Wednesday, September 14, 2022

'गुलो'क अन्तर्कथा आ सुभाष चन्द्र यादव

 


तारानंद वियोगी



          सब गोटे जनैत छी जे 1948 मे जखन यात्री जी सं हुनकर प्रकाशक, मने हिन्दी-प्रकाशक, उपन्यास लिखबाक अनुरोध कयने रहनि, तं यात्री जी जिद पकड़ि लेने रहथि जे ओ उपन्यास तं लिखता जरूर मुदा मैथिली मे लिखता। प्रकाशको हुनकर गद्यकला पर तेहन मुग्ध जे मानि गेल छला आ एहि तरहें आयल रहय 'पारो'। मैथिली मे हेबाक बादो ओकर सबटा प्रति छबे मास मे बिकि गेल रहै से तं एक बात, पैघ बात ई जे मैथिली उपन्यासक नियति कें ई उपन्यास बदलि क' राखि देलक रहय। एकर बाद एक हिन्दी तं दोसर मैथिली, एही हिसाब सं हुनकर किताब सब अबैत रहल। मुदा, हमरा कहबाक अछि जे यात्री जी मैथिली मे उपन्यास लिखब छोड़ि किएक देलथि? कहिया छोड़लथि? कोन एहन घटना भेलै जे हिन्दी मे तं हुनकर उपन्यास अबैत रहल मुदा मैथिली मे उपन्यास लिखब ओ बंद क' देलथि।

          एहि प्रसंगक सीधा सम्बन्ध सुभाष चन्द्र यादव लिखित उपन्यास 'गुलो'क संग अछि।

          'नवतुरिया' आ 'बलचनमा' एहन उपन्यास रहै जकरा यात्री जी मैथिली आ हिन्दी मे अलग-अलग लिखने रहथि। 1952 सं 1955 धरि ओ प्रमुखत: एही काज मे लागल रहल छला। हिन्दी मे 'बलचनमा' छपि गेलाक बादो ओ मैथिली 'बलचनमा'क आभा मे डूबल रहला। ई हुनकर स्वप्न आ सेहन्ताक मिथिला रहय। अपन समुच्चा अस्मिता मे जे आदर्श ओ अपन जुझारू जीवन सं अर्जित कयने रहथि, जे मैथिली हुनका प्राण मे सुवास जकां विराजित छली, ई से छल। अन्तत: जखन ई उपन्यास हुनका परिकल्पनाक एनमेन मुताबिक कागज पर उतरि अयलै, 15 फरबरी 1955 कें ओ हरिनारायण मिश्र कें लिखलनि: 'हौ हरि, मैथिली बलचनमा हिन्दी बला सं नि:सन्देह सुंदर भ' गेलैक अछि। अनावश्यक विस्तार आ बन्धुरतो एतय नहि छैक। ओकर धड़कन कैक गुना अइ मे बढ़ि गेलैक अछि, की कहियह!'

          मुदा, दुर्भाग्य देखू जे ई उपन्यास छपबाक लेल यात्री जी एकटा मैथिली संस्था-- मिथिला सांस्कृतिक परिषद्, कलकत्ता-- कें देलखिन, जखन कि हुनका लग तहियो प्रकाशकक कोनो कमी नहि रहनि। मैथिली-संस्था सब, से चाहे सोसाइटी हुअय कि सरकारी, आइ पैंसठ बरखक बादो, कोनो ब्राह्मणजातीय-संगठन सं अलग किछु किनसाइते होइत अछि, भने नाम संग संस्कृति जोड़ल रहय कि चेतना। तहिया केहन परिस्थिति रहल हेतै तकर अनुमान सहजे क' सकै छी। जखन कि 'बलचनमा' की छल? एक शूद्रक संघर्षक कथा छल। एतबे नहि ने। ओ बलचनमेक भाषा मे लिखलो गेल छल, जकर नाम यात्री जी देने रहथिन-- 'शूद्र मैथिली'। आब कहू, ई चीज कतहु मैथिली संस्था छापय? ओ सब यात्री जीक खेखनी तं करै छला एहि लेल जे बड़ पैघ लेखक छी तं किछु मैथिली संस्थो पर दया करियौ। ई के जनै छल जे ओ शूद्र मैथिली मे लिखि क' पठा देता?

