Saturday, December 11, 2021

एम्हर जे पढ़लहुं-1 जनम जुआ मति हारहु हो/हरिदास

 

धोखे काहे बिगाड़हु हो

तारानंद वियोगी


मैथिली मे अइ किताबक प्रकाशन एक घटना थिक, जकर असर बहुत दिन धरि कायम देखल जेतै। से बहुतो कारण सं। पाठक एकरा पढ़ता तं अपनहु बुझता, मुदा किछु बात एतय हमहू कहै छी।
        विधाक दृष्टियें देखी तं ई आत्मकथा, वा एकर संक्षिप्तता कें देखैत से कहब पसंद नै हो तं, संस्मरण विधाक किताब छी। मुदा एकर अस्सल महत्व एकर ऐतिहासिकता मे छै। सब गोटे जनै छी जे इतिहासक मामला मे मिथिला बड़ अभागल रहल अछि। जै बात सब कें सार्वजनिक रूपें जनाएल जेबाक चाही, तै बात सब कें एतय सब दिन झांपि-तोपि क' राखल गेल। मिथिलाक वास्तविक इतिहास सब दिन मौखिक रहल जे पीढ़ीक संग विलुप्त होइत चलि गेल। तखन इतिहासक नाम पर लिखल गेल कथी? मुकुंद झा बक्शी 'मिथिला भाषामय इतिहास' लिखलनि। 'मय' के अर्थ एतय 'मे' बुझबाक चाही। मने मैथिली भाषा मे मिथिलाक इतिहास। ई की छल? महामहोपाध्याय जी खंडबला वंशक कथा लिखने छला, एखन हाल मे अइ दुर्लभ किताब कें 'खंडबला राजवंश'क नाम सं प्रकाशितो कयल गेल अछि। मानू तं किताबक अशुद्ध नाम कें एकैसम सदी मे आबि क' शुद्ध क' देल गेलैए। एक राजवंशक इतिहास भेल मिथिलाक इतिहास। बाद मे जखन तकनीकी इतिहास-ज्ञान बला लोक सभक प्रवेश अइ क्षेत्र मे भेल तं ओ लोकनि खंडबलाक संग ओइनवार आ कर्णाट राजवंश कें सेहो जोड़ि लेलनि। एतद्धि रामायणम्। मिथिलाक जन-इतिहास लिखबाक बात तं बहुत दूरक गप भेलै, महाराजी सीमा सं बाहर जे प्रभावशालियो लोकनि छला, जेना महंथ लोकनि, आन-आन जमींदार लोकनि, नगरसेठ लोकनि, संत आ फकीर लोकनि, कते कहल जाय, हिनका सभक कोनो इतिहास नहि आएल। ई किताब यद्यपि साहित्यक किताब छी, ओहू मे आत्मकथा विधाक, तें एक व्यक्ति, ओकर समुदाय, ओकर अनुभव-व्याप्ति धरि स्वभावतया सीमित अछि। मुदा, एकर लेखकक जीवनक व्याप्तिये तते पैघ छनि जे एतय हम सब आधुनिक मिथिलाक जिबैत-जागैत. इतिहास-लीला देखि सकैत छी। ओइ किताब सब जकां ई मुरदा नै अछि जीवन्त अछि, तकर कारण ई जे मानवीय अनुभूतिक तप्पत-तप्पत ऊष्मा एतय सब ठाम छिड़ियाएल भेटत। दोसर जे तरुणावस्थे सं विशिष्ट वर्गक परवरिश मे पलनिहार एकर लेखक प्रयत्नपूर्वक विशिष्टताक चोला के बंधन कें तोड़ि मुक्त भेला आ साधारण गृहस्थ जन जकां अपन जीवन-पद्धति स्वयं अपना सं चुनलनि, विशिष्ट आ तें एकाकी जीवन कें जनसंकुल बनेलनि, तें अइ मे मिथिलाक जीव-जगतक बहुतो रास मौलिक तत्व आबि क' शामिल भ' गेल अछि। बहुतो एहन विषय अछि जकरा बारे मे हमरा लोकनि सुनिते टा रही, जेना जोगी-मुनीक पवित्र बाना मे राक्षस कोना रहैत अछि, कोना कोशीक मृत्यु-तांडव गामक गाम कें जनशून्य क' दैक, कोना जखन अपन रक्तसम्बन्धी जान मारबा लेल सबतरि जाल पसारि देने रहै छै तं छोट-छोट पराया लोक, आन जातिक, आन धर्मक लोक, प्राणरक्षक बनि क' ठाढ़ होइ छै। आदि-आदि।
