Thursday, December 22, 2022

मैथिली उपन्यास मे पर्यावरण-चेतना


 

तारानंद वियोगी


साहित्य मे उपन्यास विधा आधुनिक कालक देन थिक। समस्त भारतीय भाषा-साहित्य मे जेना-जेना आधुनिकताक विकास होइत गेलैए तेना-तेना उपन्यास विधा झमटगर होइत गेल अछि। राष्ट्रीय चेतना आ अस्मिता-बोध, ई दुनू वस्तु ओना तं एक दोसरक प्रतिस्पर्धी, किछु हद धरि तं विरोधी, मानल जाइत अछि मुदा उपन्यासक विकास के इतिहास देखू तं ई दुनू वस्तु अपना-अपना तरहें उपन्यास कें विकसित हेबा मे मददगार भेल अछि।

             सब गोटे जनैत छी जे मैथिली मे उपन्यासक उदय आधुनिकताक प्रवाह सं नहि, पौराणिकताक ताना-बाना सं भेल अछि। उदयक थोड़बे दशक बाद उपन्यास अपन विधा-प्रकृतिक अनुरूप आधुनिकताक रंग मे आबि गेल, से भिन्न बात, मुदा एकर आदिम जड़ि पौराणिक कथारस मे छैक ताहि मे संशय नहि। आरंभ तं ठेठ अनुवाद सं भेल रहै। अनुवाद संस्कृत गद्यक, आ प्रवृत्ति सेहो संस्कृत कथाकाव्येक। आदि प्रयोक्ता लोकनि पंडित तं संस्कृतशास्त्रक छला मुदा अस्मिता-बोध सं भरल, जिनकर साहित्यक उद्यम अपन समाज मे व्याप्त कुरीति सभक परिहार लेल छलनि।

             उपन्यासक संगहि संग आधुनिकता सेहो पश्चिमक, मने यूरोपक देन मानल जाइत अछि। मुदा कते आश्चर्यक बात थिक जे आइ जाहि अर्थ मे 'आधुनिक' शब्दक प्रयोग कयल जाइत अछि, ठीक-ठीक एही अर्थ मे एहि शब्दक प्रथम आविष्करण मिथिलाक एक दार्शनिक, उदयनाचार्य कयने छला आ एहि तरहें आधुनिक शब्द भारतीय भाषा मे मिथिलाक देन थिक। तं, अहुना होइत छैक। जकरा परंपरित कहि क' एक खास कोटिक्रम मे राखि देल जाइत छैक, समय बितला पर पता लगैत अछि जे ओकरो भीतर आधुनिकताक कोनो फूल फुलाएल रहैत छैक।

             एक विधाक रूप मे उपन्यास भने पाश्चात्य होइक मुदा मैथिली उपन्यास मे चित्रित व्यक्ति तं अनिवार्यतया एक मैथिल भारतीय मनक धारक होइत छथि। एही ठाम प्रकृत विषय हमरा लोकनिक अवधेय बनैत अछि। दुनू संस्कृतिक बीच के एक भिन्नता दिस हम अहांक ध्यान आकृष्ट करय चाहब। यूरोपीय सभ्यताक जे विश्व-दृष्टि छैक ओहि मे मनुष्य कें सृष्टिक स्वामी मानल गेल छैक। बाइबिलक ई वचन प्रसिद्ध अछि जे 'God has created man in its mini image to rule over earth.' परमात्मा मनुष्यक निर्माण ईश्वर एहि लेल केलनि जे ई हुनका एवज मे पृथ्वी पर शासन क' सकय। भारतीय विश्व-दृष्टि एकर ठीक विपरीत अछि। एहि ठाम मनुष्य कें सृष्टिक स्वामी नहि मानल जाइछ। मनुष्य सेहो चराचर मे समस्त जीवित प्राणी सभक बीच एक प्राणी मात्र थिक। ई मनुष्य जं मिथिलाक हो तखन तं आरो, कारण प्रकृति संग साहचर्य रखैत, उतार-चढ़ावक यात्रा करैत मैथिल मानसक धर्रोहि अपन प्रकृति-अनुगामी संस्कारक लेल विख्यात अछि। 

             साहित्य मे इको क्रिटिसिज्म एकटा नव परिघटना थिक। सामान्यत: जकरा हम सब प्रकृति-चित्रण वा प्रकृति-वर्णन कहैत छिऐक ताहि सं ई कोन अर्थ मे भिन्न अछि? एकरा पर्यावरण-चेतनाक नाम सं अभिहित कयल जा सकैए। जेना कि भारतीय विश्वदृष्टिक हम चर्चा केलहुं, पृथ्वी पर बसनिहार समस्त प्राणीक बीच मनुष्य सेहो एक प्राणी थिक। भारतीय मान्यतानुसार एहि प्राणी सभक प्रकार चौरासी लाख अछि जेकरा सामान्यत: चौरासी लाख योनि कहल गेल अछि। मनुष्यक जीवन कें दुर्लभ एहि दुआरे कहल गेल अछि जे एहि समस्त योनि सभक यात्रा करैत अन्तत: क्यो मनुष्य-जन्म प्राप्त करैत अछि। मनुष्य-जीवन दुर्लभ एहि लेल अछि जे ओकरा लग चिन्तन, स्मृति आ भाषा छैक। मुदा, प्रश्न अछि जे एहि सब कथूक अछैत ओकरा मे अपन अस्तित्वक पृष्ठभूमिक चेतना अछि कि नहि? चेतना एहि बातक जे संपूर्ण पर्यावरण-मंडलक ओ मात्र एक सदस्य थिक, सभक बीच रहैत, सभक सहयोग सं जीवनक ओही तरहें आनंद लैत जेना कि पर्यावरण-मंडलक आन सदस्य लैत अछि? 

             एहि बात कें अहुना कहल जा सकैए जे प्रकृतिक एते विशाल साम्राज्य मे मनुष्य नामक योनि जं नहि होइतय तं की बिगड़ि जैतियैक? किछुओ नहि। पृथ्वी तखनहु सदाबहार बनल रहितय। बरु कहबाक तं ई चाही, आ से कहब एखन धरिक मनुष्यक कयल खुराफातक आधार पर कहबाक उचितो छैक जे मनुष्यक होयब  पृथ्वीक संग संकट बनि क' आयल अछि। जेना कि मिर्जा गालिब के एकटा शेर मे कहल गेलैए, डुबोया मुझको होने ने/ मैं न होता तो क्या होता? मिर्जा कें तं डुबेलकनि हुनकर होयब, मुदा मनुष्यक होयब तं समुच्चा पृथ्वी कें, संपूर्ण पर्यावरण-मंडल कें डुबेलकैक। एहना मे ई सवाल उचित बनै छै जे हम नहि होइतहुं तं की होइतै? कोन्नहु उनटान नहि होइत। एकरा विपरीत, एखन जे नदी बहैए ताहि सं बेसी प्रफुल्लित भ' क' बहितय, एखन जे बसात चलैए से एहि सं बेसी प्राणद भ' क' चलितय? अन्तत:, पर्यावरण-चेतनाक परम साध्य छैक जे मनुष्य भने रहओ वा नष्ट भ' जाउक, मुदा पृथ्वी कें बचल रहबाक चाही, पर्यावरण-मंडल कें बचल रहबाक चाही।

             हमरा विद्वान लोकनि क्षमा करी। एहि एकैसम सदीक खतरनाक समय मे आब, एक साहित्यिक मनुष्यक रूप मे पर्यावरणक बारे मे सोचै छी तं अहिना सोचै छी। हारल-मारल, अब्बल-दुब्बल के अंतिम शरणस्थल साहित्य होइत छैक। हमसब आइ जाहि युग मे जिबैत छी, एक साहित्यिकक रूप मे विचार करैत हमरा लोकनि कें एही भावना दिस यात्रा करबाक चाही।

             एक आम मैथिलक जीवन पर्यावरणक नितान्त संग-साथ प्रवाहित होइत रहल अछि। एहि नदीमातृक देस मे जंगल-झाड़, चर-चांचर, जीव-जन्तु, चिड़ै-चुनमुनी, सभक सब एक आत्मीय लयपूर्ण ढंग सं मनुष्यक जीवन मे शामिल रहल अछि। हमरा लोकनि जाहि देवी-देवताक सेवा-पूजा करैत रहल छी, से सब कोनो दोसर लोकक निवासी नहि, एही मिथिलाक भूभाग मे तरह-तरहक भेस धयने निवास करैत छथि। कतहु गाछ पर विध-विधाता बैसि क' प्रजाजनक सुख-दुखक समावेशी बनैत छथि तं कतहु गौरी-महादेव कें आकाश-मार्ग सं घूमि-फीरि आम लोकक सहायक बनल देखाओल गेल अछि। मिथिलाक लोकसाहित्य मे एहि सभक वर्णन भरल पड़ल अछि।

             उपन्यास कें आधुनिक जीवनक महाकाव्य कहल गेलैए। मिथिला मे जे आधुनिकताक विकास भेल अछि से परंपरा सं कटि क', ओकर तिरस्कार क' क' नहि, ओकर विकासे क' क' आधुनिकता पल्लवित-पुष्पित भेल अछि। एहना मे आधुनिक जीवनक बहुत अंश एहन छैक जतय परंपरा कें हमसब नब-नब प्रतिच्छवि ग्रहण करैत देखैत छिऐक। स्वाभाविक थिक जे पर्यावरणक संग सहकार जे मिथिलाक एक आदिम वैशिष्ट्य रहलैक अछि, तकर अनेक रूप आधुनिक साहित्य मे अभिव्यक्त होयत।

             सान्दर्भिक प्रसंग सभक विशेष उल्लेख तं आमंत्रित विद्वान लोकनि अपन-अपन आलेख मे करता, हम एतय किछु उपन्यासक किछु-किछु प्रसंग उठा क' एहि विविधतापूर्ण विन्यास दिस अहांक ध्यान आकृष्ट करय चाहै छी जे मैथिली उपन्यासकार लोकनि कते तरहें पर्यावरण कें अपन चिन्तनाक आधार बनौने छथि।

             मैथिलीक लोकगाथा पर आधारित मणिपद्मक एक वर्णनांश हम उद्धृत करय चाहब। मिथिलाक प्रधान लोकदेवी कमला नदी-रूप मे हिमालय सं उतरि क' मिथिलाक समतल भूमि पर अबैत छथि तं हुनकर नजरि एक सुंदर कमलदह पर पड़ैत छनि। स्नान करबाक लेल ओ सरोवर मे प्रवेश करय लगैत छथि तं ओही ठाम मौजूद हुनकर एक सेवक, जे एक मालिन-बेटी छी, हुनका बरजै छनि-- हे कमला दाइ, एहि दह मे सहस-सहस कमल फुलायल छैक। जुनि पैसियौक। औना जेतैक। कमलाक उतारा-- गय मालिन बेटी, कमल-फूल तं हमर ग्रिमहारक शोभा छी। मुदा सेवकक फेर आपत्ति-- हे पदुमसुन्नरि, एहि दह मे नागिन सब खेलाइत छैक से अहांक पैसला सं छिड़िया जेतैक। कमलाक उतारा-- गय मालिन बेटी, नागिन सब तं हमर मणिमय केशक बन्हना छी। मुदा, फेर आपत्ति-- हे कमलेश्वरी, एहि दह मे हांस-चकेबा केलि करैत छैक से उजबुजा क' उड़ि जेतैक। कमलाक उतारा-- गय मालिन बेटी, हांस-चकेबा तं हमरा जूड़ाक शोभा छी। मुदा सेवकक आपत्ति तखनहु खतम नहि होइत छैक-- हे कमलमुखी, एहि सरोवर कें अकुलयला सं लालसरक जोड़ी बिछुड़ि जेतैक। कमलाक ताहू पर उतारा-- गय मालिन बेटी, लालसरक जोड़ी तं हमरा दहिना बामा कानक कर्णफूल छी। सब जिवाजन्तुक अयलाक बाद अंत मे अबै छै मनुष्य। सेवकक आपत्ति छैक-- हे नृत्यमयी, दह‌ मे नहाइत धीया सब अहांक हिलकोरक आगम सं डेरा क' ऊपर भ' जेतैक। ताहि पर जे कमलाक उतारा छनि, से देखल जाय-- नहि गय मालिन बेटी, हम ओकरा सब कें भरल खरिहान देबैक, फोका मखान देबैक, खोंइछा मे धान देबैक, मुंह मे पान देबैक, सिन्नूरक मान देबैक आ कोरा मे चान देबैक। मिथिलाक पर्यावरणक समावेशी साहचर्यक एक प्रतीति हमरा लोकनि मणिपद्मक एहि वर्णन मे देखि सकै छी।

             अधिकतर हमरा लोकनि देखैत छी जे मैथिली उपन्यास मे पर्यावरण वातावरण-निर्माणक क्रम मे आयल अछि जे कि उपन्यासक एक आवश्यक तत्व मानल जाइत छैक। जेना 'माधवी-माधव'क ई सन्ध्या-प्रसंग-- 'भगवान भुवनभास्कर अपन प्रखर प्ररश्मि कें समटैत, लक-झुक करैत, झखैत, झुकैत अस्ताचलक रस्ता पकड़लनि। क्रमश: दिन व्यतीत भ' गेल। सन्ध्याकालक सुंदर समय आबि गेल। शीतल समीर सिहकय लागल। प्राणी मात्रक प्राण पलटल।' जेना 'नवतुरिया' मे साओन मासक मिथिलाक एक चित्र-- 'आधा साओन बितैत-बितैत लोक रोपनी खतम क' लेने रहय। बाध-बोन आंतर-पांतर हरियरिक समुद्र भ' गेल छलै। बसात सिहकै तं अइ समुद्रक हरित नील लोल लहरि सातो समुद्रक तरंगित सुषमा कें मात क' दैन। चंचल घनमंडल कें देखि-देखि खेतिहर लोकनिक मनप्राण हुलासें हिलकोर लैन। जनपद-कल्याणी शस्य-श्यामला प्रकृति सुन्दरी अपना दिस तकनिहारक तीनू ताप कें हटेबाक चेष्टा करथि।' तीनू ताप, मने दैहिक, दैविक, भौतिक। तुलसीदास कें एहि लेल रामराज्यक काल्पनिक महल ठाढ़ करय पड़ल रहनि, मिथिलाक पर्यावरण मे ई वस्तु कण-कण मे छिड़ियायल छै। आ सब सं बढ़ि क' तं ई जे मैथिली उपन्यासकारक दृष्टि मे एहि सब कथू कें देखबाक सामर्थ्य छै।

             उपन्यास मे पर्यावरण-चेतनाक थाह लैत हमरा लोकनि इहो देखैत छी जे मनुष्यक सामाजिक जीवन भने कतबो नरक बनि गेल हो, अनेक विडंबना आ अन्तर्विरोध सं भरल, मुदा पर्यावरण सदैव सकारात्मक आ आशावादी स्वरूप ग्रहण केलक अछि। आयुर्वेदक एक प्रतिज्ञा-वाक्य मोन पड़ैत अछि जे जाहि ठाम रोग अछि, ओहि रोगक दबाइ सेहो ओही ठाम अछि। किछु तेहने सन। कखनो-कखनो तं पर्यावरण चित्रण मानू थर्मामीटरक काज करय लगैत अछि जे अहां एहि सं मनुष्य-जीवनक स्वास्थ्य-परीक्षण क' सकै छी। 

             दोसर एक आर वस्तु उल्लेखनीय अछि जे मिथिलाक समाज, प्रकृति आ पर्यावरणक संग तेहन गहन साहचर्य मे जिबैत अछि जे कतेको उक्ति-भंगिमा सं ल' क' विध-व्यवहार धरि मे व्यक्त होइत अछि आ से सब चित्र अत्यन्त कुशलताक संग उपन्यास मे चित्रित भेल छैक। दृष्टान्त घनेरो अछि जकर उल्लेख विद्वान लोकनि अपन आलेख मे करबे करता। एहि ठाम हमरा एकटा मोहाबरा मोन पड़ैए-- खिसिया क' फड़ब। यात्रीक 'पारो' मे एकर प्रयोग देखल जाउ-- 'ओहि वर्ष, एह, आमो‌ मुदा खिसियाइये क' फड़ल रहै।' खिसिया क' फड़ब मने बहुत फड़ब, एहि तरहक मानवीय व्यवहारक प्रकृति पर आरोपण मिथिलाक जनजीवन मे खूब व्याप्त रहलैए। खुशीक बात जे उपन्यास एहि व्याप्ति कें यथासंभव चित्रित करैत रहल अछि। मानवीय परिस्थितिक चित्रण लेल उपमान आदिक रूप मे पर्यावरणक प्रयोग सब दिन सं कविताक एक विशेषता रहलैए। से मुदा कविते धरि सीमित नहि, उपन्यासो मे एकर खूब प्रयोग होइत रहल अछि-- 'नीक जकां वर्षा भ' जाउक तहन जेना अकास साफ भ' जाइ छै, बसातक सिहकी उठै छै-- तहिना भरि पोख कनलाक बाद पारोक चेहरा-मोहरा खुजि गेलै आ सांस हल्लुक भ' गेलै।'

             ई घटना बहुत बाद मे आबि क' भेलैक जे नदीमातृक देसक पर्यावरण सम्पूर्णत: मैथिली उपन्यासक विषय बनल। साकेतानंदक 'सर्वस्वान्त' 2003 मे छपल आ पंकज पराशरक 'जलप्रान्तर' तं तकरो सवा-डेढ़ दशकक बाद आयल। ई उपन्यास एक दिस जं नदीमातृक देसक सांस्कृतिक सौन्दर्यक उद्घाटन करैत अछि तं दोसर दिस नदीक वात्सल्यरूप आ रौद्ररूप दुनूक विवेचन सर्वांगता मे करबाक चेष्टा रखैत अछि। एहि ठाम रौद्रता आत्यन्तिक नहि छैक अपितु वात्सल्यभावक संग समन्वित अछि। जे पर्यावरण विकराल भेला पर मनुष्यक प्राणहर्ता शत्रु भ' जाइत अछि सैह अपन सहजावस्था मे सब सं पैघ हितैषी। साकेतानंदक उपन्यासक नाम छनि-- सर्वस्वान्त। मनुष्य सं ओकर सर्वस्व छीनि क' जे ओकरा बरबाद क' दैक, से नदी अर्थात कोशी। कोशी कें मिथिलेक नहि, बिहारक शोक कहल गेलैए, डाइन नाम धराओल गेल अछि। मुदा ई स्थितिक केवल एक पक्ष थिक। एकपक्षीय भ' क' ने तं पर्यावरणक साम्राज्य चलैत छैक ने मनुष्यक जीवन, जे कि सेहो पर्यावरणेक एक अंश थिक। दुख छै तं सुख सेहो छै। राग छै तं विराग सेहो छै। ने तं देखल जाउ, जाहि उपन्यासक नामे थिक सर्वस्वान्त, ताहि मे उपन्यासकार देसकोसक दृश्यक एहि रूपक वर्णन करैत छथि-- 'पानि बरसि रहल छै। अनवरत। गाम सं बहरायल चारू दिशा मे जाइत सड़कक दु-बगली खेत भरि गेल अछि। खेत मे पानि अछि आ पानिक ऊपर हिलकोर मे डोलैत धान। पानि तर, धान ऊपर। धान-धान-धान। नवहट्टा सं गोरौल धरि धान, नवहट्टा सं सुखपुर धरि धान, नवहट्टा सं हेमपुर भेने, कि नवहट्टा सं बलवा भेने जे सड़क बान्ह धरि जाइत अछि, ओकर दु-बगली धान एखने देखै जोगरक भ' गेल अछि। खास क' बलवा गाम भेने बान्ह तक जाइवला सड़क, जकर बाद बोड़ा चरक धान अछि, ओकरा देखिते कोनो भरल-पुरल बखारी-कोठी-भंडारक स्मरण भ' अबैत अछि। नीचां मे जखन पानि मे हिलकोर मारै छै तं धानक हरियर कंच बीट मे एकटा लहरि उठैत अछि जे तराउपरी बड़ी दूर धरि लहराइते चल जाइत अछि। ई हरियर रंग-समुद्र काल्हि अपन रंग बदलत। काल्हि एकर रंग स्वर्णाभ भ' जेतै। काल्हि धानक गर्वोन्नत बीट, अन्न-भार सं झुकि जायत। झुकि क' एहि इलाकाक सैकड़ो-हजारो वर्ग किलोमीटर मे बसल लाखो लोकक मुंह पर मुस्की बनि क' पसरि जायत।'

