श्रीलाल शुक्ल
लोक-कथाओं के आधार पर कालिदास का जन्म एक गड़रिए के घर में हुआ था. उनके पिता मूर्ख थे. उपन्यासकार नागार्जुन ने जिस वीरता से अपने पिता के विषय में ऐसा ही तथ्य स्वीकार किया है, वह वीरता कालिदास में न थी. अत: उन्होंने इस विषय में कुछ नहीं बताया. फिर भी सभी जानते है कि कालिदास के पिता मूर्ख थे. वे भेड़ चराते थे. फलत: कालिदास भी मूर्ख हुए और भेड़ चराने लगे. कभी-कभी गायें भी चराते थे. पर वे बाँसुरी नहीं बजाते थे. उनमें ईश्वरदत्त मौलिकता की कमी न थी. उसका उपयोग उन्होंने अपनी उपमाओं में किया है. यह सभी जानते हैं. जब वे मूर्ख थे, तब वे मौलिकता के सहारे एक पेड़ की डाल पर बैठ गए और उसे उल्टी ओर से काटने लगे. इस प्रतिभा के चमत्कार को वररुचि पंडित ने देखा. वे प्रभावित हुए. उनके राजा विक्रम की लड़की विद्या परम विदुषी थी. विद्या का संपर्क इस मौलिक प्रतिभा से करा के वररुचि ने लोकोपकार करना चाहा. कालिदास की मूर्खता का थोड़ा प्रयोग उन्होंने राजा विक्रम और विद्या पर बारी-बारी से किया. परिणाम यह हुआ कि कालिदास का विद्या से विवाह हो गया. विद्वता से मौलिकता मिल गई.
कुछ इतिहासकार कहते हैं कि वररुचि ने विद्या पर क्रोध कर के उसका विवाह एक मूर्ख से कराया, यह गलत है. यदि वररुचि विद्या से नाराज होते और उन्होंने उसका अहित करना चाहा होता तो वे उसका विवाह किसी भी मूर्ख राजा से करा देते. किसी भी युग में ऐसे राजाओं की कमी नहीं रही है. सच यह है कि वररुचि ने जो किया, लोक-कल्याण के लिए किया.
कालिदास की मूर्खता प्रकट होने पर विद्या ने उनका तिरस्कार किया. वे देवी के एक मंदिर में जा गिरे. उनकी जबान कट गई और देवी पर जा चढ़ी. देवी ने भ्रमवश उन्हें परम भक्त जाना. उनसे वर मांगने को कहा. मूर्ख होने के नाते कालिदास ने अपनी पत्नी के विरुद्ध कुछ कहना चाहा. किंतु जैसे ही उन्होंने कहा, ‘विद्या’ भ्रमवश देवी ने समझ लिया, विद्या मांग रहा है. फिर क्या था, ‘तथास्तु’. बस कालिदास विद्वान हो गए.
आगे का इतिहास मतभेदपूर्ण है. पहले कालिदास किस शताब्दी में पैदा हुए, इसी को लीजिए. सभी जानते हैं वे विक्रमादित्य के समय में उत्पन्न हुए थे. विक्रमादित्य चौथी-पांचवी शताब्दी के राजा थे. चूंकि कालिदास का विवाह विक्रम की ही कन्या से हुआ था, अत: वे चौथी शताब्दी के पहले पैदा नहीं हो सकते थे. यह भी सब जानते हैं कि महाराज भोज से भी इनकी मेल मुलाकात थी. ‘भोजप्रबंध’ नामक ग्रंथ में इसके अनेक प्रकरण मिलते हैं. भोज दसवीं शताब्दी के राजा हैं. इसी से सिद्ध होता है कि कालिदास का जन्म चौथी शताब्दी में और अंत दसवीं शताब्दी में हुआ. वे लगभग छ: सौ वर्ष जीवित रहे. मेरा अनुमान है जिस तरकीब से उन्हें विद्या मिली थी उसी से उन्हें दीर्घायु भी मिली.