           12 बरस धरि जखन संस्था 'बलचनमा' कें नहि छापलक तखन यात्री जी उग्र भेला। मुदा ताधरि पांडुलिपि पूर्णत: नष्ट भ' चुकल रहै। यात्री जीक अपन देशव्यापी प्रतिष्ठा रहनि, तें संस्था पर दवाबो चारूभर सं बनि गेलै। हिन्दी बलचनमा ताधरि हिन्दीक प्रथम श्रेणीक उपन्यास-रूप मे मान्यता प्राप्त क' लेने रहय। लाचार संस्था कोनो अज्ञात अछरकटुआ सं एकर अनुवाद करौलक आ अन्तत: 1967 मे प्रकाशित क' देलक। मूल कृति मुदा विलुप्ते भ' गेलै। मोहन भारद्वाजक मानब छलनि जे अइ किताब पर जे 'मूल लेखक नागार्जुन' छपल रहै, से संस्थाबला सभक खचरपनी छल, मुदा हमर मानब अछि जे खचरपनी नहि, ई हुनका लोकनिक ईमानदारी रहनि। सत्य कें ओ लोकनि लिखित रूप मे स्वीकार क' लेने रहथि। अस्तु, यात्री जीक यैह आखिरी उपन्यास साबित भेलनि जे कि अपन मूल स्वरूप मे छपियो नहि सकल छल।

          ब्राह्मण लोकनि 'शूद्र' कहैत अयलनि अछि मुदा शूद्र लोकनि अपना कें अदौ सं 'पचपनिया' कहै छथि। पचपनिया अर्थात पचपन जाति, जकर वास्तविक अर्थ थिक बहूतो जातिक समुदाय। एही पचपनिया मैथिली मे 'गुलो' छपल अछि।

          एहि तरहें, साठि वर्ष पहिने यात्री सन महामना लेखकक हारल एक अभियान कें हमरा लोकनि सुभाष चन्द्र यादवक एहि उपन्यास मे आकार लैत देखैत छी। एकरा कोनो छोट घटना, जेना थोकक हिसाबें मैथिली मे किताब बहराइत अछि, कोना मानल जा सकैत अछि? जें कि सुभाष सन के विरल सिद्धहस्त लेखक के लिखल ई रचना थिक, (तखनहि तं यात्री-प्रसंग संग एहि ठाम तुलनीय मानलो गेल अछि,) केवल भाषे धरि बात नहि रहल। कलाक एक एहन दुर्लभ नमूना मैथिली उपन्यास कें हासिल भेलैक जाहि पर बहुत युग धरि गर्व कयल जा सकैए। 

          यात्री जी सन पैघ लेखक बुते जे काज 1955 मे करब पार नहि लागल छलनि से काज 2015 मे सुभाष क' सकला, एकर एक अर्थ इहो भ' सकैत अछि जे अइ साठि बरस मे मिथिला समाज बदलि गेल। कतबा बदलल? कोनहु भाषाक सृजेता लोकनि तं तहिना समाजक शीर्ष होइत छथिन जेना गाछ मे फुलायल फूल। ओ परिष्कृत परिशोधित होइत छथि आ अपन जीवनक एक उल्लेख्य भाग अपना कें डिकास्ट आ डिक्लास्ड करै मे लगबै छथिन। तें हुनका लोकनिक व्यवहार सं अहां सकल समाजक स्थितिक सही-सही मापन प्राप्त नहि क' सकै छी, एतय धरि कि मैथिली संस्थाक संचालक लोकनिक वा पुरस्कार वा लाभ-लोभ (अर्थ अछि चारू प्रकारक लाभ-- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) सं लिखनिहार लेखको धरिक स्वास्थ्यक सही पता नहि पाबि सकै छी। 