             सही बात छै जे यैह मुस्की कोनो दिन रुदन बनि जाइ छै मुदा सेहो स्थायी नहि थिक। ओहो रुदन फेर बदलि क' ओहिना हास बनि जाइ छै जे धानक हरियर कंच शीश आगू स्वर्णाभ भ' जाइत छै। एकरे नाम जीवन छी जे पर्यावरण संग गूथल अछि, चाहे धरती पर हो तौं, उपन्यास मे हो तौं।

             हं, तखन एकटा बात धरि अन्त मे हम अवश्य आग्रह करय चाहब। ई आग्रह लेखकक दुनू संवर्ग सं अछि। पहिल तं युवा आलोचक लोकनि सं जे अपना साहित्य कें देखबाक लेल ओ लोकनि इको क्रिटिसिज्म कें अपन औजार जकां उपयोग करथु। दोसर भविष्यक उपन्यासकार लोकनि सं जे स्वार्थी आ भोगलिप्सा सं रुग्ण मनुष्य आइ पर्यावरणक जे हालति बना देलकैक अछि आ जकर चिन्तना समुच्चा संसारक साहित्य मे पर्यावरण-चेतनाक रूप मे भ' रहल छै, तकरा प्रमुखतापूर्वक अपन औपन्यासिक विषयवस्तुक केन्द्र मे लाबथु। कहबे केलहुं, जे हारल अछि, जे अब्बल-दुब्बल अछि अथवा जबरन बना देल गेल अछि, साहित्यक केन्द्र मे विराजित हेबाक पहिल हक ओकरे छैक।

Tuesday, November 15, 2022

बिहार में बिहार नहीं: संस्कृति का संकट

 


तारानंद वियोगी



             बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध मैथिली कविता है-- मीनी मिथिला। उसमें क्या है कि एक झा जी बरसों पहले दिल्ली जा बसे। गांव से जुड़े थे, यानी कि गांव की तमाम जड़-जंगम चीजों से। लेकिन अब गांव छूट रहा था तो उन्होंने क्या किया कि गांव को ही दिल्ली में ला बसाया। गांव के पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, पेड़-पौधे, भोजन-छाजन, प्रतीक-मिथक-- सारे यहां उठा लाये, और दिल्ली में रहकर भी एक ठीक-ठाक मैथिल जीवन निबाहते रहे। कवि को वह महाशय अपनी उपलब्धियां बड़े गर्व से सुनाते हैं। लेकिन, कविता का अंत दारुण है। वहां बड़ा भारी अफसोस है कि झा जी की अगली पीढ़ी इन सब चीजों से ऊब गयी है और पंजाबी हुई जा रही है। वह कविता हमें बताती है कि गांव को आप बाहर उठाकर नहीं ले जा सकते, क्योंकि जिन चीजों को आप अपनी संस्कृति समझकर ले जा रहे हैं वे केवल भौतिक उपादान हो सकते हैं, संस्कृति नहीं। संस्कृति कोई गाय नहीं है कि गले में रस्सी बांधकर आप जहां चाहें ले जाएं और कटिया भर दूध दूहकर बताएं कि लो, यह हमारी संस्कृति है।

             आज बिहार के गांव उजड़ रहे हैं। फकत रोजगार के लिए अगर स्त्री-पुरुष को अलग-अलग रहना पड़े, तो संस्कृति के हिसाब से इसे अविकास का स्पष्ट लक्षण माना गया है। अतीत की दारुण कथाएं हमें भिखारी ठाकुर की रचनाओं में मिलती हैं। सौ वर्ष गुजर जाने के बावजूद हालात पूरी तरह बदल गये हों, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। जो थोड़ी सुविधा में हैं वे स्त्री के साथ गांव को ही उठाकर शहर चले जा रहे हैं। थोड़ा विकास किया व्यक्ति गांव छोड़ता है, और यदि भरपूर विकास कर ले तो देश ही छोड़ देता है।

             साठ-सत्तर बरस पहले तो किसी बिहारी के बच्चे गांव छूटने के दशकों बाद जाकर पंजाबी हो पाते थे, अब तो आलम यह है कि पंजाब वगैरह ही उतरकर गांव में आ घुसा है। बच्चे को अब कहीं जाने की जरूरत भी न रही। भूमंडलीकरण ने हमारे घर में तो देशी-विदेशी सबको ला घुसाया लेकिन इसी तर्ज पर हमरा भी प्रसार हुआ रहता, यह नहीं हुआ। हम केवल दूसरों के उपभोक्ता और नकलची बनकर रह गये।

             जिसे हम बिहार की संस्कृति कहते हैं वह असल में 'लोक' की संस्कृति है। शास्त्रीय संस्कृति थोपने की कोशिश जब भी कभी अतीत में हुई, बड़े आराम से लोक ने इसे अपने रंग में रंग डाला। शास्त्रकारों की भी मजबूरी बनी रही कि वे 'लोकाचार' को सबसे बड़ा नियामक तत्व मानने को बाध्य होते रहे। लेकिन आज हालत क्या है? हजार वर्षों से बिहार के लोग लाखों देवी-देवताओं की 'सेवा' करते आए हैं। ये लोकदेवता हमारे कुलदेवता होते हैं जिन्हें पिण्ड के रूप में जाने कब से पूजा जाता रहा है। यह पिण्ड दर असल बौद्धों का चैत्य है, जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने कुलदेवता के रूप में सेवित किया। इन देवताओं में से कोई डोम, कोई मुसहर, कोई दुसाध, यहां तक कि बालापीर और मीरा साहब जैसे देवता मुसलमान हैं। हिन्दुओं के कुलदेवता के रूप में मुसलमान पीरों की पूजा? जी हां, यह बिहार की संस्कृति की अपनी खास विशेषता है। एक लोकगीत में एक मुसलमान लड़की, यह पूछने पर कि इतना प्यारा बच्चा तुम्हें किस देवता के आशीर्वाद से मिला, वह बताती है-- 'गेलियै जनकपुर, पुजलियै सिया जानकी, ऊहे देलखिन गोदी के बलकबे जी।' यह पारस्परिकता बिहार की अपनी सांस्कृतिक विरासत है। यहां बहुलता का सम्मान रहा है, एकरंग, एकरस संस्कृति कभी बिहार की संस्कृति नहीं हो सकती।

             खानपान की दुनिया की ओर ही नजर डालें तो बिहार के पास इतनी सारी चीजे हैं, और वे इतने आकर्षक भी कि दुनिया भर में छा जाएं। मैंने कहीं पढ़ा, मशहूर अंग्रेज भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन कभी अधिकारी होकर मधुबनी में पोस्टेड रहे जहां सुबह का नाश्ता दही-चूरा प्रचलित था। यह चीज उन्हें इतनी पसंद आई कि अपने देश लौटकर भी जबतक वह जिये, सुबह के नाश्ते में दही-चूरा ही लेते रहे। लिट्टी-चोखा हो, अनरसा, खाजा या कि तिलकोर, कितनी दूर जा रही हैं ये सब चीजें? अब तो है कि समूचे देश में आप कहीं भी चले जाएं, गिनी-चुनी चीजे हैं जो आपको मिलती हैं और आप मजे से खाते भी हैं। वहां बिहार कहीं नहीं है। बिहार में ही बिहार नहीं, तो और कहां उम्मीद की जा सकती है?

             आज समूची दुनिया में भोजपुरी गीतों को यौनिक उच्छृंखलता के लिए जाना जाता है। यहां तक कि इसी की देखादेखी इसे मैथिली आदि बिहार की अन्य भाषाओं में भी पर्याप्त प्रसार मिल गया है। लेकिन आपको क्या लगता है? यही भोजपुरी की पहचान है? जी नहीं, यह दस-पांच लफंगों का कारनामा है जिन्होंने यह सब किया तो था केवल रुपये कमाने के लिए लेकिन हम तबतक इतने पतित हो चुके थे कि हमने उन्हें रुपये के साथ-साथ सम्मान भी दिया। कोई संस्कृति यक-ब-यक मर थोड़े ही जाती है? वह पहले अपना रूप बदलती है। भाषा तो लोकल बनी रहती है लेकिन कन्टेन्ट किसी और का ले आया जाता है। हम-आप क्या कर सकते हैं? केवल शोक मना सकते हैं? जी नहीं, हालात को बदलने की कोशिश भी कर सकते हैं। बहुत सारे लोग कर भी रहे हैं। ये ही लोग असल में बिहार की समकालीन संस्कृति के नायक हैं।

             

Thursday, November 3, 2022

हजार बरस सं पियासल कान लेल कविता

 


तारानंद वियोगी



चाहे कतबो भारी कट्टर ब्राह्मणवादी मैथिल होथि, हुनका लोकनि कें नीक जकां बुझल रहैत छनि जे मैथिली मे लिखबाक आविष्कार ब्राह्मण नहि कयने रहथि, दलित लोकनि कयने रहथि। ब्राह्मणक लिखापढ़ीक भाषा संस्कृत रहनि। बौद्ध धर्मक प्रताप सं दलित लोकनि जखन लिखापढ़ी बला बात सब करय लगला तं अप्पन भाषा मे केलनि, कारण संस्कृतक प्रतिरोध हुनका खून मे रहनि। ओ ओइ जनता धरि अपन भावना पहुंचेबाक लेल कलम उठेलनि, जकर ज्ञान-विनिमयक साधन लिखित शब्द छलैके नहि। एकर तं सैकड़ो-हजारो बरसक बाद ओइ लक्षित परिवार सब मे एहन पीढ़ीक आगमन भेलै जे खनदान मे पहिल बेर अ आ क ख लिखब सिखलक, पहिल बच्चा भेल पांच हजार बरसक इतिहास मे जे साक्षर भेला उत्तर मैट्रिक पास केलक।

              बारह सौ वर्ष पहिने मैथिली मे कविताक सृजन शुरू भेल। छौ सौ वर्ष धरि तं ई एकछाहा दलित-वंचितक अभिव्यक्तिक भाषा रहल, बाद मे ब्राह्मण लोकनि सेहो मैथिली मे लिखय लगला। तहिया जे ब्राह्मण मैथिली मे लिखलनि तिनकर भारी निन्दा भेल, हुनकर बहिष्कार कयल गेल। एकर सब सं पैघ उदाहरण स्वयं विद्यापति छथि। मुदा, आगू एहन समय आएल जे ब्राह्मण लोकनि मैथिली मे गीत लीखि राजाक दरबार मे मनोरंजन करथि आ एवंप्रकारें हुनका सभक रोजी-रोटीक ई साधन बनल। ठीक तहिना, दलित लोकनि सेहो नाच मे मैथिली गीत गाबि क' अपन रोजी-रोटी पाबथि। एहि दुनू वर्ग सं भिन्न छली स्त्रीगण लोकनि, जिनकर गीतक भाषा मैथिली छल, आ यैह गीत सब मिथिलाक संस्कृति कें रूपाकार प्रदान केलक। एहि स्त्रीगण वर्ग मे वर्ण-विभाजन नहि छल, फलस्वरूप लोकायत परंपरा मिथिलाक सब वर्ण, सब जातिक घर-घर मे प्रवेश पेलक। आइयो शास्त्राचार पर लोकाचार अपन बढ़त बनौने अछि।

              असल खुराफात शुरू भेल बीसम शताब्दीक आरंभ मे आबि क' जखन प्रिन्टिंग प्रेस सं मैथिलीक सम्बन्ध जुड़ल, विभिन्न जातिक जातीय महासभा बनल, इतिहास आ आलोचना साहित्यक उद्भव भेल। ब्राह्मण लोकनिक जातीय महासभा मैथिली कें अपन भाषा घोषित क' देलक। राजा स्वयं उद्घोषक रहथि। मैथिली राताराती राजाक भाषा बनि गेल, शोषकक भाषा बनि गेल। आब ई प्रजाक भाषा नहि रहल, शोषितक भाषा नहि रहल। मानकीकरणक नाम पर दू जिलाक ब्राह्मण लोकनि एकरा अपन बपौती बना लेलनि। आब जं मैथिली लिखबा मे कोनो लाभ छल, सम्मान वा पुरस्कार छल तं ताहि पर ओही गनल-चुनल जिलाक एक जातिक कब्जा बनल रहलैक। आन जातिक लोक शुरू मे विरोध केलक, बाद मे मैथिली नामे सं निस्पृह भ' गेल। अइ कवितासंग्रहक कवि एकठाम कहै छथि-- 'हमर कतेको मित्र छथि हमरा सं नराज/ हुनका सब कें बुझना जाइत छनि जे हम/ मैथिली लिखि क' अप्रत्यक्ष रूप सं/ बढ़ावा द' रहल छियै ब्राह्मणवाद कें।' मतलब, एहन स्थिति बनि गेल अछि जे मैथिली लिखबाक अर्थ ब्राह्मणवादक समर्थक होयब भ' गेल। 

              एहि आधुनिक बौद्धिक लोकनि मे बेईमानीक आलम ई छल जे जाहि मिथिला मे लाख खोजल गेला पर विद्यापति-गीतक मात्र दूटा पांडुलिपि भेटल, ओतहि यदि कबीरक मैथिली पदावलीक खोज कयल गेल रहितय तं कम सं कम दू सौ पांडुलिपि भेटितय। मुदा से ओ लोकनि किए करितथि? कबीर तं पराया रहथि। ब्राह्मणवादक विरोधी रहथि। आ, मैथिली घोषित रूप सं ब्राह्मणक भाषा छल। ओ लोकनि कबीर कें, कबीरक परंपरा कें जकर जड़ि सिद्धसाहित्य धरि जाइ छलै, कोना मानि द' सकै छला?

             आब जखन एहन लोकक हाथ मे कलम अयलैक अछि जे कबीर कें अप्पन मानै छथि, तं की अहां कें लगैत अछि जे रचनाक परिप्रेक्ष्य, रचनाक तथ्य आ भाषा वैह रहि जेतै जे पछिला सौ बरस मे विविध कुचक्र रचि क' कायम क' लेल गेलैक अछि? कबीरक धार्मिक चेतना केवल आध्यात्मिक नहि छल, ओ तं पचासो प्रतिशत सं कम छल, बांकी छल सामाजिक चेतना। कबीर मानैत छला जे जे ब्रह्माण्ड मे अछि ठीक सैह पिंड मे सेहो अछि। तखन कहू जे ई कोना हेतै जे कोनो जाति उच्च कोनो नीच, कोनो पूज्य तं कोनो अछोप भ' जेतै? अहां अपन कपार पीटि सकैत छी जे उपनिषद् सेहो सैह मानैत अछि। मुदा उपनिषद् कें अपन मूल मान'बला ब्राह्मणवाद जातिवाद के जन्मदाता सेहो थिक आ परिपालक, परिपोषक सेहो। 

             स्पष्ट क' दी जे ब्राह्मणवादक जन्मदाता भने ब्राह्मण होथि मुदा एकर गछाड़ मे पचपनियां सेहो छथि, दलित सेहो। ने तं ई कोना होइतय जे दू सौ के करीब संख्या मे दलित-पचपनियां लोकनि मैथिली मे लिखैत ठीक-ठीक वैह बात, ओही भंगिमा मे लिखि रहला अछि जे ब्राह्मणवादक इष्टसिद्धि मे साधक छैक। एहन दलित लोक कें अहां ब्राह्मणसभा मे अध्यक्षता करैत सेहो देखि सकै छियनि, सम्मान पबैत सेहो। परार्थी दलितक मुंहें ब्राह्मणक बात सुनि क' दुखी होइ छथि। एहन गद्दारी क' क' पुरस्कार प्राप्त केनिहार पर ओ लिखै छथि-- 'आइ द्रोणक वंशज द' रहल छैक/ एकलव्यक उत्तराधिकारी कें पुरस्कार/ शर्त बस यैह टा/ जे आब अहां धनुष-वाण चलबै के/ नहि राखैत छी अधिकार/ आ ई स्वार्थी, समाजक गद्दार सब/ एहि शर्त कें क' रहल छै हंसी खुशी स्वीकार/ धिक्कार अछि धिक्कार।'

             एहि संग्रह मे एहनो लोक सब पर कविता छैक, मानसिक गुलामी सं ग्रस्त एहन दलित जकरा अपन मालिकक समझाओल हरेक बात सही लगैत छैक, टीक आ टीका मे ओ अपन प्रतिष्ठा देखैत अछि आ ओकरा हिन्दूराष्ट्र कल्याणकारी बुझना जाइत छैक। एकटा कविता मे परार्थी कहै छथि-- 'द' देने छै मालिक वर्णव्यवस्थाक सेहो किछु ज्ञान/ बना लेने छैक अपन मानसिक गुलाम/ नीक सं समझा देने छैक ब्राह्मणक सेवा सं हेतौक स्वर्ग/ अगिला जनम मे तहूं भ' सकैत छें गिरहत/ ई जन्म छौक तोहर पछिला जन्मक चूक/ दोसरा के कहला सं आगि नहि मूत।' अपना समाजक मुक्ति लेल परेशान कवि ई दृश्य देखि क' झूरझमान रहैत अछि जे-- 'डोम सं चमार छुआइत अछि/ चमार सं मुसहर/ मुसहर सं धोबी दुसाध/ अदौ काल सं उघैत आबि रहल अछि दोसराक देलहा/ पाखंड आडंबर अंधविश्वास/ एहना स्थिति मे कोना हेतै दलितक विकास?' ई एकटा सूत्र थिक जाहि सं हमसब पकड़ि सकै छी जे दलित समुदायक दीनाभद्रीक हत्या मे दलिते समुदायक लोकदेवता सलहेस कोना ब्राह्मणवादक सहायक भेल रहथि!

