Saturday, February 17, 2024

लोकगाथा, लोकगीत आ मैथिली साहित्यक विकास


--तारानंद वियोगी


मैथिलीक आदिकालीन साहित्यक बारे मे आचार्य रमानाथ झा लिखलनि अछि-- 'आदिअहि सँ  मिथिला जनपदक एक गोट अपन भाषा छल जे पूर्व मे द्विजाति सँ भिन्न लोक बजैत छल। क्रमश: द्विजाति सेहो ई भाषा बाजए लगलाह। एहि भाषा मे जे रचना भेल से सब जनभाषाक हेतु ओ एकर प्रचार पंडित सँ भिन्न जनता मे भेल ओ वर्णरत्नाकर सँ पूर्व प्राय: एहि मे रचना सेहो पंडित सँ भिन्ने लोक करथि। एहि भाषाक साहित्य तें मौखिक रूपें प्रचलित होइत रहल। राजाक आश्रय नहि रहलें कोनो पैघ ग्रन्थक निर्माण नहि भेल।' (प्राचीन मैथिली साहित्यक रूपरेखा/रचनावली/ खंड-2 पृ.55-56) अपन एही लेख मे, आदिकालीन रचनाकार लोकनिक सोह लैत ओ इहो लिखलनि जे 'अवहट्ठक रूप मे एहि भाषाक जे कोनो रचना उपलब्ध अछि से सब मुख्यत: पंडितक रचना नहि, ब्राह्मणक रचना नहि, साधारण जनसमाजक साहित्य थिक, यथार्थ अर्थ मे लोकसाहित्य थिक जकर रचना प्राय: डाक गोआर अथवा भूसुक राउत सदृश ब्राह्मणेतर जातिक कयल थिक।' (उपर्युक्त/पृ.53)

           दू-तीन बात एतय ध्यान मे राखि लेबा योग्य अछि।  पहिल तँ जे जहिया सँ आधुनिक भारतीय भाषा सब अपन स्वतंत्र स्वरूप धारण करय लागल, ओहि भाषा सब मे मैथिली सेहो एक भाषा छल। दोसर, एहि भाषाक विकास संस्कृत सँ वंचित समाज द्वारा अपन भाषिक अभिव्यक्ति लेल कयल गेल छल। तेसर, राजा वा पंडितक संरक्षण जें कि संस्कृत सँ भिन्न, मैथिली-सन भाषा कें प्राप्त नहि रहलैक, तें एकर संपूर्ण रचनाशीलता मौखिक रूप सँ अभिव्यक्त होइत रहल। एहि सब कारण सँ हमरा सदति ई उचित आ विधेय लगैत अछि जे जखन अहाँ मिथिलाक लोकसाहित्य पर बात करैत छी, तँ ई चीज स्पष्टत: मैथिलीक प्राचीन साहित्य पर बात करब थिक।


