Tuesday, November 15, 2022

बिहार में बिहार नहीं: संस्कृति का संकट

 


तारानंद वियोगी



             बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध मैथिली कविता है-- मीनी मिथिला। उसमें क्या है कि एक झा जी बरसों पहले दिल्ली जा बसे। गांव से जुड़े थे, यानी कि गांव की तमाम जड़-जंगम चीजों से। लेकिन अब गांव छूट रहा था तो उन्होंने क्या किया कि गांव को ही दिल्ली में ला बसाया। गांव के पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, पेड़-पौधे, भोजन-छाजन, प्रतीक-मिथक-- सारे यहां उठा लाये, और दिल्ली में रहकर भी एक ठीक-ठाक मैथिल जीवन निबाहते रहे। कवि को वह महाशय अपनी उपलब्धियां बड़े गर्व से सुनाते हैं। लेकिन, कविता का अंत दारुण है। वहां बड़ा भारी अफसोस है कि झा जी की अगली पीढ़ी इन सब चीजों से ऊब गयी है और पंजाबी हुई जा रही है। वह कविता हमें बताती है कि गांव को आप बाहर उठाकर नहीं ले जा सकते, क्योंकि जिन चीजों को आप अपनी संस्कृति समझकर ले जा रहे हैं वे केवल भौतिक उपादान हो सकते हैं, संस्कृति नहीं। संस्कृति कोई गाय नहीं है कि गले में रस्सी बांधकर आप जहां चाहें ले जाएं और कटिया भर दूध दूहकर बताएं कि लो, यह हमारी संस्कृति है।

             आज बिहार के गांव उजड़ रहे हैं। फकत रोजगार के लिए अगर स्त्री-पुरुष को अलग-अलग रहना पड़े, तो संस्कृति के हिसाब से इसे अविकास का स्पष्ट लक्षण माना गया है। अतीत की दारुण कथाएं हमें भिखारी ठाकुर की रचनाओं में मिलती हैं। सौ वर्ष गुजर जाने के बावजूद हालात पूरी तरह बदल गये हों, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। जो थोड़ी सुविधा में हैं वे स्त्री के साथ गांव को ही उठाकर शहर चले जा रहे हैं। थोड़ा विकास किया व्यक्ति गांव छोड़ता है, और यदि भरपूर विकास कर ले तो देश ही छोड़ देता है।

             साठ-सत्तर बरस पहले तो किसी बिहारी के बच्चे गांव छूटने के दशकों बाद जाकर पंजाबी हो पाते थे, अब तो आलम यह है कि पंजाब वगैरह ही उतरकर गांव में आ घुसा है। बच्चे को अब कहीं जाने की जरूरत भी न रही। भूमंडलीकरण ने हमारे घर में तो देशी-विदेशी सबको ला घुसाया लेकिन इसी तर्ज पर हमरा भी प्रसार हुआ रहता, यह नहीं हुआ। हम केवल दूसरों के उपभोक्ता और नकलची बनकर रह गये।

             जिसे हम बिहार की संस्कृति कहते हैं वह असल में 'लोक' की संस्कृति है। शास्त्रीय संस्कृति थोपने की कोशिश जब भी कभी अतीत में हुई, बड़े आराम से लोक ने इसे अपने रंग में रंग डाला। शास्त्रकारों की भी मजबूरी बनी रही कि वे 'लोकाचार' को सबसे बड़ा नियामक तत्व मानने को बाध्य होते रहे। लेकिन आज हालत क्या है? हजार वर्षों से बिहार के लोग लाखों देवी-देवताओं की 'सेवा' करते आए हैं। ये लोकदेवता हमारे कुलदेवता होते हैं जिन्हें पिण्ड के रूप में जाने कब से पूजा जाता रहा है। यह पिण्ड दर असल बौद्धों का चैत्य है, जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने कुलदेवता के रूप में सेवित किया। इन देवताओं में से कोई डोम, कोई मुसहर, कोई दुसाध, यहां तक कि बालापीर और मीरा साहब जैसे देवता मुसलमान हैं। हिन्दुओं के कुलदेवता के रूप में मुसलमान पीरों की पूजा? जी हां, यह बिहार की संस्कृति की अपनी खास विशेषता है। एक लोकगीत में एक मुसलमान लड़की, यह पूछने पर कि इतना प्यारा बच्चा तुम्हें किस देवता के आशीर्वाद से मिला, वह बताती है-- 'गेलियै जनकपुर, पुजलियै सिया जानकी, ऊहे देलखिन गोदी के बलकबे जी।' यह पारस्परिकता बिहार की अपनी सांस्कृतिक विरासत है। यहां बहुलता का सम्मान रहा है, एकरंग, एकरस संस्कृति कभी बिहार की संस्कृति नहीं हो सकती।

