुनका लगमा गामक सोमन मुखिया लग भेलनि। तें, कोनो लोकगाथा कें जाति-विशेषक संग जोड़बा सँ पहिने पूरा परीक्षण क' लेब उचित थिक।


मैथिली लोकगीत


   लोकगीत मिथिलाक प्राचीनतम भावाभिव्यक्ति-विधा थिक। जहिया आम लोकक चलन मे साहित्य नहि छल, तहियो लोकगीत छल। ओ पहिल व्यक्ति जे आम लोकक भाषा कें अपन साहित्याभिव्यक्ति के माध्यम बनेलथि, धन्य आ प्रणम्य छथि। ओ पीढ़ी सब तँ जरूरे जे एहि चलन कें आम बनेलथि। आइ साहित्य आ लोकसाहित्य मे एते अंतर किए देखार पड़ैए? लोकसाहित्यक ई विधा गीत, एक तँ लयात्मक होइछ, दोसर सरल। साधारण शब्द सब द्वारा एक साधारण जीवनशैलीक चित्रण। मुदा, ई बात सुनबा मे जते आसान अछि, बरतबा मे ततबे कठिन। असल मे जीवन-सत्य कें अभिव्यक्त करबाक ई लिलसे अलग-अलग होइत अछि। डाॅ अणिमा सिंह कहलनि अछि-- 'मैथिल समाज मे जीवन-जिज्ञासा सर्वत्र दर्शनशास्त्रादिक रूप धारण नहि करैछ, वरंच ओ प्राय: सहज भाव सँ गीतकाव्यक रूप मे सेहो परिणत भ' जाइछ। फलत: मैथिली लोकगीतक परिचय मे हुनका लोकनिक समग्र लोकजीवनक परिचय भेटि जाइछ।' (भूमिका/ मैथिली लोकगीत/ पृ.11) तात्पर्य जे मिथिलाक लोकजीवनक वास्तविक स्वरूप एकर दार्शनिक लेखन मे नहि अपितु एकर लोकगीते मे प्राप्त भ' सकैत अछि।

          ओ वस्तु मैथिली लोकगीते छल, जकर रूप आ कथनशैली सँ प्रभावित भ' क' हजार वर्ष पहिने अपन बात एहि भाषाक आश्रय लैत जनता मे ल' जेबाक प्रेरणा सिद्ध लोकनि कें भेटल रहनि। आ ओहो वस्तु यैह थिक जे अपना समय मे विद्यापति कें मैथिली लिखबाक लेल प्रेरित केलकनि।विद्यापति तँ अपन लोकसिद्धता मे तते प्रखर बहरेला जे हुनकर अपन व्यक्तित्व एहि लोक मध्य तिरोहित भ' गेलनि आ ओ एक मिथकपुरुष मात्र बनि क' रहि गेला जे शिवविषयक गीत लिखलनि तँ शिव हुनकर चाकर बनि क' संग रहला, गंगा-गीत लिखलनि तँ गंगा अपन प्रवाह बदलि ल' हुनका समीप अयबा लेल बाध्य भेली। आगू विद्यापतिक भणिता लगा क' अज्ञात कवि लोकनि द्वारा पांच सौ बरस मे हजारो गीत लिखल गेल, एहि ठाम मैथिली लोकगीत आ लोककवि विद्यापति, दुनूक व्यापकता आ विस्तार देखल जा सकैत अछि।

      मुदा प्रश्न अछि जे लोकगीत ककरा कहल जाय? एकर तीनटा उत्तर संभावित अछि-- (1) लोक मे प्रचलित गीत (2) लोकनिर्मित गीत (3) लोक-विषयक गीत। लोकविषयक गीतक विषय मे विद्वान लोकनि मानै छथि जे मात्र लोकविषयक हेबाक कारण कोनो रचना लोकगीत सेहो बनि जाय, ई क्षमता ओकरा मे हैब कठिन बात होइत अछि। जँ शिष्टसाहित्यक कोनो प्रतिभाशाली कवि लोकविषयक गीत लिखथि, आ ओ कवि-व्यक्तित्वक प्रभाववश लोक मे प्रचलित सेहो भ' जाय, तैयो एहि बातक गारंटी नहि अछि जे सदा ओ लोक मे प्रचलित बनल रहत। एकर उदाहरण हमसब मधुप जी आदि कविक गीत मे पाबि सकै छी जे एक समय मे लोकप्रचलित भेलाक बादो आगां प्रचलन सँ बाहर भ' गेल आ आइ ओकर मूल्यांकन शिष्टसाहित्यक कसौटी पर करबा लेल हमसब बाध्य छी। असल लोकगीत होइछ लोकनिर्मित गीत। आब एतय देखल जाय जे 'लोकनिर्मित' मे जे 'लोक' अछि तकर कोनो नाम नहि अछि, ने भ' सकैए। कारण नाम भेने ई निश्चित जे ओकर एक दिन मृत्यु हैब सुनिश्चित अछि। जखन कि 'लोक' अजर-अमर होइत अछि। केहनो प्रतापी राजा हो, ओ एक दिन मरि जाइत अछि। जखन कि प्रजा वा लोक, जे एक सामूहिक संज्ञा थिक, नैरन्तर्य मे ओकर जीवन चलैत रहैत छैक। तें, कोनो रचना कें लोकगीत हेबाक अनिवार्य शर्त थिक ओकर लोकत्व अर्थात रचनाकार-व्यक्तिक विलोप। ई विलुप्तीकरण समाज सेहो करैत रहैत अछि। 'भनहि विद्यापति' लागल जे आइ हजारो गीत भेटैत अछि, संभव जे एक समय मे ओ कवि अपन नाम देने हेता, लोक ओकरा विद्यापति मे परिणत क' लेलक। लोकगीतक रचना सदा सामूहिक होइत अछि। हरेक गितगाइन कें ई सुविधा रहैत छैक जे गीत कें अधिकाधिक मार्मिक आ सुंदर बनेबाक लेल ओ अपनो दिस सँ कलाकारी करैत चलय। एही कारण सँ लोकसाहित्य कें नमनीय कहल जाइत छैक। विश्वक प्रसिद्ध लोकविद् लोकनि अक्सरहां एहि तरहक बात लिखलनि अछि जे लोकगीत कें लिखित रूप देब प्रकारान्तर सँ ओकर हत्या करब थिक, कारण एहि सँ ओकर नमनीयता नष्ट होइत छैक। ई नमनीयता लोकगीत कें हर एक व्यक्तिक अप्पन वस्तु बनबैत छैक। डाॅ.आशुतोष भट्टाचार्यक ई कथन अणिमा सिंह उद्धृत केलनि अछि-- 'लोकसमाज मे प्राय: प्रत्येक व्यक्तिक लेल लोकगीत रस-वस्तु थिक। अपन रचना नहि भेनहु जन-मानस ओकरा बड़ आतुरता और उत्साहक संग अपनाबैछ, किएक तँ ओहि मे अपनहि भावक प्रतिच्छवि पाबैछ। भावक तन्मयता मे अपन और आनक भेद तथा सब प्रकारक भेदभाव भूलि जाइछ।' (मैथिली लोकगीत/ पृ.9)

       मैथिली लोकगीतक कृतकार्य संग्रहकर्ता डाॅ. अणिमा सिंह लिखलनि अछि जे 'आइयो अनेक क्षेत्र एहन अछि जतय सँ लोकगीत संग्रह नहि भ' सकल अछि। लोकगीतक विशाल परिमाण कें देखैत ई कहल जा सकैत अछि जे आइ धरि लोकगीत-संग्रहक लेल जे सब काज भेल अछि ओ सर्वथा अपर्याप्त अछि। (भूमिका/ मैथिली लोकगीत/ पृ.9)

        मैथिली लोकगीतक की सब विशेषता अछि? डाॅ अणिमा सिंह एकर पांच गोट प्रमुख विशेषताक विवेचना कयने छथि-- (1)मैथिली लोकगीत मे भाषाक सरलता, सुबोधता आ वेगसंपन्नता पाओल जाइछ। (2)एहि गीत सब मे भावक उदारता प्रचुर परिमाण मे भेटैछ। सर्वत्र संकीर्ण भावक भर्त्सना आ उदार भावक प्रशंसा भेटैत अछि। (3) एकर तेसर विशेषता अछि मंगलैषणाक प्राधान्य। लोकगीतकार अपन वैयक्तिक जीवन मे, परिवार मे तथा समाज मे, शांति आ अभ्युदयक मंगलकामना करैत अछि। (4) एकर चतुर्थ विशेषता अछि धर्मोन्मुख जीवनक कामना। प्रत्येक व्यक्ति समाज मे अपन विकास चाहैछ। ई विकास एहन हेबाक चाही जे दोसरक विकास मे बाधक नहि बनैत होइ। (5) मैथिली लोकगीत मे पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धक आदर्शीकरणक प्रयास सर्वत्र दृष्टिगोचर होइछ। आदर्श भाइ, आदर्श बहीन, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श सेवक तथा समुन्नत नागरिकक आदर्श एहि गीत सब मे भरल अछि। एहि सब विशेषताक अतिरिक्त डाॅ. रामदेव झा एकर गेयता-विषयक एक आर विशेषता एकर सामूहिक गान-पद्धति कें मानलनि अछि। 

        किछु उदाहरण सँ बात बेसी फड़िच्छ होयत। उदारभावक प्रचुरताक एक दृष्टान्त एहि सोहरगीत मे देखल जा सकैत अछि जतय गितगाइन पुत्रजन्म पर गबैत छथि-- 'सेर जोखि सोनमा लुटायब, पसेरी जोखि रुपया रे/ सौंसे अजोध्या लुटायब, किछु नहि राखब रे।' एहि हार्दिक एवं सामूहिक औदार्य कें ठीक-ठीक पकड़ि पायब सेहो कोनो आसान बात नहि अछि। तकर उदाहरण हमसब प्रसिद्ध लोक अध्येता डाॅ. कृष्णदेव उपाध्यायक एहि निष्कर्ष मे देखि सकै छी जतय ओ कहै छथि जे 'इन उल्लेखों से पता चलता है कि लोकगीतों में वर्णित समाज धनी था, समृद्ध था।' जी नहि, बिलकुल गलत। धनी तँ सौंसे गाम क्यो एकाध व्यक्ति छला जेना गाम भरि मे कतहु एकटा ब्रह्मस्थान। मुदा, ई गीत तँ घर-घर मे गाओल जाइत छल। असल मे ई औदार्य पूर्णत: हृदयगत थिक, भौतिक नहि। तहिना, संकीर्णता, कृपणता एवं बैमानीक सर्वत्र भर्त्सना भेटैत अछि। जट-जटिनक गीत मे ई प्रसंग अबैत छैक-- 'सगरे सुनै छिऐ फलना बड़ धनीक छै रे ना/ एक सेर कें दूइ सेर बनाबै छै रे ना/ चिपड़ी रोटी चुटकी नोन जन सब कें दै छै रे ना/ ओकरा नामें जन सब कानै छै रे ना/ ओकरे पापें पानियो नै पड़ै छै रे ना।' कतोक गीत सब मे एहि प्रकारक आर्थिक अन्यायक विरुद्ध बहुत तीक्ष्ण शब्दावली व्यवहृत भेल अछि। 

          मैथिली लोकगीतक एहन आरो अनेक विशेषता छै जाहि पर विद्वान लोकनिक ध्यान एखनहु नहि गेलनि अछि। एहि मे सँ एकटाक चर्चा मात्र हम एतय करब। कोनहु जाति, जेना मिथिलावासी, के किछु आदिम स्मृति रहै छै, जे लोकसाहित्य मे देखार द' जाइ छै। ई कालगत सेहो खतियाएल जा सकै छै। कमाल बात ई छै जे लोकस्मृतिक बहुतो रास बातक समर्थन लिखित इतिहास सँ सेहो होइ छै, जखन कि बहुतो रास तथ्य फरजी इतिहासक भंडाफोड़ सेहो करैत छै। मैथिलीक एक खेलगीत मे वर्णन अबै छैक-- 'अमर सिंह के कमर टूटलनि, कुमर सिंह के बांही/ पुछियनु ग' दलभंजन सिंह सँ आब लड़ता कि नांही।' गीतक अगिला पद मे एकर जवाबो आएल छै-- 'हाथी बेचब घोड़ा बेचब, दुश्मन कें हरायब/ लड़ब नै तँ करब की, नाम की हँसायब।' बहुत आराम सँ हमसब बूझि सकैत छी जे एहि गीतक स्मृति 1857 के विद्रोहक एक नायक बाबू कुँवर सिंह संग जुड़ल छैक। इतिहास साक्षी अछि जे मिथिलाक राजा 1857क विद्रोह मे अंग्रेजक दिस रहथि, विद्रोह कें कुचलबाक लेल हाथी-घोड़ा-सिपाही सँ अंग्रेज कें मदति कयने रहथि। मुदा एहि ठामक आम जनता अंग्रेजक, आ तें महराजोक खिलाफ रहय। मिथिलाक जननायक ओहि समय भोजपुरक कुँवर सिंह छला, दरभगाक महेश्वर सिंह नहि। एहि सब सँ सम्बन्धित अनेको तथ्यक सोदाहरण विवरण हम अन्यत्र प्रस्तुत कयने छी। दोसर दिस किछु एहनो प्रसंग छै जे इतिहासकारक नजरि सँ ओझल भ' चुकल अछि मुदा लोकस्मृति मे एखनहु बनल अछि। उदाहरणक लेल एहि गीत कें देखि सकै छी-- 'छकौरी छबीला राय/ तक्कर बेटा भुल्ला राय/ पान खाइ ले बंगाला जाय।'  ई वीरबांकुरा भुल्ला राय, जे ओहि छबीला राय के बालक रहथि जिनका हाथ मे छव टा अंगुरी रहैक, आ जे बंगाल कें जीति लेबा मे समर्थ भेल छला, वास्तव मे के छला, कोन गामक निवासी रहथि, कोना-कोना हुनकर विजय-यात्रा भेलनि, एहि बातक जाबन्तो जानकारी इतिहास सँ सर्वथा लुप्त भ' गेल अछि मुदा लोकस्मृति मे एखनहु जीवित अछि।  एकटा बड़ प्रसिद्ध भगवती(काली)गीत हमर-अहाँक माय-बहीन एखनहु गबैत छथि, जाहि मे पांती अबैत छैक-- 'अपने सँ गाबथि काली अपने बजाबथि/ हे माँ, अपनहि सँ करथि बियाह।' एहि गीत कें अणिमा सिंहक संग्रह मे पूरा देखि सकैत छी। भगवती काली असुरक वध कोना-कोना केलनि, एहि गीत मे तकर पूरा विवरण आएल छैक। काली पहिने असुर संग बियाह केलनि, बियाही नारी बनि सभक विश्वास जितलनि, तखन जा क' अंतत: षड्यंत्रपूर्वक समुच्चा खनदान कें कचरि देलखिन। मुदा, एहि युद्धक जे वर्णन लोकस्मृति मे एखनहु सुरक्षित अछि, हमसब देखैत छी जे शिष्टसाहित्य मे एहि तथ्य कें नुका लेल गेल। उदाहरण हमसब दुर्गासप्तशती मे देखि सकै छी जतय एक तँ कालीक एहि प्रसंग कें दुर्गा संग जोड़ि देल छैक, दोसर एकरा अनुसार असुर संग भगवतीक बियाह होइते नहि छैक अपितु एकर प्रस्तावे सुनि क' असुरक खनदान कचरि देल जाइछ।

         एहि सभक अतिरिक्त मैथिल समाज मे सांस्कृतिक सम्मिलन कोना भेल, तकर अत्यन्त प्रामाणिक इतिवृत्त हमसब एतय पाबि सकै छी। संस्कारगीत अन्तर्गत विवाह-प्रसंगक गीत सब मे सिन्दूरदान-गीतक अति महत्व। गीतो सब भरपूर। मुदा, आश्चर्य लागत ई जानि क' जे आर्यसंस्कृतिक वैवाहिक पद्धति सब  मे सिन्दूरदानक कोनो गणने नहि छैक, मुख्य बिध सप्तपदी मात्र थिक। सिन्दूरदान अनार्य नाग आदिवासी लोकनिक संस्कृतिक वस्तु थिक आ ओतहि सँ मिथिला मे आएल अछि। 

