तारानंद वियोगी
दरभंगा जिले का एक गांव है अहियारी, जिसका सम्बन्ध पौराणिक अहल्या से जोड़ा जाता है। वहां अहल्या-स्थान नाम से एक धार्मिक पीठ भी है, और एक प्राचीन मंदिर भी जिसे दरभंगा के महाराज छत्र सिंह ने 1817 में बनवाया था। कहते हैं, गौतम ऋषि का पुराना आश्रम यहीं था जहां वह अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते थे। जब वह घटना हुई, यानी देवराज इन्द्र ने भेस बदलकर छलपूर्वक अहल्या का शील-हरण किया, गौतम अपनी पत्नी को सान्त्वना या हिम्मत क्या देते कि उसे पत्थर हो जाने का शाप दिया, और तब से यह जगह उजाड़ हो गयी। अपनी पत्नी का त्याग करते हुए गौतम ने अपनी जगह बदल ली। रामायण का प्रसिद्ध प्रसंग है कि इस मैदानी इलाके में एक विचित्र ढब के पत्थर को देखकर उस रास्ते जनकपुर जाते राम ने जब गुरु विश्वामित्र से जिज्ञासा की थी, तो उन्होंने वह पूरा वृत्तान्त उन्हें सुनाया था। वृत्तान्त में यह भी था कि शाप सुनकर अहल्या जब अपनी बेकसूरी पर अड़ गयी और बार-बार ऋषि से मिन्नत करने लगी तो गौतम ने ही यह रास्ता सुझाया था कि राम जब इस रास्ते गुजरेंगे तो उनकी चरण-धूलि से पुन: तुम्हारी खोयी देह तुम्हें मिलेगी। लक्ष्मीनाथ गोस्वामी के एक पद में भी आता है-- 'वासब दुराचार ते गौतम दिन्हें शाप ताहि अविचारे/ पाछे जानि अदोष कह्यो तब, भामिनि! शाप अकाट हमारे।' पौराणिक प्रसंगों के अनुसार, यही हुआ। अहल्या की खोयी देह राम की कृपा पाकर उन्हें मिल गयी। लेकिन इसके आगे फिर क्या हुआ? इसपर कहीं कुछ स्पष्ट नहीं मिलता। मानो इतना ही जताना इस प्रासंगिक कथा का अंतिम भवितव्य हो। प्रसंग रामकथा का है। नायक राम हैं। राम की महिमा ख्यापित करना कथा का उद्देश्य है। यह हो गया, तो फिर इसे कौन देखता है कि आगे अहल्या का क्या हुआ!
विविध प्रसंगों में अहल्या का जो विवरण मिलता है, उसके अनुसार वह अनिन्द्य सुंदरी थी। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों में भी उन्हें सुन्दर नारियों में सुन्दरतम माना गया है। किंवदन्ती के अनुसार वह ब्रह्मा की मानस-पुत्री थी और स्वयं ब्रह्मा को उसकी सुन्दरता पर इतना अभिमान था कि उसके विवाह के लिए उन्होंने शर्त लगा दी थी कि जो देवता या ऋषि बारह बरसों तक उसे अपने घर में, अपने पास रखकर भी ब्रह्मचर्य-व्रत निभाकर दिखाने की प्रतिज्ञा करे, उसी से वह ब्याही जाएगी। इस असंभव-सी प्रतिज्ञा को कौन निभा पाता, इसलिए सारे देवता और ऋषियों ने हाथ खड़े कर दिये थे, और ऐसे में गौतम ने यह असंभव काम कर दिखाया था। ब्रह्मपुराण लेकिन थोड़ी अलग कहानी बताता है। वहां है कि ब्रह्मा ने छोटी उमर में ही पालन-पोषण के लिए उसे गौतम को सौंप दिया था। गौतम के आश्रम में पलती-पुसती अहल्या जब जवान हुई, गौतम उसे लेकर ब्रह्मा को वापस करने गये। ब्रह्मा को अब उसका विवाह करवाना था। त्रिलोक-दुर्लभ उसकी सुन्दरता पर तमाम देवता और ऋषि इस कदर मुग्ध थे कि हर कोई अपनी दावेदारी पेश कर रहा था। ऐसे में ब्रह्मा ने शर्त रखी कि जो कोई पृथ्वी की दो परिक्रमा पूरी करके सबसे पहले चला आएगा उसी से अहल्या ब्याही जाएगी। हर कोई तो उधर परिक्रमा करने निकला, इधर गौतम ने यह किया कि ब्रह्मा-निवास की अर्धप्रसूता कामधेनु की दो परिक्रमा कर आए और साबित किया कि कामधेनु की प्रदक्षिणा का फल सात द्वीपों वाली पृथ्वी की परिक्रमा के समतुल्य है। ब्रह्मा ने मान लिया और अहल्या गौतम के साथ ब्याह दी गयी। इस प्रसंग से यह संकेत मिलता है कि पालक पिता होने के नाते गौतम की जो भी भूमिका रही हो, वह मन-ही-मन उसे प्यार करने लगे थे, उसके रूप के रसिक थे।
