Thursday, November 2, 2023

कालिदास का संक्षिप्त इतिहास (श्रीलाल शुक्ल)


 श्रीलाल शुक्ल 


लोक-कथाओं के आधार पर कालिदास का जन्म एक गड़रिए के घर में हुआ था. उनके पिता मूर्ख थे. उपन्यासकार नागार्जुन ने जिस वीरता से अपने पिता के विषय में ऐसा ही तथ्य स्वीकार किया है, वह वीरता कालिदास में न थी. अत: उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया. फिर भी सभी जानते है कि कालिदास के पिता मूर्ख थे. वे भेड़ चराते थे. फलत: कालिदास भी मूर्ख हुए और भेड़ चराने लगे. कभी-कभी गायें भी चराते थे. पर वे बाँसुरी नहीं बजाते थे. उनमें ईश्वरदत्त मौलिकता की कमी न थी. उसका उपयोग उन्होंने अपनी उपमाओं में किया है. यह सभी जानते हैं. जब वे मूर्ख थे, तब वे मौलिकता के सहारे एक पेड़ की डाल पर बैठ गए और उसे उल्टी ओर से काटने लगे. इस प्रतिभा के चमत्कार को वररुचि पंडित ने देखा. वे प्रभावित हुए. उनके राजा विक्रम की लड़की विद्या परम विदुषी थी. विद्या का संपर्क इस मौलिक प्रतिभा से करा के वररुचि ने लोकोपकार करना चाहा. कालिदास की मूर्खता का थोड़ा प्रयोग उन्होंने राजा विक्रम और विद्या पर बारी-बारी से किया. परिणाम यह हुआ कि कालिदास का विद्या से विवाह हो गया. विद्वता से मौलिकता मिल गई.


कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वररुचि ने विद्या पर क्रोध कर के उसका विवाह एक मूर्ख से कराया, यह गलत है. यदि वररुचि विद्या से नाराज होते और उन्होंने उसका अहित करना चाहा होता तो वे उसका विवाह किसी भी मूर्ख राजा से करा देते. किसी भी युग में ऐसे राजाओं की कमी नहीं रही है. सच यह है कि वररुचि ने जो किया, लोक-कल्याण के लिए किया.


कालिदास की मूर्खता प्रकट होने पर विद्या ने उनका तिरस्कार किया. वे देवी के एक मंदिर में जा गिरे. उनकी जबान कट गई और देवी पर जा चढ़ी. देवी ने भ्रमवश उन्हें परम भक्त जाना. उनसे वर मांगने को कहा. मूर्ख होने के नाते कालिदास ने अपनी पत्नी के विरुद्ध कुछ कहना चाहा. किंतु जैसे ही उन्होंने कहा, ‘विद्या’ भ्रमवश देवी ने समझ लिया, विद्या मांग रहा है. फिर क्या था, ‘तथास्तु’. बस कालिदास विद्वान हो गए.


आगे का इतिहास मतभेदपूर्ण है. पहले कालिदास किस शताब्दी में पैदा हुए, इसी को लीजिए. सभी जानते हैं वे विक्रमादित्य के समय में उत्पन्न हुए थे. विक्रमादित्य चौथी-पांचवी शताब्दी के राजा थे. चूंकि कालिदास का विवाह विक्रम की ही कन्या से हुआ था, अत: वे चौथी शताब्दी के पहले पैदा नहीं हो सकते थे. यह भी सब जानते हैं कि महाराज भोज से भी इनकी मेल मुलाकात थी. ‘भोजप्रबंध’ नामक ग्रंथ में इसके अनेक प्रकरण मिलते हैं. भोज दसवीं शताब्दी के राजा हैं. इसी से सिद्ध होता है कि कालिदास का जन्म चौथी शताब्दी में और अंत दसवीं शताब्दी में हुआ. वे लगभग छ: सौ वर्ष जीवित रहे. मेरा अनुमान है जिस तरकीब से उन्हें विद्या मिली थी उसी से उन्हें दीर्घायु भी मिली.


वे तीन शताब्दियों तक ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’ और ‘रघुवंश’ जैसे काव्यग्रंथ लिखते रहे. (ऋतुसंहार अप्रामाणिक है.) बाद में उन्होंने नाटक लिखे क्योंकि जो कविता लिखता है वह सदैव कविता नहीं लिख सकता. कभी-न-कभी अकस्मात आलोचना पर आने के पहले वह नाटक पर अवश्य ही उतरता है. उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि इसके उदाहारण हैं. तीन शताब्दियों में कालिदास के तीन नाटक, ‘अभिज्ञान-शाकुंतलम’, ‘विक्रमोवर्शीय’ और ‘मालविकाग्मित्न’ प्रकट हुए.


अभी कुछ दिन हुए हिंदी पन्नों में ‘साधना’ शब्द को ले कर काफी विवाद चला था. नए लेखक साधना-विरोधी हैं. पर कालिदास से उन्हें शिक्षा लेनी चाहिए. जन्म से मूर्खता मिलने पर भी भाग्य से उन्हें राज-सम्मान मिला, फिर भी उन्होंने पुस्तकें लिखने में जल्दी न की. छ: सौ वर्षों में उन्होंने छ: ग्रंथ ही प्रकाशित कराए. इसी कारण कालिदास का नाम अब तक चला आ रहा है.


खैर, यह तो विषयांतर हुआ. विवाह के बाद कालिदास कविता लिखने लगे. यहां उन कवियों को कालिदास से शिक्षा लेनी चाहिए जो बिना विवाह किए ही कविता लिखने लगते हैं. इसी का फल है कि वे ‘तेरे फीरोजी ओठों पर’ जैसी पंक्तियों लिख कर ओठों के स्वाभाविक रंग से अपनी अज्ञता का प्रचार करते हैं. ‘उभरे थे अंबियों से उरोज’ जैसी बात लिख कर और कुरुचि तक दिखा कर, यह नहीं जान पाते कि अंबियां गिरती हैं, उभरती नहीं. जो विवाह कर के लिखेगा वह एक तो ऐसी गलतियां नहीं करेगा और करेगा भी तो उसको सही प्रमाणित करने का साहस रक्खेगा. इसलिए कालिदास ने यह काम शादी के बाद आरंभ किया. यह बात दूसरी है कि उनको अपने ससुर, विक्रमादित्य से इस विषय में प्रोत्साहन मिला. आज के कवि इतने भाग्यशाली कहां? कभी-कभी किसी सभा की सदस्यता पा लेने में, बची-खुची उपाधि हथिया लेने में और साक्षात अपने ससुर से श्लोक-श्लोक पर लाख-लाख मुद्राएं फटकारने में बड़ा अंतर है. आजकल एक तो समझदार लोग अपनी कन्या का विवाह कवि से न करके ओवरसियर से करना चाहते हैं और कवि से विवाह कर भी दिया तो उमरभर उसके भाग्य पर अकारण रोते हैं. पर कालिदास को ये असुविधाएं न थीं. इसलिए उनका व्यवसाय अच्छा चला. ‘भोजप्रबंध’ आदि से विदित होता है कि कुछ दिन बाद वे पक्के व्यवसायी और चतुर व्यक्ति बन गए. जैसे आजकल बहुत से साहित्यकार अपनी रचना को पुरस्कृत कराने के लिए पहले एक पुरस्कार का विधान करा के बाद में अपनी रचना को ही सर्वश्रेष्ठ मनवा लेते हैं, वैसे ही कालिदास स्वयं राजा को समस्या सुझा कर, दूसरे कवियों की रचनाओं में राजा की इच्छा का संशोधन दे कर यह प्रकट करा देते कि श्लोक उन्हीं का है और इस प्रकार सहज प्रशंसा के भागी हो जाते थे.


आज की भांति पुराने युग में भी लोग ज्ञानवर्धन के लिए यात्रा का महत्व समझते थे. इसीलिए कालिदास ने भी उत्तर-भारत से दक्षिण तक की यात्रा की. आज भी उत्तर-भारत के बहुत से कवि दक्षिण तक जाते हैं. पर उनकी गति कालिदास जैसी नहीं है. सर्वश्री भगवतीचरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, प्रदीप आदि तो बंबई तक ही पहुंचे. श्रीमती विद्यावती, ‘कोकिल’ और सुमित्रानंदन पंत पांडिचेरी तक जा चुके हैं. फलत: इनके साहित्य में उन स्थानों की हवा का असर है. सबकुछ होने पर भी महर्षि रमण के आश्रम से भी दक्खिन जाने वाले हिंदी कवि बहुत कम हैं. इस हिसाब से कालिदास की सिंहलयात्रा का ऐतिहासिक महत्व बढ़ जाता है. वे सिंहल अर्थात सीलोन तक गए थे. इस बीच में शायद कोई भी महत्वपूर्ण हिंदी कवि सीलोन नहीं गया. आगे भी हमारे यशस्वी कवि सीलोन जाएोंगे, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रेडियो सीलोन की नीति अभी भली-भांति निश्चित नहीं हो सकी है. फिर भी यदि वे किसी सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सीलोन पहुंच भी जाएं तब भी कालिदास की यात्रा का महत्व इससे कम नहीं होता, क्योंकि उस युग में उज्जयिनी के राजभवन से सीलोन तक जाना आज के युग में दिल्ली के संसद भवन से पोलैंड तक जाने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन था.


कालिदास को वेश्याओं से प्रेम था. विद्वान जानते ही हैं कि कालिदास ने जिस ‘रमणी, सचिव: सखी मिथ: प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ’ की उदात्त कल्पना की है, वह वेश्याओं में बहुत अधिक मिल सकती है. वे रमणी होती ही हैं. आपके चाहने पर वे सचिव भी हो जाती हैं, और सखी भी. ‘अज-विलाप’ की नायिका और अपनी वेश्याओं में अंतर केवल ‘प्रिय-शिष्या’ वाली बातों को ले कर है. वैसे सनातन काल से अपने देश का बड़े-से-बड़ा मूर्ख भी अपनी स्त्री को अपने से अक्ल में छोटा मान कर उसे शिष्या से ऊंचा नहीं उठने देता, वेश्या के साथ ऐसी बात नहीं. आप समझदार हों तो स्वयं उसके शिष्य बन सकते हैं. कई कवियों ने तो इसी शिष्यता के सहारे कवित्त-सवैये की लकीर छोड़ कर गजल की झटकेदार कमंद हथिया ली है. तात्पर्य यह है कि वेश्या का कवि-जीवन में जो महत्व है उसे हमारे जानने के पहले ही कालिदास जान चुके थे.


उनके मन में वेश्या-प्रेम कैसे जागा, इसको ले कर इतिहासकारों ने कई धारणाएं व्यक्त की हैं. कुछ का कहना है कि वे पत्नीशाप से वेश्या-गामी बने. कुछ कहते हैं कि ‘कुमारसंभव’ के नवम सर्ग में शिव-पार्वती का संयोग वर्णन इतना यथार्थवादी हो गया कि साक्षात पार्वती को शाप देना पड़ा कि ‘ओ कवि, तू स्त्री-व्यसन में मरेगा.’ उसी के वशीभूत हो कर कालिदास वेश्यागामी हो गए. वैसे यह कथा विश्वास-योग्य नहीं है. देवी-देवता यदि अपने नाम पर संयोग-वियोग की लीलाएं सुन कर कवियों को शाप देने लगते तो आज तक कवि-वंश का नाश हो गया होता; नहीं तो बहुत से कवि संस्कारवश मंदिरों के दरवाजों पर बैठ कर बताशे बेचते होते. या कविता करते भी होते तो ‘दफ्तर की इमारत’, ‘चाय से लाभ’, ‘खेती के लिए उपजाऊ खादें’ जैसे दोषहीन विषयों पर कविताएं लिखते. यदि शृंगार-सुख के वर्णन से बुरा मान कर पार्वती कालिदास को शाप दे सकती हैं तो कल कोई रिसर्च का विद्यार्थी यही कहने लगेगा कि तुलसीदास का रत्नावली से वियोग इसीलिए हुआ कि उन्होंने भगवान राम को सीता के वियोग में दु;खी दिखाया था और उनके मन में जड़-चेतन का विवेक मिटा दिया था.


मेरे विचार से कालिदास को वेश्या प्रेमी इसलिए होना पड़ा कि उनके सिर पर उनकी पत्नी का शाप या प्रताप बोल रहा था. देखने की बात है कि कालिदास की पत्नी उनके प्रति शुरू से ही कठोर रही. पुरुष की विद्या और आचरण ही उसके शास्त्रोक्त गुण हैं. पहले कालिदास के पास विद्या न थी, पर आचरण था. तब वह कालिदास का अपमान विद्याहीनता के कारण करती रही. जब वे विद्वान हो गए और उसे कालिदास को गिराने की कोई तरकीब न सूझी तो उसने शाप दे कर उनके आचरण को नष्ट दिया. और जब किसी सहृदय की पत्नी ही उसे, शाप दे कि ‘दुराचारी हो जाओ’ तो फिर ऐसा कौन पति है जो इस शाप को स्वीकार न करेगा.


ये सब शोध की बातें हैं. सीधा-सादा इतिहास यह है कि कालिदास सीलोन गए. वहां वेश्या के घर रुके. वहां उन्होंने पुरस्कार पाने के लालच में एक समस्यापूर्ति की. तब उस वेश्या ने उन्हें मार डाला और उनकी समस्यापूर्ति के श्लोक को ले कर राजा से काफी धन प्राप्त किया. बाद में उसने राजा से कालिदास को मार डालने की बात भी मान ली. इस पर राजा ने वेश्या को माफ कर दिया. स्वयं वे कालिदास के साथ चिता पर जल मरे.


इस घटना से सिंहल देश की तत्कालीन न्याय-पद्धति पर भी प्रकाश पड़ता है. वहां यदि अपराधी अपराध स्वीकार कर लेता तो वह छोड़ दिया जाता था. जिसके सामने अपराध स्वीकार किया जाता वह दंड का भागी होता था. शायद इसीलिए अपराधी तब सही-सही बात बता भी देते थे. इस पद्धति का प्रभाव भर्तृहरि-काल में अपने देश में भी था. इसीलिए उन्होंने अपनी रानी को दूसरे पुरुष में आसक्त पा कर उसे कोई दंड नहीं दिया. खुद अपने को देश-निकाला दे दिया.


ये सब विषयांतर की बातें हैं, जो केवल वैधानिक इतिहास में आनी चाहिए. हमारे जानने योग्य तो यही बात है कि कालिदास वेश्या के घर में मारे गए. यदि उनके घर की तलाशी ली गई होती तो शायद बहुत-सा कालिदास-रचित भारतीय साहित्य, जो अब सिंहल देश की राष्ट्रीय-निधि है, हमारे साथ लग जाता. पर उस समय अपने देश का कोई हाई कमिश्नर वहां नहीं रहता था. इसी से यह नहीं हो पाया. वास्तव में, जिस प्रकार हमारे बहुत से वेद जर्मनी में पड़े हैं, इतिहास-ग्रंथ इंग्लैंड में है, वैसे ही बहुत-सा काव्य-साहित्य सिंहल देश में है.


कालिदास का इतिहास मैंने जिस सफाई से बखाना है उससे आप यह न समझें कि उसमें मतभेद नहीं है. इतिहास का संबंध सच्ची घटनाओं से है. इसलिए एक-एक घटना पर सौ-सौ मतभेद होते ही हैं. कालिदास के विषयों में भी मतभेद है. पर मैंने लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर इसे रचा है. इसे लगभग नब्बे प्रतिशत जनता मानती है. इसलिए विद्वानों को इसे सच्चा इतिहास मानना ही पड़ेगा. यही प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत है. इसे सच्चा इतिहास मान कर कालिदास के जीवन से कई शिक्षाएं लेनी चाहिए. कुछ निम्नलिखित हैं:-


1- यदि कोई जन्म से मूर्ख है तो उसे घबराने की जरूरत नहीं; अच्छा विवाह संबंध हो जाने पर, राज-सम्मान मिल जाने पर या देव के प्रसाद से मूर्ख होने पर भी आदमी अच्छा कवि माना जा सकता है, और यशस्वी हो सकता है. ऐसे यशस्वियों की कभी कमी नहीं रही.


2- समस्या-पूर्ति कर के काफी पैसा पैदा किया जा सकता है, पर पुरस्कार के लिए ही कविता लिखना या समस्या-पूर्ति करना कभी-कभी कुठावँ में मरवाता है.


3- वेश्याओं के यहां कभी न जाएं. जाना ही हो तो उनके यहां जा कर कविता न लिखें. लिखें भी तो उसे कभी सुनाएं ही नहीं. सुना भी दें तो उस पर मिलने वाले पुरस्कार की चर्चा न करें.


4- बिना विवाह किए कविता न लिखें; लिखें भी तो उपयोगितावादी काव्य की साधना करें, ‘नव विहान आया’, ‘कट गई रात जड़ता की, घर-घर हुआ साक्षरता प्रचार’ जैसे विषयों पर.


हो सकता है कि कुछ विद्वान कालिदास के इतिहास से सहमत न हों. शायद वे यह सिद्ध करना चाहें कि कालिदास एक उत्तम, धनी कुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पिता भी कवि थे, उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना जामाता बना लिया था, वे सदाचारी थे, अपनी सदाशया पत्नी को छोड़ कर किसी और स्त्री के, नूपुर के अलावा, कोई और आभूषण तक न पहचानते थे, उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था, नब्बे वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘हरि: ओम् तत्सत्’ कह कर शरीर छोड़ा, आदि-आदि. जो यह सिद्ध कर ले जाएंगे कि कालिदास के विषय में मेरी धारणाएं असत्य हैं. पर इससे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा, क्योंकि उस दशा में भी कालिदास एक आदर्श कवि बने रहेंगे. साथ ही मेरा बड़ा भारी लाभ होगा. अपनी स्थापनाओं के खंडित हो जाने और उनके मिथ्या प्रमाणित होने पर भी मैं अमर हो जाऊंगा, क्योंकि बहुत-से इतिहासकार आज भी इन्हीं कारणों से अमर माने जाते हैं.


श्रीलाल शुक्ल


( 'राग दरबारी' और 'विश्रामपुर का संत' जैसी कालजयी रचनाएं लिखने वाले श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ के अतरौली गांव में हुआ था. श्रीलाल शुक्ल को हिंदी साहित्य में विशेष योगदान के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्‍कार’, ‘व्यास सम्मान’, ‘पद्मभूषण सम्मान’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, मध्य प्रदेश शासन का ‘शरद जोशी सम्मान’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया.) 


Saturday, October 28, 2023

यात्री नागार्जुनक जीवन-यात्रा


तारानंद वियोगी


तरौनी गामक पलिवार समौल मूलक ओ मिश्र-परिवार, जाहि मे यात्रीक जन्म भेल छलनि, मश्यकाल मे महामहोपाध्याय नैयायिक लोकनिक वंशक रूप मे प्रसिद्ध छल। पूर्वज लोकनिक लिखित ग्रन्थ तं कोनो नहि भेटैत छल मुदा भौतिक संपत्ति खूब छल। सात पुस्त पहिने हुनकर कोनो पूर्वज कें हिमालयक एक सिद्ध महात्मा नारायणी नदीक उद्गम-स्थल सं बहराओल शालिग्राम देने छलनि, जकरा लेल बेतिया महाराज सोनाक सिंहासन बनबा देने रहनि। ई सब बात मुदा आब कथा-किंबन्तिये टा मे बचि गेल छल। यात्रीक पिता कें हिस्सा मे पड़ल रहनि बीस बीघा जमीन, मुदा अपन भोगीन्द्र स्वभावक कारण ओ तकरो बेचि-बिकनि क' खा गेल छला। यात्री धरि पहुंचल रहनि मात्र तीन कट्ठा।

            हुनकर जन्म जेठ पूर्णिमा, 1911 कें मातृक सतलखा मे भेल रहनि। ओहि दिन एगारह जून छलैक, मुदा यात्री अपन जन्मदिन एगारह जून कें नहि, जेठ पूर्णिमा कें मनबैत रहला। यात्रीक पिता गोकुल मिश्र हद दरजाक लापरवाह, क्रूर, मनबढ़ू किसिमक लोक छला। माय उमा देवी पैघ घरक बेटी छली मुदा एहि परिवार मे आबि क' कष्टपूर्ण जीवन बितौलनि। ओ अधिकतर बीमार रहथि। पैंतीस-सैंतीसक आयु धरि ओ छव टा संतान कें जन्म देलखिन, पांच मरि गेल, एकमात्र जे जीवित रहल से यात्रिये छला। इहो मरि नहि जाथि तें हुनकर अधलाह नाम ठक्कन राखल गेल। पिताक विश्वास छलनि जे देवघरक महादेवक प्रसादें हुनका पुत्र भेलनि अछि, तें हुनकर नाम वैद्यनाथ राखल गेल। बीमार माय कें दूध नहि उतरनि तें एहि बालकक पोषण खबासिन जनकमणिक दूध पीबि क' भेल। ठक्कन चारि बर्खक रहथि, तखनहि माय मरि गेली। पिता कें घर-परिवार सं कोनो मतलब नहि। ठक्कनक नाना गिरिधारी झा ई प्रयासो केलनि जे गोकुल हुनके परिवार मे दोसर विवाह क' लेथि मुदा विलासी आ स्वच्छन्द गोकुल कें से नहि रुचलनि आ ओ ससुर सं झगड़ा क' ओहि अनाथ बालक कें जबरदस्ती तरौनी ल' अनलनि। ठक्कनक जीवन पहाड़ छल। पुरखेक जबाना मे खबास लोकनि, जकर कथा 'बलचनमा' मे आयल अछि, डीह पर बसाओल गेल रहथि। हुनके लोकनिक सामूहिक आश्रय मे जिबैत ठक्कन अपन नेनपन गुजारलनि। साहित्यकारक रूप मे यात्री कें हमरा लोकनि आम जनक लेल सौंसे जीवन मनसा वाचा कर्मणा समर्पित देखैत छिऐक, से सकारण छल। स्वयं हुनकर जीवन आम जनेक अवदान छल।