         तहिना, धार्मिक सह-जीवन के सेहो लोकसंस्कृति मे बहुत महत्व। एकटा प्रसंग मोन पड़ैत अछि। जमींदारक अत्याचार कते बेसी छलै आ जनता कोना एकर सामना करैत जिबैत छल, तकरो विवरण सब सं लोकगीत भरल छै। एकटा झरनी गीत मे एलैए जे राजाक सिपाही एक अबला मुस्लिम स्त्रीक आंचर ध' लेलकै। अपन सतीत्वक रक्षा लेल ओ स्त्री सिपाही कें बतेलकै जे ओ बालबच्चेदार स्त्री थिक। ओकर बाली उमेरिया कें देखैत सिपाही ओकरा पुछै छै जे गे, तोरा बेटा कोना भेलौ? आ, मैथिली लोकजगतक मानस-सूत्र देखल जाय, ओ युवती बतबै छै जे 'गेलियै जनकपुर पुजलियै सिया जानकी/ ऊहे देलखिन गोदी के बलकबे जी।' क्यो मुसलमान अछि, मात्र एही कारणें सिया जानकी ओकरा लेल अपूज्य भेलखिन अथवा क्यो हिन्दू अछि मात्र एही टा लेल बालापीर अपूज्य भेला, एहि तरहक संकीर्णता अहाँ कें लोकसाहित्य मे कतहु नहि भेटत।

       मैथिली लोकगीतक संसार बहुत विशाल आ व्यापक अछि। लोक-हृदयक हरेक तरहक भावनाक लेल एतय गीत अछि। अनेक लोकविद् अपना-अपना तरहें एकर वर्गीकरण कयने छथि। ई वर्गीकरण सब मुख्यत: पांच प्रकारक अछि-- संस्कारक दृष्टि सँ, रसानुभूतिक प्रणाली सँ, ऋतु आ व्रतक क्रम सँ, विभिन्न जातिक अनुसार आ श्रमक प्रकारताक आधार पर। डाॅ. रामदेव झा मैथिली लोकगीतक छव प्रकार बतौलनि अछि-- संस्कारगीत, उत्सव-व्रतोपासनाक गीत, भक्तिपरक गीत, श्रमोपनोदक गीत, समैया गीत आ मनोरंजक गीत। डाॅ. जयकान्त मिश्र ओना तँ लोकगीतक वर्गीकरण सात भाग मे केलनि अछि-- भजन, देवी-देवताक गीत, पाबनिक गीत, सोहर, संस्कारगीत, समैया गीत, लगनी-- मुदा बड़ पता के एक बात लिखने छथि जे 'मिथिलाक स्त्रिगणक अनुसार एकर विस्तृत विभाजन थिक 'देवपक्षक गीत' आ 'रसपक्षक गीत।' (मिथिलाक लोकसाहित्यक भूमिका/ पृ.83)

         मैथिली लोकगीत पर अनेको बात मोन मे आबि रहल अछि। जेना लोकगीत मे वर्णित मैथिल संस्कृति, लोकगीतक भूगोल, प्रवासक पीड़ा, लोकगीत मे वर्णित जीवन-संघर्ष, लोकगीत मे आएल शहरक मारुख स्मृति, लोकगीत मे वर्णित आर्थिकी, धर्म आ धर्मनिरपेक्षता आदि-आदि। एतय तकर अवकाश नहि अछि। एकरा लेल जिज्ञासु लोक कें अन्यत्र देखबाक चाहियनि।

          


साहित्यक विकास मे अवदान


       मिथिलाक भूभाग मे बसनिहार लोकक संग कविताक सम्बन्ध बहुत प्राचीन रहल अछि। काव्य मे, तुक मे, लय आ भास मे अपन हृदयक भाव व्यक्त करबाक प्रवृत्ति पूर्वांचलीय लोकसमाजक खास विशेषता रहल अछि। यैह कारण भेल जे आधुनिक भारतीय भाषा, जेना मैथिली कें पहिल बेर काव्याभिव्यक्तिक माध्यम बनेबाक घटना सेहो इतिहास मे पहिल बेर एही भूभाग मे भेल। ओ सिद्धसाहित्य छल, जकर रचयिता लोकनि पहिल बेर गीत लिखि रहल छला। एक बिलकुल नवीन विधा, जकर संस्कृत साहित्य मे पूर्णत: अभाव छल। आगां हमसब देखैत छी जे एतहि सँ संस्कृत मे गीत लिखबाक प्रेरणा जयदेव लेलनि। जयदेव सँ कतेको डेग आगूक काज विद्यापति क' गेला। एक तँ ओ मैथिली कें संस्कृतक आसन देलखिन। जयदेव जे बात संस्कृत मे कहि सकल रहथि, तकरा ठेठ अपन बोलचालक भाषा मे कहि जेबाक साहस केलनि। हुनकर खूबी ई रहलनि जे बोलचालक भाषा कें काव्याभिव्यक्तिक माध्यम बनबैतो, ओ साहित्यक उच्च मूल्य आ मानदंड सँ कतहु समझौता नहि केलनि। एखनहु हमसब देखैत छी जे कते गोटे कें बौद्धिक वा वैचारिक बात केवल अंग्रेजिये मे कहल होइत छनि। ई मानसिक विभ्रम छिऐक जे अनभ्यास सँ पैदा होइ छै। ओहि युग मे जनमल विद्यापति एहि विभ्रम सँ बचल रहल छला, तय बात छै जे मातृभाषाक सृजन-परंपरा सँ ओ वाकिफ रहथि। रमानाथ झा 'विद्यापति' मोनोग्राफ मे एक उपकल्पना केने छथि। तदनुसार विद्यापति किशोरावस्थे सँ मैथिली मे गीत लिखै छला। कुटुंब-परिवारक महिला लोकनि अवसर विशेष लेल गीत लिखबाक आग्रह करनि आ ओ लीखि क' देथिन। मिथिलाक सामाजिक ताना-बाना कें देखी तँ ई परंपरा हेबनि धरि जारी रहल अछि। 

        विषय अछि मैथिली लोकसाहित्यक अवदान, मैथिली साहित्यक विकास मे। हमसब आगू देखै छी जे विद्यापति अपन काव्य-प्रतिभा सँ ततेक आगू बढ़ला जे अपन ओहि भाषा, जाहि मे ओ गीत लिखने छला, एक उन्नत साहित्य-भाषाक रूप मे प्रतिष्ठित क' देलनि। बंगाल, असम, ओडीशा धरि मे जखन आधुनिक भारतीय भाषा मे लेखन शुरी भेल तँ ओ भाषा मैथिली छल, जकरा ओ लोकनि ब्रजबुलि वा ब्रजावलि कहलनि। पांच सौ सँ बेसी कवि भेल छथि बंगाल-असम-ओडीशा मे, जे विद्यापतिक भाषा कें आगू बढ़ेलखिन।एहि मे प्रभूत संख्या एहनो कविक रहैक जे स्त्री रहथि, जे मुसलमान रहथि। एही मे सँ एक गोविन्ददास भेला जिनका हमसब अपनेलियनि। जखन कि हुनको सँ बेसी प्रतिभाशाली कवि ज्ञानदास आदि कें एखनहु छोड़नहि छियनि।

        प्रश्न अछि जे विद्यापति कें तँ मानि ली जे गीत लिखबाक प्रेरणा जयदेव सँ भेटलनि आ जयदेव कें सिद्ध लोकनिक काव्य-परंपरा सँ, मुदा प्रश्न अछि जे सिद्ध लोकनि कें लोकभाषा मैथिली मे गीत लिखबाक प्रेरणा कतय सँ भेटलनि? सिद्ध लोकनिक मुख्यालय विक्रमशिला विद्यापीठ रहनि। हुनकर काव्यभाषा लोकभाषा होइत रहनि, जे कि हुनका लोकनिक परंपरे सँ प्रचलित छलनि। दोसर, लोक मे, आम श्रद्धालु जनता मे पहुंचेबाक रहनि। वाजिब रहै जे लोक मे जे काव्यरूप पहिने सँ प्रचलित होइ तकरा ओ अपन‌ माध्यम बनाबथु। सैह भेलै। एम्हर मिथिलाक लोक-समाज एहन रहल जकरा हरेक अवसर लेल गीत चाही। हुनका जीवन-मरण मे गीत शामिल। स्पष्ट अछि जे जाहि लोकसमाजक एक कुनबा सँ सिद्धलोकनि कें गीतक प्रेरणा भेटल छलनि ओही समाजक दोसर कुनबा सँ विद्यापति कें गीतक मांग भेल छलनि। आगू विद्यापति आगां बढैत गेला, हुनकर कुनबा विस्तृत होइत गेल। आगूक पांच सौ वर्ष धरि मिथिलाक कवि लोकनि विद्यापतियेक नकल करैत रहला, जकरा लेल आचार्य रमानाथ झा बेस अप्रसन्नता बारंबार प्रकट कयने छथि। विद्यापतिक अंधाधुंध नकलक दुष्चक्र सँ मध्यकाल मे जे मैथिली कें मुक्ति प्रदान केलक, से नेपालक मल्लवंशीय राजा लोकनि आ हुनका सभक दरबारी कवि लोकनि छला। मुदा ओतहु देखल गेल जे अभिव्यक्तिक प्रधान विधा गीते रहल जाहि मे लोकतत्व भरपूर मौजूद रहैक।

             दोसर दिस, मैथिलीक प्रथम ग्रन्थ हेबाक श्रेय ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकर कें छैक, जे लोरिकगाथाक प्रतिरूप रचबाक महत्वाकांक्षा मे लिखल गेल छल। ई बात ओ अपनहु गछने छथि। ओ अपन कृति कें 'काव्य' तँ कहनहि छथि, लोरिक नाचक नाम धरि लेलनि अछि। असल मे ज्योतिरीश्वरक विषय मे सुरुहे सँ बहुत प्रकारक भ्रम आ विवाद विद्वान लोकनिक बीच रहलनि। बहुतो भ्रमक निवारण तँ भ' गेल अछि, मुदा एकरा गद्यग्रन्थ कहबाक चलन एखनहु बनले अछि। सुनीति बाबू भनहि मैथिलीक बड़ उपकार कयने होथु, ई अपेक्षा हुनका सँ कोना कयल जा सकैत छल जे जतबा ज्ञान हुनका बंगालक लोकसंस्कृतिक होइतनि ततबे असंदिग्ध ज्ञान मिथिलाक लोकसंस्कृतिक सेहो होइतनि। से अपेक्षा बबुआ मिश्र सँ सेहो संभव नहि छल कारण ओ संस्कृत परंपराक एक चूड़ान्त पंडित छला। सुनीति बाबू 'कथावाचक' लोकनिक उपकारार्थ एहि कृतिक रचना कयल जायब उपकल्पित केलनि। हुनका की पता जे मिथिला मे पौरोहित्य आ पंडिताइक व्यवसाय छल, कथावाचनक नहि। एहि ठाम एक वर्ग मे कथावाचनक नहि अपितु गाथागायन आ गाथानाचक परंपरा छल। एहि विषय मे अधिक जनबाक लेल डाॅ. काञ्चीनाथ झा किरणक शोधप्रबन्ध पढ़बाक चाही। बहुत रास बात हजार वर्षक पहिल भाग मे सेहो भेटि सकैत अछि। सारांश जे वर्णरत्नाकर लोरिक, सलहेस आदि गाथाक प्रतिरूप रचनाक प्रेरणावश रचल गेल रहय। तें, मैथिली साहित्यक विकास मे लोकसाहित्यक अवदान अतुलनीय अछि।

            

Thursday, November 2, 2023

कालिदास का संक्षिप्त इतिहास (श्रीलाल शुक्ल)


 श्रीलाल शुक्ल 


लोक-कथाओं के आधार पर कालिदास का जन्म एक गड़रिए के घर में हुआ था. उनके पिता मूर्ख थे. उपन्यासकार नागार्जुन ने जिस वीरता से अपने पिता के विषय में ऐसा ही तथ्य स्वीकार किया है, वह वीरता कालिदास में न थी. अत: उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया. फिर भी सभी जानते है कि कालिदास के पिता मूर्ख थे. वे भेड़ चराते थे. फलत: कालिदास भी मूर्ख हुए और भेड़ चराने लगे. कभी-कभी गायें भी चराते थे. पर वे बाँसुरी नहीं बजाते थे. उनमें ईश्वरदत्त मौलिकता की कमी न थी. उसका उपयोग उन्होंने अपनी उपमाओं में किया है. यह सभी जानते हैं. जब वे मूर्ख थे, तब वे मौलिकता के सहारे एक पेड़ की डाल पर बैठ गए और उसे उल्टी ओर से काटने लगे. इस प्रतिभा के चमत्कार को वररुचि पंडित ने देखा. वे प्रभावित हुए. उनके राजा विक्रम की लड़की विद्या परम विदुषी थी. विद्या का संपर्क इस मौलिक प्रतिभा से करा के वररुचि ने लोकोपकार करना चाहा. कालिदास की मूर्खता का थोड़ा प्रयोग उन्होंने राजा विक्रम और विद्या पर बारी-बारी से किया. परिणाम यह हुआ कि कालिदास का विद्या से विवाह हो गया. विद्वता से मौलिकता मिल गई.


कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वररुचि ने विद्या पर क्रोध कर के उसका विवाह एक मूर्ख से कराया, यह गलत है. यदि वररुचि विद्या से नाराज होते और उन्होंने उसका अहित करना चाहा होता तो वे उसका विवाह किसी भी मूर्ख राजा से करा देते. किसी भी युग में ऐसे राजाओं की कमी नहीं रही है. सच यह है कि वररुचि ने जो किया, लोक-कल्याण के लिए किया.


कालिदास की मूर्खता प्रकट होने पर विद्या ने उनका तिरस्कार किया. वे देवी के एक मंदिर में जा गिरे. उनकी जबान कट गई और देवी पर जा चढ़ी. देवी ने भ्रमवश उन्हें परम भक्त जाना. उनसे वर मांगने को कहा. मूर्ख होने के नाते कालिदास ने अपनी पत्नी के विरुद्ध कुछ कहना चाहा. किंतु जैसे ही उन्होंने कहा, ‘विद्या’ भ्रमवश देवी ने समझ लिया, विद्या मांग रहा है. फिर क्या था, ‘तथास्तु’. बस कालिदास विद्वान हो गए.


आगे का इतिहास मतभेदपूर्ण है. पहले कालिदास किस शताब्दी में पैदा हुए, इसी को लीजिए. सभी जानते हैं वे विक्रमादित्य के समय में उत्पन्न हुए थे. विक्रमादित्य चौथी-पांचवी शताब्दी के राजा थे. चूंकि कालिदास का विवाह विक्रम की ही कन्या से हुआ था, अत: वे चौथी शताब्दी के पहले पैदा नहीं हो सकते थे. यह भी सब जानते हैं कि महाराज भोज से भी इनकी मेल मुलाकात थी. ‘भोजप्रबंध’ नामक ग्रंथ में इसके अनेक प्रकरण मिलते हैं. भोज दसवीं शताब्दी के राजा हैं. इसी से सिद्ध होता है कि कालिदास का जन्म चौथी शताब्दी में और अंत दसवीं शताब्दी में हुआ. वे लगभग छ: सौ वर्ष जीवित रहे. मेरा अनुमान है जिस तरकीब से उन्हें विद्या मिली थी उसी से उन्हें दीर्घायु भी मिली.


वे तीन शताब्दियों तक ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’ और ‘रघुवंश’ जैसे काव्यग्रंथ लिखते रहे. (ऋतुसंहार अप्रामाणिक है.) बाद में उन्होंने नाटक लिखे क्योंकि जो कविता लिखता है वह सदैव कविता नहीं लिख सकता. कभी-न-कभी अकस्मात आलोचना पर आने के पहले वह नाटक पर अवश्य ही उतरता है. उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि इसके उदाहारण हैं. तीन शताब्दियों में कालिदास के तीन नाटक, ‘अभिज्ञान-शाकुंतलम’, ‘विक्रमोवर्शीय’ और ‘मालविकाग्मित्न’ प्रकट हुए.


अभी कुछ दिन हुए हिंदी पन्नों में ‘साधना’ शब्द को ले कर काफी विवाद चला था. नए लेखक साधना-विरोधी हैं. पर कालिदास से उन्हें शिक्षा लेनी चाहिए. जन्म से मूर्खता मिलने पर भी भाग्य से उन्हें राज-सम्मान मिला, फिर भी उन्होंने पुस्तकें लिखने में जल्दी न की. छ: सौ वर्षों में उन्होंने छ: ग्रंथ ही प्रकाशित कराए. इसी कारण कालिदास का नाम अब तक चला आ रहा है.


