Saturday, October 28, 2023

यात्रीक उपन्यास

 तारानंद वियोगी


मैथिली मे यात्री तीन टा उपन्यास लिखलनि-- पारो, नवतुरिया आ बलचनमा। हुनकर तीनू उपन्यास अलग-अलग प्रकाशन सं प्रकाशित छनि। पहिल उपन्यास 'पारो'क रचना ओ कोन परिस्थिति मे कयने छला, एकर किछु विवरण अन्यत्र आबि चुकल अछि। एकर प्रकाशक-- ग्रन्थमाला कार्यालय -- जे मैथिलीक प्रकाशक नहि छल, आ ने पारोक बाद संभवत: फेर कहियो मैथिलीक कोनो पोथी प्रकाशित केलक। ग्रन्थमाला हिन्दीक देशप्रसिद्ध प्रकाशक छल आ बहुतो महत्वपूर्ण प्रकाशन लेल जानल जाइत छल। ओतय सं 'पारिजात' पत्रिका बहराइत छल जाहि मे नागार्जुन एक ख्यात आ लोकप्रिय लेखक छला। तहिना, एतय सं छप' बला बाल-पत्रिका 'किशोर' मे तं नागार्जुन तते लोकप्रिय रहथि जे थोड़बे समय मे हिन्दीक एक प्रशस्त गद्यकारक रूप मे ओ प्रसिद्ध भ' गेल रहथि। हुनकर लोकप्रिया कें देखैत प्रकाशनक स्वामी रामदहिन मिश्र सोचैत छला जे नागार्जुन जं उपन्यास लिखथि तं बाजार मे रिकार्डतोड़ बिक्री भ' सकैत अछि। ओ बारंबार यात्री पर उपन्यास लिखबाक दबाव देब' लगला। हुनकर बहुत आग्रह पर यात्री तैयार तं भेला मुदा एक विचित्र शर्त राखि देलखिन जे उपन्यास ओ मैथिली मे लिखता। असल मे, जाहि परिवेश, वातावरण आ कथानक ल' क' ओ उपन्यास लिखय चाहैत रहथि, हुनकर समझ रहनि जे ओकरा संग न्याय केवल मैथिली मे लिखने भ' सकैत अछि। अन्तत: ओ 'पारो' लिखलनि आ से ग्रन्थमाला सं 1946 मे प्रकाशित भेलैक। मैथिलीक परंपरित साहित्य-समाज कें ई उपन्यास हिला क' राखि देलकैक। एहि सं पहिने 'कन्यादान'(1933) आ 'द्विरागमन'(1943) मात्र मैथिली मे छपल छल जकरा आधुनिक अर्थ मे औपन्यासिक कलेवरक रचना कहल जा सकैक। 'कन्यादान' जाहि तरहें परंपरावादी लोकनिक आस्था पर चोट कयने रहनि, 'पारो' एलाक बाद मानू ओ सकनाचूर भ' गेलैक। मिथिलामिहिर मे पं. त्रिलोकनाथ मिश्र एहि दुनू उपन्यासक समीक्षा एहि शब्द मे कयने छला-- 'स्वच्छन्द प्रोफेसर पहिनहि टांग-हाथ दन्तावलि तोड़ि देल/ दुर्भाग्य सम्प्रति मैथिलीक 'पारो' कपारो फोड़ि देल।' अर्थात, पारोक प्रकाशन कें ओ लोकनि मैथिलीक हत्या करबाक तुल्य मानने छला। दोसर दिस, एकर सबटा प्रति छव मासक भितर बीकि गेल आ प्रकाशक आगां संस्करण पर संस्करण छपैत रहला। उपन्यास भने मैथिली मे छल, मुदा एकर प्रशस्ति कें देखैत कवि नागार्जुन बिहारक उदीयमान उपन्यासकारक रूप मे सौंसे देश मे प्रसिद्ध भ' गेला।

          नवतुरिया(1954) आ बलचनमा (1967) यात्रीक एहन उपन्यास छलनि जकरा ओ मैथिली आ हिन्दी, दुनू भाषा मे मौलिक रूप सं लिखने छला। एहि प्रसंग पहिनहि कहल जा चुकल अछि जे बलचनमाक नायक बालचन राउत ने केवल स्वयं शूद्र छला, अपितु आत्मकथात्मक शैलीक ई उपन्यास जाहि मैथिली मे लिखल गेल छल से शिष्ट समाजक भाषा सं सर्वथा भिन्न छल जकरा स्वयं यात्री 'शूद्र मैथिली' कहने छथि। एहन प्रतीत होइत अछि जे मैथिलीसेवी व्यक्ति आ संस्थाक संकीर्ण मनोवृत्तिक शिकार एहि उपन्यास कें हुअ' पड़लैक। 1967 मे प्रकाशित एहि उपन्यासक मूल लेखक नागार्जुन कें बताओल गेल छल। एकर अर्थ शोभाकान्त ई लगौलनि जे मूल मैथिली बलचनमाक पांडुलिपि नष्ट हेबाक बाद संस्था दबाववश हिन्दी-पाठक मैथिली अनुवाद प्रकाशित क' कहुना पिंड छोड़ेलक। यात्री मूल मैथिली मे बलचनमा लिखने छला, तकर अनेको साक्ष्य अछि। किन्तु, प्रकाशित पाठ ओहि सं भिन्न अछि, से ओकर भाषा-वितान कें देखनहि सं स्पष्ट भ' जाइछ, एहि आधार पर शोभाकान्त बलचनमाक उपलब्ध पाठ कें मूल मैथिली नहि मानैत 'यात्री समग्र' मे एकरा संकलित नहि केलनि। मोहन भारद्वाजक मान्यता एहि सं भिन्न छलनि। हुनका मतें, हिन्दी लेखक नागार्जुनक बहुव्यापक प्रसिद्धि सं आक्रान्त मैथिल लोकनि केवल हीनतावश मूल लेखक नागार्जुन कें बता देलनि। भाषागत पार्थक्यक सम्बन्ध मे हुनकर कहब भेलनि जे प्रूफ सही तरीका सं नहि देखल गेल छल, ई तकरे परिणाम छल। यद्यपि मोहन भारद्वाजक मान्यता मे अनेको प्रतिप्रश्नक गुंजाइश बनैत छल, किन्तु एहि कृति कें मूल मैथिली उपन्यास मानैत ओ अपन प्रसिद्ध आलोचना-पुस्तक 'बलचनमा: पृष्ठभूमि आ प्रस्थान' लिखलनि, जे कदाचित हुनकर सब सं नीक आलोचनात्मक कृति छियनि।

        हिन्दी-मैथिली दुनू कें मिला क' देखी तं यात्री पन्द्रह गोट उपन्यास लिखलनि। एहि सभक अतिरिक्त एतबे संख्या मे हुनका लग अलिखित उपन्यास छलनि। ओ चाहितथि तं एहि उपन्यास सभक खिस्सा च तु क' क' आद्योपान्त सुना सकै छला। एकटा उपन्यास 'निराश्रित' नामक छल जकरा शरणार्थी-समस्या पर केन्द्रित हेबाक छलै। 'विशाखा-मृगा'(एहि नाम सं हिन्दी मे हुनकर कथा छनि) सेहो वस्तुत: एक उपन्यासे छल जकर बीस अध्याय हेबाक छलै। एक आर उपन्यास हिन्दी मे होइतैक जकर नाम 'ठूंठ और कोपलें' राखय बला छला। अपन एक उपन्यासक संपूर्ण कथा तं ओ स्वयं हमरा सुनौने रहथि। ई संपूर्ण कथा हम 'तुमि चिर सारथि' मे लिखनहु छी। ई सब उपन्यास लिखल नहि जा सकल। उपन्यास-लेखनक लेल जे निविड़ एकान्त आ तल्लीनता चाही, तकर हुनका जीवन मे सर्वथा अभाव छलनि। कारण छल हुनकर यायावरी स्वभाव आ मिलनसारिता। सौंसे भारत हुनकर घर छल आ लाखो लोक हुनकर परिवारी-जन। एहि सभक बीचे रहि क' ओ अपना कें स्वस्थ आ सहज अनुभव करथि। पचपन-छप्पनक उमेर सं हुनकर एक्टीविज्म आरो अधिक बढ़ि गेल आ ओ सामाजिक-राजनीतिक कतेको मोर्चा पर अधिकाधिक सक्रिय होइत गेला। तें हमसब देखैत छी जे 1967क बाद कायदा सं ओ कोनो उपन्यास नहि लिखि सकला, यद्यपि कि योजना सब दिन बनबैत रहला जे ओ उपन्यास लिखता।  हुनकर स्वभाव छलनि जे उपन्यास ओ निरंतरता मे लिखथि, बीच मे जं लिखब बाधित भेल तं हुनकर उपन्यास अधूरा रहि जाइत छलनि। अपन समस्त उपन्यास ओ तीस सं चालीस दिन मे पूरा क' लेलनि। बलचनमा आ कुंभीपाक, यैह दू उपन्यास छनि जाहि मे क्रम टुटलाक बादो पुन: पुन: आसन जमा क' एकरा ओ पूर्ण केलनि। अपन अंतिम उपन्यास 'गरीबदास' ओ एनसीईआरटी के लेल 1979 मे बहुत जतन कयला पर लिखि सकल रहथि।

