तारानंद वियोगी
'ग्लोबल गाम सं अबैत हकार'क कवि कृष्णमोहन झा 'मोहन'क दोसर कविता-संग्रह बहराएल अछि। एहि संग्रहक ओ नाम रखलनि अछि-- दकचल समय पर रेख। संग्रह देखि पहिल तं ख्याल यैह आएल जे चारि-पांच साल पहिने जे हकार आएल छल तकरा स्वीकार क' लेल गेल। आ एतबी दिन मे हालत ई बनलै जे तमाम समय दकचा गेल अछि। मुदा, ई कवि हारि मानय बला जीव नहि छथि। एहि आशयक एकाधिक कविता एहि संग्रहो मे संगृहीत छै जतय ओ कहै छथि जे हारल नहि छी, वा कि संघर्षे हमर उत्कर्ष थिक। तें दकचलो समय पर अपन रेख घीचब हुनका जरूरी लगलनि अछि।
मोहन जीक कविताक कैक गोट विशेषता सब अछि जे पहिलो संग्रह मे देखार पड़ल छल आ एहू मे देखाइत अछि। अपना कविताक लेल बिम्ब कि प्रतीक कि विडंबना ओ समकाल सं उठबैत छथि, आ एना करैत वाजिबे कविरूढ़ि सं बाहर निकलबाक चेष्टा रहैत छनि। तहिना, अप्पन अनुभव हुनका लेल सर्वाधिक मूल्यवान रहलनि अछि, आ एहि कारणें ओ समकालीन कविता कें कैकटा नब मोहाबरा प्रदान करबाक यश प्राप्त केलनि अछि। हुनक काव्यभाषा सुरुहे सं वर्णनात्मक रहलनि अछि, मुदा खूबी ई छनि जे कैक गोट दुर्लभ चित्र घीचि पबैत छथि जे पाठक कें बहुत दिन धरि मोन रहि जाइत अछि।
अपन दकचल समयक पहचान लेल हम एहि संग्रह कें पढ़ैत छी। अपन काव्यलेखन-कर्म कें परिभाषित करैत एक ठाम लिखलनि अछि--'समयक मुंह पर साटल विज्ञापन सब कें ओदारि रहल छी।' वाजिबे। विज्ञापनक खगते एही लेल पड़ैत छैक जे कोनो झूठ प्रचारित करबाक रहै छै। बड़का-बड़का होर्डिंग सब जहां-तहां चमचमाइत देखायत, सब क्यो देखैत छी। मुदा कविक अनुभव की छनि? एक ठाम कहै छथि-- 'ओकरा होर्डिंगक छाह सं हमर चिनबार अन्हार होइत जा रहल अछि।' चिनबारक अन्हार होयब की थिक? अपन परंपराक, अपन मूल्यक ध्वस्त होयब। आम आदमीक पराभव मे कविक पराभव निहित छैक। विज्ञापन मे इजोत छैक जखन कि वास्तव मे अछि अन्हार। इजोतक एते विज्ञापन होइत देखि एकर असार-पसार पर कठोर व्यंग्य करैत छथि-- 'अन्हार गरीबक गंजी जकां गुदरी-गुदरी भ' गेल अछि।' एक ठाम विकल्पहीन लोक-समाजक दुर्दशा पर कहै छथि-- 'झूठ-सांचक जंगल मे औनाइत लोक पांगल गाछ जकां विकल्पहीन, मात्र छिप्पी परहक चतरल हरियरी कें अपन विकास मानि रहल अछि।' औनाइत लोक, ओहू मे झूठ-सांचक जंगल मे, ओकर नियतिये आर की भ' सकैत अछि? एक कविता मे कहै छथि-- 'बड़ कठिनाह लगै अछि एहि समय कें फटकब, झूठ-सांच कें झटकब-ओसायब, बिछब-बेरायब।'
झूठ-सांचक ऐश्वर्यक प्रताप आ परिणाम अनेक कविता मे आएल छैक। एक ठाम कहै छथि-- 'एकरे सभक अट्टालिका पर ओंगठल अकास मे उड़िया रहल छै तूरक फाहा जकां समयक विश्वास, उधेसल सरोकार, आ जिनगी अपनहि गामक गाछी जकां डराओन, त कखनहु आन गामक पोखरि जकां भयाओन होइत जा रहल अछि।' मुदा मुश्किल ई छै जे समयक जे रूप कवि कें देखार पड़ै छनि, हुनकर समाज एकरा देखि पयबा मे असमर्थ अछि। किए? एक ठाम सेहो बतबै छथि-- 'समयक फरेब मे घुरमुड़िआएल जिनगी, सेहन्ताक कोनो खोप मे सुस्ता रहल अछि।' देश नहि, समाज नहि, मनुष्यता नहि, एकमात्र सत्य बचि गेल अछि निहित स्वार्थ, स्वार्थ सधि रहल अछि तं सब ठीक अछि आ अपने ओ सुस्ता रहल अछि, जहिया एकरा सिर पड़तै तहिया देखल जेतै। जकरा सिर पड़ि चुकलैए, एहि संग्रह मे तकरो प्रसंग कविता अछि-- 'अगिलग्गीबला घरक खाम्ह छलाह, जकरा पर फेर कहियो बड़ेरी नहि चढ़लै।'