            मिथिलाक बारे मे यात्री अपन एक कविता मे लिखलनि अछि, हजारो विद्यापति-मंडन-उदयन एतय बागमतीक कछेर मे माल चरबैत, गोइठा बिछैत जीवन बिता दैत अछि। मुदा एतय भवितव्य किछु आर छल। 1910-20क जबाना मे मिथिला मे अंग्रेजी ढंगक स्कूलक प्रसार बहुत कम छल। ओते पैघ तरौनी गाम मे केवल एकटा लोअर प्राइमरी स्कूल रहैक, जखन कि संस्कृत पाठशाला दू-दू टा। ओ पिता सं ने सिलेट मंगलनि ने पेंसिल, लोअर स्कूल जाय लगला आ लगले शिक्षक रामचंचल झाक प्रियपात्र बनि गेला। पिता घोर विरोध केलखिन जे प्रात:स्मरणीय उपाध्याय लोकनिक वंशधर जं अंग्रेजी पढ़त तं धरती उनटि जायत। जबरन ओतय सं हुनकर नाम कटबाओल गेल आ एकटा फाटल-पुरान अमरकोश कतहु सं मांगि क' आनि देलनि आ वैद्यनाथक विधिवत शिक्षा आरंभ भ' गेल। छोटकी पाठशालाक गुरु सोनेलाल झा अपने दलान पर पढ़बैत छला, मुदा ओहि ठामक जे बाल-संगति, प्राकृतिक परिवेश, पिताक आतंक सं पलखति छल, वैद्यनाथक मोन रमि गेलनि। 1925 मे तरौनी पाठशाला सं नौ टा छात्र प्रथमाक बोर्ड परीक्षा मे सम्मिलित भेल छल। आठ टा फेल क' गेल। एकमात्र जे छात्र पास भेल छल, से वैद्यनाथ छला। सौंसे इलाका मे हुनकर नाम भ' गेल।

            1925 मे दोसर घटना सेहो भेल जकर बहुत महत्व अछि। तरौनीक पं. अनिरुद्ध मिश्र सुलतानगंजक संस्कृत पाठशाला मे अध्यापक रहथि। ओहि साल जखन गरमी-छुट्टी मे गाम एला तं एहि बालकक यश सुनलनि। बजबा क' भेंट केलनि तं अत्यन्त प्रभावित भेला आ हुनका कविता बनायब सिखा देलखिन। ओहि दिन मे काव्यलेखनक आरंभ समस्यापूर्ति सं होइत छल, जकर भाषा संस्कृत होइक। पहिल समस्या जे अनूकाका देने रहनि, से यात्री कें स्मरणे रहनि-- बालानां रोदनम् बलम्। प्रतिभा एहन जे पन्द्रहे दिन मे तीन छंद अनुष्टुप, वसंततिलका आ उपजाति पर हुनकर अधिकार भ' गेलनि।

            गोनौली गामक ग्रामीण लोकनि 1920 मे भवानी भवन पाठशालाक स्थापना ग्रामीण सहयोग सं कयने रहथि आ इलाका भरिक तेज-तर्रार छात्र कें खास तौर पर आमंत्रित कय, कोनहु ग्रामीण गृहस्थक परिवार मे आवासन करा नि:शुल्क शिक्षा दैत छला। 1926 मे वैद्यनाथ एतय आबि गेला। जाहि परिवार मे हुनकर आवासनक व्यवस्था भेल, ओ रघुनाथ झाक परिवार छल। स्त्री आ एकमात्र पुत्री, जकर नाम इन्दुकला छल, अपन पुत्रहीनताक समाधान जेना ओ वैद्यनाथ कें अपना क' पाबि गेल रहथि। वैद्यनाथोक जीवन मे ई पहिल अवसर छल जखन ओ पारिवारिक नेह-छोहक अनुभव क' सकलाह। यात्रीक उपन्यास 'पारो' मे रघुनाथ झाक पुत्री एही इन्दुकलाक कथा आयल छैक। उपन्यासक कथाक आधार पर इहो अनुमान  हमसब क' सकैत छी जे एते व्यस्थित आश्रयक बादो गोनौली हुनका बिच्चे मे किए छोड़बा लेल बाध्य होअय पड़ल हेतनि। अन्तत: पंचगछिया जा क' ओ मध्यमा तृतीय वर्षक पढ़ाइ पूरा केलनि आ उत्तीर्ण भेला।

            एहि बीचक अवधि मे ओ अनेक मास धरि महिषी मे रहला जतय हुनकर जेठ पित्ती परमानंद मिश्र रहैत छला। पितामह छत्रमणि मिश्रक विवाह महिषी। मातृकक संपत्ति पर हिनके लोकनिक अधिकार भेल छलनि। अपन एक कविता 'कोचिंग इन्सटीच्यूट' मे यात्री लिखने छथि जे महिषी मे रहैत ओ सिद्धान्तकौमुदी, रघुवंश, कुमारसंभव, दशकुमारचरित पर अधिकार क' लेने छला। 

            पंचगछिया मे जाहि गृहस्थक घर हुनका आवासन भेटल रहनि, ओ ग्रामीण ज्योतिषी बाबूजी झा छला, जिनकर बालक तारिणीश तहिया प्रथमाक छात्र रहथि। अपन संस्मरण मे तारिणीश झा वैद्यनाथक शालीन व्यवहार, अपूर्व प्रतिभा, विलक्षण काव्यसामर्थ्यक विवरण देने छथि। लिखलनि अछि, संस्कृत आ मैथिली मे तहिया धरि ओ सैकड़ो कविता लिखि गेल रहथि। सौ सं ऊपर तं केवल सम्स्यापूर्ति लिखलनि। ई सब वस्तु आब कतहु नहि भेटैत अछि। हुनकर पहिल प्रकाशित कविता 1929क अछि जे ओ मिथिलामोद-संपादक म.म. मुरलीधर झाक निधन पर लिखने छला।

            मध्यमा पास केलाक बाद ओ सब सं पहिने मातृक सतलखा गेला, जतय सं सब प्रकारक सम्बन्ध पिता तोड़ि चुकल छला। हुनकर पितृकुल आ मातृकुल मिला क' सब सं यशस्वी व्यक्तित्व हुनकर नाना गिरिधारी झाक रहनि जिनकर प्रभूत प्रभाव वैद्यनाथ पर पड़ल छलनि। अगिला बाट सब एतहि सं खुललनि। नानी अद्भुत प्रेममयी स्त्री छली जे ठक्कन कें पाबि क' मानू अपन स्वर्गीया पुत्री उमा कें पाबि गेली। एक मामा काशी रहैत छलनि, दोसर कलकत्ता। पहिने तं वैद्यनाथ कें दरभंगाक महराजी पाठशाला पठाओल गेलनि। मैथिलीक वरिष्ठ आ समतुरिया कवि लोकनिक संग संपर्क तहिये भेलनि। बाद मे ओ काशी गेला जतय गवर्नमेन्ट संस्कृत कालेज सं 1932 मे शास्त्री पास केलनि। 

            यात्रीक व्यक्तित्व-निर्माण मे काशीक एहि तीन वर्षक बहुत महत्व अछि। बासा रहनि रानीकोठा मे, जे कि ओहि दिनक मैथिली गतिविधिक प्रधान केन्द्र छल। ओकरे एक कोठली मे कविवर सीताराम झा रहैत छला, एक मे म.म. मुकुन्द झा बक्शी, एक मे त्रिलोचन झा, बेतिया। तारामंदिरक सत्र मे भोजन करथि। यात्रीक आद्यमित्र सुरेन्द्र झा सुमन एक बेर काशी-यात्रा पर गेल रहथि, तकर विवरण अपन आत्मकथा मे देने छथि जाहि सं ओहि समयक अनेक तथ्य पर प्रकाश पड़ैत अछि। ओतय ओहि भोजनोक प्रशंसा अछि। त्रिलोचन झाक नेतृत्व मे एक हस्तलिखित पत्रिका 'भारती' प्रकाशित होइत छला जकर संपादक वैद्यनाथ रहथि। एहने एक आर पत्रिकाक नाम सुमनजी 'वैदेही' सेहो देलनि अछि। लिखलनि अछि, अनेक अंक बहरायल छल से देखि प्रसन्नता भेलनि, आगू एक विशेषांक प्रेस सं मुद्रित भ' क' छपबाक छल, ताहि लेल ओहो अपन रचना देने रहथि।

            ओही समय मे काञ्चीनाथ झा किरण आयुर्वेद पढ़बाक लेल काशी पहुंचल रहथि। ओ समय छल जखन मोद सेहो बन्द भ' चुकल रहैक। काशी एक बहुलसांस्कृतिक परिवेशक जगह रहय। एतय हिन्दी-उर्दूक तं अपन साहित्यसभा रहबे करय, बंगला, मराठी आ गुजराती, कन्नड़ आ मलयालम धरि के रहय। मुदा, मैथिलीक ने कोनो साहित्यसभा छल ने मैथिलक कोनो व्यापक परिचिति। जे महाविद्वान लोकनि ओतय रहथि हुनका लोकनिक यश हुनकर हुनकर पांडित्यक कारण छलनि, मैथिलत्वक कारण नहि। तें एहि सं किनसाइते मैथिलीक कोनो उपकार भ' सकैत हो। त्रिलोचन झा बहुत पहिने सं एहि दिशा मे किछु करय चाहैत छला, एतय धरि जे 'भारती निकेतन प्रस्ताव' ओ तैयार कयने छला जे कि समुचित समर्थनक अभाव मे अस्वीकृत भ' चुकल रहैक। रानीकोठा मे जे एखन नवतुरिया लोकनि रहैत रहथि जाहि मे मुख्य वैद्यनाथ रहथि, किछु नव करबाक ताक मे रहथि। हिनका लोकनिक अयला सं त्रिलोचन झा कें सेहो बल भेटल रहनि। 'भारती निकेतन' नाम सं आब एक संस्था बनल छल। यैह 'भारती'क प्रकाशक छल।

            ई युवक लोकनि के सब छला तकर विवरण किरण जीक एक लेख मे आयल अछि। एक बेरुका बैसार मे जे ई लोकनि अपन उपनाम धारण कयने छला-- कुलानंद मिश्र केसरी, देवचन्द्र झा चन्दिर, वामदेव मिश्र विमल, काञ्चीनाथ झा किरण, वैद्यनाथ मिश्र वैदेह। श्यामानंद झा एहि दुआरे उपनाम-धारण सं इनकार केलनि जे एहि सं हिन्दीक छायावादी कवि सभक नकलक भान होइत छैक।

            रानीकोठा असल मे रानी लक्ष्मीवती छात्रावास छल, जकर स्थापना रानी लक्ष्मीवती(स्वर्गीय महाराज लक्ष्मीश्वर सिंहक पत्नी) करबौने छली। ओ अपनहु ओहि समय मे काशिये मे रहैत छली। 'बालवर्द्धिनी सभा' नामक एक आयोजन सेहो हुनके व्यय पर होइत छलै, जाहि मे प्रतिभाशाली मैथिल युवक कें नगद पारितोषिक देल जाइक। अनेको बेर महारानीक अनुदान हुनका भेटलनि, आनोआन काव्य वा वक्तृताक प्रतियोगिता मे विजयी भेने नगद पुरस्कार भेटनि। ओही सब सं परदेस मे सहजतापूर्वक आगू बढ़ब संभव भ' सकलनि।

            नीक सं नीक तरहें कविता लिखबा मे आ नव नव भाषा सिखबा मे हुनका बेस रुचि आ गति रहनि। कविवर सीताराम झा निर्णायक रूप सं हुनकर काव्यलेखन कें दिशा देलखिन। ज्योतिषाचार्य बलदेव मिश्र बालवर्द्धिनी सभाक संयोजक रहथि, जे वैद्यनाथक प्रतिभा सं बेस प्रभावित भेला। हुनका मार्गदर्शन मे ओ प्राकृत, पालि आ अपभ्रंश नीक जकां सीखि लेलनि। जाहि संस्कृत कालेजक ओ छात्र रहथि तकर प्राचार्य ओहि समय मे प्रख्यात तंत्रविद् गोपीनाथ कविराज रहथिन, मुदा वैद्यनाथक रुचि संस्कृतक ओहि अपर धारा मे रहनि जाहि मे लोकपक्षक विलक्षण अभिव्यक्त भेल छैक। तें हुनकर सर्वाधिक प्रिय अध्यापक मधुसूदन शास्त्री छलखिन जिनका प्रति सब दिन ओ श्रद्धाशील बनल रहला। 

            आइ सौंसे संसार मे विद्यापति-पर्व मैथिलत्वक पहचान बनि क' प्रसिद्ध अछि। मुदा एकर आविष्कार कोना भेल छल, तकर कथा किरण जी अपन एक लेख मे लिखने छथि। 1931क कातिक शुक्ल एकादशी दिनक घटना थिक जे रानीकोठाक एक विद्यार्थी हुनकर भेंट करय अयला आ हुनका एकटा पुरजा देलखिन। एक-डेढ़ इंचीक ओहि पुरजा पर एतबे लिखल-- 'कातिक धवल त्रयोदशि जान/ विद्यापतिक आयु अवसान/ विद्यापति-पर्व मनायब?' के लिखलक, ककरा आ कतय सं, कहिया लिखलक, ओहि पर किछु अंकित नहि। लिखावट वैदेह जीक रहनि, से किरण जी चीन्हि गेला आ एहि सूझ पर चकित रहि गेला। समुच्चा भविष्य जेना एक क्षण मे हुनका आगू मूर्त भ' उठलनि आ लगलनि जेना एही चीजक खोज मे ओ लोकनि एते समय सं भटकि रहल छला। किरण जी लिखलनि अछि, 'मिहिर मे हम लिखि चुकल छी जे विद्यापति-पर्व मनेबाक सूझ वैदेह जी देने छला। मन मे दृढ़ धारणा बनि गेल जे देखबा मे नेनमूंह, चेहरे-मोहरे लटपटाह रहितहु ओ भितरका बिन्हा बुधियार छथि, आगू बढ़बाक बुद्धि नीक छनि।' हुनका लोकनि कें तैयारी लेल एके दिनका समय भेटल रहनि मुदा कार्यक्रम तेहन गंभीर आ गरिमापूर्ण भेल जे काशी मे मैथिलक पहचान बदलि देलक। एकरे अगिला चरण हिन्दू विश्वविद्यालय मे मैथिलीक प्रवेश छल।

             ओ समय राष्ट्रीय चेतनाक प्रसारक समयक छल। वैद्यनाथ काशीक माहौल मे रहैत एहि चेतना सं अवगत भेला आ युगधर्मक अंगीकारक पथ पकड़लनि जे कि आम मैथिल पंडित मे सुलभ नहि छल। महान लेखक प्रेमचंद आ जयशंकर प्रसादक ओतय हुनकर आयब-जायब छल। बीच चौराहा परक वाचनालय मे बैसि क' क' ओ प्रतिदिन 'आज' दैनिकक पारायण करथि, जे कि एक उग्र राष्ट्रीय विचारधाराक स्वतंत्रता-संघर्षक समर्थक अखबार छल। एम्हर पंडित लोकनिक स्थिति छलनि जे 'आज' पढ़निहार युवा कें ओ लोकनि पांज सं बाहर गेल बूझथि आ तें कुपित रहल करथि। कारण स्पष्ट छल। पंडित लोकनि महाराजक अनुगामी रहथि आ महाराज अंग्रेजक पिट्ठू।

             रानीकोठाक दूटा संस्मरणक उल्लेख एतय आवश्यक जाहि सं वैद्यनाथक मनोनिर्माण कें बूझल जा सकैत अछि। ग्रहण-स्नान वा कोनो विशिष्ट पर्वक अवसर पर जखन मिथिलाक तीर्थयात्री भारी संख्या मे काशी पहुंचथि तं रानीकोठाक निचला तल्ला कें धर्मशाला बना देल जाइत छल। एहने एक अवसर बितलाक बाद निचला तल्लाक कोनो कोठली सं सड़ल मुरदाक दुर्गन्ध आयब शुरू भेल। परेशान तं सब रहथि मुदा देखबाक किनको चेष्टा नहि। वैद्यनाथ देख' गेला तं पौलनि, एक बूढ़ीक लहास थिक जे सड़ि चुकल छैक। ओ अंत्येष्टिक योजना बनौलनि मुदा संग देनिहार क्यो नहि। स्थानीय एक मित्रक मदति सं अपन चद्दरि मे लहास कें बान्हि, मणिकर्णिका जाय संस्कार क' अयला। मुखाग्नि देलखिन आ घुरती बेर अपन चद्दरि सेहो गंगा मे धो क' लेने एला। पंडित लोकनि हुनकर बहुत विरोध केलखिन। बाद मे पता लागल, ओ बूढ़ी उदयनाचार्य-कुलक वधू रहथि। हुनकर बेटा जखन एलखिन आ सब बात पता लगलनि, भरि पांज पकड़ि क' कनला--अहां हमर माय कें मुखाग्नि देलियनि, अहां हमर सहोदर छी, सहोदर सं बढ़ि क' छी।

             दोसर घटना काशी सं बिनु एक पाइ संग मे रखने पैदल प्रयाग जेबाक प्रसंग थिक। तीन गोटे चलल छला, दू घुरि गेला मुदा कठिन परिस्थितिक सामना करैत वैद्यनाथ प्रयाग पहुंचिये क' निचैन भेल रहथि। एहि सभक विपरीतो प्रभाव होइत छल जे पंडित लोकनि कुपित रहल करथिन। गोकुल बाबू धरि समाद चलि गेलनि जे बेटा एतय रजनी-सजनी मे लागि गेल अछि मुदा, वैद्यनाथ अपन पथ पर अडिग छला। कतेको आचार्य जखन हुनका आरोपित करनि तं कहथिन-- 'गुरुजी, अपने देखि लेबै। अपनेक व्याकरण पोथिये मे समेटल रहि जायत मुदा हमर काव्य लोकक हृदय धरि पहुंचत, लोक अपन सुख-दुख एहि पांती सब मे पौताह।' पंडित लोकनिक असहयोगक कारण जं कहियो आर्थिक संकट मे पड़थि तं भवानीगलीक एक मोड़ पर जा पुराण-महाभारत-जातकक कथावाचन क' अर्थोपार्जन क' लेल करथि।

             1932 मे शास्त्रीक परीक्षा द' क' देस घुरला तं हुनकर विवाह भेल रहनि। हरिपुर गामक कृष्णकान्त झा उर्फ कंटीर बाबू एक संपन्न गृहस्थ रहथि आ एहि दरिद्र परिवार मे एही लेल अपन कन्या, जिनकर नाम 'दाइ' अथवा 'छोटकी दाइ' रहनि, के विवाह केलनि जे वर काशी मे पढ़ैत छथि आ होनहार छथि। वैद्यनाथ जखन केवल आठ वर्षक रहथि तखनहि गोकुल बाबू हुनकर विवाह तय क' लेने छला, तकर बादो हुनकर प्रयास जारी रहलनि, बड़ मुश्किल सं वैद्यनाथ एखन धरि बचैत आयल रहथि। आब तं ओ निराश भ' गेल रहथि जे हुनक पुत्रक विवाह हो से ईश्वर कें मंजूर नहि छनि। एही कारणें दहेज लेबाक तं कोन कथा जे उनटे ओ कन्यागत कें टाका गनि आयल रहथि। यात्री एकरा 'आदिपर्वे मे महाभारतक अशुद्ध भ' जायब' कहैत छला। 

             विवाहक बाद थोड़बा दिन गाम रहि ओ कलकत्ता चलि गेला। जेबाक उद्देश्य कमायब छल। मुदा ने तं हुनका पंडिताइ के पेशा पसंद एलनि ने ट्यूशनक। ओ कलकत्ता विश्वविद्यालयक विख्यात संस्कृत कालेज मे, काव्यतीर्थ मे एडमिशन करौलनि। केवल तीन छात्र कें पन्द्रह टाका मासिक छात्रवृत्ति भेटैत छलनि, ताहि मे एक इहो छला, सेहो हिनकर संस्कृत काव्य-क्षमतेक उपलब्धि छल। कलकत्ता हुनका मिथिलाक एक विशाल संस्करण सन प्रतीत होइन, जतय मिथिला सन के संकीर्णतो नहि छलैक आ महानगरीय परिवेशक कारणें क्षुद्रतो सभक परिष्कार भ' गेल रहैक। कलकत्ता मे लाखो मैथिल रहैत रहथि मुदा काशिये जकां ने कोनो साहित्यसभा सक्रिय छल ने कोनो संस्था। ताधरि किरण जी सेहो टी सी ल' क' कलकत्ता आबि गेला। ई दुनू गोटे कठिन परिश्रम क' क' मैथिल लोकनिक संगोर केलनि आ ओतहुक जे सब सं प्राचीन संस्था रहैक 'शिक्षित मैथिल संघ' तकरा पुनर्जीवित केलनि। विद्यापति-पर्व ओतहु धूमधाम सं होअय लगलैक। मैथिल महासभाक संकीर्ण दृष्टिकोणक कारण मैथित्व पर ओहि समय मे भारी संकट रहैक, मुदा ई लोकनि अपन संस्थाक संविधान मे 'मैथिल' कें एहि रूपें परिभाषित केलनि-- 'मिथिलाक मूलनिवासी, मैथिली बाजनिहार समस्त जाति, धर्म अ संप्रदायक लोक मैथिल मानल जेताह।'

             1934 मे जखन काव्यतीर्थक परीक्षा द' क' वैद्यनाथ गाम घुरल रहथि तं हुनकर द्विरागमन भेल रहनि। गोकुल बाबू आ कंटीर बाबूक बीचक सम्बन्ध कटु भ' गेल रहनि। विवाहक बाद जे कोजागराक भारी-भरकम भार तरौनी पठाओल गेल रहैक तकरा ओ समाज मे बांटबाक बदला बेचि लेने रहथि, से सूचना हरिपुर आयल आ ताही सं कटुताक आरंभ भेल रहैक। तरौनीक एहि डीह पर एक ढहल-ढनमनायल ढांचा मात्र ढाढ़ छल जाहि मे जंगली जानवर सभक बसेरा रहैक। घरहटक लेल खढ-बांस समेत हरिपुर सं आयल छल। कैक युगक बाद एहि कनियां, जिनकर नाम यात्री अपराजिता रखलनि, के अयलाक बाद एहि डीह पर डिबिया जरल, चूल्हि पजरल छल। थोड़बा दिन गाम रहि यात्री तं अगिला यात्रा पर बहरा गेला, एम्हर अपराजिता कें जल्दिये ई भान भ' गेलनि जे एहि ससुरक जिबैत सासुर-वास हुनका बुतें संभव नहि अछि। ओ नैहर घुरि गेली आ 1943 मे गोकुल बाबूक निधनक बादे स्थायी रूप सं तरौनी आबि रहली।

             1943 मे जखन गोकुल बाबूक निधन काशीक गंगाघाट पर भ' रहल छलनि, तखन यात्री सुदूर हिमालयक अधित्यका सब कें राहुल सांकृत्यायनक संगें पांव-पैदल पार करैत तिब्बत के थोलिङ् महाविहार मे बौद्धसाहित्यक गंभीर अध्ययन मे लागल छला। एते पैघ परिवर्तन कोना भेलैक, से कथा जतबे रोचक अछि ततबे प्रेरक।

             1934 मे जखन पुन: कलकत्ता अयलाक बाद वैद्यनाथ जे रोजगार तकलनि, सेहो अद्भुत छल। मूल विद्या जे हुनक छलनि से नहि, अपर विद्या जे ओ सौख सं सिखने छला प्राकृत-अपभंश, ई तकर प्रसाद छल। ओ सहारनपुर चलि गेला। ओतय किछु दिन भूतेश्वरक ब्रहाचर्याश्रम मे संस्कृत व्याकरण सेहो पढ़ौलनि। ओतय सं पटियाला होइत ओ लाहौर पहुंचला जे ओहि दिन मे साहित्य आ संस्कृतिक राजधानी छल। कलकत्ता मे छला तखनहि ओ एक लेख 'मृत्युंजयकवि तुलसीदास' लिखने छला जे 'दीपक' के जनवरी 1934 के अंक मे छपल छल। एकर संपादक छला स्वामी केशवानंद, एक आर्यसमाजी साधू जे छला तं भारी जमींदारी बला महंथ, मुदा हिन्दी-सेवा लेल अपन सर्वस्व न्योछावर क' देने छला। 300 सं बेसी स्कूल, 150 सं बेसी पुस्तकालय आ 50 सं बेसी छात्रावासक स्थापना ओ करबा चुकल छला। 'दीपक' मे छपल वैद्यनाथक लेख सं ओ बड़ प्रभावित भेल छला। जखन लाहौर मे दुनू गोटेक भेंट भेलनि, वैद्यनाथो हुनका सं तहिना प्रभावित भेला। स्वामी जी हुनका सं आग्रह केलखिन आ ओ 'दीपक'क संपादक बनब गछि लेलनि। हुनकर स्वभाव रहनि, कतहु जमथि तं अनंत कालक लेल नहि, करार क' लेथि जे कते दिन रहता। दू वर्षक करार भेलनि।

             यात्रीक जीवननिर्माण कें जे गुरुजन तात्विक रूप सं प्रभावित कयने रहथिन ताहि मे ई स्वामी जी प्रथमस्थानीय छला। दोसर छला विद्यालंकार परिवेणक कुलपति नायकपाद धम्मानंद, आ तेसर छला स्वामी सहजानंद। अपन नाम सं ई तीनू साधु-संत सन प्रतीत होइत छथि मुदा वास्तविक रूप सं निचच्छ संत एक्को नहि छला। सहजानंद तं तेहन क्रान्तिकारी रहथि जे भूमिगत किसान-आन्दोलन (माओवादी-नक्सलवादी) के ओ आदिम पुरखा मानल जाइत छथि। तहिना केशवानंद। भारत-विभाजनक समय जे फाजिल्का-अबोहर के इलाका पाकिस्तान कें नहि भेटलैक, भारत मे बनल रहलैक, तकर कारण छल ओहि इलाका मे जबरदस्त हिन्दी-प्रचार, आ एकर जनक केशवानंद रहथि। केशवानंद संगे वैद्यनाथक तेहन एकात्म रहनि जे सौंसे हिन्दी-जगत एहि बात सं निश्चिन्त रहय जे केशवानंदक ओ उत्तराधिकारी हेता आ हुनकर काज कें आगू बढ़ेथिन। वैद्यनाथक एखन धरिक‌ जीवनक ई सब सं सुखी कालखंड छल, जतय सब सुविधा तं रहबे करनि गाम पठेबा लेल जखन जते चाही, राशि सेहो उपलब्ध रहनि। मुदा, तस्यां जागर्ति संयमी। अपन जीवन मे एतेक निरंतर अध्ययन ओ कहियो नहि कयने छला जते अबोहर मे रहैत कयलनि। पहिने हुनकर पाठ्यविषय होइत छलनि प्राचीन साहित्य। एतय ओ देशी आ विदेशी भाषा सभक नवीन आ समकालीन साहित्य मे डूबल रहलाह। जहिना कि हुनका कोनो नव किताब छपबाक सूचना भेटनि, ओ स्वामी जी कें कहथिन। स्वामी जी दस-दस प्रति मंगवा लेथि, वैद्यनाथक अतिरिक्त आनो लोक सब कें देथिन, पुस्तकालयो मे राखथि।

             ओहि दिन मे राहुल सांकृत्यायन देशज बौद्धिकताक महाकाय व्यक्तित्वक रूप मे उभरि रहल छला। चारू दिस हुनकर चर्चा रहनि। एहि बीच मे ओ प्रामाणिक बौद्धग्रन्थ सभक अनुवादक काज मे लागल छला। हुनकर 'मज्मिमनिकाय' छपलाक तुरंत बाद जखन वैद्यनाथक हाथ अयलनि, यैह ओ पुस्तक छला जे हुनका आमूलचूल बदलि देलकनि। पुरान संस्कार झड़ि गेल छल। नव स्वप्न-सेहन्ता सं भरल-भरल रहथि, ई किताब पढ़लाक बाद हुनका स्पष्ट भ' गेलनि जे हुनकर स्वप्नक संसार जं कतहु अछि तं से बौद्धयुग मे। राहुलक योग्यता सभक ओ पता लगेलनि तं यैह स्पष्ट भेलनि जे जतबा विद्या हुनका अबै छनि ओ सबटा तं हिनको अबै छनि। ओ जं कोनो विशेष काज क' सकै छथि तं से काज तं इहो क' सकैत छथि।

             मज्झिमनिकायक प्रकाशन महाबोधि सोसाइटी, सारनाथ सं भेल रहैक। ओ सोसाइटीक अधिकारी कें पत्र लिखलनि जे हम मूल भाषा मे प्रामाणिक बौद्धग्रन्थक अध्ययन करय चाहै छी। जवाब अयलनि जे ई काज अपना देश मे संभव नहि अछि, एहि लेल अहां कें लंका जाय पड़त। ओ लंका जेबाक अनुमति मंगलनि तं उतारा एलनि जे पहिने अहां सारनाथ आउ तखनहि सोचल जा सकैए। ओ साहित्य सदान, अबोहर आ 'दीपक'क काज सं मुक्त भ' क' लंका जेबाक निश्चय स्वामी जी कें सुना देलखिन। दू वर्षक करार पूरा हेबा पर छल। स्वामी जी तं मानू आकाश सं खसला, ओ तं निश्चिन्त छला जे वैद्यनाथ आब कतहु नहि जेताह। ओ रोकबाक बहुत प्रयास केलखिन, सब निरर्थक। विदा काल ओ बड़ कनलाह। कपड़ा, जूता, पर्याप्त पाइ द' क' विदा करैत कहलखिन जे एतय तोहर आसन सब दिन खाली रहतह, घुरिहह तं सीधा एतहि अबिहह। मुदा, यात्रीक शाश्वत यायावरीक ई स्वभाव छल जे जतय सं ओ एक बेर बढ़ि गेला, फेर घुरि क' ओही काजक लेल ओहिठाम नहि गेला।

             काशी अयला तं ओ समस्त गुरुजन, मित्रसमाज मौजूद छल, एतय धरि जे किरण जी फेर काशिये आबि क' चिकित्सकक काज करैत छला, मिथिलामोद सेहो फेर सं छप' लागल रहय, मुदा वैद्यनाथ ओहि सब दिस उनटियो क' नहि तकलनि। ओ अपन एक गैरसाहित्यक ग्रामीण मित्रक संग टिकला आ सारनाथ सं संपर्क साधैत रहला। महाबोधि बला लोकनिक शर्त आब बदलि गेल रहनि। हुनका सभक कहब रहनि जे अहां पहिने बौद्ध भ' जाउ तखने ओतय पठेबाक व्यवस्था क' सकै छी। वैद्यनाथ कें ई बात अनुचित लगलनि आ ओ अपना बल पर लंका पहुंचबाक निर्णय लेलनि। बल छलनि ओ तीन हजार टाका जे केशवानंद विदा होइत काल देने रहथिन, जखन कि ओ युग छल जखन एक टाक बीस सेर आटा वा चाउर भेटैत रहैक।

             हमरा लोकनि इहो देखैत छी जे 1936क एहि समय मे आबि क' वैद्यनाथक मोन घर-परिवार, गाम-घर सं वितृष्ण भ' गेल रहनि आ ओ एक विचित्र प्रकारक वैराग्य सं भरल रहथि। काशी मे एहि बेर अपन जाहि मित्र सुरेन्द्रक संगे ओ टिकल रहथि से पूरा कोशिश केलखिन जे ओ पहिने गाम जाथि, सासुर जाथि, मुदा वैद्यनाथ टस सं मस नहि भेलाह। जखन ओ बनारस मे मद्रासक ट्रेन पकड़तथि, ठीक तखने ओ 'अंतिम प्रणाम' कविता लिखने छला, आ एक लिफाफ मे बंद क' मोदक पता पर पठा देने रहथिन। ध्यान रखबाक थिक जे ताधरि ने ओ बौद्ध भेल छला ने समुद्र पार कयने रहथि। ओहि कविता मे जे अछि से बस मानसिक दशाक सूचक थिक, जे आगू अक्षरश: फलित भेलैक। किरण जी लिखने छथि, कतेको गरीब आ समस्याग्रस्त मैथिल हरेक साल घर सं भागि क' गुदरिया बनि जाइछ, ककर समाचार अखबार मे छपैत छैक? मुदा ओ तेहन मार्मिक कविता लिखने रहथि जे मिथिलाक सब वर्ग मे ओ राताराती प्रसिद्ध भ' गेला। हजारो लोक होयत जकरा ई कविता मुंहजवानी यादि रहैक। कविक लेल सभक हृदय मे आह उठैक। जाधरि मोद मे ई कविता छपल, ओ लंका पहुंचि गेल रहथि। यैह कविता छल जाहि मे ओ अपना नामक संग पहिल बेर 'यात्री' लगौने रहथि।



यात्रीक जीवन-यात्रा मे हमरा लोकनि देखैत छी जे हुनकर कोनहु लक्ष्य कहियो आसानी सं पूर्ण नहि भेलनि। मुदा, हुनकर संकल्पशक्ति तते दृढ़ आ प्रयास तते सघन, धैर्य तते एकनिष्ठ रहलनि जे अन्तत: सफलता हुनका भेटिते रहलनि। काशी सं मद्रास पहुंचला तं तीनू हजार टाका चोरि भ' गेलनि। वापस नहि घुरबाक निर्णय लैत आगू बढ़ला तं लंका पहुंचियो क' एक सनातनी महंथक मठ मे साल भरि बन्हकी लागल रहला। ओतय तेहन बीमार पड़ला जे जीवित रहबाक भरोसे नहि बचलनि। हुनकर मैथिली कविता 'मातृभूमि' आ हिन्दी कविता 'उनको प्रणाम' एही रोगावस्थाक चरम हताशा मे लिखल गेल छल। हिनक मृत्युक डरें डेरायल महंथ छोड़लकनि तं आगुओ अनेक बाधा अयलनि। अन्तत: काशी प्रसाद जायसवालक टेलीग्रामिक संस्तुति पर विद्यालंकार परिवेण मे जगह भेटलनि। कुलपति नायकपाद अद्भुत साधक रहथि जे अपन मनोलोक मे मानू बुद्धयुग मे जिबैत बुद्धक शिष्यरूप मे हुनका संग विहार करैत अवस्था मे सक्रिय रहथि। ओ यात्री सं खूब प्रभावित भेला। भिक्षुछात्र कें संस्कृत व्याकरण पढ़ेबाक काज भेटलनि आ बांकी समय स्वयं नायकपाद सं आ आन आचार्य लोकनि सं  बौद्धसाहित्य पढ़बाक लेल हुनका लग पूरा समय छलनि। 

             लंकाक समाज अपना ओतक समाज सं पूरे भिन्न छल। कबुला वा मनौती पर अपना ओतय चतुरतापूर्वक छागर-पाठी बलि देल जाइत अछि। ओतक प्रथा छल जे लोक अपन पुत्र भगवानक काज लेल समर्पित करैत छल। यैह बालक सब होइत छला भिक्षुछात्र, जकर परवरिश मठ के दायित्व होइक। तहिना, जातिधर्म-संप्रदायकक नियम ओतय सर्वथा अलग छल। कोनो गृहस्थ कें जं तीन कन्या हो तं एहनो संभव छल जे एक के विवाह हिन्दू मे दोसरक बौद्ध मे तं तेसर इस्लाम मे भ' सकैत छल। मुदा ओतय जे बन्धन सब सं अलंघ्य रहैक से ई जे एक भिक्षु भने ओ आयु वा विद्या मे कतबो अल्प होअय, एक गृहस्थक तुलना मे सदति उच्चतर आसनक अधिकारी होइत छल। एही कारणें यात्री जे अपन चटिया सब कें पढ़ाबथि, ओ सब बैसनि उच्चासन पर अपने नीच आसन पर बैसय पड़ैत छलनि। छात्र सभक प्रेम आ श्रद्धा हुनका प्रति ततेक छलनि जे स्वयं छात्रे सब कें ई अधलाह लागैक। दोसर, ओ सब हिनकर सेवा करय चाहैत छल, सेहो संभव नहि छलैक। 

             जे यात्री सारनाथ मे बौद्ध बनबा सं साफे इनकार कयने छला वैह कालान्तर मे कोना बौद्ध भ' गेला, तकर प्रसंग बहुत मार्मिक अछि। ओही बालभिक्षु छात्र लोकनिक स्नेह, श्रद्धा आ सेवाभावना हुनका रस्ता बदलबा लेल प्रेरित केलकनि। पहिने तं उपसंपदा भेलनि, पाछू प्रव्रज्या सेहो ग्रहण केलनि। ओही महान गुरु धम्मानंद सं ओ दीक्षा प्राप्त केलनि जिनका सं सात वर्ष पहिने राहुल सांकृत्यायन आ आनंद कौशल्यायन दीक्षित भेल रहथि। अपना लेल ओ अपनहि नाम चुनलनि-- नागार्जुन। मोन मे रहनि जे आचार्य नागार्जुन (150-250ई.)क जे ग्रन्थ सब अपूर्ण रहि गेलनि अछि तकरा पूरा करताह।

             लंकाक एही परिवेण मे रहैत ओ पहिल बेर वामपंथ सं परिचित भेल रहथि। वर्गचेतना, वर्गसंघर्ष आदि शब्द तखनहि हुनका धारणा मे शामिल भेलनि। नियम छल जे हरेक भिक्षु अध्यापकक संरक्षक(आवश्यकतानुसार सेवा हेतु) कोनो संपन्न गृहस्थ कें बनाओल जाइक। हिनक जे संरक्षक रहथिन से बैरिस्टर निशंक वामपंथी पार्टी 'लंका सम समाज'क सदस्य रहथि। हुनकर पैघ व्यक्तिगत पुस्तकालय। ताहि मे वामपंथी साहित्यक भरमार। मार्क्स-लेनिनक जीवनीक संग-संग हुनकर रचनावली कें सेहो ओ घांगि गेलाह।

             भारतक स्वतंत्रता-संघर्ष अपन निर्णायक दौर मे प्रवेश क' गेल छल। यात्रीक रोज अखबार पढ़बाक हिस्सक बहुत पहिनेक, पंचगछियेक जबानाक छलनि। एतय भारत सं दूटा अखबार अबैत छल, जकरा ओ अपने तं पढ़बे करथि हुनका जिम्मा इहो काज छलनि जे मुख्य समाचार आ संपादकीय अभिमत सं नायकपाद कें अवगत कराबथि। शास्ता भगवानक जन्मभूमिक स्वातंत्र्यचेष्टा मे नायकपादोक बेस रुचि रहैत छलनि। ओ देखलनि जे बिहार मे स्वामी सहजानंद एक नव तरहक संगठित संघर्ष क' रहल छथि। ई हुनकर ध्यान आकृष्ट केलकनि। अमृत बाजार पत्रिका मे सहजानंदक एक लेख पढ़ि तते प्रभावित भेला जे हुनका पत्र लिखलखिन। एवंप्रकारें हुनका सघन संपर्क मे अयलाह। एहने संपर्क हुनका सुभाषचन्द्र बोस संगे सेहो भेलनि। राहुल सांकृत्यायन आब हुनकर एक वरिष्ठ मित्र छलखिन।

             राहुल जीक तिब्बतयात्राक उपलब्धि सब कें देखैत बिहार सरकार जखन हुनका अगिला यात्रा लेल पचीस हजारक अनुदान स्वीकृत केलकनि तं राहुल जी अपेक्षाकृत कर्मठ युवा विद्वान सभक नव टीम गठित केलनि जाहि मे एक नाम नागार्जुनक सेहो रहनि। एम्हर सहजानंद स्वामीक पत्र आबनि जे 'राहुल तोरा बरबाद क' देतह। ओ मुइल मुरदा सभक खोज मे अपन ऊर्जा जियान क' रहल अछि, तों देशक जीवित मुरदा सभक सुधि लैह।' विचित्र धर्मसंकट मे पड़ल यात्री जखन नायकपाद सं अनुमति मांगय गेलाह तं राहुल जीक यात्रा मे शामिल हेबाक लेल अनुमति भेटलनि। तीन वर्षक समय पूरैये बला छल, मुदा नायकपादक कहब भेलनि--यात्रा सं घुरलाक बाद सीधे एत्तहि अबिहह। 

             देश घुरलाक बाद राहुल जीक टीमक संग भ' तिब्बत तं बहरेला जरूर मुदा बाट मे तेहन ज्वरग्रस्त भेला जे घुरि आबय पड़लनि। ओही घुरतीकाल मे ओ अपन प्रसिद्ध कविता 'बादल को घिरते देखा है' लिखने रहथि। स्वास्थ्य-लाभ क' क' स्वामी सहजानंदक सीताराम आश्रम, बिहटा पहुंचला, आ किसान सभाक एक क्रान्तिकारी भ' गेला। ओहि समय मे राजनीतिक कार्यकर्ता तैयार करबाक लेल ट्रेनिंग-कैम्प सब होइ। एक मास धरि चलल 'समर स्कूल आफ पालिटिक्स' (मई-जून 1938) सं हुनकर राजनीतिक जीवनक आरंभ भेल रहनि। तकरा बाद स्वामी जी हुनका किसान सभाक काज कें आगू बढ़ेबाक लेल चंपारण पठा देलकनि। चंपारण कें तहिया गांधी जीक 'बैनामा जिला' मने खरिदुआ जगह कहल जाइ। तात्पर्य जे ओहिठाम गांधी जीक विरुद्ध क्यो किछु नहि सुनि सकैत रहय, जखन कि सहजानंदक समुच्चा राजनीति गांधी जीक विरुद्ध रहय। गांधी जी जतय जमीन्दार सभक संरक्षक रहथि, ई लोकनि जमीन्दारी-उन्मूलन लेल, किसानक मुक्ति लेल लड़ैत छलाह। चंपारणक इलाका मे भगतसिंह आ चंद्रशेखर आजाद भूमिगत रहि क' क्रान्तक काज कयने रहथि। हुनका लोकनिक बनाओल एक पैघ टीम छल। भिक्षु नागार्जुन ओहि टीम कें अपना संग कयलनि। ओहि इलाका मे किसान आन्दोलनक काज करैत जे हुनका अनुभव भेल रहनि, तकरे कथा 'बलचनमा' मे आयल अछि। अहिना, धर्मक नाम पर अनाचार कें प्रश्रय देनिहार बुलहवा मठ के महंथ-भूमाफिया सभक विरुद्ध जे ओ सफल संघर्ष चलौलनि तकर कथा हुनकर उपन्यास 'जमनिया का बाबा' मे आयल छैक।

             1938क अक्टूबर मे राहुल सांकृत्यायन तिब्बत सं घुरला तं ओहो किसान सभाक सक्रिय राजनीति मे आबि गेला आ यात्री कें अपना संग बजा लेलनि। ई लोकनि सारण के अमवारी मे तीव्र किसान आन्दोलन चलौने छला, जाहि मे राहुल जी पर जमीन्दारक आदमी हमला सेहो कयने छल। जमीन्दार आ सरकार जें कि एकमत छल, हिनका लोकनि कें गिरफ्तार क' जेल पठा देल गेलनि। दुनू गोटे संगहि छपरा आ सीवान जेल मे रहथि। जेल मे रहैत राहुल अपन प्रथम उपन्यास 'जीने के लिए' डिक्टेशन पर लिखने रहथि, राहुल कहने जाथिन यात्री लिखने जाथि। बाद मे हजारीबाग जेल मे संगे रहला। यात्रीक दोसर जेलयात्रा किछु समय बाद तखन भेल रहनि जखन ओ सुभाषचन्द्र बोसक अभियान 'न एक पाई न एक भाई' के समर्थन मे गुप्त परचा छपबा क' जनता मे वितरित करैत छला। एहि बेर भागलपुर जेल मे रहला। जेल मे भिक्षु वेष मे रहथि तें अखबारो सब मे कहियो कोनो खबरि छपैक तं भिक्षु नागार्जुन कहि क' छपैक। अखबारे सब सं ई खबरि तरौनी पहुंचल छल आ जखन छुटबाक दिन आयल, गोकुल बाबू जेलक गेट पर हाजिर छला। एतबा दिन मे यात्री एहि बातक लेल तं भीतर सं तैयार भ' गेल छला जे विवाहिता स्त्री कें अपना लेता मुदा राजनीतिक क्रियाकलाप धरि नहि छोड़ता। भागलपुर सं ओ लोकनि सीधे हरिपुर पहुंचला जतय विधिवत सनातन धर्म मे हुनकर वापसीक कर्मकाण्ड भेल छल।

             

             अगिला कैक वर्षक समय ओ जीविकाक खोज मे, विभिन्न काज करैत बितौलनि। जीविकेक क्रम मे मैथिली कविताक दूटा पुस्तिका 'विलाप' आ 'बूढ़ वर' छपबौने छला जकरा ट्रेन मे, मेला-सभा मे गाबि-गाबि बेचल करथि। मुदा, अपराजिता कें ई काज पसंद नहि छलनि। दोसर, जाहि गहन भावनाक संग ओ मैथिली संग जुड़ल‌ छला, तकर साक्षी हुनकर कविता 'कविक स्वप्न'(1941) थिक, तकर कद्रदान ओहि समयक मैथिली-संसार मे छलैक नहि। ओ फेर परदेसक बाट पकड़लनि। एहि यात्रा मे पत्नी अपराजिता सेहो थोड़ दिन संग रहली, मुदा गाम सं बाहर हुनकर मन नहि रमि सकलनि। यात्री किछु दिन हैदराबादक सारस्वत ब्राह्मण पाठशाला मे प्रधानाध्यापक रहला, किछु दिन सिन्ध राष्ट्रभाषा प्रचार समितिक मुखपत्र 'कौमी बोली'क संपादक रहला।

             एही क्रम मे आगू जखन ओ इलाहाबाद पकड़लनि, जतय राहुल जी सेहो रहथि, तं 1943क ग्रीष्म मे हरिद्वार-ऋषिकेश होइत हिमालयक खोह सब कें धांगैत दुनू गोटे थोलिङ् महाविहारक यात्रा पर तिब्बत विदा भेलाह। रस्ता मे एक दुर्घटनाक बाद राहुल जी तं घुरि गेला, यात्री असगरे तिब्बत पहुंचला आ खूब रमला। लंका जाइते जेना ओ सिंहली सीखि लेने रहथि, एतय धरि जे सिंहली मे हुनकर 'कृषकदशकम्' नामक काव्यसंग्रह प्रकाशित हेबाक सूचना सेहो भेटैत अछि, ठीक तहिना तिब्बती पर हुनकर पूरा अधिकार भ' गेल छलनि। यैह समय छल जखन गोकुल मिश्रक निधन भेल छलनि।