          असल मे, सुभाष अपन उपन्यास 2014 मे पूरा क' लेने रहथि आ 'मिथिलादर्शन'क अक्टूबर-नवंबर 2014क अंक मे ई प्रकाशितो भ' गेल रहैक। अइ बीच मे दूटा मुख्य घटना घटलैक। एक तं ई जे उपन्यास पूरा कयलाक बहुत समय बादो धरि सुभाष अपन रचनात्मक आवेग सं बाहर नहि निकलि पाबि रहल छला। पैघ रचनाक सृजनोत्तर आवेगो पैघ होइत छैक। एही निकलबाक प्रयत्न मे ओ 'पचपनिया मैथिली' नामक अपन लेख लिखि लेलनि। ई लेख प्रकाशित होयबा सं पहिनहि एकर एक अंश सोशल मीडिया पर प्रकाशित कयल गेल छल। बिखिन्न-बिखिन्न प्रतिक्रियाक धर्रोहि लागि गेल। बाद मे ई संपूर्ण लेख 'पूर्वोत्तर मैथिल'क अंक मे प्रकाशित भेल। संपादकीय विमतिक प्रायोजना-स्वरूप कही कि स्वाभाविक धर्मरक्षा-स्वरूप, पैघ-पैघ प्रतिक्रियाक धर्रोहि ओतहु लागि गेल। अइ सब सं असलियत बूझल जा सकैत छल जे सकल समाज कतबा बदलल अछि आ कि केहन बदलल अछि। 

          दोसर घटना ई भेल जे 2015क भूकंपक समय मे कथानायक गुलो मंडल के देहान्त भ' गेलनि। सुभाष आ केदार गुलो मंडलक संग कोना जुड़ल छला, तकर प्रसंग केदार काननक एक लेख मे आयल छैक। गुलोक मरब सुभाषक लेल एक पैघ घटना छल आ ई अनेक तरहें हुनका प्रभावित केलकनि। एक प्रभाव तं छल जे एहि बातक प्रकरण उपन्यास मे आनब हुनका जरूरी क' देलकनि। समापित आ प्रसारित उपन्यासक गीरह फेर सं खोलल गेल, किछु तहिना जेना सारा मे गाड़ल गुलोक लहास कें फेर सं खोदि क' निकालल गेल छल। किसुन संकल्पलोक सं जे 'गुलो' छपल अछि, ताहि मे ई समुच्चा अंश अछि जखन कि 'मिथिलादर्शन'क पाठ मे ई नहि अछि। किनको लागि सकै छनि जे एहि अंश कें जोड़ब उपन्यासकलाक हिसाबें गैरजरूरी छल, जखन कि कोनो दोसर गोटे कें जरूरियो लागि सकैत छनि। असल मे अपन कथानायकक संग उपन्यासकारक संलिप्तता आ तादात्म्य कोन रूपक छनि, ई प्रश्न ताहि पर निर्भर करैत अछि। वाजिबे थिक जे एकर संपूर्ण अधिकार सुभाष कें छलनि जकर यथेप्सित उपयोग ओ क' सकैत रहथि।

          मैथिली साहित्य मे सुभाषक महत्व पर विचार करैत प्रसिद्ध आलोचक कुलानंद मिश्र कहियो लिखने छला-- 'मैथिली कथाक क्षेत्र मे एकटा निश्चित सीमाक अतिक्रमण सुभाष चन्द्र यादवक बादे आरंभ भेल।' बुधियार कें इशारा काफी बला अंदाज मे अपन बात कहैत कुलानंद जी ओतय साफ नहि कयने रहथि जे ई 'एकटा निश्चित सीमा' की छल आ सुभाष कोन तरहें एकर 'अतिक्रमण' केलखिन। आब हमसब इतिहासक एहि पार आबि क' देखैत छी तं बूझि सकैत छी। 'मैथिली-साहित्य' जकरा हमसब कहै छी, विश्वास करू ओ विशुद्ध 'ब्राह्मण-साहित्य' नहि थिक जेना कि किछु लोक अपन लेखन सं आ अधिकतर अपन रणनीतिक(?) व्यवहार सं साबित करैत रहैत छथिन। ई जं कहबै जे तमाम विविधताक बादो मैथिली साहित्य अन्तत: जीवन-जगत कें देखबाक एक ब्राह्मण-दृष्टि मात्र थिक, सेहो कहब उचित नहि। जं किनको लगैत होइन जे नहि, यैह उचित थिक तं हुनका मैथिली लिखब छोड़ि क' कठिन प्रयत्नपूर्वक अपना कें कुसंस्कारमुक्त हेबाक साधना करबाक चाही।

         

No comments: