Saturday, October 28, 2023

यात्रीक उपन्यासेतर गद्य-लेखन

            



            तारानंद वियोगी

 मिथिला मे अनेक भाषा एवं अनेक विधा मे लेखन केनिहार रचनाकारक परंपरा बहुत पहिनहि सँ रहल अछि।  एकर प्रत्यक्ष उदाहरण विद्यापति छथि जे अनेक भाषा एवं अनेक विधा मे लेखन केलनि। यात्री स्थायी रूप सँ कहियो कोनो नोकरी नहि केलनि आ ने कोनो आन व्यवसाये। हुनकर एकमात्र जे जीविका रहलनि से लेखन। मैथिली टा मे लिखला सँ जीविकाक समस्या नहि हल होइत, अत: ओ हिन्दी मे लिखलनि। हिन्दियो मे केवल कविता-लेखन सँ कोनो सुनिश्चित आय संभव नहि छलनि, तें प्राथमिकतापूर्वक गद्य लिखलनि। आर्थिक उपार्जन जें कि पत्र-पत्रिका मे नियमित लेखन कयनहि सँ संभव होइत छैक तें पत्र-पत्रिकाक मांगक अनुरूप लेखन जरूरी होइत छैक। यात्री लग मे एहन सोधल गद्य-भाषा रहनि जे ओ भने कोनहु विधा मे लिखथु, पाठक ओकरा रुचि सँ पढ़ैत छल। तें हमसब देखैत छी जे यात्री निबन्ध, संस्मरण, यात्रावृत्त, जीवनी, बालसाहित्य, स्थायी स्तम्भ, कथा, आख्यान आदि अनेक विधा मे लेखन केलनि। पाठ्यपुस्तकक लेल ओ खंडकाव्य सेहो लिखलनि आ प्रकाशक सभक अनुरोध पर विभिन्न भारतीय भाषा, संस्कृत, बंगला, गुजराती आदि सँ उपन्यास सभक अनुवाद सेहो केलनि। हुनकर ई सब लेखन मुख्यत: हिन्दी मे छनि। मुदा कथा, निबन्ध, संस्मरण आ स्थायी स्तम्भक किछु सामग्री ओ मैथिली पत्र-पत्रिका लेल सेहो समय-समय पर लिखलनि। ई सब सामग्री संख्या मे भने अल्प हुअय मुदा स्तर, प्रभाव आ संवेदनक्षमता मे बराबर महत्वपूर्ण अछि।

             यात्रीक जे पहिल निबन्ध मैथिली मे भेटैत अछि से थिक-- 1938 मे 'विभूति' मे छपल 'मैथिल महासभा: मैथिलत्वक मानदंड'। स्मरण रखबाक चाही जे 1938 ओ कालखंड छल जहिया यात्री बौद्धभिक्षु नागार्जुनक संन्यासी बाना मे भूमिगत रहि क' किसान सभाक क्रान्तिकारी राजनीति मे लागल छला। ओहि समयक लिखल मैथिली की, हिन्दियो रचना उपलब्ध नहि होइत अछि। जखन कि हमसब पबैत छी, 1938 मे एहि लेखक अतिरिक्त हुनकर आनो अनेक कविता मैथिली पत्र-पत्रिका मे प्रकाशित भेल। एकर रहस्योद्घाटन काञ्चीनाथ झा किरण अपन एक लेख मे कयने छथि। भेल ई छलैक जे सन् 1932-34 मे जखन यात्री मैथिली लेखन मे बेस सक्रिय रहथि, हुनका सँ अनेको रचना लिखबाय किरण जी अपना लग राखि लेने छला। बाद मे जखन किरण जी काशी मे वैद्य नियुक्त भेला आ मिथिलामोदक पुनर्प्रकाशन शुरू भेलैक तँ अपना संग्रह मे सँ ई रचना सब निकालि-निकालि ओ विभिन्न पत्र-पत्रिका मे प्रकाशित करौलनि। 1939 मे जखन भिक्षु नागार्जुन हजारीबाग जेल मे बंद छला, मोद मे छपल एक रचनाबला अंक डाक सँ हुनका पठाय किरण जी मिथिला-मैथिली दिस हुनकर सुरता कें आकृष्ट कयने रहथिन। एकर प्रसंग विस्तार सँ किरण जी लिखने छथि। एहि सब कारणें, ई लेख छपल हो भने 1938 मे, एकरा 1933-34एक लिखल मानबाक चाही।