खैर, यह तो विषयांतर हुआ. विवाह के बाद कालिदास कविता लिखने लगे. यहां उन कवियों को कालिदास से शिक्षा लेनी चाहिए जो बिना विवाह किए ही कविता लिखने लगते हैं. इसी का फल है कि वे ‘तेरे फीरोजी ओठों पर’ जैसी पंक्तियों लिख कर ओठों के स्वाभाविक रंग से अपनी अज्ञता का प्रचार करते हैं. ‘उभरे थे अंबियों से उरोज’ जैसी बात लिख कर और कुरुचि तक दिखा कर, यह नहीं जान पाते कि अंबियां गिरती हैं, उभरती नहीं. जो विवाह कर के लिखेगा वह एक तो ऐसी गलतियां नहीं करेगा और करेगा भी तो उसको सही प्रमाणित करने का साहस रक्खेगा. इसलिए कालिदास ने यह काम शादी के बाद आरंभ किया. यह बात दूसरी है कि उनको अपने ससुर, विक्रमादित्य से इस विषय में प्रोत्साहन मिला. आज के कवि इतने भाग्यशाली कहां? कभी-कभी किसी सभा की सदस्यता पा लेने में, बची-खुची उपाधि हथिया लेने में और साक्षात अपने ससुर से श्लोक-श्लोक पर लाख-लाख मुद्राएं फटकारने में बड़ा अंतर है. आजकल एक तो समझदार लोग अपनी कन्या का विवाह कवि से न करके ओवरसियर से करना चाहते हैं और कवि से विवाह कर भी दिया तो उमरभर उसके भाग्य पर अकारण रोते हैं. पर कालिदास को ये असुविधाएं न थीं. इसलिए उनका व्यवसाय अच्छा चला. ‘भोजप्रबंध’ आदि से विदित होता है कि कुछ दिन बाद वे पक्के व्यवसायी और चतुर व्यक्ति बन गए. जैसे आजकल बहुत से साहित्यकार अपनी रचना को पुरस्कृत कराने के लिए पहले एक पुरस्कार का विधान करा के बाद में अपनी रचना को ही सर्वश्रेष्ठ मनवा लेते हैं, वैसे ही कालिदास स्वयं राजा को समस्या सुझा कर, दूसरे कवियों की रचनाओं में राजा की इच्छा का संशोधन दे कर यह प्रकट करा देते कि श्लोक उन्हीं का है और इस प्रकार सहज प्रशंसा के भागी हो जाते थे.


आज की भांति पुराने युग में भी लोग ज्ञानवर्धन के लिए यात्रा का महत्व समझते थे. इसीलिए कालिदास ने भी उत्तर-भारत से दक्षिण तक की यात्रा की. आज भी उत्तर-भारत के बहुत से कवि दक्षिण तक जाते हैं. पर उनकी गति कालिदास जैसी नहीं है. सर्वश्री भगवतीचरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, प्रदीप आदि तो बंबई तक ही पहुंचे. श्रीमती विद्यावती, ‘कोकिल’ और सुमित्रानंदन पंत पांडिचेरी तक जा चुके हैं. फलत: इनके साहित्य में उन स्थानों की हवा का असर है. सबकुछ होने पर भी महर्षि रमण के आश्रम से भी दक्खिन जाने वाले हिंदी कवि बहुत कम हैं. इस हिसाब से कालिदास की सिंहलयात्रा का ऐतिहासिक महत्व बढ़ जाता है. वे सिंहल अर्थात सीलोन तक गए थे. इस बीच में शायद कोई भी महत्वपूर्ण हिंदी कवि सीलोन नहीं गया. आगे भी हमारे यशस्वी कवि सीलोन जाएोंगे, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रेडियो सीलोन की नीति अभी भली-भांति निश्चित नहीं हो सकी है. फिर भी यदि वे किसी सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सीलोन पहुंच भी जाएं तब भी कालिदास की यात्रा का महत्व इससे कम नहीं होता, क्योंकि उस युग में उज्जयिनी के राजभवन से सीलोन तक जाना आज के युग में दिल्ली के संसद भवन से पोलैंड तक जाने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन था.


कालिदास को वेश्याओं से प्रेम था. विद्वान जानते ही हैं कि कालिदास ने जिस ‘रमणी, सचिव: सखी मिथ: प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ’ की उदात्त कल्पना की है, वह वेश्याओं में बहुत अधिक मिल सकती है. वे रमणी होती ही हैं. आपके चाहने पर वे सचिव भी हो जाती हैं, और सखी भी. ‘अज-विलाप’ की नायिका और अपनी वेश्याओं में अंतर केवल ‘प्रिय-शिष्या’ वाली बातों को ले कर है. वैसे सनातन काल से अपने देश का बड़े-से-बड़ा मूर्ख भी अपनी स्त्री को अपने से अक्ल में छोटा मान कर उसे शिष्या से ऊंचा नहीं उठने देता, वेश्या के साथ ऐसी बात नहीं. आप समझदार हों तो स्वयं उसके शिष्य बन सकते हैं. कई कवियों ने तो इसी शिष्यता के सहारे कवित्त-सवैये की लकीर छोड़ कर गजल की झटकेदार कमंद हथिया ली है. तात्पर्य यह है कि वेश्या का कवि-जीवन में जो महत्व है उसे हमारे जानने के पहले ही कालिदास जान चुके थे.


उनके मन में वेश्या-प्रेम कैसे जागा, इसको ले कर इतिहासकारों ने कई धारणाएं व्यक्त की हैं. कुछ का कहना है कि वे पत्नीशाप से वेश्या-गामी बने. कुछ कहते हैं कि ‘कुमारसंभव’ के नवम सर्ग में शिव-पार्वती का संयोग वर्णन इतना यथार्थवादी हो गया कि साक्षात पार्वती को शाप देना पड़ा कि ‘ओ कवि, तू स्त्री-व्यसन में मरेगा.’ उसी के वशीभूत हो कर कालिदास वेश्यागामी हो गए. वैसे यह कथा विश्वास-योग्य नहीं है. देवी-देवता यदि अपने नाम पर संयोग-वियोग की लीलाएं सुन कर कवियों को शाप देने लगते तो आज तक कवि-वंश का नाश हो गया होता; नहीं तो बहुत से कवि संस्कारवश मंदिरों के दरवाजों पर बैठ कर बताशे बेचते होते. या कविता करते भी होते तो ‘दफ्तर की इमारत’, ‘चाय से लाभ’, ‘खेती के लिए उपजाऊ खादें’ जैसे दोषहीन विषयों पर कविताएं लिखते. यदि शृंगार-सुख के वर्णन से बुरा मान कर पार्वती कालिदास को शाप दे सकती हैं तो कल कोई रिसर्च का विद्यार्थी यही कहने लगेगा कि तुलसीदास का रत्नावली से वियोग इसीलिए हुआ कि उन्होंने भगवान राम को सीता के वियोग में दु;खी दिखाया था और उनके मन में जड़-चेतन का विवेक मिटा दिया था.


मेरे विचार से कालिदास को वेश्या प्रेमी इसलिए होना पड़ा कि उनके सिर पर उनकी पत्नी का शाप या प्रताप बोल रहा था. देखने की बात है कि कालिदास की पत्नी उनके प्रति शुरू से ही कठोर रही. पुरुष की विद्या और आचरण ही उसके शास्त्रोक्त गुण हैं. पहले कालिदास के पास विद्या न थी, पर आचरण था. तब वह कालिदास का अपमान विद्याहीनता के कारण करती रही. जब वे विद्वान हो गए और उसे कालिदास को गिराने की कोई तरकीब न सूझी तो उसने शाप दे कर उनके आचरण को नष्ट दिया. और जब किसी सहृदय की पत्नी ही उसे, शाप दे कि ‘दुराचारी हो जाओ’ तो फिर ऐसा कौन पति है जो इस शाप को स्वीकार न करेगा.


ये सब शोध की बातें हैं. सीधा-सादा इतिहास यह है कि कालिदास सीलोन गए. वहां वेश्या के घर रुके. वहां उन्होंने पुरस्कार पाने के लालच में एक समस्यापूर्ति की. तब उस वेश्या ने उन्हें मार डाला और उनकी समस्यापूर्ति के श्लोक को ले कर राजा से काफी धन प्राप्त किया. बाद में उसने राजा से कालिदास को मार डालने की बात भी मान ली. इस पर राजा ने वेश्या को माफ कर दिया. स्वयं वे कालिदास के साथ चिता पर जल मरे.


इस घटना से सिंहल देश की तत्कालीन न्याय-पद्धति पर भी प्रकाश पड़ता है. वहां यदि अपराधी अपराध स्वीकार कर लेता तो वह छोड़ दिया जाता था. जिसके सामने अपराध स्वीकार किया जाता वह दंड का भागी होता था. शायद इसीलिए अपराधी तब सही-सही बात बता भी देते थे. इस पद्धति का प्रभाव भर्तृहरि-काल में अपने देश में भी था. इसीलिए उन्होंने अपनी रानी को दूसरे पुरुष में आसक्त पा कर उसे कोई दंड नहीं दिया. खुद अपने को देश-निकाला दे दिया.


ये सब विषयांतर की बातें हैं, जो केवल वैधानिक इतिहास में आनी चाहिए. हमारे जानने योग्य तो यही बात है कि कालिदास वेश्या के घर में मारे गए. यदि उनके घर की तलाशी ली गई होती तो शायद बहुत-सा कालिदास-रचित भारतीय साहित्य, जो अब सिंहल देश की राष्ट्रीय-निधि है, हमारे साथ लग जाता. पर उस समय अपने देश का कोई हाई कमिश्नर वहां नहीं रहता था. इसी से यह नहीं हो पाया. वास्तव में, जिस प्रकार हमारे बहुत से वेद जर्मनी में पड़े हैं, इतिहास-ग्रंथ इंग्लैंड में है, वैसे ही बहुत-सा काव्य-साहित्य सिंहल देश में है.


कालिदास का इतिहास मैंने जिस सफाई से बखाना है उससे आप यह न समझें कि उसमें मतभेद नहीं है. इतिहास का संबंध सच्ची घटनाओं से है. इसलिए एक-एक घटना पर सौ-सौ मतभेद होते ही हैं. कालिदास के विषयों में भी मतभेद है. पर मैंने लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर इसे रचा है. इसे लगभग नब्बे प्रतिशत जनता मानती है. इसलिए विद्वानों को इसे सच्चा इतिहास मानना ही पड़ेगा. यही प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत है. इसे सच्चा इतिहास मान कर कालिदास के जीवन से कई शिक्षाएं लेनी चाहिए. कुछ निम्नलिखित हैं:-


1- यदि कोई जन्म से मूर्ख है तो उसे घबराने की जरूरत नहीं; अच्छा विवाह संबंध हो जाने पर, राज-सम्मान मिल जाने पर या देव के प्रसाद से मूर्ख होने पर भी आदमी अच्छा कवि माना जा सकता है, और यशस्वी हो सकता है. ऐसे यशस्वियों की कभी कमी नहीं रही.


2- समस्या-पूर्ति कर के काफी पैसा पैदा किया जा सकता है, पर पुरस्कार के लिए ही कविता लिखना या समस्या-पूर्ति करना कभी-कभी कुठावँ में मरवाता है.


3- वेश्याओं के यहां कभी न जाएं. जाना ही हो तो उनके यहां जा कर कविता न लिखें. लिखें भी तो उसे कभी सुनाएं ही नहीं. सुना भी दें तो उस पर मिलने वाले पुरस्कार की चर्चा न करें.


4- बिना विवाह किए कविता न लिखें; लिखें भी तो उपयोगितावादी काव्य की साधना करें, ‘नव विहान आया’, ‘कट गई रात जड़ता की, घर-घर हुआ साक्षरता प्रचार’ जैसे विषयों पर.


हो सकता है कि कुछ विद्वान कालिदास के इतिहास से सहमत न हों. शायद वे यह सिद्ध करना चाहें कि कालिदास एक उत्तम, धनी कुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पिता भी कवि थे, उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना जामाता बना लिया था, वे सदाचारी थे, अपनी सदाशया पत्नी को छोड़ कर किसी और स्त्री के, नूपुर के अलावा, कोई और आभूषण तक न पहचानते थे, उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था, नब्बे वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘हरि: ओम् तत्सत्’ कह कर शरीर छोड़ा, आदि-आदि. जो यह सिद्ध कर ले जाएंगे कि कालिदास के विषय में मेरी धारणाएं असत्य हैं. पर इससे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा, क्योंकि उस दशा में भी कालिदास एक आदर्श कवि बने रहेंगे. साथ ही मेरा बड़ा भारी लाभ होगा. अपनी स्थापनाओं के खंडित हो जाने और उनके मिथ्या प्रमाणित होने पर भी मैं अमर हो जाऊंगा, क्योंकि बहुत-से इतिहासकार आज भी इन्हीं कारणों से अमर माने जाते हैं.


श्रीलाल शुक्ल


( 'राग दरबारी' और 'विश्रामपुर का संत' जैसी कालजयी रचनाएं लिखने वाले श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ के अतरौली गांव में हुआ था. श्रीलाल शुक्ल को हिंदी साहित्य में विशेष योगदान के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्‍कार’, ‘व्यास सम्मान’, ‘पद्मभूषण सम्मान’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, मध्य प्रदेश शासन का ‘शरद जोशी सम्मान’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया.) 


Saturday, October 28, 2023

यात्रीक जीवन-यात्रा


तारानंद वियोगी


तरौनी गामक पलिवार समौल मूलक ओ मिश्र-परिवार, जाहि मे यात्रीक जन्म भेल छलनि, मश्यकाल मे महामहोपाध्याय नैयायिक लोकनिक वंशक रूप मे प्रसिद्ध छल। पूर्वज लोकनिक लिखित ग्रन्थ तं कोनो नहि भेटैत छल मुदा भौतिक संपत्ति खूब छल। सात पुस्त पहिने हुनकर कोनो पूर्वज कें हिमालयक एक सिद्ध महात्मा नारायणी नदीक उद्गम-स्थल सं बहराओल शालिग्राम देने छलनि, जकरा लेल बेतिया महाराज सोनाक सिंहासन बनबा देने रहनि। ई सब बात मुदा आब कथा-किंबन्तिये टा मे बचि गेल छल। यात्रीक पिता कें हिस्सा मे पड़ल रहनि बीस बीघा जमीन, मुदा अपन भोगीन्द्र स्वभावक कारण ओ तकरो बेचि-बिकनि क' खा गेल छला। यात्री धरि पहुंचल रहनि मात्र तीन कट्ठा।

            हुनकर जन्म जेठ पूर्णिमा, 1911 कें मातृक सतलखा मे भेल रहनि। ओहि दिन एगारह जून छलैक, मुदा यात्री अपन जन्मदिन एगारह जून कें नहि, जेठ पूर्णिमा कें मनबैत रहला। यात्रीक पिता गोकुल मिश्र हद दरजाक लापरवाह, क्रूर, मनबढ़ू किसिमक लोक छला। माय उमा देवी पैघ घरक बेटी छली मुदा एहि परिवार मे आबि क' कष्टपूर्ण जीवन बितौलनि। ओ अधिकतर बीमार रहथि। पैंतीस-सैंतीसक आयु धरि ओ छव टा संतान कें जन्म देलखिन, पांच मरि गेल, एकमात्र जे जीवित रहल से यात्रिये छला। इहो मरि नहि जाथि तें हुनकर अधलाह नाम ठक्कन राखल गेल। पिताक विश्वास छलनि जे देवघरक महादेवक प्रसादें हुनका पुत्र भेलनि अछि, तें हुनकर नाम वैद्यनाथ राखल गेल। बीमार माय कें दूध नहि उतरनि तें एहि बालकक पोषण खबासिन जनकमणिक दूध पीबि क' भेल। ठक्कन चारि बर्खक रहथि, तखनहि माय मरि गेली। पिता कें घर-परिवार सं कोनो मतलब नहि। ठक्कनक नाना गिरिधारी झा ई प्रयासो केलनि जे गोकुल हुनके परिवार मे दोसर विवाह क' लेथि मुदा विलासी आ स्वच्छन्द गोकुल कें से नहि रुचलनि आ ओ ससुर सं झगड़ा क' ओहि अनाथ बालक कें जबरदस्ती तरौनी ल' अनलनि। ठक्कनक जीवन पहाड़ छल। पुरखेक जबाना मे खबास लोकनि, जकर कथा 'बलचनमा' मे आयल अछि, डीह पर बसाओल गेल रहथि। हुनके लोकनिक सामूहिक आश्रय मे जिबैत ठक्कन अपन नेनपन गुजारलनि। साहित्यकारक रूप मे यात्री कें हमरा लोकनि आम जनक लेल सौंसे जीवन मनसा वाचा कर्मणा समर्पित देखैत छिऐक, से सकारण छल। स्वयं हुनकर जीवन आम जनेक अवदान छल।

