Sunday, August 19, 2012

वियोगी के नागार्जुन(अशोक वाजपेयी)


वियोगी के नागार्जुन

अशोक वाजपेयी

हिन्दी में ऐसा कम ही हुआ है कि किसी युवा लेखक ने विस्तार से किसी वरिष्ठ लेखक के साथ बिताए अपने समय का विस्तृत संस्मरण लिखा हो। ऐसा तो और भी कम है जिसमें कुछ आत्मालोचन भी हो अपने चरितनायक के महिमामंडन के अलावा। 'पहल' पत्रिका ने मैथिली कवि तारानंद वियोगी का एक लंबा संस्मरण पुस्तिका के रूप में मैथिली से हिन्दी में अनुवाद कर 'तुमि चिर सारथि' के नाम से प्रकाशित किया है। वह नागार्जुन पर है और अपनी आत्मीयता और कृतज्ञता में विशेष होते हुए बहुत पठनीय भी है। मुझे दोपहर को डाक से पत्रिका की एक प्रति मिली और मैं बैठे-बैठे उसे पूरा पढ गया। बाबा की सहजता-दुष्टता के बहुत सारे किस्से प्रचलित रहे हैं। उनकी पारिवारिकता भी, जिसमें देश भर के कई लेखकों और पाठकों के परिवार शामिल थे, सुविख्यात है। इस संस्मरण से उनके कई गुणों और अपने को बेहद गंभीरता से न लेने के सहज स्वभाव की संपुष्टि होती है। बाबा अपने बडे, विख्यात और बुजुर्ग होने का बोझ डाल कर नहीं चलते थे। उन जैसा व्यक्ति अपनी उम्र के सातवें-आठवें दशक में एक दलित युवा के जीवन का, बिना उपदेश दिए, लगभग अपने उदाहरण और स्फूर्त और व्यंग उक्तियों से कैसे कायाकल्प कर सका, इसकी यह संस्मरण मर्मकथा है।
      नागार्जुन गहरे शास्त्रज्ञ और लोक-विदग्ध व्यक्ति थे। वे अक्सर कई विलक्षण नए शब्द गढते थे जिनके कई नमूने इस संस्मरण में हैं --चिबिल्ला, जीभ-घसीटन, वचन-बहत्तर, बिसुनबिलाड, गिदराभकोल, वंशबुडावन, फटकचंद, सिग्नेचर-सनिचरा। उनकी व्यंग उक्तियों की भी बहार है--'खाओगे खेसारी और हगोगे कलाकंद....', 'सोऊंगा खढ के घर में और सपने देखूंगा नौलखा का....', 'घोडे का सौन्दर्यबोध तब जाग्रत होता है जब वह हरी-हरी घास देखता है', 'गंगा में उतर जाएंगे और तब मूतेंगे' आदि।
     नागार्जुन अपनी बेबाकी के लिए खासे कुख्यात रहे हैं। उसके भी कई नए उदाहरण इस विवरण में हैं। कुछ देखिए--- 'धर्म जो है....वह मात्र अफीम ही नहीं है। वह अमृत भी है। अब आप कहेंगे कि वहां सिर्फ भजन-कीर्तन ही होता था, तो सो नहीं। वह उद्बोधन करता था, अपने विचार भी प्रकट करता था', ... 'आज नेता का काम है विष्ठाशोधन',... 'अविवाहित मातृत्व को पकडिए। उसे अपना समर्थन दीजिए। हां, खतरे तो हैं ही। लेकिन यह भी तो देखिए कि वैवाहिक व्यवस्था से कम खतरे हैं या ज्यादा। मुझे तो लगता है कि कम खतरे हैं',.... 'आप कहते हैं भारत या बिहार, तो वह तो मेरे लिए अमूर्त है, मूर्त है तो मात्र वह स्थान, जहां हम निवास करते हैं।'
          प्रगतिशीलता के साथ नागार्जुन के कठिन संबंध का भी कुछ जिक्र इस संस्मरण में है। बाबा ने वियोगी से कहा था कि जब वह इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी के खिलाफ खडे हुए तो तमाम प्रगतिशीलों को लगा था 'साला बूढा' सठिया गया है और 'जब उसी  बाबा ने संपूर्ण क्रान्ति के विरोध में कविता लिखी तो प्रगतिशीलों ने इस बात को उनके सठिया जाने के प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया।वियोगी जी ने यह उचित प्रश्न किया है कि 'उन्हें अपने आधुनिक और प्रगतिशील साहित्य का प्रथम पुरुष मानने वाले एक ग्रंथ तक नहीं निकाल पाए।यह पढना भी दिलचस्प है कि 'प्रतिबद्धता के बिना लेखक का कोई मूल्य नहीं है--मैं कहता। बाबा सरपट मेरी बात को काट देते--श्रेष्ठ लेखन के लिए प्रतिबद्धता कथमपि आवश्यक नहीं है..(उनका तात्पर्य होता--प्रतिबद्धता तो व्यक्तित्व में होना चाहिए, केवल लेखन में हो तो उसका क्या मूल्य?)....मैं कलावादी समीक्षा-दृष्टि के खिलाफ खडा होता तो वे इसके पक्ष में बाइस तथ्य और तर्क देते।........बाबा, संघर्ष ही जीवन का नाम है तो वह कह उठते---बिलकुल नहीं। जीवन का नाम आनंद है।'

 ("कभी कभार", जनसत्ता,दिल्ली,18 जून 2006)

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