             तिब्बत सं घुरलाक बाद ओ गाम गेलाह। तरौनी मे उजड़ल घर कें बसौलनि। अपराजिता तहिया जे गाम कें पकड़लनि तं सौंसे जीवन गामक लोकक श्रद्धापात्र भेलि ओत्तहि सौंसे जीवन गुदस्त केलनि। जीविका लेल यात्री इलाहाबाद मे जमला। एतबा दिन मे प्रतिष्ठा तं हुनकर पूरा भ' गेल रहनि मुदा लेखन सं जीविका चलि सकय, ताहि लेल हुनका अनुवादक काज पकड़य पड़लनि। कतेको भाषाक ओ जानकार रहथि, जाहि सं नीक-नीक कथाकृतिक हिन्दी अनुवाद ओ करथि जे किताब महल सं प्रकाशित होइत छल। आ अन्तत: 1946 मे ओ अंतिम रूप सं पटना आबि डेरा लेलनि जाहि सं गामक लगपास रहि सकथि। 'पारो' उपन्यास ओ एकटा हिन्दी प्रकाशक ग्रन्थमाला कार्यालयक अनुरोध पर लिखने रहथि। अनुरोधक आधार ई छल जे जखन हिनकर लिखल लेखो आदि एतेक पसंद कयल जाइत अछि तं कते विलक्षण हो जं ई उपन्यास लिखथि। यात्रीक जिद छलनि जे अपन पहिल उपन्यास ओ मैथिली मे लिखता। प्रकाशक मानि गेल। मैथिली मे ताधरि 'कन्यादान' आ 'द्विरागमन' टा एहन उपन्यास लिखल गेल रहय जे लोकप्रिय भेल रहय। 'पारो' छपलाक छव मासक भीतरे ओकर सबटा प्रति खपि गेलैक। यद्यपि ओ मैथिली मे छल, मुदा नागार्जुन बिहारक एक पैघ आ लोकप्रिय उपन्यासकारक रूप मे प्रसिद्ध भ' गेला।

             राहुल सांकृत्यायने जकां यात्री एहि समझ के लोक छलाह जे कोनो व्यक्तिक कम्युनिस्ट होयब कें ओकर जीवनक एक पैघ उपलब्धिक रूप मे देखैत छलाह, कारण जन्म तं मनुष्यक अपना वशक बात नहि होइत छैक मुदा सुच्चा कम्युनिस्ट भ' क' क्यो अपन व्यक्तित्वक पूर्ण अन्तरण क' सकैत छथि। 1946 मे पटना मे पटना अयलाक बाद पहिल काज तं ओ यैह केलनि जे कम्युनिस्ट पार्टीक सदस्यता ल' लेलनि। बिहार कम्युनिस्ट पार्टीक स्थापना 1938 मे मुंगेर मे गुप्त रूप सं कयल गेल रहैक जकर अध्यक्षता राहुल जी कयने रहथि आ ओहि सभा मे प्राय: यात्री सेहो उपस्थित रहथि। हुनकर व्यक्तित्वक एक गुण इहो देखैत छी जे हरेक निर्णय ओ पूर्ण विचार-विमर्शक बादे करैत छला। कम्युनिस्ट पार्टी मे हुनकर स्थान तहियो पैघ छलनि आ ओ दरभंगा जिला किसान सभाक अध्यक्ष बनाओल गेला। हुनकर सचिव युवा नेता भोगेन्द्र झा रहथिन। दरभंगाक जमीन्दारक शोषण आ अत्याचारक विरुद्ध जनताक एक विशाल जुझारू आन्दोलन ओ दरभंगा मे चलौलनि। एही समय मे ओ एहन कविता सब लिखलनि जाहि मे अपना लेल पहिल बेर 'जनकवि' शब्दक प्रयोग केलनि। 15 अगस्त 1947 कें जखन देश आजाद भ' रहल छल, कम्युनिस्ट पार्टी एहि आजादी कें 'झुट्ठा आजादी' कहि रहल छल। अपन कार्यकर्ताक सभक संगहि सचिव भोगेन्द्र झा मधुबनी जेल मे बंद छला जतय ओ लोकनि ओहि दिन 'काला दिवस' मनौने रहथि। यात्री ओहिदिन पार्टीक राज्यमुख्यालय पटना मे रहथि आ पार्टी-लाइन सं हटि क' ओहि राति ओ 'वंदना' शीर्षक कविता मैथिली मे लिखने रहथि। हिन्दीक दुनिया मे एकर विरोधो भेलैक जे पन्द्रह अगस्तक कविता ओ हिन्दी मे किएक नहि लिखलनि जे मैथिली मे लिखलनि। आधुनिक मैथिली कविता मे जते ऐतिहासिक महत्व 'कविक स्वप्न'क छैक, ततबे एहि कविता 'वंदना'क।

             अपन आरंभिक लेखन-काल मे यात्री मैथिली आ हिन्दीक बीच सम्यक संतुलन बना क' चलि रहल छला। पहिल पुस्तक 'पारो' मैथिली मे अयलनि, तं दोसर 'रतिनाथ की चाची'(1948) हिन्दी मे। फेर तेसर 'चित्रा'(1949) मैथिली मे अयलनि। ई सुसंपादित कविता-संग्रह मैथिली मे हुनका युगप्रवर्तक कविक रूप मे प्रतिष्ठापित क' देलकनि। एकरा बाद हुनकर दूटा उपन्यास एहन अयलनि जकरा ओ मैथिली आ हिन्दी, दुनू भाषा मे स्वतंत्र रूप सं लिखने रहथि। ई छल 'बलचनमा'(1952) आ 'नवतुरिया' आ 'नई पौध'(1953)। 'नवतुरिया' तं लगले 1954 मे छपि गेल मुदा 'बलचनमा' मैथिली संस्था सभक संकीर्ण मनोवृत्ति आ घटिया राजनीतिक शिकार भेल। 'युगों का यात्री' मे एकर विस्तृत वृत्तान्त आयल अछि। अन्त: 1967 मे ई तेना प्रकाशित कयल गेल मानू यात्रीक नहि कोनो ढेलफोड़बा लेखकक लिखल मामूली किताब हो। मैथिली संस्था सभक स्थिति आइयो किनसाइते कोनो ब्राह्मणसभा सं भिन्न होइत हो। ओहि दिन मे तं अअरो कठिन हालत छल। यात्रीक ई कथा ने केवल एक शूद्र क्रान्तिकारीक संघर्षक कथा छल अपितु एहि मे जे भाषा प्रयोग कयल गेल छल सेहो 'शूद्र मैथिली' छल।

             1950क आसपासक समय एहन छल जखन यात्री अपन जीवनक जटिलतम संघर्ष सं गुजरि रहल छला। पहिल तं समस्या छल आर्थिक, जखन कि अर्थोपार्जनक एकमात्र साधन हुनका लग लेखनटा बचल छल। जेठ पुत्र शोभाकान्तक जन्म 1942 मे भेल छलनि जे नेनपने सं दुखित रहैत छला। कतेक बेर आपरेशन करबय पड़लनि, जखन कि हाथ पूरे खाली छलनि। किछु दिन मसूरी आ वर्धा मे जा क' संपादनक काज केलनि, मुदा अंतत: पटना घुरैये पड़लनि। हुनकर कम्युनिस्ट होयब जतय हिन्दीक दुनिया मे हुनकर स्वीकार्यता कें बाधित क' रहल छल, ओतहि मैथिली मे हुनकर जमीन्दार-विरोधी होयब, जनसाधारणक प्रति प्रतिबद्ध होयब सेहो हुनका बाट कें कठिन बनबैत छल। मुदा, यात्रीक आत्मा मे मिथिला आ मैथिली तेना विराजित छल जे जतय कतहु ओ गेला, जाहि कोनो भाषा मे काज कयलनि, सबटा मानू मैथिलियेक विस्तार छल।

             ताहि दिनुक बिहारक साहित्यक माहौल सेहो पूरे जबदाह छल। पुरातन पीढ़ीक जे जरद्गव लोकनि साहित्यक सिंहासन पर विराजित रहथि, हुनका लोकनिक दृष्टि मे नवलेखन तुच्छ छल,युवा पीढ़ी नाकारा छल। ओतय जं कांग्रेसी मुख्यमंत्री, मंत्री लोकनिक दरबार छल तं एतय मैथिली मे जमीन्दारे लोकनिक स्तुति, वंदन साहित्य छल। एहि परिदृश्य कें बदलबा लेल जे यात्रीक संघर्ष छनि से कदाचित सब सं मूल्यवान देन छनि। हुनका पर हिन्दीक युवापीढ़ीक लगातार दबाव छल जे एहि परिदृश्य कें स्थसयी रूप सं बदलबाक लेल ओ सस्थाक गठन करथु। मुदा, हुनकर पूरा ध्यान मैथिली कें प्रतिष्ठापित करबा पर छलनि। आइ समुच्चा संसार मे जतय कतहु मैथिल लोकनि छथि, विद्यापति-पर्व सभक लेल जेना एक राष्ट्रीय अस्मिताक पर्व छिऐक। एकर आविष्कार यात्री कोना कयने छला तकर कथा पहिनहि आबि चुकल अछि। तहिना, जतय कतहु मैथिल संस्थाक जिक्र अबैछ, पटनाक चेतना समिति प्रथमस्थानीय मानल जाइछ। एकर संस्थापक सेहो यात्री छला। एकर स्थापना लेल ओ कते भारी संघर्ष कयलनि, तकर कथा रोचक अछि।

             काजीपुर मोहल्लाक कंचन भवन होटल तहिया मैथिल लोकनिक जमावड़ाक प्रधान केन्द्र होइत छल। यात्री जखन पटना आयल छला तं एही कंचन भवनक एक कोठली मे बहुत दिन धरि रहल छला, बाद मे ओही मोहल्ला मे अलग डेरा ल' लेलनि। मैथिल लोकनिक पहिल जे बैसार भेल रहय से एही कंचन भवनक छत पर 12मार्च 1950 कें। ओहि मे 'तरुण मैथिल गोष्ठी'क स्थापना भेल छल। गोष्ठी मे यात्री बाजल छला-- 'मैथिल समाज आइयो धरि एहि योग्य नहि भ' सकल जे अपन साहित्यिक आ सांस्कृतिक उत्थान दिस ध्यान द' सकय। पुरान महारथी लोकनि अपन-अपन अकर्मण्यताक भरपूर परिचय द' रहल छथि। मुदा, निराशाक कोनो बात नहि। हरेक देश आ हरेक काल मे यैह देखल गेल अछि जे राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यक विकासक लेल नवतुरिये पीढ़ी कें आगां आबय पड़ैत छैक।' तहिये ओ मैथिली मे 'किरण' नामक पत्रिकाक प्रकाशन आरंभ केलनि। ओ बंद भ' गेल तं नव संभावनाक तलाश मे ओ 'पटना विश्वविद्यालय मैथिली क्लब'क गठन करबौलनि। मुदा ओहू मे संकट छल जे साले-साल पुरान विद्यार्थी पास क' क' चलि जाइ छला आ नव तरहें खोज अभियान चलाबय पड़ैक। एही समय मे हुनका लगलनि जे संस्थाक अपन कोनो सुनिश्चित जगह, सांस्कृतिक केन्द्र हेबाक चाही। अन्तत: डा. लक्ष्मण झाक सहयोग ल' ओ पैघ-पैघ पदधारी मैथिल लोकनिक एक पैघ सभा आयोजित केलनि जकर अध्यक्षता जस्टिस सतीशचन्द्र झा कयने छला। 'मिथिला परिषद्' नामक संस्थाक गठन भेल जे पहिल बेर नया टोलाक आर्यसमाज हाल मे सप्ताहव्यापी विद्यापति-पर्व 1951 मे मनौलक। हुनकर निरंतरतापूर्ण प्रयासक बाद अन्तत: 18 जुलाइ 1954 कें गंगाकात मे एक विशाल सभा भेलैक जाहि मे 'चेतनागोष्ठी' नाम कें स्थायित्व देबाक निर्णय भेल। संस्थाक पहिल अध्यक्ष स्वयं यात्री बनब कबूल केलनि आ सचिव सुशील झा कें बनाओल गेलनि। बहुत दिन धरि एकर कार्यालय यात्रीक डेरे मे चलैत छलनि जतय ओ 'विद्यापति वाचनागार' सेहो बनबौने रहथि। बाद मे जयनाथ मिश्र अपन अजन्ता प्रेस मे एक कोठली देलखिन। अपन प्रथम विद्यापति-पर्व ई चेतनागोष्ठी 8 नवंबर 1954 कें मनौने छल जकर उद्घाटन बिहारक राज्यपाल आर.आर. दिवाकर आ अध्यक्षता डा. अमरनाथ झा कयने छला। 1955 मे जखन संस्थाक निबन्धनक प्रक्रिया चललैक तं निदेशानुसार 'गोष्ठी' शब्द कें बदलि क' 'समिति' कयल गेलैक।

             ताहि दिनक कम्युनिस्ट पार्टी मे यात्री ठीक ओहिना एक जानल-मानल नाम रहथि जेना राहुल सांकृ्त्यायन। दुनू गोटे स्वंत्रचेता लेखक रहथि, जखन कि कम्युनिस्ट पार्टीक रवैया कतेको मामला मे बहुत संकीर्ण छल। यात्री अपन मातृभाषा लेल जे काज क' रहल छला, अर्थात हुनकर जे भाषानीति रहनि तकरा कम्युनिस्ट पार्टी नापसंद करैत छल, तहिना जेना उर्दूक सम्बन्ध मे राहुल जीक भाषानीति पार्टीक दृष्टिकोण सं भिन्न छल। कम्युनिस्ट पार्टी यात्री कें कारण बताओ नोटिस जारी क' देलकनि। यात्री सेहो अपन स्टैंड पर अड़ि गेला जे ओ बरु पार्टी छोड़ि देता मुदा अपन भाषानीति नहि बदलता। अपन वामपंथी प्रियमित्र रामविलास शर्माक संग हिन्दी आ मैथिली कें ल' क' जे घोर विवाद भेल छलनि, तकर तं लिखिते दस्तावेज अछि। जेना रामविलास शर्मा कें बाद मे अपन अभिमत बदलय पड़ल छलनि तहिना पार्टी कें सेहो विना शर्त नोटिस आपस लेब' पड़लैक। 




           यात्री मे दूटा गुण एहन विशेष छलनि जे हुनका आन साहित्यकार-समूह सं पृथक करैत छनि आ विशिष्ट बनबैत छनि। एकटा तं छल हुनकर विचारधाराक अनुगामिता। हुनकर मान्यता छलनि जे कोनो साहित्यकार विचारहीन नहि भ' सकैत अछि। विचारधारा असल मे एहन विचार-सरणि थिक जकर अपन स्पष्ट परंपरा रहल हो। ओ अपना कें भारतक प्रगतिशील परंपराक अन्तर्गत मानैत रहथि। बुद्ध संग हुनकर जुड़ाव एकर स्पष्ट दृष्टान्त थिक। बुद्धक जे ई बहुजन हिताय बहुजन सुखाय बला परंपरा छलनि वैह हुनका आम जनताक संग जोड़लकनि आ एहि लेल सर्वाधिक मुखर विचारधारा मार्क्सवाद संग ओ अपना कें जोड़लनि। एक दिस जं साम्राज्यवादी अंग्रेजी सत्ताक विरुद्ध सक्रिय गतिविधि चलबैत ओ जेल गेला तं दोसर दिस जमीन्दार आ जमीन्दारी व्यवस्थाक विरुद्ध सेहो ओ सदति संघर्षशील रहला आ एहि लेल जेल सेहो गेला। हुनकर चिरसखा सुरेन्द्रनाथ झा सुमन दरभंगा राजक मुखपत्र मिथिला मिहिरक संपादक, एहि तरहें जमीन्दारक एक कर्मचारी छला, जखन कि ओही दरभंगा मे यात्री कें हमसब जमीन्दारी-उन्मूलन लेल सड़क पर संगठनबद्ध संघर्ष करैत देखैत छियनि। गृहस्थ जीवनक शुरुआती दौर मे जखन कि ओ वास्तव मे खगल छला, हुनका लग इहो प्रस्ताव एलनि जे महाराज सं भेंट क' क' ओ माफी मांगि लेथु तं हुनका राजकर्मचारीक रूप मे नियुक्ति भेटि सकैत छनि। मुदा एहि प्रस्ताव पर विचारो धरि करब ओ नहि गछलनि। ओ शोषित-पीड़ित जनताक हित मे ठाढ़ बनल रहय चाहैत छला भने कतबो विपन्नता मे जीवन गुदस्त करय पड़नि। एकर विपरीत अपन निजी सुख-सुविधाक लेल ओ शोषक-उत्पीड़क समुदायक शरण गहब कहियो मंजूर नहि क' सकैत छला। ई गुण यावज्जीवन हुनका मे बनल रहलनि।

           मुदा हुनकर दोसर जे गुण छलनि, तकरा एकर प्राय: विपरीत कहल जा सकैत अछि। ओ गुण छल-- हुनकर स्वतंत्रचेता स्वभाव। ओ कहल करथि जे कोनो विचारधारा कें अपना लेल चुनब ओकर गुलामी गछब नहि थिक। साहित्य कें ओ स्वयं मे स्वायत्त शास्त्र मानैत छला आ हुनकर मत छलनि जे कोनो विचारधाराक समर्थक भेलाक बादो लेखक कें जनहित मे अपन पृथक समझ रखबाक अधिकार छैक। स्वतंत्रता, समता आ बंधुत्व, जे कि आधुनिक विश्वक, भारतक सेहो, प्रधान जीवनमूल्य थिक, एहि पर हुनकर अखंड आ अटूट विश्वास रहनि। एहि हिसाब सं देखी तं आन कथू सं पहिने यात्री एक परिपूर्ण लोकतंत्रवादी, लोकतांत्रिक व्यक्ति छला। तें हमरा लोकनि देखैत छी जे सदस्यताधारी कम्युनिस्ट भेलाक बादो कम्युनिस्ट पार्टीक संग हुनकर अनेको मुद्दा पर मतान्तर रहलनि। अपन मत कें ओ खुलि क' अपन रचना मे, अपन वक्तव्य मे मुखरित करैत रहला। भाषा आ प्रान्त कें ल' क' हुनकर स्पष्ट समझ रहनि। हुनकर कथन रहनि जे देश तं अमूर्त होइत अछि, मूर्त तं रहैत अछि केवल ओ जगह जतय व्यक्ति जन्म लैत अछि, विकसित होइत अछि। मूर्त तं होइछ ओ भाषा जे व्यक्ति निज अपन माय सं प्राप्त करैत अछि आ तकरे नेओ पर दुनिया भरिक ज्ञान आ भाषा अर्जित करैत अछि। ओ भारत देशक लेल राष्ट्रीय मार्क्सवादक प्रस्तावना केलनि। मुदा ताहि दिनुक निमुन्न समय मे हुनकर निहितार्थ कें कम्युनिस्ट राजनेता आ विचारक गछब स्वीकार नहि केलनि। आजुक समय मे एकर आत्यन्तिक आवश्यकता तं देखार पड़िते अछि, यात्रीक भविष्यदृष्टिक पता सेहो लगैत अछि। एकर ज्वलन्त दृष्टान्त हमसब 1962मे भारत पर चीनी आक्रमणक बाद कम्युनिस्ट पार्टी सं हुनकर सदा-सर्वदाक लेल त्यागपत्र देबाक घटनाक रूप मे देखि सकैत छी। जे यात्री 1953 मे चीनक प्रशंसा मे 'हे नवल चीन/ हे प्रबल चीन/ हे महाचीन' कहैत ओकरा 'संसार भरिक जनताक मनोरथ-परिधिहीन' आ 'कोटि जनगणक हृदय महँ समासीन' बतौने छला, वैह यात्री चीनी आक्रमणक बाद हिन्दी मे लिखलनि-- 'विश्वशांति की घायल देवी चीख रही है/ सर्वनाश की डायन हँसती दीख रही है।' एहि कविता मे ओ चीन कें लाल कमल सं बहरायल जहरीला कीड़ा बतौलनि आ एक दोसर कविता मे स्वयं मार्क्स धरि कें नहि बकसैत एतय धरि कहि गेला जे 'मार्क्स तेरी दाढ़ी में जूँ ने दिये होंगे अंडे/ निकले हैं उन्हीं से कम्युनिज्म के चीनी पंडे।' शासकवर्ग आ भारतीय सेनाक नाकामी पर ई तं ओ लिखबे केलनि जे आब मोन होइए जे हम बंदूक चलेनाइ आ फौलाद गलेनाइ सीखी आ जनमन मे चिंगारी भड़का दी आ सभक संग नेफा पहुंचि क' गोला दागी, क्रांतिकराली मुंडमालिनी चामुंडा कें 'हाथ मे लेने बड़ीटा त्रिशूल/ ठाढ़ि छथि कंचनजंघाक माथ पर/ उत्तराभिमुख' अवस्था मे देखलनि। कविक निरर्थकताबोधक ई चरम अभिव्यक्ति छल।

           असल मे एक समर्पित मार्क्सवादी हेबाक कारण यात्री कहियो एहि बातक कल्पना धरि नहि क' सकैत छला जे समाजवादी आदर्श पर चलनिहार कोनो देश अपन विस्तारवादी नीतिक संग पड़ोसी देश पर आक्रमण क' सकैत अछि। हुनकर ई मान्यता सकनाचूर भ' गेल छलनि। अद्भुत अछि ई देखब जे ठीक यैह मान्यता प्रधानंत्री नेहरूक छलनि। एहि अर्थ मे नेहरू आ यात्री एक्कें तरहें सोचैत छला, जखन कि नेहरूक आर्थिक आ प्रशासनिक नीतिक कट्टर विरोधी यात्री रहथि आ हुनका विरुद्ध एक सौ सं बेसी कविता ओ लिखलनि। भारत मे मार्क्सवादी समझ कें ल' क' हुनकर घोर मतभेद एतय शुरू भेल जे ओ ने केवल पार्टी सं त्यागपत्र देलनि, अपितु भारतीयताक अवधारणा कें प्रमुखता दैत 'राष्ट्रीय मार्क्सवाद'क प्रस्तावना केलनि। आइ हमसब नीक जकां अनुभव क' सकै छी जे भारतक मार्क्सवादी लोकनि भारतीयता कें अछूत मानि कोना दूरी बरतलक आ कोना दक्षिणपंथी लोकनि एकरा अपन पूजी मानैत आ मनमाना व्याख्या करैत वामपंथ कें निकालबाहर केलकनि। एहि सं यात्रीक वैचारिक दूरदर्शिताक परिचय भेटैत अछि।

           कहबाक बेगरता नहि जे अपन स्वतंत्रचेता स्वभाव कें बरकरार रखबाक लेल यात्री कें बहुत संघर्ष करय पड़लनि। कतेको बेर एहन भेल जे हुनकर समानधर्मा हीत-मीतो लोकनि हुनकर खिलाफ भ' गेलखिन। जेना, पार्टी-लाइन के विरुद्ध जखन ओ चीनक कठोर प्रतिवाद केलनि तं हुनकर प्राय: समस्त वामपंथी मित्र हुनका विरुद्ध छला। हुनका सभक कहब रहनि जे यात्री गलती पर छथि। मुदा, एहन विरोधक ओ कहियो परवाह नहि केलनि। ठीक यैह स्थिति तखन बनल छल जखन यात्री इमरजेन्सीक खिलाफ जेपी आन्दोलन मे शामिल भ' गेल रहथि। कहब आवश्यक नहि जे जेना चीनी आक्रमणक समय कम्युनिस्ट पार्टी चीनक समर्थन मे छल तहिना इमरजेन्सीक समय प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधीक समर्थन मे रहय। यात्री एहू बेर अपन कोनो समानधर्माक परवाह नहि केलनि आ जेपीक अभिन्न सहयोगी बनि क' इमरजेन्सीक खिलाफत करैत रहला। कहबे केलहुं जे हुनकर अखंड विश्वास पूर्ण लोकतंत्र मे छलनि आ एहि पर कोनहु आघात ओ बरदास्त नहि क' सकैत छला। इन्दिरा गांधीक विरुद्ध ओ एक पर एक तिक्ख अतितिक्ख कविता लिखलनि। सीवान मे युवा नेता लालू प्रसाद यादवक संग जनता सरकारक गठन लेल आहूत सभा सं हुनका गिरफ्तार क' लेल गेल। स्वतंत्रताक उपरान्त ई दोसर अवसर छल जखन देशी सरकार हुनका जेल मे बन्द केलकनि। पहिल बेर 1948 मे ओ तखन गिरफ्तार कयल गेल छला जखन गांधी जीक हत्या पर लिखल अपन कविता सब मे ओ तखनुक केन्द्र सरकार कें, गृहमंत्री पटेल कें कठघरा मे ठाढ़ क' देने छला। एकर पूर्ण विवरण हुनकर जीवनी 'युगों का यात्री' मे देखल जा सकैत अछि। 

           यायावरीक गुण यात्री कें अपन पिता सं भेटल रहनि, जे पहुनाइ करबाक निमित्त एहि गाम-ओहि गाम भेल घुरैत छला। जें कि एकमात्र यैह टा संतान हुनकर जिम्मेवारी रहनि, थोड़े चेठनगर भेला पर एहि बालक कें अपन कान्ह पर बैसा लेथि। 1925 मे प्रथमा पास केलाक बाद मध्यमाक पढ़ाइ लेल जे ओ गाम छोड़लनि, मानू यैह सदाक लेल हुनकर यायावरीक आधारशिला बनि गेल। हुनकर लंका आ तिब्बत-यात्राक उल्लेख ऊपर भ' चुकल अछि। बांकी अपन समुच्चा जीवन ओ लगातार भ्रमणशील रहला। किछु दिन लेल गाम आबथि फेर कोनो नव यात्रा पर बहरा जाथि। भारतक ओ समस्त स्थान, जे कोनो कारणें हुनका प्रिय छलनि, हुनकर आवासन सं महमहाइत रहल। ओ स्वयं कहने छथि जे अपन समस्त प्रिय जगह के ओ कम सं कम तीन बेर यात्रा कयने छथि। गाम पर रहैत अपन परिवारक लेल यथासाध्य ओ आर्थिक संसाधन अवश्य जुटबैत रहला, मुदा अपने परिवार धरि बन्हि क' रहब हुनका कहियो मान्य नहि भ' सकै छलनि। सौंसे देश मे हुनकर परिवार छिड़यायल छल, जतय के परिवारी जन हुनकर आगामी यात्राक लेल टकटकी लगौने रहथि। जाहि कोनो परिवार मे ओ जाथि, ओतय आयु, लिंग, धर्म, जाति के तं कोनो बन्हन नहिये छल, साहित्यक-असाहित्यक के सेहो कोनो वर्गीकरण मान्य नहि छल। हुनकर प्रगाढ़ मैत्री देश-विदेशक एहन-एहन मामूली लोक संग छलनि, जे जानि क' हुनकर विराटता पर आश्चर्य लगैत अछि। हुन कहब रहनि जे आम जनक जीवने हुनकर साहित्य-लेखन लेल कच्चा माल उपलब्ध करबैत अछि। हुनका मे दू चीज बहुत खास। एक तं युवावर्गक संग गहन मैत्री, जकरा कारणें ओ जतय जाथि नवतूरक हुजूम हुनका संग लागल रहैत छल। दोसर, मिथिला हुनका आत्मा मे बसल रहनि। सौंसे भारत मे जतय कतहु ओ गेला, मानू हुनका संग-संग मिथिला यात्रा क' रहल छलि। एहि भावक सुंदर वृत्तान्त हमरा लोकनि कें केदारनाथ अग्रवालक हिन्दी कविता तथा भीमनाथ झाक मैथिली कविता मे भेटि सकैत अछि।

           यात्री कें समय-समय पर अनेक पुरस्कार एवं सम्मान भेटलनि। 1969 मे हुनकर मैथिली कविता-संग्रह 'पत्रहीन नग्न गाछ' लेल साहित्य अकादेमी पुरस्कार देल गेलनि। एहि पुरस्कारक बाद भारत सरकार भारतीय लेखक लोकनिक राष्ट्रीय शिष्टमंडलक संग तीन सप्ताक यात्रा पर सोवियत रूस पठौलकनि। ओ ओतय लगातार भ्रमणशील रहला आ अनेक स्थान, जे विश्व इतिहासक धरोहर-स्वरूप छल, पर भरि मोन घुमला। ओ महान लेखक यथा तोल्सतोय, चेखव आदिक घर आ समाधि पर गेला, ओ ताशकंद स्थित ओहि स्थान पर गेला जतय हुनकर प्रिय नेता मे सं एक लालबहादुर शास्त्रीक निधन भेल छलनि। सोवियत क्रान्तिक जाबन्तो तीर्थ भ्रमण केलाक बाद ओ लेनिन महान के शवाधानी कें देखलनि, आ ताहि पर एक मार्मिक कविता संस्कृत मे लिखलनि। एहि यात्राक क्रम मे दर्जनो साहित्यिक संगोष्ठी, आ सांस्कृतिक संस्था सब मे ओ गेला। विशिष्टता ई रहलनि जे जतय कतहु हुनका अपन कविता सुनेबाक आग्रह भेलनि, ओ अपन मैथिली कविता (दुभाषियाक मारफत अनुवाद सहित) सुनौलनि। आ, जतय कतहु हुनका आगू विजीटर्स बुक राखल गेलनि, सदा अपन विचार ओ मैथिली मे लिखलनि। बाद मे अपन एक इन्टरव्यू मे ओ बतौने रहथि जे जें कि ई यात्रा हुनका मैथिली कवि हेबाक परिणाम-स्वरूप छल, तें अनिवार्यतया ओ मैथिलीयेक प्रतिनिधित्व केलनि।

           पटनाक महात्मा गांधी सेतुक उद्घाटन करबाक अवसर पर यात्री कें विशिष्टतया प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधीक हाथें पन्द्रह हजार राशिक संगें सम्मानित कयल गेल। सौंसे देशक वामपंथी लोकनि एहि सं बहुत खिन्न भेला जे जाहि इन्दिराक खिलाफ ओ आगि उगल' बला कविता सब लिखलनि, तिनके हाथें सम्मानित होयब ओ किएक स्वीकार केलनि? यात्रीक समझ मुदा साफ रहनि। अपन इन्टरव्यू मे ओ ठांहि-प-ठांहि बाजल रहथि जे 'सम्मान-राशि की इन्दिरा गांधीक बापक छल?' तात्पर्य जे जनताक पाइ सं एक जनकवि सम्मानित कयल गेला, प्रधानंत्री तं मात्र निमित्त रहथि। हुनकर इहो कहब रहनि जे राशि प्राप्त केलाक बाद जं ओ इन्दिराक दरबार करय लागथि वा हुनकर प्रशंसा मे कविता लिखय लागथि, तं से अवश्य अनुचित होयत। एहन अनुचित हुनका सं कहियो नहि भेना गेल।

           बाद मे हुनका मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, बिहार, बंगाल आदि राज्यक शिखर सम्मान प्राप्त भेलनि। हुनका साहित्य अकादेमी अपन महत्तर सदस्यता प्रदान केलकनि आ हुनका पर एक सुंदर वृत्तचित्र बनबौलक। हुनका पर आनो अनेक दृष्टिवान निर्देशक वृत्तचित्रक निर्माण केलनि। अपन राॅयल्टीक पाइ सं बाद मे सुदूर दिल्लीक मोहल्ला सादतपुर मे जमीनक एक प्लाॅट किनलनि, मुदा से बहुत जद्दोजहद सं। समुच्चा जीवन हुनकर अभावग्रस्त रहलनि, किछु तं परिवारक तंगी हालतक कारण, किछु हुनकर परम उदार स्वभावक कारण। बेगरतूत लोक, अभावग्रस्त परिचित, संभावनाशील युवा-- एहि सभक पाछू ओ अपन सब पूजी लगा देथि। कतेको बेर एहन भेलै जे ओहि जबाना मे हुनका लाख-लाख टाकाक कैक गोट पुरस्कार भेटलनि। मुदा, पांच दिन बाद हुनका लग एक पाइ नहि। एहि उदारता मे हुनकर तुलना निराला जी टा सं कयल जा सकैए।

           1996 मे यात्री सादतपुर सं दरभंगा आबि गेला। ओहि समय ओ अक्सरहां बीमार रहैत छला। हुनकर शुभचिन्तक लोकनि हुनकर एहि निर्णय सं परेशान भेला, कारण दिल्ली मे चिकित्सा-सुविधा अपेक्षाकृत नीक रहै। मुदा, यात्री अपन अंतिम समय मिथिले मे आबि क' बितबय चाहैत रहथि। हुनकर स्थायी चिकित्सक डाॅ. गणपति मिश्र जहां धरि भेलनि, हुनका सुविधाजनक बनौने रखलखिन। ओ गाम गेला। ओ अनेक कविता मैथिली आ हिन्दी मे लिखलनि, ताहि सब सं पता लगैत अछि जे अपन आखिरी समय धरि ओ अपन जुझारू आ वैज्ञानिक चेतना सं भरल-पुरल रहला। आखिरी दिन मे, जखन शरीर नि:शक्त भ' गेल छलनि, ओ अपन मानसिक यात्रा यात्रा पर रहय लगला। पुत्र शोभाकान्त आ पुत्रवधू रेखा पल-पल हुनकर सेवा मे बनल रहलखिन। आखिरी सप्ताह मे तं कैक बेर एहन होइक जे ओ आंकि खोलथि, शोभाकान्त कें कहथिन--रूस सं घुरल आबि रहल छी, बहुत थाकि गेल छी, आराम करब। कखनो कहथि-- नायकपाद (लंका मे हुनकर गुरु) आयल छला। बहुत पाइ देलनि। पाइ के तं अपना सब कें बेगरतो छले ने! हुनकर ई मानसिक यात्रा ठीक ओतबे जनाकीर्ण, जनसंकुल रहनि, जतबा ओ अपन समुच्चा जीवन गुजारने छला।

           अन्तत: 5 नवंबर 1998 कें प्रात: 6:20 पर ओ महायात्रा पर बहरा गेला। यात्रीक अन्त्येष्टि राजकीय सम्मानक संग करबाक निर्णय बिहार सरकार लेलक। सकरी सं तरौनी पांच किलोमीटर पड़ैत छैक। जखन हुनकर पार्थव शरीर तरौनी ल' गेल जाइत रहय, सड़कक दुनू कात आम जनक विशाल हुजूम उमड़ि पड़ल रहैक आ से एक अटूट जनश्रृंखला बनबैत रहै। ओहि लोक सभक संख्या हजार मे नहि, लाख मे आंकल जा सकैत छल। मिथिलाक धरती अपन कविकक एहन विदाइ एहि सं पहिने नहि कहियो देखने रहैक।

           

           


             

             

             

            

            

मैथिली साहित्य मे यात्रीक महत्व

        


        तारानंद वियोगी

   यात्री पर लिखल अपन एक कविता मे भीमनाथ झा लिखलनि अछि जे जाहि यात्रीक नेतृत्व आ प्रभाव आब' बला समस्त युग धरि व्याप्त रह' बला छनि, ओहि यात्री कें केवल एहि एक युगक युगपुरुष कोना कहल जा सकैत अछि! हुनकर तात्पर्य छनि जे युगपुरुष तँ सब युग मे क्यो ने क्यो होइते छथि, यात्री तँ एहि समस्त युग सभक महानायक थिका। कवि भीमनाथ भने कविता मे ई बात कहने होथु मुदा ई कथन नितान्त सत्य एवं तथ्य थिक।

                    कविवर सीताराम झाक बाद मैथिली कविता जाहि घुमान-विन्दु पर ठाढ़ छल, तकर परिस्थिति कें देखने बात स्पष्ट भ' सकैत अछि। 1930क बाद भारतीय स्वाधीनता-संघर्षक लहरि गाम-गाम धरि पहुँचय लागल छल। स्वराज एक एहन सेहन्ता बनि क' उभरल जे व्यक्ति-व्यक्ति कें नवीन आकांक्षा सँ भरि देलकै आ लोक अपन सर्वस्व समेत एकर समर्थन मे जुटि पड़ल। गांधी जीक बारे मे जे चमत्कारी किंवदन्ती सब गाम-गाम मे पसरल रहैक, तकर जड़ि मे जनताक यैह मनोविज्ञान छल। 'स्वराज एतै तँ सभक दिन फिरतैक-- हमरो... तोरो...।' --ई कोनो खास रचना मे लिखल गेल उक्ति मात्र नहि छल, भारतीय जन-समुदायक सामूहिक स्वप्न छल। गांधी जी स्वयं प्राणपण सँ ई चेष्टा कयने रहथि जे स्वराजक इजोत हाशिया परहक ओहि अन्तम मनुष्य धरि पहुँचय, जकरा घर मे सदा सँ अन्हार व्याप्त रहलैक अछि। किसान सभाक कम्यनिस्ट राजनीतिक संगें जमीन्दारी उन्मूलनक लक्ष्य एहि मे शामिल कयल गेलैक, जे कि अन्तत: साकारो भेल, तँ जन-समुदायक जोश कते बढ़ि गेल हेतै, एकर अनुमान कयल जा सकैए। दोसर दिस, बीसम शताब्दी वैज्ञानिक चेतनाक शताब्दीक रूप मे आकार लेब' लागल रहय। डार्विन, फ्रायड, आइंस्टीन आ गांधी-- बीसम शताब्दीक विश्वक जे ई चारि गोट महानायक सौंसे संसार मे मान्य छथि, एहि मे सँ तीन गोटेक सम्बन्ध तँ वैज्ञानिक चेतनेक संग छलनि। तेसर, सौंसे संसार एहि तरहें घुमान ल' रहल छल जे आब' बला समय लोकतांत्रिक मूल्य-स्थापनक समय हेबाक रहैक, जाहि मे स्वतंत्रता, समता आ बन्धुत्व एक सार्वभौमिक तत्व हेबाक रहैक। आ, साहित्य कें एहि सभक संवाहक।

               जँ एम्हर मैथिली साहित्यक तत्कालीन परिस्थिति कें देखी आ विचार करी जे एकरा आगां जा क' की हेबाक रहै? बीसम शताब्दीक विश्व आ बीसम शताब्दीक भारत मे बीसम शताब्दीक मिथिला कें की हेबाक रहै? मैथिली साहित्य कें की हेबाक रहै? एहि समस्त भविष्य-दृष्टिक संग देखी तँ यात्रीक कविता 'कविक स्वप्न'(1941) हमरा सभक सामने उपस्थित होइत अछि। ई समय यात्रीक ओ अवस्था छलनि जे ओ बौद्ध आदि भ'क', किसान सभाक राजनीति आदि क' क', अंतिम रूप सँ निर्णय क' चुकल छला जे ओ लेखक बनता, लेखनक वृत्ति अपनौता। तें एहि कविता कें जे आलोचक मैथिलीक पहिल आधनिक कविता मानैत छथि, आ 'चित्रा' कें पहिल आधुनिक काव्यसंग्रह, ओ बिलकुल सम्यक आ समीचीन बुझना जाइत छथि। युगक भीतर युग होइत छैक जेना विधाक भीतर विभिन्न प्रकारक काव्यान्दोलन। यात्री आधुनिक मैथिली साहित्यक एहन युगनिर्माता छला, जकरा व्याप्तिक भीतरे आगामी साहित्य कें गतिशील हेबाक रहैक।

               मैथिली उपन्यास मे हरिमोहन झाक उदय पहिनहि भ' चुकल रहनि। चेतनाक वैह विस्फोट हुनको साहित्य मे भेल रहनि जकर उल्लेख हम ऊपर केलहुं। मुदा, एहि भविष्य-दृष्टि कें सोझा रखबाक लेल जे साहस अपेक्षित रहैक आ जकर अभाव हरिमोहन झा मे छलनि, ओही अभावक पूर्ति हेतु ओ हास्यरसक आश्रय लेलनि। सामंती आ जीर्णतावादी लोकनिक समाज मे विरोध तँ हुनकर खूब भेलनि, मुदा जाहि महापुरुष कें नवजागरणक मसीहा बुझबाक रहै, तकरा मैथिल लोकनि 'हास्य रसावतार' बुझलनि। 'कन्यादान' मे जे हास्य छैक, से असल मे एक कोड थिक जकरा डिकोड करबाक आवश्यकता रहैक। समाज से नहि केलक। हुनकर जाहि गुणक आगू नकल करबाक कोशिश कयल गेल, से ई हास्य रसे छल, जे कि पूर्ण रूपें असफल भेल। अनका मे ने ओहि कोटिक प्रतिभा छलनि, ने बोध। आगू यात्री पारो-नवतुरिया-बलचनमा

ल' क' एला जाहि मे कोनो कोड छलहि नहि। सब किछु साफ-साफ छल, डाइरेक्ट छल। ई काज ने केवल यथार्थ कें वाणी देबाक काज छल, ओहि अतीतजीवी समाजक समक्ष जिन्दा तप्पत यथार्थ कें सोझासोझी प्रकट क' देबाक काज सेहो छल। अनुकूलन आ समायोजन एकर बाद आगू जा क' भेलैक। साहित्यक प्रगति उत्तरोत्तर आगू बढ़ैत रहल। कोनो समाज केवल समयक दबाव मे बदलैत छैक आ कि एहि मे साहित्य आ विचारक सेहो कोनो भूमिका रहैत छैक, ई विषय गहन थिक। हँ, एतबा धरि निर्विवाद जे मैथिली साहित्य कें आधुनिक आ युगीन बनेबा मे यात्रीक भूमिका सर्वकालिक छनि।


यात्री नागार्जुनक मैथिली उपन्यास

 तारानंद वियोगी


मैथिली मे यात्री तीन टा उपन्यास लिखलनि-- पारो, नवतुरिया आ बलचनमा। हुनकर तीनू उपन्यास अलग-अलग प्रकाशन सं प्रकाशित छनि। पहिल उपन्यास 'पारो'क रचना ओ कोन परिस्थिति मे कयने छला, एकर किछु विवरण अन्यत्र आबि चुकल अछि। एकर प्रकाशक-- ग्रन्थमाला कार्यालय -- जे मैथिलीक प्रकाशक नहि छल, आ ने पारोक बाद संभवत: फेर कहियो मैथिलीक कोनो पोथी प्रकाशित केलक। ग्रन्थमाला हिन्दीक देशप्रसिद्ध प्रकाशक छल आ बहुतो महत्वपूर्ण प्रकाशन लेल जानल जाइत छल। ओतय सं 'पारिजात' पत्रिका बहराइत छल जाहि मे नागार्जुन एक ख्यात आ लोकप्रिय लेखक छला। तहिना, एतय सं छप' बला बाल-पत्रिका 'किशोर' मे तं नागार्जुन तते लोकप्रिय रहथि जे थोड़बे समय मे हिन्दीक एक प्रशस्त गद्यकारक रूप मे ओ प्रसिद्ध भ' गेल रहथि। हुनकर लोकप्रिया कें देखैत प्रकाशनक स्वामी रामदहिन मिश्र सोचैत छला जे नागार्जुन जं उपन्यास लिखथि तं बाजार मे रिकार्डतोड़ बिक्री भ' सकैत अछि। ओ बारंबार यात्री पर उपन्यास लिखबाक दबाव देब' लगला। हुनकर बहुत आग्रह पर यात्री तैयार तं भेला मुदा एक विचित्र शर्त राखि देलखिन जे उपन्यास ओ मैथिली मे लिखता। असल मे, जाहि परिवेश, वातावरण आ कथानक ल' क' ओ उपन्यास लिखय चाहैत रहथि, हुनकर समझ रहनि जे ओकरा संग न्याय केवल मैथिली मे लिखने भ' सकैत अछि। अन्तत: ओ 'पारो' लिखलनि आ से ग्रन्थमाला सं 1946 मे प्रकाशित भेलैक। मैथिलीक परंपरित साहित्य-समाज कें ई उपन्यास हिला क' राखि देलकैक। एहि सं पहिने 'कन्यादान'(1933) आ 'द्विरागमन'(1943) मात्र मैथिली मे छपल छल जकरा आधुनिक अर्थ मे औपन्यासिक कलेवरक रचना कहल जा सकैक। 'कन्यादान' जाहि तरहें परंपरावादी लोकनिक आस्था पर चोट कयने रहनि, 'पारो' एलाक बाद मानू ओ सकनाचूर भ' गेलैक। मिथिलामिहिर मे पं. त्रिलोकनाथ मिश्र एहि दुनू उपन्यासक समीक्षा एहि शब्द मे कयने छला-- 'स्वच्छन्द प्रोफेसर पहिनहि टांग-हाथ दन्तावलि तोड़ि देल/ दुर्भाग्य सम्प्रति मैथिलीक 'पारो' कपारो फोड़ि देल।' अर्थात, पारोक प्रकाशन कें ओ लोकनि मैथिलीक हत्या करबाक तुल्य मानने छला। दोसर दिस, एकर सबटा प्रति छव मासक भितर बीकि गेल आ प्रकाशक आगां संस्करण पर संस्करण छपैत रहला। उपन्यास भने मैथिली मे छल, मुदा एकर प्रशस्ति कें देखैत कवि नागार्जुन बिहारक उदीयमान उपन्यासकारक रूप मे सौंसे देश मे प्रसिद्ध भ' गेला।

          नवतुरिया(1954) आ बलचनमा (1967) यात्रीक एहन उपन्यास छलनि जकरा ओ मैथिली आ हिन्दी, दुनू भाषा मे मौलिक रूप सं लिखने छला। एहि प्रसंग पहिनहि कहल जा चुकल अछि जे बलचनमाक नायक बालचन राउत ने केवल स्वयं शूद्र छला, अपितु आत्मकथात्मक शैलीक ई उपन्यास जाहि मैथिली मे लिखल गेल छल से शिष्ट समाजक भाषा सं सर्वथा भिन्न छल जकरा स्वयं यात्री 'शूद्र मैथिली' कहने छथि। एहन प्रतीत होइत अछि जे मैथिलीसेवी व्यक्ति आ संस्थाक संकीर्ण मनोवृत्तिक शिकार एहि उपन्यास कें हुअ' पड़लैक। 1967 मे प्रकाशित एहि उपन्यासक मूल लेखक नागार्जुन कें बताओल गेल छल। एकर अर्थ शोभाकान्त ई लगौलनि जे मूल मैथिली बलचनमाक पांडुलिपि नष्ट हेबाक बाद संस्था दबाववश हिन्दी-पाठक मैथिली अनुवाद प्रकाशित क' कहुना पिंड छोड़ेलक। यात्री मूल मैथिली मे बलचनमा लिखने छला, तकर अनेको साक्ष्य अछि। किन्तु, प्रकाशित पाठ ओहि सं भिन्न अछि, से ओकर भाषा-वितान कें देखनहि सं स्पष्ट भ' जाइछ, एहि आधार पर शोभाकान्त बलचनमाक उपलब्ध पाठ कें मूल मैथिली नहि मानैत 'यात्री समग्र' मे एकरा संकलित नहि केलनि। मोहन भारद्वाजक मान्यता एहि सं भिन्न छलनि। हुनका मतें, हिन्दी लेखक नागार्जुनक बहुव्यापक प्रसिद्धि सं आक्रान्त मैथिल लोकनि केवल हीनतावश मूल लेखक नागार्जुन कें बता देलनि। भाषागत पार्थक्यक सम्बन्ध मे हुनकर कहब भेलनि जे प्रूफ सही तरीका सं नहि देखल गेल छल, ई तकरे परिणाम छल। यद्यपि मोहन भारद्वाजक मान्यता मे अनेको प्रतिप्रश्नक गुंजाइश बनैत छल, किन्तु एहि कृति कें मूल मैथिली उपन्यास मानैत ओ अपन प्रसिद्ध आलोचना-पुस्तक 'बलचनमा: पृष्ठभूमि आ प्रस्थान' लिखलनि, जे कदाचित हुनकर सब सं नीक आलोचनात्मक कृति छियनि।

        हिन्दी-मैथिली दुनू कें मिला क' देखी तं यात्री पन्द्रह गोट उपन्यास लिखलनि। एहि सभक अतिरिक्त एतबे संख्या मे हुनका लग अलिखित उपन्यास छलनि। ओ चाहितथि तं एहि उपन्यास सभक खिस्सा च तु क' क' आद्योपान्त सुना सकै छला। एकटा उपन्यास 'निराश्रित' नामक छल जकरा शरणार्थी-समस्या पर केन्द्रित हेबाक छलै। 'विशाखा-मृगा'(एहि नाम सं हिन्दी मे हुनकर कथा छनि) सेहो वस्तुत: एक उपन्यासे छल जकर बीस अध्याय हेबाक छलै। एक आर उपन्यास हिन्दी मे होइतैक जकर नाम 'ठूंठ और कोपलें' राखय बला छला। अपन एक उपन्यासक संपूर्ण कथा तं ओ स्वयं हमरा सुनौने रहथि। ई संपूर्ण कथा हम 'तुमि चिर सारथि' मे लिखनहु छी। ई सब उपन्यास लिखल नहि जा सकल। उपन्यास-लेखनक लेल जे निविड़ एकान्त आ तल्लीनता चाही, तकर हुनका जीवन मे सर्वथा अभाव छलनि। कारण छल हुनकर यायावरी स्वभाव आ मिलनसारिता। सौंसे भारत हुनकर घर छल आ लाखो लोक हुनकर परिवारी-जन। एहि सभक बीचे रहि क' ओ अपना कें स्वस्थ आ सहज अनुभव करथि। पचपन-छप्पनक उमेर सं हुनकर एक्टीविज्म आरो अधिक बढ़ि गेल आ ओ सामाजिक-राजनीतिक कतेको मोर्चा पर अधिकाधिक सक्रिय होइत गेला। तें हमसब देखैत छी जे 1967क बाद कायदा सं ओ कोनो उपन्यास नहि लिखि सकला, यद्यपि कि योजना सब दिन बनबैत रहला जे ओ उपन्यास लिखता।  हुनकर स्वभाव छलनि जे उपन्यास ओ निरंतरता मे लिखथि, बीच मे जं लिखब बाधित भेल तं हुनकर उपन्यास अधूरा रहि जाइत छलनि। अपन समस्त उपन्यास ओ तीस सं चालीस दिन मे पूरा क' लेलनि। बलचनमा आ कुंभीपाक, यैह दू उपन्यास छनि जाहि मे क्रम टुटलाक बादो पुन: पुन: आसन जमा क' एकरा ओ पूर्ण केलनि। अपन अंतिम उपन्यास 'गरीबदास' ओ एनसीईआरटी के लेल 1979 मे बहुत जतन कयला पर लिखि सकल रहथि।

           उपन्यास-लेखनक जे कसौटी यात्रीक छलनि,ताहि पर बात भ' चुकल अछि। पहिल तं हुनकर आग्रह रहनि जे उपन्यास सदा स्वयं अनुभूत प्रसंगे पर लिखबाक चाही। दोसर, उपन्यासक भाषा आ शिल्प एहन हेबाक चाही जे अठमा क्लास पास व्यक्ति आराम सं ओकरा पढ़बाक आनंद उठा सकय। तेसर, उपन्यास कें सदा छोट हेबाक चाही जाहि सं अल्प दाम पर साधारणो पाठक ओकरा कीनि क' पढ़ि सकथि। हुनकर तीनू मैथिली उपन्यास हुनकर एहि तीनू शर्त कें पूरा करैत छनि। तीनू उपन्यासक विषय-वस्तु हुनकर भोगल, आंखिक देखल छल। 'पारो' मे जे कथा आयल छैक से ताहि समयक थिक जखन ओ एक तरुण छला आ गोनौली मे रहि क' मध्यमाक पढाइ क' रहल रहथि। एहि उपन्यासक तीक्ष्णता सं हमसब अनुमान क' सकै छी जे ओहि घटना सं ओ कतेक आहत भेल छला आ स्त्री-मुक्ति आगुओ हुनकर औपन्यासिक लेखनक एक प्रधान यत्नक रूप मे मौजूद रहल। 'नवतुरिया'क कथा यात्रीक सासुर हरिपुर बक्शीटोल मे घटित एक घटना पर लिखल गेल अछि, जाहि मे स्वयं यात्रियोक अपन योगदान छलनि। हरिपुर बक्शीटोलक एक आरो प्रसिद्ध मैथिली लेखक उपेन्द्रनाथ झा व्यास भ' गेला अछि। ओहि गाम मे घटित ई घटना ततेक चर्चित भेल रहय जे स्वयं व्यास जी अपन एक कथा 'वाग्दान' एही घटना कें आधार बना क' लिखने छला। तहिना,  हमरा लोकनि अवगत छी जे लंका सं घुरलाक बाद यात्री क्रांतिकारी भ' गेल छला आ किसान सभाक मजगूत संगठन तैयार करबाक वास्ते स्वामी सहजानंद हुनका चंपारण पठौने छलखिन। 'बलचनमा' मे जे कथा आयल अछि, से स्वयं यात्रीक अनुभव छनि। एहि उपन्यास मे आयल कतेको घटनाक विवरण स्वामी सहजानंदक आत्मकथा 'मेरा जीवनसंघर्ष' सं हूबहू मिलैत अछि।



काया मे छोट मुदा प्रभाव मे बेस घनगर आ गँहीर 'पारो' यात्रीक पहिल उपन्यास थिक। ई मूलत: पिसियौत-ममियौत भाइ-बहीनक कथा थिक, जे अनेक घुमान विन्दु कें पार करैत अन्तत: पार्वती उर्फ पारोक विवाह आ तकर तेसरे वर्ष ओकर मृत्युक खिस्सा थिक। उपन्यासक कथावाचक बिरजू थिक जे पारोक ममियौत भाइ थिक। दुनू भाइ-बहीन एक नेनपन सं एक-दोसरक संग तेना जुड़ल रहल अछि जे अद्भुत स्नेह-सम्बन्ध दुनूक बीच कायम छैक। नेनपन मे ओ दुनू खेल-खेल मे विवाह सेहो कयने छल जाहि मे माटिक सिन्दूर व्यवहार कयल गेल रहैक। पारो बेस बुझनुक आ विवेकशील अछि। पिता पंडित छलखिन मुदा बेस होशगर। ओ गार्गी-मैत्रेयीक स्त्री-परंपरा पर गौरव केनिहार लोक रहथि आ एकमात्र संतान पारो कें गार्गी-मैत्रेयी सन पंडिता बनेबाक ख्वाब राखथि। मुदा, परंपरित मैथिल समाजक अस्सल प्रतिनिधि रहथि पारोक माय, जे पंडितजीक एक नहि चल' देलकनि। पंडितक असमय देहान्त भेलनि। विधवा माय गरीब नहि रहथि मुदा वैवाहिक दलाल लूच झाक फंदा मे फँसि क' पैंतालिस वर्षक चुल्हाइ चौधरिक संग पारोक विवाह करबा देलखिन। चौधरि जातिये टा मे नहि धनो संपति मे पैघ लोक छला। ओ रामराज्यक स्वप्न देखनिहार लोक रहथि जे देखबे टा मे मनुक्ख रहथि, बांकी पारोएक शब्द मे कही तं राक्षस रहथि। तेरह वर्षक कन्या, पैंतालिस वर्षक वर। एहि सम्बन्ध कें नहि निमहबाक कारण दू टा। एकटा तं स्वयं पारो, जे अपन बुद्धि-विवेकवश स्त्री-चेतना सँ भरल रहथि आ हुनका मैथिलक ई विवाह संस्था भारी नापसंद। बिरजू भने हुनक भाइ लगतथिन, मुदा अपन नेह-नाताक कारण ओ कुमारिये मे बिरजू कें कहने रहथिन-- 'भाइये बहिन मे जँ बिआह-दान होइतैक तँ केहन दीब होइतै। कत' कहांदनक अनठिया कें जे लोक उठा क' ल' अबैए से कोन बुधियारी?' दोसर कारण, स्वयं चौधरि, जिनका लेल स्त्री केवल भोग-विलासक एकटा वस्तु होइत अछि, ओकरा प्रति कोनो संवेदना, कोनो सहमति, कोनो प्रेम-रसायनक दूर-दूर धरि कोनो लसि नहि। एहि प्रकारें ई विवाह केवल उमेरे टाक संदर्भ मे अनमेल नहि रहैक, बौद्धिकता आ मानसिकता धरि अलग-अलग छल। मन मारि क' चौधरि संग जीवन गुदस्त करैत पारो कहियो सहज नहि रहि सकली आ हुनकर मृत्यु मानू विद्रोहक कोनो बाट नहि भेटने एक आत्मघात छल। मुदा, ताहि सँ पहिने मानू ज्वालामुखि फटैत छैक जखन पारो बिरजू कें कहैत अछि-- 'एहन असिरबाद ने हमरा तों देने जाह बिरजू भैया जे अगिला जन्म मे ई सांसत नहि उठब' पड़य... हमरा-तोरा बीच मे पिसियौत-ममियौतक सम्बन्ध नहि, ओहि जन्म मे हम आ तों...'

              इतिहासकार आ आलोचक लोकनि एहि उपन्यास कें कैक तरहें देखलनि अछि आ स्वयं ई उपन्यास एकर अवकाश दैत अछि जे एकरा आरो कैक तरहें देखल जा सकय। मैथिल पंडित लोकनि ठीक ओही बनैला पाड़ा जकां जकर प्रतीक-योजना उपन्यास मे एक ठाम कयल गेलैए, मानैत रहला जे ई सगोत्र सम्बन्धक अनैतिक प्रेमकथा थिक। जयकान्त मिश्रक लेल जतय यैह टा संतोषक बात रहलनि जे घटनावली 'मर्यादाक भीतरे अछि' तं श्रीश एकरे पैघ बात मानलनि जे ई 'अनुचित सीमा पर नहि पहुँचल' अछि। मुदा एकर बादो सुरेन्द्र झा सुमन कें पपारोक चरित्र निर्लज्ज आ वीभत्स लगलनि आ बिरजूक व्यवहार मे सेहो हुनका कालुष्य देखना गेलनि। ओ तँ एहि दुनू कें आर्य मानबा धरि लेल तैयार नहि भेलाह-- 'बूझि पड़ैछ जेना मैथिल युवक-युवतीक कलेवर मे सामाजिक संस्कार सँ सर्वथा अपरिचित कोनहु अनार्य जीव काया मे प्रवेश कयने हो।' एहि सब सँ थाहल जा सकैए जे पं. त्रिलोकनाथ मिश्र पारोक अवतरण कें मां मैथिलीक हत्या कोन आधार पर करार देने हेथिन।

           मिथिलाक समाजशास्त्रीय संदर्भ मे 'पारो' कें देखबाक चेष्टा करैत हेतुकर झा एहि रचना कें 'एहि ठामक सामाजिक ह्रासक विरुद्ध यात्रीक मुखर आक्रोश' कहलनि अछि। हुनकर दृढ़ मान्यता छनि जे मिथिलाक समाज पंजी-व्यवस्थाक बाद ह्रासोन्मुख भ' गेल। एहि सामाजिक ह्रास कें चिन्हबाक लेल ओ तीन गोट पैमाना देखैत छथि आ तकरा सब कें पारो मे मौजूद पाबै छथि। पहिल तँ जे मैथिल समाजक भीतरे-भीतर खंड-प्रखंडीकरण (Involution) भ' गेल, मैथिल ब्राह्मण लोकनि जाति-श्रेणीक आधार पर बँटि गेला, पहिने गौरवक स्थान विद्या कें प्राप्त रहैक आब जातीय श्रेष्ठता कें भ' गेल, एहि तरहें 'पंजी विद्याक मूल्य घटबाक अनुपम साक्षी अछि।' एहि उपन्यासो मे हमसब विद्या-विवेकक स्थान पर जाति-श्रेष्ठता कें वर्चस्व प्राप्त कयने देखैत छी। एकर निर्घिनतम रूप बिकौआ प्रथा थिक, जाहि अंतर्गत उच्च जाति-श्रेणीक ब्राह्मण लोकनि पचास-साठि विवाह करथि, आ एतबे नहि, हुनका लोकनि संग सम्बन्ध बनेबाक लेल समाज मे आतुरता छल। विगत तीन-चारि शताब्दी मे ई परंपरा ततेक जड़िया गेल छल जे ओकरा उखाड़ब कठिन काज छल। 'किछु गोटे अपन आक्रोश व्यक्त करबा मे अवश्य सफल भेला। एहि मे यात्री अग्रगण्य छथि।'

           दोसर जे पैमाना थिक, से लोकक क्षुद्र मनोभाव। अर्थात दूरदृष्टिक प्रति अनादर एवं समाजक वा व्यक्तिक हानिक चिन्ता कयने विना केवल अपन क्षणिक स्वार्थ-पूर्तिक लेल काज करब। ई प्रवृत्ति आइये नहि, अंग्रेजक अयबा सँ पहिनहि सँ मैथिल समाज कें ग्रसने छल, आ जमीन्दारी प्रथा एवं अंग्रजक गुलामीक अवधि मे जेना-जेना पाइ वा धनक कीमत बढ़ल, तेना-तेना समाजक एहि कुसंस्कार मे सेहो वृद्धि होइत गेल। 'पारो' मे पं. फुद्दी चौधरी आ भगिनमान लूच झाक प्रवृत्ति मे एकरा स्पष्टतापूर्वक देखल जा सकैत अछि। एहने एक दलाल 'नवतुरिया' मे मटुकधारी पाठक आयल अछि। पारोक दलाली मे जतय लूच झा कें पन्द्रह टाका, एक जोड़ धोती आ दू मन चाउर भेटल छलनि ओतहि बिसेसरीक दलाली मे पाठक कें पचास टाका सुतरल रहनि। सामाजिक ह्रासक तेसर द्योतक सामाजिक स्तर पर व्यावहारिक असभ्यता (cudeness)। समाज 'बड़का लोक' आ 'छोटका लोक' मे तँ विभाजित रहबे कयल, सब वर्गक स्त्रीगण एकर चपेट मे पड़ल रहली। बात-बात मे गारि, आ अनादरसूचक शब्दक बौछार एकर उदाहरण थिक। 'पारो' मे मामा ठकबा खवास कें कहै छथिन--'दुर बैटचोद, तों की जान' गेलही ई सब।' तहिना चित्रण आयल अछि जे लूच झा अपन दुनू पत्नी(हुनक दू विवाह छलनि) कें कोनो अदना सन बात पर जखन दू-दू डांग मारलखिन तं प्रतिक्रिया मे ओहो दुनू अपन हाक्रोश सँ सौंसे गाम कें मुखरित क' देल। एहना स्थिति मे मिथिलाक नारी लेल दुइये टा रस्ता छलनि-- ओ लूच झाक स्त्री जकां थेत्थर भ' क' समझौता क' लेथि, अथवा पारो जकाँ घुटि-घुटि क' विना समझौता कयने अपन प्राण उत्सर्ग क' देथि। अकारण नहि थिक प्रसिद्ध हिन्दी आलोचक मैनेजर पांडेय लिखलनि जे 'पारो एक मार्मिक उपन्यास से अधिक पुरुषसत्ता की क्रूरता की शिकार एक किशोरी की मृत्यु पर लिखा गया लम्बा शोकगीत है।' तहिना, 'पारो'क हिन्दी अनुवाद जखन प्रकाशित भेल तँ दिनमान मे एकर समीक्षा करैत सर्वेश्वरदयाल सक्सेना लिखने छला जे 'पारो अपनी लड़ाई में अकेली है, और यह लड़ाई--सामाजिक अन्याय की लड़ाई--अन्तत: उसे ही खा जाती है, लेकिन वह मरकर सबसे जीत जाती है और सबसे बदला ले लेती है।'(1976)

             एक उपन्यासकारक रूप मे यात्रीक स्वभाव छलनि, हरिमोहने झा जकाँ, जे अपन एक उपन्यास पूरा करबाक बाद ने मात्र पाठकक आग्रह, अपितु अपनो मनक समाधान लेल एही विषयवस्तुक अगिला चरणक वास्ते नवीन उपन्यासक रचना केलनि अछि। जेना 'कन्यादान'क अगिला चरण 'द्विरागमन' थिक तँ ठीक तहिना 'पारो'क अगिला चरण 'नवतुरिया' थिक। जे स्त्री पारो मे असमर्थनक मारलि एसकर छली, तकर समर्थन मे एतय नवतुरिया लोकनिक विशाल समूह आबि जाइत छैक। पारो तँ हारि गेल छली, मुदा एतय बिसेसरी कें हमसब जितैत देखैत छी। प्राचीन आ नवीन युगक नैतिकताक प्रसंग पछिला अध्याय मे हम म. म. गंगानाथ झाक अभिमत उद्धृत कयने रही। तकर यथार्थ दर्शन हमसब 'नवतुरिया' मे क' सकै छी। यात्रीक दृढ़ विश्वास रहनि जे पुरातन लोकनि मिथिलाक सामाजिक ह्रास कें जाहि तरहें उच्च स्तर धरि बढ़ा देने छथि, तकर काट अपन चेतना आ संघर्ष सँ नबका पीढ़ी अवश्ये निकालत। दोसर बात एक इहो देखबा योग्य अछि जे 'पारो'क रचनाकाल(1946) मे देश गुलाम छल आ सामंती मूल्य बेखौफ राज करैत छला, ओतहि 'नवतुरिया'क रचनाकाल (1954) मे देश आजाद भ' गेल रहय आ भारतीय स्वतंत्रता-संघर्षक आदर्श मिथिला-समाज कें सेहो कोन तरहें अनुप्राणित क' रहल छल, तकर अवलोकन हमसब एहि उपन्यास मे क' सकै छी। आगू जखन यात्री 'बलचनमा', 1954 मे मैथिली मे लिखलनि तँ बहुतो दिन धरि एकर अगिला चरणक उपन्यास लेल सोचैत आ चिन्तित होइत रहला। एकर साक्ष्य हुनकर अनेको इन्टरव्यू मे हमरा लोकनि कें भेटैत अछि। एकर विवरण 'युगों का यात्री' मे देखल जा सकैत अछि। ओ उपन्यास तँ नहि लिखि सकला मुदा तकर अगिला चरणक कथा-विस्तार हमसब हुनकर आगामी हिन्दी उपन्यास सब मे पाबि सकै छी।

           पारो-नवतुरिया पर गप करैत स्त्रीक पीड़ा आ स्त्रीक चेतनाक बीच मौजूद फरक दिस सेहो देखबाक जरूरति छैक। मैथिलियेक नहि अपितु सम्पूर्ण भारतीय भाषा सभक उपन्यासक आरंभ स्त्री-पीड़ाक संग भेल अछि। अर्थात स्त्री-पीड़ा आरंभिक उपन्यास सभक विषय बनल। से नीक जकाँ मैथिली मे सेहो भेल। जेना कि एखने कहल गेल, लिंग वा वर्णक असमानताक आधार पर मनुक्ख-मनुक्ख मे विभेद करब, वा एही आधार पर असभ्यता आ क्रूरताक व्यवहार करब स्वयं अपना मे मनुष्यताक हनन थिक। एहन केनिहार जँ स्वयं मनुष्यता सँ हीन अछि, तँ सामाजिक ह्रासक बदला सामाजिक प्रगतिक उम्मेदे कोना कयल जा सकैए। आधुनिकताक प्रवृत्ति थिक जे वंचित समुदायक प्रति करुणाक भाव राखय। मैथिली उपन्यासक आरभ एही प्रकारक आधुनिकताक संग भेल अछि। मुदा, चेतना एहि सँ भिन्न वस्तु थिक। कोनो पीड़ा तीन चरण मे आगू बढ़ैत चेतनाक रूप धारण करैत अछि। पहिल तँ वस्तु-विषय-व्यवहारक वास्तविक ज्ञान, दोसर ओहि पीड़ाक कारण-तत्वक पहचान। चाही तँ एकरा उत्पीड़कक पहचान कहि सकैत छियैक। तेसर, ओहि परिस्थिति, ओहि पीड़ा सँ बहरेबाक संकल्प। एहि संकल्प कें मजगूत एहि लेल होयब जरूरी जे निर्णयानुसार डेग सेहो आगां उठाओल जा सकय। ई तीनू मिऐत अछि तँ ओकर पहचान हमसब चेतनाक रूप मे करैत छी। 'पारो'क विशेषता थिक जे ई मैथिलीक पहिल उपन्यास थिक जाहि मे स्त्रीक पीड़ा मात्रक नहि, ओकर चेतनाक अभिव्यक्ति भेलैक अछि। किछु आलोचक तँ एहि विशिष्ट चेतनाक लेल 'पारो-चेतना' शब्दक प्रयोग करैत छथि। कमलानन्द झा कहलनि अछि जे 'हम के छी, हमर की आवश्यकता,हमर की पहिचान? पारो कें अपन शोषणक अनुमाने नहि, पूर्वानुमान तक छैक। अपन शोषण आ दमनक। ओ खूब नीक जकाँ बुझैत छली जे एहि परम्पराक पृष्ठभूमि मे पुरुष जातिक हाथ छैक।' कोन विधि खेपब राति/ निट्ठुर पुरुषक जाति/ कोन विधि काटब काल/ हैत हमर की हाल-- ई पारोक अपन जोड़ल पांती सब छलैक जे ओ रामायणक हाशिया पर लिखने छली। मुदा, पारो एसकर पड़ि जाइत अछि। चेतनासंपन्न हेबाक बादो। कारण, जे ओकर सर्वाधिक प्रिय छैक-- बिरजू, सेहो तक ओकर संग नहि दैत अछि। तकरा पाछू मुख्यत: ओकर सांस्कारिक गतिहीनता कारण थिक, जखन कि चेतना स्वभाग होइत छैक गतिशीलता, प्रवाह। ई दुनू उपन्यास साक्ष्य दैत अछि जे जगैत अछि पहिने स्त्रिये, बाद मे ओकर संग नवपीढ़ी दैत छैक, जकर जीवन-चिन्तन मे गति आ प्रवाह छैक। श्रीधरम लिखलनि अछि जे 'नवतुरिया मे आबि क' स्त्री-चेतना विद्रोहक रूप धारण क' लैत छैक। एत' नवतुरिया पुरुषवर्ग सेहो परिवर्तनक आकांक्षी बनि जाइत अछि। एकरा पाछां यात्रीक स्त्री आ सर्वहारा वर्गक प्रति प्रतिबद्धता छनि। पारो मे स्त्रीक नजरि सँ स्त्री-समस्या कें देखल गेल अछि त' नवतुरिया मे स्त्रीक संग पुरुषवर्गक सहयोग भेटैत अछि।' ध्यान देबाक बात थिक जे कमजोर वर्गक प्रि जाहि असभ्यता आ अवमाननाक व्यवहार हमसब 'पारो' मे देखैत छी, 'नवतुरिया'क विद्रोही-दल मे एहि सोल्हकन युवा लोकनि कें सेहो स्त्री-मुक्ति अभियान मे बराबर-बराबर के अभियानी रूप देखाइत छैक। संकेत छै जे जखन चेतनाक प्रवाह बढ़तै, तँ स्वाभाविक रूपें सामाजिक ह्रास के लक्षण सब मे कमी औतैक।

      मुदा, मान' पड़त जे 'पारो' मात्र एकटा उपन्यासे टा नहि, मैथिली साहित्यक अनुपम कलाकृति थिक, जे अनेक तरहें अपन व्याप्ति खोलैत अछि। एखन धरि लिखल गेल उपन्यास सब मे कला-समायोजनक दृष्टियें संभवत: ई सर्वश्रेष्ठ कृति थिक। समाज अध्ययन आ इतिहासक दृष्टि सँ जँ ई अपन व्यापक अर्थच्छवि रखैत अछि तँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि सँ तँ ई मैथिलीक प्रथम आ सर्वाधिक सफल उपन्यास थिक। उपन्यासक मूल मे अछि लिबिडो(यौनभावना)। फ्रायडक सत्यापित कयल छनि जे ई लिविडो ततेक शक्तिशाली होइत अछि जे समाज, संस्कृति, मनुष्यनिर्मित कृत्रिम सम्बन्ध, सब कथूक धज्जी उड़ा देबाक ताकति रखैत अछि। प्रदत्त सम्बन्ध पर एतय स्वनिर्मित सम्बन्ध भारी पड़ैत छैक। ई सब चीज हमसब 'पारो' मे होइत देखैत छी। जे बात पारो अपन माइयो कें नहि, सखियो कें नहि कहि सकैत अछि, से ओ सहज भाव सँ बिरजू लग अभिव्यक्त करैत अछि। तहिना, पारोक साधारणो सन पत्र कें बिरजू तेना गोपनीय बना क' बारंबार पड़ैत अछि, उल्लसित होइत अछि, जे ओकर सांस्कारिक गतिहीनता पर ई दृश्य भारी पड़ैत छैक। प्रो. मनमोहन झा लिखलनि अछि जे 'दुनूक हृदय मे भाइ-बहिनक स्नेह नहि छैक, जुआन हृदयक कोमल ओ सूक्ष्म तरंग छैक। दुनू कें अपन हृदयकतरंगक ज्ञान छै, मुदा सामाजिक निषेधक ज्ञान सेहो चैक। दुनू भीतरे-भीतर सुनगैत रहैत अछि, किन्तु वाह्य प्रकाशक भय सेहो होइत छैक। दुनूक मध्य प्रेमक स्थायी ओ गँहीर भावना निहित अछि जे स्वयं सँ बेसी दोसरक लेल होइत छैक। तिक्त जीवनक विषपान करितहुँ पारो पारो भीतरे-भीतर दग्ध होइत अछिल, घुलैत रहैत अछि, मुदा बिरजू कें जिआब' चाहैत अछि। मन मे एकटा सपना जियौने रखैत अछि जे एहि जन्म मे नहि तँ अगिला जन्म मे ओकर मनोकामना पूर्ण होइक।' ध्यान देबाक बात थिक जे ई उपन्यासकार यात्रीक सीमा नहि छियनि,ओहि युगक स्त्री-चेतनाक सीमा थिक, जे हुनके अगिला उपन्यास सब मे सकनाचूर भेल अछि। एहितरहें हमसब देखैत छी जे पारो एकटा जटिल संवेदनाक कथा थिक, जकरा सोझरायल तरहें अभिव्यक्त क' देब उपन्यासकारक पैघ सफलता छियनि। एतय हमरा इहो लगैत अछि जे जे युवा आलोचक लोकनि एहि उपन्यासक विषय भाइ-बहिनक बीच यौन आकर्षण कें नहि मानैत छथि, हुनका सब सँ बेसी नीक तरहें एहि उपन्यास कें प्राचीन पंडित लोकनि बुझलनि, आ एकरा लेल यात्रीक ढेरी-ढाकी गंजन केलनि। 'पारोक मनोविश्लेषण-पक्ष बहुत समृद्ध अछि। व्यक्ति-मनक सूक्ष्म सँ सूक्ष्म अनुभव कें, अन्तर्द्वन्द्व कें, वाह्यजगतक प्रति प्रतिक्रिया कें, अचेतन स्थित ओझरायल संवेदना कें बहुत मार्मिकता सँ अंकित कयल गेल अछि। पारो आ बिरजूक मध्य नैतिक दम्भक शालीन वस्त्र नहि राखि प्रेमक हल्लुक सन आवरण पहिरौलनि अछि, किन्तु नग्न कत्तहु नहि कयलनि अछि।'(प्रो. मनमोहन झा) मुदा, जीवकान्त एक भिन्न दृष्टि उपस्थापित करैत लिखलनि जे 'पारोक आधार-भूमि ने प्रेमकथा थिक, आ ने इनसेस्ट (सगोत्रीय यौनसम्बन्ध) थिक। 'पारो'क आधार-भूमि थिक नारीक शोषण, नारी-शोषणक विरुद्ध जोर सँ बाजल असहमतिक स्वर।' 

              'पारो' कें मूलत: अनमेल विवाहक कथा गछबाक पक्ष मे सेहो कम तर्क नहि छैक। एकरा इनसेस्ट (सगोत्रीय यौनसम्बन्ध)क कथा सेहो कहल गेल अछि। विद्यानंद झा तँ मानैत छथि जे जँ बूढ़ वरक बदला मे पारोक विवाह कोनो नवजुआन लोकक संग होइतै तैयो पारो-बिरजूक बीचक ई प्रेम समस्याग्रस्ते बनल रहितय। तें यात्री स्वयं एहि तरहक सम्बन्धक कोनो निराकरण नहि देखि सकला। मुदा, चेतनाक प्रश्न अपना ठाम पर अछि। पारो कें हमसब एतय ई प्रश्न उठबैत देखि सकै छियैक जे विवाहक बाद स्त्री कें अपन देह पर कोनो अधिकार रहैत छैक कि नहि। साहित्य मे आब जा क' ई प्रश्न उठान लेलक अछि, एहि सँ हमरा लोकनि यात्रीक पक्षधरता आ दूरदर्शिताक नीक जकाँ अनुमान क' सकै छी। 'पारो' आ 'नवतुरिया'क बीच जे परिदृश्यगत फरक देखैत छियैक तकरा व्यक्तिवाद सँ संगठनबद्धता दिस अग्रसर हेबाक विकास-यात्राक रूप मे देखल जा सकैत अछि। जहाँ धरि पारो मे यात्रीक नियतिवादक प्रशन अछि, कतेक गोटे एकरा हुनक असफलताक रूप मे चिह्नित करैत छथि, मुदा एहू पक्ष मे कम तर्क नहि छैक जे एतय हुनकर नियतिवाद हुनका कमजोर नहि करैत छनि अपितु विश्वसनीय बनबैत छनि। मैथिल समाज धर्म, परंपरा, अन्याय आ अन्धविश्वास सँ ततेक जकड़ल अछि जे एहि नियतिवाद कें मैथिल जीवन-परंपराक विरोध मे स्पष्ट असहमतिक स्वर मानबे उचित थिक।

        चर्चा भ' चुकल अछि जे भारतीय उपन्यासक आरंभ स्त्री आ किसानक पीड़ा कें अभिव्यक्ति प्रदान करैत भेल छल। मैथिली मे स्त्री-पीड़ा टा विषय पकड़ल गेल, जकर केन्द्र मे विवाह-संस्था मे व्याप्त अनीति छल। किसान कें एतय प्रकट हेबा मे चालीस-पचास वर्षक देरी भेल। एकर पर्याप्त साक्ष्य भेटैत अछि जे 'बलचनमा' उपन्यास यात्री मैथिलिये मे पहिने लिखब शुरू कयने रहथि-- 1951-52 मे। किन्तु, जाहि तरहक आर्थिक संकट मे ओ ओहि समय पड़ल छला-- संग मे पाइ नहि आ बीमार बालकक तुरंत आपरेशन करायब अपरिहार्य-- हुनका लग एक्के टा रस्ता रहनि जे जल्दी सँ हिन्दी मे लिखि छपबाबथि जाहि सँ पाइ भेटनि। 1952 मे हिन्दी बलचनमा छपि गेलाक बाद ओ मैथिली बलचनमा पर काज करब शुरू केलनि, जे 1954 मे पूर्ण भेलनि। कैक अर्थ मे यात्रीक ई बहुत महत्वाकांक्षी कृति छल। मैथिली उपन्यास मे पहिल बेर किसानक पीड़ा आ चेतना आबितय, ततबे टा नहि, बालचन तँ बोनिहार मजदूर छला, अर्थात किसानक जे अर्थ-व्याप्ति स्थापित रहै, तकरो बदलबाक रहय। आ ततबे किएक, बटाइदार-भूमिहीन-कमार-मलाह आदि-आदि पेशाक लोक जिनका तकनीकी आधार पर किसानक मान्यता नहि छलै, तकरो सभक एतय सुरता लेल जेबाक छल। ई मार्क्सवादक सैद्धान्तिकी मे एक जबरदस्त दखल होइत। आ, सब सँ तँ पैघ जे एहि उपन्यास कें आत्मकथात्मक शैली मे लिखल जेबाक रहय। बालचन जें कि 'छोटका लोक' छलै जकरा अपन मालिकक भाषा नहि बजबाक अधिकार रहै, ओकर पुरखाक क्रमागत एक भिन्न मैथिली चलि आबि रहल छल, शूद्र मैथिली, यात्री कें अपन उपन्यास ओही भाषा मे लिखबाक रहनि। मैथिलीक जतेक परती एखन धरिक अपन कृति सँ ओ तोड़ि चुकल रहथि, आब हुनका समक्ष यैह एक बचल चुनौती छलनि। तें, एकरा लिखने विना हुनका चैन नहि छलनि। अन्तत: जखन ई उपन्यास हुनका परिकल्पनाक एनमेन मुताबिक कागज पर उतरि अयलै, 15 फरबरी 1955 कें ओ हरिनारायण मिश्र कें लिखलनि: 'हौ हरि, मैथिली बलचनमा हिन्दी बला सं नि:सन्देह सुंदर भ' गेलैक अछि। अनावश्यक विस्तार आ बन्धुरतो एतय नहि छैक। ओकर धड़कन कैक गुना अइ मे बढ़ि गेलैक अछि, की कहियह!'

              जेना कि पहिनहु कहल गेल, 'बलचनमा' यात्रीक किसान-सभाक अपन कार्यानुभव पर आधारित अछि। जकरा हमसब भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम कहै छियै, से अपन आरंभिक दौर मे बाबू-भैयाक राजनीति छल। एहि उपन्यास मे सेहो देखै छिऐक जे कांग्रेस पर बाबू-भैयाक वर्चस्व छैक। जखन एहि संग्राम मे किसान-मजदूरक प्रवेश भेल, तखनहि जा क' ई गाम-गाम मे पसरल आ संपूर्ण भारत एहि संग अपना कें ठाढ़ क' लेलक। बिहार किसान सभाक स्थापना 1931 मे भेल छल आ एकर पहिल अधिवेशन 1933 मे मधुबनी मे भेल। एहि तरहें मिथिला शुरुहे सँ एकरा संग जुड़ल रहल। यात्री जखन 1938 मे किसान सभाक राजनीति मे सक्रिय भेला, पहिने तँ राहुल सांकृत्यायनक संग अमवारी किसान आन्दोलन मे, ओतय गिरफ्तार भेला पर सीवान जेल, पश्चात स्वामी सहजानंद हुनका चंपारण मे संगठन आ विस्तार लेल पठौलकनि। अमवारी आन्दोलन मे किसान आ जमीन्दारक बीच लड़ाइ कुसियारक एक खेत लेल भेल छल। बलचनमा मे जे संघर्ष भेल छैक, ओकरो कारण कुसियारक एक खेत थिक। जमीन्दारक लठैत अमवारी मे राहुल जीक कपाड़ फोड़ि देने रहनि। महपुरा मे से घटना बलचनमाक संग होइत अछि। स्वामी सहजानंद अपन आत्मकथा मे चंपारणक एक घटनाक उल्लेख कयने छथि, जे यथावत रूप मे बलचनमा मे आयल अछि। जखन स्वामी जीक मीटिंगक लेल 400 किसानक संग स्थल पर पहुँचला तँ जमीन्दार अपन लठैत ठाढ़ क' देलक जे अपना जमीन पर हम मीटिंग नहि करय देब। जमीन्दारक दबौट पर किसान सब तँ चुप्पी लदने रहल, मुदा नूर मोहम्मद नामक एक किसान, जकर खेत मे केराव लागल रहै, अपन फसिल उखाड़ि जमीन तैयार केलक, ओतहि मीटिंग भेल। स्वामी जी अपन आत्मकथा मे लिखने छथि-- 'सभी के साथ मैं उस खेत पर गया और उसकी मिट्टी सिर पर लगाकर कहा कि किसान सभा के इतिहास मे यह खेत और यह मुसलमान जवान अमर रहेंगे। ऐसे लोग ही इसकी जड़ दृढ़ करेंगे।' ई मूल घटना भितिहरबा के थिक, जकरा बलचनमा मे महपुरा मे होइत देखाओल गेल अछि आ नूर मोहम्मद एहि ठाम लतीफ बनि गेला अछि। उपन्यास मे लतीफक खेत मे मड़ुआ लागल छलै।

           एहन दबौटक कारण की छल? 'बलचनमा' मे हमसब देखै छी जे जमीन्दार आ किसानक संघर्ष जखन सामने आयल, जमीन्दारक लठैत-गुंडा नारा लगबैत अछि-- महत्मा गांधी की जय, भारत माता की जय। किसान सभक नारा छै-- कमाय बला खाएत/ एकरा चलते जे किछु होइ। जमीन ककर/ जोतय-बोअय तकर, अंग्रेजीराज नाश हो, जमीन्दारी प्रथा नाश हो। आदि-आदि। एकर की मतलब? की महात्मा गांधी आ भारतमाता जमीन्दारक समर्थन मे छल? निश्चिते। ई बात बलचनमा मे कतेको जगह पर आयल छैक। जखन किसान सभाक मूवमेन्ट सत्याग्रहक कठिन हठ ठानै छल, तँ हमसब देखै छी जे 'गाँधी जीक चेला'कांग्रेसी लोकनि उपवास तोड़ेबाक छल-छद्म करय लगैत छल आ कोनहुना तोड़बाइए दैत छल। गांधीजी सँ सहजानंद के मोहभंग दरभंगाक जमीन्दारे ल' क' भेल छलनि। ई सब भयंकर शोषण करै छलखिन किसानक, 88% तक उपजा कोनो-ने-कोनो बहन्नें जमीन्दारे हड़पि लैक, एहन अनीति समुच्चा भारत मे कतहु अन्यत्र नहि छल। सहजानंद जमीन्दारक विरुद्ध सीधा कार्रवाई चाहै छला, जखन कि गाँधीजी जमीन्दार कें आंच नहि आब' देबाक हिमायती रहथि। उपन्यास मे एकठाम बलचनमा कांग्रेस आ सोशलिस्टक विचारधारा कें फरिछबैत गांधीजीक बारे मे कहैत अछि-- 'अंग्रेजराज ने कांग्रेसे चाहै अछि आ ने सोसलिस्टे। मुदा गांधी महतमा कल-कारखानाक विरुद्ध छथि। ओ एकरो खिलाफ छथि जे सेठ जमीन्दार, राजा महराजा सँ जमीन-जायदाद, धन-संपत्ति छिन क' आन लोक मे बांटि देल जाय।' तें, ई वाजिब नारा छल। जमीनी हालात ठीक एहने रहैक। तें, सहजानंदक संघर्ष बहुगुणित छलनि-- अंग्रेज, कांग्रेस, जमीन्दार, प्रशासन-- सब खिलाफ। तें, जाहि चेतनाशील बालचन कें हमसब पहिने कांग्रेस मे जाइत देखै छियै, वैह मोहभंगक बाद सोशलिस्ट पुन: किसान सभाइ कम्युनिस्ट बनि जाइत अछि। मोन रखबाक चाही जे नक्सल नाम पर जाहि सशस्त्र किसानसंघर्ष कें हमसब आगू जारी होइत देखैत छी, तकर आदिम पुरखा सहजानंद, यात्रीक राजनीतिक गुरु, छला। 'बलचनमा' कें आखिर मे हमसब लगभग हारैत देखैत छियैक। यात्रीक वामपंथी प्रतिबद्धताक हिसाब सँ देखी तँ ओकरा हारबाक नहि छलै। मुदा, एक तँ वास्तविक यथार्थ एकर अनुमति नहि दैत छल, दोसर कलात्मक संयम सेहो एकरा पक्ष मे नहि रहैक जे बलचनमा सन-सन अबल-दुबल किसान-मोर्चा जीति जाइतैक।

बोनिहार-किसानक असल दुश्मन छल जमीन्दार, रक्तबीजक संतान जकाँ जकर अमला-फैला चहुँदिस पसरल छल, महपुरा इलाकाक जमीन्दारक ताकति के बारे मे बलचनमा एकठाम बतबैत अछि-- 'ओहि जालिम जमीन्दारक मोकाबला असगरे तँ कियो क' नहि सकै छलै। ओकरा पीठ पर थानाक दरोगा साहेब छलखिन, दरभंगाक कलक्टर साहेब छलखिन, इलाका भरि के जमीन्दार, पंडित आ मौलवी सब-- खान बहादुरक पच्छ मे छलखिन। पच्छिमक दस लठैत जवान, नेपालक पांच खुखरी बहादुर...'