              अन्यत्र एहि बातक चर्चा भ' चुकल अछि जे 1933-34 मे जखन यात्री कलकत्ता सँ काव्यतीर्थ क' रहल छला, किरण जीक संग मिलि क' कलकत्ता-स्थित मैथिल लोकनिक पुरान संस्था 'शिक्षित मैथिल संघ'क पुनर्गठन कयने रहथि। एहि संस्थाक जे संविधान ई लोकनि तैयार कयने रहथि ताहि मे 'मैथिल' कें एहि तरहें परिभाषित कयल गेल रहैक-- 'मिथिलाक मूलनिवासी, मैथिली बाजनिहार समस्त जाति, धर्म आ संप्रदायक लोक मैथिल मानल जेताह।' एहि परिभाषाक निहितार्थ की छल, एकर मर्म बुझबाक लेल यात्रीक ई निबन्ध बेस मददगार भ' सकैत अछि। एहि लेख मे एक ठाम ओ लिखैत छथि जे मैथिल ब्राह्मण आ कर्णकायस्थ छोड़ि क' जँ क्यो आन अपना कें मैथिल कहबाक जुर्रत करैत अछि तँ 'जातीय महासभा नांगड़ि ठाढ़ क' क' हुनका दिस बिधुआइत मुँह बिजकाओत'। ध्यान दी जे नांगड़ि पशुवर्ग कें होइत छै, मनुक्ख कें नहि। स्पष्ट अछि जे एहि विचार कें ओ एतेक घटिया मानैत छला जे एहन सोच हुनका पशुतुल्य बुझाइत छलनि। एकर प्रतिकार मे जँ शिक्षित मैथिल संघ ठाढ़ कयल जाइछ तँ केवल पशुक बदला मे मनुष्येक नहि अपितु 'शिक्षित' मनुष्यक प्रतिमान ठाढ़ करब कहल जायत। ई लेख एहू बातक साक्ष्य थिक जे केवल वैचारिक वा बौद्धिक विमर्शे टा नहि, यात्री हेबाक अर्थ छलैक वैचारिकता कें क्रियात्मक स्तर धरि उतारि आनब। एहि लेख मे ओ महासभा कें ल' क' व्यंग्य करै छथि जे चन्दा झाक देल मिथिलाक परिभाषा कें आब बदलि देबाक चाही आ मिथिलाक अर्थ रांटी, मंगरौनी, कोइलख, ककरौड़ आ सोतिपुरा धरि सीमित करबाक चाही। ओ लिखै छथि-- ''हम मैथिल नहि, बिहारी थिकहुँ-- ई भावना हमरा लोकनि मे जाहि तेजी सँ पसरि रहल अछि, से देखि कोन मैथिल हृदय हैत जे आहत नहि भ' रहल हो?' ओ प्रसंगवश उड़ीसाक दृष्टान्त दैत कहै छथि-- 'उत्कलक प्रत्येक व्यक्ति-- उच्च श्रेणीक ब्राह्मण सँ ताड़ी उतारनिहार पासी आ तूर धुननिहार धुनिया पर्यन्त, उत्कलीय कहबैछ। उत्कलीय बन्धुलोकनिक दूरदर्शितापूर्ण एहि सिद्धान्तक प्रभाव सँ हुनका सभक साहित्यिक तथा राजनीतिक सामर्थ्य दिनानुदिन बढ़ल जा रहल छनि। एम्हर हमरा लोकनि दिन-दिन पाछुए घुसकल जाइत छी।' ई बात यात्री सक्रिय योगदानपूर्वक 1933-34 मे कहि रहल छला। तकर बाद बहुत किछु भेल। देश आजाद भेल। भाषाधार प्रान्त सभक निर्माण भेल। मिथिला पाछुए घुसकैत रहल। आइयो, एखनहु।

             यात्रीक एक निबन्ध 'कविता: युगक गीता' बहुत प्रसिद्ध अछि आ जानि नहि कतेको ठाम एकरा उद्धृत कयल जाइत रहलैक अछि। ई असल मे प्रथम अखिल भारतीय मैथिली साहित्य सम्मेलन मे कविता-विभागक अध्यक्ष पद सँ देल गेल अभिभाषण लेल लिखल गेल छल। छव पृष्ठक एहि लेख मे ओ संपूर्ण मैथिली कविता-परंपराक अथ-उत उचारि गेला अछि। मैथिली काव्य-परंपराक आरंभ कहिया सँ मानल जाय, एहि विषय मे मैथिल विद्वान लोकनि मे घोर संकोच रहलनि अछि। यात्री निर्द्वन्द्व रूप सँ एकर आरम्भ आठम शताब्दी सँ मानैत छथि। हुनकर अभिमत छनि-- 'विद्यापति सँ पूर्व अपना लोकनिक काव्य कोन रूपक छल हैत, तकर अंदाज सिद्ध लोकनिक पदावली सँ लगा सकै छी।' तहिना 'आधुनिक मैथिली कविता'क आरम्भ कहिया सँ मानल जाय, एहि पर तुमुल मत-वैभिन्य देखल जाइत रहल अछि। वास्तविक रूप सँ 'आधुनिक चेतना' एवं एकर 'आधारभूमि' कें फरिछबैत यात्री कहैत छथि-- '1940क बाद हमरा लोकनिक कविता प्रबुद्ध एवं यथार्थोन्मुखी भ' गेलि। नव रचनाकार लोकनि मैथिली काव्यधारा मे बहुजनसमाजीय सामान्य धरातल दिस मोड़ अनलनि। हिनका लोकनिक प्रतापें परंपरागत बबुआनी चाटुकारिता सँ त्राण पबितहि कवि-भारती आब जन-भारती भ' रहल छथि।' एहि निबन्ध कें भविष्यक मैथिली काव्यधाराक मार्गदर्शक सेहो एहि ल' मानल जाइत रहल अछि जे आधुनिक संदर्भ मे एतय 'काव्य-प्रतिभा' कें परिभाषित करैत छथि। प्रतिभाक पांच वैशिष्ट्य मे एक कें चिह्नित करैत यात्री लिखलनि अछि-- 'परिस्थिति ओ प्रथाक बन्धन प्रतिभा कें स्वीकार नहि। सामाजिक रूढ़ि ओ मर्यादा कें तोड़ि-ताड़ि बढ़ि जेबाक सामर्थ्य प्रतिभा मे रहिते टा छै।' कहब जरूरी नहि जे मर्यादाक अर्थ एतय काव्यशास्त्रक ओ लघुसीमा सब सेहो अछि जे छन्द-रस-अलंकार आदि कें सामाजिक स्वीकृति पूर्वक अनिवार्य स्वीकार करबाक पक्षधर रहल अछि।