             खानपान की दुनिया की ओर ही नजर डालें तो बिहार के पास इतनी सारी चीजे हैं, और वे इतने आकर्षक भी कि दुनिया भर में छा जाएं। मैंने कहीं पढ़ा, मशहूर अंग्रेज भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन कभी अधिकारी होकर मधुबनी में पोस्टेड रहे जहां सुबह का नाश्ता दही-चूरा प्रचलित था। यह चीज उन्हें इतनी पसंद आई कि अपने देश लौटकर भी जबतक वह जिये, सुबह के नाश्ते में दही-चूरा ही लेते रहे। लिट्टी-चोखा हो, अनरसा, खाजा या कि तिलकोर, कितनी दूर जा रही हैं ये सब चीजें? अब तो है कि समूचे देश में आप कहीं भी चले जाएं, गिनी-चुनी चीजे हैं जो आपको मिलती हैं और आप मजे से खाते भी हैं। वहां बिहार कहीं नहीं है। बिहार में ही बिहार नहीं, तो और कहां उम्मीद की जा सकती है?

             आज समूची दुनिया में भोजपुरी गीतों को यौनिक उच्छृंखलता के लिए जाना जाता है। यहां तक कि इसी की देखादेखी इसे मैथिली आदि बिहार की अन्य भाषाओं में भी पर्याप्त प्रसार मिल गया है। लेकिन आपको क्या लगता है? यही भोजपुरी की पहचान है? जी नहीं, यह दस-पांच लफंगों का कारनामा है जिन्होंने यह सब किया तो था केवल रुपये कमाने के लिए लेकिन हम तबतक इतने पतित हो चुके थे कि हमने उन्हें रुपये के साथ-साथ सम्मान भी दिया। कोई संस्कृति यक-ब-यक मर थोड़े ही जाती है? वह पहले अपना रूप बदलती है। भाषा तो लोकल बनी रहती है लेकिन कन्टेन्ट किसी और का ले आया जाता है। हम-आप क्या कर सकते हैं? केवल शोक मना सकते हैं? जी नहीं, हालात को बदलने की कोशिश भी कर सकते हैं। बहुत सारे लोग कर भी रहे हैं। ये ही लोग असल में बिहार की समकालीन संस्कृति के नायक हैं।

             

Thursday, November 3, 2022

हजार बरस सं पियासल कान लेल कविता

 


तारानंद वियोगी



चाहे कतबो भारी कट्टर ब्राह्मणवादी मैथिल होथि, हुनका लोकनि कें नीक जकां बुझल रहैत छनि जे मैथिली मे लिखबाक आविष्कार ब्राह्मण नहि कयने रहथि, दलित लोकनि कयने रहथि। ब्राह्मणक लिखापढ़ीक भाषा संस्कृत रहनि। बौद्ध धर्मक प्रताप सं दलित लोकनि जखन लिखापढ़ी बला बात सब करय लगला तं अप्पन भाषा मे केलनि, कारण संस्कृतक प्रतिरोध हुनका खून मे रहनि। ओ ओइ जनता धरि अपन भावना पहुंचेबाक लेल कलम उठेलनि, जकर ज्ञान-विनिमयक साधन लिखित शब्द छलैके नहि। एकर तं सैकड़ो-हजारो बरसक बाद ओइ लक्षित परिवार सब मे एहन पीढ़ीक आगमन भेलै जे खनदान मे पहिल बेर अ आ क ख लिखब सिखलक, पहिल बच्चा भेल पांच हजार बरसक इतिहास मे जे साक्षर भेला उत्तर मैट्रिक पास केलक।

