Sunday, March 21, 2010

गाम कें हम बहुत मोन पडलियै फगुआक दिन

तारानन्द वियोगी

हमरा गाम मे फगुआ दिन होइ छै मस्त मस्त हुडदंग।
सब कथू सं बेसोह हुडदंगिया सब
एक दोसरक देह पर छडपै छै आ कहै छै 'रा़ रा'
अपन अपन छत पर सं लोक
दोलक दोल रंग हुडदंगिया पर उझलै छै
आ उतारा दै छै 'होरी है'
से, ओ हुडदंगिया सब आ ओ लोक सब
अइ बेर हमरा बहुत मोन पाडलकै
एकटा आनन्दमग्न दर्शकक घटी रहलै ओकरा सब कें अइ बेर

किरतनिञा सब तं बुझू आरो ताल करै जाइ छै
युग कें चीरि क' उठा अनैत अछि द्वापर, कौखन त्रेता
कृष्ण कें गोंति रहल छनि गोपी लोकनि ओम्हर
एम्हर सीता संग राम खेलथि मस्त-मस्त रंगीला होरी,
बसहा पर चढि क' श्मसान दिस विदा भेल शिव कें
पछाडि घेरै छथि गौरा
आ रंगारंग क' छोडै छथि बसहासमेत

जीयह हौ बाबू जीयह
ई दुआरि सदा आनन्दित रहौ जै पर आइ
मोहन होरी खेललथि
अइ बेरुका बिरहिन सब के अगिला होरि अवश्ये सोहाग भरल हो
जकर दर्द कें थाहैत लक्ष्मीनाथ गोसांइक नैना सं
एहू बेर नीर बहलनि!

से,
'जे जीबय से खेलय फागु' के आग्रही ओ किरतनिञा सब
अइ बेर हमरा बहुत मोन पाडलकै
कोन गीत हेतै जकरा एक तोड टाहि हम नै दै छलियै !


सडक पर द' क' बहराइए मस्ताना सभक टोली
बात बात पर ठिठियाइत
बात बात पर कलाकारी करैत
बात बात पर सबटा कुनारि पताल दिस जुमा क' फेकैत
त्यागैत गोत्र आ कुल के बन्हेज
एक दिन मे जमा क' लै जाइए एतबा ऊर्जा
जाहि भरोसें बरस दिन निमहत
से, ओ मस्ताना सब गौलक अइ बेर गाना—
'होरी का संग खेलब बालम गेल परदेस'
ततेक मोन पाडलक जे जनु हम ओकर बालम भेलियै...
ओकर सभक कलाकारी कें दार्शनिक आयाम दै बला मस्ताना हम होइ छलियै !

मोन पाडलनि भौजी लोकनि भाबहु लोकनि
कि जे गाना कहियो नै सुनने हेती
से सुनथि फगुआ दिन हमर सत्संग मे

मोन पाडलनि काकी लोकनि बाबी लोकनि,
अबीर सं अभिषिक्त जिनकर पएर
घर सं पूआ बहार करैत थाकनि नहि
ततेक आह्लाद सं मांगियनि,ततेक दुलार सं !

बाबा कें मोन पडलियनि बहुतो कि कोना परुकां
टोपी-अबीर सं सजा क' खाट पर बैसा क'
हुनकर शोभायात्रा बहराएल छलनि जबर्दस्त !
चारि वीर जे हमसब शुरू केने रही यात्रा
से भगवतीथान अबैत-अबैत
रैली सं रैला बनि गेल।
खाट पर कौखन बैसल हंसथि बाबा कौखन पडल,
एतय जं लागै नारा 'बोलो बोलो फगुआ महराज की'
तं 'ज.....य' कहैत ततेक लम्बा आलाप चलय ध्रुपद-गायकी जकां
जे 'ज' सं 'य' पर अबैत आधा किलोमीटर रस्ता पार भ' जाइ।
एहू फगुआ मे जीबैत रहला बाबा, धन्न भाग..
मुदा नहि खेलि सकला फागु
भरि दिन हम हुनका मोन पडैत रहलियनि !

रघुभाइ कें मोन पडलियनि
जे बड दिक भेलनि अइ बेर धियापुता कें नव वस्त्र दै मे अभाववश,
पंडित जी कें पडलियनि जे अइ बेर नहि भ' सकलनि हुनक धर्माधर्म शास्त्रार्थ...

एहना मे
नहि मोन पडल हेबनि तारा कें कि तारानाथ कें,
से के कहत !
देखने तं हेती ओहो अवश्ये जे भरल भरल आंगन मे एक कोन अछि जे सुन्न अछि...

ओह,
नोकरी दुआरे जा नहि सकलहुं गाम अइ बेर फगुओ मे
आ,जिबिते हम, अपन गाम कें बहुत मोन पडलियै...

2 comments:

कुमार राधारमण said...

कविता पढैत फिल्म गमन केर कतेको दृश्य मोन पडि गेल। प्रवासी मैथिललोकनिक उहापोहक सुंदर,सरस वर्णन।
www.krraman.blogspot.com

Amitraghat said...

बहुत ही सुन्दर वर्णन......."
प्रणव सक्सैना
amitraghat.blogspot.com