रज़ी अहमद तन्हा
उर्दू के सुपरिचित गज़लगो हैं। अररिया (बिहार) के रहने वाले हैं। बिहार राज्य खाद्य
निगम में प्रबन्धक हैं। उनकी पहली पोस्टिंग महिषी में हुई। महिषी मेरा गांव है, और यह राजकमल चौधरी एवं मण्डन मिश्र का भी गांव
है। मै उन दिनों गांव के कालेज का विद्यार्थी था। मैंने उनसे उर्दू सीखी, उन्होंने मैथिली में कविताएं लिखीं। साहित्य की
ढेर सारी बातें मैंने तन्हा जी से सीखी हैं, जिन्हें
मैं सम्मान से "सर" कहता हूं। १९८२ का वाकया है कि उन्होंने एक गजल लिखी, जिसकी रदीफ 'वियोगी' थी, और
वो गजल उन्होंने मुझे समर्पित की। अब उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया है कि वो गजल
"बज्म-ए-सहरा" के अगस्त २०१२ के अंक में प्रकाशित हुई है। देखा तो वो
दिन आखों के आगे मूर्तिमान हो उठे।
चंदा, तारे, आकाश
वियोगी
किरण-किरण परकाश
वियोगी
कुछ पल उसको गुमसुम
तकते
मिल जाए वो काश, वियोगी
कौन मिलेगा हमसे
आकर
किसको है अवकाश, वियोगी
कंधा दे, तो दे अब कौन
जीवन बेबस लाश, वियोगी
चारों मिलके फेंट
रहे हैं
जीवन जैसे ताश, वियोगी
तेरा ही तो मीत है
तन्हा
खोल दे बाहुपाश, वियोगी
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