वे तीन शताब्दियों तक ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’ और ‘रघुवंश’ जैसे काव्यग्रंथ लिखते रहे. (ऋतुसंहार अप्रामाणिक है.) बाद में उन्होंने नाटक लिखे क्योंकि जो कविता लिखता है वह सदैव कविता नहीं लिख सकता. कभी-न-कभी अकस्मात आलोचना पर आने के पहले वह नाटक पर अवश्य ही उतरता है. उदयशंकर भट्ट, रामकुमार वर्मा आदि इसके उदाहारण हैं. तीन शताब्दियों में कालिदास के तीन नाटक, ‘अभिज्ञान-शाकुंतलम’, ‘विक्रमोवर्शीय’ और ‘मालविकाग्मित्न’ प्रकट हुए.
अभी कुछ दिन हुए हिंदी पन्नों में ‘साधना’ शब्द को ले कर काफी विवाद चला था. नए लेखक साधना-विरोधी हैं. पर कालिदास से उन्हें शिक्षा लेनी चाहिए. जन्म से मूर्खता मिलने पर भी भाग्य से उन्हें राज-सम्मान मिला, फिर भी उन्होंने पुस्तकें लिखने में जल्दी न की. छ: सौ वर्षों में उन्होंने छ: ग्रंथ ही प्रकाशित कराए. इसी कारण कालिदास का नाम अब तक चला आ रहा है.
खैर, यह तो विषयांतर हुआ. विवाह के बाद कालिदास कविता लिखने लगे. यहां उन कवियों को कालिदास से शिक्षा लेनी चाहिए जो बिना विवाह किए ही कविता लिखने लगते हैं. इसी का फल है कि वे ‘तेरे फीरोजी ओठों पर’ जैसी पंक्तियों लिख कर ओठों के स्वाभाविक रंग से अपनी अज्ञता का प्रचार करते हैं. ‘उभरे थे अंबियों से उरोज’ जैसी बात लिख कर और कुरुचि तक दिखा कर, यह नहीं जान पाते कि अंबियां गिरती हैं, उभरती नहीं. जो विवाह कर के लिखेगा वह एक तो ऐसी गलतियां नहीं करेगा और करेगा भी तो उसको सही प्रमाणित करने का साहस रक्खेगा. इसलिए कालिदास ने यह काम शादी के बाद आरंभ किया. यह बात दूसरी है कि उनको अपने ससुर, विक्रमादित्य से इस विषय में प्रोत्साहन मिला. आज के कवि इतने भाग्यशाली कहां? कभी-कभी किसी सभा की सदस्यता पा लेने में, बची-खुची उपाधि हथिया लेने में और साक्षात अपने ससुर से श्लोक-श्लोक पर लाख-लाख मुद्राएं फटकारने में बड़ा अंतर है. आजकल एक तो समझदार लोग अपनी कन्या का विवाह कवि से न करके ओवरसियर से करना चाहते हैं और कवि से विवाह कर भी दिया तो उमरभर उसके भाग्य पर अकारण रोते हैं. पर कालिदास को ये असुविधाएं न थीं. इसलिए उनका व्यवसाय अच्छा चला. ‘भोजप्रबंध’ आदि से विदित होता है कि कुछ दिन बाद वे पक्के व्यवसायी और चतुर व्यक्ति बन गए. जैसे आजकल बहुत से साहित्यकार अपनी रचना को पुरस्कृत कराने के लिए पहले एक पुरस्कार का विधान करा के बाद में अपनी रचना को ही सर्वश्रेष्ठ मनवा लेते हैं, वैसे ही कालिदास स्वयं राजा को समस्या सुझा कर, दूसरे कवियों की रचनाओं में राजा की इच्छा का संशोधन दे कर यह प्रकट करा देते कि श्लोक उन्हीं का है और इस प्रकार सहज प्रशंसा के भागी हो जाते थे.
