Wednesday, April 17, 2024

मैथिली कविताक हजार वर्ष: पुस्तक-परिचय


 --तारानंद वियोगी


यात्री जीक जीवनी 'युगों का यात्री' लिखबा काल हमरा बहुत जोर इच्छा जागल छल जे प्राचीन साहित्यक अध्ययन करी। संस्कृतक विद्यार्थी रहबाक दुआरे संस्कृतक प्राचीन साहित्य तं थोड़ेक पढ़लो छल मुदा संस्कृतेतर प्राचीन साहित्यक कहियो गंहीर अवगाहन करी, से अवसर नहि भेटल रहय। यात्री जी कें ई सुयोग भेटलनि जे बहुत सुरुहे मे ओ दुन्नू प्राचीन साहित्यक गंहीर अध्ययन क' गेला। कहबाक तं चाही जे तीस-पैंतीसक उमेर धरि हुनका मुख्यत: जे साहित्य पढ़ल रहनि से प्राचीने साहित्य छल।

           एहि हिसाब सं देखी तं आधुनिक युग उनटा चलैत अछि। एक तं लोक कें साधारणतया पढ़ले नहि रहैत छैक। जं पढ़लो रहल तं आधुनिक साहित्य पढ़ल रहैत छैक। जं पट्ठा कने चंसगर रहल तं आधुनिको मे भारतीय नहि, पाश्चात्य साहित्य पढ़ल रहैत छैक।‌ प्राचीन भारतीय साहित्यक जं गप करी, भारतीय साहित्य मे सेहो संस्कृतेतर प्राचीन साहित्य ततेक विराट छैक जे कदाचित संस्कृतो सं बेसी व्यापक आ विविधतापूर्ण छै। 

           लोक कें पहिने अपन मातृभाषाक प्राचीन साहित्य सं अध्ययन शुरू करबाक चाही। साहित्यक क्षेत्र मे, भने कोनहु रूप मे, जे क्यो सक्रिय छथि हुनका लेल तं हम कहब, अपन प्राचीन साहित्य सं सर्वांगत: अवगत होयब हुनकर अनिवार्य धर्म छियनि। से सब विचारैत हम निर्णय कयल जे मैथिलीक प्राचीन साहित्यक अध्ययन करी। 2019 मे हम एकर तैयारी मे भिड़लहुं आ 2020-21 मे जखन सौंसे संसार कोरोनाक मारि सं कुहरैत अपन-अपन घर मे बंद छल, बंद हमहू छलहुं, हम अपन भाषाक प्राचीन साहित्यक अध्ययन मे डूबल रहलहुं। पहिले फेज मे कोरोना सं संक्रमित, गंभीर बीमार भ' चुकल रही। भयानक विकराल समय तं तकर बाद आएल, से हमरो घर धरि पहुंचल। एहि सभक बादो ओहि समयक विकरालताक आगू हम अवसादग्रस्त नहि भेलहुं। तकर एक प्रमुख कारण, हमरा लगैत अछि जे हम एतय छलहुंए नहि, हम तं प्राचीन साहित्यक आभामंडलक बीच कतहु सन्हियायल रही, ओकरहि सुरक्षाकवच मे रक्षित। 