        अइ किताबक लेखक हरि दास छथि। दास मने चमार नहि, ब्राह्मण, नीक कुल-मूलबला मैथिल ब्राह्मण। यद्यपि कि अइ किताबो मे प्रसंग आएल अछि जे घोर जातिवादी मैथिल ब्राह्मण हाकिम हरि दास जी कें कोना चमारे बुझने छला आ बरखो दिन धरि हुनकर कमाएल रोजी कें लसका क' रखने छला। बाद मे जखन बुझबा मे अयलनि जे चमार नै ब्राह्मण थिका तं मिनटो मे कोना भुगतान भ' गेलनि। मैथिल ब्राह्मण टाइटिल मे दास देखि क' हमरा गोविन्द दास मोन पड़ि जाइत छथि, मैथिलीक महान कवि गोविन्द दास। सोलहम शताब्दी मे बेचारे न्यायदर्शन पढ़य मिथिला सं बंगाल गेल छला। ओ समय छल जखन चैतन्य महाप्रभुक रागानुगा वैष्णवभक्ति अपन चरम जनप्रियताक दौर मे छल। गोविन्द दास वैष्णव भ' गेला आ ओम्हरे, बंगाल मे, कृष्णभक्ति मे लीन, राधाकृष्णक गीत लिखैत-गबैत अपन जिनगी गुदस्त क' देलनि। ओ समय छल जखन सौंसे बंगालक वैष्णव-संप्रदाय मैथिली लिखै छल जकरा ब्रजबुलि कहल जाइ। आधुनिक युग मे कोना मैथिल विद्वान लोकनि कें गोविन्द दासक पता लगलनि, आ ब्राह्मण हेबाक कारण कोना चक्रचालि रचि क' हुनका मे मैथिलत्व आरोपित कयल गेल, तकर बहुत लंबा खिस्सा अछि। मुइल महापुरुषक दुखो तं अनंत होइ छै, भला ओ कथू मे कोना इनकार करै लेल आबि सकितथि? एम्हर हम सब युग-युग सं देखैत आएल छी जे मैथिल लोकनि वैष्णवक अकारण शत्रु होइत छथि, से जगजानित तथ्य थिक। अकारण शत्रुता किएक, ताहि बारे मे इतिहासकार उपेन्द्र ठाकुर लिखने छथि जे वैष्णव धर्म मे वर्णाश्रमक शिथिलता छैक, जखन कि मैथिल लोकनि संकुचित मनोवृत्तिक छला। 'मैथिल समाजक एक शक्तिशाली वर्ग जे अपना कें धर्मक ठेकेदार बुझै छला, एकर कट्टर विरोधी रहथि, कारण वैष्णव मतक लोकप्रियताक परिणाम होइत--ओहि विशेष सुविधाप्राप्त वर्गक विनाश।'(मिथिलाक सारस्वत साधना)
        उपेन्द्र ठाकुरक अइ कथन मे भूतकालिक क्रियाक प्रयोग भेल अछि। पूर्व मे एहन छल, तं की वर्तमान किछु भिन्न भ' गेल अछि? एकैसम शताब्दीक बसात किछुओ मिथिला कें लगलैक अछि? जी नहि, ई घृणा आरो बढ़िये गेल अछि। जं विश्वास नै हो तं 2013 ई. मे छपल मायानंद मिश्रक इतिहास मे गोविन्द दास बला अध्याय देखि लेल जाय। ब्राह्मणे हेबाक दुआरे एक जबाना मे वैष्णव गोविन्द मिथिला मे स्वीकार कयल गेल छला, मुदा हुनक दुखक नहि ओर। मायानंद मिश्र हुनका आर तं छोड़ू, एक भक्तकवि धरि मानबा सं इनकार क' गेला आ पूर्णत: तहिना एक सुच्चा शृंगारिक कवि मानलनि, जेना हिन्दी मे केशव दास। विचारल जाय, कोनो भक्तकवि जे अपन भक्ति मे लीन भ' ने केवल अपन जीवन-सर्वस्व समर्पित क' देने हो, अपन गाम-घर, देस-कोस, अपन वंश-परंपरा धरि कें तिलांजलि द' देने हो, तकरा जं काल्हि भक्तकविये हेबा सं इनकार क' देल जाय, मात्र अइ आधार पर जे हुनकर भक्ति मे वर्णाश्रमक शिथिलता अछि, तं ई केहन भयंकर अन्याय कहल जायत! मुदा, आगू कहिया हुनका संग एतय, मिथिला मे की हेतनि, के कहि सकैत अछि? मिथिला की थिक? एक अगम्य जंगल थिक जकर जयगान तं खूब गाओल जा सकैए मुदा जंगली जीव सं इतर प्राणीक सहज जीवन एतय जारी नै रहि सकैत अछि।
