तारानंद वियोगी
साहित्य मे उपन्यास विधा आधुनिक कालक देन थिक। समस्त भारतीय भाषा-साहित्य मे जेना-जेना आधुनिकताक विकास होइत गेलैए तेना-तेना उपन्यास विधा झमटगर होइत गेल अछि। राष्ट्रीय चेतना आ अस्मिता-बोध, ई दुनू वस्तु ओना तं एक दोसरक प्रतिस्पर्धी, किछु हद धरि तं विरोधी, मानल जाइत अछि मुदा उपन्यासक विकास के इतिहास देखू तं ई दुनू वस्तु अपना-अपना तरहें उपन्यास कें विकसित हेबा मे मददगार भेल अछि।
सब गोटे जनैत छी जे मैथिली मे उपन्यासक उदय आधुनिकताक प्रवाह सं नहि, पौराणिकताक ताना-बाना सं भेल अछि। उदयक थोड़बे दशक बाद उपन्यास अपन विधा-प्रकृतिक अनुरूप आधुनिकताक रंग मे आबि गेल, से भिन्न बात, मुदा एकर आदिम जड़ि पौराणिक कथारस मे छैक ताहि मे संशय नहि। आरंभ तं ठेठ अनुवाद सं भेल रहै। अनुवाद संस्कृत गद्यक, आ प्रवृत्ति सेहो संस्कृत कथाकाव्येक। आदि प्रयोक्ता लोकनि पंडित तं संस्कृतशास्त्रक छला मुदा अस्मिता-बोध सं भरल, जिनकर साहित्यक उद्यम अपन समाज मे व्याप्त कुरीति सभक परिहार लेल छलनि।
उपन्यासक संगहि संग आधुनिकता सेहो पश्चिमक, मने यूरोपक देन मानल जाइत अछि। मुदा कते आश्चर्यक बात थिक जे आइ जाहि अर्थ मे 'आधुनिक' शब्दक प्रयोग कयल जाइत अछि, ठीक-ठीक एही अर्थ मे एहि शब्दक प्रथम आविष्करण मिथिलाक एक दार्शनिक, उदयनाचार्य कयने छला आ एहि तरहें आधुनिक शब्द भारतीय भाषा मे मिथिलाक देन थिक। तं, अहुना होइत छैक। जकरा परंपरित कहि क' एक खास कोटिक्रम मे राखि देल जाइत छैक, समय बितला पर पता लगैत अछि जे ओकरो भीतर आधुनिकताक कोनो फूल फुलाएल रहैत छैक।
एक विधाक रूप मे उपन्यास भने पाश्चात्य होइक मुदा मैथिली उपन्यास मे चित्रित व्यक्ति तं अनिवार्यतया एक मैथिल भारतीय मनक धारक होइत छथि। एही ठाम प्रकृत विषय हमरा लोकनिक अवधेय बनैत अछि। दुनू संस्कृतिक बीच के एक भिन्नता दिस हम अहांक ध्यान आकृष्ट करय चाहब। यूरोपीय सभ्यताक जे विश्व-दृष्टि छैक ओहि मे मनुष्य कें सृष्टिक स्वामी मानल गेल छैक। बाइबिलक ई वचन प्रसिद्ध अछि जे 'God has created man in its mini image to rule over earth.' परमात्मा मनुष्यक निर्माण ईश्वर एहि लेल केलनि जे ई हुनका एवज मे पृथ्वी पर शासन क' सकय। भारतीय विश्व-दृष्टि एकर ठीक विपरीत अछि। एहि ठाम मनुष्य कें सृष्टिक स्वामी नहि मानल जाइछ। मनुष्य सेहो चराचर मे समस्त जीवित प्राणी सभक बीच एक प्राणी मात्र थिक। ई मनुष्य जं मिथिलाक हो तखन तं आरो, कारण प्रकृति संग साहचर्य रखैत, उतार-चढ़ावक यात्रा करैत मैथिल मानसक धर्रोहि अपन प्रकृति-अनुगामी संस्कारक लेल विख्यात अछि।
साहित्य मे इको क्रिटिसिज्म एकटा नव परिघटना थिक। सामान्यत: जकरा हम सब प्रकृति-चित्रण वा प्रकृति-वर्णन कहैत छिऐक ताहि सं ई कोन अर्थ मे भिन्न अछि? एकरा पर्यावरण-चेतनाक नाम सं अभिहित कयल जा सकैए। जेना कि भारतीय विश्वदृष्टिक हम चर्चा केलहुं, पृथ्वी पर बसनिहार समस्त प्राणीक बीच मनुष्य सेहो एक प्राणी थिक। भारतीय मान्यतानुसार एहि प्राणी सभक प्रकार चौरासी लाख अछि जेकरा सामान्यत: चौरासी लाख योनि कहल गेल अछि। मनुष्यक जीवन कें दुर्लभ एहि दुआरे कहल गेल अछि जे एहि समस्त योनि सभक यात्रा करैत अन्तत: क्यो मनुष्य-जन्म प्राप्त करैत अछि। मनुष्य-जीवन दुर्लभ एहि लेल अछि जे ओकरा लग चिन्तन, स्मृति आ भाषा छैक। मुदा, प्रश्न अछि जे एहि सब कथूक अछैत ओकरा मे अपन अस्तित्वक पृष्ठभूमिक चेतना अछि कि नहि? चेतना एहि बातक जे संपूर्ण पर्यावरण-मंडलक ओ मात्र एक सदस्य थिक, सभक बीच रहैत, सभक सहयोग सं जीवनक ओही तरहें आनंद लैत जेना कि पर्यावरण-मंडलक आन सदस्य लैत अछि?