           अपन एहि अध्ययन-क्रम मे, मैथिलीक प्राचीन साहित्य कें पढ़ैत हम जे किछु पाओल, किताबक ई दुनू खंड तकर एक प्रतिवेदन थिक।‌ इतिहास एकरा कहल जाय, ताहि मे हमरा संकोच अछि। इतिहासक जे अपन अनुशासन होइत छैक तकर अवगति तं जरूर अछि, मुदा ओकरा लेल जे निस्संगताक मांग कयल जाइत छैक से हमरा बराबर गैरजरूरी लागल अछि। हम जे किछु पढ़लहुं, ओहि मे डुबलहुं, तें ओकर अनुभव बतबैत हम अपना कें एकात क' ली, से ने हम क' सकल छी आ ने से करब कतहु सं हमरा जरूरी लागल अछि। हमरा बराबर लगैत रहल अछि जे इतिहासक जं एक अनुशासन अछि तं ठीक तहिना साहित्यक सेहो अपन अनुशासन छैक। संसारक अनेकानेक विचारक लोकनि साहित्य कें एक स्वायत्त शास्त्र मानलनि अछि आ भारत मे तं से मानले गेलैक अछि। प्राचीन साहित्य आ आधुनिक साहित्यक अंतर कें बेकछबैत हजारीप्रसाद द्विवेदी कतहु लिखने छथि जे प्राचीन साहित्यकार जतय स्वयं अपना रचना सं असंलग्न आ तटस्थ रहैत छला, ओ केवल ओहि आश्रयदाता राजा वा ओहि पार्थिव-अपार्थिव विषयक घेरा मे घेरायल रहथि, तकर विपरीत आधुनिक साहित्यकार अपन रचना सं अपन व्यक्तित्व आ विचार कें एकात नहि राखि सकैत छथि। एकर उदाहरण मैथिलीक आधुनिक साहित्य मे भरल पड़ल अछि, एतय धरि जे साहित्यक इतिहास आ आलोचना मे सेहो। माने जे जयकान्त बाबू वा रमानाथ बाबू वा माया बाबूक व्यक्तित्व आ विचार जेना हुनकर लेखन मे, इतिहास-लेखनो मे साफ-साफ एलनि अछि, ठीक तहिना हमरो व्यक्तित्व आ विचार एहि किताब मे व्यक्त भेल अछि। मुदा निस्संगता सं परिपूरित नहि होइतो ओ लोकनि इतिहासकार कहबै छथि, हमरा से कहेबा मे घोर एतराज अछि।

           हमर एक आदरणीय गुरु कहल करथि जे जं अहां कें कोनो विषय पर किछु अध्ययन करबाक अछि तं अहां पहिने ओहि विषयक आथोरिटी के पता लगाउ। नहि, ओ आथोरिटी नहि, 'मास्टर्स' कहने रहथि। तं, हमर अध्ययनक प्रक्रिया ई रहल जे पहिने हम आरिजिनल टेक्स्ट कें पढ़लहुं, तखन ओहि विषयक आथोरिटी विद्वान जे किछु लिखने छथि तकरा पढ़लहुं। आ तकरा बाद मैथिली साहित्यक इतिहासकार आ आलोचक लोकनि जे ओकर व्याख्या कयने छथि, तकरा पढ़लहुं। कहब आवश्यक नहि जे ई आम रास्ता नहि छैक। लोक टेक्स्ट पढ़ै छथि आ अपन इतिहासकार वा आलोचक कें पढ़ै छथि। एतबो चीज के क' पबैत अछि? जकरा सही मे ज्ञानक भूख रहै छै सैह कि ने? अहां एतबो करबाक अपेक्षा कोनो मैथिलीक विद्यार्थी सं थोड़बे क' सकै छी? एतय धरि जे प्रोफेसरो सं नहि क' सकै छी। 

           मुदा, एतबा जं क्यो क' सकथि तं हुनका समक्ष ई तथ्य उद्घाटित भेने विना नहि रहतनि जे वास्तव मे अपना भाषाक इतिहासकार आ आलोचक लोकनि अपन बद्धमूल धारणा सभक प्रति कोना अन्ध बनल छथिन। कते भीषण संकीर्णता सं गछारल छथिन जे अहां जं हुनका आंखियें अपन परंपरा कें ताकय निकली तं पक्का अछि जे अहां रस्ता भुतिया जायब आ सत्यक निकट किन्नहु नहि पहुंचि सकब, बरु आर कनी दूरे चलि जायब। कते आश्चर्यक बात थिक जे आरिजिनल टेक्स्ट तं ठीक वैह अछि जकरा ओ पढ़लनि आ हमहू-अहां पढ़ैत छी। मुदा अर्थ कते बदलि जाइछ! दृष्टान्तक संग बात करी तं बात बेसी साफ होयत। विद्यापतिपरक अपन एक लेख मे डा. काञ्चीनाथ झा किरण विद्यापतिक अनेको काव्यपंक्ति एहि बात कें देखेबाक लेल उद्धृत करैत छथिन जे मैथिल पुरुषक पुरुषार्थ के कते उच्च मानदंड विद्यापति लग मे रहनि। मने मैथिल पुरुष कतेक महान होइत छला। आब जं अहां विद्यापतिक ओहि मूल गीत कें समुच्चा देखि जाइ जाहि ठाम सं ई काव्यपंक्ति सब लेल गेल अछि, तं अहां आकाश सं खसब। घोर आश्चर्य सं भरि जायब जे जाहि गीत मे विद्यापति मैथिल पुरुषक कुपुरुषता आ नीचताक कटु वर्णन कयने छथिन, ई पांती सब ताहि ठामक छी। असल मे भेल ई छैक जे स्त्री एहन नीच पुरुष कें निर्बाहि रहल अछि तं एहि पाछू जे ओकर अपन मनोवैज्ञानिक मजगूती छैक, उद्धृत पांती सब तकर बखान करबा लेल लिखल गेल अछि। मुदा, किरण जी पांती तं वैह ल' लेलनि मुदा संदर्भ कें ठीक उनटा घुमा देलखिन। कहने छलै स्त्री अपन मनोभावक बारे मे, तकरा घुमा क' पुरुष पर लागू देखा देलखिन। एहन अनर्थ कतहु होइ? जे गीत विद्यापति मैथिल पुरुषक निन्दाक वास्ते लिखलनि तकर अर्थ उनटा क' कतहु मैथिल पुरुषक महानताक वर्णन ओकरा बता देल जाइ? (पांती सभक, गीत सभक संदर्भ एतय नहि देलहुं अछि कारण ओ सब एहि किताब मे यथास्थान वर्णित छै।) मुदा, एकरा ओ लोकनि 'मैथिल आंखि' कहै छथिन। यथार्थ कें जबरन अपना पक्ष मे घीचि आनि ओकर ठीक विपरीत अर्थ लगा क' अपन विजयक झंडा फहरा ली, की एहि चतुरतेक नाम मैथिल आंखि छी?