        ई किताब मुदा, बाहरक मैथिलक आंखि सं नहि, भीतर विद्यमान मैथिलक आंखि सं देखल वैष्णवक कथा थिक। हरि दास जी स्वयं दीक्षित वैष्णव रहथि आ मिथिलाक वैष्णव बानाक भितरिया वृत्तान्त लिखलनि अछि। समुच्चा वृत्तान्तो नहि, वृत्तान्तक मात्र एक भाग। संयोग देखू जे अहू किताब मे एकटा गोविन्द दास छथि। चनौरागंज मठक महंथ राधाचरण दासक ओहो तहिना खास अपन भातिज छथिन जेना लेखक हरि दास छलखिन। हरि दास के सुपात्रता सं प्रभावित भ' महंथ हुनका अपन उत्ताधिकारी, मने करोड़ो टाकाक जमीन्दारी के वारिश चुनने छला, मुदा जेना कि एकटा इमानदार लोकक संग होइत छै, ओ अपन आत्माक आवाज सुनैत अछि, धन-वित्तक लालच मे अपन आत्मा कें नै मारि सकैत अछि, सैह हरि दासक संग भेलै। बैरागी जीवन हुनका संतुष्ट नै क' सकल आ ओ विद्रोह क' क' गृहस्थ भ' गेला, विवाह क' लेलनि, यद्यपि कि प्रेमविवाह टाइप के कोनो रोमांस ओतय नहि रहैक। महंथ हुनका निकालि तं देबे केलखिन, हुनकर जानी दुश्मन भ' गेला। आ, हरि दासक स्थान पर जाहि दोसर व्यक्ति कें उत्तराधिकारी चुनल गेल, ओ गोविन्द दास छला।
        महंथ राधाचरणक बारे मे हरि दास बतबै छथि--'आठ वर्षक अवस्था मे ओ तपस्वीक व्रत धारण केने छला आ मुंजक मेखला, सर्वांग भस्मलेप आ धुनीक सेवन कर' लागल छला। वैशाखक तपैत दुपहरिया मे ओ चौरासी धुनी रमबैत छला। वृंदावन मे कठोर चतुर्मासक व्रत करैत छला। एहन महान तपस्वी कें कहियो धनक कमी नइ भेलनि। ओ डालमिया जैन एयरवेजक शेयरधारक मे सं छला। आगां चलि क' चनौरागंजक मठाधीश जमीन्दार सेहो ओ बनि गेला। दरभंगाक लक्ष्मीसागर महावीर मंदिरक सेहो ओ मालिक भेला। एहि प्रकारें देखी तं ओ भाग्यक सिकंदर रहला। लक्ष्मी हुनका आगां-पाछां डोलैत रहलि। मुदा ई हमरा समझ सं बाहरक बात थिक जे एहि महान योगी-बैरागी कें संपत्ति सं एते व्यामोह किएक भ' गेलनि?' ठीके ई समझ सं बाहरक बात थिक जे एक तपस्वियो जखन जमीन्दार बनैत अछि तं ओकरा असले जमीन्दार जकां रैयत कें गरीब, बदहाल, रोगग्रस्त विपन्न देखबाक हिंस्र हिस्सक लगैत छैक। लक्ष्मी कें ओ अपन वंशक भीतर बान्हि क' राखय चाहैत अछि। अन्याय आ अनीति ओकरा लेल नीति आ न्याय होइ छै। अइ किताब मे खंडबलाक राजतंत्रोक चित्र आएल अछि आ आनो आन जमीन्दारक।  खंडबला जमींदारी-व्यस्थाक एक चित्र देखल जाय, जे 1940 ई.क कोशी-विभीषिकाक संदर्भ मे आएल छैक--'अंग्रेजी सत्ता कोशीक विभीषिका सं अपन ध्यान हटा लेने छल। गोरा-सरकार कोशी क्षेत्रक जनता कें अपन भाग्यक भरोसें मरैक लेल छोड़ि देने छल। लाखक लाख लोक मरैत रहल आ सरकार निसभेर भेल सूतल रहल। (किछु गोटे कें एतय कोरोना सेकंड फेजक मृ्त्युलीलाक दृश्य मोन पड़ि सकै छनि।) आ सैह रवैया दरभंगा राजघरानाक सेहो छल।  