आज की भांति पुराने युग में भी लोग ज्ञानवर्धन के लिए यात्रा का महत्व समझते थे. इसीलिए कालिदास ने भी उत्तर-भारत से दक्षिण तक की यात्रा की. आज भी उत्तर-भारत के बहुत से कवि दक्षिण तक जाते हैं. पर उनकी गति कालिदास जैसी नहीं है. सर्वश्री भगवतीचरण वर्मा, नरेंद्र शर्मा, गोपाल सिंह नेपाली, प्रदीप आदि तो बंबई तक ही पहुंचे. श्रीमती विद्यावती, ‘कोकिल’ और सुमित्रानंदन पंत पांडिचेरी तक जा चुके हैं. फलत: इनके साहित्य में उन स्थानों की हवा का असर है. सबकुछ होने पर भी महर्षि रमण के आश्रम से भी दक्खिन जाने वाले हिंदी कवि बहुत कम हैं. इस हिसाब से कालिदास की सिंहलयात्रा का ऐतिहासिक महत्व बढ़ जाता है. वे सिंहल अर्थात सीलोन तक गए थे. इस बीच में शायद कोई भी महत्वपूर्ण हिंदी कवि सीलोन नहीं गया. आगे भी हमारे यशस्वी कवि सीलोन जाएोंगे, यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि रेडियो सीलोन की नीति अभी भली-भांति निश्चित नहीं हो सकी है. फिर भी यदि वे किसी सांस्कृतिक आदान-प्रदान में सीलोन पहुंच भी जाएं तब भी कालिदास की यात्रा का महत्व इससे कम नहीं होता, क्योंकि उस युग में उज्जयिनी के राजभवन से सीलोन तक जाना आज के युग में दिल्ली के संसद भवन से पोलैंड तक जाने की अपेक्षा कहीं अधिक कठिन था.
कालिदास को वेश्याओं से प्रेम था. विद्वान जानते ही हैं कि कालिदास ने जिस ‘रमणी, सचिव: सखी मिथ: प्रियशिष्या ललिते कलाविधौ’ की उदात्त कल्पना की है, वह वेश्याओं में बहुत अधिक मिल सकती है. वे रमणी होती ही हैं. आपके चाहने पर वे सचिव भी हो जाती हैं, और सखी भी. ‘अज-विलाप’ की नायिका और अपनी वेश्याओं में अंतर केवल ‘प्रिय-शिष्या’ वाली बातों को ले कर है. वैसे सनातन काल से अपने देश का बड़े-से-बड़ा मूर्ख भी अपनी स्त्री को अपने से अक्ल में छोटा मान कर उसे शिष्या से ऊंचा नहीं उठने देता, वेश्या के साथ ऐसी बात नहीं. आप समझदार हों तो स्वयं उसके शिष्य बन सकते हैं. कई कवियों ने तो इसी शिष्यता के सहारे कवित्त-सवैये की लकीर छोड़ कर गजल की झटकेदार कमंद हथिया ली है. तात्पर्य यह है कि वेश्या का कवि-जीवन में जो महत्व है उसे हमारे जानने के पहले ही कालिदास जान चुके थे.
उनके मन में वेश्या-प्रेम कैसे जागा, इसको ले कर इतिहासकारों ने कई धारणाएं व्यक्त की हैं. कुछ का कहना है कि वे पत्नीशाप से वेश्या-गामी बने. कुछ कहते हैं कि ‘कुमारसंभव’ के नवम सर्ग में शिव-पार्वती का संयोग वर्णन इतना यथार्थवादी हो गया कि साक्षात पार्वती को शाप देना पड़ा कि ‘ओ कवि, तू स्त्री-व्यसन में मरेगा.’ उसी के वशीभूत हो कर कालिदास वेश्यागामी हो गए. वैसे यह कथा विश्वास-योग्य नहीं है. देवी-देवता यदि अपने नाम पर संयोग-वियोग की लीलाएं सुन कर कवियों को शाप देने लगते तो आज तक कवि-वंश का नाश हो गया होता; नहीं तो बहुत से कवि संस्कारवश मंदिरों के दरवाजों पर बैठ कर बताशे बेचते होते. या कविता करते भी होते तो ‘दफ्तर की इमारत’, ‘चाय से लाभ’, ‘खेती के लिए उपजाऊ खादें’ जैसे दोषहीन विषयों पर कविताएं लिखते. यदि शृंगार-सुख के वर्णन से बुरा मान कर पार्वती कालिदास को शाप दे सकती हैं तो कल कोई रिसर्च का विद्यार्थी यही कहने लगेगा कि तुलसीदास का रत्नावली से वियोग इसीलिए हुआ कि उन्होंने भगवान राम को सीता के वियोग में दु;खी दिखाया था और उनके मन में जड़-चेतन का विवेक मिटा दिया था.