              मैथिली ककर भाषा छी? के अछि जकर धार्मिक कृत्याचारोक भाषा मैथिलिये छिऐ? निश्चित रूप सं ब्राह्मण लोकनि तं नहिये टा थिका। हुनकर पूजा-पाठ तं वैदिक भाषा मे, संस्कृत मे होइत अछि। मुदा, एहन एक जीवन्त-जागन्त मातृभाषाक रूप मे मैथिलीक सरजमीन पर की स्थिति अछि? 'अपने बनय चाहैत छथि पुरोहित अपने यजमान/  ई सब मैथिली कें बनौने छथि अपन गुलाम/ बान्हि देने छथिन कसि क' मानकीकरण नामक रस्सी सं/ आ भाषा-बोली विवाद मे ओझरा क'/ एकर अस्तित्व तक कें करय चाहि रहल छथि समाप्त।' के थिका ई लोकनि? ब्राह्मण लोकनि थिका। तखन फेर जकर भाषा मैथिली अस्सल मे छिऐ से सब कतय गेला? एक दिल के टुकड़े हजार हुए, क्यो अंगिका बनल क्यो वज्जिका। मुदा, एहनो लोकक संख्या कम नहि रहलैक जे मैथिली कें धयने रहला, अपन मन-प्राण मे धारण कयने। एहना स्थिति मे, अइ प्रकारक कविगणक मैथिली मे कविता लिखब की थिक। परार्थी एहि लोकक अनुभव बयान करै छथि-- 'हमरा तं मैथिली लिखबा काल होइत रहैत अछि/ एगो स्वतंत्रता-सेनानी जकां अनुभूति/ बढ़ैत रहैत अछि--/ मातृभाषाक स्वतंत्रता संघर्ष लेल सहास।'

             कहब आवश्यक नहि जे गनल-गुथल लोक मैथिली साहित्य मे हेबनि मे लिखापढ़ी शुरू केलनि अछि जिनका मे ई सामाजिक चेतना भरल-पुरल अछि आ हिनका लोकनिक लेल साहित्य लिखब मुक्तिक चेष्टा लेल डेग उठायब थिक। नवीनतम नाम रामकृष्ण परार्थीक छनि। अइ कविता-संग्रह कें उनटबैत अहां पहिले कविता मे देखबै जे ओ धर्मक उन्माद सं प्रदूषित देशक उद्धार लेल कबीर कें अपनेबाक अनुरोध करैत छथि। एक एहन युवा कें तैयार करबा मे, जिनका मे सामाजिक चेतना भरल-पुरल होइन, अनेक पीढ़ीक योगदान रहैत छैक। पहिने क्यो मांगनि खवास होइ छथिन तखने जा क' कोनो रघुनाथ मुखियाक जन्म भ' पबैत छथि। परार्थी अपन पिता पर कविता लिखैत ई पांती लिखैत छथि-- 'ईश्वर मात्र एकहि टा छथिन सर्वशक्तिशाली, सर्वव्याप्त/ हुनकर नहि छनि कोनो रूप, आकार/ ओ कण-कण मे करैत छथिन निवास/ वैह चलबै छथि सगर जहान/ भाला-गड़ांसा, तीर-धनुष आ तरुआरि लेने/ हवा फूसि अछि सब कल्पित भगवानक/ समझबैत रहैत छला हमरा/ बौआ हौ, सब जीव मे होइत छैक परमात्माक वास/ जानि-बुझि क' नहि करिहह कहियो कोनो जीव पर आघात/ अहिंसा परमो धर्म छै बौआ/ ई गप सादति रखिहह यादि।'

             अहां कहि सकै छी जे अहिंसा परमो धर्म: सन के कथन तं सेहो संस्कृते मे छै आ संस्कृत ब्राह्मणक धरोहर छी। मुदा, कोना ई बात हाथीक देखावटी दांत मात्र छी, से बुझबाक लेल परार्थीक कविता 'धर्मक नाम पर' पढ़बाक चाही। ब्राह्मणवादी सभ्यता कें ओ माहुरक गाछ कहैत कनियो नहि थकमकाइत छथि। साफ-साफ कहै छथि-- 'विध्वंसक फूल आ फसादक फल बला ई गाछ/ सुड्डाह करय चाहैत अछि वर्तमान सभ्यता/ एकरा कनिको नहि पसिंद छैक मनुक्खता/ एहि गाछक नजदीक अयला मात्र सं/ लोक बनि जाइत अछि बताह/ फेर ओकरा नहि रहैत छैक/ गाम समाज आ देश दुनियांक परवाह।' 

             कहब जरूरी नहि जे अपन जन्मकाल सं ल' क' एकैसम सदीक अइ वर्ष धरि ब्राह्मणधर्म जतबा आविष्कार वा विकास क' सकल अछि तकर सारांश यैह थिक, जकरा परार्थीक कविता माहुरक गाछ मे देखल जा सकैत अछि। एहना ठाम जं अहां 'मुंडा तार' कविता पढ़ू तं एही धर्मकथाक एक रूपक रचल जायब सन लगैत छैक। ई स्वर मानू तं परार्थीक रचनाधर्मक केन्द्रीय स्वर जकां छनि जे मुक्ति लेल अड़ब आ लड़ब अपरिहार्य छैक-- 'मिथिला मे पुनर्जागरण लाबै लेल लड़हि पड़तौ मीत/एतय बहुत लोक एखनो छौक रखने भावना ऊंच-नीच/ समतामूलक समाज लेल लड़हि पड़तौ मीत।' तें जखन परार्थी कविता लिखैत छथि जे हमरा नहि चाही हिन्दूराष्ट्र, तं एकर इतिहास मे जाइत अपन पुरखाक भोगल यातना कें स्मरण करैत बाबासाहबक स्मरण धरि पहुंचि जाइत छथि। मुश्किल ई छैक जे आइ दलित आ पचपनियां कें सेहो हिन्दूए राष्ट्र चाही, कारण माहुरक गाछ तर मे रहैत बुद्धिहरण भ' चुकलनि अछि। परार्थी ओइ यातनाभरल गुलामीक स्मृति मे जाइत छथि आ कहै छथि-- 'हमसब वेद, धर्मग्रन्थ, मनुशास्त्र सं शासित भ'/ फेर सं नहि बनय चाहैत छी गुलाम/ हमरा सब कें नीक लगैत अछि/ स्वतंत्रता, समानता आ न्याय सं भरल/ बाबा भीमक संविधान।' 

             मोन पड़ैत अछि, संविधान लागू भेलाक बाद भ्वाइस आफ अमेरिकाक एक इंटरव्यू मे बाबासाहेब भारतक लोकतांत्रिक-निष्ठा पर संदेह व्यक्त करैत बाजल छला जे राजनीतिक लोकतंत्र तं अइ संविधान द्वारा जरूर लागू भ' गेल अछि मुदा जाधरि सामाजिक लोकतंत्र नहि स्थापित होइत अछि, ई अधूरा रहत, एकर क्षत-विक्षत हेबाक संभावना सदा बनल रहत। सामाजिक लोकतंत्रक लक्ष्य सं हमरा लोकनि कते दूर छलहुं आ आइ तं आरो कते दूर भ' गेल छी से नांगट आंखियें चारू दिस देखि सकैत छी आ ठीक सैह चीज अइ कविता-संग्रह मे सेहो पाबि सकै छी। कहि सकै छी जे ई कविता सब आजुक समयक श्वेतपत्र छी।

             संभ्रान्त साहित्यक सोच-समझ, मनोनिर्मिति आ भाषा-व्यवहार सं ई दलित कविता सब कतेक अलग अछि, सहजहि अइ ठाम देखल जा सकैत अछि। जेना गहन समाधि मे उतरने विना क्यो परमात्माक अस्तित्व नहि महसूस क' सकैत अछि, ठीक तहिना गहन दलित-भोग भोगने वा ताही कोटिक सह-अनुभूति अर्जित कयने विना एहि कविता सभक मर्म मे पैसब असंभव अछि। दुर्भाग्यक बात थिक जे मैथिली मे एहन कोनो निकष नहि बनि सकल। परंपरित मैथिली कविताक अध्ययन एखनो पंडीजी लोकनि, मने ब्राह्मणवादी विद्वान लोकनि रसशास्त्रेक आधार पर करैत छथि। मुदा एतय, परार्थीक कविता मे कोन रस पायब? वीभत्स रस, जे अहांक धार्मिक भावना कें आहत क' सकैत अछि? यात्री जी एकरा विक्षोभ रस कहै छलखिन। हुनकर समझ रहनि जे आजुक शुद्ध कविता विक्षोभे रस टा ल' क' बूझल जा सकैत अछि, जं रसशास्त्रेक आधार पर कविता कें परखबाक जिद हो तं। एकरा पाछू कारण छै। क्यो कवि कविता किए लिखैत अछि? आनंदक अनुभूति कें व्यक्त करबाक लेल। अपना कें एकात राखि दुनियांक विडंबना देखेबाक लेल। जकरा सं असहमत अछि तकर खिल्ली उड़ेबाक लेल। माफ करब, दलित कविता-लेखनक कारण अइ सब मे सं किछुओ नहि थिक। रामकृष्ण परार्थियेक अनुभव कें जं देखी तं बहुत बात स्पष्ट भ' सकैत अछि। कविता पर लिखल अपन एक कविता मे ओ कविता लिखबाक कारण बतबैत कहैत छथि-- 'जनमैते बान्हि देल गेल हमरा/ नीच जाति कहि धार्मिक आ सामाजिक रस्सी सं/ ओहि रस्सी कें खोलै लेल/ हम करैत रहैत छी सदिखन संघर्ष/ खोजैत रहैत छी अपना मुक्ति लेल/ नव नव रस्ता/ लिखैत रहैत छी अपमान अनादर सं भोगल दुख व्यथा/ तखन अनायासे बनि जाइत अछि एगो कविता।' 

             स्वाभाविक बात छै जे संभ्रान्त साहित्यक जे सौन्दर्य-बोध हेतै, शिल्प-दृष्टि हेतै, दलित साहित्यक ताहि सं सर्वथा भिन्न हेतै। किछु दशक पहिने धरि के सोचि सकै छल पवित्र मां मैथिली मे एहू तरहक कविता लिखल जेतै! किए? पहिने अइ लोक कें मनुक्खे नहि बुझल जाइत रहै, कवि बूझब तं बहुत आगूक बात भेलै। जखन कि देखियौ, मैथिली हिनको सभक भाषा छियनि। आ, सच तं ई अछि जे हिनके लोकनिक पुरखा मैथिली मे कविता लिखबाक आविष्कार कयने रहथि। दलित कविता संभ्रान्त कविता सं कतेक अलग होइत छैक, परार्थी कहै छथि-- 'लोक कहैत अछि बनि जाउ चाटुकार/ मिलैत रहत पुरस्कार आ सम्मान/ मुदा स्वाभिमान बेचि क'/ हम नहि कमाय चाहैत छी नाम/ आ ने हम अपन कविता कें/ बनबय चाहैत छी गुलाम।' हुनका एहि बातक कोनो अपेक्षा नहि छनि जे अहां हुनका कवि बुझियनु। मुक्ति हुनकर प्रधान जीवनमूल्य छियनि।

             विश्वकवि रवीन्द्रनाथ कतहु लिखने छथि, अइ देशक हजारो वर्षक इतिहास मे जे क्यो विवेकी महापुरुष आइ धरि भेला, वर्णव्यवस्था अवश्य हुनका घृणास्पद लगलनि अछि आ ओ एकर विरोध जरूर कयने छथि। मुदा, तखन आइयो ई व्यवस्था कोना जिबैए? धर्मक बल पर। एकरा धर्म, ईश्वर, वेद, शास्त्र आदिक कवच पहिरा देल गेलैए। तरह-तरहक मिथक, पुराकथा, किंवदन्ती शास्त्र-पुराणक नाम पर, धार्मिक भय देखा क' चला देल गेलैए। एहना मे स्वाभिक अछि जे कोनो दलित कवि जखन कलम उठाओत, ओकर टक्कर धर्म, मिथक, पुराकथा आदि संग होयब अनिवार्य छैक। तें एहू संग्रह मे अहां देखबै, मनु, द्रोण, शम्बूक, एकलव्य, अहल्या, वृन्दा आदिक प्रसंग रूप-रूपक बाना मे अनेक ठाम प्रकट भेल छैक। एहना ठाम अनीतिपूर्वक बहुजन समुदाय कें मटियामेट करबाक ब्राह्मणधर्मक अत्याचार कें बेखौफ नांगट कयल गेल छैक। अपन एक कविता मे तं ओ एहन तथाकथित जनवादी सभक सेहो खबरि लेलनि अछि जे बाहर-बाहर वामपंथी आ अंदर-अंदर ब्राह्मणवादी भेल करैत छथि। मुदा, कविक दुख तखन आत्यन्तिक रूप सं बढ़ि जाइत छैक जखन ओ दलित-समाज मे चेतनाक घोर अभाव देखै छथि आ दोसर दिस स्वयं साधनसंपन्न दलिते लोकनि कें अपन वर्ग सं निरपेक्ष बनल दलित-ब्राह्मण बनबाक कोशिश लेल व्याकुल देखैत छथि।

             रामकृष्ण परार्थी नवागन्तुक कवि छथि। एखन ओ अपन कविता मे अधिकतर अभिधा मे बात करैत छथि। अधिकतर अपन विक्षोभ, विरोध आ विद्रोह कें यथावत कविता मे पेश क' देल करैत छथि। समानता, स्वतंत्रता, भाइचारा, सर्वधर्मसमभाव, लोकतंत्र, संविधान, वैज्ञानिक चेतना-- ई सब संदर्भ शब्दश: हुनकर कविता सब मे बेर-बेर अबैत अछि। हुनकर कविताक सौन्दर्य एकर कथ्य मे छैक आ ओहि कथन-भंगिमा मे, जकरा सुनबाक लेल मैथिलीक कान हजार बरस सं पियासल रहल अछि। प्रचलित मानदंडक आधार पर अइ कविता सभक मूल्यांकन कठिन अछि। तें, ई संग्रह एहू बातक आवश्यकता बल दैत अछि जे दलित सौन्दर्यशास्त्र पर मैथिली मे काज करबाक समय आब आबि गेल छैक।

            

             

             

             

             

Thursday, October 13, 2022

सीता (कविता)





तारानंद वियोगी


भीतरघात भेलैक तं पकड़ल जाएत सिपाही

वदतो जं व्याघात भेलै तं नपत गवाही

हारल जं घुरता अपने तं घरहि सहारा

मारल जं दुश्मन गेलैक तं जयजयकारा

सब क्यो रहत निचैन मात्र हां, जी हां कहि क'

करत सदा सब वैह, मुदा किछु दोसर रहि क'

सब के चलत चलाकी, कहु सीता की करती?

एक राम के खातिर ओ कय कय बेर मरती?


देलनि राम वनवास तं जनको कहां बिगड़ला

कहां अक्षौहिणी सेना ल' क' जा क' भिड़ला

कहां भेलनि जे बेकसूर धी भटकय वन मे

मंगबा लै छी एतहि, कहां से अयलनि मन मे?

जं कहबै सीताक भाग्य, पराया धन छलि

नै नै, धनुष उठाबनहारिक तन छलि

मन छल एहन जे लोक पुजैए माथा हुनकर

आर ककर छनि जेहन-जेहन छनि गाथा हुनकर?


उचितन बजने हनुमानो कें देसनिकाला

कहू कतहु ई देखल उपकारीक हवाला?

अन्यायी भागिन वशवर्ती राजा भेला

कतय गेलनि ओ ओज, कतय पुरुखारथ गेला?

घर घुरला लवकुश तं मन हनुमाने पड़लनि

कोना बचल रघुकुलक लाज, मैथिलजन देखलनि

धन्न कही ओइ मन कें जे गुण नै पहिचानल

स्वर्णमयी माया कें सीता क' क' जानल!


पापक बढ़तै चलती, राम बनथि रखबैया

डूबय लागय नाह, कहत जन राम खेबैया

ओइ रामक जे शक्ति छली से कोना हेरयली

अनधनलछमी त्यागि अयोध्या कतय पड़यली

ककरा रहतै मोन जखन जुग व्यापय पापक

ककरा संग गेलै धरती? भेलि ककरा बापक?


धर्मक जं चलती बढ़तै तं जय श्री रामक

ककरो नै रहतै मोन असल मे सीता रामक

तामस जं उठतै तं उजड़त अबल निबल सब

जं मन भेल प्रसन्न तं घर जड़तैक अनाथक

सीता तत्व कथीक? ने ककरो सुरता रहतै

कहू किए ने देशक नारी सदा कुहरतै?


Sunday, October 2, 2022

अहल्या-स्थान के बहाने अहल्या की याद

 



तारानंद वियोगी


दरभंगा जिले का एक गांव है अहियारी, जिसका सम्बन्ध पौराणिक अहल्या से जोड़ा जाता है। वहां अहल्या-स्थान नाम से एक धार्मिक पीठ भी है, और एक प्राचीन मंदिर भी जिसे दरभंगा के महाराज छत्र सिंह ने 1817 में बनवाया था। कहते हैं, गौतम ऋषि का पुराना आश्रम यहीं था जहां वह अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते थे। जब वह घटना हुई, यानी देवराज इन्द्र ने भेस बदलकर छलपूर्वक अहल्या का शील-हरण किया, गौतम अपनी पत्नी को सान्त्वना या हिम्मत क्या देते कि उसे पत्थर हो जाने का शाप दिया, और तब से यह जगह उजाड़ हो गयी। अपनी पत्नी का त्याग करते हुए गौतम ने अपनी जगह बदल ली। रामायण का प्रसिद्ध प्रसंग है कि इस मैदानी इलाके में एक विचित्र ढब के पत्थर को देखकर उस रास्ते जनकपुर जाते राम ने जब गुरु विश्वामित्र से जिज्ञासा की थी, तो उन्होंने वह पूरा वृत्तान्त उन्हें सुनाया था। वृत्तान्त में यह भी था कि शाप सुनकर अहल्या जब अपनी बेकसूरी पर अड़ गयी और बार-बार ऋषि से मिन्नत करने लगी तो गौतम ने ही यह रास्ता सुझाया था कि राम जब इस रास्ते गुजरेंगे तो उनकी चरण-धूलि से पुन: तुम्हारी खोयी देह तुम्हें मिलेगी। लक्ष्मीनाथ गोस्वामी के एक पद में भी आता है-- 'वासब दुराचार ते गौतम दिन्हें शाप ताहि अविचारे/ पाछे जानि अदोष कह्यो तब, भामिनि! शाप अकाट हमारे।' पौराणिक प्रसंगों के अनुसार, यही हुआ। अहल्या की खोयी देह राम की कृपा पाकर उन्हें मिल गयी। लेकिन इसके आगे फिर क्या हुआ? इसपर कहीं कुछ स्पष्ट नहीं मिलता। मानो इतना ही जताना इस प्रासंगिक कथा का अंतिम भवितव्य हो। प्रसंग रामकथा का है। नायक राम हैं। राम की महिमा ख्यापित करना कथा का उद्देश्य है। यह हो गया, तो फिर इसे कौन देखता है कि आगे अहल्या का क्या हुआ! 