ब्रह्मपुराण में लेकिन अहल्या के पत्थर बनने की कहानी नहीं आती। वहां है कि वह सूखी नदी बन गयी। उसके उद्धार का उपाय बताया गया कि जब गौतमी नदी की धारा इस ओर होकर गुजरेगी तो उसका शाप-शमन हो जाएगा। स्वाभाविक ही रामकथा के साथ भी वहां इस प्रसंग का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि रामकथा में अहल्या-प्रसंग को अधिगृहीत किये जाने के पूर्व की स्मृतियां ब्रह्मपुराण में आई हैं। वाल्मीकि रामायण और ब्रह्मपुराण दोनों में लेकिन, यह बात आई है कि गौतम ने अहल्या के साथ-साथ इन्द्र को भी शाप दिया था। वाल्मीकि रामायण में है कि इन्द्र का अंडकोष नष्ट हो जाने का शाप दिया, अर्थात पुंसत्वहीनता का, जिसका इलाज बाद में देवलोक के चिकित्सकों ने मेष(भेड़) के अंडकोष को प्रतिरोपित करके किया और इन्द्र का एक नाम 'मेषवृषण' तभी से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मपुराण का शाप सहस्रयोनि होने का शाप था, जिसके लिए उन्हें भी गौतमी नदी के अवतरण का इंतजार करना था, जिसके बाद वह ठीक होकर सहस्राक्ष बनते। दोनों ही जगह लेकिन यह बताया गया है कि इन्द्र भेस बदलकर आया था, और शील-हरण के बाद गौतम ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था। अन्तर यह है कि ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतमभेषधारी इन्द्र को अहल्या नहीं पहचान पाई थी और उसने उसे गौतम समझकर ही व्यवहार किया था, जबकि वाल्मीकि रामायण बताता है कि अहल्या ने भलीभांति उसे पहचानकर देवराज के कौतूहल में व्यवहार किया था। जो भी हो, लगता यही है कि आदिम स्मृतियां ब्रह्मपुराण में संरक्षित हैं, जबकि मानवीय स्वभाव का, देव-स्वभाव का भी, अंकन वाल्मीकि रामायण में ज्यादा हू-ब-हू हुआ है।
ब्राह्मण-धर्म में स्त्री की अभ्यर्थना में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' कहे जाने का चलन रहा है। आए दिन भक्तों को आप यह पंक्ति उद्धृत करते हुए सुनेंगे। लेकिन, स्त्री की वास्तविक औकात वहां क्या है और देवता वहां क्यों रमण करते हैं, इसका पता हमें वाल्मीकि रामायण के उस प्रसंग से चलता है कि जब यह सब कांड करके इन्द्र अपनी राजधानी लौटे तो देवताओं की सभा में इसके बारे में उन्होंने क्या प्रतिवेदित किया। बताया कि काम तो उन्होंने बड़े खतरे का किया लेकिन यह देवताओं के हित के लिए जरूरी था। गौतम का तप इसी से क्षीण हो सकता था। राजनीति देखिये। तप क्षीण करना था गौतम का, क्योंकि उनसे इन्द्र को और तमाम देवताओं को सत्ता छिन जाने का खतरा था। लेकिन, शिकार बनी अहल्या। न इन्द्र दुराचार करते, न गौतम को क्रुद्ध होकर शाप देना पड़ता, न उनका तप क्षीण होता! देवताओं की सभा में इन्द्र का संबोधन है--
कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मन:।
क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम्।।
(वाल्मीकि रामायण/ बालकांड/ 49/2)
वाल्मीकि रामायण के एक हिन्दी अनुवादक द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने इस श्लोक की जो व्याख्या की है, उसे देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा। लेकिन पहले उनका अनुवाद-- 'महात्मा गौतम की तपस्या में विघ्न डालने के लिए मैंने उन्हें क्रुद्ध कर देवताओं का यह काम बनाया।' अब इसके बारे में उनकी व्याख्या देखी जाए-- 'इन्द्र के इस कथन को मिथ्या न समझना चाहिए। क्योंकि बात सचमुच यही थी। गौतम ने सर्वदेवताओं का स्थान लेने के लिए तप किया था। क्रोधादि दुर्वृत्तियों का प्रादुर्भाव होने से तपस्वी की तपस्या नष्ट हो जाती है। अत: इन्द्र ने महर्षि गौतम की तपस्या को नष्टभ्रष्ट करने के लिए ही उनको क्रुद्ध करने के अभिप्राय से अहल्या के साथ भोग किया था, नहीं तो स्वर्ग में अहल्या से कहीं अधिक सुंदरियों का अभाव नहीं था। मृत्युलोकवासियों के सदनुष्ठानों में देवता अपने स्वार्थ के लिए सदा विघ्न करते चले आए हैं।' देवताओं की प्रवृत्ति का क्या ही शानदार परिचय यहां दिया गया है, मानो वे देवता न हुए इक्कीसवीं सदी के भारतीय राजनेता हुए। संस्कृत ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद का काम एक आधुनिक विधा है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1958 में हुआ है। इस प्रकार पंडित चतुर्वेदी की यह मान्यता भी ब्राह्मण-धर्म की एक आधुनिक मान्यता ही समझनी चाहिए, जिसकी जड़ सुदूर अतीत की मान्यता में है। इससे हम समझ सकते हैं कि यहां स्त्री की वास्तविक औकात क्या है। तब से लेकर आधुनिक युग तक।