           एहि प्रकारक दृष्टान्त सब अनंत छै आ ताहि मे सं किछु के नोटिस एहि किताब मे यथास्थान लेल गेल अछि।

           सिद्धसाहित्य कें मैथिली साहित्य नहि मानल जाइत रहल अछि। ओकरे समकालीन वा सद्य: उत्तरवर्ती डाकवचन कें सेहो मैथिली साहित्य नहि मानल जाइछ। मैथिली साहित्यक शुभारंभ लेल निविष्ट कुलक कोनो ब्राह्मण लेखकक अवतीर्ण होयब कदाचित अपरिहार्य छल तें ज्योतिरीश्वर सं मैथिली साहित्यक शुभारंभ मानल जाइछ। ज्योतिरीश्वरक काव्य कें सुनीति बाबू गद्य कहि देलनि तं आगू ककरो मजाल नहि भेलै जे ओकरा काव्य साबित करबाक चेष्टा करितथि, भने स्वयं ज्योतिरीश्वरे ओकरा काव्य किए ने मानने होथु। । वर्णरत्नाकरक सह-संपादक बबुआ मिश्र स्वयं आश्चर्य व्यक्त करैत भूमिका मे लिखलनि जे संसारक कोनो साहित्यक आरंभ गद्य सं नहि भेल अछि। मुदा, संसारक लेल जे असंभव छलैक से मैथिली साहित्य मे आबि क' संभव मानि लेल गेलै, जेना मिथिला-मैथिली संसार सं बाहर शिवक त्रिशूल पर बसल हो।

           विश्वकवि रवीन्द्रनाथ मैथिली कें अपन मौसी-भाषा मानैत छला। मने मातृस्थानीय, अपन भाषा बंगला सं एक पीढ़ी प्राचीन। मुदा मैथिली साहित्यक इतिहास सब कहैत अछि जे नहि, मैथिली मे तं कैक शताब्दीक बाद साहित्य शुरू भेलैक, ताहि हिसाबें बंगला तं मैथिलीक नानी वा परनानी लागत। कहब आवश्यक नहि जे ई सबटा खुराफात आधुनिक युगक देन थिक जकरा पाछू मैथिल महासभा आ दरभंगाराज के राजनीति  जिम्मेदार छल। दरभंगाराज आ मैथिल महासभाक पतन भेना सात दशक सं बेसी समय बीति चुकल अछि। मुदा मैथिली साहित्य टस्स सं मस्स नहि भेल अछि। बरु एकर संकीर्णता आ कट्टरता दिनानुदिन बढ़िते गेल अछि। अद्यतन उदाहरण मायानंद मिश्रक इतिहास(2013) थिक। एहि सब बातक संदर्भ सहित चर्चा एहि किताब मे ठाम-ठाम भेटत। खास तौर पर मैथिली साहित्यक इतिहासकार लोकनि उत्तरोत्तर जाहि तरहें संकीर्ण सं संकीर्णतर होइत गेला अछि, से हमरा लेल घोर चिन्ताक विषय बनल अछि। कारण, दुनियां भरिक इतिहास समयक संग वस्तुनिष्ठ होइत गेल अछि, जखन कि मैथिलीक गति पाछू मुंहें छैक। मैथिलीक हरेक अध्येता लेल ई चिन्ताक विषय हेबाक चाही।

           साहित्येतिहास आ आलोचना सृजनात्मक रचना के उपकारी विधा मानल जाइत छै। कोनो टेक्स्ट के अर्थ आ संदर्भ नहि पूरा स्फुट होइत हो तं लोक इतिहास वा आलोचना लग जाइत अछि। मुदा, एकटा फिल्मी कहबी छै जे नैया जं डगमग डोलय तं मांझी पार लगाबय/ मांझिये जं नाह डुबाबय तं ओकरा के बचाबय? तं, सैह परि। अर्थ आ संदर्भ स्फुट कतय सं होयत जे उनटे अहां तेना ओझरा जायब जे अक्क चलत ने बक्क। उदाहरण सं बात बेसी स्पष्ट होयत। संसारक कोनो साहित्यक आरंभ गद्य सं नहि भेल अछि मुदा मैथिलीक भेल अछि। तं, एकटा स्वाभाविक प्रश्न उठैत छैक जे ज्योतिरीश्वर कें एहन कोन बेगरता पड़ल छलनि जे ओ देसी भाषा मे गद्य लिखितथि, कारण प्रशस्ति तं हुनकर कविता आ नाटक लेल छलनि। सुनीति बाबूक कहब भेलनि जे ई रचना ओ कथावाचक लोकनिक लेल लिखलनि। कथावाचक के भेला? वैह जेना आइ घनेरो कथावाचक सब कें टीवी पर भागवत वा रामकथा सुनबैत देखैत छियनि। सुनीति बाबू एक बेर जे भाखि गेला कोन मैथिलक मजाल जे कहथिन नै, प्राचीन मिथिलाक ब्राह्मण लोकनि तं कथावाचनक पेशा मे नहि छला, हुनकर सभक पेशा तं पंडिताइ वा पुरहिताइ होइत छलनि। नहि। सब इतिहासकार एही बात कें दोहरबैत चलि गेला। कतबो भारी उपकार सुनीति बाबू मैथिलीक कयने होथि, मुदा ई तं मानैए पड़त जे हुनका बंगालक परंपराक जेहन ठीक-ठीक अवगति छलनि, तेहन मिथिलाक परंपराक नहि। हुनका संग जे सहायक संपादक रहथिन बबुआ मिश्र, ओहो बेचारे चूड़ान्त संभ्रान्त पंडित। लोक, लोकपरंपरा आ लोकभाषाक हुनको ज्ञान ततबे जतबा सनातनी संस्कृतज्ञ कें भेल ताकय। तें एहि बातक दिस किनको ध्याने नहि गेलनि जे मिथिलाक लोक-परंपरा मे मौखिक महाकाव्य होइ छैक, जेना लोरिक, जकर उल्लेख स्वयं ज्योतिरीश्वरो केलनि अछि। से सब किछु नहि। गद्य तं गद्य। सत्य सं दूर रहथि मुदा उनटे गौरव मे झुमैत रहला मैथिल विद्वान लोकनि जे पूर्वांचलक प्रथम गद्यकृति मैथिली मे लिखल गेल। ओकर पाछू अन्हार, ओकर आगू अन्हार, मुदा बीच मे गद्यक प्रकाश टिमटिमाइत रहल। एकटा परदेसीय विद्वानक स्थापना मे चूक भ' सकै छै, तकरा फरियेबाक लेल तं अहां देसीय आथोरिटी लग जायब ने? मुदा, कहबी छै जे लटकलें बेटा तं गेलें बेटा। तं सैह। अहां आर बेसी ओझरा क' परेशान भ' सकै छी।

           एहन बात सब अनेको छैक। तकर विवरण संदर्भ-सहित ठाम-ठाम एहि किताब मे आयल छैक। मैथिली साहित्यक इतिहास सब मे सिद्धसाहित्यक चर्चा जरूर ठाम-ठाम भेटत मुदा कतहु इतिहासकार ओकरा प्राक् मैथिली कहि पिंड छोड़बैत देखार पड़ता, जेना जयकान्त बाबू। तं क्यो एहि आधार पर ओकरा निरस्त करता जे ओ (सिद्धसाहित्य) मैथिली मे चलि नहि सकल, जेना माया बाबू। पं. बबुआ मिश्रक अभिमत कें स्मरण करी तं सिद्धसाहित्य आ डाकवचन कें किएक मैथिली साहित्य नहि मानल गेल, तकर समाधान भ' जाइत अछि। सिद्धसाहित्य कें ओ मैथिली साहित्य सं बाहर एहि दुआरे रखलनि जे ओ 'पंडितमंडली मे अद्यापि सर्वमान्य नहि भेल अछि।' कहब जरूरी अछि जे एहि निकष पर ओ पंडितमंडली मे कहियो सर्वमान्य नहि भ' सकैत अछि कारण ओहि मे तमाम बात ब्राह्मणधर्मक विरुद्ध भरल पड़ल अछि, कर्मकांड आ वर्णव्यवस्थाक धज्जी उड़ा देल गेल छै। ओ कोना सर्वमान्य भ' सकैत अछि?

           ठीक तहिना पं. मिश्र डाकवचन कें खुल्लमखुल्ला एहि आधार पर मैथिली साहित्य नहि मानलनि जे ई 'पंडितरचित' आ 'पंडितगोष्ठीमान्य' रचना नहि थिक। कलाकारी देखल जाय। डाकवचन ब्राह्मणधर्मक विरोधी नहि अनुगामी रचना थिक। ओही निकष पर जं ओ एतय टिकल रहितथि तं एकरा मैथिली साहित्य मानि सकै छला कारण ई रचना पंडितगोष्ठीमान्य रहल अछि। मुदा नहि। एतय आबि ओ अपन निकष बदलि लेलनि। हुनकर महानता कहल जाय जे ओ लिखि क' मानलनि। आन विद्वान सब मानैत तं ठीक यैह रहला, जखन कि लिखैत किछु आर रहला। एहन देखावटी दांत बला विद्वान सब अपेक्षाकृत अधिक अपकारी जीव थिका। मैथिलीक पर्यावरण एहन अपकारी जीव सब सं भरल रहल अछि।

           एहि किताब मे प्राय: पहिल बेर मैथिली लोकसाहित्यक अध्ययन मिथिलाक जातीय साहित्यक रूप मे करबाक प्रयास कयल गेल अछि। स्वयं रमानाथ झा एहि बात कें कहियो स्वीकार कयने छला जे मिथिलाक निजी जातीय साहित्य मौखिक रहल अछि आ प्राचीनकालक परिवेश मे राज्याश्रय प्राप्त नहि हेबाक कारण लिखित साहित्यक परंपरा मिथिला मे बहुत बाद मे जा क' शुरू भ' सकल अछि। कते आश्चर्यक बात थिक जे ग्रियर्सन कें विद्यापति आ दीनाभद्री दुनूक गीत लोककंठ सं एक्कहि समय मे प्राप्त भेल छल जकरा ओ उद्यमपूर्वक प्रकाशित करेलनि। विद्यापति तं मिथिलाक संस्कृतिक सिरमौर बनि गेला मुदा दीनाभद्रीक सेहो कोनो सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य छैक वा एहि सं मिथिलाक जातीय साहित्यशैलीक एक प्ररूप विशेषक कोना विलक्षण अभिव्यक्ति भेल अछि, एहि दिस विद्वान लोकनिक आंखि सदा मूनल रहलनि। मानू ई सोचब एक पातक करबाक तुल्य हो।

           छंद मिथिलाक जातीय कविताक वस्तु नहि थिक, ई बात अलग सं कहबाक बेगरतो हम नहि बुझैत छी। मिथिलाक वस्तु थिक राग, ताल, लय। छंद मे मैथिली कविता लिखबाक प्रथम प्रयास मनबोध केलनि आ चन्दा झा तं मानू एकर झड़ी लगा देलनि। हुनकर मिथिलाभाषा रामायण मे अस्सी प्रकारक छंदक प्रयोग भेल अछि। एहि तरहें मैथिली कविता मे छंदक प्रयोग आधुनिक काल मे आबि क' तखन शुरू भेल अछि जखन परजीवी पंडितवर्ग कें मैथिली कें संस्कृतक पिछलग्गू बनायब अपन वर्चस्व लेल परम जरूरी बुझना गेलनि। आइ स्थिति ई अछि जे छंदहीन कविते कें विजातीय आ आधुनिक मानि ओकर अवहेलना करबाक उपदेश लिखल भेटैत अछि। सगरो यैह सुनबै जे छंद थिक मिथिलाक जातीय वस्तु, अप्पन परंपरा जखन कि छंदमुक्त कविता भेल विजातीय वस्तु। अन्हेर कहल जायत एकरा, मुदा सैह पंडितगोष्ठीमान्य छैक।

           किताबक प्रथम खंड मुख्यत: जातीय साहित्य पर केन्द्रित अछि। मिथिलाक जातीय साहित्यक प्राय: समस्त शैली सब कें बुझबाक प्रयास एतय कयल गेल अछि। आ, सिद्धसाहित्य आ वर्णरत्नाकर कें मिथिलाक जातीय साहित्यक प्रथम लिखित अभिलेखक रूप मे बुझबाक कोशिश भेल अछि।

           तहिना, ई किताब मैथिली आलोचनाक प्राय: पहिल किताब छी जतय मुख्यधाराक मैथिली कविताक विकास कें देखबाक लेल कबीरक मैथिली कविताक अध्ययन जरूरी बूझल गेल अछि। सतरहम शताब्दीक बाद कबीरक मैथिली पद ठीक तहिना मिथिला मे प्रचलित रहल अछि जेना मैथिली संस्कारगीत वा मैथिली लोकगाथा। कबीर पदावलीक संरक्षणक  सुचारु व्यवस्था मिथिला मे छल जतय सैकड़ोक संख्या मे कबीरमठ छलैक आ हरेक मठ लग कबीर पदावली परंपरया संरक्षित छल। ध्यान देबाक बात थिक जे एहन कोनो सौभाग्य मिथिला मे विद्यापति कें नहि भेटल रहनि। हुनकर पदावलीक संरक्षणक कतहु कोनो व्यवस्था तं नहिये छल, दोसरो कोनो मैथिली कवि एहन नहि भेला जिनका पद कें संरक्षणक ई गौरव मिथिला मे भेटल हो। हं, एनमेन अहिना बंगाल मे विद्यापति पदावली सेहो संरक्षित छल, मुदा ई बात मिथिलाक नहि बंगालक थिक आ बंगाल मिथिला सं बाहर छल। बंगाल मे 'महाजन' महापुरुषक गौरव विद्यापति कें हासिल छलनि, जकर समरूप जं मिथिला मे हमरा लोकनि खोज करी तं एक कबीरे भेटि सकै छथि।  डा. कमलाकान्त भंडारी अपन पुस्तक मे एक अध्याय इहो देने छथि-- विद्यापति आ कबीर पदावलीक तुलनात्मक अध्ययन। मुदा, मैथिलीक आधुनिक विद्वान लोकनि कबीर सं विद्यापतिक तुलना कें विद्यापतिक हेठी मानैत छथि। मुदा थम्हू। मिथिलेक एक आन आधुनिक विद्वान छथि पूर्णेन्दु रंजन। मिथिला मे कबीरपंथक इतिहास पर ओ किताब लिखने छथि। कबीर पर हुनकर आनो अनेक किताब सब प्रकाशित छनि। हुनका नजरि मे कबीरक तुलना विद्यापति सं करब कबीरक अपमान थिक। किएक? कारण थिक जीवनमूल्य, जे कविताक केन्द्रक होइ छैक। की कहबै एकरा?  तें हम कतहु-कतहु कहितो रहल छी जे अपना सब मिथिला जकरा कहै छियै से कोनो एकटा नहि अछि। दू अलग-अलग द्वीप मे बंटल, दुनू एक दोसर सं सर्वथा अपरिचित, एक दोसरक प्रति घोर अवज्ञा सं भरल। कहब जरूरी नहि जे दुनू मिथिला कें मिलेबाक ने कोनो स्वप्न मिथिलासमाज लग बचल छै ने सेहन्ता। धन्यवाद राजा लोकनि, धन्यवाद पंडित लोकनि, आधुनिक पंडित लोकनि!