दरभंगा महाराजेक जमीन्दारी मे कोशी क्षेत्र अबैत छल। जमीन्दार सब अपन प्रजा पर भीषण अत्याचार करैत छल। बलजोरी जमीन्दारी टैक्स असूलैत छल। समय पर टैक्स नहि देबय बला लोक कें जरैत दुपहरिया मे सूर्य दिस मुंह क' क' दूटा इट्टा पर ठाढ़  क' देल जाइत रहै। दरभंगा महाराज सेहो कोशी क्षेत्रक उपेक्षा मे कोनो कोताही नइ छोड़लनि। राजा अपन प्रजाक सुधि नइ लेलक।‌ ओ पंडितक सभा मे 'धौत-परीक्षा'क संचालन करैत रहला। भोग-विलास मे डूबल रहला। अंग्रेज सरकारक हुनका आशीर्वाद प्राप्त छलनि। उच्च वर्ण दरभंगा महाराजक अपन रहलनि, एहि सं इतर लोकक कोनो टा सुधि नहि लेल गेल। शिक्षा, स्वास्थ्य और संचार मे कोनो रुचि नहि लेल गेल। दरभंगा नरेशक उद्देश्य रहल अंग्रेजक खोसामद। बाद मे ओ कांग्रस सं सेहो जुड़ला मुदा उद्देश्य मात्र अपन रियासत बचेबाक छल, जनकल्याण आ देशप्रेमक कोनो भावना नहि। ताहि समय कोशीक डरें जं क्यो पलायन क' जाइत रहय, तकर डीह-खेत कें दरभंगा राज द्वारा नीलाम क' देल जाइत रहै आ ओकरे राजक अमला-खसला ओकरा खरीद लैत छल।' आइ जे हम सब अपना समाज मे पैघ-पैघ खान्दानी भूधारी सब कें देखैत छी, तकर रहस्य अइ सब ठाम अछि। प्रश्न अछि जे ई सब बात इतिहास मे किए नै आएल, साहित्ये मे किए आएल? अइ सं अकादमिक तबकाक सामंती संबद्धता आ आबद्धताक अनुमान कयल जा सकैत अछि। दोसर, जे आधुनिक साहित्य स्वयं मे एक स्वतंत्र आ स्वायत्त अनुशासन थिक, आ सदा इतिहास वा समाजशास्त्रक पिछलग्गू बनल रहबाक लेल विवश नै अछि। लेखक मे तकर बोध टा हेबाक चाही। से बोध हरि दास जी मे पूरा छनि, जखन कि ओ कोनो पेशेवर लेखक टाइप लोक नै छथि।
        अइ किताब मे, वैष्णव महंथ जमीन्दारक अत्याचार आख्यानक केन्द्र मे अछि जकर सामना हरि दास जी कें प्राय: सौंसे जीवन करय पड़लनि। बैरागियोक जखन पतन होइ छै तं आने लोक जकां कोनो भ' क' रुकि नइ जाइ छै, निरंतर होइत रहैत अछि। स्वयं ओइ महंथक अंत अंतत: कोना भेलनि, अइ किताब मे तकरो खिस्सा आएल अछि। मुदा, तै सं पहिने, जखन महंथ कें लगै छनि जे हुनकर संपत्तिक ठीक-ठीक रखबार हुनकर भातिज नै, भगिनी आ भगिनजमाइ भ' सकै छथि, तं ओइ बेचारे गोविन्द दास कें कोना कुटिल रूपें कलंकित क' क' बैला देल गेल, तकरो प्रसंग आएलअछि। इहो गोविन्द ओही गोविन्द जकां खेहारल गेला। लोक भने बाहरक होथि कि घरक, मिथिला मे गोविन्दक पराभवे पराभव। लंबा संघर्षक बाद, जखन साधारण देखाइत असाधारण योद्धा हरि दास महंथक सब दाव-पेंच कें निष्फल क' दैत छथि आ महंथ समझौता करै लेल विवश होइ छथि, तं हम सब देखै छी, हरि दासक एक शर्त इहो रहै छनि जे गोविन्द दास कें उत्तराधिकारी बहाल कयल जाय।
        प्रसंगवश चनौरागंज मठक स्थापनाक इतिहास के चर्चा सेहो अइ किताब मे आएल अछि। हरि दास जी लिखै छथि-- 'चनौरागंजक मठ विष्णुस्वामी संप्रदायक थिक। ई करीब 200 वर्ष पुरान मठ अछि। पश्चिम बंगालक मुर्शिदाबाद सं आयल कोनो घुमन्तू संत एत' आबि क' एकटा कुटी बनेलनि। एत' दरभंगा महाराजक खवासक हवेली छल। खवास शक्तिशाली छला। हुनकर दरबज्जा पर कतेको हाथी बान्हल रहैत छल। हवेलीक आगां‌ खरिहान छल। ओ संत ओइ खरिहान मे कुटी बना लेलनि आ समय पाबि क' राधाकृष्णक स्थापना क' देलनि। खवास गलैत गेला आ साधू मोटाइत गेला। यैह कुटी एक दिन बड़का मठ बनि गेल। आगां चलि क' ई मठ एकटा बड़का जमीन्दार सेहो बनल।' हम जे ऐतिहासिक महत्व बला बात ऊपर कहलहुं, हरि दास जीक एक-एक विवरण मे कोना इतिहासक आशय आ संकेत भरल छनि, से बुझबाक लेल अइ विवरण कें देखि सकै छी। धन कोना अबैत छल आ कोना चलि जाइत छल, तै बात कें अइठां स्पष्ट देखल जा सकैए। जे राजवंश एते अविवेकी छल जे एकटा खवास(वीरू खवास)क स्वातंत्र्य-चेष्टा सं कुपित भ' क' संपूर्ण मिथिला मे बसनिहार ओइ जाति(कुर्मी)क समुच्चा आबादीक संपत्ति जब्त क' देसनिकाला द' सकै छल, तकरे एक खवास केहन मोटाएल अछि, से एतय देखल जा सकैए। मुदा, ई रहस्य अछि आ रहस्ये बनल रहत जे खवासक भितरिया कनेक्शन महाराज संग की आ केहन रहल हेतनि। तें गुणी आ मर्मज्ञ मांगनलाल खवास धरि सेहो संपत्तिक किछु ढेला गुड़कि जैतय, तकर कल्पना करब अरण्यरोदने करब हैत। मिथिला मे वैष्णव मठक प्रवेशक एक आर ऐतिहासिक सूत्र सेहो एतय हमरा लोकनि कें भेटैत अछि जे पचपनियां लोकनि हुनका शरण देने छलखिन।
        अइ किताबक संग एकटा मजेदार बात इहो छै जे एकर नामकरण कबीरक एक मैथिली पदांश ल' क' कयल गेल अछि-- जनम जुआ मति हारहु। मिथिला मे कबीरक सैकड़ो मठ अछि। हुनकर हजार मैथिली पद चारि सय बरस सं मिथिला मे प्रचलन मे बनल अछि। एक जबाना मे आचार्य सुभद्र झा शोधपूर्वक ई प्रमाणित कयने रहथि जे कबीरक पैदाइश मिथिलाक छलनि। मुदा अइ तमाम सं दूर, ब्राह्मण-समाज मे कबीर कहियो उद्धृत कयल जाइ योग्य संत मे सं नै रहला। उनटे लक्ष्मीनाथ गोसांइयो सनक सिद्ध महात्मा घृणापूर्वक कबीर कें गरियबैत पाओल जाइत छथि। कारण आर किछु नइ, कबीरक ब्राह्मणेतर वैष्णव होयब आ वर्णव्यवस्थाक विरोधी होयब। मुदा, हरि दास जी माथ परहक मुकुट जकां कबीरक पद कें धारण कयने छथि। मनुखक जन्म आत्मपरिष्कारक लेल भेल छै, ओकरा समस्त भ्रम सं बाहर निकलबाक चाही, अइ दुर्लभ अवसर के पूरा उपयोग करबाक चाही, आ यत्नपूर्वक लागल रहबाक चाही जे ओ जुआ हारि क' नइ विदा हुअय, पुरुखार्थ कइये क' गुजरय-- 'मानुस जनम सुधारहु साधो, धोखे काहे बिगाड़हु हो/ अइसन समय बहुरि नहि पइहह, जनम जुआ मति हारहु हो।' कबीर पिंड आ ब्रह्माण्ड कें एकरूप मानैत छला, तें हुनका लेल ई कोना संभव भ' सकै छल जे जाति, धर्म, संप्रदाय आदिक आधार पर एक मनुख सं दोसर मनुख भिन्न हैत, तकरा स्वीकार करितथि! मिथिला मे बहुसंख्यक समाज एहन बसैत अछि जकरा वर्चस्ववादी लोकनि जन्मक आधार पर