              बारह सौ वर्ष पहिने मैथिली मे कविताक सृजन शुरू भेल। छौ सौ वर्ष धरि तं ई एकछाहा दलित-वंचितक अभिव्यक्तिक भाषा रहल, बाद मे ब्राह्मण लोकनि सेहो मैथिली मे लिखय लगला। तहिया जे ब्राह्मण मैथिली मे लिखलनि तिनकर भारी निन्दा भेल, हुनकर बहिष्कार कयल गेल। एकर सब सं पैघ उदाहरण स्वयं विद्यापति छथि। मुदा, आगू एहन समय आएल जे ब्राह्मण लोकनि मैथिली मे गीत लीखि राजाक दरबार मे मनोरंजन करथि आ एवंप्रकारें हुनका सभक रोजी-रोटीक ई साधन बनल। ठीक तहिना, दलित लोकनि सेहो नाच मे मैथिली गीत गाबि क' अपन रोजी-रोटी पाबथि। एहि दुनू वर्ग सं भिन्न छली स्त्रीगण लोकनि, जिनकर गीतक भाषा मैथिली छल, आ यैह गीत सब मिथिलाक संस्कृति कें रूपाकार प्रदान केलक। एहि स्त्रीगण वर्ग मे वर्ण-विभाजन नहि छल, फलस्वरूप लोकायत परंपरा मिथिलाक सब वर्ण, सब जातिक घर-घर मे प्रवेश पेलक। आइयो शास्त्राचार पर लोकाचार अपन बढ़त बनौने अछि।

              असल खुराफात शुरू भेल बीसम शताब्दीक आरंभ मे आबि क' जखन प्रिन्टिंग प्रेस सं मैथिलीक सम्बन्ध जुड़ल, विभिन्न जातिक जातीय महासभा बनल, इतिहास आ आलोचना साहित्यक उद्भव भेल। ब्राह्मण लोकनिक जातीय महासभा मैथिली कें अपन भाषा घोषित क' देलक। राजा स्वयं उद्घोषक रहथि। मैथिली राताराती राजाक भाषा बनि गेल, शोषकक भाषा बनि गेल। आब ई प्रजाक भाषा नहि रहल, शोषितक भाषा नहि रहल। मानकीकरणक नाम पर दू जिलाक ब्राह्मण लोकनि एकरा अपन बपौती बना लेलनि। आब जं मैथिली लिखबा मे कोनो लाभ छल, सम्मान वा पुरस्कार छल तं ताहि पर ओही गनल-चुनल जिलाक एक जातिक कब्जा बनल रहलैक। आन जातिक लोक शुरू मे विरोध केलक, बाद मे मैथिली नामे सं निस्पृह भ' गेल। अइ कवितासंग्रहक कवि एकठाम कहै छथि-- 'हमर कतेको मित्र छथि हमरा सं नराज/ हुनका सब कें बुझना जाइत छनि जे हम/ मैथिली लिखि क' अप्रत्यक्ष रूप सं/ बढ़ावा द' रहल छियै ब्राह्मणवाद कें।' मतलब, एहन स्थिति बनि गेल अछि जे मैथिली लिखबाक अर्थ ब्राह्मणवादक समर्थक होयब भ' गेल। 

              एहि आधुनिक बौद्धिक लोकनि मे बेईमानीक आलम ई छल जे जाहि मिथिला मे लाख खोजल गेला पर विद्यापति-गीतक मात्र दूटा पांडुलिपि भेटल, ओतहि यदि कबीरक मैथिली पदावलीक खोज कयल गेल रहितय तं कम सं कम दू सौ पांडुलिपि भेटितय। मुदा से ओ लोकनि किए करितथि? कबीर तं पराया रहथि। ब्राह्मणवादक विरोधी रहथि। आ, मैथिली घोषित रूप सं ब्राह्मणक भाषा छल। ओ लोकनि कबीर कें, कबीरक परंपरा कें जकर जड़ि सिद्धसाहित्य धरि जाइ छलै, कोना मानि द' सकै छला?

             आब जखन एहन लोकक हाथ मे कलम अयलैक अछि जे कबीर कें अप्पन मानै छथि, तं की अहां कें लगैत अछि जे रचनाक परिप्रेक्ष्य, रचनाक तथ्य आ भाषा वैह रहि जेतै जे पछिला सौ बरस मे विविध कुचक्र रचि क' कायम क' लेल गेलैक अछि? कबीरक धार्मिक चेतना केवल आध्यात्मिक नहि छल, ओ तं पचासो प्रतिशत सं कम छल, बांकी छल सामाजिक चेतना। कबीर मानैत छला जे जे ब्रह्माण्ड मे अछि ठीक सैह पिंड मे सेहो अछि। तखन कहू जे ई कोना हेतै जे कोनो जाति उच्च कोनो नीच, कोनो पूज्य तं कोनो अछोप भ' जेतै? अहां अपन कपार पीटि सकैत छी जे उपनिषद् सेहो सैह मानैत अछि। मुदा उपनिषद् कें अपन मूल मान'बला ब्राह्मणवाद जातिवाद के जन्मदाता सेहो थिक आ परिपालक, परिपोषक सेहो। 

             स्पष्ट क' दी जे ब्राह्मणवादक जन्मदाता भने ब्राह्मण होथि मुदा एकर गछाड़ मे पचपनियां सेहो छथि, दलित सेहो। ने तं ई कोना होइतय जे दू सौ के करीब संख्या मे दलित-पचपनियां लोकनि मैथिली मे लिखैत ठीक-ठीक वैह बात, ओही भंगिमा मे लिखि रहला अछि जे ब्राह्मणवादक इष्टसिद्धि मे साधक छैक। एहन दलित लोक कें अहां ब्राह्मणसभा मे अध्यक्षता करैत सेहो देखि सकै छियनि, सम्मान पबैत सेहो। परार्थी दलितक मुंहें ब्राह्मणक बात सुनि क' दुखी होइ छथि। एहन गद्दारी क' क' पुरस्कार प्राप्त केनिहार पर ओ लिखै छथि-- 'आइ द्रोणक वंशज द' रहल छैक/ एकलव्यक उत्तराधिकारी कें पुरस्कार/ शर्त बस यैह टा/ जे आब अहां धनुष-वाण चलबै के/ नहि राखैत छी अधिकार/ आ ई स्वार्थी, समाजक गद्दार सब/ एहि शर्त कें क' रहल छै हंसी खुशी स्वीकार/ धिक्कार अछि धिक्कार।'