           जेना कि हम पहिनहु कहि आयल छी, इतिहास लिखबाक ढंग सं हम ई किताब हम नहि लिखने छी। तें परिभाषा, परिचिति, वर्गीकरण, कालविभाजन आदिक कोनो चर्च एतय नहि भेटत। शुद्ध क' क' ई अपना समाजक प्राचीन कविता कें बुझबाक प्रयास थिक। मुदा, मैथिली साहित्यक इतिहासकार लोकनिक दृ्ष्टि बड़ संकुचित। मान्यता अत्यन्त जराजीर्ण। विचार संकीर्णता सं गछाड़ल। ई सब बात जहां-तहां प्रसंगवश आयल अछि। इतिहास-पुस्तक सब राजदरबार के अनुगामी भ' क' लिखल गेल अछि, जखन कि जमीन्दारी-उन्मूलन ताधरि भ' गेल छलैक। 

           हम सब देखै छी जे ओइनवार लोकनि जाहि तरहें मैथिली रचनाशीलता कें संरक्षण देलनि, से युग एक बेर बितलाक बाद पुन: घूरि क' कहियो नहि एलैक। हं, नेपाल मे आयल। नेपाल मे तं पूरा जगजगार भ' क' आयल जे आइ मध्यकालीन अन्हारक बीच नेपालेक मैथिली साहित्य प्रकाश-स्तम्भ बनल देखाइत अछि। तकरो एहि किताब मे देखबाक चेष्टा भेल अछि।

           खड़ोरय लोकनि संगीत-प्रेमी अवश्य छला आ मैथिली कविताक ओतबे अंश हुनका सब सं प्रोत्साहन पाबि सकल जतबा संगीत लेल वा अधिक सं अधिक मंच लेल उपयोगी छलैक। ताहू मे ब्रजभाषा मैथिलीक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी भ' क' सवार छल। खरोड़य लोकनिक विशेष कृपा ब्रजभाषे पर छलनि, से इतिहास देखबैत अछि।  एकर प्रभूत प्रभाव हमरा लोकनि सतरहम शताब्दीक लोचन मे जगजगार देखै छी। अपन रागतरंगिणी ओ संस्कृत मे लिखलनि। भाषानुवादक प्रश्न एलै तं मैथिली मे नहि, ब्रजभाषा मे कारिका लिखल। मुदा, राजक अनुगामी पंडितवर्ग एकरे देखि तिरपित-तिरपित रहला जे दृष्टान्त तं कम सं कम मैथिली गीतक देलखिन। नहिये दीतथिन तं हम सब हुनकर की बिगाड़ि सकै छलियनि? अवश्ये एकरा राजकृपा मानबाक चाही। खरोड़य काल मे ब्रजभाषाक बढ़ती सदा बनल रहल। तें, आइयो अहां देखब, मिथिलाक घरानेदार गायकी सभक जे बंदिश भेटत से मैथिली मे नहि, ब्रजभाषा मे। एतय धरि जे आधुनिक संभ्रान्त मंच पर विद्यापति-गीत कें प्रतिष्ठापित केनिहार मांगनि गवैया सेहो जखन अपन गायनक बीच छवि-छटाक प्रदर्शन करय लागथि तं बड़ी-बड़ी काल धरि ब्रजभाषा मे रचित कवित्त सब प्रस्तुत करैत रहैत छला।

           केहन दुर्भाग्यक बात थिक जे एहन राजदरबार मे गेबाक लेल जे गीत सब थोड़-बहुत लिखल गेल तकरे बाद मे इतिहासग्रन्थ सब मे मैथिली साहित्यक नामें जानल गेल। समाज मे जे चीज गाओल जाइत छल, सामंतवादक विरोधी कविलोकनि जे कविता करै छला, समाजक मनोरंजन लेल ग्रामकवि लोकनि जे कविता मैथिली मे लिखलनि, से सब अहां कें इतिहास मे कतहु नहि भेटत। तें मध्यकालीन कविताक अध्ययन करैत इतिहास-वंचित काव्यधारा पर नजरि देब हमरा जरूरी लागल अछि। एकरा एकटा आरंभ मात्र बूझल जाय। हम एक व्यक्ति मात्र छी। हमर अनेक सीमा अछि। जखन कि ई काज सामूहिक उद्यमक अपेक्षा करैत अछि। एहन कविता सब कें ताकि निकालब एक सामूहिके प्रयास सं संभव भ' सकैत अछि। हम शुरुआत टा क' सकल छी, सैह बूझल जाय।