विविध प्रसंगों में अहल्या का जो विवरण मिलता है, उसके अनुसार वह अनिन्द्य सुंदरी थी। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों में भी उन्हें सुन्दर नारियों में सुन्दरतम माना गया है। किंवदन्ती के अनुसार वह ब्रह्मा की मानस-पुत्री थी और स्वयं ब्रह्मा को उसकी सुन्दरता पर इतना अभिमान था कि उसके विवाह के लिए उन्होंने शर्त लगा दी थी कि जो देवता या ऋषि बारह बरसों तक उसे अपने घर में, अपने पास रखकर भी ब्रह्मचर्य-व्रत निभाकर दिखाने की प्रतिज्ञा करे, उसी से वह ब्याही जाएगी। इस असंभव-सी प्रतिज्ञा को कौन निभा पाता, इसलिए सारे देवता और ऋषियों ने हाथ खड़े कर दिये थे, और ऐसे में गौतम ने यह असंभव काम कर दिखाया था। ब्रह्मपुराण लेकिन थोड़ी अलग कहानी बताता है।‌ वहां है कि ब्रह्मा ने छोटी उमर में ही पालन-पोषण के लिए उसे गौतम को सौंप दिया था। गौतम के आश्रम में पलती-पुसती अहल्या जब जवान हुई, गौतम उसे लेकर ब्रह्मा को वापस करने गये। ब्रह्मा को अब उसका विवाह करवाना था। त्रिलोक-दुर्लभ उसकी सुन्दरता पर तमाम देवता और ऋषि इस कदर मुग्ध थे कि हर कोई अपनी दावेदारी पेश कर रहा था। ऐसे में ब्रह्मा ने शर्त रखी कि जो कोई पृथ्वी की दो परिक्रमा पूरी करके सबसे पहले चला आएगा उसी से अहल्या ब्याही जाएगी। हर कोई तो उधर परिक्रमा करने निकला, इधर गौतम ने यह किया कि ब्रह्मा-निवास की अर्धप्रसूता कामधेनु की दो परिक्रमा कर आए और साबित किया कि कामधेनु की प्रदक्षिणा का फल सात द्वीपों वाली पृथ्वी की परिक्रमा के समतुल्य है। ब्रह्मा ने मान लिया और अहल्या गौतम के साथ ब्याह दी गयी। इस प्रसंग से यह संकेत मिलता है कि पालक पिता होने के नाते गौतम की जो भी भूमिका रही हो, वह मन-ही-मन उसे प्यार करने लगे थे, उसके रूप के रसिक थे। 


ब्रह्मपुराण में लेकिन अहल्या के पत्थर बनने की कहानी नहीं आती। वहां है कि वह सूखी नदी बन गयी। उसके उद्धार का उपाय बताया गया कि जब गौतमी नदी की धारा इस ओर होकर गुजरेगी तो उसका शाप-शमन हो जाएगा। स्वाभाविक ही रामकथा के साथ भी वहां इस प्रसंग का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि रामकथा में अहल्या-प्रसंग को अधिगृहीत किये जाने के पूर्व की स्मृतियां ब्रह्मपुराण में आई हैं। वाल्मीकि रामायण और ब्रह्मपुराण दोनों में लेकिन, यह बात आई है कि गौतम ने अहल्या के साथ-साथ इन्द्र को भी शाप दिया था। वाल्मीकि रामायण में है कि इन्द्र का अंडकोष नष्ट हो जाने का शाप दिया, अर्थात पुंसत्वहीनता का, जिसका इलाज बाद में देवलोक के चिकित्सकों ने मेष(भेड़) के अंडकोष को प्रतिरोपित करके किया और इन्द्र का एक नाम 'मेषवृषण' तभी से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मपुराण  का शाप सहस्रयोनि होने का शाप था, जिसके लिए उन्हें भी गौतमी नदी के अवतरण का इंतजार करना था, जिसके बाद वह ठीक होकर सहस्राक्ष बनते। दोनों ही जगह लेकिन यह बताया गया है कि इन्द्र भेस बदलकर आया था, और शील-हरण के बाद गौतम ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था। अन्तर यह है कि ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतमभेषधारी इन्द्र को अहल्या नहीं पहचान पाई थी और उसने उसे गौतम समझकर ही व्यवहार किया था, जबकि वाल्मीकि रामायण बताता है कि अहल्या ने भलीभांति उसे पहचानकर देवराज के  कौतूहल में व्यवहार किया था। जो भी हो, लगता यही है कि आदिम स्मृतियां ब्रह्मपुराण में संरक्षित हैं, जबकि  मानवीय स्वभाव का, देव-स्वभाव का भी, अंकन वाल्मीकि रामायण में ज्यादा हू-ब-हू हुआ है।


ब्राह्मण-धर्म में स्त्री की अभ्यर्थना में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' कहे जाने का चलन रहा है। आए दिन भक्तों को आप यह पंक्ति उद्धृत करते हुए सुनेंगे। लेकिन, स्त्री की वास्तविक औकात वहां क्या है और देवता वहां क्यों रमण करते हैं, इसका पता हमें वाल्मीकि रामायण के उस प्रसंग से चलता है कि जब यह सब कांड करके इन्द्र अपनी राजधानी लौटे तो देवताओं की सभा में इसके बारे में उन्होंने क्या प्रतिवेदित किया। बताया कि काम तो उन्होंने बड़े खतरे का किया लेकिन यह देवताओं के हित के लिए जरूरी था। गौतम का तप इसी से क्षीण हो सकता था। राजनीति देखिये। तप क्षीण करना था गौतम का, क्योंकि उनसे इन्द्र को और तमाम देवताओं को सत्ता छिन जाने का खतरा था। लेकिन, शिकार बनी अहल्या। न इन्द्र दुराचार करते, न गौतम को क्रुद्ध होकर शाप देना पड़ता, न उनका तप क्षीण होता! देवताओं की सभा में इन्द्र का संबोधन है--

कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मन:।

क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम्।।

(वाल्मीकि रामायण/ बालकांड/ 49/2)

वाल्मीकि रामायण के एक हिन्दी अनुवादक द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने इस श्लोक की जो व्याख्या की है, उसे देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा। लेकिन पहले उनका अनुवाद-- 'महात्मा गौतम की तपस्या में विघ्न डालने के लिए मैंने उन्हें क्रुद्ध कर देवताओं का यह काम बनाया।' अब इसके बारे में उनकी व्याख्या देखी जाए-- 'इन्द्र के इस कथन को मिथ्या न समझना चाहिए। क्योंकि बात सचमुच यही थी। गौतम ने सर्वदेवताओं का स्थान लेने के लिए तप किया था। क्रोधादि दुर्वृत्तियों का प्रादुर्भाव होने से तपस्वी की तपस्या नष्ट हो जाती है। अत: इन्द्र ने महर्षि गौतम की तपस्या को नष्टभ्रष्ट करने के लिए ही उनको क्रुद्ध करने के अभिप्राय से अहल्या के साथ भोग किया था, नहीं तो स्वर्ग में अहल्या से कहीं अधिक सुंदरियों का अभाव नहीं था। मृत्युलोकवासियों के सदनुष्ठानों में देवता अपने स्वार्थ के लिए सदा विघ्न करते चले आए हैं।' देवताओं की प्रवृत्ति का क्या ही शानदार परिचय यहां दिया गया है, मानो वे देवता न हुए इक्कीसवीं सदी के भारतीय राजनेता हुए। संस्कृत ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद का काम एक आधुनिक विधा है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1958 में हुआ है। इस प्रकार पंडित चतुर्वेदी की यह मान्यता भी ब्राह्मण-धर्म की एक आधुनिक मान्यता ही समझनी चाहिए, जिसकी जड़ सुदूर अतीत की मान्यता में है। इससे हम समझ सकते हैं कि यहां स्त्री की वास्तविक औकात क्या है। तब से लेकर आधुनिक युग तक।


इससे इतर एक प्रसंग पंचकन्या का है। पुराणों में पंचकन्या उन पांच स्त्रियों को कहा गया है जो विवाहिता तो थीं जरूर, लेकिन उन्हें सदा कुंवारी माना गया है और यह बताया गया है कि सुबह-सुबह इनका नामस्मरण करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्माण्ड पुराण के इस श्लोक में पंचकन्याओं की नामगणना करते हुए उनका माहात्म्य बताया गया है--

अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा।

पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।।(3/7/219)


मैंने तो‌ केवल पापनाशक बताया, पुराणकार तो 'महापातक-नाशक' कह रहे हैं। यह महापातक क्या होता है, इसपर भी जरा गौर कर लें। मत्स्यपुराण में इनकी सूची दी गयी है। ब्रह्महत्या, गुरुपत्नी से समागम, मद्यपान, स्वर्ण की चोरी करना आदि इस कोटि के पाप हैं जिसका दंड मृत्युदंड विहित किया गया है। लेकिन हां, यह सब करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो उसे मृत्युदंड नहीं मिलेगा, बस देशनिकाला दे दिया जाएगा। अब मान लें, पापी ने अपराध किया और पकड़ा नहीं गया, तो?  जो थोड़े भी सामर्थ्यवान होते हैं वे पकड़े कैसे जा सकते हैं, उन्हीं के लिए तो तमाम रास्ते बनाए गये हैं, युग चाहे सतयुग हो ले या घोर कलियुग। लेकिन अपना दिल तो गवाही देता ही रहता है। ऐसे में वह केवल यही कर ले कि इन पंचकन्याओं का नामजाप सुबह-सुबह कर लिया करे। उसके सारे महापातक नष्ट हो जाएंगे। गौर करें, यही अपनी सनातन धर्म-व्यवस्था है। ठीक ही कहा था हरिमोहन झा ने कि अनुष्टुप में श्लोक बनाने के लिए किसी लाइसेन्स की जरूरत नहीं होती। अगर हुई होती तो क्या ऐसी धर्म-व्यवस्थाएं मिल सकती थीं?


मेरी चिन्ता लेकिन यह है कि इन पंचकन्याओं में अहल्या को पहला स्थान दिया गया है, शायद इसलिए कि सबसे ज्यादा प्रवंचित वही रही। तो क्या यह कालान्तर में उसके साथ किया गया न्याय था? भरोसा नहीं होता, क्योंकि आधुनिक पंडितों की मान्यता भी हम ऊपर देख ही चुके हैं। अहल्या की प्रवंचना दोहरी है। सीता भी प्रवंचित थी, लेकिन शास्त्रकारों ने उनके साथ न्याय नहीं किया तो लोकविदों ने किया। मिथिला में सीता की विशाल लोकगाथा न केवल मिलती है, बल्कि उसके तीन-तीन वर्सन उपलब्ध होते हैं। अहल्या की लेकिन कोई गाथा नहीं मिलती। वह लोकगीतों का विषय भी नहीं बनी। उसे देवता का दरजा तो खैर नहीं ही मिला, लोकदेवता का भी नहीं मिला। वाल्मीकि रामायण बताता है कि शापमुक्ति के बाद वापस वह गौतम के नये आश्रम में चली गयी, लेकिन इसपर भी यकीन करना मुश्किल है क्योंकि तबतक तो पुत्र शतानंद का जमाना आ गया था जो जनक के दरबार में राजपुरोहित लग गये थे। क्या वह सचमुच वापस गौतम के पास गयी होगी? तो फिर अहल्या-स्थान की अपनी पृष्ठभूमि क्या है? अहियारी का जो यह मंदिर है, आप आश्चर्य करेंगे कि धुर मिथिला में वह एक ऐसा दुर्लभ मंदिर है जिसकी पुजारन महिला होती है, जबकि मंदिर की  संपत्ति के प्रबंधन के लिए जो महंत हैं, वह पुरुष हैं। वहां बैगन का चढ़ावा चढ़ता है। और, माता अहल्या की महिमा क्या है? किसी के शरीर में मस्सा निकल आए तो वह वहां जाकर मनौती करे, और जब ठीक हो जाए तो बैगन का भार चढ़ाए। बैगन का भार! बैगन‌ का ही क्यों? अहल्या की प्रवंचना एक विशाल प्रश्नचिह्न की तरह हमारे सामने तनकर खड़ी हो जाती है!


आधुनिक कविता में अहल्या एक प्रवंचिता मानवी की तरह ही प्रस्तुत हुई है। उसके विस्तार में जाने का यहां अवकाश नहीं। मैं आपको नागार्जुन की एक कविता पढ़वाता हूं, जो उन्होंने अहल्या‌ पर लिखी और शीर्षक भी 'अहल्या' ही दिया है। कविता है--

नाहक ही

उतना अधिक रूप दिया 

विधाता ने

गौतम की शकल बना के

सचमुच क्या इन्द्र ही आया था?

समान आकृतिवाले--

दो पुरुषों की छाया में

पथरा गयी बेचारी!


यहां छद्मवेशधारी इन्द्र के होने पर संशय किया गया है। तात्पर्य है कि भला फर्क ही क्या पड़ता है कि वह इन्द्र था या इन्द्र नहीं था! मतलब की बात यह है कि वह दूसरा पुरुष था, परपुरुष। उसकी भी गहन लालसा ने ही उसे अहल्या तक खींच लाया होगा, जैसे कभी गौतम को खींच लाया था। इन्द्र अगर देवराज थे तो गौतम भी कोई कम न थे। ब्रह्मा से तर्क कर वह अहल्या को जीत लाये थे, इस मिथक में कदाचित उस वैदिक ऋषि गौतम की स्मृति है जो षड्दर्शनों में सर्वाधिक दिलचस्प न्यायदर्शन के आदिप्रवर्तक थे। किन्तु, जो थे वो थे। अहल्या की तरफ से सोचें तो उस बेचारी को क्या मिला, जबकि दोनों ही तो महिमासंपन्न अतिविशिष्ट ही थे। आकृति यहां दोनों की समान बताई गयी है। लेकिन क्या केवल बाहरी आकृति? वह तो स्वांग भी हो सकता है। बात यहां भीतर की आकृति की है। भीतर का पुरुष भी तो दोनों का एक-सा था, पितृसत्ता के दंभ से उन्मत्त। दोनों ही जगह प्रेम एक छलावा था, लालसा भी। स्त्री के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। बस केवल यह था कि पहला अपने भोग को अपना विशेषाधिकार मानता था, दूसरा उसका उल्लंघन कर उसे अपने भोग की सीमा तक घसीट लाया था। पुरुष तो दोनों ही बड़े थे, महान थे। लेकिन अहल्या को क्या मिला? दो पुरुषों की छाया में भी उस बेचारी के हिस्से तो पथराना ही आया। नागार्जुन शाप को निगेट करते हैं। ब्राह्मण-धर्म के भीतर दूसरे के शाप की जरूरत भी स्त्री को कहां है? प्रेमी पुरुष के भीतर का दंभी लंपट सामने आ जाए बस, उसे तो खुद ही पथरा जाना है!


मैं अहियारी की बात कर रहा था। वहां गौतम-अहल्या का मंदिर है। उसे मिथिला के एक तीर्थ की हैसियत मिली हुई है। मिथिला के प्रमुख तीर्थों की सूची देखें तो यह जगह ऊपर ही कहीं दर्ज मिलेगी। विद्यापति ने इस तीर्थ की चर्चा की है। उनसे भी प्राचीन ग्रन्थों में उसे तीर्थ कहा गया है, ज्यादातर राम को महिमामंडित करने के लिए। लेकिन, आप अगर कभी वहां जाएं तो उस अभागन के नाम दो आंसू टपकाकर जरूर लौटें। ब्राह्मण-धर्म को जी रही स्त्रियों का इससे तर्पण होगा, जो मर गयीं उनका, और जो जी रही हैं, उनका भी। जीते-जी तर्पण!


नारायणजीक पृष्ठभूमि आ काव्य-विकास

 


           तारानंद वियोगी


वर्तमान समय मे मैथिलीक अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि लोकनि मे सं एक प्रमुख कवि नारायणजी छथि। हुनकर लेखन सं ने केवल मैथिली कविता  समृद्ध भेल अछि, अनेक एहन अभिव्यक्ति अछि, जकरा ओ पहिल पहिल बेर मैथिली भाषा मे कहल जा सकब संभव बनौलनि अछि। एहि सं हम सब हुनकर कविक विराटताक अनुमान पाबि सकैत छी।

             नारायणजी प्राय: 1980क आसपास कविता लिखब शुरू कयलनि। ओ समय मैथिली कविताक लेल अगियाबैताल बला समय रहैक। सबतरि विरोध, विद्रोह, उखाड़-पछाड़ के धकापेल छल। नारायण जीक कविता एहि सब सं सर्वथा विपरीत छलनि। ओहि मे मौन के महिमा छल, लघु मानव के अभ्यर्थना छल, विस्मय-भाव चरम पर छल, स्वयं जीवनक जे ऐकान्तिक सौन्दर्य होइत छैक तकर बारंबार गायन छल। आ, कविताक जे भाषा छल से तं बुझू जे 'जत देखल से कहिय न पारिय' बला सुधबौकपन सं भरल छल। कहबाक चाही जे नारायण जी अपना पीढ़ीक समस्त कवि लोकनि मे सब सं अलग छला। एतय धरि जे ई चीज आगू हुनका मूल्यांकनो मे बाधक बनल। जं अहां सब सं अलग रहैत छी तं संभव अछि, अहां अबडेरल रहि जाइ। मुदा एहि कवि लेल धनि सन। ओ जेहन छला, तेहने बनल रहला परन्तु आत्मविश्वस्त रहला। हुनक आगूक यात्रा क्षैतिज नहि, ऊर्ध्वाधर भेल। जाहि पथ कें धेलनि तकरे अंतिम बिंदु धरि पहुंचबाक जतन मे लागल रहला। 

             नारायणजीक कविताक पृष्ठभूमि अख्यास करबाक लेल हमरा लोकनि कें यात्री जीक लग पहुंचय पड़त। अपन सुप्रसिद्ध कविता 'द्वन्द्व' मे ओ मां मिथिलाक असली शक्तिक खोज कयने छला। ओ व्यक्ति 'रूप-गुण अनुसार जे आमक रखै अछि नाम/ धानक रखै अछि नाम' आ जैठां उदय लैत अछि ठीक तहीठाम अस्त होइछ, मने जीवन भरि अपन गाम मे बनल रहैत अछि, वैह समय पड़ला पर मातृभूमिक काज आबि सकैत छथि। यात्री जी लिखलनि--'जननि, तोहर इष्ट तोहर शक्ति/ धन्य थिक ओ व्यक्ति'। ओहि कविता मे ओ अपना कें अभागल मानलनि जे परिस्थितिवश एहन व्यक्ति ओ अपने नहि भ' सकला, परदेस भागय पड़लनि। आगू हमरा लोकनि देखैत छी जे बादक युगक महाप्राण कवि राजकमल चौधरी सेहो एहने अभागल अपना कें मानलनि जे 'अपने गाछीक फूलपात नहि चिन्हैत छी/ बूझल नहि अछि/ गाछ सभक चिड़ै सभक नाम/ बूझल नहि अछि।' मैथिली कविताक आगूक युग मे हमरा लोकनि पबैत छी जे एहन भागबन्त कवि साबित भेला जीवकान्त आ नारायण जी। यैह दुनू किएक? गाम मे तं बहुतो कवि रहला। कहब जरूरी नहि जे गाम मे रहब आ एहि संदर्भ सभक प्रति संवेदनशील आ सजग बनल रहि क' गाम बसब अलग-अलग बात थिक।

             नारायणजीक पहिल कविता-संग्रह 1993 मे आएल-- 'हम घर घुरि रहल छी'। जे बाहर रहैत अछि से एक दिन घर घुरैत अछि। नारायण जी सब दिन गामे मे रहला। तखन? ओ एहि पुस्तकक भूमिका मे लिखलनि-- 'हम आइ जतय छी आ जेना छी, अपना सं दूर छी। हम अपना सं प्रेम करय चाहैत छी। अपना मे घुरि अयबाक सर्वाधिक सहज विश्वसनीय डेग थिक हमर कविता।' अपन कविताक चेहरा चिन्हाबैत ओ लिखलनि-- 'हमर कविता/ हमर अन्तरक सब सं तीव्र नदी/ वाग्विलासक हमर जिह्वा कें खालि/ बाहर भ' परती पर बूलि रहल अछि।' देखि सकै छी, अपन सनातन वाग्विलास बला जाहि जिह्वा पर मिथिला अदौ सं गर्व करैत रहल अछि, तकरा खालि देबाक बात नारायण जी अपन काव्यारंभे मे लाधि देलनि।