इससे इतर एक प्रसंग पंचकन्या का है। पुराणों में पंचकन्या उन पांच स्त्रियों को कहा गया है जो विवाहिता तो थीं जरूर, लेकिन उन्हें सदा कुंवारी माना गया है और यह बताया गया है कि सुबह-सुबह इनका नामस्मरण करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्माण्ड पुराण के इस श्लोक में पंचकन्याओं की नामगणना करते हुए उनका माहात्म्य बताया गया है--
अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा।
पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।।(3/7/219)
मैंने तो केवल पापनाशक बताया, पुराणकार तो 'महापातक-नाशक' कह रहे हैं। यह महापातक क्या होता है, इसपर भी जरा गौर कर लें। मत्स्यपुराण में इनकी सूची दी गयी है। ब्रह्महत्या, गुरुपत्नी से समागम, मद्यपान, स्वर्ण की चोरी करना आदि इस कोटि के पाप हैं जिसका दंड मृत्युदंड विहित किया गया है। लेकिन हां, यह सब करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो उसे मृत्युदंड नहीं मिलेगा, बस देशनिकाला दे दिया जाएगा। अब मान लें, पापी ने अपराध किया और पकड़ा नहीं गया, तो? जो थोड़े भी सामर्थ्यवान होते हैं वे पकड़े कैसे जा सकते हैं, उन्हीं के लिए तो तमाम रास्ते बनाए गये हैं, युग चाहे सतयुग हो ले या घोर कलियुग। लेकिन अपना दिल तो गवाही देता ही रहता है। ऐसे में वह केवल यही कर ले कि इन पंचकन्याओं का नामजाप सुबह-सुबह कर लिया करे। उसके सारे महापातक नष्ट हो जाएंगे। गौर करें, यही अपनी सनातन धर्म-व्यवस्था है। ठीक ही कहा था हरिमोहन झा ने कि अनुष्टुप में श्लोक बनाने के लिए किसी लाइसेन्स की जरूरत नहीं होती। अगर हुई होती तो क्या ऐसी धर्म-व्यवस्थाएं मिल सकती थीं?
मेरी चिन्ता लेकिन यह है कि इन पंचकन्याओं में अहल्या को पहला स्थान दिया गया है, शायद इसलिए कि सबसे ज्यादा प्रवंचित वही रही। तो क्या यह कालान्तर में उसके साथ किया गया न्याय था? भरोसा नहीं होता, क्योंकि आधुनिक पंडितों की मान्यता भी हम ऊपर देख ही चुके हैं। अहल्या की प्रवंचना दोहरी है। सीता भी प्रवंचित थी, लेकिन शास्त्रकारों ने उनके साथ न्याय नहीं किया तो लोकविदों ने किया। मिथिला में सीता की विशाल लोकगाथा न केवल मिलती है, बल्कि उसके तीन-तीन वर्सन उपलब्ध होते हैं। अहल्या की लेकिन कोई गाथा नहीं मिलती। वह लोकगीतों का विषय भी नहीं बनी। उसे देवता का दरजा तो खैर नहीं ही मिला, लोकदेवता का भी नहीं मिला। वाल्मीकि रामायण बताता है कि शापमुक्ति के बाद वापस वह गौतम के नये आश्रम में चली गयी, लेकिन इसपर भी यकीन करना मुश्किल है क्योंकि तबतक तो पुत्र शतानंद का जमाना आ गया था जो जनक के दरबार में राजपुरोहित लग गये थे। क्या वह सचमुच वापस गौतम के पास गयी होगी? तो फिर अहल्या-स्थान की अपनी पृष्ठभूमि क्या है? अहियारी का जो यह मंदिर है, आप आश्चर्य करेंगे कि धुर मिथिला में वह एक ऐसा दुर्लभ मंदिर है जिसकी पुजारन महिला होती है, जबकि मंदिर की संपत्ति के प्रबंधन के लिए जो महंत हैं, वह पुरुष हैं। वहां बैगन का चढ़ावा चढ़ता है। और, माता अहल्या की महिमा क्या है? किसी के शरीर में मस्सा निकल आए तो वह वहां जाकर मनौती करे, और जब ठीक हो जाए तो बैगन का भार चढ़ाए। बैगन का भार! बैगन का ही क्यों? अहल्या की प्रवंचना एक विशाल प्रश्नचिह्न की तरह हमारे सामने तनकर खड़ी हो जाती है!