            मिथिलाक बारे मे यात्री अपन एक कविता मे लिखलनि अछि, हजारो विद्यापति-मंडन-उदयन एतय बागमतीक कछेर मे माल चरबैत, गोइठा बिछैत जीवन बिता दैत अछि। मुदा एतय भवितव्य किछु आर छल। 1910-20क जबाना मे मिथिला मे अंग्रेजी ढंगक स्कूलक प्रसार बहुत कम छल। ओते पैघ तरौनी गाम मे केवल एकटा लोअर प्राइमरी स्कूल रहैक, जखन कि संस्कृत पाठशाला दू-दू टा। ओ पिता सं ने सिलेट मंगलनि ने पेंसिल, लोअर स्कूल जाय लगला आ लगले शिक्षक रामचंचल झाक प्रियपात्र बनि गेला। पिता घोर विरोध केलखिन जे प्रात:स्मरणीय उपाध्याय लोकनिक वंशधर जं अंग्रेजी पढ़त तं धरती उनटि जायत। जबरन ओतय सं हुनकर नाम कटबाओल गेल आ एकटा फाटल-पुरान अमरकोश कतहु सं मांगि क' आनि देलनि आ वैद्यनाथक विधिवत शिक्षा आरंभ भ' गेल। छोटकी पाठशालाक गुरु सोनेलाल झा अपने दलान पर पढ़बैत छला, मुदा ओहि ठामक जे बाल-संगति, प्राकृतिक परिवेश, पिताक आतंक सं पलखति छल, वैद्यनाथक मोन रमि गेलनि। 1925 मे तरौनी पाठशाला सं नौ टा छात्र प्रथमाक बोर्ड परीक्षा मे सम्मिलित भेल छल। आठ टा फेल क' गेल। एकमात्र जे छात्र पास भेल छल, से वैद्यनाथ छला। सौंसे इलाका मे हुनकर नाम भ' गेल।

            1925 मे दोसर घटना सेहो भेल जकर बहुत महत्व अछि। तरौनीक पं. अनिरुद्ध मिश्र सुलतानगंजक संस्कृत पाठशाला मे अध्यापक रहथि। ओहि साल जखन गरमी-छुट्टी मे गाम एला तं एहि बालकक यश सुनलनि। बजबा क' भेंट केलनि तं अत्यन्त प्रभावित भेला आ हुनका कविता बनायब सिखा देलखिन। ओहि दिन मे काव्यलेखनक आरंभ समस्यापूर्ति सं होइत छल, जकर भाषा संस्कृत होइक। पहिल समस्या जे अनूकाका देने रहनि, से यात्री कें स्मरणे रहनि-- बालानां रोदनम् बलम्। प्रतिभा एहन जे पन्द्रहे दिन मे तीन छंद अनुष्टुप, वसंततिलका आ उपजाति पर हुनकर अधिकार भ' गेलनि।

            गोनौली गामक ग्रामीण लोकनि 1920 मे भवानी भवन पाठशालाक स्थापना ग्रामीण सहयोग सं कयने रहथि आ इलाका भरिक तेज-तर्रार छात्र कें खास तौर पर आमंत्रित कय, कोनहु ग्रामीण गृहस्थक परिवार मे आवासन करा नि:शुल्क शिक्षा दैत छला। 1926 मे वैद्यनाथ एतय आबि गेला। जाहि परिवार मे हुनकर आवासनक व्यवस्था भेल, ओ रघुनाथ झाक परिवार छल। स्त्री आ एकमात्र पुत्री, जकर नाम इन्दुकला छल, अपन पुत्रहीनताक समाधान जेना ओ वैद्यनाथ कें अपना क' पाबि गेल रहथि। वैद्यनाथोक जीवन मे ई पहिल अवसर छल जखन ओ पारिवारिक नेह-छोहक अनुभव क' सकलाह। यात्रीक उपन्यास 'पारो' मे रघुनाथ झाक पुत्री एही इन्दुकलाक कथा आयल छैक। उपन्यासक कथाक आधार पर इहो अनुमान  हमसब क' सकैत छी जे एते व्यस्थित आश्रयक बादो गोनौली हुनका बिच्चे मे किए छोड़बा लेल बाध्य होअय पड़ल हेतनि। अन्तत: पंचगछिया जा क' ओ मध्यमा तृतीय वर्षक पढ़ाइ पूरा केलनि आ उत्तीर्ण भेला।

            एहि बीचक अवधि मे ओ अनेक मास धरि महिषी मे रहला जतय हुनकर जेठ पित्ती परमानंद मिश्र रहैत छला। पितामह छत्रमणि मिश्रक विवाह महिषी। मातृकक संपत्ति पर हिनके लोकनिक अधिकार भेल छलनि। अपन एक कविता 'कोचिंग इन्सटीच्यूट' मे यात्री लिखने छथि जे महिषी मे रहैत ओ सिद्धान्तकौमुदी, रघुवंश, कुमारसंभव, दशकुमारचरित पर अधिकार क' लेने छला। 

            पंचगछिया मे जाहि गृहस्थक घर हुनका आवासन भेटल रहनि, ओ ग्रामीण ज्योतिषी बाबूजी झा छला, जिनकर बालक तारिणीश तहिया प्रथमाक छात्र रहथि। अपन संस्मरण मे तारिणीश झा वैद्यनाथक शालीन व्यवहार, अपूर्व प्रतिभा, विलक्षण काव्यसामर्थ्यक विवरण देने छथि। लिखलनि अछि, संस्कृत आ मैथिली मे तहिया धरि ओ सैकड़ो कविता लिखि गेल रहथि। सौ सं ऊपर तं केवल सम्स्यापूर्ति लिखलनि। ई सब वस्तु आब कतहु नहि भेटैत अछि। हुनकर पहिल प्रकाशित कविता 1929क अछि जे ओ मिथिलामोद-संपादक म.म. मुरलीधर झाक निधन पर लिखने छला।

            मध्यमा पास केलाक बाद ओ सब सं पहिने मातृक सतलखा गेला, जतय सं सब प्रकारक सम्बन्ध पिता तोड़ि चुकल छला। हुनकर पितृकुल आ मातृकुल मिला क' सब सं यशस्वी व्यक्तित्व हुनकर नाना गिरिधारी झाक रहनि जिनकर प्रभूत प्रभाव वैद्यनाथ पर पड़ल छलनि। अगिला बाट सब एतहि सं खुललनि। नानी अद्भुत प्रेममयी स्त्री छली जे ठक्कन कें पाबि क' मानू अपन स्वर्गीया पुत्री उमा कें पाबि गेली। एक मामा काशी रहैत छलनि, दोसर कलकत्ता। पहिने तं वैद्यनाथ कें दरभंगाक महराजी पाठशाला पठाओल गेलनि। मैथिलीक वरिष्ठ आ समतुरिया कवि लोकनिक संग संपर्क तहिये भेलनि। बाद मे ओ काशी गेला जतय गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज सं 1932 मे शास्त्री पास केलनि। 

            यात्रीक व्यक्तित्व-निर्माण मे काशीक एहि तीन वर्षक बहुत महत्व अछि। बासा रहनि रानीकोठा मे, जे कि ओहि दिनक मैथिली गतिविधिक प्रधान केन्द्र छल। ओकरे एक कोठली मे कविवर सीताराम झा रहैत छला, एक मे म.म. मुकुन्द झा बक्शी, एक मे त्रिलोचन झा, बेतिया। तारामंदिरक सत्र मे भोजन करथि। यात्रीक आद्यमित्र सुरेन्द्र झा सुमन एक बेर काशी-यात्रा पर गेल रहथि, तकर विवरण अपन आत्मकथा मे देने छथि जाहि सं ओहि समयक अनेक तथ्य पर प्रकाश पड़ैत अछि। ओतय ओहि भोजनोक प्रशंसा अछि। त्रिलोचन झाक नेतृत्व मे एक हस्तलिखित पत्रिका 'भारती' प्रकाशित होइत छला जकर संपादक वैद्यनाथ रहथि। एहने एक आर पत्रिकाक नाम सुमनजी 'वैदेही' सेहो देलनि अछि। लिखलनि अछि, अनेक अंक बहरायल छल से देखि प्रसन्नता भेलनि, आगू एक विशेषांक प्रेस सं मुद्रित भ' क' छपबाक छल, ताहि लेल ओहो अपन रचना देने रहथि।

            ओही समय मे काञ्चीनाथ झा किरण आयुर्वेद पढ़बाक लेल काशी पहुंचल रहथि। ओ समय छल जखन मोद सेहो बन्द भ' चुकल रहैक। काशी एक बहुलसांस्कृतिक परिवेशक जगह रहय। एतय हिन्दी-उर्दूक तं अपन साहित्यसभा रहबे करय, बंगला, मराठी आ गुजराती, कन्नड़ आ मलयालम धरि के रहय। मुदा, मैथिलीक ने कोनो साहित्यसभा छल ने मैथिलक कोनो व्यापक परिचिति। जे महाविद्वान लोकनि ओतय रहथि हुनका लोकनिक यश हुनकर हुनकर पांडित्यक कारण छलनि, मैथिलत्वक कारण नहि। तें एहि सं किनसाइते मैथिलीक कोनो उपकार भ' सकैत हो। त्रिलोचन झा बहुत पहिने सं एहि दिशा मे किछु करय चाहैत छला, एतय धरि जे 'भारती निकेतन प्रस्ताव' ओ तैयार कयने छला जे कि समुचित समर्थनक अभाव मे अस्वीकृत भ' चुकल रहैक। रानीकोठा मे जे एखन नवतुरिया लोकनि रहैत रहथि जाहि मे मुख्य वैद्यनाथ रहथि, किछु नव करबाक ताक मे रहथि। हिनका लोकनिक अयला सं त्रिलोचन झा कें सेहो बल भेटल रहनि। 'भारती निकेतन' नाम सं आब एक संस्था बनल छल। यैह 'भारती'क प्रकाशक छल।

            ई युवक लोकनि के सब छला तकर विवरण किरण जीक एक लेख मे आयल अछि। एक बेरुका बैसार मे जे ई लोकनि अपन उपनाम धारण कयने छला-- कुलानंद मिश्र केसरी, देवचन्द्र झा चन्दिर, वामदेव मिश्र विमल, काञ्चीनाथ झा किरण, वैद्यनाथ मिश्र वैदेह। श्यामानंद झा एहि दुआरे उपनाम-धारण सं इनकार केलनि जे एहि सं हिन्दीक छायावादी कवि सभक नकलक भान होइत छैक।

            रानीकोठा असल मे रानी लक्ष्मीवती छात्रावास छल, जकर स्थापना रानी लक्ष्मीवती(स्वर्गीय महाराज लक्ष्मीश्वर सिंहक पत्नी) करबौने छली। ओ अपनहु ओहि समय मे काशिये मे रहैत छली। 'बालवर्द्धिनी सभा' नामक एक आयोजन सेहो हुनके व्यय पर होइत छलै, जाहि मे प्रतिभाशाली मैथिल युवक कें नगद पारितोषिक देल जाइक। अनेको बेर महारानीक अनुदान हुनका भेटलनि, आनोआन काव्य वा वक्तृताक प्रतियोगिता मे विजयी भेने नगद पुरस्कार भेटनि। ओही सब सं परदेस मे सहजतापूर्वक आगू बढ़ब संभव भ' सकलनि।

            नीक सं नीक तरहें कविता लिखबा मे आ नव नव भाषा सिखबा मे हुनका बेस रुचि आ गति रहनि। कविवर सीताराम झा निर्णायक रूप सं हुनकर काव्यलेखन कें दिशा देलखिन। ज्योतिषाचार्य बलदेव मिश्र बालवर्द्धिनी सभाक संयोजक रहथि, जे वैद्यनाथक प्रतिभा सं बेस प्रभावित भेला। हुनका मार्गदर्शन मे ओ प्राकृत, पालि आ अपभ्रंश नीक जकां सीखि लेलनि। जाहि संस्कृत कालेजक ओ छात्र रहथि तकर प्राचार्य ओहि समय मे प्रख्यात तंत्रविद् गोपीनाथ कविराज रहथिन, मुदा वैद्यनाथक रुचि संस्कृतक ओहि अपर धारा मे रहनि जाहि मे लोकपक्षक विलक्षण अभिव्यक्त भेल छैक। तें हुनकर सर्वाधिक प्रिय अध्यापक मधुसूदन शास्त्री छलखिन जिनका प्रति सब दिन ओ श्रद्धाशील बनल रहला। 

            आइ सौंसे संसार मे विद्यापति-पर्व मैथिलत्वक पहचान बनि क' प्रसिद्ध अछि। मुदा एकर आविष्कार कोना भेल छल, तकर कथा किरण जी अपन एक लेख मे लिखने छथि। 1931क कातिक शुक्ल एकादशी दिनक घटना थिक जे रानीकोठाक एक विद्यार्थी हुनकर भेंट करय अयला आ हुनका एकटा पुरजा देलखिन। एक-डेढ़ इंचीक ओहि पुरजा पर एतबे लिखल-- 'कातिक धवल त्रयोदशि जान/ विद्यापतिक आयु अवसान/ विद्यापति-पर्व मनायब?' के लिखलक, ककरा आ कतय सं, कहिया लिखलक, ओहि पर किछु अंकित नहि। लिखावट वैदेह जीक रहनि, से किरण जी चीन्हि गेला आ एहि सूझ पर चकित रहि गेला। समुच्चा भविष्य जेना एक क्षण मे हुनका आगू मूर्त भ' उठलनि आ लगलनि जेना एही चीजक खोज मे ओ लोकनि एते समय सं भटकि रहल छला। किरण जी लिखलनि अछि, 'मिहिर मे हम लिखि चुकल छी जे विद्यापति-पर्व मनेबाक सूझ वैदेह जी देने छला। मन मे दृढ़ धारणा बनि गेल जे देखबा मे नेनमूंह, चेहरे-मोहरे लटपटाह रहितहु ओ भितरका बिन्हा बुधियार छथि, आगू बढ़बाक बुद्धि नीक छनि।' हुनका लोकनि कें तैयारी लेल एके दिनका समय भेटल रहनि मुदा कार्यक्रम तेहन गंभीर आ गरिमापूर्ण भेल जे काशी मे मैथिलक पहचान बदलि देलक। एकरे अगिला चरण हिन्दू विश्वविद्यालय मे मैथिलीक प्रवेश छल।

             ओ समय राष्ट्रीय चेतनाक प्रसारक समयक छल। वैद्यनाथ काशीक माहौल मे रहैत एहि चेतना सं अवगत भेला आ युगधर्मक अंगीकारक पथ पकड़लनि जे कि आम मैथिल पंडित मे सुलभ नहि छल। महान लेखक प्रेमचंद आ जयशंकर प्रसादक ओतय हुनकर आयब-जायब छल। बीच चौराहा परक वाचनालय मे बैसि क' क' ओ प्रतिदिन 'आज' दैनिकक पारायण करथि, जे कि एक उग्र राष्ट्रीय विचारधाराक स्वतंत्रता-संघर्षक समर्थक अखबार छल। एम्हर पंडित लोकनिक स्थिति छलनि जे 'आज' पढ़निहार युवा कें ओ लोकनि पांज सं बाहर गेल बूझथि आ तें कुपित रहल करथि। कारण स्पष्ट छल। पंडित लोकनि महाराजक अनुगामी रहथि आ महाराज अंग्रेजक पिट्ठू।