             दोसर कवितासंग्रह 'अंगना एकटा आग्रह थिक' सन् 2000 मे आएल। ओहि ठाम ओ मानव-विकासक युग-युग-व्यापी अभियान कें एकटा आग्रह संग जोड़लनि। भोरे अन्हरोखे स्त्रिगण आंगन बहारैत छथि। आंगन बहारब एकटा आग्रह थिक। बिन बहारने ओ नहि रहतीह। अंगनाक बहारब ओहि आदिम युगक स्मृति थिक, जंगलक विरुद्ध मानव-सभ्यताक विजय-अभियानक। अंगना जंगल नहि भ' जाय पुन:,  तकर पुरोधा थिकी स्त्रिगण। स्त्री आ प्रकृति, अपन समस्त पर्यावरण आ लघुसर्जनाक संग, यैह नारायण जीक प्रिय विषय रहलनि अछि। लघुसर्जना की? एकटा उदाहरण। बाढ़ि मे गामक समस्त प्राणी घेरायल अछि। सभक प्राण अवग्रह मे छैक। बकरीक सेहो। बकरी लगातार मेमिया रहल अछि, कारण संकटापन्नताक अभिव्यक्ति के आन कोनो प्रकारक ओकरा ज्ञान नहि छैक। कवि कें चिन्ता होइत छनि जे 'बाढ़ि मे बकरी/चिकरि चिकरि एना/ दोसरक बिसरल मनक अतल सागर मे/ भक्ष्य होयबाक/ अपन उपस्थिति जनबैत अछि।'। तहिना, हुनकर दोसर चिन्ता देखियनु। जनिते छी जे बाघक संख्या दुनियां मे लगातार कम भेल जा रहल अछि। दुनियां भरि मे तकर चिन्ता कयल जा रहल अछि। मुदा, कवि कें खुशी होइत छनि जे अपना सभक गाम-घर मे डोकाक कमी नहि भ' रहल अछि, जखन कि आरि पर टहलान दैत डोका सब हरेक साल जानि नहि कतेक बेगरतूत लोकक मासु खयबाक सेहन्ता कें पूर करैत रहलैक अछि। 

             तेसर संग्रह 'धरती पर देखू' वर्ष 2015 मे बहरायल तं एहि बेर हुनक काव्यकर्म मे किछु नब तत्व सभक नफा होइत देखल गेल। एखन धरि हुनकर मुख्य काव्य-विषय छलनि-- मिथिलाक रुचिर भूभाग, एकर डीह-डाबर, नदी-पोखरि, चिड़ै-चुनमुन, एकर खेत, खेत मे होइबला जजाति, तकर बीज, बीजक अंकुर, अंकुरोक प्रांकुर, तकरो मूलांकुर। गाम, गामक छोट-छोट अबल-दुबल लोक,गामक सड़क, सड़क कातक अखंड पर्यावरण, गामक मौसम, ऋतु, वर्षा, जलक विविध रूप, जल जे पृथ्वीक अनुराग मे बसैत अछि। कते कहल जाय? आदि आदि कहैत अतल तलातल धरि चलि जाइ, ततेक। राजनीतिक आ बाजारवादी गछाड़ सभक अनेक प्रपंच हुनकर एहि संग्रह मे आएल। गामक मंदिरक बारे मे हुनकर एकटा कविता अछि, जतय देखाओल गेल अछि जे कुकर्म, अपराध, व्यभिचार आदि मंदिर पर एहि दुआरे चलब जारी छै जे मंदिर ककरो बापक नहि थिक। चिंताकुल कवि ई सब देखैत दुखी छथि जे अयोध्या मे फेर बड़का मंदिर बनि रहल छैक। तहिना, बाजार मिथिलाक गाम-गाम मे घरक ड्योढ़ी पर आबि गेल अछि। बाजार आनल गेल छल एहि करारक संग जे बेचत तं बिकयबो करत। मुदा, परिणाम देखि कवि दुखी छथि जे मिथिला केवल खरीदार बनल रहबा लेल मजबूर अछि। बड़ दर्दीला क्रोध छनि कविक-- 'पाद त' बिकाइत अछि/ अहांक वस्तु सब नहि बिकाइत अछि बाजार मे? मनक स्वस्ति बेचू/ ओछाओनक ठांव बेचू/ ठोरक पानि बेचू/ देहक ऊष्मा बेचू.../ अहां बेचि दिय' अपना कें।'

             एहि साल वर्ष 2019 मे हुनकर कविता सभक चारिम संग्रह 'जल धरतीक अनुराग मे बसैत अछि' छपल अछि। एहि मे हुनकर सिरीज कविता सब छनि-- जल, सुजाता, वसंत, सपना आ चान। पोथिक भूमिका मे कहलनि अछि-- 'अपन कविता मे हम ओहि स्थानीय मूल्य कें अनबाक चेष्टा क' रहल छी जाहि सं मैथिली कविता कतहु क्षेत्रीयताक नामक कृपा पर नहि, मूल्यवत्ताक आधार पर सगर्व ने मात्र ठाढ़ भ' सकय, अपितु डेग मे डेग मिलाए चलय।' जे आकांक्षा नारायणजी आइ व्यक्त कयलनि अछि, गौरतलब थिक जे ताहि मिजाजक काज ओ पछिला चालीस साल सं ने मात्र करैत आबि रहला अछि, अपितु ओकरा उचित साकांक्षताक संग कमोबेश अकानलो गेल अछि। वर्ष 2000 मे जीवकान्त लिखने छला-- 'कुण्ठारहित ई इजोत मैथिली कविता कें भारतीय भाषा मे उच्चासन देने अछि। आजुक मैथिली कविता भारतीय कविताक मात्र सहगामी नहि, ओहि मे अग्रगामी अछि। नारायण जी एहि भाषाक प्रतिनिधि कवि छथि।'

             


उषा किरण खानक लेखन-स्वभाव



तारानंद वियोगी


उषाकिरण खान मैथिलीक एक महत्वपूर्ण साहित्यकार तं छथिहे, हुनकर व्यक्तित्वक आओरो कैक टा आयाम सब अछि जे हुनकर लेखन कें पुष्ट आ सबल करैत रहल अछि। मध्यकाले सं, जहिया आधुनिक भारतीय भाषाक रूप मे मैथिलीक जन्म भेल, हम सब देखैत आएल छी जे बहुभाषाविद् आ बहुरचनाप्रवीण लेखकक बेसी सम्मान मिथिला मे रहलैक। ई गुण हमरा लोकनि ज्योतिरीश्वर आ विद्यापतियो मे देखैत छी। आधुनिक युगक सब सं महान लेखक यात्री जी तं एहि मे अनेक नव आयाम जोड़लनि। उषाकिरण बहुभाषाविद् आ बहुभाषाप्रवीण लेखकक कोटि मे अबैत छथि। ओ मैथिलीक संग-संग हिन्दी मे अपन लेखन कयलनि अछि। आ दुनू भाषा मे, दुनू भाषाक लेखन लेल स्वीकृत आ सम्मानित भेलीह अछि। मुदा जेना कि यात्री जी आ रेणु(फणीश्वरनाथ) जीक बारे मे कहल जाइत अछि जे ओ लोकनि हिन्दियो मे लिखैत मैथिलिये लिखलनि, मिथिलेक बात लिखलनि, मिथिलेक दशा आ दिशा हुनकर चिन्ताक केन्द्र मे रहलनि, ठीक वैह बात हम सब उषाकिरणक बारे मे कहि सकैत छी। अपन शोधात्मक कथा-लेखनक क्रम मे जं ओ मिथिला सं बाहरो गेली तं ई चीज झकझक देखार पड़ैत रहलैक जे एक मैथिल हृदयक भावकताक संगहि ओ यथार्थक संग बर्ताव कयलनि अछि। हुनकर अवदान कें अपन प्रान्त आ देश मे चीन्हल गेल, से हमरा लोकनिक लेल एक फूट खुशीक गप थिक।


उषा जीक ई सौभाग्य रहलनि जे लिखबाक केवल हुनरे नहि, एकर प्राथमिकता-निर्धारण धरिक संस्कार हुनका विश्वप्रसिद्ध मैथिल कवि यात्री नागार्जुन सं भेटल रहनि। उषाकिरणक पिता यात्री जीक मित्र रहथिन जिनकर निधन बहुत शुरुए मे भ' गेल रहनि, आ यात्री जी अपन विशालहृदयताक अनुरूपे पितृवंचिता एहि कन्याक जीवन मे सब दिन पिताक भूमिकाक निर्वाह करैत रहलखिन। स्वयं उषा जी लिखने छथि जे व्यक्तित्वगत हुनकर मजगूती आ कथा-साहित्य दिस हुनकर लेखन-प्रवृत्ति शुद्ध क' क' यात्री जीक प्रेरणाक फल छल। तखन, एहना स्थिति मे जखन कि क्यो नव लेखक कोनो महान साहित्यकारक प्रेरणा आ संसर्ग मे लेखनक शुरुआत करैत अछि, एकर खतरा सेहो कम नहि रहैत छैक। पुरान कहबी अछि जे विशाल बटवृक्षक नीचां लघु तरु-गुल्मक विकास असंभवप्राय होइछ। खतरा ई छलनि जे यात्री जीक आभामंडल मे ओ बन्हाएल रहि जा सकैत रहथि। मुदा, महान लोकक संगति स्वयं जेना अनेक आपद-विपदक सम्यक समाधान करैत चलैत छैक आ महानताक जे कारक सब होइछ ताहि मे स्वयं इहो एक महत्वपूर्ण कारक होइत अछि। हमरा लोकनि देखैत छी जे स्वयं यात्रिये जी एक दिस जं अधिकाधिक गद्यलेखनक दिस हुनका प्रेरित केलखिन, तं दोसर दिस हुनका सं सर्वथा विपरीत ध्रुव पर स्थापित वरेण्य साहित्यकार अज्ञेय जी संग रचनात्मक संपर्क-सामीप्य हेतु प्रोत्साहित सेहो केलखिन। एकर परिणाम साहित्यक लेल कतेक शुभ आ सुखद भेल तकर हिसाब हमरा लोकनि उषा जीक विशाल रचना-संसार मे पाबि सकैत छी।


उषा जी सदिखन अपना कें कोसिकन्हाक एक उपज मानैत रहल छथि, जकर तात्पर्य थिक जे ओहि माटिक कत भारी इयत्ता छैक, तकरा ध्यान पर लायब। कतेको ठाम ई बात हम कहि चुकल छी जे मिथिला जकरा हमरा हम सब कहैत छी, मोन रखबाक चाही जे एहि मे मिथिलाक भीतर मिथिला छैक। एक दिस जं मैथिल अस्मिताक सामर्थ्य-विस्तार एहि सं देखार होइछ तं दोसर दिस एक समन्वित मैथिल जातीयताक विकास मे ई बाधको बनल रहल अछि।‌ मुदा तकर मूल ओजह भेल एतुक्का पंडित-समाज, जकरा हाथ मे सत्ता तं रहल मुदा अपनहि हेंग जोतबाक दुर्व्यसन नहि कहियो गेल। तें, हम सब देखैत छी जे ब्राह्मण-धर्माचारक संगहि संग लोकायतक लोकाचार सेहो अपन पूरा खिलावट प्राप्त कयने रहल। एतय धरि जे जीव-जगत कें पूरा मिथकीय स्वरूप द' क' ग्रहण करबाक प्रवृत्ति लोकायते दिस सं आएल जे मैथिल अस्मिता कें परिभाषेय स्वरूप धरि पहुंचौलक। मिथिला कें शास्त्र सं गछाड़लनि महामहोपाध्याय पंडित लोकनि, मुदा अपने ओ जाहि पंडिताइन लोकनिक द्वारा गछारल छलाह से स्त्रीगण लोकनि एम्हर लोकायतक हामी, लोकाचारक पैरोकार छली। हम देखैत छी जे एक जातीय इकाइक रूप मे मैथिल अस्मिताक ई अजगुत स्वरूप जते स्पष्ट रूप सं उषाकिरणक कथा-साहित्य मे वर्णित भेल अछि, तते आन कतहु नहि।‌ तें हुनका ओइ ठाम यौनिकताक आधार पर विद्रोह पर उतारू स्त्रीवाद नहि छनि। से मैथिली मे तं नहिये, हिन्दियो कथा-साहित्य मे नहि छनि। जवाबदेहीक अहसास अक्सरहां लोक कें उत्थर आ मतलबी होयबा सं रक्षा करैत छैक। ई अहसास साफ-साफ उषा जीक स्त्री लोकनि मे देखल जा सकैत छैक।


हम पहिनहु कहने छी जे स्त्री आ प्रकृति, ई दुनूटा उषा जीक प्रमुख लेखन-विषय रहलनि अछि। स्त्री जेना कि कहबे केलहुं, अपन संपूर्ण मानवीय गरिमा आ जिम्मेदारीक संग हुनकर कथा-साहित्य मे आएल छनि। ओकर विस्तार बहुत पैघ छैक-- स्थान, काल आ पात्र तीनू तरहें ओ दूर-दूर धरि पसरल छैक। एक दिस जं सुदूर अतीत मे भेलि भामती छथि तं दोसर दिस धहधह जरैत निज अजुका वातावरण मे पोसाएल अजनास, जे अपना दम पर समाज मे परिवर्तन अनबाक स्वप्न देखैत अछि। जाहि गहिराइक संग स्त्रीक भूमिका-विधान उषाकिरण रचैत छथि, कूटचालि चलि क' मनुक्ख-मनुक्खक बीच कयल गेल तमाम प्रकारक विभाजन हुनका लग आबि क' निरस्त भ' जाइत छैक। ब्राह्मण सं ल' क' दलित धरि, हिन्दू सं ल' क' मुसलमान धरि, महामहोपाध्याय सं ल' क' मुरुख-चपाट धरि-- एकटा सूत्र अछि जे स्त्रीक गरिमा आ भूमिका कें बेस समरूप क' क' आंकैत अछि। हुनकर बहुतो पाठक एहन भेटताह जिनका हुनकर स्त्री-पात्र सब मे हसीना सब सं बेसी दीप्तिमती देखार पड़ैत छनि, आ ओ 'हसीना मंजिल' कें हुनकर सर्वश्रेष्ठ कृति मानैत छथि। जखन कि दोसर दिस देखी तं मैथिली कथा-साहित्य मे संपूर्ण मानवीय गरिमा आ इयत्ताक संग एक तं मुसलमान समाजक आमदे बहुत कम भेलैक अछि, दोसर जतबा भेलो छैक ओहि मे मार्मिकताक अकाल देखल जाइत अछि।


उषा जीक साहित्य मे कोशी कातक प्रकृति भरपूर उतरलनि अछि। नदी कातक, ओहू मे खास क' कोशी-सन नदी कातक प्रकृति, से चाहे जड़ हो चाहे जंगम, ततेक खास अछि जे लगहि के पछबारि पारक गतानुगतिक शास्त्रीय वितंडापूर्ण जीवन-चिन्तन सं एहि ठामक लोक के सर्वथा भिन्न मनोनिर्मिति रचलक। एक बेलौस जीवनपद्धति, परस्पर अन्योन्याश्रित, लोकायतक चिर अनुवर्ती, बात-बात मे जीवन-स्पन्दन सं भरल, आ धाराक विरुद्ध चलबा कें जेना अपन इंस्टिंक्ट जकां धारण कयने। नदी आ ओकरा प्रवाह संग जीवन गुदस्त केनिहार भूमि, ओकर फसिल, जंगल, ओकर जीवजन्तु आ तकरा सभक संग सहअस्तित्व बनौने मनुष्य कतय एकमएक भ' जाइत छैक, अंटकर करब मश्किल अछि। एहि संपूर्ण चराचरक‌ नायिका थिकी कोशी। मिथक छैक जे कोशी संग बियाह करय चलि अबैत छैक रन्नू सरदार-- 'नौ गड़ी सिन्नूर हे कोसिका/ देलियह उझीलि हय/ कोसिका तोरा सं/ कयलियह बियाह हे।' मुदा, एम्हर ई चिरकुमारि कोशी छथि। उषे जीक शब्द मे-- 'रन्नू नौ गाड़ी सिन्नुर खसा क' धार कें बान्हि देलकै। ऐं, ई मजाल! सिन्नुरक बोरा खसा हमरा बियाहि लेत? धार मे जेना कोदारिक सान चढ़ि गेलै,  धरती-पिरथी एक क' देलकै कोसिका। बोराक बोरा सिन्नुर तामसक फेन संग कतबैक बालु पर फेकि देलकै। आइयो कासक जड़ि मे ओ ललका सिनूर सटल छै। रन्नू अपन सन मुंह ल' ठामहि घुरलाह। कोसिका कुमारिये छथि।' कखन आ कतय मिथक जीवन मे आबि शामिल भ' जाएत, कखन कोशीक कथा कोशी-कातक लोकक कथा बनि जाएत, प्रकृति आ मनुष्यक जीवन तेना सहरस छैक जे अनुमान धरि करब कठिन अछि। प्रयोगक लेल प्रयोग के देखाबा मे उषाकिरण कहियो नहि पड़लीह, मुदा हुनकर कथा-साहित्य कें ठेकान सं देखब तं ओतय प्रयोग सभक विशाल चित्रशाला देखार पड़त। बहुतो ठाम देखबै जे प्रत्यक्ष भ' क' कोशी कतहु नहि अयलीह अछि, एतय धरि जे हुनकर कोनो आनो उपादान धरि नहि, मुदा ओहू ठाम साफ देखार पड़त जे पृष्ठभूमि मे एकटा कोनो धुन बाजि रहल छैक जे कोशीक अप्पन प्रकृतिक धुन थिक। ओहू कथा (अजनास) मे जे रन्नूक खसाओल सिनूर कें कोसिका काछि क' फेकि दैत छथि, ई नहि बूझब जे ओ निज कोसिके थिकी, ओ थिकी विधायक जीक बेटी अजनास जे मुख्यमंत्रीक भातिजक संग आएल विवाह-प्रस्ताव कें नासकार करैत छैक।


उषाकिरणक सौभाग्य रहलनि जे हुनकर नेनपन धुर कोसिकन्हाक एक गाम मे बितलनि, सर्वजातीय सर्वधार्मिक सर्वसाम्प्रदायिक जीवन-संगति मे, आ पुरुषार्थ हुनकर ई रहलनि जे कतबो आगू बढ़ि गेली मुदा आत्मा मे बसल ओहि गाम संग नाता नहि कहियो तोड़लनि। पिता पुरान गांधीवादी, आदर्श समदर्शी, वास्तव के समाजसेवी रहथिन, जनिकर संस्कार सं उषा जीक मानस निर्मित भेल, आ से सब दिन हुनका आंखिक सोझा जीवन्त, प्राणवन्त बनल रहल। मैथिली के तं ओना अंगने कते टाक?  जतबा छैहो, ताहू मे पछबारि पारक गतानुगतिक पंडी जी लोकनि रौरव नरक के दृश्य कें सजीव बनेबा मे अपस्यांत पाओल जाइत रहलाह अछि। एहना मे उषाकिरणक लेखनक समावेशी स्वभाव के खास महत्व अछि।


उषा जीक असल मेधा मुदा, उद्घाटित होइत देखाइत अछि हमरा तैखन, जखन एहि एकैसम सदीक उग्र स्त्रीवादी लोकनि स्त्री-यौनिकताक स्वातंत्र्यक हंगामा ठाढ़ कयने रहैत छथि, आ ई उषाकिरण खान अपन स्वस्थिरचित्त आ मन्द्र वाणी सं स्त्रीक ओहि स्वयम्भू गरिमा आ दायित्वक पक्ष मे अविचल बनल रहैत छथि, जे एहि समुच्चा प्रकृतिक संचालिका थिकी। कते आश्वस्तिक बात थिक जे ई वाणी कोशीक वाणी थिक!