छोट मानैत छथि। अइ मे सत्यता तं भइये कोना सकैत अछि कारण ई प्रकृति आ अध्यात्म दुनू नियमक हिसाबें मिथ्या मान्यता थिक, मुदा अही बल पर बीस प्रतिशत लोक अस्सी प्रतिशत जन पर अपन दबौट कायम कयने रहल अछि। अइ तरहें देखी तं कोनो कुलीन लोकक जीवन मे कबीरक शामिल होयबे अपना आप मे एक क्रान्तिकारी कदम थिक। ई क्रान्तिकारिता हरि दास जी मे पदे-पदे हमरा लोकनि देखि सकैत। एतय अखिल मानवताक प्रति प्रेम आ संरक्षणक भाव छै। परंपरित चलन पर नहि, अपन जीवनानुभवक आधार पर दुनियादारीक पक्ष-निर्धारण कयल गेलैए। सांच कें सांच कहबाक दमखम छै, कारण आंतरिक निर्भयता अही तरहें लोक मे आबियो सकै छै। जेना मुसलमानेक मामला कें ली, तं मुसलमानक प्रति कतहु पड़ोसी-सम्मत, मनुष्यता-सम्मत नेहछोह छै तं कतहु इहो छै जे अवसर पड़ला पर मुस्तकीम कि रजी अहमद सेहो कोना एक ब्राह्मणे जकां हुनका संग धोखाबाजी केलकनि।
        मृत्यु, रोग आ दुश्मनी-- ई तीनू विषय कहल जाय तं अइ किताबक केन्द्रीय विषय थिक। कहल जाय तं ई विषये सब अइ बात पर प्रकाश देबाक लेल काफी अछि जे सामंती शासन आ समाज दुनिया कें कते कुरूप बना देलकै अछि। घरहंज के चरम सीमा धरि अकालमृत्युक प्रत्यक्ष कारण भने कोशी देखाइत हो, एकर असल कारण तं जमीन्दारी आ सरोकारविहीन सरकारे अछि। मिथिलाक जन-इतिहासक बानगी देखल जाय--'ताहि जबाना मे जमीन्दार सब नइ चाहैत छला जे हुनकर रैयत-रिआया स्वस्थ रहय, पढ़य-लिखय आ धनवान बनय। तें जखन कोनो बालक शरीर सं स्वस्थ रहय, पढ़य मे तेज निकलि जाइ तं ई जमीन्दार सब ओहि बालकक अभिभावक पर जोर द' क' पन्द्रह-सोलह वर्षक अवस्था मे ओकर विवाह करबा दैत छल जाहि सं नून-तेल मे उलझि क' ओकर शिक्षा चौपट भ' जाइ छलै। जं ककरो लग दूटा पैसा जमा भ' जाय तं ओकरा मर-मुकदमा मे फंसा देल जाइत छल। एवंप्रकारें अपन एकछत्र राज कायम रखैत छल ई जमीन्दार सब।' अइ मे संत-असंत के कोनो फरक नइ छल, बस ओकरा जमीन्दार अथवा ओकर आदमी, ओकर दलाल टा हेबाक जरूरी रहय। अखनहु मिथिलाक वर्चस्वी समाज, जे कि ओइ जमीन्दार लोकनि कें अपन आदर्श मानैत छथि, अही सब साधनक प्रयोग यथासाध्य खुलेआम करैत छथि, सफल नहियो होथि तं कोशिश जरूर सैह रहैत छनि। अइ किताब मे अइ तरहक ऐतिहासिक चरित्र सब अनेको ठाम आएल अछि जकरा आधार बना क' आइयो हम सब अपन गौआं, पड़ोसिया के नीयत के ठीक-ठीक पहचान क' सकै छी। आ, मैथिल समाजक समुचित वर्गीकरण क' सकै छी।
        मृत्युक सामुदायिक हाहाकार संग अइ किताबक शुरुआत होइत छै, अइ दुआरे जे स्वयं लेखकक स्मृति मे जे हुनकर नेनपन छनि से अही हाहाकार सं भरल अछि। 