मिथिलाक लोकसाहित्य

               आइ 'लोक' शब्द जाहि अर्थ मे प्रयुक्त होइत अछि, ठीक-ठीक एही अर्थ मे एकर प्रयोगक इतिहास कैक हजार साल पुरान अछि। ऋग्वेद मे यद्यपि कि ठीक एही अर्थ मे 'जन' शब्दक प्रयोग बेसी ठाम भेल अछि मुदा 'लोक' सेहो अनेको ठाम प्रयुक्त भेले अछि। पाणिनिक अनुसार लोकृ दर्शने क्रियापद सँ घञ् प्रत्यय केलाक पछाति 'लोक' शब्द बनैत अछि जकर अर्थ भेल देखनिहार, द्रष्टा। एहि 'लोक'क व्यापकता कतेक छल तकर पता महाभारतक एहि कथन सँ पाओल जा सकैत अछि जे 'प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नर:।' लोक कें गहिराइ सँ देखि सकबाक हुनर जे व्यक्ति सीखि लियय से सर्वदर्शी भ' जाइत अछि। ध्यान दी जे सर्वदर्शी शब्दक एतय वैह अर्थ छैक जकरा लेल हमसब त्रिकालज्ञ शब्दक व्यवहार करैत छी। दोसर दिस जँ प्रामाणिकताक विचार करी तँ सब गोटे अवगते छी जे अपना ओतय शास्त्राचार पर लोकाचार भारी पड़ैत अछि। मैथिल संस्कृति मे आइ बहुतो रास एहन वस्तु आ रेवाज शामिल अछि जकर स्रोत विदेहेतर, आर्येतर अछि। जेना गोसांउनिक पीड़ी(चैत्य) लिच्छवि लोकनि, बौद्ध लोकनि सँ आएल अछि, तहिना विवाह मे सिन्दूरदान आदिवासी नागपरंपरा सँ आएल वस्तु थिक। संस्कृत व्याकरणक ई स्मरणीय प्रसंग थिक जे कोनो प्रयोगक शुद्धाशुद्धिक निर्णय वास्ते वार्तिककार ई हल देने रहथि जे 'लोकान् पृच्छ।' अर्थात कोनो प्रयोग शुद्ध अछि कि अशुद्ध, तकर अंतिम निर्णयन लोक-प्रयोगे सँ भ' सकैत अछि।

             मिथिलाक भूभाग लोकसाहित्यक मामिला मे बहुत सम्पन्न रहल अछि। एहि विषयक अधिकारी अध्येता मणिपद्म लिखलनि अछि जे भारतक आन क्षेत्रक तँ बाते छोड़ू, पड़ोसिया बंगाल, असम आ उड़ीसा धरि कें एतेक भारी संख्या मे लोकसाहित्य उपलब्ध नहि छैक। लोकगाथाक प्रसंग मे मणिपद्म लिखलनि अछि-- 'जहाँधरि पूर्वांचलीय लोकगाथाक बात छैक, बंगला, असमिया, उत्कल आ नेपाली भाषा सब मे एतेक उत्कृष्ट कोटिक एतेक लोकगाथा सब नहि छैक। बंगला भाषाक लोकगाथा मे अइ कोटिक दुइये टा लोक-महागाथा छैक-- धर्ममंगल आ विद्या-सुन्दर। असमिया मे जे एकटा तांत्रिक-वैष्णव पृष्ठभूमि पर लोकगाथा छैक ओकर नाम भेल बड़नाथ। नेपाली भाषा मे लोककथा तँ पर्याप्त छैक, किन्तु कोनो एहन (तात्पर्य छनि दुलरा दयाल, सलहेस, अनंगकुसुमा सन अनेको लोकगाथा सँ) जगता ज्योति लोकमहाकाव्य नहि छैक।' (मैथिली लोकगाथाक इतिहास, पृ. 222-223)

             मैथिली लोकसाहित्यक विस्तार अनंत छैक। एकर अध्येता कें एक बात सुरुहे मे गीरह बान्हि लेबाक चाही जे एतुक्का लोकसाहित्ये अन्तत: मिथिला भूभाग मे बसनिहार करोड़ो लोकक आदिम जातीय साहित्य थिक। स्पष्ट क' दी जे 'जातीय' शब्दक अर्थ एतय नस्ल (Race) वा वर्णगत जाति (Caste) सँ नहि, अपितु राष्ट्रीयता (Nationality) सँ अछि। भाषाक आधार पर जेना हमरा लोकनिक बीच बंगाली, गुजराती, मराठी, उड़िया, तमिल आदि जातिक पहचान थिक, ठीक तहिना मैथिल जातिक भाषाई पहचान सँ ई शब्द जुड़ल‌अछि। आन-आन भाषाभाषी प्रदेश सब आगां राजनीतिक इकाइक रूप मे सेहो विकसित भ' सकल तकर मूल कारण छल जे भाषाक आधार पर हिनका लोकनिक जातीयता-बोध सबल छल, जकर अभाव मिथिला मे रहल। 