आधुनिक कविता में अहल्या एक प्रवंचिता मानवी की तरह ही प्रस्तुत हुई है। उसके विस्तार में जाने का यहां अवकाश नहीं। मैं आपको नागार्जुन की एक कविता पढ़वाता हूं, जो उन्होंने अहल्या पर लिखी और शीर्षक भी 'अहल्या' ही दिया है। कविता है--
नाहक ही
उतना अधिक रूप दिया
विधाता ने
गौतम की शकल बना के
सचमुच क्या इन्द्र ही आया था?
समान आकृतिवाले--
दो पुरुषों की छाया में
पथरा गयी बेचारी!
यहां छद्मवेशधारी इन्द्र के होने पर संशय किया गया है। तात्पर्य है कि भला फर्क ही क्या पड़ता है कि वह इन्द्र था या इन्द्र नहीं था! मतलब की बात यह है कि वह दूसरा पुरुष था, परपुरुष। उसकी भी गहन लालसा ने ही उसे अहल्या तक खींच लाया होगा, जैसे कभी गौतम को खींच लाया था। इन्द्र अगर देवराज थे तो गौतम भी कोई कम न थे। ब्रह्मा से तर्क कर वह अहल्या को जीत लाये थे, इस मिथक में कदाचित उस वैदिक ऋषि गौतम की स्मृति है जो षड्दर्शनों में सर्वाधिक दिलचस्प न्यायदर्शन के आदिप्रवर्तक थे। किन्तु, जो थे वो थे। अहल्या की तरफ से सोचें तो उस बेचारी को क्या मिला, जबकि दोनों ही तो महिमासंपन्न अतिविशिष्ट ही थे। आकृति यहां दोनों की समान बताई गयी है। लेकिन क्या केवल बाहरी आकृति? वह तो स्वांग भी हो सकता है। बात यहां भीतर की आकृति की है। भीतर का पुरुष भी तो दोनों का एक-सा था, पितृसत्ता के दंभ से उन्मत्त। दोनों ही जगह प्रेम एक छलावा था, लालसा भी। स्त्री के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। बस केवल यह था कि पहला अपने भोग को अपना विशेषाधिकार मानता था, दूसरा उसका उल्लंघन कर उसे अपने भोग की सीमा तक घसीट लाया था। पुरुष तो दोनों ही बड़े थे, महान थे। लेकिन अहल्या को क्या मिला? दो पुरुषों की छाया में भी उस बेचारी के हिस्से तो पथराना ही आया। नागार्जुन शाप को निगेट करते हैं। ब्राह्मण-धर्म के भीतर दूसरे के शाप की जरूरत भी स्त्री को कहां है? प्रेमी पुरुष के भीतर का दंभी लंपट सामने आ जाए बस, उसे तो खुद ही पथरा जाना है!
मैं अहियारी की बात कर रहा था। वहां गौतम-अहल्या का मंदिर है। उसे मिथिला के एक तीर्थ की हैसियत मिली हुई है। मिथिला के प्रमुख तीर्थों की सूची देखें तो यह जगह ऊपर ही कहीं दर्ज मिलेगी। विद्यापति ने इस तीर्थ की चर्चा की है। उनसे भी प्राचीन ग्रन्थों में उसे तीर्थ कहा गया है, ज्यादातर राम को महिमामंडित करने के लिए। लेकिन, आप अगर कभी वहां जाएं तो उस अभागन के नाम दो आंसू टपकाकर जरूर लौटें। ब्राह्मण-धर्म को जी रही स्त्रियों का इससे तर्पण होगा, जो मर गयीं उनका, और जो जी रही हैं, उनका भी। जीते-जी तर्पण!
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