एकटा कविता छनि 'सींघबला लोक'। ओकर आरंभ एना केने छथि-- 'जखन-जखन कोनो धूर्त महानताक माथ पर देखैत छी हम प्रतिष्ठाक पाग, हमर चोखाएल घाओ फेर सं पिजुआ जाइत अछि, आ भीतर-भीतर फिनगय लगैत अछि।' केहन भयावह एकाकीपन छै विवेकी लोकक? 'धूर्त महानता' प्रतिष्ठित अछि तं विवेक के कोन काज? क्यो जं संवाद करितो अछि तं की संवाद करैत अछि? आ तकर परिणाम की बहराइत छैक? एक ठाम लिखलनि अछि-- 'ओहि अपरतीब समय मे जखन देमय लगै छल कियो भाग्यवादी उपदेश, कमठौनीक खियाएल खुरपी सं कोनो ने कोनो बीट कटि जाइत छल।' भयावहताक अनुमान करू। बीटक विकास लेल कमठौनी कयल जाइ छै। मुदा, वैह बीट ओही खुरपी सं मारल चलि जाइत अछि। एहना मे के ककरा सं संवाद करौ? मोहन जीक कविता सं पता लगैत अछि, एहि दकचल समय के जते संताप मिथिला पर पड़लैए, से अतत्तह भयानक अछि।
'समय सं संवाद' कविता मे समयक चिन्हास बतबै छथि-- 'जेना कुरुक्षेत्र मे फेर सं शुरू भ' गेल हो महाभारत, जेना सिकंदर आबि गेल हो भारत विजय करै, जेना जलियांबाला बाग मे तड़तड़ा रहल हो अंग्रेजक बंदूक।' एक दोसर कविता मे कहै छथि-- 'जेना धर्म सं मनुष्यता कें कोनो सम्बन्ध नहि।' कवि पर जे एहि समयक प्रभाव प्रतिक्षेपित होइ छै, हुनकर बिम्बक टटकापन देखल जाय-- 'गोबर औंसल अंडी जकां, आ कि पाथर राखल पथारक खेरही जकां, हमर चानि चनचनाब' लगैत अछि।' यात्रीजी कहैत रहथिन, कवि जखन बहुत अधिक सीदित होइत अछि तं ओकर कविता श्राप मे परिणत भ' जाइछ। मोहन जीक श्राप देखू-- 'नोरक ई बुन्न सम्हारि क' राखि लिय', भविष्य मे काज देत सम्बन्धक दर्द पीबा लेल।'
दकचल समयक आरो बहुत रास चिन्हास एहि संग्रह मे अनेक ठाम आएल अछि। एकठाम कहै छथि-- 'आइ चेहरा देखि क' आदमी कें आदमी कहब मोसकिल अछि।' तहिना, 'आइ घर शहर मे अछि, आ कि शहर घर मे, कहब मोसकिल अछि।' एक ठाम शहर कें परिभाषित करैत कहैत छथि-- 'शहर माने होइत छै सपनाक व्यापार।' शहर आ गाम के बीचक जे सम्बन्धशास्त्र छै, देशव्यापी तालाबंदीक स्मरण करैत छथि-- 'कतेको गोटे देशक भूगोल आ इतिहासक काते-कात, चलैत चलि जा रहल छल गाम।' जहां धरि कविक अपन स्थितिक प्रश्न अछि, एक कविता मे कहै छथि-- 'एहि बाजारू सुख-सपना सं जखन कखनहु भक खुजैत अछि, हम अपने भीतर बनैत मरुभूमि देखि डेरा जाइत छी, भविष्यक अंदेसा मे हेरा जाइत छी।'
जहां धरि मोहन जीक काव्ययात्रा मे पड़ाव आ विकासक प्रश्न अछि, कवर-फ्लैप पर छपल कृष्णमोहन झाक एहि कथन सं हम अपना कें पूरा सहमत पबैत छी जे 'दोसर संग्रह हिनक पहिल संग्रहक विस्तार आ पूरक प्रतीत होइत अछि।'
कवर पर वंदना तोमर के चित्र छापल गेल अछि, जे एक कलाकृतिक रूप मे अपन खास पहिचान बना पाबि रहल अछि। दकचल समय पर रेख घीचब सेहो कते मननीय आ सौन्दर्यपूर्ण भ' सकैत अछि, तकरा एतय देखल जा सकैत अछि। कवि, चित्रकार आ प्रकाशक तीनू कें बधाइ छनि।
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