एहि बात कें अहुना कहल जा सकैए जे प्रकृतिक एते विशाल साम्राज्य मे मनुष्य नामक योनि जं नहि होइतय तं की बिगड़ि जैतियैक? किछुओ नहि। पृथ्वी तखनहु सदाबहार बनल रहितय। बरु कहबाक तं ई चाही, आ से कहब एखन धरिक मनुष्यक कयल खुराफातक आधार पर कहबाक उचितो छैक जे मनुष्यक होयब पृथ्वीक संग संकट बनि क' आयल अछि। जेना कि मिर्जा गालिब के एकटा शेर मे कहल गेलैए, डुबोया मुझको होने ने/ मैं न होता तो क्या होता? मिर्जा कें तं डुबेलकनि हुनकर होयब, मुदा मनुष्यक होयब तं समुच्चा पृथ्वी कें, संपूर्ण पर्यावरण-मंडल कें डुबेलकैक। एहना मे ई सवाल उचित बनै छै जे हम नहि होइतहुं तं की होइतै? कोन्नहु उनटान नहि होइत। एकरा विपरीत, एखन जे नदी बहैए ताहि सं बेसी प्रफुल्लित भ' क' बहितय, एखन जे बसात चलैए से एहि सं बेसी प्राणद भ' क' चलितय? अन्तत:, पर्यावरण-चेतनाक परम साध्य छैक जे मनुष्य भने रहओ वा नष्ट भ' जाउक, मुदा पृथ्वी कें बचल रहबाक चाही, पर्यावरण-मंडल कें बचल रहबाक चाही।
हमरा विद्वान लोकनि क्षमा करी। एहि एकैसम सदीक खतरनाक समय मे आब, एक साहित्यिक मनुष्यक रूप मे पर्यावरणक बारे मे सोचै छी तं अहिना सोचै छी। हारल-मारल, अब्बल-दुब्बल के अंतिम शरणस्थल साहित्य होइत छैक। हमसब आइ जाहि युग मे जिबैत छी, एक साहित्यिकक रूप मे विचार करैत हमरा लोकनि कें एही भावना दिस यात्रा करबाक चाही।
एक आम मैथिलक जीवन पर्यावरणक नितान्त संग-साथ प्रवाहित होइत रहल अछि। एहि नदीमातृक देस मे जंगल-झाड़, चर-चांचर, जीव-जन्तु, चिड़ै-चुनमुनी, सभक सब एक आत्मीय लयपूर्ण ढंग सं मनुष्यक जीवन मे शामिल रहल अछि। हमरा लोकनि जाहि देवी-देवताक सेवा-पूजा करैत रहल छी, से सब कोनो दोसर लोकक निवासी नहि, एही मिथिलाक भूभाग मे तरह-तरहक भेस धयने निवास करैत छथि। कतहु गाछ पर विध-विधाता बैसि क' प्रजाजनक सुख-दुखक समावेशी बनैत छथि तं कतहु गौरी-महादेव कें आकाश-मार्ग सं घूमि-फीरि आम लोकक सहायक बनल देखाओल गेल अछि। मिथिलाक लोकसाहित्य मे एहि सभक वर्णन भरल पड़ल अछि।
उपन्यास कें आधुनिक जीवनक महाकाव्य कहल गेलैए। मिथिला मे जे आधुनिकताक विकास भेल अछि से परंपरा सं कटि क', ओकर तिरस्कार क' क' नहि, ओकर विकासे क' क' आधुनिकता पल्लवित-पुष्पित भेल अछि। एहना मे आधुनिक जीवनक बहुत अंश एहन छैक जतय परंपरा कें हमसब नब-नब प्रतिच्छवि ग्रहण करैत देखैत छिऐक। स्वाभाविक थिक जे पर्यावरणक संग सहकार जे मिथिलाक एक आदिम वैशिष्ट्य रहलैक अछि, तकर अनेक रूप आधुनिक साहित्य मे अभिव्यक्त होयत।
सान्दर्भिक प्रसंग सभक विशेष उल्लेख तं आमंत्रित विद्वान लोकनि अपन-अपन आलेख मे करता, हम एतय किछु उपन्यासक किछु-किछु प्रसंग उठा क' एहि विविधतापूर्ण विन्यास दिस अहांक ध्यान आकृष्ट करय चाहै छी जे मैथिली उपन्यासकार लोकनि कते तरहें पर्यावरण कें अपन चिन्तनाक आधार बनौने छथि।
मैथिलीक लोकगाथा पर आधारित मणिपद्मक एक वर्णनांश हम उद्धृत करय चाहब। मिथिलाक प्रधान लोकदेवी कमला नदी-रूप मे हिमालय सं उतरि क' मिथिलाक समतल भूमि पर अबैत छथि तं हुनकर नजरि एक सुंदर कमलदह पर पड़ैत छनि। स्नान करबाक लेल ओ सरोवर मे प्रवेश करय लगैत छथि तं ओही ठाम मौजूद हुनकर एक सेवक, जे एक मालिन-बेटी छी, हुनका बरजै छनि-- हे कमला दाइ, एहि दह मे सहस-सहस कमल फुलायल छैक। जुनि पैसियौक। औना जेतैक। कमलाक उतारा-- गय मालिन बेटी, कमल-फूल तं हमर ग्रिमहारक शोभा छी। मुदा सेवकक फेर आपत्ति-- हे पदुमसुन्नरि, एहि दह मे नागिन सब खेलाइत छैक से अहांक पैसला सं छिड़िया जेतैक। कमलाक उतारा-- गय मालिन बेटी, नागिन सब तं हमर मणिमय केशक बन्हना छी। मुदा, फेर आपत्ति-- हे कमलेश्वरी, एहि दह मे हांस-चकेबा केलि करैत छैक से उजबुजा क' उड़ि जेतैक। कमलाक उतारा-- गय मालिन बेटी, हांस-चकेबा तं हमरा जूड़ाक शोभा छी। मुदा सेवकक आपत्ति तखनहु खतम नहि होइत छैक-- हे कमलमुखी, एहि सरोवर कें अकुलयला सं लालसरक जोड़ी बिछुड़ि जेतैक। कमलाक ताहू पर उतारा-- गय मालिन बेटी, लालसरक जोड़ी तं हमरा दहिना बामा कानक कर्णफूल छी। सब जिवाजन्तुक अयलाक बाद अंत मे अबै छै मनुष्य। सेवकक आपत्ति छैक-- हे नृत्यमयी, दह मे नहाइत धीया सब अहांक हिलकोरक आगम सं डेरा क' ऊपर भ' जेतैक। ताहि पर जे कमलाक उतारा छनि, से देखल जाय-- नहि गय मालिन बेटी, हम ओकरा सब कें भरल खरिहान देबैक, फोका मखान देबैक, खोंइछा मे धान देबैक, मुंह मे पान देबैक, सिन्नूरक मान देबैक आ कोरा मे चान देबैक। मिथिलाक पर्यावरणक समावेशी साहचर्यक एक प्रतीति हमरा लोकनि मणिपद्मक एहि वर्णन मे देखि सकै छी।
अधिकतर हमरा लोकनि देखैत छी जे मैथिली उपन्यास मे पर्यावरण वातावरण-निर्माणक क्रम मे आयल अछि जे कि उपन्यासक एक आवश्यक तत्व मानल जाइत छैक। जेना 'माधवी-माधव'क ई सन्ध्या-प्रसंग-- 'भगवान भुवनभास्कर अपन प्रखर प्ररश्मि कें समटैत, लक-झुक करैत, झखैत, झुकैत अस्ताचलक रस्ता पकड़लनि। क्रमश: दिन व्यतीत भ' गेल। सन्ध्याकालक सुंदर समय आबि गेल। शीतल समीर सिहकय लागल। प्राणी मात्रक प्राण पलटल।' जेना 'नवतुरिया' मे साओन मासक मिथिलाक एक चित्र-- 'आधा साओन बितैत-बितैत लोक रोपनी खतम क' लेने रहय। बाध-बोन आंतर-पांतर हरियरिक समुद्र भ' गेल छलै। बसात सिहकै तं अइ समुद्रक हरित नील लोल लहरि सातो समुद्रक तरंगित सुषमा कें मात क' दैन। चंचल घनमंडल कें देखि-देखि खेतिहर लोकनिक मनप्राण हुलासें हिलकोर