होना देवशंकर नवीन के संग-साथ



तारानंद वियोगी


नवीन से दोस्ती के अब चालीस साल पार हो चुके हैं। यह यात्रा इतनी लंबी है, और समय इस बीच इतनी तेजी से बदलता चला गया है कि कई बार लगता है, वह सब जैसे युगों पुरानी बात हो।

            मेरे गांव महिषी में नवीन का ननिहाल है। उसकी जैसी मां थीं प्रेममयी, भावमयी, इतनी भोली कि पराया कोई लगे ही न। वह मानो कोशी-किनारे की जंगम पैदाइश थीं। उसके नाना और मेरे पिता दोनों ही अपने जमाने के बहादुरों के बहादुर गिने जाते। कहते हैं, हैजे की महामारी जब चली थी, एक मुरदे को जबतक जला आए, पता चला, कोई फिर मर गया है। कई-कई दिनों तक अनथक अविरल दाहसंस्कार करनेवाले सामाजिकों में वे थे, जबकि हमने इस कोरोना-युग में देख ही लिया है कि अपना जनमाया बच्चा भी ऐसे वक्त में कैसे विराना हो जाता है।  वह भूपी झा(नवीन के नाना) और मेरे पिता बद्री महतो ही थे, जिन्होंने उन्हीं महामारी के दिनों में यह बड़ा फैसला लिया था कि गांव के पूर्वी किनारे बहनेवाली नदी के पार, जो तब श्मसान-भूमि के रूप में ही प्रसिद्ध थी, घर बनाकर बसने का तय किया था। पहले दोनों एक टोले के थे, अब इधर आकर पड़ोसी हो गये। यही श्मसानभूमि का इलाका है, जहां तारा का मंदिर है, जिनके बारे में राजकमल चौधरी ने कविता लिखी थी कि तेरह हजार बरस पहले मेरुदंड पर्वत की काली चट्टानों से तराशकर निकाली गयी तेरह साल की लड़की हैं वह, जो उनके लिए न उग्र है न तारा है, बस उग्रतारा है। और, यही वह डीह है जहां सदियों पहले पलिवार महिषी मूल के आदि वाशिंदा ब्राह्मण निवास करते थे। यह वही कुल था जिसमें बाद को डा. सर गंगानाथ झा और उनके कृतकार्य पुत्रों--अमरनाथ झा, आदित्यनाथ झा वगैरह हुए। इस वंश की मूल वासभूमि यही जगह थी जो अब श्मसानभूमि के रूप में परिणत थी। काल भी कैसे-कैसे करतब दिखाता है! हम बड़े गर्व कहते, और स्वयं नवीन भी कि पलिवार महिषी कुल का जो मात्र एक घर ब्राह्मण इस गांव में बचा रह गया था, वह नवीन के नाना भूपेन्द्र उर्फ भूपी झा थे। बचपन से ही नवीन का यहां आना-जाना बना रहा। नवीन की परवरिश में सारा का सारा मोहनपुर ही नहीं था, उसमें महिषी भी बहुत गहराई तक पैठी थी।

            मुझसे नवीन की दोस्ती हुई, इसके कई बरस पहले मेरे पिता के साथ उसकी दोस्ती हो चुकी थी। बात यह थी कि नवीन का गांव मोहनपुर मेरी बुआ की ससुराल थी। पिता कभी-कभार अपनी बहन के घर आया-जाया करते। ऐसा ही एक अवसर था जब वे मोहनपुर से महिषी लौट रहे थे। पांव-पैदल। रास्ते में उन्हें एक लड़का मिला जो मस्त होकर गाना गाते बढ़ता चला जा रहा था। यह नवीन था। परिचय हुआ तो वह उनके मित्र का नाती निकला, जो ननिहाल के सफर पर था। पिता बताते थे, उस दिन दो घटनाएं हुईं। एक तो यह कि रास्ते में एक बैलगाड़ी वाला इधर ही चला आ रहा था। पिता ने गाड़ीवान से आग्रह किया कि इस बच्चे को बिठा लीजिये। नवीन गाड़ी पर जा बैठे और गाना गाकर सुनाते रास्ता कटा। दूसरी घटना जो हुई उसकी पृष्ठभूमि बताना जरूरी होगा। मैं जब आठवीं कक्षा में पढ़ता था, अपने एक ग्रामीण कवि की देखादेखी फिल्मी धुनों की पैरोडी पर तारा की स्तुति के गीत लिखने लगा था। थोड़े ही दिनो में वे गीत इतने लोकप्रिय हुए कि गांव की हर कीर्तनमंडली में गाये जाने लगे। फिर यह हुआ कि हमारे सहपाठियों ने आपस में चंदा करके सोलह गीतों की एक पुस्तिका छपवा दी। मेरे पिता न के बराबर पढ़े-लिखे थे लेकिन लिखा-पढ़ी के काम के प्रति उनके मन में इतना सम्मान था कि यह आश्चर्य करने-जैसी बात लगती थी। किसी का बेटा हाइस्कूल की उमर में कविताई करने लगे तो आम तौर पर यह पिता के लिए दुख मानने की बात हुआ करती थी। मेरे पिता के साथ इसके बिलकुल उलट बात थी। मेरे गीत छपने से वह अपने को गौरवान्वित महसूस करने लगे थे। और उस पुस्तिका की कुछ प्रतियां तो हमेशा अपने साथ लेकर चलते थे। उस दिन भी उनकी जेब में वह थी। उन्होंने नवीन से कहा-- आप गाना अच्छा गाते हैं विद्यार्थी। इसमें से किसी गीत को गाइये। और, यह गायन रास्ते भर होता चला। बैलगाड़ी पर बैठे बालक नवीन, और गाड़ी के पीछे-पीछे पैदल चलते मेरे पिता। (नवीन को वह सदा 'नवीन बाबू' बुलाते थे।)  नवीन को तो ये दोनों प्रसंग याद हैं ही, संयोग की बात कि जिस दिन पिता यह कहानी मुझे और मयंक को सुना रहे थे, हम टेपरिकार्डर पर इसे रिकार्ड कर रहे थे। अब भी मेरे पास उनकी, मां की भी, आवाजें हैं, मेरी बड़ी-बड़ी दौलतों में वे एक हैं।

            इसके बरसों बाद, सहरसा में आयोजित विद्यापति-पर्व का अवसर था जब हम पहली बार मिले थे। सहज और स्वाभाविक मैत्री उभर आई थी। हम एक जैसे संघर्षशील थे, एक जैसे कोशी की गीली पांक को आत्मा में धारण किये दुनिया भर घूम‌ आने का ख्वाब देखते थे। नवीन उन दिनों सहरसा कालेज में एम.ए.(मैथिली) कर रहे थे, और मैं महिषी के संस्कृत कालेज में शास्त्री का विद्यार्थी था। उन दिनों के जो एपिसोड्स थे, मैंने तो कहीं-कहीं लिखा भी है, पूरी कहानी बयान की जाए तो एक मुकम्मल किताब बनेगी। राजकमल चौधरी की खोज, महीनों महीना राजकमल की स्मृति के तरंगों को ढ़ूंढ़ते, लिपिबद्ध करते, आम लोगों तक उसकी खुशबू पहुंचाने के आयोजन करते, पत्रिकाओं के विशेषांक प्रायोजित करते, प्रकाशकों की खोज करते-- इन सब की एक लंबी शृंखला है। कमाल यह था कि व्यक्तिगत रूप से हम दोनों ही उन दिनों साधनहीन थे। पास में जो पूंजी थी, वह केवल मन का उत्साह और तन का परिश्रम ही था। 

            सहरसा हमारा जिला मुख्यालय था। वहां साहित्य के कई दिग्गज बसते थे लेकिन साहित्यिक गतिविधियां शून्य के करीब थीं। हमने तमाम अग्रजों को साथ जोड़ा। उनमें एक ओर मायानंद मिश्र, महाप्रकाश, सुभाष चन्द्र यादव थे, तो दूसरी ओर गीतकार नवल, रामचैतन्य धीरज, शेखर कुमार झा वगैरह भी थे। इस अनौपचारिक मंच का नाम 'अनवरत' था, जिसके लिए नवल ने यह गीत लिखा था-- 'नगर-नगर, गाम-गाम, गली ओ गली/ अनवरत के लेल हम तं अनवरत चली।' तब हम तीन हुआ करते थे, हमदोनों के अतिरिक्त मेरा लंगोटिया दोस्त मयंक मिश्र, जिससे नवीन की कभी न पटी। लेकिन हां, हमारी गतिकी पर इसका कभी असर भी न पड़ा। मयंक मुझे साइकिल पर लादकर महिषी से लाता, सारी गतिविधियां करके वापस हम महिषी लौट जाते, कभी-कभी तो रात के दो बजे। शेखर झा के डेरे पर महीनों साथ रहकर छेदी झा द्विजवर पर रिसर्च करने का भी एक रोचक अध्याय है। कभी-कभी जो अति रोचक घटनाएं घटीं, जैसे एक उस रात तय करके हमलोग मायानंद मिश्र के गीत-गजल रिकार्ड करने बैठे। ओह, पता भी न चला कि वह समूची रात किस तरह बीत गयी थी। पीने-पिलाने का सिलसिला चलता रहा था और सारी रात माया बाबू अपने गीत-गजल गाते रहे। उस गोष्ठी में महाप्रकाश थे हमारे साथ, और शशिकान्त वर्मा भी, सतीश वर्मा के पिता। उस रात के फोटोग्राफ्स तो मुझे याद आते हैं, लेकिन कैसेट? वह शायद मैंने केदार(कानन) को दिया था।

            केदार हमारी मित्रमंडली के सबसे मजबूत स्तम्भ थे। और, इस वजह से सुपौल हमारी दूसरी राजधानी। चौथे दोस्त के रूप में आगे प्रदीप बिहारी का आगमन हुआ तो हमने बाकायदा 'चतुरंग' की घोषणा कर दी। प्रदीप ने इतिहास के इस अध्याय को यूं अविस्मरणीय बना दिया कि अपने प्रकाशन का नाम ही चतुरंग प्रकाशन रख लिया। नवलेखन को मैथिली साहित्य के इतिहास में प्रतिष्ठापित करने का तब हमारा जुनून ऐसा था कि 'चतुरंग' का लक्ष्य-वाक्य मैंने इस तरह लिखा था-- 'साजि चतुरंग सैन, जंग जीतन कें चलल छी'।और जानते हैं, इस प्रकाशन की पहली किताब कौन-सी थी? वह मेरी गजलों किताब 'अपन युद्धक साक्ष्य' थी। उस किताब की छपाई में हम सब ने जो पापड़ बेले थे, ओह, आज वे कितने स्वादिष्ट लगते हैं! 

            दरभंगा से साहित्याचार्य की पढ़ाई पूरी कर जब मैं पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. करने पहुंचा, तबतक नवीन डालटनगंज के एक कालेज में प्राध्यापक लग गये थे। बिहार तब एक था और पटना से डालटनगंज को पलामू एक्सप्रेस जोड़ता था। अब होने यह लगा कि पांच दिन वहां रहकर नवीन हर शनिवार को पटना आ जाता और सप्ताहान्त हम साथ बिताते थे। वह नवीन की सृजनशीलता के उन्मेष का दौर था। समूचे मैथिली-संसार में तबतक 'योजना-मास्टर' के रूप में मेरी प्रसिद्धि हो चुकी थी। जब भी हम मित्रगण मिलते, हमेशा नयी-नयी योजनाएं बनतीं और उन्हें कार्यरूप देने में हम जुट जाते। सच कहा जाए तो अपने होने और लिखने से जितना जो कुछ मैं समकालीन मैथिली साहित्य को प्रभावित कर पाया, वह सब इन्हीं योजनाओं में से पांच प्रतिशत अंश का प्रसाद था। यही वह दौर था जब बाबा नागार्जुन पटना में, मेरे बगलवाले मकान (हरिहर प्रसाद जी के आवास) में ठहरे हुए थे। इसकी समूची कथा 'तुमि चिर सारथि' में आ चुकी है। नवीन के लेखन की गति तब इतनी तेज थी कि जितना लोग महीनों में न लिख पाएं उतना वह पांच दिन में लिख जाता था। वह लगभग उन सभी विधाओं में काम कर रहा था, जिनमें मैंने किया था। कई विधाएं तो प्रकृति से ही विद्रोहात्मक थीं। जैसे मैथिली में गजलें। लघुकथाएं। एक-से-एक सुंदर गजलें और लघुकथाएं नवीन ने उन दिनों लिखी थीं और हलचल मचा दिया था।  आलोचना भी उनमें एक विधा थी लेकिन उसके यहां मुख्य स्थान कविता को प्राप्त था। एक शनिवार की वह सुबह भुलाये नहीं भूलती कि जब मेरे कमरे में चारों तरफ नवीन की नयी रचनाएं पसरी थीं और वह तल्लीन होकर मुझे सुना रहा था कि इसी बीच लाठी ठकठकाते बाबा आ धमके। कविताएं चल रही हैं, यह जानकर उनका मूड बन गया। नवीन से कहा-- सुनाइये कविताएं। कितनी बड़ी बात थी! कविता का शीर्ष एक नवोदित कवि को उसकी कविताओं के लिए आमंत्रित कर रहा था। नवीन यदि सचमुच के नवोदित होते तो कोई मुश्किल नहीं थी, झटपट सुना डालते। मगर, वह मेरा मुंह ताकने लगे। जितनी मैंने अबतक सुनी थी, अपने जानते बेस्ट की उन्हें याद दिलाई और संकोच से भरे नवीन ने वह कविता बाबा को सुनाई। इसके बाद जो हुआ था, सारथि पढ़ चुका हर पाठक जानता है। घंटों तक बाबा उस कविता की व्याख्या करते रहे, किस तरह कोई एक अच्छी कविता लिख सकता है, इसके सारे सूत्र बाबा ने उसी कविता से निकालने शुरू किये। जाहिर है, उसमें आलोचना ही अधिक थी, लेकिन यह एक ऐसा सुअवसर था जो हमें या हमारे मित्रों में केवल नवीन को नसीब हुआ था। हां, बाद को जब हमने 'श्वेतपत्र' छापा तो बाबा ने प्रदीप बिहारी की कहानी पढ़ी थी और उसकी पीठ ठोकते हुए यह कहा था कि यह मैथिली कहानी में विश्वशिशु की पैदाइश है।

            यहां एक-दो बातें और न कह दी जाएं तो हमारे उन दिनों का स्वभाव पूरा खुलेगा नहीं। बड़े-बड़े महापुरुष ही जो काम कभी अतीत में कर पाये थे, हमने अपनी तरुणाई में ही उसे कर दिखाया था। यह था-- संप्रदाय की स्थापना। हमारे संप्रदाय का नाम 'कलाकार संप्रदाय' था। कलाकार से यह न समझियेगा कि तबला-हारमोनियम या रंग-कूचियों से हमारा कोई वास्ता था। ग्रामीण रंगमंचों पर तरह-तरह के पार्ट हमने खेले थे जरूर, लेकिन यहां वह भी नहीं था। कला यानी कि खुशनुमा जीवन की कला। तमाम अभावों, अनीतियों, संघर्षों के बावजूद। जाहिर है, इस संप्रदाय में जाति-धर्म जैसे परंपरित ढकोसलों की कोई जगह न थी। आपस में या अन्यों के साथ भी हम अक्सर ऐसे करतब करते रहते कि सारी उदासीनता दूर हो जाए और आदमी हंस पड़े, संलग्न हो जाए। इस संप्रदाय के एक मजबूत स्तम्भ हमारे प्राचीन मित्र आशुतोष झा थे। और मयंक मिश्र तो थे ही। हुआ क्या कि आजीवन कलाकारी करते-करते जबतक मैं पटना वि. वि. से एम.ए. करूं तबतक आशुतोष की नौकरी हाइस्कूल में लग गयी। उनकी पहली और अंतिम भी, पोस्टिंग गढ़वा में हुई जो डालटनगंज का पड़ोसी शहर है। अब ये दोनों कलाकार साथ हो गये। नवीन की प्राथमिकता साहित्य थी, जिसके कारण हफ्ते-हफ्ते वह पटना आता। ऐसा कुछ आशुतोष के साथ नहीं था। पर, छुट्टियां जब होतीं, जैसे गरमियों की, तो दोनों साथ ही गांव आते थे।

            एक बार का वाकया है कि दोनों ने पटना आकर सहरसा की ट्रेन पकड़ी। छोटी लाइन की उन रेलों में सहरसा-रूट में जिन लोगों ने यात्राएं की होंगी, केवल वही बता सकते हैं कि भेड़-बकरियों की तरह ठूंसना किसे कहते हैं और यह भी कि लाठी-बल के सामने बाकी सभी संस्थाएं और कानून किस तरह ध्वस्त हो जाते हैं यह केवल आज की सचाई नहीं हो सकती है। तो, रास्ते में आशुतोष ने दर्जन-भर केले खरीदे तो नवीन को एक नयी कलाकारी सूझ गयी। उसने आशुतोष का रुमाल मांगा। मिस पड़ती भीड़ में भी अगर कोई अर्जेन्ट सिचुएशन आ जाए तो रेल के यात्री परस्पर मिलकर जगह बना ही देते हैं। नवीन ने ऐसा माहौल बनाया कि आस-पास बैठे यात्री जरा-जरा खिसक गये और रुमाल को नवीन ने सीट पर फैला दिया। किसी की समझ में कुछ न आया। आगे यह हुआ कि दोनों केले खाने लगे और नवीन छिलकों को रुमाल पर जमा करता रहा। बात कुछ जरूर है लेकिन वह क्या बात है, यह आशुतोष भी न समझ पाये और अपने रुमाल की दशा पर खिन्न बने रहे। सारे केले जब खत्म हुए, नवीन ने रुमाल को बांधकर पोटली बना ली। आस-पास के तमाम यात्रियों के लिए यह दृश्य आकर्षण का केन्द्र था। सोच रहे होंगे कि जरूर कोई विशेष गुण है छिलके का, लेकिन यह तो देख लिया जाए कि आगे ये बन्धु करते क्या हैं तब पूछा जाएगा। पैकिंग की कला में नवीन यूं भी उस्ताद है। रुमाल की पैकिंग उसने जिस तरह की उसका भी अपना एक आकर्षण था। जब वह पोटली को अपने बैग के अंदर रखने लगा तो आशुतोष का धैर्य जवाब दे गया। उसने पूछा-- यह क्या? नवीन ने अपनी आवाज में अतिरिक्त गंभीरता भरकर उत्तर दिया-- अरे कुछ नहीं, तारानंद की बकरी के लिए ले जा रहा हूं। तारानंद कौन है, उस डिब्बे में किसी को पता नहीं था, लेकिन सबकी हंसी छूट गयी। आशुतोष का तो हंसते-हंसते बुरा हाल था। बात केवल इतनी थी कि गांव में मेरी मां एक दुधारू बकरी पालती थी और चाय हम उसी के दूध की पीते थे।