           उपन्यास-लेखनक जे कसौटी यात्रीक छलनि,ताहि पर बात भ' चुकल अछि। पहिल तं हुनकर आग्रह रहनि जे उपन्यास सदा स्वयं अनुभूत प्रसंगे पर लिखबाक चाही। दोसर, उपन्यासक भाषा आ शिल्प एहन हेबाक चाही जे अठमा क्लास पास व्यक्ति आराम सं ओकरा पढ़बाक आनंद उठा सकय। तेसर, उपन्यास कें सदा छोट हेबाक चाही जाहि सं अल्प दाम पर साधारणो पाठक ओकरा कीनि क' पढ़ि सकथि। हुनकर तीनू मैथिली उपन्यास हुनकर एहि तीनू शर्त कें पूरा करैत छनि। तीनू उपन्यासक विषय-वस्तु हुनकर भोगल, आंखिक देखल छल। 'पारो' मे जे कथा आयल छैक से ताहि समयक थिक जखन ओ एक तरुण छला आ गोनौली मे रहि क' मध्यमाक पढाइ क' रहल रहथि। एहि उपन्यासक तीक्ष्णता सं हमसब अनुमान क' सकै छी जे ओहि घटना सं ओ कतेक आहत भेल छला आ स्त्री-मुक्ति आगुओ हुनकर औपन्यासिक लेखनक एक प्रधान यत्नक रूप मे मौजूद रहल। 'नवतुरिया'क कथा यात्रीक सासुर हरिपुर बक्शीटोल मे घटित एक घटना पर लिखल गेल अछि, जाहि मे स्वयं यात्रियोक अपन योगदान छलनि। हरिपुर बक्शीटोलक एक आरो प्रसिद्ध मैथिली लेखक उपेन्द्रनाथ झा व्यास भ' गेला अछि। ओहि गाम मे घटित ई घटना ततेक चर्चित भेल रहय जे स्वयं व्यास जी अपन एक कथा 'वाग्दान' एही घटना कें आधार बना क' लिखने छला। तहिना,  हमरा लोकनि अवगत छी जे लंका सं घुरलाक बाद यात्री क्रांतिकारी भ' गेल छला आ किसान सभाक मजगूत संगठन तैयार करबाक वास्ते स्वामी सहजानंद हुनका चंपारण पठौने छलखिन। 'बलचनमा' मे जे कथा आयल अछि, से स्वयं यात्रीक अनुभव छनि। एहि उपन्यास मे आयल कतेको घटनाक विवरण स्वामी सहजानंदक आत्मकथा 'मेरा जीवनसंघर्ष' सं हूबहू मिलैत अछि।



काया मे छोट मुदा प्रभाव मे बेस घनगर आ गँहीर 'पारो' यात्रीक पहिल उपन्यास थिक। ई मूलत: पिसियौत-ममियौत भाइ-बहीनक कथा थिक, जे अनेक घुमान विन्दु कें पार करैत अन्तत: पार्वती उर्फ पारोक विवाह आ तकर तेसरे वर्ष ओकर मृत्युक खिस्सा थिक। उपन्यासक कथावाचक बिरजू थिक जे पारोक ममियौत भाइ थिक। दुनू भाइ-बहीन एक नेनपन सं एक-दोसरक संग तेना जुड़ल रहल अछि जे अद्भुत स्नेह-सम्बन्ध दुनूक बीच कायम छैक। नेनपन मे ओ दुनू खेल-खेल मे विवाह सेहो कयने छल जाहि मे माटिक सिन्दूर व्यवहार कयल गेल रहैक। पारो बेस बुझनुक आ विवेकशील अछि। पिता पंडित छलखिन मुदा बेस होशगर। ओ गार्गी-मैत्रेयीक स्त्री-परंपरा पर गौरव केनिहार लोक रहथि आ एकमात्र संतान पारो कें गार्गी-मैत्रेयी सन पंडिता बनेबाक ख्वाब राखथि। मुदा, परंपरित मैथिल समाजक अस्सल प्रतिनिधि रहथि पारोक माय, जे पंडितजीक एक नहि चल' देलकनि। पंडितक असमय देहान्त भेलनि। विधवा माय गरीब नहि रहथि मुदा वैवाहिक दलाल लूच झाक फंदा मे फँसि क' पैंतालिस वर्षक चुल्हाइ चौधरिक संग पारोक विवाह करबा देलखिन। चौधरि जातिये टा मे नहि धनो संपति मे पैघ लोक छला। ओ रामराज्यक स्वप्न देखनिहार लोक रहथि जे देखबे टा मे मनुक्ख रहथि, बांकी पारोएक शब्द मे कही तं राक्षस रहथि। तेरह वर्षक कन्या, पैंतालिस वर्षक वर। एहि सम्बन्ध कें नहि निमहबाक कारण दू टा। एकटा तं स्वयं पारो, जे अपन बुद्धि-विवेकवश स्त्री-चेतना सँ भरल रहथि आ हुनका मैथिलक ई विवाह संस्था भारी नापसंद। बिरजू भने हुनक भाइ लगतथिन, मुदा अपन नेह-नाताक कारण ओ कुमारिये मे बिरजू कें कहने रहथिन-- 'भाइये बहिन मे जँ बिआह-दान होइतैक तँ केहन दीब होइतै। कत' कहांदनक अनठिया कें जे लोक उठा क' ल' अबैए से कोन बुधियारी?' दोसर कारण, स्वयं चौधरि, जिनका लेल स्त्री केवल भोग-विलासक एकटा वस्तु होइत अछि, ओकरा प्रति कोनो संवेदना, कोनो सहमति, कोनो प्रेम-रसायनक दूर-दूर धरि कोनो लसि नहि। एहि प्रकारें ई विवाह केवल उमेरे टाक संदर्भ मे अनमेल नहि रहैक, बौद्धिकता आ मानसिकता धरि अलग-अलग छल। मन मारि क' चौधरि संग जीवन गुदस्त करैत पारो कहियो सहज नहि रहि सकली आ हुनकर मृत्यु मानू विद्रोहक कोनो बाट नहि भेटने एक आत्मघात छल। मुदा, ताहि सँ पहिने मानू ज्वालामुखि फटैत छैक जखन पारो बिरजू कें कहैत अछि-- 'एहन असिरबाद ने हमरा तों देने जाह बिरजू भैया जे अगिला जन्म मे ई सांसत नहि उठब' पड़य... हमरा-तोरा बीच मे पिसियौत-ममियौतक सम्बन्ध नहि, ओहि जन्म मे हम आ तों...'

              इतिहासकार आ आलोचक लोकनि एहि उपन्यास कें कैक तरहें देखलनि अछि आ स्वयं ई उपन्यास एकर अवकाश दैत अछि जे एकरा आरो कैक तरहें देखल जा सकय। मैथिल पंडित लोकनि ठीक ओही बनैला पाड़ा जकां जकर प्रतीक-योजना उपन्यास मे एक ठाम कयल गेलैए, मानैत रहला जे ई सगोत्र सम्बन्धक अनैतिक प्रेमकथा थिक। जयकान्त मिश्रक लेल जतय यैह टा संतोषक बात रहलनि जे घटनावली 'मर्यादाक भीतरे अछि' तं श्रीश एकरे पैघ बात मानलनि जे ई 'अनुचित सीमा पर नहि पहुँचल' अछि। मुदा एकर बादो सुरेन्द्र झा सुमन कें पपारोक चरित्र निर्लज्ज आ वीभत्स लगलनि आ बिरजूक व्यवहार मे सेहो हुनका कालुष्य देखना गेलनि। ओ तँ एहि दुनू कें आर्य मानबा धरि लेल तैयार नहि भेलाह-- 'बूझि पड़ैछ जेना मैथिल युवक-युवतीक कलेवर मे सामाजिक संस्कार सँ सर्वथा अपरिचित कोनहु अनार्य जीव काया मे प्रवेश कयने हो।' एहि सब सँ थाहल जा सकैए जे पं. त्रिलोकनाथ मिश्र पारोक अवतरण कें मां मैथिलीक हत्या कोन आधार पर करार देने हेथिन।

           मिथिलाक समाजशास्त्रीय संदर्भ मे 'पारो' कें देखबाक चेष्टा करैत हेतुकर झा एहि रचना कें 'एहि ठामक सामाजिक ह्रासक विरुद्ध यात्रीक मुखर आक्रोश' कहलनि अछि। हुनकर दृढ़ मान्यता छनि जे मिथिलाक समाज पंजी-व्यवस्थाक बाद ह्रासोन्मुख भ' गेल। एहि सामाजिक ह्रास कें चिन्हबाक लेल ओ तीन गोट पैमाना देखैत छथि आ तकरा सब कें पारो मे मौजूद पाबै छथि। पहिल तँ जे मैथिल समाजक भीतरे-भीतर खंड-प्रखंडीकरण (Involution) भ' गेल, मैथिल ब्राह्मण लोकनि जाति-श्रेणीक आधार पर बँटि गेला, पहिने गौरवक स्थान विद्या कें प्राप्त रहैक आब जातीय श्रेष्ठता कें भ' गेल, एहि तरहें 'पंजी विद्याक मूल्य घटबाक अनुपम साक्षी अछि।' एहि उपन्यासो मे हमसब विद्या-विवेकक स्थान पर जाति-श्रेष्ठता कें वर्चस्व प्राप्त कयने देखैत छी। एकर निर्घिनतम रूप बिकौआ प्रथा थिक, जाहि अंतर्गत उच्च जाति-श्रेणीक ब्राह्मण लोकनि पचास-साठि विवाह करथि, आ एतबे नहि, हुनका लोकनि संग सम्बन्ध बनेबाक लेल समाज मे आतुरता छल। विगत तीन-चारि शताब्दी मे ई परंपरा ततेक जड़िया गेल छल जे ओकरा उखाड़ब कठिन काज छल। 'किछु गोटे अपन आक्रोश व्यक्त करबा मे अवश्य सफल भेला। एहि मे यात्री अग्रगण्य छथि।'

           दोसर जे पैमाना थिक, से लोकक क्षुद्र मनोभाव। अर्थात दूरदृष्टिक प्रति अनादर एवं समाजक वा व्यक्तिक हानिक चिन्ता कयने विना केवल अपन क्षणिक स्वार्थ-पूर्तिक लेल काज करब। ई प्रवृत्ति आइये नहि, अंग्रेजक अयबा सँ पहिनहि सँ मैथिल समाज कें ग्रसने छल, आ जमीन्दारी प्रथा एवं अंग्रजक गुलामीक अवधि मे जेना-जेना पाइ वा धनक कीमत बढ़ल, तेना-तेना समाजक एहि कुसंस्कार मे सेहो वृद्धि होइत गेल। 'पारो' मे पं. फुद्दी चौधरी आ भगिनमान लूच झाक प्रवृत्ति मे एकरा स्पष्टतापूर्वक देखल जा सकैत अछि। एहने एक दलाल 'नवतुरिया' मे मटुकधारी पाठक आयल अछि। पारोक दलाली मे जतय लूच झा कें पन्द्रह टाका, एक जोड़ धोती आ दू मन चाउर भेटल छलनि ओतहि बिसेसरीक दलाली मे पाठक कें पचास टाका सुतरल रहनि। सामाजिक ह्रासक तेसर द्योतक सामाजिक स्तर पर व्यावहारिक असभ्यता (cudeness)। समाज 'बड़का लोक' आ 'छोटका लोक' मे तँ विभाजित रहबे कयल, सब वर्गक स्त्रीगण एकर चपेट मे पड़ल रहली। बात-बात मे गारि, आ अनादरसूचक शब्दक बौछार एकर उदाहरण थिक। 'पारो' मे मामा ठकबा खवास कें कहै छथिन--'दुर बैटचोद, तों की जान' गेलही ई सब।' तहिना चित्रण आयल अछि जे लूच झा अपन दुनू पत्नी(हुनक दू विवाह छलनि) कें कोनो अदना सन बात पर जखन दू-दू डांग मारलखिन तं प्रतिक्रिया मे ओहो दुनू अपन हाक्रोश सँ सौंसे गाम कें मुखरित क' देल। एहना स्थिति मे मिथिलाक नारी लेल दुइये टा रस्ता छलनि-- ओ लूच झाक स्त्री जकां थेत्थर भ' क' समझौता क' लेथि, अथवा पारो जकाँ घुटि-घुटि क' विना समझौता कयने अपन प्राण उत्सर्ग क' देथि। अकारण नहि थिक प्रसिद्ध हिन्दी आलोचक मैनेजर पांडेय लिखलनि जे 'पारो एक मार्मिक उपन्यास से अधिक पुरुषसत्ता की क्रूरता की शिकार एक किशोरी की मृत्यु पर लिखा गया लम्बा शोकगीत है।' तहिना, 'पारो'क हिन्दी अनुवाद जखन प्रकाशित भेल तँ दिनमान मे एकर समीक्षा करैत सर्वेश्वरदयाल सक्सेना लिखने छला जे 'पारो अपनी लड़ाई में अकेली है, और यह लड़ाई--सामाजिक अन्याय की लड़ाई--अन्तत: उसे ही खा जाती है, लेकिन वह मरकर सबसे जीत जाती है और सबसे बदला ले लेती है।'(1976)

             एक उपन्यासकारक रूप मे यात्रीक स्वभाव छलनि, हरिमोहने झा जकाँ, जे अपन एक उपन्यास पूरा करबाक बाद ने मात्र पाठकक आग्रह, अपितु अपनो मनक समाधान लेल एही विषयवस्तुक अगिला चरणक वास्ते नवीन उपन्यासक रचना केलनि अछि। जेना 'कन्यादान'क अगिला चरण 'द्विरागमन' थिक तँ ठीक तहिना 'पारो'क अगिला चरण 'नवतुरिया' थिक। जे स्त्री पारो मे असमर्थनक मारलि एसकर छली, तकर समर्थन मे एतय नवतुरिया लोकनिक विशाल समूह आबि जाइत छैक। पारो तँ हारि गेल छली, मुदा एतय बिसेसरी कें हमसब जितैत देखैत छी। प्राचीन आ नवीन युगक नैतिकताक प्रसंग पछिला अध्याय मे हम म. म. गंगानाथ झाक अभिमत उद्धृत कयने रही। तकर यथार्थ दर्शन हमसब 'नवतुरिया' मे क' सकै छी। यात्रीक दृढ़ विश्वास रहनि जे पुरातन लोकनि मिथिलाक सामाजिक ह्रास कें जाहि तरहें उच्च स्तर धरि बढ़ा देने छथि, तकर काट अपन चेतना आ संघर्ष सँ नबका पीढ़ी अवश्ये निकालत। दोसर बात एक इहो देखबा योग्य अछि जे 'पारो'क रचनाकाल(1946) मे देश गुलाम छल आ सामंती मूल्य बेखौफ राज करैत छला, ओतहि 'नवतुरिया'क रचनाकाल (1954) मे देश आजाद भ' गेल रहय आ भारतीय स्वतंत्रता-संघर्षक आदर्श मिथिला-समाज कें सेहो कोन तरहें अनुप्राणित क' रहल छल, तकर अवलोकन हमसब एहि उपन्यास मे क' सकै छी। आगू जखन यात्री 'बलचनमा', 1954 मे मैथिली मे लिखलनि तँ बहुतो दिन धरि एकर अगिला चरणक उपन्यास लेल सोचैत आ चिन्तित होइत रहला। एकर साक्ष्य हुनकर अनेको इन्टरव्यू मे हमरा लोकनि कें भेटैत अछि। एकर विवरण 'युगों का यात्री' मे देखल जा सकैत अछि। ओ उपन्यास तँ नहि लिखि सकला मुदा तकर अगिला चरणक कथा-विस्तार हमसब हुनकर आगामी हिन्दी उपन्यास सब मे पाबि सकै छी।

           पारो-नवतुरिया पर गप करैत स्त्रीक पीड़ा आ स्त्रीक चेतनाक बीच मौजूद फरक दिस सेहो देखबाक जरूरति छैक। मैथिलियेक नहि अपितु सम्पूर्ण भारतीय भाषा सभक उपन्यासक आरंभ स्त्री-पीड़ाक संग भेल अछि। अर्थात स्त्री-पीड़ा आरंभिक उपन्यास सभक विषय बनल। से नीक जकाँ मैथिली मे सेहो भेल। जेना कि एखने कहल गेल, लिंग वा वर्णक असमानताक आधार पर मनुक्ख-मनुक्ख मे विभेद करब, वा एही आधार पर असभ्यता आ क्रूरताक व्यवहार करब स्वयं अपना मे मनुष्यताक हनन थिक। एहन केनिहार जँ स्वयं मनुष्यता सँ हीन अछि, तँ सामाजिक ह्रासक बदला सामाजिक प्रगतिक उम्मेदे कोना कयल जा सकैए। आधुनिकताक प्रवृत्ति थिक जे वंचित समुदायक प्रति करुणाक भाव राखय। मैथिली उपन्यासक आरभ एही प्रकारक आधुनिकताक संग भेल अछि। मुदा, चेतना एहि सँ भिन्न वस्तु थिक। कोनो पीड़ा तीन चरण मे आगू बढ़ैत चेतनाक रूप धारण करैत अछि। पहिल तँ वस्तु-विषय-व्यवहारक वास्तविक ज्ञान, दोसर ओहि पीड़ाक कारण-तत्वक पहचान। चाही तँ एकरा उत्पीड़कक पहचान कहि सकैत छियैक। तेसर, ओहि परिस्थिति, ओहि पीड़ा सँ बहरेबाक संकल्प। एहि संकल्प कें मजगूत एहि लेल होयब जरूरी जे निर्णयानुसार डेग सेहो आगां उठाओल जा सकय। ई तीनू मिऐत अछि तँ ओकर पहचान हमसब चेतनाक रूप मे करैत छी। 'पारो'क विशेषता थिक जे ई मैथिलीक पहिल उपन्यास थिक जाहि मे स्त्रीक पीड़ा मात्रक नहि, ओकर चेतनाक अभिव्यक्ति भेलैक अछि। किछु आलोचक तँ एहि विशिष्ट चेतनाक लेल 'पारो-चेतना' शब्दक प्रयोग करैत छथि। कमलानन्द झा कहलनि अछि जे 'हम के छी, हमर की आवश्यकता,हमर की पहिचान? पारो कें अपन शोषणक अनुमाने नहि, पूर्वानुमान तक छैक। अपन शोषण आ दमनक। ओ खूब नीक जकाँ बुझैत छली जे एहि परम्पराक पृष्ठभूमि मे पुरुष जातिक हाथ छैक।' कोन विधि खेपब राति/ निट्ठुर पुरुषक जाति/ कोन विधि काटब काल/ हैत हमर की हाल-- ई पारोक अपन जोड़ल पांती सब छलैक जे ओ रामायणक हाशिया पर लिखने छली। मुदा, पारो एसकर पड़ि जाइत अछि। चेतनासंपन्न हेबाक बादो। कारण, जे ओकर सर्वाधिक प्रिय छैक-- बिरजू, सेहो तक ओकर संग नहि दैत अछि। तकरा पाछू मुख्यत: ओकर सांस्कारिक गतिहीनता कारण थिक, जखन कि चेतना स्वभाग होइत छैक गतिशीलता, प्रवाह। ई दुनू उपन्यास साक्ष्य दैत अछि जे जगैत अछि पहिने स्त्रिये, बाद मे ओकर संग नवपीढ़ी दैत छैक, जकर जीवन-चिन्तन मे गति आ प्रवाह छैक। श्रीधरम लिखलनि अछि जे 'नवतुरिया मे आबि क' स्त्री-चेतना विद्रोहक रूप धारण क' लैत छैक। एत' नवतुरिया पुरुषवर्ग सेहो परिवर्तनक आकांक्षी बनि जाइत अछि। एकरा पाछां यात्रीक स्त्री आ सर्वहारा वर्गक प्रति प्रतिबद्धता छनि। पारो मे स्त्रीक नजरि सँ स्त्री-समस्या कें देखल गेल अछि त' नवतुरिया मे स्त्रीक संग पुरुषवर्गक सहयोग भेटैत अछि।' ध्यान देबाक बात थिक जे कमजोर वर्गक प्रि जाहि असभ्यता आ अवमाननाक व्यवहार हमसब 'पारो' मे देखैत छी, 'नवतुरिया'क विद्रोही-दल मे एहि सोल्हकन युवा लोकनि कें सेहो स्त्री-मुक्ति अभियान मे बराबर-बराबर के अभियानी रूप देखाइत छैक। संकेत छै जे जखन चेतनाक प्रवाह बढ़तै, तँ स्वाभाविक रूपें सामाजिक ह्रास के लक्षण सब मे कमी औतैक।

      मुदा, मान' पड़त जे 'पारो' मात्र एकटा उपन्यासे टा नहि, मैथिली साहित्यक अनुपम कलाकृति थिक, जे अनेक तरहें अपन व्याप्ति खोलैत अछि। एखन धरि लिखल गेल उपन्यास सब मे कला-समायोजनक दृष्टियें संभवत: ई सर्वश्रेष्ठ कृति थिक। समाज अध्ययन आ इतिहासक दृष्टि सँ जँ ई अपन व्यापक अर्थच्छवि रखैत अछि तँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि सँ तँ ई मैथिलीक प्रथम आ सर्वाधिक सफल उपन्यास थिक। उपन्यासक मूल मे अछि लिबिडो(यौनभावना)। फ्रायडक सत्यापित कयल छनि जे ई लिविडो ततेक शक्तिशाली होइत अछि जे समाज, संस्कृति, मनुष्यनिर्मित कृत्रिम सम्बन्ध, सब कथूक धज्जी उड़ा देबाक ताकति रखैत अछि। प्रदत्त सम्बन्ध पर एतय स्वनिर्मित सम्बन्ध भारी पड़ैत छैक। ई सब चीज हमसब 'पारो' मे होइत देखैत छी। जे बात पारो अपन माइयो कें नहि, सखियो कें नहि कहि सकैत अछि, से ओ सहज भाव सँ बिरजू लग अभिव्यक्त करैत अछि। तहिना, पारोक साधारणो सन पत्र कें बिरजू तेना गोपनीय बना क' बारंबार पड़ैत अछि, उल्लसित होइत अछि, जे ओकर सांस्कारिक गतिहीनता पर ई दृश्य भारी पड़ैत छैक। प्रो. मनमोहन झा लिखलनि अछि जे 'दुनूक हृदय मे भाइ-बहिनक स्नेह नहि छैक, जुआन हृदयक कोमल ओ सूक्ष्म तरंग छैक। दुनू कें अपन हृदयकतरंगक ज्ञान छै, मुदा सामाजिक निषेधक ज्ञान सेहो चैक। दुनू भीतरे-भीतर सुनगैत रहैत अछि, किन्तु वाह्य प्रकाशक भय सेहो होइत छैक। दुनूक मध्य प्रेमक स्थायी ओ गँहीर भावना निहित अछि जे स्वयं सँ बेसी दोसरक लेल होइत छैक। तिक्त जीवनक विषपान करितहुँ पारो पारो भीतरे-भीतर दग्ध होइत अछिल, घुलैत रहैत अछि, मुदा बिरजू कें जिआब' चाहैत अछि। मन मे एकटा सपना जियौने रखैत अछि जे एहि जन्म मे नहि तँ अगिला जन्म मे ओकर मनोकामना पूर्ण होइक।' ध्यान देबाक बात थिक जे ई उपन्यासकार यात्रीक सीमा नहि छियनि,ओहि युगक स्त्री-चेतनाक सीमा थिक, जे हुनके अगिला उपन्यास सब मे सकनाचूर भेल अछि। एहितरहें हमसब देखैत छी जे पारो एकटा जटिल संवेदनाक कथा थिक, जकरा सोझरायल तरहें अभिव्यक्त क' देब उपन्यासकारक पैघ सफलता छियनि। एतय हमरा इहो लगैत अछि जे जे युवा आलोचक लोकनि एहि उपन्यासक विषय भाइ-बहिनक बीच यौन आकर्षण कें नहि मानैत छथि, हुनका सब सँ बेसी नीक तरहें एहि उपन्यास कें प्राचीन पंडित लोकनि बुझलनि, आ एकरा लेल यात्रीक ढेरी-ढाकी गंजन केलनि। 'पारोक मनोविश्लेषण-पक्ष बहुत समृद्ध अछि। व्यक्ति-मनक सूक्ष्म सँ सूक्ष्म अनुभव कें, अन्तर्द्वन्द्व कें, वाह्यजगतक प्रति प्रतिक्रिया कें, अचेतन स्थित ओझरायल संवेदना कें बहुत मार्मिकता सँ अंकित कयल गेल अछि। पारो आ बिरजूक मध्य नैतिक दम्भक शालीन वस्त्र नहि राखि प्रेमक हल्लुक सन आवरण पहिरौलनि अछि, किन्तु नग्न कत्तहु नहि कयलनि अछि।'(प्रो. मनमोहन झा) मुदा, जीवकान्त एक भिन्न दृष्टि उपस्थापित करैत लिखलनि जे 'पारोक आधार-भूमि ने प्रेमकथा थिक, आ ने इनसेस्ट (सगोत्रीय यौनसम्बन्ध) थिक। 'पारो'क आधार-भूमि थिक नारीक शोषण, नारी-शोषणक विरुद्ध जोर सँ बाजल असहमतिक स्वर।' 

              'पारो' कें मूलत: अनमेल विवाहक कथा गछबाक पक्ष मे सेहो कम तर्क नहि छैक। एकरा इनसेस्ट (सगोत्रीय यौनसम्बन्ध)क कथा सेहो कहल गेल अछि। विद्यानंद झा तँ मानैत छथि जे जँ बूढ़ वरक बदला मे पारोक विवाह कोनो नवजुआन लोकक संग होइतै तैयो पारो-बिरजूक बीचक ई प्रेम समस्याग्रस्ते बनल रहितय। तें यात्री स्वयं एहि तरहक सम्बन्धक कोनो निराकरण नहि देखि सकला। मुदा, चेतनाक प्रश्न अपना ठाम पर अछि। पारो कें हमसब एतय ई प्रश्न उठबैत देखि सकै छियैक जे विवाहक बाद स्त्री कें अपन देह पर कोनो अधिकार रहैत छैक कि नहि। साहित्य मे आब जा क' ई प्रश्न उठान लेलक अछि, एहि सँ हमरा लोकनि यात्रीक पक्षधरता आ दूरदर्शिताक नीक जकाँ अनुमान क' सकै छी। 'पारो' आ 'नवतुरिया'क बीच जे परिदृश्यगत फरक देखैत छियैक तकरा व्यक्तिवाद सँ संगठनबद्धता दिस अग्रसर हेबाक विकास-यात्राक रूप मे देखल जा सकैत अछि। जहाँ धरि पारो मे यात्रीक नियतिवादक प्रशन अछि, कतेक गोटे एकरा हुनक असफलताक रूप मे चिह्नित करैत छथि, मुदा एहू पक्ष मे कम तर्क नहि छैक जे एतय हुनकर नियतिवाद हुनका कमजोर नहि करैत छनि अपितु विश्वसनीय बनबैत छनि। मैथिल समाज धर्म, परंपरा, अन्याय आ अन्धविश्वास सँ ततेक जकड़ल अछि जे एहि नियतिवाद कें मैथिल जीवन-परंपराक विरोध मे स्पष्ट असहमतिक स्वर मानबे उचित थिक।

        चर्चा भ' चुकल अछि जे भारतीय उपन्यासक आरंभ स्त्री आ किसानक पीड़ा कें अभिव्यक्ति प्रदान करैत भेल छल। मैथिली मे स्त्री-पीड़ा टा विषय पकड़ल गेल, जकर केन्द्र मे विवाह-संस्था मे व्याप्त अनीति छल। किसान कें एतय प्रकट हेबा मे चालीस-पचास वर्षक देरी भेल। एकर पर्याप्त साक्ष्य भेटैत अछि जे 'बलचनमा' उपन्यास यात्री मैथिलिये मे पहिने लिखब शुरू कयने रहथि-- 1951-52 मे। किन्तु, जाहि तरहक आर्थिक संकट मे ओ ओहि समय पड़ल छला-- संग मे पाइ नहि आ बीमार बालकक तुरंत आपरेशन करायब अपरिहार्य-- हुनका लग एक्के टा रस्ता रहनि जे जल्दी सँ हिन्दी मे लिखि छपबाबथि जाहि सँ पाइ भेटनि। 1952 मे हिन्दी बलचनमा छपि गेलाक बाद ओ मैथिली बलचनमा पर काज करब शुरू केलनि, जे 1954 मे पूर्ण भेलनि। कैक अर्थ मे यात्रीक ई बहुत महत्वाकांक्षी कृति छल। मैथिली उपन्यास मे पहिल बेर किसानक पीड़ा आ चेतना आबितय, ततबे टा नहि, बालचन तँ बोनिहार मजदूर छला, अर्थात किसानक जे अर्थ-व्याप्ति स्थापित रहै, तकरो बदलबाक रहय। आ ततबे किएक, बटाइदार-भूमिहीन-कमार-मलाह आदि-आदि पेशाक लोक जिनका तकनीकी आधार पर किसानक मान्यता नहि छलै, तकरो सभक एतय सुरता लेल जेबाक छल। ई मार्क्सवादक सैद्धान्तिकी मे एक जबरदस्त दखल होइत। आ, सब सँ तँ पैघ जे एहि उपन्यास कें आत्मकथात्मक शैली मे लिखल जेबाक रहय। बालचन जें कि 'छोटका लोक' छलै जकरा अपन मालिकक भाषा नहि बजबाक अधिकार रहै, ओकर पुरखाक क्रमागत एक भिन्न मैथिली चलि आबि रहल छल, शूद्र मैथिली, यात्री कें अपन उपन्यास ओही भाषा मे लिखबाक रहनि। मैथिलीक जतेक परती एखन धरिक अपन कृति सँ ओ तोड़ि चुकल रहथि, आब हुनका समक्ष यैह एक बचल चुनौती छलनि। तें, एकरा लिखने विना हुनका चैन नहि छलनि। अन्तत: जखन ई उपन्यास हुनका परिकल्पनाक एनमेन मुताबिक कागज पर उतरि अयलै, 15 फरबरी 1955 कें ओ हरिनारायण मिश्र कें लिखलनि: 'हौ हरि, मैथिली बलचनमा हिन्दी बला सं नि:सन्देह सुंदर भ' गेलैक अछि। अनावश्यक विस्तार आ बन्धुरतो एतय नहि छैक। ओकर धड़कन कैक गुना अइ मे बढ़ि गेलैक अछि, की कहियह!'

              जेना कि पहिनहु कहल गेल, 'बलचनमा' यात्रीक किसान-सभाक अपन कार्यानुभव पर आधारित अछि। जकरा हमसब भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम कहै छियै, से अपन आरंभिक दौर मे बाबू-भैयाक राजनीति छल। एहि उपन्यास मे सेहो देखै छिऐक जे कांग्रेस पर बाबू-भैयाक वर्चस्व छैक। जखन एहि संग्राम मे किसान-मजदूरक प्रवेश भेल, तखनहि जा क' ई गाम-गाम मे पसरल आ संपूर्ण भारत एहि संग अपना कें ठाढ़ क' लेलक। बिहार किसान सभाक स्थापना 1931 मे भेल छल आ एकर पहिल अधिवेशन 1933 मे मधुबनी मे भेल। एहि तरहें मिथिला शुरुहे सँ एकरा संग जुड़ल रहल। यात्री जखन 1938 मे किसान सभाक राजनीति मे सक्रिय भेला, पहिने तँ राहुल सांकृत्यायनक संग अमवारी किसान आन्दोलन मे, ओतय गिरफ्तार भेला पर सीवान जेल, पश्चात स्वामी सहजानंद हुनका चंपारण मे संगठन आ विस्तार लेल पठौलकनि। अमवारी आन्दोलन मे किसान आ जमीन्दारक बीच लड़ाइ कुसियारक एक खेत लेल भेल छल। बलचनमा मे जे संघर्ष भेल छैक, ओकरो कारण कुसियारक एक खेत थिक। जमीन्दारक लठैत अमवारी मे राहुल जीक कपाड़ फोड़ि देने रहनि। महपुरा मे से घटना बलचनमाक संग होइत अछि। स्वामी सहजानंद अपन आत्मकथा मे चंपारणक एक घटनाक उल्लेख कयने छथि, जे यथावत रूप मे बलचनमा मे आयल अछि। जखन स्वामी जीक मीटिंगक लेल 400 किसानक संग स्थल पर पहुँचला तँ जमीन्दार अपन लठैत ठाढ़ क' देलक जे अपना जमीन पर हम मीटिंग नहि करय देब। जमीन्दारक दबौट पर किसान सब तँ चुप्पी लदने रहल, मुदा नूर मोहम्मद नामक एक किसान, जकर खेत मे केराव लागल रहै, अपन फसिल उखाड़ि जमीन तैयार केलक, ओतहि मीटिंग भेल। स्वामी जी अपन आत्मकथा मे लिखने छथि-- 'सभी के साथ मैं उस खेत पर गया और उसकी मिट्टी सिर पर लगाकर कहा कि किसान सभा के इतिहास मे यह खेत और यह मुसलमान जवान अमर रहेंगे। ऐसे लोग ही इसकी जड़ दृढ़ करेंगे।' ई मूल घटना भितिहरबा के थिक, जकरा बलचनमा मे महपुरा मे होइत देखाओल गेल अछि आ नूर मोहम्मद एहि ठाम लतीफ बनि गेला अछि। उपन्यास मे लतीफक खेत मे मड़ुआ लागल छलै।

           एहन दबौटक कारण की छल? 'बलचनमा' मे हमसब देखै छी जे जमीन्दार आ किसानक संघर्ष जखन सामने आयल, जमीन्दारक लठैत-गुंडा नारा लगबैत अछि-- महत्मा गांधी की जय, भारत माता की जय। किसान सभक नारा छै-- कमाय बला खाएत/ एकरा चलते जे किछु होइ। जमीन ककर/ जोतय-बोअय तकर, अंग्रेजीराज नाश हो, जमीन्दारी प्रथा नाश हो। आदि-आदि। एकर की मतलब? की महात्मा गांधी आ भारतमाता जमीन्दारक समर्थन मे छल? निश्चिते। ई बात बलचनमा मे कतेको जगह पर आयल छैक। जखन किसान सभाक मूवमेन्ट सत्याग्रहक कठिन हठ ठानै छल, तँ हमसब देखै छी जे 'गाँधी जीक चेला'कांग्रेसी लोकनि उपवास तोड़ेबाक छल-छद्म करय लगैत छल आ कोनहुना तोड़बाइए दैत छल। गांधीजी सँ सहजानंद के मोहभंग दरभंगाक जमीन्दारे ल' क' भेल छलनि। ई सब भयंकर शोषण करै छलखिन किसानक, 88% तक उपजा कोनो-ने-कोनो बहन्नें जमीन्दारे हड़पि लैक, एहन अनीति समुच्चा भारत मे कतहु अन्यत्र नहि छल। सहजानंद जमीन्दारक विरुद्ध सीधा कार्रवाई चाहै छला, जखन कि गाँधीजी जमीन्दार कें आंच नहि आब' देबाक हिमायती रहथि। उपन्यास मे एकठाम बलचनमा कांग्रेस आ सोशलिस्टक विचारधारा कें फरिछबैत गांधीजीक बारे मे कहैत अछि-- 'अंग्रेजराज ने कांग्रेसे चाहै अछि आ ने सोसलिस्टे। मुदा गांधी महतमा कल-कारखानाक विरुद्ध छथि। ओ एकरो खिलाफ छथि जे सेठ जमीन्दार, राजा महराजा सँ जमीन-जायदाद, धन-संपत्ति छिन क' आन लोक मे बांटि देल जाय।' तें, ई वाजिब नारा छल। जमीनी हालात ठीक एहने रहैक। तें, सहजानंदक संघर्ष बहुगुणित छलनि-- अंग्रेज, कांग्रेस, जमीन्दार, प्रशासन-- सब खिलाफ। तें, जाहि चेतनाशील बालचन कें हमसब पहिने कांग्रेस मे जाइत देखै छियै, वैह मोहभंगक बाद सोशलिस्ट पुन: किसान सभाइ कम्युनिस्ट बनि जाइत अछि। मोन रखबाक चाही जे नक्सल नाम पर जाहि सशस्त्र किसानसंघर्ष कें हमसब आगू जारी होइत देखैत छी, तकर आदिम पुरखा सहजानंद, यात्रीक राजनीतिक गुरु, छला। 'बलचनमा' कें आखिर मे हमसब लगभग हारैत देखैत छियैक। यात्रीक वामपंथी प्रतिबद्धताक हिसाब सँ देखी तँ ओकरा हारबाक नहि छलै। मुदा, एक तँ वास्तविक यथार्थ एकर अनुमति नहि दैत छल, दोसर कलात्मक संयम सेहो एकरा पक्ष मे नहि रहैक जे बलचनमा सन-सन अबल-दुबल किसान-मोर्चा जीति जाइतैक।

बोनिहार-किसानक असल दुश्मन छल जमीन्दार, रक्तबीजक संतान जकाँ जकर अमला-फैला चहुँदिस पसरल छल, महपुरा इलाकाक जमीन्दारक ताकति के बारे मे बलचनमा एकठाम बतबैत अछि-- 'ओहि जालिम जमीन्दारक मोकाबला असगरे तँ कियो क' नहि सकै छलै। ओकरा पीठ पर थानाक दरोगा साहेब छलखिन, दरभंगाक कलक्टर साहेब छलखिन, इलाका भरि के जमीन्दार, पंडित आ मौलवी सब-- खान बहादुरक पच्छ मे छलखिन। पच्छिमक दस लठैत जवान, नेपालक पांच खुखरी बहादुर...'

                अमवारी मे जेना घटना घटल रहैक, जमीन्दार किसानक जमीन हड़पि लेने छल। खेत मे कुसियारक फसल लागल। जमीन्दारक दिस सँ हाकिम-हुकुम, पुलिस-दरोगा सब हाजिर। गुंडा-लठैत सब तत्पर। मुदा, किसान मे जोरदार प्रतिरोध जे हक ल' क' रहब। नेता छला राहुल सांकृत्ययन आ भिक्षु नागार्जुन। दू हजारक करीब किसान खेत लग मे डेरा डालने। राहुल जीक कपार फोड़ि देने रहनि, मने लक्ष्य जान मारबाक रहै। सामंतवादी-साम्राज्यवादी गठजोड़क यैह तरीका छलै। एकजुट जँ किसान हुअय लागय तँ नेताक जान मारि दियौ, भय सँ किसान फील्ड छोड़ि देत। 'बलचनमा' मे नेताक रूप मे पांच व्यक्ति कें चिह्नित कयल जाइत अछि-- बालचन, अब्दुल, रामखेलावन, बम्भोल आ बच्चू। दुनू ठाम हमसब देखै छियै जे किसान संग इंसाफ करबा लेल, कोनो समझौता करबा लेल ने जमीन्दार तैयार अछि ने प्रशासन। यैह अंग्रेजी राजक तरीका रहैक जे आइयो लागू छैक। अमवारी मे नेता पर हमला कयलाक बाद हुनका सब कें जेल ढुकाओल गेलनि, मुदा ताहि सँ आन्दोलन खतम नहि भेल। स्वामी सहजानंद एहि उपन्यासक सेहो एक पात्र छथि। ओ किसान सब कें संबोधित करैत कहै छथिन-- 'बाहरी लीडर के भरोसे नहि रहू, अपन नेता अपने बनू। जे अहाँक आदमी हैत वैह अहाँक तकलीफ कें बूझत। अहाँ सब किछु उपजबै छी तँ अपन लीडर सेहो अपने ओइठाम पैदा करू।' ई बात किसान सभक मोन मे बैसि गेल रहैक। सन् चौंतीस के भूकम्प मे ओ सब काँग्रेसी नेताक बैमान नेत कें नीक जकाँ चीन्हि गेल रहय। आगू जखन किसान आन्दोलन शुरू भेलै तँ तखनहु किसान कें ई बुझबा मे भांगठ नहि रहलैक जे कांग्रेसी सब किसानक नहि, जमीन्दारक हितचिन्तक थिका। तें, अपना बीच सँ नेता पैदा क' क' लड़ाइ कें अनवरत जारी रखलक आ जीति सकल। कोनहु कालखंडक घटना कें जखन इतिहासक बदला उपन्यास मे व्यक्त कयल जाइत छैक तँ ओहि औपन्यासिक यथार्थक मतलब ने केवल ओहि खास घटना, अपितु ओहि समस्त कालखंडक परिणति आ इंगित कें अभिव्यक्त करबाक बेगरता रहै छै। से नीक जकाँ भ' सकय तखनहि बात बनैत अछि। 'बलचनमा' मे हमसब देखैत छी जे बालचन पर जमीन्दारक गुंडा सब जानलेवा हमला करै छै। लड़ाइ ओही कुसियारक खेतक छियै। अमवारी राहुलजी वा भिक्षु नागार्जुनक अपन गाम नहि छलनि। महपुरा सेहो बालचनक अपन गाम नहि छियै। दस के लड़ाइ ई लोकनि लड़ि रहल छला। तँ, उपन्यास मे होइत ई छै जे गुंडा सभक जानलेवा हमला मे बाचन बेहोश भ' जाइत अछि, आ ठीक एत्तहि उपन्यास समाप्त भ' जाइत अछि। बालचन मुइल नहि, ओकरा सन जनता कहियो मरि नहि सकैए, से यात्री कहैत छला आ उपन्यासो ई बात अपन अन्विति मे कहिते अछि। तखन, एत्तहि उपन्यास समाप्त हेबाक पाछू निहितार्थ ई छै जे किसान सभा सन संगठन एक नितान्त जरूरी काज कें हाथ मे लेलक, जनता कें जगेलक, संगठित केलक; मुदा ई जनता जे कि वास्तव मे अस्सल भारत छल, के हाथ मे स्वाधीनता संग्रामक नेतृत्व नहि आबि सकल। ओकर लड़ाइ मुख्यधाराक लड़ाइ नहि बनि सकलैक। सन् छत्तीस मे कांग्रेस अपन घोषणापत्र मे जमीन्दारी उन्मूलन कें शामिल कयने छल। एकर चर्चा 'बलचनमा' मे सेहो एलैए, एकरे भयवश जमीन्दार सब किसान कें बेदखल करब शुरू कयने छल। जे हमसब अमवारी वा भितिहरबा मे देखै छी, ठीक वैह चीज महपुरो मे देखै छी। बाद मे कांग्रेस पर जखन जमीन्दार लोकनि अपन दबौट कायम केलनि तँ कांग्रेस, सन् सैंतीस मे सरकार बनेलाक बादो, अपन एहि घोषणा सँ मुकरि गेल। महपुरा मे जखन ई संघर्ष भेल रहैक, कांग्रेसेक शासन छल। गाम-गाम मे लोक किसान सभाक मेम्बर बनय। दस मेम्बर तँ बालचन अपने बनौने छल। ताहि पर सँ जनसमर्थन एहन जे सदस्यताक लेल एक आना पाइ दैत, कुन्ती मसोमात बालचन कें कहने छलै-- 'बालो, देवताक प्रसादक हेत ई एक चुटकी भरि चिक्कस हमरो गरीबिन के!'

              जमीन्दारक गुंडा सब कें जखन हमसब 'महतमा गांधी की जय' के नारा लगबैत देखैत छियै तँ एकर असली अभिप्राय कें बुझबाक चाही। उपन्यास मे एलैए जे गुंडा सब हो-हल्ला मचा क' स्वामी जीक सभा कें भंग करबाक कोशिश केलक, तँ किसान लोकनि ओकरा सब कें डांटि-डपटि क' चुप करा देलक। किसान सभक एहन जुझारूपन रहैक जे गुंडा सब कें विफल हुअय पड़लैक, मने से। इहो मोन रखबाक चाही जे ओ गुंडा सब 'भारतमाता की जय' के सेहो नारा लगबैत छल, जकरा एखनो सुनल जा सकैए। स्वतंत्रताक बाद, जमीन्दारी उन्मूलन अवश्य भेल, मुदा भूमिसुधारक जे कानून लागू हेबाक छलै से आइयो लटकले अछि। राहुलजी लिखलनि अछि जे के अभागल हैत जे अपन हाथक कुड़हरि अपने पैर पर मारत। उपन्यास मे बलचनमा एकठाम कहैत अछि-- 'कांग्रेसक बारे मे सोच' लगलहुँ जे स्वराज भेलाक बाद बाबू-भैया सब अपना मे दही-माछ बँटताह, जे सब एखन मालिक बनल छथि सैह सब ने भितरिया माल उड़ौता। हमरा सभक हिस्सा मे तँ सिट्ठी पड़तै।'

                     'बलचनमा' मे जे मिथिला-समाज आयल छैक, से 'पारो' आ 'नवतुरिया' मे आयल समाज सँ सर्वथा भिन्न छै। ई मिथिला-समाजक एक एहन अंश थिक जे एतेक खुसफैल सँ मैथिली साहित्य मे कहियो नहि आयल छल। पं. गोविन्द झाक लिखल एक बात एतय हमरा मोन पड़ैत अछि। ओ कहने छथि जे मिथिला-समाज जकरा हमसब कहैत छिऐक से कोनो एकटा समाज नहि थिक, दूटा अलग-अलग समाज, जे मानू दू अलग-अलग ग्रह पर बसल हो, एक दोसरक हाल-सुरता सँ सर्वथा बेखबर। एहि मे सँ एक जँ अभिजात समाज थिक तँ दोसर अनभिजातक श्रमशील समाज, जकर रहन-सहन, आचार-विचार, नीति-धर्म बिलकुल अलग अछि। रोचक हैत ई देखब जे एहि समाजक विषय मे यात्री एतय की सब टिपलनि अछि।

                बलचनमा जाहि छोटका लोकक समाज सँ अबैत अछि, ओकरा लेल आदर्श जीवनक परिकल्पना की छैक देखल जाय-- 'झूठ किए कहू भैया! समांग नीकें रहय, काम-काज भेटैत रहय, परिवार छोट रहय, नीयत खराब नहि हो, मोन मे दस-बीस लेल जगह होइ, आओर की चाहिऐक?' प्रश्न अछि जे बड़का लोकक धिया-पिता एहि तरहें मनुक्ख किएक नहि बनि पबैत अछि? एक ठाम बालचन अपन तप्पत अनुभवक बात बतबैए जे एहि धिया-पुता सभक लेल मनुक्ख बनब किएक कठिन बनल रहै छै-- 'बड़का घरक धिया-पुता सब तुनकाह तँ होइते छै। घमंड, फरेब आ झूठ-- ई बड़ सहजता सँ हुनका सभक अंदर पैसि जाइ छनि। मचलनाइ, रुसनाइ, बिधुकनाइ, रंज भेनाइ-- ई सब तँ माइये-बाप सिखबै छथिन। बढ़ियां जँ किछु सिखैत छथि, ओइ मे बेसी हिस्सा नोकर-चाकर आ गरीब पड़ोसी सभक देल रहै छै।' एहि छोटका लोकक जे इमान-धरम होइ छै, खिस्सा आयल अछि जे किसानी एकता कें तोड़बाक लेल बाबू-भैया लोकनि मुसहर सब के नाम छोटका सभक जमीन लिखि देबाक प्रलोभन दैत छथि, तँ 'मुसहरक मुखिया (माइनजन) साफ कहलकनि-- नहि सरकार, दोसरक पेट काटि क' देब तँ नहि दिअ'। हँ, अपना खेत मे सँ देब' चाहै छी त ठीक छै।' दोसर दिस, नब्बे बीघा बला खेत जकर लड़ाइ उपन्यासक अंतभाग मे आयल छै, ओकर इतिहास बतबैत एकठाम बालचन कहैत अछि-- 'गामक पच्छिम, एकदम करीब, खेतक एकटा बढ़ियां टुकड़ा छलै नब्बे बीघा के। एहि जमीन मे सब किछु उपजै छलै। धन्, मड़ुआ, सरिसो, कुसियारो, तिसियो, राहड़ियो, जौ-गहूम सेहो, उड़ीद सेहो, कुरथी सेहो। ई जमीन तीसेक मुसलमान, गुआर आ मलाह सभक अधिकार मे रहै। मुदा (पछिला सर्वे मे) चलाकी सँ मालिकक परददा एकरा अपना नामें चढ़बा लेलखिन।' मुसहर लोकनि कें एही जमीन मे सँ देबाक प्रलोभन छलै।

              सन् चौंतीस के भूकंपक बाद जे रिलीफक पाइ बांटल गेल, ओहि मे कांग्रेसी बाबू-भैया लोकनि छुटि क' लूट मचौलनि। तकर पूरा विवरण उपन्यास मे आयल छैक। जुगल कामति के विधवा चुन्नी ओहि पर अपन प्रतिक्रिया दैत कहैत अछि-- 'ई सब जुलुम करै छथि बेटा। दैत छथि दू आ कागत पर चढ़बै छथिन दस। ईमान-धरम हिनका सब के डूबि गेलैन। पता लगबिहै बेटा, हमरा नाम कै रुपैया चढ़ल अछि।' ओकरा मात्र तीन टका भेटल रहैक। एहि बड़का लोकक समाज मे छोटका लोकक प्रति जे विभेद, अन्याय आ नृशंसता बरतल जाइत अछि, तकर विवरण सँ तँ ई उपन्यास भरल अछि। खाइ लेल अइंठ-कूठि देल जाइत छैक, मुदा बेसी खेला पर तखनहु दुर्वचन कहल जाइत छैक। मुदा, छोटका लोकक सोचब दोसर तरहक होइत अछि। बालचन जखन दुरागमन करा क' घुरि रहल अछि, कहारक महफा पर कनियां बैसलि छथि। बालचन कें बीड़ी पीबाक लत छै। ओहि कहार मे सँ सेहो किछु गोटे बीड़ी पिबैत छथि, से जखन-जखन बालचन अपने पिबैए, ओकरो पियाबैत अछि। एहि प्रसंग कें अपन दोस कें सुनबैत ओ कहैत अछि-- 'बिलकुल स्वार्थ सेहो कोन काजक भैया? सस्ता-महग आ खुसफैल-तंगी तँ जिनगी भरि चलतै। जीवन छै संग्राम बन्दे,जीवन छै संग्राम। सुनने छी कहियो?' सोशलिस्ट राधा बाबू जखन बालचन कें पढ़ब-लिखब सिखबैत छथि, हुनकर पत्नी कें से सख्त नापसंद। हुनकर साफ कहब छनि-- 'असल त मुसीबत छै जे नोकर-चाकर पढ़ि-लिखि क' अहांक हंडी माज' बैसत? तखन एकरा ओढ़ेला लिखेला सँ फैदा?' एक बेर राधा बाबूक सारि एली तँ हुनकर कहब तँ भिन्ने रहनि-- 'नोकर-चाकर जते नासमझ रहय, ततेक बढ़ियां रहत भौजी! हमर अजिया ससुरक कहब छलनि कि जे छोट जाति बला कें एको आखरक ज्ञान दै छथिन त हुनकर अपने तेज घटै छनि, आ जे शूद्र कें समुच्चा पोथी पढ़बै छथिन हुनकर पितर सब स्वर्ग छोड़ि नरक मेरहक हेतु लचार भ' जाइ छथिन।' छोटका लोक मे शिक्षाक अभाव किएक छैक, बूझल जा सकैत अछि। मुदा, बालचनक विचार बिलकुल स्पष्ट अछि। सभक लेल ओ शिक्षाक पैरोकार तँ अछिये, बाबुओ भैया लोकनि जे स्त्री-शिक्षाक महत्व नहि बूझि रहल छला, तकरा बारे मे ओकर कहब अछि-- 'जहन कन्यो सब लड़के जकाँ पढ़ल-लिखल होअ' लगतै तखने अइ देसक उद्धार हेतै।'

           विना श्रम कयने खायब, आ श्रम क' क' खायब-- यैह तात्विक भिन्नता छलै जे मिथिला कें दू भाग मे बँटैत छल। बलचनमा कर्मठ अछि। ओ अपना बारे मे बतबैत अछि-- 'हमरा द' ई सोरहा छलै जे बलचनमा खूब मन सँ काज करैत अछि। एक जनक सवा जन अछि ओ। कते लोक उपराग दीत, गदहा अछि, अकिलक छूति नइ छै। ओइ जन्म मे तेलीक बड़द छल हैत। अच्छा भाइ, हम बड़द रही, गदहा रही, तोरा जकाँ बैमान तँ नै छी। असल बात ई छै भैया, जाइ तरहे हम अपन काज करै छलहुँ तहिना दोसरक।' अपन आ आन के जे ई फरक छैक, सैह सब अनीतिक जड़ि थिक, निहितार्थ से। स्त्री-श्रमक विषय मे अभिजात वर्गक जे दृष्टिकोण छैक, 'हुनका ओइठाम स्त्रीगण बेकाज बैसल रहैत छै। जतेक पैघ खनदान हेतै तते बेसी बेकाज पेबहक। हमर स्त्रीगण सब मेहनत मजदूरीक दाना खाइत अछि। की हम फूसि कहै छी भैया?'