                अमवारी मे जेना घटना घटल रहैक, जमीन्दार किसानक जमीन हड़पि लेने छल। खेत मे कुसियारक फसल लागल। जमीन्दारक दिस सँ हाकिम-हुकुम, पुलिस-दरोगा सब हाजिर। गुंडा-लठैत सब तत्पर। मुदा, किसान मे जोरदार प्रतिरोध जे हक ल' क' रहब। नेता छला राहुल सांकृत्ययन आ भिक्षु नागार्जुन। दू हजारक करीब किसान खेत लग मे डेरा डालने। राहुल जीक कपार फोड़ि देने रहनि, मने लक्ष्य जान मारबाक रहै। सामंतवादी-साम्राज्यवादी गठजोड़क यैह तरीका छलै। एकजुट जँ किसान हुअय लागय तँ नेताक जान मारि दियौ, भय सँ किसान फील्ड छोड़ि देत। 'बलचनमा' मे नेताक रूप मे पांच व्यक्ति कें चिह्नित कयल जाइत अछि-- बालचन, अब्दुल, रामखेलावन, बम्भोल आ बच्चू। दुनू ठाम हमसब देखै छियै जे किसान संग इंसाफ करबा लेल, कोनो समझौता करबा लेल ने जमीन्दार तैयार अछि ने प्रशासन। यैह अंग्रेजी राजक तरीका रहैक जे आइयो लागू छैक। अमवारी मे नेता पर हमला कयलाक बाद हुनका सब कें जेल ढुकाओल गेलनि, मुदा ताहि सँ आन्दोलन खतम नहि भेल। स्वामी सहजानंद एहि उपन्यासक सेहो एक पात्र छथि। ओ किसान सब कें संबोधित करैत कहै छथिन-- 'बाहरी लीडर के भरोसे नहि रहू, अपन नेता अपने बनू। जे अहाँक आदमी हैत वैह अहाँक तकलीफ कें बूझत। अहाँ सब किछु उपजबै छी तँ अपन लीडर सेहो अपने ओइठाम पैदा करू।' ई बात किसान सभक मोन मे बैसि गेल रहैक। सन् चौंतीस के भूकम्प मे ओ सब काँग्रेसी नेताक बैमान नेत कें नीक जकाँ चीन्हि गेल रहय। आगू जखन किसान आन्दोलन शुरू भेलै तँ तखनहु किसान कें ई बुझबा मे भांगठ नहि रहलैक जे कांग्रेसी सब किसानक नहि, जमीन्दारक हितचिन्तक थिका। तें, अपना बीच सँ नेता पैदा क' क' लड़ाइ कें अनवरत जारी रखलक आ जीति सकल। कोनहु कालखंडक घटना कें जखन इतिहासक बदला उपन्यास मे व्यक्त कयल जाइत छैक तँ ओहि औपन्यासिक यथार्थक मतलब ने केवल ओहि खास घटना, अपितु ओहि समस्त कालखंडक परिणति आ इंगित कें अभिव्यक्त करबाक बेगरता रहै छै। से नीक जकाँ भ' सकय तखनहि बात बनैत अछि। 'बलचनमा' मे हमसब देखैत छी जे बालचन पर जमीन्दारक गुंडा सब जानलेवा हमला करै छै। लड़ाइ ओही कुसियारक खेतक छियै। अमवारी राहुलजी वा भिक्षु नागार्जुनक अपन गाम नहि छलनि। महपुरा सेहो बालचनक अपन गाम नहि छियै। दस के लड़ाइ ई लोकनि लड़ि रहल छला। तँ, उपन्यास मे होइत ई छै जे गुंडा सभक जानलेवा हमला मे बाचन बेहोश भ' जाइत अछि, आ ठीक एत्तहि उपन्यास समाप्त भ' जाइत अछि। बालचन मुइल नहि, ओकरा सन जनता कहियो मरि नहि सकैए, से यात्री कहैत छला आ उपन्यासो ई बात अपन अन्विति मे कहिते अछि। तखन, एत्तहि उपन्यास समाप्त हेबाक पाछू निहितार्थ ई छै जे किसान सभा सन संगठन एक नितान्त जरूरी काज कें हाथ मे लेलक, जनता कें जगेलक, संगठित केलक; मुदा ई जनता जे कि वास्तव मे अस्सल भारत छल, के हाथ मे स्वाधीनता संग्रामक नेतृत्व नहि आबि सकल। ओकर लड़ाइ मुख्यधाराक लड़ाइ नहि बनि सकलैक। सन् छत्तीस मे कांग्रेस अपन घोषणापत्र मे जमीन्दारी उन्मूलन कें शामिल कयने छल। एकर चर्चा 'बलचनमा' मे सेहो एलैए, एकरे भयवश जमीन्दार सब किसान कें बेदखल करब शुरू कयने छल। जे हमसब अमवारी वा भितिहरबा मे देखै छी, ठीक वैह चीज महपुरो मे देखै छी। बाद मे कांग्रेस पर जखन जमीन्दार लोकनि अपन दबौट कायम केलनि तँ कांग्रेस, सन् सैंतीस मे सरकार बनेलाक बादो, अपन एहि घोषणा सँ मुकरि गेल। महपुरा मे जखन ई संघर्ष भेल रहैक, कांग्रेसेक शासन छल। गाम-गाम मे लोक किसान सभाक मेम्बर बनय। दस मेम्बर तँ बालचन अपने बनौने छल। ताहि पर सँ जनसमर्थन एहन जे सदस्यताक लेल एक आना पाइ दैत, कुन्ती मसोमात बालचन कें कहने छलै-- 'बालो, देवताक प्रसादक हेत ई एक चुटकी भरि चिक्कस हमरो गरीबिन के!'

              जमीन्दारक गुंडा सब कें जखन हमसब 'महतमा गांधी की जय' के नारा लगबैत देखैत छियै तँ एकर असली अभिप्राय कें बुझबाक चाही। उपन्यास मे एलैए जे गुंडा सब हो-हल्ला मचा क' स्वामी जीक सभा कें भंग करबाक कोशिश केलक, तँ किसान लोकनि ओकरा सब कें डांटि-डपटि क' चुप करा देलक। किसान सभक एहन जुझारूपन रहैक जे गुंडा सब कें विफल हुअय पड़लैक, मने से। इहो मोन रखबाक चाही जे ओ गुंडा सब 'भारतमाता की जय' के सेहो नारा लगबैत छल, जकरा एखनो सुनल जा सकैए। स्वतंत्रताक बाद, जमीन्दारी उन्मूलन अवश्य भेल, मुदा भूमिसुधारक जे कानून लागू हेबाक छलै से आइयो लटकले अछि। राहुलजी लिखलनि अछि जे के अभागल हैत जे अपन हाथक कुड़हरि अपने पैर पर मारत। उपन्यास मे बलचनमा एकठाम कहैत अछि-- 'कांग्रेसक बारे मे सोच' लगलहुँ जे स्वराज भेलाक बाद बाबू-भैया सब अपना मे दही-माछ बँटताह, जे सब एखन मालिक बनल छथि सैह सब ने भितरिया माल उड़ौता। हमरा सभक हिस्सा मे तँ सिट्ठी पड़तै।'

                     'बलचनमा' मे जे मिथिला-समाज आयल छैक, से 'पारो' आ 'नवतुरिया' मे आयल समाज सँ सर्वथा भिन्न छै। ई मिथिला-समाजक एक एहन अंश थिक जे एतेक खुसफैल सँ मैथिली साहित्य मे कहियो नहि आयल छल। पं. गोविन्द झाक लिखल एक बात एतय हमरा मोन पड़ैत अछि। ओ कहने छथि जे मिथिला-समाज जकरा हमसब कहैत छिऐक से कोनो एकटा समाज नहि थिक, दूटा अलग-अलग समाज, जे मानू दू अलग-अलग ग्रह पर बसल हो, एक दोसरक हाल-सुरता सँ सर्वथा बेखबर। एहि मे सँ एक जँ अभिजात समाज थिक तँ दोसर अनभिजातक श्रमशील समाज, जकर रहन-सहन, आचार-विचार, नीति-धर्म बिलकुल अलग अछि। रोचक हैत ई देखब जे एहि समाजक विषय मे यात्री एतय की सब टिपलनि अछि।

                बलचनमा जाहि छोटका लोकक समाज सँ अबैत अछि, ओकरा लेल आदर्श जीवनक परिकल्पना की छैक देखल जाय-- 'झूठ किए कहू भैया! समांग नीकें रहय, काम-काज भेटैत रहय, परिवार छोट रहय, नीयत खराब नहि हो, मोन मे दस-बीस लेल जगह होइ, आओर की चाहिऐक?' प्रश्न अछि जे बड़का लोकक धिया-पिता एहि तरहें मनुक्ख किएक नहि बनि पबैत अछि? एक ठाम बालचन अपन तप्पत अनुभवक बात बतबैए जे एहि धिया-पुता सभक लेल मनुक्ख बनब किएक कठिन बनल रहै छै-- 'बड़का घरक धिया-पुता सब तुनकाह तँ होइते छै। घमंड, फरेब आ झूठ-- ई बड़ सहजता सँ हुनका सभक अंदर पैसि जाइ छनि। मचलनाइ, रुसनाइ, बिधुकनाइ, रंज भेनाइ-- ई सब तँ माइये-बाप सिखबै छथिन। बढ़ियां जँ किछु सिखैत छथि, ओइ मे बेसी हिस्सा नोकर-चाकर आ गरीब पड़ोसी सभक देल रहै छै।' एहि छोटका लोकक जे इमान-धरम होइ छै, खिस्सा आयल अछि जे किसानी एकता कें तोड़बाक लेल बाबू-भैया लोकनि मुसहर सब के नाम छोटका सभक जमीन लिखि देबाक प्रलोभन दैत छथि, तँ 'मुसहरक मुखिया (माइनजन) साफ कहलकनि-- नहि सरकार, दोसरक पेट काटि क' देब तँ नहि दिअ'। हँ, अपना खेत मे सँ देब' चाहै छी त ठीक छै।' दोसर दिस, नब्बे बीघा बला खेत जकर लड़ाइ उपन्यासक अंतभाग मे आयल छै, ओकर इतिहास बतबैत एकठाम बालचन कहैत अछि-- 'गामक पच्छिम, एकदम करीब, खेतक एकटा बढ़ियां टुकड़ा छलै नब्बे बीघा के। एहि जमीन मे सब किछु उपजै छलै। धन्, मड़ुआ, सरिसो, कुसियारो, तिसियो, राहड़ियो, जौ-गहूम सेहो, उड़ीद सेहो, कुरथी सेहो। ई जमीन तीसेक मुसलमान, गुआर आ मलाह सभक अधिकार मे रहै। मुदा (पछिला सर्वे मे) चलाकी सँ मालिकक परददा एकरा अपना नामें चढ़बा लेलखिन।' मुसहर लोकनि कें एही जमीन मे सँ देबाक प्रलोभन छलै।

              सन् चौंतीस के भूकंपक बाद जे रिलीफक पाइ बांटल गेल, ओहि मे कांग्रेसी बाबू-भैया लोकनि छुटि क' लूट मचौलनि। तकर पूरा विवरण उपन्यास मे आयल छैक। जुगल कामति के विधवा चुन्नी ओहि पर अपन प्रतिक्रिया दैत कहैत अछि-- 'ई सब जुलुम करै छथि बेटा। दैत छथि दू आ कागत पर चढ़बै छथिन दस। ईमान-धरम हिनका सब के डूबि गेलैन। पता लगबिहै बेटा, हमरा नाम कै रुपैया चढ़ल अछि।' ओकरा मात्र तीन टका भेटल रहैक। एहि बड़का लोकक समाज मे छोटका लोकक प्रति जे विभेद, अन्याय आ नृशंसता बरतल जाइत अछि, तकर विवरण सँ तँ ई उपन्यास भरल अछि। खाइ लेल अइंठ-कूठि देल जाइत छैक, मुदा बेसी खेला पर तखनहु दुर्वचन कहल जाइत छैक। मुदा, छोटका लोकक सोचब दोसर तरहक होइत अछि। बालचन जखन दुरागमन करा क' घुरि रहल अछि, कहारक महफा पर कनियां बैसलि छथि। बालचन कें बीड़ी पीबाक लत छै। ओहि कहार मे सँ सेहो किछु गोटे बीड़ी पिबैत छथि, से जखन-जखन बालचन अपने पिबैए, ओकरो पियाबैत अछि। एहि प्रसंग कें अपन दोस कें सुनबैत ओ कहैत अछि-- 'बिलकुल स्वार्थ सेहो कोन काजक भैया? सस्ता-महग आ खुसफैल-तंगी तँ जिनगी भरि चलतै। जीवन छै संग्राम बन्दे,जीवन छै संग्राम। सुनने छी कहियो?' सोशलिस्ट राधा बाबू जखन बालचन कें पढ़ब-लिखब सिखबैत छथि, हुनकर पत्नी कें से सख्त नापसंद। हुनकर साफ कहब छनि-- 'असल त मुसीबत छै जे नोकर-चाकर पढ़ि-लिखि क' अहांक हंडी माज' बैसत? तखन एकरा ओढ़ेला लिखेला सँ फैदा?' एक बेर राधा बाबूक सारि एली तँ हुनकर कहब तँ भिन्ने रहनि-- 'नोकर-चाकर जते नासमझ रहय, ततेक बढ़ियां रहत भौजी! हमर अजिया ससुरक कहब छलनि कि जे छोट जाति बला कें एको आखरक ज्ञान दै छथिन त हुनकर अपने तेज घटै छनि, आ जे शूद्र कें समुच्चा पोथी पढ़बै छथिन हुनकर पितर सब स्वर्ग छोड़ि नरक मेरहक हेतु लचार भ' जाइ छथिन।' छोटका लोक मे शिक्षाक अभाव किएक छैक, बूझल जा सकैत अछि। मुदा, बालचनक विचार बिलकुल स्पष्ट अछि। सभक लेल ओ शिक्षाक पैरोकार तँ अछिये, बाबुओ भैया लोकनि जे स्त्री-शिक्षाक महत्व नहि बूझि रहल छला, तकरा बारे मे ओकर कहब अछि-- 'जहन कन्यो सब लड़के जकाँ पढ़ल-लिखल होअ' लगतै तखने अइ देसक उद्धार हेतै।'

           विना श्रम कयने खायब, आ श्रम क' क' खायब-- यैह तात्विक भिन्नता छलै जे मिथिला कें दू भाग मे बँटैत छल। बलचनमा कर्मठ अछि। ओ अपना बारे मे बतबैत अछि-- 'हमरा द' ई सोरहा छलै जे बलचनमा खूब मन सँ काज करैत अछि। एक जनक सवा जन अछि ओ। कते लोक उपराग दीत, गदहा अछि, अकिलक छूति नइ छै। ओइ जन्म मे तेलीक बड़द छल हैत। अच्छा भाइ, हम बड़द रही, गदहा रही, तोरा जकाँ बैमान तँ नै छी। असल बात ई छै भैया, जाइ तरहे हम अपन काज करै छलहुँ तहिना दोसरक।' अपन आ आन के जे ई फरक छैक, सैह सब अनीतिक जड़ि थिक, निहितार्थ से। स्त्री-श्रमक विषय मे अभिजात वर्गक जे दृष्टिकोण छैक, 'हुनका ओइठाम स्त्रीगण बेकाज बैसल रहैत छै। जतेक पैघ खनदान हेतै तते बेसी बेकाज पेबहक। हमर स्त्रीगण सब मेहनत मजदूरीक दाना खाइत अछि। की हम फूसि कहै छी भैया?'

           यात्रीक उपन्यास सभक विशेषता छैक जे ओकर विषयवस्तु भने जे होइक, ओकरा भीतर सँ यात्रीक स्वप्नक समाज झलकैत छैक। से हिन्दी उपन्यासक संग छैक तँ एनमेन मैथिली उपन्यासक संग सेहो छैक। सब सँ साफ, सब सँ फड़िच्छ जकर समाज लगैत छैक से ई 'बलचनमा' थिक। जाति मे बँटल मिथिलाक कथा भने ई कहैत हो, मुदा यात्रीक स्वप्न छनि जातिमुक्त समाज। एहि लेल तँ सब सँ पहिने छोट-पैघक जे निर्धारक जाति कें सनातन सँ बनाओल गेल छैक तकरा बदलबाक हेतै। यात्रीक एहि उपन्यास मे एकरा हमसब बदलल देखैत छी। बालचन जे कोनो शिकाइत एहि ठाम केलक अछि, मोन रखबाक चाही से ओ विरोधक लहजा मे केलक अछि। अपने स्वयं कतहु ककरो सँ एहि आधार पर विभेद करैत नहि देखैत छिऐक। जाहि कुल सँ ओ अबैत अछि ओहि मे ई विभेद नहि कयल जाइत हो सेहो नहि। ओकरे अपन मामा कें ई विभेद करैत हमसब देखैत छिऐक। तहिना, ओ बहिया बनि क' मालिकक घर मे रहल, नोकर बनि क' फूलबाबूक संग रहल, वोलंटियर बनि क' राधाबाबूक संग रहल, सगरो सँ जे ओ निराश भेल तकर कारण चेतनाक विकसित होइत जायब आ हुनका लोकनिक सीमाक ज्ञान छल, ने कि ओकर अपन मनक मालिन्य। अंत मे ओ किसान सभाक कामरेड भेल तँ एहि दुआरे जे ओकरा स्वप्न आ सेहन्ताक जे समाज छल, तकर स्पर्श ओकरा एतहि भेटलैक। कहब जरूरी नहि जे ई यात्रीक स्वप्नक संसार रहैक आ बलचनमाक माध्यमें यात्री तँ सेहो अपन अनुभवेक आख्यान क' रहल छला। 

               मालिक लोकनिक जे अन्याय आ शोषण रहैक तकर शिकार केवल छोटके लोक नहि, बड़को लोक भ' रहल छला। तकर एक जीवन्त चरित्र फूदन मिसर आ हुनक विधवाक रूप मे एहि उपन्यास मे तेना गाढ़ भ' क' आयल अछि जे स्मृति-पटल पर बनल रहि जाइत अछि। चौंतीसक भूकंपक खरांत मे जे कांग्रेसी नेता सब निर्भय लूट मचौने छला तकरो शिकार केवल छोटके नहि भेल छला, आ ने जमीन्दारक बकाश्त आ बेदखलीक शिकारे केवल छोटका भेल छल। असल कारण छल गरीबी। केहन नृशंसताक बात थिक जे शोषण जहिया कहियो कयल गेलै, गरीबेक कयल गेलै। बड़का जँ हिन्दू होथि तँ राजाबहादुर आ मुसलमान होथि तँ खानबहादुर, विभेदक आधार ने धर्म रहैक ने जाति। एतय हमसब देखैत छी जे किसान सभाक जमीनी कार्रवाई मे जे सब कामरेड अपन जान-प्राण अड़पि देने छै, ओहि मे अछि-- बच्चू, बम्भोल झा, रामखेलावन, अब्दुल आ बालचन। गाम-गाम मे जे ई जमीनी संघर्ष भ' रहल छलै, एकर समाचार ने तँ कांग्रेसक अखबार मे छपै छलै ने सेठ-जमीन्दारक अखबार मे। स्वाभाविक जे एहि सब समाचारक लेल मिथिलामिहिर, आर्यावर्त वा इंडियन नेशन मे कोनो जगह नहि रहैक। पार्टी अपन साप्ताहिक अखबार 'क्रान्त' निकालै छल जे वृहस्पति कें एहि गाम अबैक। ओहि अखबार मे एहि गामक संघर्षक समाचार कतेको बेर छपि चुकल छल। एहि अखबारक समाचार सब कें सुनबाक लेल जे सब लोक बेकल भेल रहथि, क्रान्तिकारिये छला ओहो सब प्रकारान्तर सँ, से सब छला-- तारानन्द बाबू, बम्भोल झा, रामखेलावन, तीरी अमात, कपिलेसर मरर आदि। अपन पाइ खर्च क' क' 'पांती पांती सँ असंतोषक चिनगारी निकालैबला' ई अखबार जे जुवक मंगबैत छल, से छल बच्चू। समाज कोनो स्वप्ने टा मे थोड़े रहैक, ओ तँ आंखिक आगू जीवित सांस ल' रहल छल। किसान सभाक रसीद जे एहि गाम मे अनने छल, से बच्चुए रहय। आ से ककरा सँ? रहमान साहेब सँ। जमीन्दार छला खानबहादुर सदुल्ला खां, तकर विरोध मे क्रान्तिकारी सभक संगोर मे लागल छला डाक्टर रहमान, दुन्नू मुसलमाने।

              एकर अगिला प्रक्रम छैक-- जातिक बदला मे वर्गक आधार पर सम्बन्ध आ सहयोग। फूदन मिसरक ऊपर चर्चा भेल अछि। गरीब ब्राह्मण फूदनक जखन बान्हल बड़द मरि गेलनि, गामक पंडित बड़ मुश्किल सँ हुनका लेल पतिया लिखलनि आ ताहि लेल पचास टाका निर्दयतापूर्वक वसूल केलनि, जखन कि दू टाकाक तहिया एक मन धान वा गहूम होइत रहैक। फूदनक हाथ बिलकुल खाली। अपना जातिक भीतर क्यो मददगार नहि। तखन बलचनमाक बाप लालचन हुनकर मदति कयने रहनि, सौ टाका द' क'। एहि उपकार लेल फूदन सब दिन कृतज्ञ बनल रहला। एतय धरि जे फूदनक देहान्तक बाद मिसराइन सेहो। हुनके खेत पाबि क' बालचन बटाइ के खेती शुरू कयने छल, हुनके मरणोन्मुख बड़द पाबि क' बालचन बड़दबला भेल छल। एक तँ मालिकक घराना, ब्राह्मण होइतो, ओही प्रकारक छल-छद्म, ओही कोटिक शोषण फूदनोक करैत रहला जेना बलचनमाक। दोसर, कठिन समय एला पर बालचन आ मिसराइन एक-दोसरक सुहृद सहयोगी बनल रहल। जखन बालचन सोराज आश्रम मे रहैत अछि, ओतुक्का भनसिया एक ब्राह्मण थिका, मुदा सर्वाधिक विपन्न वैह। स्वराजक बात उठला पर बालचनक मोन मे यैह बात अबैत छैक जे स्वराज एला पर की एहि गरीब ब्राह्मणक दिन घुरतैक, मानू एही विषय कें ओ स्वराज नपबाक कसौटी बना लेने हो। तहिना, अपन बहिनक संग मालिक द्वारा बलात्कारक प्रयास केलाक बाद जखन बालचनक परिवार रेबनी कें ड्योढ़ी पठेबाक लेल नहि तैयार भेल तँ मालिक उनटे बलचनमे पर केस-फौदारी करबा देलखिन। लचार बालचन फूलबाबू लग पहुँचल जिनकर ओ घरेलू नोकर रहि चुकल छल, आ आब जे कांग्रसक एक पैघ नेता छला। मुदा, नहि। वर्गस्वार्थ बीच मे आबि गेल। बलात्कारक प्रयास आ जाली मोकदमा कें फूलबाबू जखन 'बहिया-महतो के आपसी लड़ाइ' करार देलखिन आ किछुओ मदति करबा सँ इनकार क' देलखिन तँ बालचन कें लगैत छैक-- 'सोराजी भ' गेल छला तें की, छला तँ आखिर बाबुए-भैया ने!' आ ओ निर्णय करैत अछि जे 'जेना अंगरेज बहादुर सँ सोराज लेबाक हेतु बाबू-भैया लोकनि एक भ' रहल छथि, हल्ला-गुल्ला आ झगड़ा-झंझट मचा रहल छथि, ओहिना जन-बनिहार, कुली-मजदूर आ बहिया-खबास कें अपना हकक लेल बाबू-भैया सँ लड़' पड़तैक।' तात्पर्य जे वर्गहित सब सँ पैघ सम्बन्ध-सेतु होइत छैक, जकरा कारणें एक्के जाति-धर्मक दू अलग-अलग व्यक्ति अलग-अलग वर्गक भ' सकैत छथि। जाति वा धर्म विभाजन आधार नहि, संपन्नता आ विपन्नता एहि वर्गविभाजनक आधार बनि क' आयल अछि।

        धर्मक विषय मे सेहो यात्री ठाम-ठाम पर प्रसंग उपस्थित करैत रहैत छथि जे धर्म असल मे गरीबक शोषणक सब सँ पैघ आधार थिक, आ धर्म अपन मूल मे सामंतवादक सहयोगी होइत अछि। पंडित आ पुरहित जी तँ उपन्यास मे आयले छथि जिनकर सीधा सिद्धान्त छनि जे 'राड़ं एड़ं पवित्रम्', मुदा सिद्धजी आदि सेहो आयल छथि जे नाना प्रकार सँ शोषण आ व्यभिचार करैत छथि।  हमसब देखैत छी जे संपन्न वर्गक अंतर्गत जतय उपनिवेशवादी प्रसासक, जमीन्दार आ धर्माचार्य अबैत छथि तँ विपन्न वर्ग मे मध्यवर्गीय  आ सीमान्त कृषक, भूमिहीन खेत-मजदूर, बटाइदार, काश्तकार, बढ़इ-मलाह आदि अबैत अछि। एहि लोकक शोषण केवल आर्थिके टा नहि, शारीरिक-धार्मिक-बौद्धिक, सब तरह सँ कयल जाइत अछि। यात्री एहि कूटयांत्रिकी कें एतय नीक जकां देखार कयने छथि।