            नवीन ने अपने जीवन का सफर जिस तरह पूरा किया है, जो भी मुकाम पाया है, सारा का सारा उसका खुद का अरजा है। उसके सारे काम, सारी उपलब्धियां जैसे खुद के भीतर की पुकार है, जिसे उसने कार्यरूप दिया। उसकी अपनी कुछ समझदारियां रही हैं। पैसे का उपयोग बहुत सोच-समझकर ही करेगा। नयी पीढ़ी को कभी सिर नहीं चढ़ाएगा, औकात में रखेगा। स्त्री को उत्साह में आकर ही सही, कभी बराबरी का मान दे दे, इसमें सदा सावधानी बरतेगा। गैरजरूरी लोगों से, मुद्दों से सदा परहेज रखेगा। उसके लिए काम प्यारा है चाम नहीं। जिन दोस्तों से वास्ता रखेगा उसके परिवार-भर से जुड़ा रहेगा। साहित्य से हमेशा बड़ा उसने जीवन को माना है, इसलिए सम्बन्ध का निर्वाह कोई उससे सीखे। यह सब चीजें उस भूमि, उस पर्यावरण, अभाव-अभियोग के उन अध्यायों की देन है, जिसने हमेशा नवीन को ऊर्जा से लवरेज रखा है। 

            उसकी जीवनकथा बहुत कुछ इस शेर के तर्ज पर चलती है कि 'मंजिल तो खैर कब थी हमारे नसीब में/ जो मंजिल पर पहुंचे तो मंजिल बढ़ा ली।' लेकिन, आगे वह दिल्ली गया तो दिल्ली का ही होकर रह गया, जैसे तारकोल की पांक में जाकर कोई फंस गया हो। आगे गांव-घर से, मिथिला से, मिथिला के आमजन और बौद्धिकों से उसकी अनगिन शिकायतें रहीं जो समय के साथ बढ़ती ही गयीं। इसके वाजिब कारण भी थे, इसे मुझसे ज्यादा कौन समझ सकता है? लेकिन कहना होगा कि इन शिकायतों ने बाद में परायेपन की एक ठोस शक्ल ले ली। अपनी पसंद के लोगों से जुड़ा रहा वह जरूर, लेकिन उसी तरह जैसे कर्नाटक या आस्ट्रेलिया के मित्रों से जुड़ा रहा। मिथिला के लिए मैं इसे एक बड़ी दुर्घटना मानता हूं और पाता हूं कि इसमें दोष जितना मिथिला का था उससे कहीं ज्यादा दिल्ली का और नवीन की महत्वाकांक्षाओं का था। जो भूमि खुद ही अबतक सामंती मठाधीशों से पददलित कराहती रही है, उसे किसी सृजेता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का अवकाश कहां मयस्सर होगा! कहना होगा कि दिल्ली ने मिथिला के इस सपूत को उपलब्धियां भले जितनी दी हो, उसके भीतर की सुंदरता छीन ली, उसे खराब किया।

            मैथिली में नवीन ने बहुत काम किया है, अनेक विधाओं में। उसका मूल्यांकन अबतक कायदे से हो नहीं सका है। यह मैथिली का दुर्भाग्य है कि उससे भी सीनियर, उससे भी बड़े लेखकों का मूल्यांकन नहीं हो सका है। नवीन ने अपने सृजनात्मक लेखन में हाशिये के लोगों का संघर्ष उठाया है। उसकी कथाएं और लघुकथाएं संभ्रान्त समाज पर एक करारा तमाचा हैं। उसकी कविताएं और गजलें उम्मीद की लौ जगानेवाली रचनाएं हैं। पीढ़ियों तक ये कृतियां संघर्षशील युवाओं के काम आएंगीं। वह ताउम्र बाबा नागार्जुन से जुड़ा रहा और अपने लेखन से उनके किये काम को विस्तार देता रहा।

             उसकी रचनात्मक जिद बहुत बलशाली है। कुछ तय कर ले तो कठोर परिश्रम तबतक जारी रख सकता है जबतक उसकी जिद ठोस आकार न ले ले। राजकमल चौधरी पर किया गया उसका काम इसी का प्रतिफल है, वरना उससे पहले कई वीर आए और थककर छोड़ भागे थे। इस चीज ने जरूर उसे अकेला बनाया है। सृजन का हर पथिक एक पड़ाव पर आकर अकेला हो ही जाता है, स्वयं राजकमल यह बात कह गये हैं। मैं अपने इस दोस्त के इसी अकेलेपन को प्यार करता हूं। मुलाकातें तो अब बेहद कम हो गयी हैं लेकिन जब भी हम मिलते हैं, बीच के चालीस साल को चीरकर ठीक उसी जगह आ जमने में पल भर भी नहीं लगता।

Sunday, September 18, 2022

इन्टरव्यू:: भारतीय साहित्य बीच मैथिली साहित्य (संजीव सिन्हा संग तारानंद वियोगीक वार्ता)




*संजीव सिन्हा--भारतीय साहित्य मे मैथिली साहित्यक कतेक प्रतिष्ठा अछि?

• ता न वि--जकरा पंडीजी लोकनि मैथिली साहित्य कहै छथिन, आ जकरा पुरस्कार-प्रतिष्ठान सब पुरस्कृत करैत अछि, आ जकरा प्रोमोट करबा लेल विश्वविद्यालय सब, मैथिली प्रतिष्ठान सब हलकान रहै छथि, ताहि मैथिली साहित्यक कोनो प्रतिष्ठा नहि अछि। उनटे निन्दा होइत अछि। नियमसंगत बात छै जे जकरा अहां पुरस्कृत करबै ओकरे अनुवाद भ' क' बाहर जाएत आ ओही पर प्रतिष्ठा-अप्रतिष्ठा निर्भर करत।

        हिन्दी आलोचक नंदकिशोर नवल जखन पछिला दशक मे एकठाम लिखलनि जे मैथिली मे एखनो महाकाव्ये युग चलि रहल अछि तं मैथिल लोकनि हुनका भरि पोख गरियेलखिन। जखन कि तथ्य की अछि? डा. भीमनाथ झाक आकलन छनि जे दस बरस मे मैथिली मे बीस टा महाकाव्य छपि रहल अछि। दोसर दिस, हमर महान आलोचक रमानाथ झाक मान्यता रहलनि जे मैथिली मे प्राचीन काल सं आइ धरि दुइये टा युग भेल-- विद्यापति सं हर्षनाथ झा धरि कृष्णयुग, आ चंदा झा सं आइ धरि रामयुग। एहि सौ बरस मे दुनिया कते बदलि गेल आ मैथिली जं आइयो एही ठाम अछि तं भला एकर की प्रतिष्ठा भ' सकै छै?

           मुदा दोसर दिस, जाहि रचनाकार लोकनि कें पंडीजी सब गरियाबै छथिन, जिनका लेल ने कोनो पुरस्कार अछि ने कोनो प्रतिष्ठान, विना कोनो प्रोत्साहनक कोना आ किएक ई लेखक लोकनि आइयो मैथिली मे लिखि रहल छथि अन्त:प्रेरणा कें छोड़ि दी, तं एकर जवाबो ताकब रहस्यमय लागत-- भारतीय साहित्य मे जं आइ मैथिलीक कोनो प्रतिष्ठा अछि तं से एहने लेखक सभक दुआरे अछि। यात्री जी, राजकमल चौधरी, धूमकेतु, कुलानंद मिश्र सं ल' क' सुभाष चंद्र यादव धरि आ हुनका बादो ई क्रम जारी अछि। हमरा सदति आश्चर्य लगैत रहल अछि जे हरेक पीढ़ीक संग एहि कोटिक दू-चारि गोट लेखक आइयो मैथिली मे कोना, कोन प्रभाववश चलि अबैत छथि! एकरा अहां मैथिली साहित्यक सौभाग्य कहि सकै छियै।


*संजीव सिन्हा--एखन मैथिली साहित्यक केहन परिदृश्य अछि?

• ता न वि--गुहमा-गीज मचल अछि। मैथिली साहित्यक स्तर कें अठारहम शताब्दीक राजदरबार मे लिखल जाय बला साहित्यक रूप मे ढालबाक सघन प्रयास चलि रहल छै। नेतृत्व एहन लोकक हाथ मे छै जे साहित्यक सी अक्षर नहि बुझैत अछि मुदा समस्त सम्मान अरजि क' मठाधीश बनल अछि। मिथिलाराज, जे कि एखन नहि भेटल अछि, तकरा लेल युवावर्ग आंदोलित छथि, मुदा विश्वविद्यालय कि प्रतिष्ठान, जे कि पहिनहि सं मैथिली कें भेटल अछि, तकर वर्चस्ववादी धतकरम स्वयं मिथिलेक लोक कें एहि सभक प्रति निस्पृह आ निरपेक्ष बना रहल अछि। युवावर्गक ध्यान एम्हर नहि जाइए तं की एकर अर्थ ई नहि भेल जे हिनका सब कें जं मौका भेटि जाय, तं इहो सब सैह करता?

            जेना कि हम पहिने कहलहुं, अपन अंत:प्रेरणा सं आ अपन भाषा-भूमिक नेहवश जे प्रतिभाशाली लोक सब एकान्तवास क' साहित्यसृजन मे लागल छथि, मैथिली साहित्यक समुच्चा भविष्य हुनके सब पर टिकल अछि। मुदा परिदृश्य पर हुनकर कोनो पकड़, कोनो नियंत्रण नहि अछि। जिनकर नियंत्रण छनि हुनका ने मिथिला सं कोनो मोह छनि ने मैथिलीक प्रति कोनो ममता। अर्धमृत मैथिलीक मासु नोचि-नोचि कांच चिबेनिहार ई लोकनि अपन लाभ-लोभ छोड़ि आर कथूक चिन्ता नहि करैत छथि। कइये नहि सकै छथि।


*संजीव सिन्हा--मैथिली साहित्य मे कोन-कोन वाद, विमर्श, आंदोलन चलल अछि? संप्रति कोन साहित्यिक प्रवृत्तिक प्रधानता अछि?

ता न वि.--इतिहासकार सभक संकीर्णता सं बाहर आबि क' जं बात करी तं मैथिली साहित्य मे कुल्लम दुइये प्रकारक वाद चलल अछि-- प्राचीनतावाद आ आधुनिकतावाद।

       प्राचीनतावादक की अर्थ अछि? सनातन धर्मक कर्मकांडी स्कूलक मान्यताक पृष्ठपोषण। हम सब जनै छी जे सनातन धर्म मे बहुतो संप्रदाय अछि, वैष्णव संप्रदाय सेहो अछि, मुदा मैथिलीक प्राचीनतावाद मे एकरा प्रति घोर घृणा देखबै। आश्चर्यक बात ई अछि जे बारह सौ बरस पुरान अपन मैथिली साहित्यक परंपरा मे उत्स अहां कें आधुनिकतावादक भेटत, प्राचीनतावादक नहि। संसार भरिक अध्येता सब कैक अर्थ मे स्वयं विद्यापति कें आधुनिक माने छथि। दोसर दिस, मैथिली मे लेखनक जे आविष्कार भेल छल सैह संस्कृतक प्रतिरोध मे शूद्र वर्गक द्वारा भेल छल। छंद मे कविता लिखब मैथिलीक काव्य-परंपरा मे कहियो मान्य नहि रहल, राग-ताल-लय मे सं कोनो एक वा दू वा तीनू सब दिन मान्य रहलै। मैथिली जहिया सं वर्चस्ववादी लोकनिक शिकार भेल तहिये सं, उनैसम शताब्दीक अंत सं, एहि मे छंदक चलाचलती भेल। आइ जे ब्लैंक वर्स मे कविता लिखल जा रहल रहल अछि तकर परंपरा अहां ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकर मे पाबि सकै छी। प्रसंगवश कहि दी जे वर्णरत्नाकर एक काव्यपुस्तक छी आ स्वयं ज्योतिरीश्वरो एकरा काव्ये कहने छथि।

         आधुनिकताक प्रसार-क्रम मे अनेक आन्दोलन समय-समय पर चलैत रहल अछि। बीसम शताब्दीक आरंभिक बेला कें मोन पाड़ियौ। अंग्रेज हिन्दू-मुसलमान मे विभाजन पैदा करबाक लेल फारसीक स्थान पर हिन्दी कें प्रश्रय देलक आ मिथिलानरेश तं अंग्रेजक सदा सं अनुगामी चाकर, तें तहिया मैथिली साहित्य मे राष्ट्रीय चेतनाक कविता लिखब, मिथिला आ मैथिली कें विकसित करबाक स्वप्न देखब एक आन्दोलन छल। सामाजिक सड़ांध के प्रतिकार मे हरिमोहन झाक कन्यादान वा खट्टर काकाक तरंग कि यात्री जीक पारो आधुनिक मनोनिर्माणक दिशा मे मैथिली साहित्यक सर्वाधिक प्रभावी आन्दोलन छल। मैथिली साहित्यक प्रधान विधा सब दिन सं कविता रहल अछि। कविताक सीमा सब कें तोड़बाक, ओकरा आर अधिक अन्तर्गामी, आर अधिक यथार्थमुखी बनेबाक दिशा मे राजकमल आ हुनकर साथी कवि सभक आन्दोलन एक दिशानियामक अवदान साबित भेल। कविता लेल अबल-निबल लोकक पक्ष मे ठाढ़ हेबाक जे प्रतिश्रुति छै, तकर प्रतिष्ठापन लेल जं एक दिस यात्री जीक चलाओल काव्यान्दोलनक महत्व अछि तं दोसर दिस अग्निजीवी आन्दोलनक सेहो कम नहि, जकर सर्वश्रेष्ठ परिणाम हमरा लोकनि हरे कृष्ण झाक कविता मे पबैत छी।

         मैथिली साहित्य मे समकालीन विमर्श मुख्यत: दूटा प्रभावी रूप सं हस्तक्षेपकारी साबित भेल अछि-- स्त्री-विमर्श आ दलित-विमर्श। आइ एही दुनू विमर्शक रचनाशीलता सर्वाधिक प्राणवन्त, सर्वाधिक ध्यानाकर्षक रूप मे सामने आबि रहल अछि।

         

*संजीव सिन्हा--मैथिली साहित्यक समक्ष की समस्या-चुनौती अछि?

ता. न वि-- सब सं पैघ तं यैह अछि जे प्रतिभाशाली रचनाकार सभक आत्म-बलिदानी पीढ़ी आगुओ एतय कोना जनमैत रहय। एकरा लेल कोनो कतहु माहौल नहि अछि। हमर भरोस एखनहु धरि मरल नहि अछि जे वर्चस्वी लोकनिक क्षुद्र स्वार्थक दबोच सं कहियो मैथिली साहित्य मुक्त हेतै आ एहि अनागत प्रतिभा सभक लेल एतहु एक स्वस्थ पर्यावरण बनतै।

            चुनौती अछि जे एहन साहित्य मिथिला मे लिखल जाय जकर धमक विश्व भरि मे सुनाइ पड़ि सकै। चुनौती अछि जे जाहि हिसाबें नव-नव रचना-प्रवृत्ति सब मैथिली मे विकसित भ' रहल छै, तकरा देखबाक आंखि पहिने तं आलोचक लोकनि मे तखन पाठक लोकनि मे विकसित भ' सकै।

            चुनौती अछि जे श्रेष्ठ साहित्य लिखबाक अभीप्सा राखनिहार युवा लोकनि कोना पुरस्कारक मोह सं बचल रहि सकथि आ एकरे बहुत मानथि जे एहनो अंधकारकाल मे ओ साहित्यक साधना लेल जीवनक महत्वपूर्ण समय खर्च क' पाबि रहल छथि। समय चूंकि सर्वथा विपरीत छै तें मैथिली साहित्यक स्तर, जतय धरि कि आइ ई पहुंचि चुकल अछि, एकरा जीवित बनौने राखिये सकब सब सं पैघ चुनौती छै।


*संजीव सिन्हा--मिथिलाक अन्य भाषा- अंगिका, बज्जिकाक लेखक सँ मैथिली लेखकक संवाद केहन अछि?

• तान वि--कोनो संवाद नहि अछि। अथवा कहू जे घृणा करबाक सम्बन्ध अछि, मानू शुतुरमुर्ग आंखि बन्न क' लेत तं संकट टलि जेतै। रामदेव भावुक आखिरी कवि छला जे अइ पार-ओइ पारक बीच एक पुल छला। आइ समस्त पुल तोड़ल जा चुकल अछि। जेना बेंगक लेल ओकर संपूर्ण संसार इनारे होइ छै तहिना आइ मैथिल लोकनिक लेल संपूर्ण संसार दू जिला-- दरभंगा आ मधुबनी अछि। हं, मंच पर भाषण देबाक जखन बात रहत, बड़का-बड़का बात सुनबै, जेना हाथीक देखावटी दांत। हमरा भय अछि, मैथिल सभक संकीर्णता कहीं  समस्त भविष्यक बलिदान करैत मैथिलियो कें ओही साहित्यिक स्तर पर ने आनि पटकय जतय आइ अंगिका-वज्जिका अछि। एहिना जं सब किछु दस-बीस बरस चलैत रहल तं से निश्चिते भ' क' रहत। आ अहां भारतीय साहित्य बीच एकर प्रतिष्ठाक बात करै छी?

           प्रसंगवश इहो कहि दी जे अंगिका-वज्जिकाक विभाजन वास्तविकता सं कतहु बेसी मैथिल सभक संकीर्णताक प्रतिरोध छियै। कते आश्चर्यक बात छी जे हम सब आइ ओतय पहुंचि गेल छी जतय आठम-नवम शताब्दी मे संस्कृत छल आ संस्कृतेक प्रतिरोध मे मैथिली साहित्यक जन्म भेल छल। लगभग सैह प्रतिरोध आइ अंगिका वज्जिका दिस सं आबि रहल अछि।


*संजीव सिन्हा--मैथिली साहित्य मे नव लेखक लेल कोन तरहक अवसर आ संभावना अछि?