लैन। जनपद-कल्याणी शस्य-श्यामला प्रकृति सुन्दरी अपना दिस तकनिहारक तीनू ताप कें हटेबाक चेष्टा करथि।' तीनू ताप, मने दैहिक, दैविक, भौतिक। तुलसीदास कें एहि लेल रामराज्यक काल्पनिक महल ठाढ़ करय पड़ल रहनि, मिथिलाक पर्यावरण मे ई वस्तु कण-कण मे छिड़ियायल छै। आ सब सं बढ़ि क' तं ई जे मैथिली उपन्यासकारक दृष्टि मे एहि सब कथू कें देखबाक सामर्थ्य छै।
उपन्यास मे पर्यावरण-चेतनाक थाह लैत हमरा लोकनि इहो देखैत छी जे मनुष्यक सामाजिक जीवन भने कतबो नरक बनि गेल हो, अनेक विडंबना आ अन्तर्विरोध सं भरल, मुदा पर्यावरण सदैव सकारात्मक आ आशावादी स्वरूप ग्रहण केलक अछि। आयुर्वेदक एक प्रतिज्ञा-वाक्य मोन पड़ैत अछि जे जाहि ठाम रोग अछि, ओहि रोगक दबाइ सेहो ओही ठाम अछि। किछु तेहने सन। कखनो-कखनो तं पर्यावरण चित्रण मानू थर्मामीटरक काज करय लगैत अछि जे अहां एहि सं मनुष्य-जीवनक स्वास्थ्य-परीक्षण क' सकै छी।
दोसर एक आर वस्तु उल्लेखनीय अछि जे मिथिलाक समाज, प्रकृति आ पर्यावरणक संग तेहन गहन साहचर्य मे जिबैत अछि जे कतेको उक्ति-भंगिमा सं ल' क' विध-व्यवहार धरि मे व्यक्त होइत अछि आ से सब चित्र अत्यन्त कुशलताक संग उपन्यास मे चित्रित भेल छैक। दृष्टान्त घनेरो अछि जकर उल्लेख विद्वान लोकनि अपन आलेख मे करबे करता। एहि ठाम हमरा एकटा मोहाबरा मोन पड़ैए-- खिसिया क' फड़ब। यात्रीक 'पारो' मे एकर प्रयोग देखल जाउ-- 'ओहि वर्ष, एह, आमो मुदा खिसियाइये क' फड़ल रहै।' खिसिया क' फड़ब मने बहुत फड़ब, एहि तरहक मानवीय व्यवहारक प्रकृति पर आरोपण मिथिलाक जनजीवन मे खूब व्याप्त रहलैए। खुशीक बात जे उपन्यास एहि व्याप्ति कें यथासंभव चित्रित करैत रहल अछि। मानवीय परिस्थितिक चित्रण लेल उपमान आदिक रूप मे पर्यावरणक प्रयोग सब दिन सं कविताक एक विशेषता रहलैए। से मुदा कविते धरि सीमित नहि, उपन्यासो मे एकर खूब प्रयोग होइत रहल अछि-- 'नीक जकां वर्षा भ' जाउक तहन जेना अकास साफ भ' जाइ छै, बसातक सिहकी उठै छै-- तहिना भरि पोख कनलाक बाद पारोक चेहरा-मोहरा खुजि गेलै आ सांस हल्लुक भ' गेलै।'
ई घटना बहुत बाद मे आबि क' भेलैक जे नदीमातृक देसक पर्यावरण सम्पूर्णत: मैथिली उपन्यासक विषय बनल। साकेतानंदक 'सर्वस्वान्त' 2003 मे छपल आ पंकज पराशरक 'जलप्रान्तर' तं तकरो सवा-डेढ़ दशकक बाद आयल। ई उपन्यास एक दिस जं नदीमातृक देसक सांस्कृतिक सौन्दर्यक उद्घाटन करैत अछि तं दोसर दिस नदीक वात्सल्यरूप आ रौद्ररूप दुनूक विवेचन सर्वांगता मे करबाक चेष्टा रखैत अछि। एहि ठाम रौद्रता आत्यन्तिक नहि छैक अपितु वात्सल्यभावक संग समन्वित अछि। जे पर्यावरण विकराल भेला पर मनुष्यक प्राणहर्ता शत्रु भ' जाइत अछि सैह अपन