             रानीकोठाक दूटा संस्मरणक उल्लेख एतय आवश्यक जाहि सं वैद्यनाथक मनोनिर्माण कें बूझल जा सकैत अछि। ग्रहण-स्नान वा कोनो विशिष्ट पर्वक अवसर पर जखन मिथिलाक तीर्थयात्री भारी संख्या मे काशी पहुंचथि तं रानीकोठाक निचला तल्ला कें धर्मशाला बना देल जाइत छल। एहने एक अवसर बितलाक बाद निचला तल्लाक कोनो कोठली सं सड़ल मुरदाक दुर्गन्ध आयब शुरू भेल। परेशान तं सब रहथि मुदा देखबाक किनको चेष्टा नहि। वैद्यनाथ देख' गेला तं पौलनि, एक बूढ़ीक लहास थिक जे सड़ि चुकल छैक। ओ अंत्येष्टिक योजना बनौलनि मुदा संग देनिहार क्यो नहि। स्थानीय एक मित्रक मदति सं अपन चद्दरि मे लहास कें बान्हि, मणिकर्णिका जाय संस्कार क' अयला। मुखाग्नि देलखिन आ घुरती बेर अपन चद्दरि सेहो गंगा मे धो क' लेने एला। पंडित लोकनि हुनकर बहुत विरोध केलखिन। बाद मे पता लागल, ओ बूढ़ी उदयनाचार्य-कुलक वधू रहथि। हुनकर बेटा जखन एलखिन आ सब बात पता लगलनि, भरि पांज पकड़ि क' कनला--अहां हमर माय कें मुखाग्नि देलियनि, अहां हमर सहोदर छी, सहोदर सं बढ़ि क' छी।

             दोसर घटना काशी सं बिनु एक पाइ संग मे रखने पैदल प्रयाग जेबाक प्रसंग थिक। तीन गोटे चलल छला, दू घुरि गेला मुदा कठिन परिस्थितिक सामना करैत वैद्यनाथ प्रयाग पहुंचिये क' निचैन भेल रहथि। एहि सभक विपरीतो प्रभाव होइत छल जे पंडित लोकनि कुपित रहल करथिन। गोकुल बाबू धरि समाद चलि गेलनि जे बेटा एतय रजनी-सजनी मे लागि गेल अछि मुदा, वैद्यनाथ अपन पथ पर अडिग छला। कतेको आचार्य जखन हुनका आरोपित करनि तं कहथिन-- 'गुरुजी, अपने देखि लेबै। अपनेक व्याकरण पोथिये मे समेटल रहि जायत मुदा हमर काव्य लोकक हृदय धरि पहुंचत, लोक अपन सुख-दुख एहि पांती सब मे पौताह।' पंडित लोकनिक असहयोगक कारण जं कहियो आर्थिक संकट मे पड़थि तं भवानीगलीक एक मोड़ पर जा पुराण-महाभारत-जातकक कथावाचन क' अर्थोपार्जन क' लेल करथि।

             1932 मे शास्त्रीक परीक्षा द' क' देस घुरला तं हुनकर विवाह भेल रहनि। हरिपुर गामक कृष्णकान्त झा उर्फ कंटीर बाबू एक संपन्न गृहस्थ रहथि आ एहि दरिद्र परिवार मे एही लेल अपन कन्या, जिनकर नाम 'दाइ' अथवा 'छोटकी दाइ' रहनि, के विवाह केलनि जे वर काशी मे पढ़ैत छथि आ होनहार छथि। वैद्यनाथ जखन केवल आठ वर्षक रहथि तखनहि गोकुल बाबू हुनकर विवाह तय क' लेने छला, तकर बादो हुनकर प्रयास जारी रहलनि, बड़ मुश्किल सं वैद्यनाथ एखन धरि बचैत आयल रहथि। आब तं ओ निराश भ' गेल रहथि जे हुनक पुत्रक विवाह हो से ईश्वर कें मंजूर नहि छनि। एही कारणें दहेज लेबाक तं कोन कथा जे उनटे ओ कन्यागत कें टाका गनि आयल रहथि। यात्री एकरा 'आदिपर्वे मे महाभारतक अशुद्ध भ' जायब' कहैत छला। 

             विवाहक बाद थोड़बा दिन गाम रहि ओ कलकत्ता चलि गेला। जेबाक उद्देश्य कमायब छल। मुदा ने तं हुनका पंडिताइ के पेशा पसंद एलनि ने ट्यूशनक। ओ कलकत्ता विश्वविद्यालयक विख्यात संस्कृत कालेज मे, काव्यतीर्थ मे एडमिशन करौलनि। केवल तीन छात्र कें पन्द्रह टाका मासिक छात्रवृत्ति भेटैत छलनि, ताहि मे एक इहो छला, सेहो हिनकर संस्कृत काव्य-क्षमतेक उपलब्धि छल। कलकत्ता हुनका मिथिलाक एक विशाल संस्करण सन प्रतीत होइन, जतय मिथिला सन के संकीर्णतो नहि छलैक आ महानगरीय परिवेशक कारणें क्षुद्रतो सभक परिष्कार भ' गेल रहैक। कलकत्ता मे लाखो मैथिल रहैत रहथि मुदा काशिये जकां ने कोनो साहित्यसभा सक्रिय छल ने कोनो संस्था। ताधरि किरण जी सेहो टी सी ल' क' कलकत्ता आबि गेला। ई दुनू गोटे कठिन परिश्रम क' क' मैथिल लोकनिक संगोर केलनि आ ओतहुक जे सब सं प्राचीन संस्था रहैक 'शिक्षित मैथिल संघ' तकरा पुनर्जीवित केलनि। विद्यापति-पर्व ओतहु धूमधाम सं होअय लगलैक। मैथिल महासभाक संकीर्ण दृष्टिकोणक कारण मैथित्व पर ओहि समय मे भारी संकट रहैक, मुदा ई लोकनि अपन संस्थाक संविधान मे 'मैथिल' कें एहि रूपें परिभाषित केलनि-- 'मिथिलाक मूलनिवासी, मैथिली बाजनिहार समस्त जाति, धर्म अ संप्रदायक लोक मैथिल मानल जेताह।'

             1934 मे जखन काव्यतीर्थक परीक्षा द' क' वैद्यनाथ गाम घुरल रहथि तं हुनकर द्विरागमन भेल रहनि। गोकुल बाबू आ कंटीर बाबूक बीचक सम्बन्ध कटु भ' गेल रहनि। विवाहक बाद जे कोजागराक भारी-भरकम भार तरौनी पठाओल गेल रहैक तकरा ओ समाज मे बांटबाक बदला बेचि लेने रहथि, से सूचना हरिपुर आयल आ ताही सं कटुताक आरंभ भेल रहैक। तरौनीक एहि डीह पर एक ढहल-ढनमनायल ढांचा मात्र ढाढ़ छल जाहि मे जंगली जानवर सभक बसेरा रहैक। घरहटक लेल खढ-बांस समेत हरिपुर सं आयल छल। कैक युगक बाद एहि कनियां, जिनकर नाम यात्री अपराजिता रखलनि, के अयलाक बाद एहि डीह पर डिबिया जरल, चूल्हि पजरल छल। थोड़बा दिन गाम रहि यात्री तं अगिला यात्रा पर बहरा गेला, एम्हर अपराजिता कें जल्दिये ई भान भ' गेलनि जे एहि ससुरक जिबैत सासुर-वास हुनका बुतें संभव नहि अछि। ओ नैहर घुरि गेली आ 1943 मे गोकुल बाबूक निधनक बादे स्थायी रूप सं तरौनी आबि रहली।

             1943 मे जखन गोकुल बाबूक निधन काशीक गंगाघाट पर भ' रहल छलनि, तखन यात्री सुदूर हिमालयक अधित्यका सब कें राहुल सांकृत्यायनक संगें पांव-पैदल पार करैत तिब्बत के थोलिङ् महाविहार मे बौद्धसाहित्यक गंभीर अध्ययन मे लागल छला। एते पैघ परिवर्तन कोना भेलैक, से कथा जतबे रोचक अछि ततबे प्रेरक।

             1934 मे जखन पुन: कलकत्ता अयलाक बाद वैद्यनाथ जे रोजगार तकलनि, सेहो अद्भुत छल। मूल विद्या जे हुनक छलनि से नहि, अपर विद्या जे ओ सौख सं सिखने छला प्राकृत-अपभंश, ई तकर प्रसाद छल। ओ सहारनपुर चलि गेला। ओतय किछु दिन भूतेश्वरक ब्रहाचर्याश्रम मे संस्कृत व्याकरण सेहो पढ़ौलनि। ओतय सं पटियाला होइत ओ लाहौर पहुंचला जे ओहि दिन मे साहित्य आ संस्कृतिक राजधानी छल। कलकत्ता मे छला तखनहि ओ एक लेख 'मृत्युंजयकवि तुलसीदास' लिखने छला जे 'दीपक' के जनवरी 1934 के अंक मे छपल छल। एकर संपादक छला स्वामी केशवानंद, एक आर्यसमाजी साधू जे छला तं भारी जमींदारी बला महंथ, मुदा हिन्दी-सेवा लेल अपन सर्वस्व न्योछावर क' देने छला। 300 सं बेसी स्कूल, 150 सं बेसी पुस्तकालय आ 50 सं बेसी छात्रावासक स्थापना ओ करबा चुकल छला। 'दीपक' मे छपल वैद्यनाथक लेख सं ओ बड़ प्रभावित भेल छला। जखन लाहौर मे दुनू गोटेक भेंट भेलनि, वैद्यनाथो हुनका सं तहिना प्रभावित भेला। स्वामी जी हुनका सं आग्रह केलखिन आ ओ 'दीपक'क संपादक बनब गछि लेलनि। हुनकर स्वभाव रहनि, कतहु जमथि तं अनंत कालक लेल नहि, करार क' लेथि जे कते दिन रहता। दू वर्षक करार भेलनि।

             यात्रीक जीवननिर्माण कें जे गुरुजन तात्विक रूप सं प्रभावित कयने रहथिन ताहि मे ई स्वामी जी प्रथमस्थानीय छला। दोसर छला विद्यालंकार परिवेणक कुलपति नायकपाद धम्मानंद, आ तेसर छला स्वामी सहजानंद। अपन नाम सं ई तीनू साधु-संत सन प्रतीत होइत छथि मुदा वास्तविक रूप सं निचच्छ संत एक्को नहि छला। सहजानंद तं तेहन क्रान्तिकारी रहथि जे भूमिगत किसान-आन्दोलन (माओवादी-नक्सलवादी) के ओ आदिम पुरखा मानल जाइत छथि। तहिना केशवानंद। भारत-विभाजनक समय जे फाजिल्का-अबोहर के इलाका पाकिस्तान कें नहि भेटलैक, भारत मे बनल रहलैक, तकर कारण छल ओहि इलाका मे जबरदस्त हिन्दी-प्रचार, आ एकर जनक केशवानंद रहथि। केशवानंद संगे वैद्यनाथक तेहन एकात्म रहनि जे सौंसे हिन्दी-जगत एहि बात सं निश्चिन्त रहय जे केशवानंदक ओ उत्तराधिकारी हेता आ हुनकर काज कें आगू बढ़ेथिन। वैद्यनाथक एखन धरिक‌ जीवनक ई सब सं सुखी कालखंड छल, जतय सब सुविधा तं रहबे करनि गाम पठेबा लेल जखन जते चाही, राशि सेहो उपलब्ध रहनि। मुदा, तस्यां जागर्ति संयमी। अपन जीवन मे एतेक निरंतर अध्ययन ओ कहियो नहि कयने छला जते अबोहर मे रहैत कयलनि। पहिने हुनकर पाठ्यविषय होइत छलनि प्राचीन साहित्य। एतय ओ देशी आ विदेशी भाषा सभक नवीन आ समकालीन साहित्य मे डूबल रहलाह। जहिना कि हुनका कोनो नव किताब छपबाक सूचना भेटनि, ओ स्वामी जी कें कहथिन। स्वामी जी दस-दस प्रति मंगवा लेथि, वैद्यनाथक अतिरिक्त आनो लोक सब कें देथिन, पुस्तकालयो मे राखथि।

             ओहि दिन मे राहुल सांकृत्यायन देशज बौद्धिकताक महाकाय व्यक्तित्वक रूप मे उभरि रहल छला। चारू दिस हुनकर चर्चा रहनि। एहि बीच मे ओ प्रामाणिक बौद्धग्रन्थ सभक अनुवादक काज मे लागल छला। हुनकर 'मज्मिमनिकाय' छपलाक तुरंत बाद जखन वैद्यनाथक हाथ अयलनि, यैह ओ पुस्तक छला जे हुनका आमूलचूल बदलि देलकनि। पुरान संस्कार झड़ि गेल छल। नव स्वप्न-सेहन्ता सं भरल-भरल रहथि, ई किताब पढ़लाक बाद हुनका स्पष्ट भ' गेलनि जे हुनकर स्वप्नक संसार जं कतहु अछि तं से बौद्धयुग मे। राहुलक योग्यता सभक ओ पता लगेलनि तं यैह स्पष्ट भेलनि जे जतबा विद्या हुनका अबै छनि ओ सबटा तं हिनको अबै छनि। ओ जं कोनो विशेष काज क' सकै छथि तं से काज तं इहो क' सकैत छथि।

             मज्झिमनिकायक प्रकाशन महाबोधि सोसाइटी, सारनाथ सं भेल रहैक। ओ सोसाइटीक अधिकारी कें पत्र लिखलनि जे हम मूल भाषा मे प्रामाणिक बौद्धग्रन्थक अध्ययन करय चाहै छी। जवाब अयलनि जे ई काज अपना देश मे संभव नहि अछि, एहि लेल अहां कें लंका जाय पड़त। ओ लंका जेबाक अनुमति मंगलनि तं उतारा एलनि जे पहिने अहां सारनाथ आउ तखनहि सोचल जा सकैए। ओ साहित्य सदान, अबोहर आ 'दीपक'क काज सं मुक्त भ' क' लंका जेबाक निश्चय स्वामी जी कें सुना देलखिन। दू वर्षक करार पूरा हेबा पर छल। स्वामी जी तं मानू आकाश सं खसला, ओ तं निश्चिन्त छला जे वैद्यनाथ आब कतहु नहि जेताह। ओ रोकबाक बहुत प्रयास केलखिन, सब निरर्थक। विदा काल ओ बड़ कनलाह। कपड़ा, जूता, पर्याप्त पाइ द' क' विदा करैत कहलखिन जे एतय तोहर आसन सब दिन खाली रहतह, घुरिहह तं सीधा एतहि अबिहह। मुदा, यात्रीक शाश्वत यायावरीक ई स्वभाव छल जे जतय सं ओ एक बेर बढ़ि गेला, फेर घुरि क' ओही काजक लेल ओहिठाम नहि गेला।

             काशी अयला तं ओ समस्त गुरुजन, मित्रसमाज मौजूद छल, एतय धरि जे किरण जी फेर काशिये आबि क' चिकित्सकक काज करैत छला, मिथिलामोद सेहो फेर सं छप' लागल रहय, मुदा वैद्यनाथ ओहि सब दिस उनटियो क' नहि तकलनि। ओ अपन एक गैरसाहित्यक ग्रामीण मित्रक संग टिकला आ सारनाथ सं संपर्क साधैत रहला। महाबोधि बला लोकनिक शर्त आब बदलि गेल रहनि। हुनका सभक कहब रहनि जे अहां पहिने बौद्ध भ' जाउ तखने ओतय पठेबाक व्यवस्था क' सकै छी। वैद्यनाथ कें ई बात अनुचित लगलनि आ ओ अपना बल पर लंका पहुंचबाक निर्णय लेलनि। बल छलनि ओ तीन हजार टाका जे केशवानंद विदा होइत काल देने रहथिन, जखन कि ओ युग छल जखन एक टाक बीस सेर आटा वा चाउर भेटैत रहैक।

             हमरा लोकनि इहो देखैत छी जे 1936क एहि समय मे आबि क' वैद्यनाथक मोन घर-परिवार, गाम-घर सं वितृष्ण भ' गेल रहनि आ ओ एक विचित्र प्रकारक वैराग्य सं भरल रहथि। काशी मे एहि बेर अपन जाहि मित्र सुरेन्द्रक संगे ओ टिकल रहथि से पूरा कोशिश केलखिन जे ओ पहिने गाम जाथि, सासुर जाथि, मुदा वैद्यनाथ टस सं मस नहि भेलाह। जखन ओ बनारस मे मद्रासक ट्रेन पकड़तथि, ठीक तखने ओ 'अंतिम प्रणाम' कविता लिखने छला, आ एक लिफाफ मे बंद क' मोदक पता पर पठा देने रहथिन। ध्यान रखबाक थिक जे ताधरि ने ओ बौद्ध भेल छला ने समुद्र पार कयने रहथि। ओहि कविता मे जे अछि से बस मानसिक दशाक सूचक थिक, जे आगू अक्षरश: फलित भेलैक। किरण जी लिखने छथि, कतेको गरीब आ समस्याग्रस्त मैथिल हरेक साल घर सं भागि क' गुदरिया बनि जाइछ, ककर समाचार अखबार मे छपैत छैक? मुदा ओ तेहन मार्मिक कविता लिखने रहथि जे मिथिलाक सब वर्ग मे ओ राताराती प्रसिद्ध भ' गेला। हजारो लोक होयत जकरा ई कविता मुंहजवानी यादि रहैक। कविक लेल सभक हृदय मे आह उठैक। जाधरि मोद मे ई कविता छपल, ओ लंका पहुंचि गेल रहथि। यैह कविता छल जाहि मे ओ अपना नामक संग पहिल बेर 'यात्री' लगौने रहथि।