                 मैथिली मे यात्री तीन गोट संस्मरण सेहो लिखने छथि, जे अपन विषय,  देसिल कहन-शैली आ चलित भाषा कें ल' क' बेस प्रशंसित रहल अछि। 'चारि अहोरात्र आ एक दिन' सौराठ सभाक यात्रावृत्त थिक जे ओ 1954 मे लिखने छला। सौराठ तहियो धरि अपन वैवाहिक सभाक क्रमपात कें निमाहि रहल छल, यद्यपि कि उतार दिस अग्रसर छल। अनेक प्रकारक अव्यवस्थाक असुविधा सभैता लोकनि कें भोगय पडछैत छलनि, दहेजक छुपे रुस्तम खेल शुरू भ' गेल रहै आ ई सभा-परंपरा आब पर्यवसान दिस बढ़ि रहल छल। जाहि दिन यात्री पहुँचल रहथि, ओहि दिन पहुँचल सभैता लोकनिक संख्या ओ लगभग तीस हजार बतौने छथि। अव्यवस्थाक एक चित्र देखल जाय-- 'ओतेक पैघ मेला आ पानि पर्यन्त सुलभ नहि। चाह ओ शर्बतक नामे जेबकतरे सब मने दोकान फोलने रहय। हलुवइया सब गर्जे कचकूहे पूड़ी-कचौड़ी छनने जाइत छल। जाहि पोखरिक पानि कहियो केओ नहि पुछनिहार, ओ लोकनि ओही सँ अपन यावतो काज ससारय। पूड़ी सोझां मे पड़ल अछि आ तरकारी लेल गदह क' रहल छी, जल ले किकिया रहलहुँए। रौ लुचवा, आदमीक खगता रहौक तँ किए एते गोटे कें बैसा लेलही? किए सोर पाड़लें? किए घेरि-घारि क' अनलक हमरा लोकनि कें तोहर आदमी?' पोखरिक बारे मे-- 'सभागाछीक उतरबारि कात आ दछिनबारि कात बड़की-बड़की टा पोखरि अछि। परंच ओ दुनू दुर्दशाग्रस्त अछि।' मने स्नानो करबाक लेल अनुपयुक्त। एहना स्थिति मे आब गमैया लोकनि सभैता सब कें अपन दलान वा घर पर ठहरबाक लेल जँ भाड़ा ओसुलैत छथि तँ से यात्री कें अनुचित नहि लगैत छनि। कारण जे 'पहिने व्यवस्थाक रूपें पांच टा फूल वा पांच टा झिटुका गनि देल जाइत रहैक, कुलीनताक मर्यादा कें लोक भजबैत नहि छल। आ, आब जखन मध्यवित्त वा धनिक ब्राह्मणवर्ग पुष्ट क' टाका गनै छथि वा गनबै छथि तखन घौड़दौड़क एहि मैदानक काते-कात अनको जँ चारि कैंचा कमा लेबाक मोन भेलैक तँ ताहि मे क्षतिये की?' अव्यवस्था सभक बीच यात्री कें लगैत छनि जे जेना प्रयाग मे 'माघ मेला समिति' आदि गठित क' क' इंतजाम व्यवस्थित कयल जाइत छैक तहिना एतहु किएक नहि समाजपति लोकनि 'सौराठ सभा प्रबन्ध समिति' सन किछु गठन करै जाइ छथि? दोसर लगैत छनि जे कुम्भ, अर्द्धकुम्भ जकाँ आनो आन स्थान मे एहि महामेला कें घुसकाबक प्रयास किएक नहि होइ छै, जखन कि सहसौला(समस्तीपुर), सुखसेना (पूर्णिया), बनगांव (सहरसा), सझुआर (दरभंगा) आदि मे पहिने एहने सभा लगैत छल जे कि आब बन्न भ' चुकल छल, जे एहि परंपराक अवसान दिस बढ़बाक लक्षण थिक।  मुदा, समाजक चिन्ता यात्रीक चिन्ता सँ सर्वथा भिन्न छैक। लिखलनि अछि-- 'सभाक रुखि विचित्र बुझना गेल। बुझनुक उमेदवार कें गार्जियन पर खौंझाइत देखल। उच्च शिक्षा एवं पुष्ट जथाजाल दिस नजरि कें जे लोकनि केन्द्रित केने रहथि, ओहि कन्यावला सभक मनोरथ सभागाछी मे अइ खेप क्वचिते पूर्ण भेल हेतनि।' कारण, 'एहि बेर लोक घरकथे सँ बेसी काज कयने छल।' मुदा से किएक? 'अइबेर जे काज भेल छैक ताहि मे कन्या शुल्क स्वरूप सर्वाधिक टाका नव हजार गनल गेलैए।' ई दहेजक वास्तविक आंकड़ा थिक, मांग तँ तीस हजार धरि पहुँचल छलै।