सहजावस्था मे सब सं पैघ हितैषी। साकेतानंदक उपन्यासक नाम छनि-- सर्वस्वान्त। मनुष्य सं ओकर सर्वस्व छीनि क' जे ओकरा बरबाद क' दैक, से नदी अर्थात कोशी। कोशी कें मिथिलेक नहि, बिहारक शोक कहल गेलैए, डाइन नाम धराओल गेल अछि। मुदा ई स्थितिक केवल एक पक्ष थिक। एकपक्षीय भ' क' ने तं पर्यावरणक साम्राज्य चलैत छैक ने मनुष्यक जीवन, जे कि सेहो पर्यावरणेक एक अंश थिक। दुख छै तं सुख सेहो छै। राग छै तं विराग सेहो छै। ने तं देखल जाउ, जाहि उपन्यासक नामे थिक सर्वस्वान्त, ताहि मे उपन्यासकार देसकोसक दृश्यक एहि रूपक वर्णन करैत छथि-- 'पानि बरसि रहल छै। अनवरत। गाम सं बहरायल चारू दिशा मे जाइत सड़कक दु-बगली खेत भरि गेल अछि। खेत मे पानि अछि आ पानिक ऊपर हिलकोर मे डोलैत धान। पानि तर, धान ऊपर। धान-धान-धान। नवहट्टा सं गोरौल धरि धान, नवहट्टा सं सुखपुर धरि धान, नवहट्टा सं हेमपुर भेने, कि नवहट्टा सं बलवा भेने जे सड़क बान्ह धरि जाइत अछि, ओकर दु-बगली धान एखने देखै जोगरक भ' गेल अछि। खास क' बलवा गाम भेने बान्ह तक जाइवला सड़क, जकर बाद बोड़ा चरक धान अछि, ओकरा देखिते कोनो भरल-पुरल बखारी-कोठी-भंडारक स्मरण भ' अबैत अछि। नीचां मे जखन पानि मे हिलकोर मारै छै तं धानक हरियर कंच बीट मे एकटा लहरि उठैत अछि जे तराउपरी बड़ी दूर धरि लहराइते चल जाइत अछि। ई हरियर रंग-समुद्र काल्हि अपन रंग बदलत। काल्हि एकर रंग स्वर्णाभ भ' जेतै। काल्हि धानक गर्वोन्नत बीट, अन्न-भार सं झुकि जायत। झुकि क' एहि इलाकाक सैकड़ो-हजारो वर्ग किलोमीटर मे बसल लाखो लोकक मुंह पर मुस्की बनि क' पसरि जायत।'
सही बात छै जे यैह मुस्की कोनो दिन रुदन बनि जाइ छै मुदा सेहो स्थायी नहि थिक। ओहो रुदन फेर बदलि क' ओहिना हास बनि जाइ छै जे धानक हरियर कंच शीश आगू स्वर्णाभ भ' जाइत छै। एकरे नाम जीवन छी जे पर्यावरण संग गूथल अछि, चाहे धरती पर हो तौं, उपन्यास मे हो तौं।
हं, तखन एकटा बात धरि अन्त मे हम अवश्य आग्रह करय चाहब। ई आग्रह लेखकक दुनू संवर्ग सं अछि। पहिल तं युवा आलोचक लोकनि सं जे अपना साहित्य कें देखबाक लेल ओ लोकनि इको क्रिटिसिज्म कें अपन औजार जकां उपयोग करथु। दोसर भविष्यक उपन्यासकार लोकनि सं जे स्वार्थी आ भोगलिप्सा सं रुग्ण मनुष्य आइ पर्यावरणक जे हालति बना देलकैक अछि आ जकर चिन्तना समुच्चा संसारक साहित्य मे पर्यावरण-चेतनाक रूप मे भ' रहल छै, तकरा प्रमुखतापूर्वक अपन औपन्यासिक विषयवस्तुक केन्द्र मे लाबथु। कहबे केलहुं, जे हारल अछि, जे अब्बल-दुब्बल अछि अथवा जबरन बना देल गेल अछि, साहित्यक केन्द्र मे विराजित हेबाक पहिल हक ओकरे छैक।
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