             एहि संग्रह मे एहनो लोक सब पर कविता छैक, मानसिक गुलामी सं ग्रस्त एहन दलित जकरा अपन मालिकक समझाओल हरेक बात सही लगैत छैक, टीक आ टीका मे ओ अपन प्रतिष्ठा देखैत अछि आ ओकरा हिन्दूराष्ट्र कल्याणकारी बुझना जाइत छैक। एकटा कविता मे परार्थी कहै छथि-- 'द' देने छै मालिक वर्णव्यवस्थाक सेहो किछु ज्ञान/ बना लेने छैक अपन मानसिक गुलाम/ नीक सं समझा देने छैक ब्राह्मणक सेवा सं हेतौक स्वर्ग/ अगिला जनम मे तहूं भ' सकैत छें गिरहत/ ई जन्म छौक तोहर पछिला जन्मक चूक/ दोसरा के कहला सं आगि नहि मूत।' अपना समाजक मुक्ति लेल परेशान कवि ई दृश्य देखि क' झूरझमान रहैत अछि जे-- 'डोम सं चमार छुआइत अछि/ चमार सं मुसहर/ मुसहर सं धोबी दुसाध/ अदौ काल सं उघैत आबि रहल अछि दोसराक देलहा/ पाखंड आडंबर अंधविश्वास/ एहना स्थिति मे कोना हेतै दलितक विकास?' ई एकटा सूत्र थिक जाहि सं हमसब पकड़ि सकै छी जे दलित समुदायक दीनाभद्रीक हत्या मे दलिते समुदायक लोकदेवता सलहेस कोना ब्राह्मणवादक सहायक भेल रहथि!

              मैथिली ककर भाषा छी? के अछि जकर धार्मिक कृत्याचारोक भाषा मैथिलिये छिऐ? निश्चित रूप सं ब्राह्मण लोकनि तं नहिये टा थिका। हुनकर पूजा-पाठ तं वैदिक भाषा मे, संस्कृत मे होइत अछि। मुदा, एहन एक जीवन्त-जागन्त मातृभाषाक रूप मे मैथिलीक सरजमीन पर की स्थिति अछि? 'अपने बनय चाहैत छथि पुरोहित अपने यजमान/  ई सब मैथिली कें बनौने छथि अपन गुलाम/ बान्हि देने छथिन कसि क' मानकीकरण नामक रस्सी सं/ आ भाषा-बोली विवाद मे ओझरा क'/ एकर अस्तित्व तक कें करय चाहि रहल छथि समाप्त।' के थिका ई लोकनि? ब्राह्मण लोकनि थिका। तखन फेर जकर भाषा मैथिली अस्सल मे छिऐ से सब कतय गेला? एक दिल के टुकड़े हजार हुए, क्यो अंगिका बनल क्यो वज्जिका। मुदा, एहनो लोकक संख्या कम नहि रहलैक जे मैथिली कें धयने रहला, अपन मन-प्राण मे धारण कयने। एहना स्थिति मे, अइ प्रकारक कविगणक मैथिली मे कविता लिखब की थिक। परार्थी एहि लोकक अनुभव बयान करै छथि-- 'हमरा तं मैथिली लिखबा काल होइत रहैत अछि/ एगो स्वतंत्रता-सेनानी जकां अनुभूति/ बढ़ैत रहैत अछि--/ मातृभाषाक स्वतंत्रता संघर्ष लेल सहास।'

             कहब आवश्यक नहि जे गनल-गुथल लोक मैथिली साहित्य मे हेबनि मे लिखापढ़ी शुरू केलनि अछि जिनका मे ई सामाजिक चेतना भरल-पुरल अछि आ हिनका लोकनिक लेल साहित्य लिखब मुक्तिक चेष्टा लेल डेग उठायब थिक। नवीनतम नाम रामकृष्ण परार्थीक छनि। अइ कविता-संग्रह कें उनटबैत अहां पहिले कविता मे देखबै जे ओ धर्मक उन्माद सं प्रदूषित देशक उद्धार लेल कबीर कें अपनेबाक अनुरोध करैत छथि। एक एहन युवा कें तैयार करबा मे, जिनका मे सामाजिक चेतना भरल-पुरल होइन, अनेक पीढ़ीक योगदान रहैत छैक। पहिने क्यो मांगनि खवास होइ छथिन तखने जा क' कोनो रघुनाथ मुखियाक जन्म भ' पबैत छथि। परार्थी अपन पिता पर कविता लिखैत ई पांती लिखैत छथि-- 'ईश्वर मात्र एकहि टा छथिन सर्वशक्तिशाली, सर्वव्याप्त/ हुनकर नहि छनि कोनो रूप, आकार/ ओ कण-कण मे करैत छथिन निवास/ वैह चलबै छथि सगर जहान/ भाला-गड़ांसा, तीर-धनुष आ तरुआरि लेने/ हवा फूसि अछि सब कल्पित भगवानक/ समझबैत रहैत छला हमरा/ बौआ हौ, सब जीव मे होइत छैक परमात्माक वास/ जानि-बुझि क' नहि करिहह कहियो कोनो जीव पर आघात/ अहिंसा परमो धर्म छै बौआ/ ई गप सादति रखिहह यादि।'

             अहां कहि सकै छी जे अहिंसा परमो धर्म: सन के कथन तं सेहो संस्कृते मे छै आ संस्कृत ब्राह्मणक धरोहर छी। मुदा, कोना ई बात हाथीक देखावटी दांत मात्र छी, से बुझबाक लेल परार्थीक कविता 'धर्मक नाम पर' पढ़बाक चाही। ब्राह्मणवादी सभ्यता कें ओ माहुरक गाछ कहैत कनियो नहि थकमकाइत छथि। साफ-साफ कहै छथि-- 'विध्वंसक फूल आ फसादक फल बला ई गाछ/ सुड्डाह करय चाहैत अछि वर्तमान सभ्यता/ एकरा कनिको नहि पसिंद छैक मनुक्खता/ एहि गाछक नजदीक अयला मात्र सं/ लोक बनि जाइत अछि बताह/ फेर ओकरा नहि रहैत छैक/ गाम समाज आ देश दुनियांक परवाह।' 

             कहब जरूरी नहि जे अपन जन्मकाल सं ल' क' एकैसम सदीक अइ वर्ष धरि ब्राह्मणधर्म जतबा आविष्कार वा विकास क' सकल अछि तकर सारांश यैह थिक, जकरा परार्थीक कविता माहुरक गाछ मे देखल जा सकैत अछि। एहना ठाम जं अहां 'मुंडा तार' कविता पढ़ू तं एही धर्मकथाक एक रूपक रचल जायब सन लगैत छैक। ई स्वर मानू तं परार्थीक रचनाधर्मक केन्द्रीय स्वर जकां छनि जे मुक्ति लेल अड़ब आ लड़ब अपरिहार्य छैक-- 'मिथिला मे पुनर्जागरण लाबै लेल लड़हि पड़तौ मीत/एतय बहुत लोक एखनो छौक रखने भावना ऊंच-नीच/ समतामूलक समाज लेल लड़हि पड़तौ मीत।' तें जखन परार्थी कविता लिखैत छथि जे हमरा नहि चाही हिन्दूराष्ट्र, तं एकर इतिहास मे जाइत अपन पुरखाक भोगल यातना कें स्मरण करैत बाबासाहबक स्मरण धरि पहुंचि जाइत छथि। मुश्किल ई छैक जे आइ दलित आ पचपनियां कें सेहो हिन्दूए राष्ट्र चाही, कारण माहुरक गाछ तर मे रहैत बुद्धिहरण भ' चुकलनि अछि। परार्थी ओइ यातनाभरल गुलामीक स्मृति मे जाइत छथि आ कहै छथि-- 'हमसब वेद, धर्मग्रन्थ, मनुशास्त्र सं शासित भ'/ फेर सं नहि बनय चाहैत छी गुलाम/ हमरा सब कें नीक लगैत अछि/ स्वतंत्रता, समानता आ न्याय सं भरल/ बाबा भीमक संविधान।' 