मेरे विचार से कालिदास को वेश्या प्रेमी इसलिए होना पड़ा कि उनके सिर पर उनकी पत्नी का शाप या प्रताप बोल रहा था. देखने की बात है कि कालिदास की पत्नी उनके प्रति शुरू से ही कठोर रही. पुरुष की विद्या और आचरण ही उसके शास्त्रोक्त गुण हैं. पहले कालिदास के पास विद्या न थी, पर आचरण था. तब वह कालिदास का अपमान विद्याहीनता के कारण करती रही. जब वे विद्वान हो गए और उसे कालिदास को गिराने की कोई तरकीब न सूझी तो उसने शाप दे कर उनके आचरण को नष्ट दिया. और जब किसी सहृदय की पत्नी ही उसे, शाप दे कि ‘दुराचारी हो जाओ’ तो फिर ऐसा कौन पति है जो इस शाप को स्वीकार न करेगा.
ये सब शोध की बातें हैं. सीधा-सादा इतिहास यह है कि कालिदास सीलोन गए. वहां वेश्या के घर रुके. वहां उन्होंने पुरस्कार पाने के लालच में एक समस्यापूर्ति की. तब उस वेश्या ने उन्हें मार डाला और उनकी समस्यापूर्ति के श्लोक को ले कर राजा से काफी धन प्राप्त किया. बाद में उसने राजा से कालिदास को मार डालने की बात भी मान ली. इस पर राजा ने वेश्या को माफ कर दिया. स्वयं वे कालिदास के साथ चिता पर जल मरे.
इस घटना से सिंहल देश की तत्कालीन न्याय-पद्धति पर भी प्रकाश पड़ता है. वहां यदि अपराधी अपराध स्वीकार कर लेता तो वह छोड़ दिया जाता था. जिसके सामने अपराध स्वीकार किया जाता वह दंड का भागी होता था. शायद इसीलिए अपराधी तब सही-सही बात बता भी देते थे. इस पद्धति का प्रभाव भर्तृहरि-काल में अपने देश में भी था. इसीलिए उन्होंने अपनी रानी को दूसरे पुरुष में आसक्त पा कर उसे कोई दंड नहीं दिया. खुद अपने को देश-निकाला दे दिया.
ये सब विषयांतर की बातें हैं, जो केवल वैधानिक इतिहास में आनी चाहिए. हमारे जानने योग्य तो यही बात है कि कालिदास वेश्या के घर में मारे गए. यदि उनके घर की तलाशी ली गई होती तो शायद बहुत-सा कालिदास-रचित भारतीय साहित्य, जो अब सिंहल देश की राष्ट्रीय-निधि है, हमारे साथ लग जाता. पर उस समय अपने देश का कोई हाई कमिश्नर वहां नहीं रहता था. इसी से यह नहीं हो पाया. वास्तव में, जिस प्रकार हमारे बहुत से वेद जर्मनी में पड़े हैं, इतिहास-ग्रंथ इंग्लैंड में है, वैसे ही बहुत-सा काव्य-साहित्य सिंहल देश में है.