                'पथ्वी ते पात्रं' छोट मुदा मार्मिक संस्मरण अछि जे 1954क थिक। खजांची रोडक एकटा गली मे तहिया किरायाक डेरा मे यात्री सपरिवार रहै छला। एक दिन पांच टा छात्र हुनका सँ भेंट करय एलनि। ई युवक सब पटना काॅलेज मे पढ़ै छला आ एक विषयक रूप मे मैथिली सेहो रखने रहथि। स्वाभाविके जे भाषाक मामला मे जागरूक रहथि आ यात्रीक महत्व सँ सेहो सुपरिचित रहथि। ओहि मे जे एक ओजस्वी युवक रहथि, सीधे अभियोगक स्वर मे पुछलकनि-- 'अपने कहिया धरि अनठौने रहबै?' हुनकर तात्पर्य रहनि-- 'हमरा लोकनि अपने सँ यैह निवेदन करय आयल छी जे अपना भाषा ओ अपना माटि दिस बेसी ध्यान दितियै, हिन्दी दिस जते मनोयोग अपनेक अछि, तकर दशांशो यदि मैथिली दिस...।' प्राय: ई पहिल अवसर छल जखन यात्री (एहि संस्मरणक माध्यमें) अपन आर्थिक दुरवस्था आ हिन्दी लिखबाक मजबूरी दिस अपन पाठक-समाजक ध्यान आकृष्ट कयने रहथिन। युवक लोकनि सुभितगर परिवार सँ अबैत छला, तें तँ पटना काॅलेज धरि पहुंचि सकल रहथि। स्वाभाविक जे अपने जकाँ सुभितगर घर सँ यात्रियोक हेबाक अनुमान हुनका सब कें रहल‌ हेतनि-- पचीस बीघा सँ कम खेत तँ हिनका नहिये हेतनि। यात्रीक मुँह सँ जखन ओ लोकनि सुनलनि-- 'हमरा तीनिये कट्ठा खेत अछि बौआ, धन्य हिन्दी जे पांच-छव गोटाक पेट चलैए। से हिन्दियो मे गद्य लिखै छी तें निमहैए ने तँ अगबे कविवर भेने चारियो दिनुका खोरिस की जुमैत? तैयो....' -- तँ ओ युवक लोकनि अवाक् रहि गेल रहथि। केवल लेखनक बलें परिवार चलेबाक जिम्मेदारी बला लेखक हुनका सभक कल्पना सँ बाहरक बात रहनि। ई तिनकठवा खेत सेहो भरना लागल छलनि जकरा यात्री छोड़ेलनि, बटाइ पर तँ एखनहु छनि मुदा हुनकर पत्नी कें एहि बात सँ बहुत सन्तोष छनि जे कम सँ कम नवान तँ आब बेसाहक अन्न सँ नहि करय पड़ैए।

            मैथिली मे यात्रीक छव गोट कथा सेहो उपलब्ध होइत अछि। पहिल कथा 'बउकन ठाकुर' तँ ओ तखन लिखने छला जखन 1950 मे स्वयं अपने निर्देशन मे, मैथिली मे एक पत्रिका 'किरण' नाम सँ बहार करब शुरू कयने छला। एहन प्रतीत होइत अछि जे अंक मे देबाक लेल हुनका लग कथाक अभाव रहल हेतनि, तकर पूर्ति हेतु स्वयं कथा लिखलनि। एहि सँ पहिने ओ हिन्दी मे बालकथा तँ ढेरी लिखि गेल रहथि, कहानी सेहो हुनकर पांच टा सँ ऊपर विभिन्न पत्र-पत्रिका मे प्रकाशित भ' चुकल छल। 

               मैथिली मे जे हुनकर कथा सब छनि, से वस्तुत: मानव-जीवन आ लोक-प्रवृत्तिक हुनकर दुर्लभ निरीक्षण-प्रतिभाक प्रमाण थिक। कथाक जे विषय अछि तकर अवलोकन-दृष्टिये ओकरा मे अपूर्व कथात्मकता भरि दैत छैक। जेना, बउकन ठाकुर मे दू पात्र छथि-- बउकन आ दरजी। दुनू बेछप, समाजक दृष्टियें दुनू किछु अलग, असामान्य। बउकन अलबटाह, तहिना बाजितो छथि-- जेना झंझारपुर हुनका भाषा मे ढंढारपुर भेलनि। मुसलमान जे दरजी छथि-- देख' मे छौड़गरे, पातर मोछक कटगर रेख, ताहि पर सँ चुक्की दाढ़ी। ओ दरजी बउकन लेल महाग आकर्षणक विषय, से जखन कखनो ओम्हर जाथि बउकन, ओकरा देखिये टा लेथि। मानू बड़ सेहन्ता रहनि जे कहियो पाइ-कौड़ी हो तँ ओकरा सँ कपड़ा सियाबथि। जखन दरजी नाप लैत छला आ बउकन कें ताही काल लेर चूबि गेलनि, दरजी अपन देह-हाथ तँ छीपि बचौलनि, मुदा जखन बउकन कहलनि जे 'निच्चां ठसलै ठां साहेब, अहां टे नै लाडल'-- तखन ओ हिनक परिचय बुझलनि, केहन सुंदर देखबा मे, मुदा... दरजीक मुंह सँ बहरेलै-- 'या अल्लाह।' मने एहन सुंदर लोक मे ई अपाय! तखनहि सँ दरजियोक उत्सुकता बउकन मे भ' गेलनि। कथा एतबे अछि। बांकी जे अछि से बउकनक सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि थिक। एते-एते मामूली विषय पर लीखि ओकरा साहित्यक दरजा देलनि, यैह वस्तु यात्रीक कथा-संसार कें स्मरणीय बनबैत अछि। लगैत अछि जे हँ, एहि रचनाकर मे छै कूबत, जे चाहय तँ ताड़क गाछ, बांसक ओधि पर लिखि सकैए, चाहय तँ मादा सुग्गर पर।