1940क कोशीक मृत्युलीलाक चर्चा ऊपर भ' चुकल अछि। ओतहि सं लेखकक जीवन शुरू होइत छनि आ ई किताब सेहो ओतहि सं शुरू होइत अछि। लेखकक माय कोना मुइलीह आ अंत्येष्टि क' क' घुरल ससुर सेहो लगले कोना मुइला जे सुनगले चिता पर हुनको संस्कार कयल गेलनि, आदि। ओ अनाथ बालक जखन वृन्दावन पहुंचल, छव-सात बर्षक उमर रहल हेतै। ओहि ठाम हुनकर परवरिश भेलनि, शिक्षा-दीक्षा भेलनि, मने हरि दास नामकरण सेहो। वृन्दावनक स्मरण करैत लिखैत छथि-- 'जखन हम वृन्दावन आएल रही हमर उम्र लगभग छव-सात वर्ष छल आ हम एतक भाषा नहि बुझैत छलहुं। स्कूल मे हम अपना कें अलग-थलग महसूस करैत छलहुं। शिक्षकक बात सेहो नहि बुझैत छलहुं। मुदा साल बितैत-बितैत हम ब्रजभाषा नीक जकां बूझ' आ बाज' लागल रही।' एहि क्रम मे हुनका वृन्दावनक जे सब चीज मोन पड़ै छनि, स्कूलक ओ रिफ्यूजी सिन्धी(भारत-विभाजन सं विस्थापित) सहपाठी जे हुनकर दबात सं मोसि बहार क' लैत छलनि, आ मोहल्लाक ओ माली परिवार जिनका ओतय बकरीक दूध पिबै छला आ रोज स्कूल जाइ सं पहिने आंखि मे काजर लगबबैत छला। भूमिका भाग मे श्रीधरम लिखलनि अछि, साठि वर्ष सं बेसी समय बितलाक बाद जखन हरि दास जी 2016 मे वृन्दावन गेल छला, नेनपनक अइ अनूप शहर मे ओ जरूर दू-तीन दिन रुकब पसंद करता से अनुमान छल, मुदा दुइये-तीन घंटा बितैत-बितैत पुत्र कें कहलखिन-- 'हौ, हमर वृन्दावन तं हेरा गेल। एहि पर बनियांक कब्जा भ' गेल छह। चलह, हमरा नहि रुकबाक अछि।' संयोग देखू जे ओहि वर्ष ओ दिवंगत भेला।
        मिथिला एहन अभागल भूमि हेबाक लेल अभिशप्त अछि जतय कुलीन लोकनिक समुदाय मे कुटिल, कामी, पाखंडी आदि लोक तं थोकक हिसाब सं भेटता मुदा स्वतंत्रचेता मनुख भेटब दुर्लभ छथि। जे अपन आत्माक पुकार पर, केवल अइ लेल जे बैराग्यक जीवनशैली ओकरा पसंद नै छै, ओ महंथीक करोड़ो के जमीन्दारी सं मुक्त करबाक नेहोरा करत, से तं जेना सोचबो असंभव अछि। हरि दास जी एहने असंभव लोक छला। महंथ जी कें जखन ओ साफ कहि देलखिन जे ओ विवाह करता तं महंथ जी कें स्वाभाविके एहन लगलनि जे ई बालक स्त्रीक भोग करय चाहैत अछि। ओ उतारा देलखिन जे अइ लेल विवाह करब जरूरी नै अछि, ओकरा ई सुविधा भेटैत रहतै। माथ पर हाथ द' क' सोचल जाय, एकर संकल्पनो नै छलै ओइ वर्ग मे, जे क्यो व्यक्ति बैराग्य पसंद नै हेबाक कारण गृहस्थाश्रमक जीवन व्यतीत करय चाहि सकैत अछि, करोड़ोक संपति कें लात मारि। महंथ संग हुनकर समुच्चा जीवन धरि चलै बला संघर्षक शुरुआत अही घटनाक बाद भ' गेल। हरि दास जी महालक्ष्मीक संग विवाह केलनि आ योग्यता बलें शिक्षकक नौकरी प्राप्त क' एकटा आम आदमी जकां जीवनक शुरुआत केलनि। अपन पत्नीक बारे मे ओ लिखैत छथि-- 'हम स्वेच्छा सं,निर्लोभ भ' क' एकटा गरीब ब्राह्मणक बेटी सं विवाह केने छलहुं। पत्नी महालक्ष्मीक जीवटता, सहृदयता आ सहनशीलता पर लिखय लागब पूरा उपन्यास बनि जायत। ओ साहस, दया, क्षमा आ त्यागक सद्य: प्रतिमूर्ति छथि जे हुनका भरिसक अपन पिता सं भेटल छनि।' मुदा, आगू चलि क' हुनकर पत्नी, डाक्टर आ चिकित्सा-व्यवस्थाक लचरपनक कारण, लापरवाहीक कारण रोगग्रस्त रहय लगली आ रोग संग लड़बाक ई कथा लगभग जीवन भरि चलैत रहलनि। 