यात्रीक जीवन-यात्रा मे हमरा लोकनि देखैत छी जे हुनकर कोनहु लक्ष्य कहियो आसानी सं पूर्ण नहि भेलनि। मुदा, हुनकर संकल्पशक्ति तते दृढ़ आ प्रयास तते सघन, धैर्य तते एकनिष्ठ रहलनि जे अन्तत: सफलता हुनका भेटिते रहलनि। काशी सं मद्रास पहुंचला तं तीनू हजार टाका चोरि भ' गेलनि। वापस नहि घुरबाक निर्णय लैत आगू बढ़ला तं लंका पहुंचियो क' एक सनातनी महंथक मठ मे साल भरि बन्हकी लागल रहला। ओतय तेहन बीमार पड़ला जे जीवित रहबाक भरोसे नहि बचलनि। हुनकर मैथिली कविता 'मातृभूमि' आ हिन्दी कविता 'उनको प्रणाम' एही रोगावस्थाक चरम हताशा मे लिखल गेल छल। हिनक मृत्युक डरें डेरायल महंथ छोड़लकनि तं आगुओ अनेक बाधा अयलनि। अन्तत: काशी प्रसाद जायसवालक टेलीग्रामिक संस्तुति पर विद्यालंकार परिवेण मे जगह भेटलनि। कुलपति नायकपाद अद्भुत साधक रहथि जे अपन मनोलोक मे मानू बुद्धयुग मे जिबैत बुद्धक शिष्यरूप मे हुनका संग विहार करैत अवस्था मे सक्रिय रहथि। ओ यात्री सं खूब प्रभावित भेला। भिक्षुछात्र कें संस्कृत व्याकरण पढ़ेबाक काज भेटलनि आ बांकी समय स्वयं नायकपाद सं आ आन आचार्य लोकनि सं  बौद्धसाहित्य पढ़बाक लेल हुनका लग पूरा समय छलनि। 

             लंकाक समाज अपना ओतक समाज सं पूरे भिन्न छल। कबुला वा मनौती पर अपना ओतय चतुरतापूर्वक छागर-पाठी बलि देल जाइत अछि। ओतक प्रथा छल जे लोक अपन पुत्र भगवानक काज लेल समर्पित करैत छल। यैह बालक सब होइत छला भिक्षुछात्र, जकर परवरिश मठ के दायित्व होइक। तहिना, जातिधर्म-संप्रदायकक नियम ओतय सर्वथा अलग छल। कोनो गृहस्थ कें जं तीन कन्या हो तं एहनो संभव छल जे एक के विवाह हिन्दू मे दोसरक बौद्ध मे तं तेसर इस्लाम मे भ' सकैत छल। मुदा ओतय जे बन्धन सब सं अलंघ्य रहैक से ई जे एक भिक्षु भने ओ आयु वा विद्या मे कतबो अल्प होअय, एक गृहस्थक तुलना मे सदति उच्चतर आसनक अधिकारी होइत छल। एही कारणें यात्री जे अपन चटिया सब कें पढ़ाबथि, ओ सब बैसनि उच्चासन पर अपने नीच आसन पर बैसय पड़ैत छलनि। छात्र सभक प्रेम आ श्रद्धा हुनका प्रति ततेक छलनि जे स्वयं छात्रे सब कें ई अधलाह लागैक। दोसर, ओ सब हिनकर सेवा करय चाहैत छल, सेहो संभव नहि छलैक। 

             जे यात्री सारनाथ मे बौद्ध बनबा सं साफे इनकार कयने छला वैह कालान्तर मे कोना बौद्ध भ' गेला, तकर प्रसंग बहुत मार्मिक अछि। ओही बालभिक्षु छात्र लोकनिक स्नेह, श्रद्धा आ सेवाभावना हुनका रस्ता बदलबा लेल प्रेरित केलकनि। पहिने तं उपसंपदा भेलनि, पाछू प्रव्रज्या सेहो ग्रहण केलनि। ओही महान गुरु धम्मानंद सं ओ दीक्षा प्राप्त केलनि जिनका सं सात वर्ष पहिने राहुल सांकृत्यायन आ आनंद कौशल्यायन दीक्षित भेल रहथि। अपना लेल ओ अपनहि नाम चुनलनि-- नागार्जुन। मोन मे रहनि जे आचार्य नागार्जुन (150-250ई.)क जे ग्रन्थ सब अपूर्ण रहि गेलनि अछि तकरा पूरा करताह।

             लंकाक एही परिवेण मे रहैत ओ पहिल बेर वामपंथ सं परिचित भेल रहथि। वर्गचेतना, वर्गसंघर्ष आदि शब्द तखनहि हुनका धारणा मे शामिल भेलनि। नियम छल जे हरेक भिक्षु अध्यापकक संरक्षक(आवश्यकतानुसार सेवा हेतु) कोनो संपन्न गृहस्थ कें बनाओल जाइक। हिनक जे संरक्षक रहथिन से बैरिस्टर निशंक वामपंथी पार्टी 'लंका सम समाज'क सदस्य रहथि। हुनकर पैघ व्यक्तिगत पुस्तकालय। ताहि मे वामपंथी साहित्यक भरमार। मार्क्स-लेनिनक जीवनीक संग-संग हुनकर रचनावली कें सेहो ओ घांगि गेलाह।

             भारतक स्वतंत्रता-संघर्ष अपन निर्णायक दौर मे प्रवेश क' गेल छल। यात्रीक रोज अखबार पढ़बाक हिस्सक बहुत पहिनेक, पंचगछियेक जबानाक छलनि। एतय भारत सं दूटा अखबार अबैत छल, जकरा ओ अपने तं पढ़बे करथि हुनका जिम्मा इहो काज छलनि जे मुख्य समाचार आ संपादकीय अभिमत सं नायकपाद कें अवगत कराबथि। शास्ता भगवानक जन्मभूमिक स्वातंत्र्यचेष्टा मे नायकपादोक बेस रुचि रहैत छलनि। ओ देखलनि जे बिहार मे स्वामी सहजानंद एक नव तरहक संगठित संघर्ष क' रहल छथि। ई हुनकर ध्यान आकृष्ट केलकनि। अमृत बाजार पत्रिका मे सहजानंदक एक लेख पढ़ि तते प्रभावित भेला जे हुनका पत्र लिखलखिन। एवंप्रकारें हुनका सघन संपर्क मे अयलाह। एहने संपर्क हुनका सुभाषचन्द्र बोस संगे सेहो भेलनि। राहुल सांकृत्यायन आब हुनकर एक वरिष्ठ मित्र छलखिन।

             राहुल जीक तिब्बतयात्राक उपलब्धि सब कें देखैत बिहार सरकार जखन हुनका अगिला यात्रा लेल पचीस हजारक अनुदान स्वीकृत केलकनि तं राहुल जी अपेक्षाकृत कर्मठ युवा विद्वान सभक नव टीम गठित केलनि जाहि मे एक नाम नागार्जुनक सेहो रहनि। एम्हर सहजानंद स्वामीक पत्र आबनि जे 'राहुल तोरा बरबाद क' देतह। ओ मुइल मुरदा सभक खोज मे अपन ऊर्जा जियान क' रहल अछि, तों देशक जीवित मुरदा सभक सुधि लैह।' विचित्र धर्मसंकट मे पड़ल यात्री जखन नायकपाद सं अनुमति मांगय गेलाह तं राहुल जीक यात्रा मे शामिल हेबाक लेल अनुमति भेटलनि। तीन वर्षक समय पूरैये बला छल, मुदा नायकपादक कहब भेलनि--यात्रा सं घुरलाक बाद सीधे एत्तहि अबिहह। 

             देश घुरलाक बाद राहुल जीक टीमक संग भ' तिब्बत तं बहरेला जरूर मुदा बाट मे तेहन ज्वरग्रस्त भेला जे घुरि आबय पड़लनि। ओही घुरतीकाल मे ओ अपन प्रसिद्ध कविता 'बादल को घिरते देखा है' लिखने रहथि। स्वास्थ्य-लाभ क' क' स्वामी सहजानंदक सीताराम आश्रम, बिहटा पहुंचला, आ किसान सभाक एक क्रान्तिकारी भ' गेला। ओहि समय मे राजनीतिक कार्यकर्ता तैयार करबाक लेल ट्रेनिंग-कैम्प सब होइ। एक मास धरि चलल 'समर स्कूल आफ पालिटिक्स' (मई-जून 1938) सं हुनकर राजनीतिक जीवनक आरंभ भेल रहनि। तकरा बाद स्वामी जी हुनका किसान सभाक काज कें आगू बढ़ेबाक लेल चंपारण पठा देलकनि। चंपारण कें तहिया गांधी जीक 'बैनामा जिला' मने खरिदुआ जगह कहल जाइ। तात्पर्य जे ओहिठाम गांधी जीक विरुद्ध क्यो किछु नहि सुनि सकैत रहय, जखन कि सहजानंदक समुच्चा राजनीति गांधी जीक विरुद्ध रहय। गांधी जी जतय जमीन्दार सभक संरक्षक रहथि, ई लोकनि जमीन्दारी-उन्मूलन लेल, किसानक मुक्ति लेल लड़ैत छलाह। चंपारणक इलाका मे भगतसिंह आ चंद्रशेखर आजाद भूमिगत रहि क' क्रान्तक काज कयने रहथि। हुनका लोकनिक बनाओल एक पैघ टीम छल। भिक्षु नागार्जुन ओहि टीम कें अपना संग कयलनि। ओहि इलाका मे किसान आन्दोलनक काज करैत जे हुनका अनुभव भेल रहनि, तकरे कथा 'बलचनमा' मे आयल अछि। अहिना, धर्मक नाम पर अनाचार कें प्रश्रय देनिहार बुलहवा मठ के महंथ-भूमाफिया सभक विरुद्ध जे ओ सफल संघर्ष चलौलनि तकर कथा हुनकर उपन्यास 'जमनिया का बाबा' मे आयल छैक।

             1938क अक्टूबर मे राहुल सांकृत्यायन तिब्बत सं घुरला तं ओहो किसान सभाक सक्रिय राजनीति मे आबि गेला आ यात्री कें अपना संग बजा लेलनि। ई लोकनि सारण के अमवारी मे तीव्र किसान आन्दोलन चलौने छला, जाहि मे राहुल जी पर जमीन्दारक आदमी हमला सेहो कयने छल। जमीन्दार आ सरकार जें कि एकमत छल, हिनका लोकनि कें गिरफ्तार क' जेल पठा देल गेलनि। दुनू गोटे संगहि छपरा आ सीवान जेल मे रहथि। जेल मे रहैत राहुल अपन प्रथम उपन्यास 'जीने के लिए' डिक्टेशन पर लिखने रहथि, राहुल कहने जाथिन यात्री लिखने जाथि। बाद मे हजारीबाग जेल मे संगे रहला। यात्रीक दोसर जेलयात्रा किछु समय बाद तखन भेल रहनि जखन ओ सुभाषचन्द्र बोसक अभियान 'न एक पाई न एक भाई' के समर्थन मे गुप्त परचा छपबा क' जनता मे वितरित करैत छला। एहि बेर भागलपुर जेल मे रहला। जेल मे भिक्षु वेष मे रहथि तें अखबारो सब मे कहियो कोनो खबरि छपैक तं भिक्षु नागार्जुन कहि क' छपैक। अखबारे सब सं ई खबरि तरौनी पहुंचल छल आ जखन छुटबाक दिन आयल, गोकुल बाबू जेलक गेट पर हाजिर छला। एतबा दिन मे यात्री एहि बातक लेल तं भीतर सं तैयार भ' गेल छला जे विवाहिता स्त्री कें अपना लेता मुदा राजनीतिक क्रियाकलाप धरि नहि छोड़ता। भागलपुर सं ओ लोकनि सीधे हरिपुर पहुंचला जतय विधिवत सनातन धर्म मे हुनकर वापसीक कर्मकाण्ड भेल छल।

             

             अगिला कैक वर्षक समय ओ जीविकाक खोज मे, विभिन्न काज करैत बितौलनि। जीविकेक क्रम मे मैथिली कविताक दूटा पुस्तिका 'विलाप' आ 'बूढ़ वर' छपबौने छला जकरा ट्रेन मे, मेला-सभा मे गाबि-गाबि बेचल करथि। मुदा, अपराजिता कें ई काज पसंद नहि छलनि। दोसर, जाहि गहन भावनाक संग ओ मैथिली संग जुड़ल‌ छला, तकर साक्षी हुनकर कविता 'कविक स्वप्न'(1941) थिक, तकर कद्रदान ओहि समयक मैथिली-संसार मे छलैक नहि। ओ फेर परदेसक बाट पकड़लनि। एहि यात्रा मे पत्नी अपराजिता सेहो थोड़ दिन संग रहली, मुदा गाम सं बाहर हुनकर मन नहि रमि सकलनि। यात्री किछु दिन हैदराबादक सारस्वत ब्राह्मण पाठशाला मे प्रधानाध्यापक रहला, किछु दिन सिन्ध राष्ट्रभाषा प्रचार समितिक मुखपत्र 'कौमी बोली'क संपादक रहला।

             एही क्रम मे आगू जखन ओ इलाहाबाद पकड़लनि, जतय राहुल जी सेहो रहथि, तं 1943क ग्रीष्म मे हरिद्वार-ऋषिकेश होइत हिमालयक खोह सब कें धांगैत दुनू गोटे थोलिङ् महाविहारक यात्रा पर तिब्बत विदा भेलाह। रस्ता मे एक दुर्घटनाक बाद राहुल जी तं घुरि गेला, यात्री असगरे तिब्बत पहुंचला आ खूब रमला। लंका जाइते जेना ओ सिंहली सीखि लेने रहथि, एतय धरि जे सिंहली मे हुनकर 'कृषकदशकम्' नामक काव्यसंग्रह प्रकाशित हेबाक सूचना सेहो भेटैत अछि, ठीक तहिना तिब्बती पर हुनकर पूरा अधिकार भ' गेल छलनि। यैह समय छल जखन गोकुल मिश्रक निधन भेल छलनि।

             तिब्बत सं घुरलाक बाद ओ गाम गेलाह। तरौनी मे उजड़ल घर कें बसौलनि। अपराजिता तहिया जे गाम कें पकड़लनि तं सौंसे जीवन गामक लोकक श्रद्धापात्र भेलि ओत्तहि सौंसे जीवन गुदस्त केलनि। जीविका लेल यात्री इलाहाबाद मे जमला। एतबा दिन मे प्रतिष्ठा तं हुनकर पूरा भ' गेल रहनि मुदा लेखन सं जीविका चलि सकय, ताहि लेल हुनका अनुवादक काज पकड़य पड़लनि। कतेको भाषाक ओ जानकार रहथि, जाहि सं नीक-नीक कथाकृतिक हिन्दी अनुवाद ओ करथि जे किताब महल सं प्रकाशित होइत छल। आ अन्तत: 1946 मे ओ अंतिम रूप सं पटना आबि डेरा लेलनि जाहि सं गामक लगपास रहि सकथि। 'पारो' उपन्यास ओ एकटा हिन्दी प्रकाशक ग्रन्थमाला कार्यालयक अनुरोध पर लिखने रहथि। अनुरोधक आधार ई छल जे जखन हिनकर लिखल लेखो आदि एतेक पसंद कयल जाइत अछि तं कते विलक्षण हो जं ई उपन्यास लिखथि। यात्रीक जिद छलनि जे अपन पहिल उपन्यास ओ मैथिली मे लिखता। प्रकाशक मानि गेल। मैथिली मे ताधरि 'कन्यादान' आ 'द्विरागमन' टा एहन उपन्यास लिखल गेल रहय जे लोकप्रिय भेल रहय। 'पारो' छपलाक छव मासक भीतरे ओकर सबटा प्रति खपि गेलैक। यद्यपि ओ मैथिली मे छल, मुदा नागार्जुन बिहारक एक पैघ आ लोकप्रिय उपन्यासकारक रूप मे प्रसिद्ध भ' गेला।