           'बूढ़ बोको' मे एक तिब्बती भोटिया परिवारक संग रेलयात्राक प्रसंग अछि। कथावाचकक संग जे तीन आर मैथिल छथि, से अपन शुचिताबोध सँ ग्रस्त नाक मुनने मजबूरी मे बैसल छथि। जाननिहार जनै छथि जे यात्रीक बहुत समय तिब्बत मे, भोटिया सभक बीच बीतल रहनि, आ हुनकर रहन-सहन मे, खान-पीन मे तिब्बती प्रभाव देखनगर रूप मे सब दिन मौजूद रहलनि। संगी मैथिल लोकनिक लेल सब सँ घृष्णास्पद होइत छनि ई देखब जे एक ठाम ट्रेन रुकला पर बूढ़ बोको चट द' उतरल आ गाड़ीक बगल मे नदी फीरि विना छोंछ कयने सीधे आबि क' अपना सीट पर बैसि रहल।‌ कथावाचक कें खुशी होइ छनि जखन गाड़ी सँ उतरलाक बाद टुनाइ बजैत छथि जे 'बूढ़ भेला उत्तर अपनो बाप-पितामह कत्ते ने अलट-बिलट लोक कें बजै छै, प्रज्ञा वा तकर अभावहु मे ठाम-कुठाम लघी-नदी बूढ़ कें भैये जाइ छैक। लोक से सब सहैए, कहां नाक मूनि क' भरि गाम ढोलहो देने फिरैए जे हे-हे, हमर बाप-पित्ती एहन...।' अखिल विश्वक मानवक लेल, भने ओ कोनो सभ्यता सँ अबैत हो, समरूप मनुष्यता-बोध मुख्य प्रतिपाद्य छैक, जे कि ओना तँ यात्रीक समस्त रचना मे एलनि अछि मुदा एहि कथा मे तकरा विशेष रूप सँ देखल जा सकैए। तिब्बत-प्रवासक प्रसंग जे यात्री हिन्दी मे संस्मरण लिखने छथि आ अपन इन्टरव्यू सब मे चर्चा केलनि अछि, से सब पढ़बाक उत्सुकता ई कथा जगबैत छैक।

              'चितकबरी इजोरिया' एक महत्वपूर्ण कथा थिक, जे कि मैथिली कथासाहित्यक इतिहासो मे अपन विरल कथ्यक लेल अलग सँ चर्चाक अधिकारी अछि। मूलत: ई एकटा प्रेमकथा थिक, जे सम्मानजनक ढंग सँ अपन प्रेम-सम्बन्धक समापनक सरंजाम करैत अछि। मंगल आ मधुरी एक नेनपन सँ एक-दोसरक संग अथाह प्रेम करैत अछि, एहन जे एक-दोसरक बिनु चैन नहि। दू मास पहिने मंगलक दुरागमन भ' चुकलैक अछि मुदा ओ पत्नी सँ विमुख ओ मधुरीक चिन्ता मे अपस्यांत अछि। आब मधुरीक दुरागमन होइबला छै। एहि हिसाब सँ देखी तँ प्रेमी-प्रेमिकाक रूप मे ओकरा दुनूक ई आखिरी मिलन छैक। इजोरिया राति छै आ आमक गाछी मे किसुनभोग गाछक तर मे ई मिलन भ' रहलैए। मधुरी उमेर मे छोट अछि, मुदा जाहि तरहें ओ मंगल कें मनबैत अछि, शान्त करैत अछि, अद्भुत अछि-- 'माय-बाप, सासु-ससुरक इज्जति आ सुख जहिना तोरा हाथ मे, तहिना हमरो हाथ मे। हम कोना तोहर घर-आंगन चौपट क' दिअह? कोना एक बहुआसिनक सिन्नुर पर करिखा पोति दियौ? तोंही कहह!' जाननिहार जनैत छथि जे एक विचारकक रूप मे यात्री विवाह-संस्था सँ नाराज, आ प्रेम-विवाहे केवल नहि, लिव-इन-रिलेशन धरिक उदार समर्थक रहथि। मुदा, ई कथा प्रेम-सम्बन्धक औचित्यक विषय मे नहि, अपितु एहि विषयक अछि जे जाहि सम्बन्धक कोनो भवितव्य नहि हो, तकरा एक सम्मानजनक मोड़ द' क' समापन करबाक चाही। स्मरण कयल जाउ, एहि तरहक जखन घटना समाज मे होइए तँ एकर अंत आम तौर पर केहन होइ छै? दुश्मनी सँ, जे नितान्त अपन छल तकर घोर अनचीन्हपन सँ समापन होइए। मुदा, एतय मधुरी अंत मे कहै छै-- 'भइयन, हमरा माफ करिह... अइ अभागलि बहिन कें एक्के बेर बिसरि जुनि जैहक।' प्रश्न उठि सकैए जे 'बहिन' किएक? सामाजिक ताना-बाना एहन छैक जे जे मनुष्यताक रूप मे जँ आगुओ सम्बन्ध बनल रहय, टूटि-बिखड़ि क' दुश्मनी मे नहि परिणत भ' जाय, तँ ओहि सम्बन्ध कें कोनो ने कोनो परंपरित पहचान देबहिक हेतै। केवल तें। मिथिला-माटिक ई बनल-बनायल ढांचा थिक, केवल तें, अन्यथा मनुष्यताक सम्बन्धक कोनो नाम सेहो होइक से किन्नहु जरूरी नहि अछि। मिथिलाक तँ झंझटि छै जे पुरुख-स्त्रीक नैसर्गिक मैत्री-सम्बन्धक लेल एतय कोनहु शब्द, कोनो नामे नहि छैक।

             जेना कि पहिनहु चर्चा भेल, समय-समय पर यात्री मैथिलीक पत्रिका सब मे स्तम्भ लिखलनि। एकर आरंभ मइ 1957 मे 'वैदेही' मासिक पत्रिका सँ भेल, जतय ओ 'यत्र तत्र सर्वत्र' नामक स्तम्भ लिखब शुरू केलनि। एकर चारि टा किश्त छपल। अंतिम किश्त अक्टूबर 1957 मे छपलाक बाद आगां एकर क्रम टूटि गेल। 1959 मे कलकत्ता सँ प्रकाशित होइबला पत्रिका 'मिथिला दर्शन' मे ओ 'यत्किंचित' नाम सँ नव स्तम्भक आरंभ केलनि। मइ 1959 मे एकर पहिल किश्त छपल छल, फरबरी 1961 धरि क्रमभंगपूर्वक एकर लेखन चलैत रहल आ एकर कुल्लम आठ टा किश्त लिखल गेल। बाद मे, जुलाइ 1968 सँ दिसंबर 1968 धरि जखन एक हिन्दी पत्रिकाक दिस सँ हुनका स्तम्भ लिखबाक प्रस्ताव भेटलनि,  एही 'यत्किंचित्' नामक प्रयोग करैत ओ हिन्दी साप्ताहिक 'जनयुग' मे स्तम्भ लिखलनि। 1960 सँ पटना सँ साप्ताहिक 'मिथिला मिहिर'क प्रकाशन आरंभ भेल तँ एहि मे यात्री 'ओ ना मा सी धङ्' नाम सँ स्तम्भ-लेखनक आरंभ केलनि। एकर दू किश्त मात्र फरबरी 1961 मे प्रकाशित भ' सकल। हुनकर कोनो स्तम्भ नियमित रूप सँ चलि नहि सकल तकर कारण छल अव्यवस्थित जीवनक्रम। ओ यायावर रहथि। साहित्य-लेखनक संगहि सक्रिय सांस्कृतिक-राजनीतिक एक्टीविस्ट सेहो रहथि। हुनकर जीवन नदीक धारा जकां सतत प्रवहमान छलनि। तें, नियारियो क' नियमित स्तम्भ-लेखन हुनका बुतें संभव नहि भ' सकैत छलनि।

                 मैथिलीक रचनाकार लोकनि राजनीतिक प्रति निस्पृह होइत छथि, आ हुनका सभक कोनो स्पष्ट राजनीतिक अभिप्राय नहि होइत छनि, ई सामान्य सोच रहल अछि। एहिना होइतो आयल अछि। समकालीन वा वर्तमान, खास क' क' सत्ताधारी राजनीति पर क्यो ठांहि-प-ठांहि दू टूक लिखि जाय, एहन लेखनक परंपरा मैथिली मे नहियेक बरोबरि रहल अछि। यात्रीक‌ स्तम्भ एहि विचार-परंपराक सर्वथा विपरीत अछि। जतय कतहु, जाहि कोनो भाषा मे वा पत्रिका मे ओ स्तम्भ-लेखन केलनि, हुनकर प्रमुख विषय वर्तमान राजनीतिये रहल, खास तौर पर सत्ताकेन्द्रित राजनीति। ई तँ बिलकुल स्पष्ट अछि जे यात्रीक समस्त रचनावली अपन एक स्पष्ट राजनीतिक अभिप्राय रखैत अछि, मुदा कविता वा उपन्यास मे भेने ओकर प्रस्तुति मे कलात्मकताक छौंक देबाक रहैत छैक, तें ओ कथन एतेक डाइरेक्ट नहि होइत अछि। स्तम्भ-लेखन मे यात्री सब ठाम डाइरेक्ट छथि। राजनीतिक अतिरिक्त जनहित-जनसुविधा आ मातृभाषा मैथिली, यैह दू टा मुख्य विषय रहलैक अछि जकरा ओ अपन विचारक परिधि मे अनलनि।