1976 मे एम्स, दिल्ली मे जखन पत्नीक जटिलतम आपरेशन भेल छलनि, दुर्दशापन्नताक स्थिति छल-- 'नीन हमर हराम भ' गेल छल। कखन भोर हुअय आ कखन सांझ, किछु पता नै चलि रहल छल। बेर-बेर डाक्टरक कथन मन पड़ि जाय जे दस दिन बहुत खतरा है। रहि-रहि क' पत्नी आ हम, दुनू कान' लगैत रही आ सोचि रहल छलहुं जे की जिन्दगी भरि एहिना कर' पड़त?' ओम्हर, महंथक दुश्मनीक आलम ई छल जे केस-फौदारी तं ढेर रास लादिये देने छला, समाज मे क्यो हिनकर सहायता नै करय से व्यवस्था केने रहथि, एकरो प्रसंग आएल अछि जे गामक पोस्टमास्टर हरि दासक नाम आयल चिट्ठी समेत हुनका धरि नै पहुंचय दै छला, ऊपर सं महंथ ई प्रचारित क' रहल छला जे हुनके देल श्रापक फल हिनकर पत्नीक बीमारी थिक। सोचि सकैत छी, ओहन संत केहन राक्षस भ' सकैत अछि, आ एहन आदमीक जीवन-संघर्ष कते जटिल भ' सकैत छै! मुदा, हरि दास जी अपन किताबक नाम रखने छथि जनम जुआ मति हारहु। हिम्मत नहि हारबाक छै, सब संघर्ष के सामना वीरतापूर्वक करबाक छै, अपन पुरुखार्थ सं समस्त संकट पर विजय प्राप्त करबाक छै। आ, हुनकर जीवनक साफल्य अही मे अछि जे, से ओ क' सकला। अनुमान क' सकै छी जे जीवन मे लक्ष्य आ पुरुखार्थ कें महत्व दैबला लोकक लेल ई किताब कते पठनीय हेतै। अद्भुत बात इहो अछि जे साहित्य मे कोनो पेशेवर पहचान नै राखनिहार हरि दास नामक अइ लेखकक अइ किताब मे पठनीयताक गुण तते प्रबल छै जे एक बेर जं पढ़ब शुरू करू तं खतम कइये क' चैन पड़ैत अछि। शैलीक ई कसावट हुनका कोना सिद्ध भेल हेतनि, हम सोचि नै पाबै छी। लगैत अछि जे ठीक कहल गेल अछि, एके साधे सब सधे। जकरा जीवन मे असल के संघर्ष-ताप हेतै से जं कहुना लिखैत चलि जाएत तं ओ ताप अपन अभिव्यक्तिक त्वरा प्राप्त कइये टा लेत।
        किताबक परिशिष्ट मे हरि दास जीक किछु पत्र संकलित छनि, ताहि सब सं हुनकर जीवन-संघर्ष पर बेस प्रकाश पड़ैत अछि। अपन विद्यार्थी जीवन मे ओ हिन्दी मे किछु कविता सेहो लिखने छला, उपलब्ध भेल कविता सब कें सेहो अंत मे द' देल गेल छै। कविता सब पुरान ढंगक अछि, मुदा एकरा सब कें देखने हमरा लोकनि हुनकर मानस-निर्माणक किछु पता पाबि सकै छी। अपन पहिले कविता 'अभिलाषा' मे ओ लिखने छथि-- 'करूं नहि जग मे कभी अनीति/ यही हो प्रभु, मेरा संगीत।' वर्चस्वी वर्गक अनीति पर हुनकर ई पांती आइयो कते प्रासंगिक अछि-- 'विद्या-धन से वंचित कर भारतपुत्रों को/ गिना क्षुद्रतर पर-पीड़क ने हम मित्रों को।' (भाग्य-चक्र) विद्यार्थी लोकनिक आह्वान करैत एकटा कविता लिखने छथि, तकर ई पांती आजुक हाइटेक विद्यार्थी सभक लेल आंखि मे अंगुरी भोंकि क' जगेबाक तुल्य अछि--  'क्या विद्या सिखलाती है केवल सुख करना?/ या मुक्ति देश की, बंधु-बांधवों की भी करना?'
        फेर कहब, मैथिली मे अइ किताबक प्रकाशन एकटा घटना छी, जकरा बहुत दिन धरि मोन राखल जेतै।

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