             मोन पड़ैत अछि, संविधान लागू भेलाक बाद भ्वाइस आफ अमेरिकाक एक इंटरव्यू मे बाबासाहेब भारतक लोकतांत्रिक-निष्ठा पर संदेह व्यक्त करैत बाजल छला जे राजनीतिक लोकतंत्र तं अइ संविधान द्वारा जरूर लागू भ' गेल अछि मुदा जाधरि सामाजिक लोकतंत्र नहि स्थापित होइत अछि, ई अधूरा रहत, एकर क्षत-विक्षत हेबाक संभावना सदा बनल रहत। सामाजिक लोकतंत्रक लक्ष्य सं हमरा लोकनि कते दूर छलहुं आ आइ तं आरो कते दूर भ' गेल छी से नांगट आंखियें चारू दिस देखि सकैत छी आ ठीक सैह चीज अइ कविता-संग्रह मे सेहो पाबि सकै छी। कहि सकै छी जे ई कविता सब आजुक समयक श्वेतपत्र छी।

             संभ्रान्त साहित्यक सोच-समझ, मनोनिर्मिति आ भाषा-व्यवहार सं ई दलित कविता सब कतेक अलग अछि, सहजहि अइ ठाम देखल जा सकैत अछि। जेना गहन समाधि मे उतरने विना क्यो परमात्माक अस्तित्व नहि महसूस क' सकैत अछि, ठीक तहिना गहन दलित-भोग भोगने वा ताही कोटिक सह-अनुभूति अर्जित कयने विना एहि कविता सभक मर्म मे पैसब असंभव अछि। दुर्भाग्यक बात थिक जे मैथिली मे एहन कोनो निकष नहि बनि सकल। परंपरित मैथिली कविताक अध्ययन एखनो पंडीजी लोकनि, मने ब्राह्मणवादी विद्वान लोकनि रसशास्त्रेक आधार पर करैत छथि। मुदा एतय, परार्थीक कविता मे कोन रस पायब? वीभत्स रस, जे अहांक धार्मिक भावना कें आहत क' सकैत अछि? यात्री जी एकरा विक्षोभ रस कहै छलखिन। हुनकर समझ रहनि जे आजुक शुद्ध कविता विक्षोभे रस टा ल' क' बूझल जा सकैत अछि, जं रसशास्त्रेक आधार पर कविता कें परखबाक जिद हो तं। एकरा पाछू कारण छै। क्यो कवि कविता किए लिखैत अछि? आनंदक अनुभूति कें व्यक्त करबाक लेल। अपना कें एकात राखि दुनियांक विडंबना देखेबाक लेल। जकरा सं असहमत अछि तकर खिल्ली उड़ेबाक लेल। माफ करब, दलित कविता-लेखनक कारण अइ सब मे सं किछुओ नहि थिक। रामकृष्ण परार्थियेक अनुभव कें जं देखी तं बहुत बात स्पष्ट भ' सकैत अछि। कविता पर लिखल अपन एक कविता मे ओ कविता लिखबाक कारण बतबैत कहैत छथि-- 'जनमैते बान्हि देल गेल हमरा/ नीच जाति कहि धार्मिक आ सामाजिक रस्सी सं/ ओहि रस्सी कें खोलै लेल/ हम करैत रहैत छी सदिखन संघर्ष/ खोजैत रहैत छी अपना मुक्ति लेल/ नव नव रस्ता/ लिखैत रहैत छी अपमान अनादर सं भोगल दुख व्यथा/ तखन अनायासे बनि जाइत अछि एगो कविता।' 