ता न वि--दू तरहक अवसर छै। एक तं कहुना एकटा किताब छपबा लिय' विना अइ बातक परवाह केने कि ओकर स्तर केहन अछि। तकर बाद, गनल-चुनल लोक छथि जानल-मानल, हुनका सभक सेवा मे लागि जाउ, यथाशक्ति तथाभक्ति। जाहि योग्य सेवा रहत, ताहि अनुपातक कोनो पुरस्कार, सम्मान घीचि आनू। मिथिला मे विद्वान लोकक सदा सं बहुत कदर। विद्वानक पहचान यैह जे अहां कें कोनो पुरस्कार भेटल हुअय। आर नहि किछु तं मिथिला विभूति। एतबे मे अहां अपन पुरखा-पति धरि के आत्मा कें तृप्त क' सकै छियनि, समाज मे आदरणीय स्थान पाबि सकै छी। ई पहिल।

                   दोसर जे अवसर छै ताहि लेल हमरा युवा दलित कवि रामकृष्ण परार्थीक एक कविता मोन पड़ि आएल अछि जतय ओ कहै छथि जे मैथिली लिखबा मे हमरा स्वतंत्रता-संग्राम मे सीधा उतरि लड़बा सन के तृप्ति भेटैत अछि। इतिहास कें मोन पाड़ी। हुनका सब कें की भेटलनि जे स्वतंत्रता लेल लड़ला आ मरला! सोचबा सोचबाक बात छी। अहां कें लागि सकैए जे अरे, इहो कोनो बात भेलै! स्वतंत्रता तं जाइत-अबैत रहै छै। आइ धरिक इतिहास मे कतेको बेर ई देश गुलाम बनल, फेर आजाद भेल, फेर गुलाम बनल। असल चीज छी व्यक्तिगत लाभ, से अहां सोचि सकै छी। तकरो अवसर कम नै छै। प्रतिष्ठान आ विश्वविद्यालय तं पहिनहु सं रहै, आब तं नेतागिरी आ दलाली मे सेहो मैथिली सेवनो सं कोनो कम लाभ नै छै।

Wednesday, September 14, 2022

'गुलो'क अन्तर्कथा आ सुभाष चन्द्र यादव

 


तारानंद वियोगी



          सब गोटे जनैत छी जे 1948 मे जखन यात्री जी सं हुनकर प्रकाशक, मने हिन्दी-प्रकाशक, उपन्यास लिखबाक अनुरोध कयने रहनि, तं यात्री जी जिद पकड़ि लेने रहथि जे ओ उपन्यास तं लिखता जरूर मुदा मैथिली मे लिखता। प्रकाशको हुनकर गद्यकला पर तेहन मुग्ध जे मानि गेल छला आ एहि तरहें आयल रहय 'पारो'। मैथिली मे हेबाक बादो ओकर सबटा प्रति छबे मास मे बिकि गेल रहै से तं एक बात, पैघ बात ई जे मैथिली उपन्यासक नियति कें ई उपन्यास बदलि क' राखि देलक रहय। एकर बाद एक हिन्दी तं दोसर मैथिली, एही हिसाब सं हुनकर किताब सब अबैत रहल। मुदा, हमरा कहबाक अछि जे यात्री जी मैथिली मे उपन्यास लिखब छोड़ि किएक देलथि? कहिया छोड़लथि? कोन एहन घटना भेलै जे हिन्दी मे तं हुनकर उपन्यास अबैत रहल मुदा मैथिली मे उपन्यास लिखब ओ बंद क' देलथि।

          एहि प्रसंगक सीधा सम्बन्ध सुभाष चन्द्र यादव लिखित उपन्यास 'गुलो'क संग अछि।

          'नवतुरिया' आ 'बलचनमा' एहन उपन्यास रहै जकरा यात्री जी मैथिली आ हिन्दी मे अलग-अलग लिखने रहथि। 1952 सं 1955 धरि ओ प्रमुखत: एही काज मे लागल रहल छला। हिन्दी मे 'बलचनमा' छपि गेलाक बादो ओ मैथिली 'बलचनमा'क आभा मे डूबल रहला। ई हुनकर स्वप्न आ सेहन्ताक मिथिला रहय। अपन समुच्चा अस्मिता मे जे आदर्श ओ अपन जुझारू जीवन सं अर्जित कयने रहथि, जे मैथिली हुनका प्राण मे सुवास जकां विराजित छली, ई से छल। अन्तत: जखन ई उपन्यास हुनका परिकल्पनाक एनमेन मुताबिक कागज पर उतरि अयलै, 15 फरबरी 1955 कें ओ हरिनारायण मिश्र कें लिखलनि: 'हौ हरि, मैथिली बलचनमा हिन्दी बला सं नि:सन्देह सुंदर भ' गेलैक अछि। अनावश्यक विस्तार आ बन्धुरतो एतय नहि छैक। ओकर धड़कन कैक गुना अइ मे बढ़ि गेलैक अछि, की कहियह!'

          मुदा, दुर्भाग्य देखू जे ई उपन्यास छपबाक लेल यात्री जी एकटा मैथिली संस्था-- मिथिला सांस्कृतिक परिषद्, कलकत्ता-- कें देलखिन, जखन कि हुनका लग तहियो प्रकाशकक कोनो कमी नहि रहनि। मैथिली-संस्था सब, से चाहे सोसाइटी हुअय कि सरकारी, आइ पैंसठ बरखक बादो, कोनो ब्राह्मणजातीय-संगठन सं अलग किछु किनसाइते होइत अछि, भने नाम संग संस्कृति जोड़ल रहय कि चेतना। तहिया केहन परिस्थिति रहल हेतै तकर अनुमान सहजे क' सकै छी। जखन कि 'बलचनमा' की छल? एक शूद्रक संघर्षक कथा छल। एतबे नहि ने। ओ बलचनमेक भाषा मे लिखलो गेल छल, जकर नाम यात्री जी देने रहथिन-- 'शूद्र मैथिली'। आब कहू, ई चीज कतहु मैथिली संस्था छापय? ओ सब यात्री जीक खेखनी तं करै छला एहि लेल जे बड़ पैघ लेखक छी तं किछु मैथिली संस्थो पर दया करियौ। ई के जनै छल जे ओ शूद्र मैथिली मे लिखि क' पठा देता?

           12 बरस धरि जखन संस्था 'बलचनमा' कें नहि छापलक तखन यात्री जी उग्र भेला। मुदा ताधरि पांडुलिपि पूर्णत: नष्ट भ' चुकल रहै। यात्री जीक अपन देशव्यापी प्रतिष्ठा रहनि, तें संस्था पर दवाबो चारूभर सं बनि गेलै। हिन्दी बलचनमा ताधरि हिन्दीक प्रथम श्रेणीक उपन्यास-रूप मे मान्यता प्राप्त क' लेने रहय। लाचार संस्था कोनो अज्ञात अछरकटुआ सं एकर अनुवाद करौलक आ अन्तत: 1967 मे प्रकाशित क' देलक। मूल कृति मुदा विलुप्ते भ' गेलै। मोहन भारद्वाजक मानब छलनि जे अइ किताब पर जे 'मूल लेखक नागार्जुन' छपल रहै, से संस्थाबला सभक खचरपनी छल, मुदा हमर मानब अछि जे खचरपनी नहि, ई हुनका लोकनिक ईमानदारी रहनि। सत्य कें ओ लोकनि लिखित रूप मे स्वीकार क' लेने रहथि। अस्तु, यात्री जीक यैह आखिरी उपन्यास साबित भेलनि जे कि अपन मूल स्वरूप मे छपियो नहि सकल छल।

          ब्राह्मण लोकनि 'शूद्र' कहैत अयलनि अछि मुदा शूद्र लोकनि अपना कें अदौ सं 'पचपनिया' कहै छथि। पचपनिया अर्थात पचपन जाति, जकर वास्तविक अर्थ थिक बहूतो जातिक समुदाय। एही पचपनिया मैथिली मे 'गुलो' छपल अछि।

          एहि तरहें, साठि वर्ष पहिने यात्री सन महामना लेखकक हारल एक अभियान कें हमरा लोकनि सुभाष चन्द्र यादवक एहि उपन्यास मे आकार लैत देखैत छी। एकरा कोनो छोट घटना, जेना थोकक हिसाबें मैथिली मे किताब बहराइत अछि, कोना मानल जा सकैत अछि? जें कि सुभाष सन के विरल सिद्धहस्त लेखक के लिखल ई रचना थिक, (तखनहि तं यात्री-प्रसंग संग एहि ठाम तुलनीय मानलो गेल अछि,) केवल भाषे धरि बात नहि रहल। कलाक एक एहन दुर्लभ नमूना मैथिली उपन्यास कें हासिल भेलैक जाहि पर बहुत युग धरि गर्व कयल जा सकैए। 

          यात्री जी सन पैघ लेखक बुते जे काज 1955 मे करब पार नहि लागल छलनि से काज 2015 मे सुभाष क' सकला, एकर एक अर्थ इहो भ' सकैत अछि जे अइ साठि बरस मे मिथिला समाज बदलि गेल। कतबा बदलल? कोनहु भाषाक सृजेता लोकनि तं तहिना समाजक शीर्ष होइत छथिन जेना गाछ मे फुलायल फूल। ओ परिष्कृत परिशोधित होइत छथि आ अपन जीवनक एक उल्लेख्य भाग अपना कें डिकास्ट आ डिक्लास्ड करै मे लगबै छथिन। तें हुनका लोकनिक व्यवहार सं अहां सकल समाजक स्थितिक सही-सही मापन प्राप्त नहि क' सकै छी, एतय धरि कि मैथिली संस्थाक संचालक लोकनिक वा पुरस्कार वा लाभ-लोभ (अर्थ अछि चारू प्रकारक लाभ-- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सं लिखनिहार लेखको धरिक स्वास्थ्यक सही पता नहि पाबि सकै छी। 

          असल मे, सुभाष अपन उपन्यास 2014 मे पूरा क' लेने रहथि आ 'मिथिलादर्शन'क अक्टूबर-नवंबर 2014क अंक मे ई प्रकाशितो भ' गेल रहैक। अइ बीच मे दूटा मुख्य घटना घटलैक। एक तं ई जे उपन्यास पूरा कयलाक बहुत समय बादो धरि सुभाष अपन रचनात्मक आवेग सं बाहर नहि निकलि पाबि रहल छला। पैघ रचनाक सृजनोत्तर आवेगो पैघ होइत छैक। एही निकलबाक प्रयत्न मे ओ 'पचपनिया मैथिली' नामक अपन लेख लिखि लेलनि। ई लेख प्रकाशित होयबा सं पहिनहि एकर एक अंश सोशल मीडिया पर प्रकाशित कयल गेल छल। बिखिन्न-बिखिन्न प्रतिक्रियाक धर्रोहि लागि गेल। बाद मे ई संपूर्ण लेख 'पूर्वोत्तर मैथिल'क अंक मे प्रकाशित भेल। संपादकीय विमतिक प्रायोजना-स्वरूप कही कि स्वाभाविक धर्मरक्षा-स्वरूप, पैघ-पैघ प्रतिक्रियाक धर्रोहि ओतहु लागि गेल। अइ सब सं असलियत बूझल जा सकैत छल जे सकल समाज कतबा बदलल अछि आ कि केहन बदलल अछि। 

          दोसर घटना ई भेल जे 2015क भूकंपक समय मे कथानायक गुलो मंडल के देहान्त भ' गेलनि। सुभाष आ केदार गुलो मंडलक संग कोना जुड़ल छला, तकर प्रसंग केदार काननक एक लेख मे आयल छैक। गुलोक मरब सुभाषक लेल एक पैघ घटना छल आ ई अनेक तरहें हुनका प्रभावित केलकनि। एक प्रभाव तं छल जे एहि बातक प्रकरण उपन्यास मे आनब हुनका जरूरी क' देलकनि। समापित आ प्रसारित उपन्यासक गीरह फेर सं खोलल गेल, किछु तहिना जेना सारा मे गाड़ल गुलोक लहास कें फेर सं खोदि क' निकालल गेल छल। किसुन संकल्पलोक सं जे 'गुलो' छपल अछि, ताहि मे ई समुच्चा अंश अछि जखन कि 'मिथिलादर्शन'क पाठ मे ई नहि अछि। किनको लागि सकै छनि जे एहि अंश कें जोड़ब उपन्यासकलाक हिसाबें गैरजरूरी छल, जखन कि कोनो दोसर गोटे कें जरूरियो लागि सकैत छनि। असल मे अपन कथानायकक संग उपन्यासकारक संलिप्तता आ तादात्म्य कोन रूपक छनि, ई प्रश्न ताहि पर निर्भर करैत अछि। वाजिबे थिक जे एकर संपूर्ण अधिकार सुभाष कें छलनि जकर यथेप्सित उपयोग ओ क' सकैत रहथि।

          मैथिली साहित्य मे सुभाषक महत्व पर विचार करैत प्रसिद्ध आलोचक कुलानंद मिश्र कहियो लिखने छला-- 'मैथिली कथाक क्षेत्र मे एकटा निश्चित सीमाक अतिक्रमण सुभाष चन्द्र यादवक बादे आरंभ भेल।' बुधियार कें इशारा काफी बला अंदाज मे अपन बात कहैत कुलानंद जी ओतय साफ नहि कयने रहथि जे ई 'एकटा निश्चित सीमा' की छल आ सुभाष कोन तरहें एकर 'अतिक्रमण' केलखिन। आब हमसब इतिहासक एहि पार आबि क' देखैत छी तं बूझि सकैत छी। 'मैथिली-साहित्य' जकरा हमसब कहै छी, विश्वास करू ओ विशुद्ध 'ब्राह्मण-साहित्य' नहि थिक जेना कि किछु लोक अपन लेखन सं आ अधिकतर अपन रणनीतिक(?) व्यवहार सं साबित करैत रहैत छथिन। ई जं कहबै जे तमाम विविधताक बादो मैथिली साहित्य अन्तत: जीवन-जगत कें देखबाक एक ब्राह्मण-दृष्टि मात्र थिक, सेहो कहब उचित नहि। जं किनको लगैत होइन जे नहि, यैह उचित थिक तं हुनका मैथिली लिखब छोड़ि क' कठिन प्रयत्नपूर्वक अपना कें कुसंस्कारमुक्त हेबाक साधना करबाक चाही।

         

Friday, September 2, 2022

राजकमल चौधरी का हिन्दी और मैथिली लेखन


 ।।राजकमल चौधरी का हिन्दी और मैथिली लेखन।।

तारानंद वियोगी से सुजीत वत्स का संवाद


सुजीत वत्स-- राजकमल चौधरी के अधिकृत विद्बानों में से आप एक हैं।साथ ही आपने उनकी मैथिली कविताओं के साथ -साथ हिंदी कविताओं का भी सूक्ष्म अध्ययन किया है। आपसे मेरा पहला प्रश्न है कि आप राजकमल की हिन्दी कविताओं और मैथिली कविताओं के संवेदनात्मक स्वरूप में क्या अन्तर महसूस करते हैं।


तारानंद वियोगी-- राजकमल ने जब मैथिली में कविताएं लिखनी शुरू कीं, उनका स्वर और शैली बिलकुल पारंपरिक थे। युवापीढ़ी के साथ जो नया उत्साह और नया तेवर आता है, वही केवल था और वह दुनिया को बदल डालना चाहते थे।

    पर जब उनकी आरंभिक हिन्दी कविताओं को देखें तो तो वहां भी हमें यही चीजें देखने को मिलती हैं।

    फर्क आगे जाकर पड़ा जब उनकी मैथिली कविताएं ग्रामीण सौन्दर्यबोध में पगी देखने को आईं और हिन्दी कविताएं नागरबोध में। शाक्ततंत्र का उन्हें अच्छा ज्ञान था, जो दोनों ही भाषाओं की कविताओं में जगह जगह पूरे फैलाव के साथ आए हैं। दूसरे यह कि मैथिली की काव्यपरंपराओं में यहां की सामाजिक मान्यताओं के अनुरूप ही कई वर्जनाओं को पूज्यभाव से देखा जाता था। इन्हें राजकमल ने निर्दयतापूर्वक तोड़ा। इसलिए उनकी मैथिली कविताओं ने मिथिला के काव्य परिदृश्य में काफी हाहाकार मचाया। हिन्दी के काव्यपरिदृश्य के लिए यह चीज उस तरह नई नहीं थीं। यहां उन्होंने दूसरी कई चीजें तलाश लीं। 

    राजकमल का कवितावाचक एक बौद्धिक युवा है। यह मैथिली के लिए नई चीज थी। यात्री का कवितावाचक ग्रामीण किसान था। हिन्दी में बौद्धिक कवितावाचक का प्रवेश काफी पहले हो चुका था।

   भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के जो महान आदर्श थे, उसने दूर तक राजकमल के कविव्यक्तित्व को प्रभावित किया था। लेकिन, उन आदर्शों के टूटने बिखरने की धमक राजकमल की तमाम कविताओं में पाई जाती है। इसलिए उनका जो कवितावाचक है, वहां एक टूटन भी है और दिशाहारापन भी, भले ही वह दुनिया को बदल डालने की मंशा रखता है। राजनीति उनकी कविताओं का एक जरूरी एंगल है। यह अलग बात है कि उनमें विचारधारागत स्पष्टता का अभाव है। यह हमें उनकी हिन्दी कविताओं में ज्यादा साफ दिखता है। अपनी मैथिली कविताओं में वह एक उप राष्ट्रीयता भी रखते पाये जाते दीखते हैं, जो कि उनका मैथिलत्व है।



सुजीत वत्स-कवि के साथ-साथ राजकमल को एक कथाकार के रूप भी जाना जाता है।एक कवि या फिर एक कथाकार दोनों  में से  किस विधा में  उनकी रचनाएँ ज्यादा  सशक्त है?


तारानंद वियोगी-- हिन्दी और मैथिली दोनों ही भाषाओं में काफी लोग ऐसे हैं जो राजकमल को एक कथाकार के रूप में ही ज्यादा सफल मानते हैं। यह मानने के अपने कारण भी हैं। याद रखने की बात है कि कहानी में सिद्धता के अपने अलग मानदंड हैं, और वे कविता से अलग हैं। कोई अच्छा कवि हो तो केवल इसी से यह तय नहीं हो जाता कि कहानीकार भी वह अच्छा होगा। कहना चाहिए कि राजकमल ने इन दोनों ही विधाओं में अलग-अलग सिद्धि प्राप्त की।

      अपनी जिस आवेगभरी भाषा के लिए वह जाने जाते हैं, वह गद्य और कविता दोनों में ही अपना कमाल दिखाती है। सामाजिक सरोकार उनकी कहानियों में ज्यादा स्पष्ट हैं। सामंतवाद का विरोध भी, और लैंगिक गैरबराबरी के खिलाफ गुस्सा भी। कहानियों के विषय उन्होंने ऐसे चुने जो समकालीन साहित्य की एक बड़ी रिक्ति भरते थे, और पाठक को एक नये संसार के सामने ला खड़ा करते थे। एक ऐसा संसार, जिसके बारे में या तो बहुत कम जानता होता था, या फिर इस तरह कभी सोचा तक नहीं होता था। 

      राजकमल की कही वह बात मुझे नहीं भूलती कि इतने लोगों ने कहानियां लिख लीं और लिख रहे हैं कि नया या मौलिक कथानक तो हमें अब मिलने से रहा। अब तो शैली ही एक बच गयी है जो हमें अपने समकालीनों में अलग दिखा सकेगी। अपनी आवेगमय भाषा में शैली का उन्होंने ऐसा चमत्कार रचा कि उन लोगों की बात को यूं ही उड़ा देना आसान नहीं है, जो राजकमल को कहानीकार के रूप में ज्यादा सफल पाते हैं।



सुजीत वत्स-राजकमल ने अपनी हिन्दी कविताओं में मिथकों का बहुत ही अधिक प्रयोग किया है।क्या मैथिली कविताओं में भी उन्होंने मिथकों का प्रयोग  उसी अनुपात में प्रयोग  किया है?एक प्रखर प्रतिरोधी कवि की कविताओं में मिथकों का इतना अधिक प्रयोग कविता की सम्पेषणीयता में बाधा तो नहीं है??


तारानंद वियोगी- हां, ये सही है कि अपनी कविताओं में मिथकों का प्रयोग उन्हें प्रिय था। और, यह हिन्दी और मैथिली दोनों ही भाषाओं की कविताओं में समान रूप से किया गया है। ब्राह्मणशास्त्रीय प्राचीन मिथक उन्हें प्रिय थे। इनका उपयोग अक्सर वह अपनी अभिव्यक्ति को धार देने के लिए करते। यह उनके कथ्य को अतिरेक में ले जाता था। अतिरेक में होना उनकी अपनी विशेषता थी और इसके लिए तरह तरह के प्रयोग करते रहते। कई बार तो बस चौंकाने या सामनेवाले को आक्रान्त कर जाने के लिए मिथकों को घसीट लाते। लेकिन, अध्येताओं ने पाया है, और गौर करें तो हम भी देख सकते हैं कि कि ये मिथक उनकी आत्मा की बेचैनी और मन की दुराशंकाओं की सटीक व्याख्या कर जाते थे। उनकी एक मैथिली कविता 'महावन' में आए पुराने पाकड़ वृक्ष की धोधर में बैठे पुरातन गिद्ध के रंग को कविता में देखने के बाद मणिपद्म ने यह आशंका व्यक्त की थी कि इस कवि की मृत्यु अब सन्निकट है। और आश्चर्यजनक रूप से यह आशंका सच साबित हुई थी। मतलब यह कि जो भी प्रयोग वह करते उसमें उनका आत्म गहरे तक निमज्जित रहता था।