           कायदा सं देखी तं 'मैथिली कविताक हजार वर्ष' नामक एहि किताब मे एक खंड आरो हेबाक चाही। आधुनिक कालक, जे चन्दा झा सं शुरू होइतय आ एकैसम शताब्दीक दोसर दशक धरि पहुंचितय। यद्यपि कि अनेकानेक चहलपहल, उतराचौरी, विधागत प्रतिस्पर्धा आ साहित्यक आन्दोलन सब सं भरल ई काल बहुत जटिल रहल अछि आ एकर अध्ययनो एखन धरि ढंग सं नहि भ' सकल अछि। मुदा, तत्काल तं ई हमर योजना सं बाहरक बात छल, हम तं प्राचीन साहित्य पढ़य विदा भेल रही। मोन मे बात जरूर अछि जे आगू जं कहियो सुविधा भेल तं इहो काज हम करबाक प्रयास करब। ई काज एहू दुआरे जरूरी छै जे बीसम शताब्दीक मैथिली कविताक जाबन्तो धारा, प्रवृत्ति, काव्यान्दोलन आ गति-प्रगतिक सांगोपांग विश्लेषण करैत हो तेहन कोनो किताब एखन धरि आयल नहि अछि, जखन कि कथा वा उपन्यासक क्षेत्र मे से आयल छै।

           अइ किताब मे कुल्लम सोलह टा अध्याय अछि। नौ अध्याय पहिल खंड मे आ सात अध्याय दोसर खंड मे। एकरा निरंतरता मे लिखल गेल अछि, जाहि मे चारि बरस सं ऊपर समय हम लगेने छी। मुदा, जे पाठक एक दम्म मे लगातार अइ किताब कें पढ़ता तिनका एक बात ई लागि सकै छनि जे किछु एहन बात सब छै जकर कैक अध्याय मे बेर-बेर उल्लेख कयल गेलैए। ई रिपीटेशन-सन लागि सकैए। मुदा एना जानि-बूझि क' कयल गेलैए। तकर पहिल तं उद्देश्य यैह जे जे पाठक कोनो खास अध्याय लेल उत्सुक भ' क' ओकरा पढ़ता तं ओइ विन्दु सं संदर्भित तमाम बात हुनका ओत्तहि एक ठाम भेटि जेतनि। दोसर, गौर कयने इहो चीज देखबै जे जतय कतहु रिपीटेशन अछि से ठीक-ठीक पछिले शब्दावली मे नहि अछि, संदर्भक मोताबिक ने केवल शब्दावली, टिप्पणी धरि बदलल-सन अछि। कतोक ठाम तं ओइ संदर्भ सं जुड़ल कोनो नव तथ्य ओइठाम आबि जाइत छैक, जकर उल्लेख केवल ओत्तहि टा भेल रहैत छैक।

           कहब जरूरी नहि जे ई किताब हम अकादमिक उद्देश्य सं नहि, सामान्य बौद्धिक पाठक लेल लिखने छी। एहि कोटिक पाठकक मैथिली प्रकाशन-जगत मे आयब एक नव परिघटना छी। ओ दुनिया-जहान के ज्ञान सं भरपूर छथि आ आब अपन देसकोस, अपन संस्कृति, अपन इतिहास कें देखय-जानय चाहै छथि। इहो कहब जरूरी नहि जे जहिया ई नवीन पाठक-वर्ग अदृश्य छला तहियो हम एही अदृश्य पाठक लेल लिखैत रही। कोनो लेखक के लेल ई कोनो छोट उपलब्धि नहि कहल जेतै जे ओकर अदृश्य पाठक ओकर जीबिते जी दृश्यमान भ' गेल हो। परंपरित पाठक सेहो दू-चारि पढ़ि लेथु, एकरा हम सब दिन बोनसे मानल अछि।


           अन्हार कने छंटय, दुनू मिथिला कें एक करबाक स्वप्न-सेहन्ता जागैक, संकीर्णता कम होइ, वस्तुनिष्ठता बढ़य, जतय धरि मैथिली साहित्य पहुंचि चुकल अछि ताहि सं आगू जाय, खसय तं किन्नहु नहि-- मोन तं बड़की टा अछि। तखन तं कहलकै रहय जे जक्कर मोन बसय बड़ दूर/ तक्कर आस विधाता पूर।

                                     --तारानंद वियोगी

     (पोथीक भूमिका सँ। ई पुस्तक दू खंड मे अंतिका प्रकाशन सँ प्रकाशित अछि आ अमेजन पर उपलब्ध अछि।)          

           

           

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