             स्वाभाविक बात छै जे संभ्रान्त साहित्यक जे सौन्दर्य-बोध हेतै, शिल्प-दृष्टि हेतै, दलित साहित्यक ताहि सं सर्वथा भिन्न हेतै। किछु दशक पहिने धरि के सोचि सकै छल पवित्र मां मैथिली मे एहू तरहक कविता लिखल जेतै! किए? पहिने अइ लोक कें मनुक्खे नहि बुझल जाइत रहै, कवि बूझब तं बहुत आगूक बात भेलै। जखन कि देखियौ, मैथिली हिनको सभक भाषा छियनि। आ, सच तं ई अछि जे हिनके लोकनिक पुरखा मैथिली मे कविता लिखबाक आविष्कार कयने रहथि। दलित कविता संभ्रान्त कविता सं कतेक अलग होइत छैक, परार्थी कहै छथि-- 'लोक कहैत अछि बनि जाउ चाटुकार/ मिलैत रहत पुरस्कार आ सम्मान/ मुदा स्वाभिमान बेचि क'/ हम नहि कमाय चाहैत छी नाम/ आ ने हम अपन कविता कें/ बनबय चाहैत छी गुलाम।' हुनका एहि बातक कोनो अपेक्षा नहि छनि जे अहां हुनका कवि बुझियनु। मुक्ति हुनकर प्रधान जीवनमूल्य छियनि।

             विश्वकवि रवीन्द्रनाथ कतहु लिखने छथि, अइ देशक हजारो वर्षक इतिहास मे जे क्यो विवेकी महापुरुष आइ धरि भेला, वर्णव्यवस्था अवश्य हुनका घृणास्पद लगलनि अछि आ ओ एकर विरोध जरूर कयने छथि। मुदा, तखन आइयो ई व्यवस्था कोना जिबैए? धर्मक बल पर। एकरा धर्म, ईश्वर, वेद, शास्त्र आदिक कवच पहिरा देल गेलैए। तरह-तरहक मिथक, पुराकथा, किंवदन्ती शास्त्र-पुराणक नाम पर, धार्मिक भय देखा क' चला देल गेलैए। एहना मे स्वाभिक अछि जे कोनो दलित कवि जखन कलम उठाओत, ओकर टक्कर धर्म, मिथक, पुराकथा आदि संग होयब अनिवार्य छैक। तें एहू संग्रह मे अहां देखबै, मनु, द्रोण, शम्बूक, एकलव्य, अहल्या, वृन्दा आदिक प्रसंग रूप-रूपक बाना मे अनेक ठाम प्रकट भेल छैक। एहना ठाम अनीतिपूर्वक बहुजन समुदाय कें मटियामेट करबाक ब्राह्मणधर्मक अत्याचार कें बेखौफ नांगट कयल गेल छैक। अपन एक कविता मे तं ओ एहन तथाकथित जनवादी सभक सेहो खबरि लेलनि अछि जे बाहर-बाहर वामपंथी आ अंदर-अंदर ब्राह्मणवादी भेल करैत छथि। मुदा, कविक दुख तखन आत्यन्तिक रूप सं बढ़ि जाइत छैक जखन ओ दलित-समाज मे चेतनाक घोर अभाव देखै छथि आ दोसर दिस स्वयं साधनसंपन्न दलिते लोकनि कें अपन वर्ग सं निरपेक्ष बनल दलित-ब्राह्मण बनबाक कोशिश लेल व्याकुल देखैत छथि।

             रामकृष्ण परार्थी नवागन्तुक कवि छथि। एखन ओ अपन कविता मे अधिकतर अभिधा मे बात करैत छथि। अधिकतर अपन विक्षोभ, विरोध आ विद्रोह कें यथावत कविता मे पेश क' देल करैत छथि। समानता, स्वतंत्रता, भाइचारा, सर्वधर्मसमभाव, लोकतंत्र, संविधान, वैज्ञानिक चेतना-- ई सब संदर्भ शब्दश: हुनकर कविता सब मे बेर-बेर अबैत अछि। हुनकर कविताक सौन्दर्य एकर कथ्य मे छैक आ ओहि कथन-भंगिमा मे, जकरा सुनबाक लेल मैथिलीक कान हजार बरस सं पियासल रहल अछि। प्रचलित मानदंडक आधार पर अइ कविता सभक मूल्यांकन कठिन अछि। तें, ई संग्रह एहू बातक आवश्यकता बल दैत अछि जे दलित सौन्दर्यशास्त्र पर मैथिली मे काज करबाक समय आब आबि गेल छैक।