              दृष्टान्तक लेल हुनकर पहिल स्तम्भ 'यत्र तत्र सर्वत्र' (1957)क पहिल किश्त के जँ देखी तँ पबैत छी जे मातृभाषा मैथिलीक विषय सँ ओ आरंभ केलनि अछि। 'हमरा विश्वस्त सूत्र सँ ज्ञात भेल अछि जे डाॅ. श्रीसुनीति कुमार चटर्जी सँ साहित्य अकादेमीक मंत्री (तात्पर्य सचिव सँ अछि) मैथिलीक मान्यता लए पुछने छथिन। आइ 12 मार्च थिक, 16 मार्च कें एतद्विषयक मीटिंग थिकै। ....एहि तीनू भाषाक ओ साहित्यक एकहक टा इतिहास तैयार करबा क' अकादेमी तकरा फेर प्रमुख भाखा सभहि मे अनूदित करा लेत। ई काज आगामी छओ मासक भीतर हेबा लए छै। ई भारी शुभ लक्षण थिक हमरा लोकनिक लेल।' हमसब अवगत छी जे साहित्य अकादेमीक स्थापना 1954 मे भेल रहैक आ अकादेमी द्वारा मैथिली कें मान्यता देल जेबाक बाद 1966 सँ मैथिली मे गतिविधि आरंभ भेलैक। यात्रीक एहि टिप्पणी सँ सूचना भेटैत अछि जे मैथिली कें मान्यता देल जेबाक जोरदार प्रयास 1957 सँ आरंभ भ' गेल छल। एही मे आगां ओ इहो सूचित करैत छथि जे बेनीपुरी द्वारा संपादित 'विद्यापति पदावली'क अनुवाद अकादेमी मराठी-गुजराती आदि भाषा मे करबा रहल अछि। दिल्ली मे ताधरि मैथिल लोकनिक कोनो संघ सक्रिय नहि छल, जाहि दिस प्रयासक आवश्यकता पर बल दैत ओहि समय दिल्ली मे बिहारी लोकनिक जे दूटा संस्था छल, तकर विस्तार सँ चर्चा केलनि अछि। अन्त हेबा धरि मुदा राजनीतिक प्रवेश भइये गेल अछि। 1957 मे लोकसभाक आम चुनाव भेल रहैक। यात्रीक हिस्सक रहनि जे पोलिंग के दिन ओ जतय कतहु रहथि, ओहि काल मे बूथ सभक माहौल देखबाक लेल जरूर बहराथि। दिल्लीक एकटा बूथ पर जे तमाशा ओ देखलनि तकर चर्चा केलनि अछि। भेल ई रहैक जे संपन्न घरक तीन टा फैशनपरस्त युवती वोट देब' आयल छली। बैलेट पेपर आदि लेलनि। मुदा जखनहि अँगुरीक नखमूल मे अमिट स्याही लगब' लगलनि, ओ सब इनकार क' देलि जे एहि सँ अँगुरीक शोभा खराब भ' जायत। फलत: विना वोट देने ओ सब घुरि गेली। फैशनक नाम पर भारतीय लोकतंत्र तीन वोट सँ वंचित रहि गेल, एहि कुंठित उच्चवर्गीय सोच कें यात्री एते घातक घटना मानने रहथिन जे एहि पर अलग सँ ओ 'जयति नखरंजनी' शीर्षक कविता सेहो लिखने छला।

               1957 भारतीय स्वतंत्रताक प्रथम संग्राम (1857)क शताब्दी-वर्ष छल। यत्र तत्र सर्वत्रक दोसर किश्त (वैदेही, जून1957) मे ओ लिखलनि-- 'समग्र भारत मे 1857क विप्लवी जन-आन्दोलनक स्मृति-पर्व समारोहपूर्वक प्रतिपालित भ' रहल अछि, से गौरवक विषय थिक। साम्राज्यवादी इतिहासकार लोकनि भारतीय जनताक ओहि वीरगाथा कें नाना प्रकारें दूरि करबाक चेष्टा कयने छथि। आब स्वाधीन भारतक इतिहासवेत्ता लोकनि ओहि विप्लवक मौलिक रूप कें देश-विदेशक समक्ष रखताह।' तहिना, ओहि साल जे देश-दशा रहैक-- 'दुष्कालक लक्षण एहि बर्ख व्यक्ति-व्यक्ति कें आतंकित क' रहल अछि। इनफ्लुएन्जाक सार्वभौम आक्रमण, अतिवृष्टि-अनावृष्टि-अवृष्टिक नग्न नृत्य, अन्नक महँगी...कोना अइ साल लोक काल यापन करत? देशक विधाता लोकनि असली हालति कें वक्तव्यक रंगीन रेशमी सँ झांपि-तोपि कहिया धरि एना कृतकृत्य होइत रहताह?' तहिना, बिनोवा जीक भूदान आन्दोलन 1951 मे शुरू भेल छल। 1961 धरि अबैत-अबैत हुनका पैंतालिस लाख एकड़ जमीन दान मे भेटि चुकल छलनि। 1957 मे बिनोवा केरल पहुँचल छला। केरल मे कम्युनिस्ट पार्टीक शासन रहैक। मुदा, देखल गेल जे ओतुक्का सरकार आ जनता दुनू दिस सँ बिनोवा कें समर्थन आ सहयोग भेटलनि। ई बात एतेक विशेष छल जे सौंसे दुनियाक मीडिया एकरा आश्चर्यक दृष्टि सँ देखि रहल छल। ब्रिटेनक प्रसिद्ध अखबार 'गार्जियन' तहिया 'मैनचेस्टर गार्जियन' नाम सँ छपै छल। ओहि मे एहि विषय पर जे लेख छपलै, तकर चर्चा  किश्त-3 मे करैत यात्री लिखलनि-- 'ओकरा मतें गांधीवाद एवं साम्यवादक ई सामंजस्य विश्वविकासक एकटा नबका दिशा-संकेत थिक... भारतीय जनता केर शान्तिकामी ओ उदार मनोवृत्तिक थाह पेबाक लेल अनठीयाक ई आतुरता!!' तहिना, भारत सरकारक अन्तर्राष्ट्रीय कर्जनीतिक मुखर प्रतिवाद करैत चारिम किश्त मे लिखलनि-- 'कर्ज...कर्ज...कर्ज। आओर ऋण, आओर पैंच, आओर उधार। करोड़क करोड़ डाॅलर चाही! अरबक अरब डाॅलर चाही। पाउंड सेहो चाही। रूबल सेहो। नेहरूजी, दोहाइ सरकार! आबहु भाभट समेटू। एना कहिया धरि खेपबै मालिक? अपना देश मे की सरिपहुँ की कोनो साधन छैहे नहि?' हुनकर ई तेवर 'यत्किंचित' मे सेहो यथावत बरकरार रहल। एकर दोसर किश्त मे लिखलनि-- 'राजगोपालाचारी (ताधरि ओ कांग्रेसक विरोधी भ' गेल छला) कतहु बाजल छथि-- ओ बाघ थिकाह!...तखन गाय के थिक? नेहरू नियन्त्रित केन्द्रीय सरकार?'