             राहुल सांकृत्यायने जकां यात्री एहि समझ के लोक छलाह जे कोनो व्यक्तिक कम्युनिस्ट होयब कें ओकर जीवनक एक पैघ उपलब्धिक रूप मे देखैत छलाह, कारण जन्म तं मनुष्यक अपना वशक बात नहि होइत छैक मुदा सुच्चा कम्युनिस्ट भ' क' क्यो अपन व्यक्तित्वक पूर्ण अन्तरण क' सकैत छथि। 1946 मे पटना मे पटना अयलाक बाद पहिल काज तं ओ यैह केलनि जे कम्युनिस्ट पार्टीक सदस्यता ल' लेलनि। बिहार कम्युनिस्ट पार्टीक स्थापना 1938 मे मुंगेर मे गुप्त रूप सं कयल गेल रहैक जकर अध्यक्षता राहुल जी कयने रहथि आ ओहि सभा मे प्राय: यात्री सेहो उपस्थित रहथि। हुनकर व्यक्तित्वक एक गुण इहो देखैत छी जे हरेक निर्णय ओ पूर्ण विचार-विमर्शक बादे करैत छला। कम्युनिस्ट पार्टी मे हुनकर स्थान तहियो पैघ छलनि आ ओ दरभंगा जिला किसान सभाक अध्यक्ष बनाओल गेला। हुनकर सचिव युवा नेता भोगेन्द्र झा रहथिन। दरभंगाक जमीन्दारक शोषण आ अत्याचारक विरुद्ध जनताक एक विशाल जुझारू आन्दोलन ओ दरभंगा मे चलौलनि। एही समय मे ओ एहन कविता सब लिखलनि जाहि मे अपना लेल पहिल बेर 'जनकवि' शब्दक प्रयोग केलनि। 15 अगस्त 1947 कें जखन देश आजाद भ' रहल छल, कम्युनिस्ट पार्टी एहि आजादी कें 'झुट्ठा आजादी' कहि रहल छल। अपन कार्यकर्ताक सभक संगहि सचिव भोगेन्द्र झा मधुबनी जेल मे बंद छला जतय ओ लोकनि ओहि दिन 'काला दिवस' मनौने रहथि। यात्री ओहिदिन पार्टीक राज्यमुख्यालय पटना मे रहथि आ पार्टी-लाइन सं हटि क' ओहि राति ओ 'वंदना' शीर्षक कविता मैथिली मे लिखने रहथि। हिन्दीक दुनिया मे एकर विरोधो भेलैक जे पन्द्रह अगस्तक कविता ओ हिन्दी मे किएक नहि लिखलनि जे मैथिली मे लिखलनि। आधुनिक मैथिली कविता मे जते ऐतिहासिक महत्व 'कविक स्वप्न'क छैक, ततबे एहि कविता 'वंदना'क।

             अपन आरंभिक लेखन-काल मे यात्री मैथिली आ हिन्दीक बीच सम्यक संतुलन बना क' चलि रहल छला। पहिल पुस्तक 'पारो' मैथिली मे अयलनि, तं दोसर 'रतिनाथ की चाची'(1948) हिन्दी मे। फेर तेसर 'चित्रा'(1949) मैथिली मे अयलनि। ई सुसंपादित कविता-संग्रह मैथिली मे हुनका युगप्रवर्तक कविक रूप मे प्रतिष्ठापित क' देलकनि। एकरा बाद हुनकर दूटा उपन्यास एहन अयलनि जकरा ओ मैथिली आ हिन्दी, दुनू भाषा मे स्वतंत्र रूप सं लिखने रहथि। ई छल 'बलचनमा'(1952) आ 'नवतुरिया' आ 'नई पौध'(1953)। 'नवतुरिया' तं लगले 1954 मे छपि गेल मुदा 'बलचनमा' मैथिली संस्था सभक संकीर्ण मनोवृत्ति आ घटिया राजनीतिक शिकार भेल। 'युगों का यात्री' मे एकर विस्तृत वृत्तान्त आयल अछि। अन्त: 1967 मे ई तेना प्रकाशित कयल गेल मानू यात्रीक नहि कोनो ढेलफोड़बा लेखकक लिखल मामूली किताब हो। मैथिली संस्था सभक स्थिति आइयो किनसाइते कोनो ब्राह्मणसभा सं भिन्न होइत हो। ओहि दिन मे तं अअरो कठिन हालत छल। यात्रीक ई कथा ने केवल एक शूद्र क्रान्तिकारीक संघर्षक कथा छल अपितु एहि मे जे भाषा प्रयोग कयल गेल छल सेहो 'शूद्र मैथिली' छल।

             1950क आसपासक समय एहन छल जखन यात्री अपन जीवनक जटिलतम संघर्ष सं गुजरि रहल छला। पहिल तं समस्या छल आर्थिक, जखन कि अर्थोपार्जनक एकमात्र साधन हुनका लग लेखनटा बचल छल। जेठ पुत्र शोभाकान्तक जन्म 1942 मे भेल छलनि जे नेनपने सं दुखित रहैत छला। कतेक बेर आपरेशन करबय पड़लनि, जखन कि हाथ पूरे खाली छलनि। किछु दिन मसूरी आ वर्धा मे जा क' संपादनक काज केलनि, मुदा अंतत: पटना घुरैये पड़लनि। हुनकर कम्युनिस्ट होयब जतय हिन्दीक दुनिया मे हुनकर स्वीकार्यता कें बाधित क' रहल छल, ओतहि मैथिली मे हुनकर जमीन्दार-विरोधी होयब, जनसाधारणक प्रति प्रतिबद्ध होयब सेहो हुनका बाट कें कठिन बनबैत छल। मुदा, यात्रीक आत्मा मे मिथिला आ मैथिली तेना विराजित छल जे जतय कतहु ओ गेला, जाहि कोनो भाषा मे काज कयलनि, सबटा मानू मैथिलियेक विस्तार छल।

             ताहि दिनुक बिहारक साहित्यक माहौल सेहो पूरे जबदाह छल। पुरातन पीढ़ीक जे जरद्गव लोकनि साहित्यक सिंहासन पर विराजित रहथि, हुनका लोकनिक दृष्टि मे नवलेखन तुच्छ छल,युवा पीढ़ी नाकारा छल। ओतय जं कांग्रेसी मुख्यमंत्री, मंत्री लोकनिक दरबार छल तं एतय मैथिली मे जमीन्दारे लोकनिक स्तुति, वंदन साहित्य छल। एहि परिदृश्य कें बदलबा लेल जे यात्रीक संघर्ष छनि से कदाचित सब सं मूल्यवान देन छनि। हुनका पर हिन्दीक युवापीढ़ीक लगातार दबाव छल जे एहि परिदृश्य कें स्थसयी रूप सं बदलबाक लेल ओ सस्थाक गठन करथु। मुदा, हुनकर पूरा ध्यान मैथिली कें प्रतिष्ठापित करबा पर छलनि। आइ समुच्चा संसार मे जतय कतहु मैथिल लोकनि छथि, विद्यापति-पर्व सभक लेल जेना एक राष्ट्रीय अस्मिताक पर्व छिऐक। एकर आविष्कार यात्री कोना कयने छला तकर कथा पहिनहि आबि चुकल अछि। तहिना, जतय कतहु मैथिल संस्थाक जिक्र अबैछ, पटनाक चेतना समिति प्रथमस्थानीय मानल जाइछ। एकर संस्थापक सेहो यात्री छला। एकर स्थापना लेल ओ कते भारी संघर्ष कयलनि, तकर कथा रोचक अछि।

             काजीपुर मोहल्लाक कंचन भवन होटल तहिया मैथिल लोकनिक जमावड़ाक प्रधान केन्द्र होइत छल। यात्री जखन पटना आयल छला तं एही कंचन भवनक एक कोठली मे बहुत दिन धरि रहल छला, बाद मे ओही मोहल्ला मे अलग डेरा ल' लेलनि। मैथिल लोकनिक पहिल जे बैसार भेल रहय से एही कंचन भवनक छत पर 12मार्च 1950 कें। ओहि मे 'तरुण मैथिल गोष्ठी'क स्थापना भेल छल। गोष्ठी मे यात्री बाजल छला-- 'मैथिल समाज आइयो धरि एहि योग्य नहि भ' सकल जे अपन साहित्यिक आ सांस्कृतिक उत्थान दिस ध्यान द' सकय। पुरान महारथी लोकनि अपन-अपन अकर्मण्यताक भरपूर परिचय द' रहल छथि। मुदा, निराशाक कोनो बात नहि। हरेक देश आ हरेक काल मे यैह देखल गेल अछि जे राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यक विकासक लेल नवतुरिये पीढ़ी कें आगां आबय पड़ैत छैक।' तहिये ओ मैथिली मे 'किरण' नामक पत्रिकाक प्रकाशन आरंभ केलनि। ओ बंद भ' गेल तं नव संभावनाक तलाश मे ओ 'पटना विश्वविद्यालय मैथिली क्लब'क गठन करबौलनि। मुदा ओहू मे संकट छल जे साले-साल पुरान विद्यार्थी पास क' क' चलि जाइ छला आ नव तरहें खोज अभियान चलाबय पड़ैक। एही समय मे हुनका लगलनि जे संस्थाक अपन कोनो सुनिश्चित जगह, सांस्कृतिक केन्द्र हेबाक चाही। अन्तत: डा. लक्ष्मण झाक सहयोग ल' ओ पैघ-पैघ पदधारी मैथिल लोकनिक एक पैघ सभा आयोजित केलनि जकर अध्यक्षता जस्टिस सतीशचन्द्र झा कयने छला। 'मिथिला परिषद्' नामक संस्थाक गठन भेल जे पहिल बेर नया टोलाक आर्यसमाज हाल मे सप्ताहव्यापी विद्यापति-पर्व 1951 मे मनौलक। हुनकर निरंतरतापूर्ण प्रयासक बाद अन्तत: 18 जुलाइ 1954 कें गंगाकात मे एक विशाल सभा भेलैक जाहि मे 'चेतनागोष्ठी' नाम कें स्थायित्व देबाक निर्णय भेल। संस्थाक पहिल अध्यक्ष स्वयं यात्री बनब कबूल केलनि आ सचिव सुशील झा कें बनाओल गेलनि। बहुत दिन धरि एकर कार्यालय यात्रीक डेरे मे चलैत छलनि जतय ओ 'विद्यापति वाचनागार' सेहो बनबौने रहथि। बाद मे जयनाथ मिश्र अपन अजन्ता प्रेस मे एक कोठली देलखिन। अपन प्रथम विद्यापति-पर्व ई चेतनागोष्ठी 8 नवंबर 1954 कें मनौने छल जकर उद्घाटन बिहारक राज्यपाल आर.आर. दिवाकर आ अध्यक्षता डा. अमरनाथ झा कयने छला। 1955 मे जखन संस्थाक निबन्धनक प्रक्रिया चललैक तं निदेशानुसार 'गोष्ठी' शब्द कें बदलि क' 'समिति' कयल गेलैक।

             ताहि दिनक कम्युनिस्ट पार्टी मे यात्री ठीक ओहिना एक जानल-मानल नाम रहथि जेना राहुल सांकृ्त्यायन। दुनू गोटे स्वंत्रचेता लेखक रहथि, जखन कि कम्युनिस्ट पार्टीक रवैया कतेको मामला मे बहुत संकीर्ण छल। यात्री अपन मातृभाषा लेल जे काज क' रहल छला, अर्थात हुनकर जे भाषानीति रहनि तकरा कम्युनिस्ट पार्टी नापसंद करैत छल, तहिना जेना उर्दूक सम्बन्ध मे राहुल जीक भाषानीति पार्टीक दृष्टिकोण सं भिन्न छल। कम्युनिस्ट पार्टी यात्री कें कारण बताओ नोटिस जारी क' देलकनि। यात्री सेहो अपन स्टैंड पर अड़ि गेला जे ओ बरु पार्टी छोड़ि देता मुदा अपन भाषानीति नहि बदलता। अपन वामपंथी प्रियमित्र रामविलास शर्माक संग हिन्दी आ मैथिली कें ल' क' जे घोर विवाद भेल छलनि, तकर तं लिखिते दस्तावेज अछि। जेना रामविलास शर्मा कें बाद मे अपन अभिमत बदलय पड़ल छलनि तहिना पार्टी कें सेहो विना शर्त नोटिस आपस लेब' पड़लैक। 




           यात्री मे दूटा गुण एहन विशेष छलनि जे हुनका आन साहित्यकार-समूह सं पृथक करैत छनि आ विशिष्ट बनबैत छनि। एकटा तं छल हुनकर विचारधाराक अनुगामिता। हुनकर मान्यता छलनि जे कोनो साहित्यकार विचारहीन नहि भ' सकैत अछि। विचारधारा असल मे एहन विचार-सरणि थिक जकर अपन स्पष्ट परंपरा रहल हो। ओ अपना कें भारतक प्रगतिशील परंपराक अन्तर्गत मानैत रहथि। बुद्ध संग हुनकर जुड़ाव एकर स्पष्ट दृष्टान्त थिक। बुद्धक जे ई बहुजन हिताय बहुजन सुखाय बला परंपरा छलनि वैह हुनका आम जनताक संग जोड़लकनि आ एहि लेल सर्वाधिक मुखर विचारधारा मार्क्सवाद संग ओ अपना कें जोड़लनि। एक दिस जं साम्राज्यवादी अंग्रेजी सत्ताक विरुद्ध सक्रिय गतिविधि चलबैत ओ जेल गेला तं दोसर दिस जमीन्दार आ जमीन्दारी व्यवस्थाक विरुद्ध सेहो ओ सदति संघर्षशील रहला आ एहि लेल जेल सेहो गेला। हुनकर चिरसखा सुरेन्द्रनाथ झा सुमन दरभंगा राजक मुखपत्र मिथिला मिहिरक संपादक, एहि तरहें जमीन्दारक एक कर्मचारी छला, जखन कि ओही दरभंगा मे यात्री कें हमसब जमीन्दारी-उन्मूलन लेल सड़क पर संगठनबद्ध संघर्ष करैत देखैत छियनि। गृहस्थ जीवनक शुरुआती दौर मे जखन कि ओ वास्तव मे खगल छला, हुनका लग इहो प्रस्ताव एलनि जे महाराज सं भेंट क' क' ओ माफी मांगि लेथु तं हुनका राजकर्मचारीक रूप मे नियुक्ति भेटि सकैत छनि। मुदा एहि प्रस्ताव पर विचारो धरि करब ओ नहि गछलनि। ओ शोषित-पीड़ित जनताक हित मे ठाढ़ बनल रहय चाहैत छला भने कतबो विपन्नता मे जीवन गुदस्त करय पड़नि। एकर विपरीत अपन निजी सुख-सुविधाक लेल ओ शोषक-उत्पीड़क समुदायक शरण गहब कहियो मंजूर नहि क' सकैत छला। ई गुण यावज्जीवन हुनका मे बनल रहलनि।