कालिदास का इतिहास मैंने जिस सफाई से बखाना है उससे आप यह न समझें कि उसमें मतभेद नहीं है. इतिहास का संबंध सच्ची घटनाओं से है. इसलिए एक-एक घटना पर सौ-सौ मतभेद होते ही हैं. कालिदास के विषयों में भी मतभेद है. पर मैंने लोकप्रचलित कथाओं के आधार पर इसे रचा है. इसे लगभग नब्बे प्रतिशत जनता मानती है. इसलिए विद्वानों को इसे सच्चा इतिहास मानना ही पड़ेगा. यही प्रजातंत्र का मूल सिद्धांत है. इसे सच्चा इतिहास मान कर कालिदास के जीवन से कई शिक्षाएं लेनी चाहिए. कुछ निम्नलिखित हैं:-
1- यदि कोई जन्म से मूर्ख है तो उसे घबराने की जरूरत नहीं; अच्छा विवाह संबंध हो जाने पर, राज-सम्मान मिल जाने पर या देव के प्रसाद से मूर्ख होने पर भी आदमी अच्छा कवि माना जा सकता है, और यशस्वी हो सकता है. ऐसे यशस्वियों की कभी कमी नहीं रही.
2- समस्या-पूर्ति कर के काफी पैसा पैदा किया जा सकता है, पर पुरस्कार के लिए ही कविता लिखना या समस्या-पूर्ति करना कभी-कभी कुठावँ में मरवाता है.
3- वेश्याओं के यहां कभी न जाएं. जाना ही हो तो उनके यहां जा कर कविता न लिखें. लिखें भी तो उसे कभी सुनाएं ही नहीं. सुना भी दें तो उस पर मिलने वाले पुरस्कार की चर्चा न करें.
4- बिना विवाह किए कविता न लिखें; लिखें भी तो उपयोगितावादी काव्य की साधना करें, ‘नव विहान आया’, ‘कट गई रात जड़ता की, घर-घर हुआ साक्षरता प्रचार’ जैसे विषयों पर.
हो सकता है कि कुछ विद्वान कालिदास के इतिहास से सहमत न हों. शायद वे यह सिद्ध करना चाहें कि कालिदास एक उत्तम, धनी कुल में उत्पन्न हुए थे, उनके पिता भी कवि थे, उनकी प्रतिभा से प्रभावित हो कर राजा विक्रमादित्य ने उन्हें अपना जामाता बना लिया था, वे सदाचारी थे, अपनी सदाशया पत्नी को छोड़ कर किसी और स्त्री के, नूपुर के अलावा, कोई और आभूषण तक न पहचानते थे, उनका स्वास्थ्य बड़ा अच्छा था, नब्बे वर्ष की अवस्था में उन्होंने ‘हरि: ओम् तत्सत्’ कह कर शरीर छोड़ा, आदि-आदि. जो यह सिद्ध कर ले जाएंगे कि कालिदास के विषय में मेरी धारणाएं असत्य हैं. पर इससे मुझे कोई दु:ख नहीं होगा, क्योंकि उस दशा में भी कालिदास एक आदर्श कवि बने रहेंगे. साथ ही मेरा बड़ा भारी लाभ होगा. अपनी स्थापनाओं के खंडित हो जाने और उनके मिथ्या प्रमाणित होने पर भी मैं अमर हो जाऊंगा, क्योंकि बहुत-से इतिहासकार आज भी इन्हीं कारणों से अमर माने जाते हैं.
श्रीलाल शुक्ल
( 'राग दरबारी' और 'विश्रामपुर का संत' जैसी कालजयी रचनाएं लिखने वाले श्रीलाल शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ के अतरौली गांव में हुआ था. श्रीलाल शुक्ल को हिंदी साहित्य में विशेष योगदान के लिए ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘व्यास सम्मान’, ‘पद्मभूषण सम्मान’, ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’, ‘साहित्य भूषण सम्मान’, मध्य प्रदेश शासन का ‘शरद जोशी सम्मान’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’ आदि अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया.)
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