             विकासक बारे मे सरकारी सोचक विडंबना पर लिखलनि-- 'हमरा लोकनिक केन्द्रीय सरकार कें बड़का बिल्डिंग ठाढ़ करबाक सौख... कलकत्ता, बम्बइ, मद्रास, दिल्ली एहि चारू शहर मे स्वाधीनताक बाद 'विकट भूधराकार' कते ने मकान बनाओल गेल हैत। के बाजत जे ई देश गरीब अछि!... देहातक कथा छाड़ि दिय', ठामहि एही शहर(दिल्ली) मे सुगरक खोभाड़ सन-सन पौती मौनी धुथरी मार्का कोठरी दसे बीस टा हो, से नहि! असंख्याता सहस्राणि!! अन्न-वस्त्रक जे सौकर्य अछि से देखितहि छी... -- के बाजत जे ई देश धनिक अछि?' 1959क महँगीक विरोध केनिहार प्रजावर्गक समर्थन मे लिखलनि-- 'विकराल अन्नसंकट ओ महँगीक विरोध मे समग्र बिहार मे जनता सत्याग्रह कए रहल अछि। मिथिलाक दरभंगा-सहरसा आदि जिला-केन्द्र मे सत्याग्रही लोकनि नृशंसतापूर्वक लठियाओल गेल छथि... एखन की भेल अछि? कांग्रेसी शासकवर्ग एतावता फासिज्मक रिहर्सल मात्र कए रहल अछि। किछु बाजब तँ कम्युनिस्ट कहाएब, चुपचाप पेटकान देने रहब तँ भने छागर-पाठी जकाँ 'शिष्ट-सुशील' प्रमाणित होएब-- मुदा तैयो तँ चिबाबक लेल जिमड़क पात चाहबे करी!!'

             1960क मौसम मे आम नहि फड़ल रहैक, ताहि विषय पर लिखलनि-- 'आम नइ छै अहूबेर-- कतउ-कतउ ठाम-ठीम दोग-दाग मे फड़लैए-- सौराठ निवासी बन्धु कहलनि तँ हमरा तते विस्मय नहि भेल। किए हैत विस्मय? ...भदइ नहि, अगहनी नहि, रब्बी नहि, जामुन नहि, आम नहि, कटहर नहि... ई नहि, ओ नहि... निषेधक अष्टोत्तर शतनाम सुनैत-सुनैत कान थेथर भ' गेल अछि कि ने!'

             हमरा लोकनि देखैत छी जे गाम-घरक सुख-दुख सँ ल' क' अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति धरि समस्त विषय प्रसंगानुरूप हुनकर स्तम्भ मे एलनि अछि। आ से अपूर्व साहस आ बेधि दैबला व्यंग्यक संग। मिथिअ-मैथिली अवश्य हुनक केन्द्रबिन्दु सन बनल रहल। 1959 मे 'मिथिला' पत्रिकाक पुर्प्रकाशन आरंभ भेल तँ तकरा पर अपन आन्तरिक प्रसन्नता व्यक्त करैत चाटुकार पत्रकारिता पर प्रहार करब धरि नहि बिसरलाह-- 'धनकुबेर लोकनिक तरबा चटनिहार, महाप्रभु लोकनिक नांगड़ि महक अठौड़ी-स्फीतोदर ओ बैमान संपादक लोकनि! 'मिथिला'क झँसिगर टिप्पणी अहूँलोकनिक अपान-उदान कें दुरुस्त राखत...।' 1961 मे बेनीपट्टी मे कम्युनिस्ट पार्टीक जिला-सम्मेलन भेल रहैक, जाहि मे यात्री शामिल भेल रहथि। ओहि सम्मेलनक भाषणे टाक भाषा मैथिली नहि रहैक, अपितु पोस्टर, प्रचार-पत्र, नोटिस आदि जे छपाओल गेल रहैक तकरो सभक भाषा मैथिली छल। ई सब देखि मोन गदगद भेलनि तँ यत्किंचित-8 मे लिखलनि-- 'आब कांग्रेस, प्रजा समाजवादी, स्वतन्त्र आदि राजनीतिक पार्टी सभक नेता लोकनि सेहो अपन-अपन मुँह-कान मैथिली दिस घुराबथु।' मैथिलीक असल ताकत एकर रचनाशीलता छैक, से सब खन यात्री कें स्मरण रहलनि। रेलयात्राक क्रम मे एक बेर कोनो नवोदित कवि भेंट केलकनि, तँ कवि महोदय कें जे ओ सुझाव देने रहथिन, तकरा 'उपदेशक गंगाजली ओहि बेचाराक माथ पर सोझे उनटा देब' कहैत छनि। मने स्वयं अपनहि पर व्यंग्य, जे कि मैथिलीक दु:स्थिति पर चौबर व्यंग्य बनि क' उपस्थित होइत छैक। की उपदेश देने रहथिन? से सुनल जाय-- 'कविता कम्मे चाही... गीतो कम्मे... चाही की, तँ अगबे गद्य। गद्य-- नीक गद्य, भांगक गोला गीड़ि क' लिखि होयत? जाहि तत्परता सँ पूजा-पाठ पर बैसैत छी, ताही मोस्तैदी सँ आसन-बन्ध थीर क' क' गद्य लिखब तँ बढ़िया वस्तु तैयार होयत... अन्यथा...।'

              

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