           मुदा हुनकर दोसर जे गुण छलनि, तकरा एकर प्राय: विपरीत कहल जा सकैत अछि। ओ गुण छल-- हुनकर स्वतंत्रचेता स्वभाव। ओ कहल करथि जे कोनो विचारधारा कें अपना लेल चुनब ओकर गुलामी गछब नहि थिक। साहित्य कें ओ स्वयं मे स्वायत्त शास्त्र मानैत छला आ हुनकर मत छलनि जे कोनो विचारधाराक समर्थक भेलाक बादो लेखक कें जनहित मे अपन पृथक समझ रखबाक अधिकार छैक। स्वतंत्रता, समता आ बंधुत्व, जे कि आधुनिक विश्वक, भारतक सेहो, प्रधान जीवनमूल्य थिक, एहि पर हुनकर अखंड आ अटूट विश्वास रहनि। एहि हिसाब सं देखी तं आन कथू सं पहिने यात्री एक परिपूर्ण लोकतंत्रवादी, लोकतांत्रिक व्यक्ति छला। तें हमरा लोकनि देखैत छी जे सदस्यताधारी कम्युनिस्ट भेलाक बादो कम्युनिस्ट पार्टीक संग हुनकर अनेको मुद्दा पर मतान्तर रहलनि। अपन मत कें ओ खुलि क' अपन रचना मे, अपन वक्तव्य मे मुखरित करैत रहला। भाषा आ प्रान्त कें ल' क' हुनकर स्पष्ट समझ रहनि। हुनकर कथन रहनि जे देश तं अमूर्त होइत अछि, मूर्त तं रहैत अछि केवल ओ जगह जतय व्यक्ति जन्म लैत अछि, विकसित होइत अछि। मूर्त तं होइछ ओ भाषा जे व्यक्ति निज अपन माय सं प्राप्त करैत अछि आ तकरे नेओ पर दुनिया भरिक ज्ञान आ भाषा अर्जित करैत अछि। ओ भारत देशक लेल राष्ट्रीय मार्क्सवादक प्रस्तावना केलनि। मुदा ताहि दिनुक निमुन्न समय मे हुनकर निहितार्थ कें कम्युनिस्ट राजनेता आ विचारक गछब स्वीकार नहि केलनि। आजुक समय मे एकर आत्यन्तिक आवश्यकता तं देखार पड़िते अछि, यात्रीक भविष्यदृष्टिक पता सेहो लगैत अछि। एकर ज्वलन्त दृष्टान्त हमसब 1962मे भारत पर चीनी आक्रमणक बाद कम्युनिस्ट पार्टी सं हुनकर सदा-सर्वदाक लेल त्यागपत्र देबाक घटनाक रूप मे देखि सकैत छी। जे यात्री 1953 मे चीनक प्रशंसा मे 'हे नवल चीन/ हे प्रबल चीन/ हे महाचीन' कहैत ओकरा 'संसार भरिक जनताक मनोरथ-परिधिहीन' आ 'कोटि जनगणक हृदय महँ समासीन' बतौने छला, वैह यात्री चीनी आक्रमणक बाद हिन्दी मे लिखलनि-- 'विश्वशांति की घायल देवी चीख रही है/ सर्वनाश की डायन हँसती दीख रही है।' एहि कविता मे ओ चीन कें लाल कमल सं बहरायल जहरीला कीड़ा बतौलनि आ एक दोसर कविता मे स्वयं मार्क्स धरि कें नहि बकसैत एतय धरि कहि गेला जे 'मार्क्स तेरी दाढ़ी में जूँ ने दिये होंगे अंडे/ निकले हैं उन्हीं से कम्युनिज्म के चीनी पंडे।' शासकवर्ग आ भारतीय सेनाक नाकामी पर ई तं ओ लिखबे केलनि जे आब मोन होइए जे हम बंदूक चलेनाइ आ फौलाद गलेनाइ सीखी आ जनमन मे चिंगारी भड़का दी आ सभक संग नेफा पहुंचि क' गोला दागी, क्रांतिकराली मुंडमालिनी चामुंडा कें 'हाथ मे लेने बड़ीटा त्रिशूल/ ठाढ़ि छथि कंचनजंघाक माथ पर/ उत्तराभिमुख' अवस्था मे देखलनि। कविक निरर्थकताबोधक ई चरम अभिव्यक्ति छल।

           असल मे एक समर्पित मार्क्सवादी हेबाक कारण यात्री कहियो एहि बातक कल्पना धरि नहि क' सकैत छला जे समाजवादी आदर्श पर चलनिहार कोनो देश अपन विस्तारवादी नीतिक संग पड़ोसी देश पर आक्रमण क' सकैत अछि। हुनकर ई मान्यता सकनाचूर भ' गेल छलनि। अद्भुत अछि ई देखब जे ठीक यैह मान्यता प्रधानंत्री नेहरूक छलनि। एहि अर्थ मे नेहरू आ यात्री एक्कें तरहें सोचैत छला, जखन कि नेहरूक आर्थिक आ प्रशासनिक नीतिक कट्टर विरोधी यात्री रहथि आ हुनका विरुद्ध एक सौ सं बेसी कविता ओ लिखलनि। भारत मे मार्क्सवादी समझ कें ल' क' हुनकर घोर मतभेद एतय शुरू भेल जे ओ ने केवल पार्टी सं त्यागपत्र देलनि, अपितु भारतीयताक अवधारणा कें प्रमुखता दैत 'राष्ट्रीय मार्क्सवाद'क प्रस्तावना केलनि। आइ हमसब नीक जकां अनुभव क' सकै छी जे भारतक मार्क्सवादी लोकनि भारतीयता कें अछूत मानि कोना दूरी बरतलक आ कोना दक्षिणपंथी लोकनि एकरा अपन पूजी मानैत आ मनमाना व्याख्या करैत वामपंथ कें निकालबाहर केलकनि। एहि सं यात्रीक वैचारिक दूरदर्शिताक परिचय भेटैत अछि।

           कहबाक बेगरता नहि जे अपन स्वतंत्रचेता स्वभाव कें बरकरार रखबाक लेल यात्री कें बहुत संघर्ष करय पड़लनि। कतेको बेर एहन भेल जे हुनकर समानधर्मा हीत-मीतो लोकनि हुनकर खिलाफ भ' गेलखिन। जेना, पार्टी-लाइन के विरुद्ध जखन ओ चीनक कठोर प्रतिवाद केलनि तं हुनकर प्राय: समस्त वामपंथी मित्र हुनका विरुद्ध छला। हुनका सभक कहब रहनि जे यात्री गलती पर छथि। मुदा, एहन विरोधक ओ कहियो परवाह नहि केलनि। ठीक यैह स्थिति तखन बनल छल जखन यात्री इमरजेन्सीक खिलाफ जेपी आन्दोलन मे शामिल भ' गेल रहथि। कहब आवश्यक नहि जे जेना चीनी आक्रमणक समय कम्युनिस्ट पार्टी चीनक समर्थन मे छल तहिना इमरजेन्सीक समय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधीक समर्थन मे रहय। यात्री एहू बेर अपन कोनो समानधर्माक परवाह नहि केलनि आ जेपीक अभिन्न सहयोगी बनि क' इमरजेन्सीक खिलाफत करैत रहला। कहबे केलहुं जे हुनकर अखंड विश्वास पूर्ण लोकतंत्र मे छलनि आ एहि पर कोनहु आघात ओ बरदास्त नहि क' सकैत छला। इन्दिरा गांधीक विरुद्ध ओ एक पर एक तिक्ख अतितिक्ख कविता लिखलनि। सीवान मे युवा नेता लालू प्रसाद यादवक संग जनता सरकारक गठन लेल आहूत सभा सं हुनका गिरफ्तार क' लेल गेल। स्वतंत्रताक उपरान्त ई दोसर अवसर छल जखन देशी सरकार हुनका जेल मे बन्द केलकनि। पहिल बेर 1948 मे ओ तखन गिरफ्तार कयल गेल छला जखन गांधी जीक हत्या पर लिखल अपन कविता सब मे ओ तखनुक केन्द्र सरकार कें, गृहमंत्री पटेल कें कठघरा मे ठाढ़ क' देने छला। एकर पूर्ण विवरण हुनकर जीवनी 'युगों का यात्री' मे देखल जा सकैत अछि। 

           यायावरीक गुण यात्री कें अपन पिता सं भेटल रहनि, जे पहुनाइ करबाक निमित्त एहि गाम-ओहि गाम भेल घुरैत छला। जें कि एकमात्र यैह टा संतान हुनकर जिम्मेवारी रहनि, थोड़े चेठनगर भेला पर एहि बालक कें अपन कान्ह पर बैसा लेथि। 1925 मे प्रथमा पास केलाक बाद मध्यमाक पढ़ाइ लेल जे ओ गाम छोड़लनि, मानू यैह सदाक लेल हुनकर यायावरीक आधारशिला बनि गेल। हुनकर लंका आ तिब्बत-यात्राक उल्लेख ऊपर भ' चुकल अछि। बांकी अपन समुच्चा जीवन ओ लगातार भ्रमणशील रहला। किछु दिन लेल गाम आबथि फेर कोनो नव यात्रा पर बहरा जाथि। भारतक ओ समस्त स्थान, जे कोनो कारणें हुनका प्रिय छलनि, हुनकर आवासन सं महमहाइत रहल। ओ स्वयं कहने छथि जे अपन समस्त प्रिय जगह के ओ कम सं कम तीन बेर यात्रा कयने छथि। गाम पर रहैत अपन परिवारक लेल यथासाध्य ओ आर्थिक संसाधन अवश्य जुटबैत रहला, मुदा अपने परिवार धरि बन्हि क' रहब हुनका कहियो मान्य नहि भ' सकै छलनि। सौंसे देश मे हुनकर परिवार छिड़यायल छल, जतय के परिवारी जन हुनकर आगामी यात्राक लेल टकटकी लगौने रहथि। जाहि कोनो परिवार मे ओ जाथि, ओतय आयु, लिंग, धर्म, जाति के तं कोनो बन्हन नहिये छल, साहित्यक-असाहित्यक के सेहो कोनो वर्गीकरण मान्य नहि छल। हुनकर प्रगाढ़ मैत्री देश-विदेशक एहन-एहन मामूली लोक संग छलनि, जे जानि क' हुनकर विराटता पर आश्चर्य लगैत अछि। हुन कहब रहनि जे आम जनक जीवने हुनकर साहित्य-लेखन लेल कच्चा माल उपलब्ध करबैत अछि। हुनका मे दू चीज बहुत खास। एक तं युवावर्गक संग गहन मैत्री, जकरा कारणें ओ जतय जाथि नवतूरक हुजूम हुनका संग लागल रहैत छल। दोसर, मिथिला हुनका आत्मा मे बसल रहनि। सौंसे भारत मे जतय कतहु ओ गेला, मानू हुनका संग-संग मिथिला यात्रा क' रहल छलि। एहि भावक सुंदर वृत्तान्त हमरा लोकनि कें केदारनाथ अग्रवालक हिन्दी कविता तथा भीमनाथ झाक मैथिली कविता मे भेटि सकैत अछि।

           यात्री कें समय-समय पर अनेक पुरस्कार एवं सम्मान भेटलनि। 1969 मे हुनकर मैथिली कविता-संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' लेल साहित्य अकादेमी पुरस्कार देल गेलनि। एहि पुरस्कारक बाद भारत सरकार भारतीय लेखक लोकनिक राष्ट्रीय शिष्टमंडलक संग तीन सप्ताक यात्रा पर सोवियत रूस पठौलकनि। ओ ओतय लगातार भ्रमणशील रहला आ अनेक स्थान, जे विश्व इतिहासक धरोहर-स्वरूप छल, पर भरि मोन घुमला। ओ महान लेखक यथा तोल्सतोय, चेखव आदिक घर आ समाधि पर गेला, ओ ताशकंद स्थित ओहि स्थान पर गेला जतय हुनकर प्रिय नेता मे सं एक लालबहादुर शास्त्रीक निधन भेल छलनि। सोवियत क्रान्तिक जाबन्तो तीर्थ भ्रमण केलाक बाद ओ लेनिन महान के शवाधानी कें देखलनि, आ ताहि पर एक मार्मिक कविता संस्कृत मे लिखलनि। एहि यात्राक क्रम मे दर्जनो साहित्यिक संगोष्ठी, आ सांस्कृतिक संस्था सब मे ओ गेला। विशिष्टता ई रहलनि जे जतय कतहु हुनका अपन कविता सुनेबाक आग्रह भेलनि, ओ अपन मैथिली कविता (दुभाषियाक मारफत अनुवाद सहित) सुनौलनि। आ, जतय कतहु हुनका आगू विजीटर्स बुक राखल गेलनि, सदा अपन विचार ओ मैथिली मे लिखलनि। बाद मे अपन एक इन्टरव्यू मे ओ बतौने रहथि जे जें कि ई यात्रा हुनका मैथिली कवि हेबाक परिणाम-स्वरूप छल, तें अनिवार्यतया ओ मैथिलीयेक प्रतिनिधित्व केलनि।

           पटनाक महात्मा गांधी सेतुक उद्घाटन करबाक अवसर पर यात्री कें विशिष्टतया प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधीक हाथें पन्द्रह हजार राशिक संगें सम्मानित कयल गेल। सौंसे देशक वामपंथी लोकनि एहि सं बहुत खिन्न भेला जे जाहि इन्दिराक खिलाफ ओ आगि उगल' बला कविता सब लिखलनि, तिनके हाथें सम्मानित होयब ओ किएक स्वीकार केलनि? यात्रीक समझ मुदा साफ रहनि। अपन इन्टरव्यू मे ओ ठांहि-प-ठांहि बाजल रहथि जे 'सम्मान-राशि की इन्दिरा गांधीक बापक छल?' तात्पर्य जे जनताक पाइ सं एक जनकवि सम्मानित कयल गेला, प्रधानंत्री तं मात्र निमित्त रहथि। हुनकर इहो कहब रहनि जे राशि प्राप्त केलाक बाद जं ओ इन्दिराक दरबार करय लागथि वा हुनकर प्रशंसा मे कविता लिखय लागथि, तं से अवश्य अनुचित होयत। एहन अनुचित हुनका सं कहियो नहि भेना गेल।

           बाद मे हुनका मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल आदि राज्यक शिखर सम्मान प्राप्त भेलनि। हुनका साहित्य अकादेमी अपन महत्तर सदस्यता प्रदान केलकनि आ हुनका पर एक सुंदर वृत्तचित्र बनबौलक। हुनका पर आनो अनेक दृष्टिवान निर्देशक वृत्तचित्रक निर्माण केलनि। अपन राॅयल्टीक पाइ सं बाद मे सुदूर दिल्लीक मोहल्ला सादतपुर मे जमीनक एक प्लाॅट किनलनि, मुदा से बहुत जद्दोजहद सं। समुच्चा जीवन हुनकर अभावग्रस्त रहलनि, किछु तं परिवारक तंगी हालतक कारण, किछु हुनकर परम उदार स्वभावक कारण। बेगरतूत लोक, अभावग्रस्त परिचित, संभावनाशील युवा-- एहि सभक पाछू ओ अपन सब पूजी लगा देथि। कतेको बेर एहन भेलै जे ओहि जबाना मे हुनका लाख-लाख टाकाक कैक गोट पुरस्कार भेटलनि। मुदा, पांच दिन बाद हुनका लग एक पाइ नहि। एहि उदारता मे हुनकर तुलना निराला जी टा सं कयल जा सकैए।

           1996 मे यात्री सादतपुर सं दरभंगा आबि गेला। ओहि समय ओ अक्सरहां बीमार रहैत छला। हुनकर शुभचिन्तक लोकनि हुनकर एहि निर्णय सं परेशान भेला, कारण दिल्ली मे चिकित्सा-सुविधा अपेक्षाकृत नीक रहै। मुदा, यात्री अपन अंतिम समय मिथिले मे आबि क' बितबय चाहैत रहथि। हुनकर स्थायी चिकित्सक डाॅ. गणपति मिश्र जहां धरि भेलनि, हुनका सुविधाजनक बनौने रखलखिन। ओ गाम गेला। ओ अनेक कविता मैथिली आ हिन्दी मे लिखलनि, ताहि सब सं पता लगैत अछि जे अपन आखिरी समय धरि ओ अपन जुझारू आ वैज्ञानिक चेतना सं भरल-पुरल रहला। आखिरी दिन मे, जखन शरीर नि:शक्त भ' गेल छलनि, ओ अपन मानसिक यात्रा यात्रा पर रहय लगला। पुत्र शोभाकान्त आ पुत्रवधू रेखा पल-पल हुनकर सेवा मे बनल रहलखिन। आखिरी सप्ताह मे तं कैक बेर एहन होइक जे ओ आंकि खोलथि, शोभाकान्त कें कहथिन--रूस सं घुरल आबि रहल छी, बहुत थाकि गेल छी, आराम करब। कखनो कहथि-- नायकपाद (लंका मे हुनकर गुरु) आयल छला। बहुत पाइ देलनि। पाइ के तं अपना सब कें बेगरतो छले ने! हुनकर ई मानसिक यात्रा ठीक ओतबे जनाकीर्ण, जनसंकुल रहनि, जतबा ओ अपन समुच्चा जीवन गुजारने छला।

           अन्तत: 5 नवंबर 1998 कें प्रात: 6:20 पर ओ महायात्रा पर बहरा गेला। यात्रीक अन्त्येष्टि राजकीय सम्मानक संग करबाक निर्णय बिहार सरकार लेलक। सकरी सं तरौनी पांच किलोमीटर पड़ैत छैक। जखन हुनकर पार्थव शरीर तरौनी ल' गेल जाइत रहय, सड़कक दुनू कात आम जनक विशाल हुजूम उमड़ि पड़ल रहैक आ से एक अटूट जनश्रृंखला बनबैत रहै। ओहि लोक सभक संख्या हजार मे नहि, लाख मे आंकल जा सकैत छल। मिथिलाक धरती अपन कविकक एहन विदाइ एहि सं पहिने नहि कहियो देखने रहैक।