           यात्रीक उपन्यास सभक विशेषता छैक जे ओकर विषयवस्तु भने जे होइक, ओकरा भीतर सँ यात्रीक स्वप्नक समाज झलकैत छैक। से हिन्दी उपन्यासक संग छैक तँ एनमेन मैथिली उपन्यासक संग सेहो छैक। सब सँ साफ, सब सँ फड़िच्छ जकर समाज लगैत छैक से ई 'बलचनमा' थिक। जाति मे बँटल मिथिलाक कथा भने ई कहैत हो, मुदा यात्रीक स्वप्न छनि जातिमुक्त समाज। एहि लेल तँ सब सँ पहिने छोट-पैघक जे निर्धारक जाति कें सनातन सँ बनाओल गेल छैक तकरा बदलबाक हेतै। यात्रीक एहि उपन्यास मे एकरा हमसब बदलल देखैत छी। बालचन जे कोनो शिकाइत एहि ठाम केलक अछि, मोन रखबाक चाही से ओ विरोधक लहजा मे केलक अछि। अपने स्वयं कतहु ककरो सँ एहि आधार पर विभेद करैत नहि देखैत छिऐक। जाहि कुल सँ ओ अबैत अछि ओहि मे ई विभेद नहि कयल जाइत हो सेहो नहि। ओकरे अपन मामा कें ई विभेद करैत हमसब देखैत छिऐक। तहिना, ओ बहिया बनि क' मालिकक घर मे रहल, नोकर बनि क' फूलबाबूक संग रहल, वोलंटियर बनि क' राधाबाबूक संग रहल, सगरो सँ जे ओ निराश भेल तकर कारण चेतनाक विकसित होइत जायब आ हुनका लोकनिक सीमाक ज्ञान छल, ने कि ओकर अपन मनक मालिन्य। अंत मे ओ किसान सभाक कामरेड भेल तँ एहि दुआरे जे ओकरा स्वप्न आ सेहन्ताक जे समाज छल, तकर स्पर्श ओकरा एतहि भेटलैक। कहब जरूरी नहि जे ई यात्रीक स्वप्नक संसार रहैक आ बलचनमाक माध्यमें यात्री तँ सेहो अपन अनुभवेक आख्यान क' रहल छला। 

               मालिक लोकनिक जे अन्याय आ शोषण रहैक तकर शिकार केवल छोटके लोक नहि, बड़को लोक भ' रहल छला। तकर एक जीवन्त चरित्र फूदन मिसर आ हुनक विधवाक रूप मे एहि उपन्यास मे तेना गाढ़ भ' क' आयल अछि जे स्मृति-पटल पर बनल रहि जाइत अछि। चौंतीसक भूकंपक खरांत मे जे कांग्रेसी नेता सब निर्भय लूट मचौने छला तकरो शिकार केवल छोटके नहि भेल छला, आ ने जमीन्दारक बकाश्त आ बेदखलीक शिकारे केवल छोटका भेल छल। असल कारण छल गरीबी। केहन नृशंसताक बात थिक जे शोषण जहिया कहियो कयल गेलै, गरीबेक कयल गेलै। बड़का जँ हिन्दू होथि तँ राजाबहादुर आ मुसलमान होथि तँ खानबहादुर, विभेदक आधार ने धर्म रहैक ने जाति। एतय हमसब देखैत छी जे किसान सभाक जमीनी कार्रवाई मे जे सब कामरेड अपन जान-प्राण अड़पि देने छै, ओहि मे अछि-- बच्चू, बम्भोल झा, रामखेलावन, अब्दुल आ बालचन। गाम-गाम मे जे ई जमीनी संघर्ष भ' रहल छलै, एकर समाचार ने तँ कांग्रेसक अखबार मे छपै छलै ने सेठ-जमीन्दारक अखबार मे। स्वाभाविक जे एहि सब समाचारक लेल मिथिलामिहिर, आर्यावर्त वा इंडियन नेशन मे कोनो जगह नहि रहैक। पार्टी अपन साप्ताहिक अखबार 'क्रान्त' निकालै छल जे वृहस्पति कें एहि गाम अबैक। ओहि अखबार मे एहि गामक संघर्षक समाचार कतेको बेर छपि चुकल छल। एहि अखबारक समाचार सब कें सुनबाक लेल जे सब लोक बेकल भेल रहथि, क्रान्तिकारिये छला ओहो सब प्रकारान्तर सँ, से सब छला-- तारानन्द बाबू, बम्भोल झा, रामखेलावन, तीरी अमात, कपिलेसर मरर आदि। अपन पाइ खर्च क' क' 'पांती पांती सँ असंतोषक चिनगारी निकालैबला' ई अखबार जे जुवक मंगबैत छल, से छल बच्चू। समाज कोनो स्वप्ने टा मे थोड़े रहैक, ओ तँ आंखिक आगू जीवित सांस ल' रहल छल। किसान सभाक रसीद जे एहि गाम मे अनने छल, से बच्चुए रहय। आ से ककरा सँ? रहमान साहेब सँ। जमीन्दार छला खानबहादुर सदुल्ला खां, तकर विरोध मे क्रान्तिकारी सभक संगोर मे लागल छला डाक्टर रहमान, दुन्नू मुसलमाने।

              एकर अगिला प्रक्रम छैक-- जातिक बदला मे वर्गक आधार पर सम्बन्ध आ सहयोग। फूदन मिसरक ऊपर चर्चा भेल अछि। गरीब ब्राह्मण फूदनक जखन बान्हल बड़द मरि गेलनि, गामक पंडित बड़ मुश्किल सँ हुनका लेल पतिया लिखलनि आ ताहि लेल पचास टाका निर्दयतापूर्वक वसूल केलनि, जखन कि दू टाकाक तहिया एक मन धान वा गहूम होइत रहैक। फूदनक हाथ बिलकुल खाली। अपना जातिक भीतर क्यो मददगार नहि। तखन बलचनमाक बाप लालचन हुनकर मदति कयने रहनि, सौ टाका द' क'। एहि उपकार लेल फूदन सब दिन कृतज्ञ बनल रहला। एतय धरि जे फूदनक देहान्तक बाद मिसराइन सेहो। हुनके खेत पाबि क' बालचन बटाइ के खेती शुरू कयने छल, हुनके मरणोन्मुख बड़द पाबि क' बालचन बड़दबला भेल छल। एक तँ मालिकक घराना, ब्राह्मण होइतो, ओही प्रकारक छल-छद्म, ओही कोटिक शोषण फूदनोक करैत रहला जेना बलचनमाक। दोसर, कठिन समय एला पर बालचन आ मिसराइन एक-दोसरक सुहृद सहयोगी बनल रहल। जखन बालचन सोराज आश्रम मे रहैत अछि, ओतुक्का भनसिया एक ब्राह्मण थिका, मुदा सर्वाधिक विपन्न वैह। स्वराजक बात उठला पर बालचनक मोन मे यैह बात अबैत छैक जे स्वराज एला पर की एहि गरीब ब्राह्मणक दिन घुरतैक, मानू एही विषय कें ओ स्वराज नपबाक कसौटी बना लेने हो। तहिना, अपन बहिनक संग मालिक द्वारा बलात्कारक प्रयास केलाक बाद जखन बालचनक परिवार रेबनी कें ड्योढ़ी पठेबाक लेल नहि तैयार भेल तँ मालिक उनटे बलचनमे पर केस-फौदारी करबा देलखिन। लचार बालचन फूलबाबू लग पहुँचल जिनकर ओ घरेलू नोकर रहि चुकल छल, आ आब जे कांग्रसक एक पैघ नेता छला। मुदा, नहि। वर्गस्वार्थ बीच मे आबि गेल। बलात्कारक प्रयास आ जाली मोकदमा कें फूलबाबू जखन 'बहिया-महतो के आपसी लड़ाइ' करार देलखिन आ किछुओ मदति करबा सँ इनकार क' देलखिन तँ बालचन कें लगैत छैक-- 'सोराजी भ' गेल छला तें की, छला तँ आखिर बाबुए-भैया ने!' आ ओ निर्णय करैत अछि जे 'जेना अंगरेज बहादुर सँ सोराज लेबाक हेतु बाबू-भैया लोकनि एक भ' रहल छथि, हल्ला-गुल्ला आ झगड़ा-झंझट मचा रहल छथि, ओहिना जन-बनिहार, कुली-मजदूर आ बहिया-खबास कें अपना हकक लेल बाबू-भैया सँ लड़' पड़तैक।' तात्पर्य जे वर्गहित सब सँ पैघ सम्बन्ध-सेतु होइत छैक, जकरा कारणें एक्के जाति-धर्मक दू अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग वर्गक भ' सकैत छथि। जाति वा धर्म विभाजन आधार नहि, संपन्नता आ विपन्नता एहि वर्गविभाजनक आधार बनि क' आयल अछि।

        धर्मक विषय मे सेहो यात्री ठाम-ठाम पर प्रसंग उपस्थित करैत रहैत छथि जे धर्म असल मे गरीबक शोषणक सब सँ पैघ आधार थिक, आ धर्म अपन मूल मे सामंतवादक सहयोगी होइत अछि। पंडित आ पुरहित जी तँ उपन्यास मे आयले छथि जिनकर सीधा सिद्धान्त छनि जे 'राड़ं एड़ं पवित्रम्', मुदा सिद्धजी आदि सेहो आयल छथि जे नाना प्रकार सँ शोषण आ व्यभिचार करैत छथि।  हमसब देखैत छी जे संपन्न वर्गक अंतर्गत जतय उपनिवेशवादी प्रसासक, जमीन्दार आ धर्माचार्य अबैत छथि तँ विपन्न वर्ग मे मध्यवर्गीय  आ सीमान्त कृषक, भूमिहीन खेत-मजदूर, बटाइदार, काश्तकार, बढ़इ-मलाह आदि अबैत अछि। एहि लोकक शोषण केवल आर्थिके टा नहि, शारीरिक-धार्मिक-बौद्धिक, सब तरह सँ कयल जाइत अछि। यात्री एहि कूटयांत्रिकी कें एतय नीक जकां देखार कयने छथि।


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