          मैथिली लोकसाहित्यक विस्तार व्यापक अछि। अनेक विधा, जेना कथा, दीर्घकथा, कथाकाव्य। कविता विधा कें लिय' तँ प्रबन्धात्मक काव्य लोकगाथा, प्रदर्शकाव्य गद्यपद्यात्मक नाच, गीतिकाव्य मे ततेक विस्तार जे स्वयं लोकगीतेक दस सँ ऊपर प्रकार, आ उपप्रकारक गिनती करी तँ सौ सँ ऊपर। अगेय काव्य फकड़ा, जकरा उक्तिकाव्य कहल जा सकैछ। वचनकाव्य जेना डाकवचन। नेनागीतक स्वभाव अकानी तँ लय आ तुक मे कहल गेल कथाकाव्य सन प्रतीत होयत। आ एहि समस्त विधा सभक पाठशाला कतय? परिवार। अणिमा सिंह लिखने छथि-- 'मुख मे एकर सृष्टि होइछ आ हृदय मे एकर निवास होइछ। एकर केवल मौखिक प्रचार होइत आएल अछि।' (मैथिली लोकगीत/पृ.9) कामरेड चतुरानन मिश्र अपन प्रसिद्ध विनिबंध 'मैथिल संस्कृति के पुनरुत्थान का सवाल' मे एहि ठामक परंपरित परिवार-व्यवस्था कें लोकसाहित्यक प्रधान कर्मशाला कहैत छथि। एकर विस्तार आगू समाज धरि जाइत अछि, जाहि मे कीर्तनमंडली, नाचपार्टी आदि-आदि रूप मे विस्तार पबैछ। एक पीढ़ी सँ दोसर पीढ़ी मे लोकसाहित्य कें संचरित करबाक ई सब स्थायी पाठशाला थिक।


मैथिली लोकगाथा


मैथिली लोकगाथाक प्रथम संकलयिता जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) छथि। ओ मैथिलीक तीन गाथा-- गीत दीनाभद्री, गीत सलहेस एवं गीत नेवारक-- संकलित एवं प्रकाशित करौलनि। एकरा अतिरिक्त गोपीचन्दक गाथा सेहो हुनकर प्रकाशित छनि, जे बहुजनपदीय (जे मिथिलाक संग-संग आनो जनपद मे प्रचलित हो) गाथा थिक। एतय ध्यान देबाक बात थिक जे एहि लोककृति सब कें ओ 'गाथा' नहि, 'गीत' कहलनि। तात्पर्य अछि जे मिथिला-क्षेत्र मे साबिक मे गाथा कें सेहो गीत कहल जाइत छल--एहन गीत जे महाकाव्यात्मक हो आ जकर गायन लेल अधिक समयक अपेक्षा हो। एहि लोककृति सभक लेल अंग्रेजीक 'बैलेड'क अर्थ मे सर्वप्रथम मणिपद्म एकरा 'गाथा' कहलनि। ज्ञात हो जे 'गाथा' एक ऋग्वेदकालीन विधा थिक जे आगां संस्कृतक संग-संग प्राकृत मे सेहो लिखल जाइत जाइत रहल। मुदा, लोकगाथा शब्द सँ जाहि प्रकारक रचना अभिप्रेत अछि, ताहि सँ ई सर्वथा भिन्न छल। मणिपद्म मैथिलीक आठ गोट लोकगाथाक विवरण देने छथि। डा. जयकान्त मिश्र अपन पुस्तक 'मिथिलाक लोकसाहित्यक परिचय' मे दस गोट लोकगाथाक विवरण देने छथि, यद्यपि कि एकरा ओ लोकगाथा नहि 'गाथाकाव्य' कहने छथि। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद सँ प्रकाशित 'लोकगाथा परिचय'(1959) मे मिथिला-क्षेत्रक बीस गोट लोकगाथा कें शामिल कयल गेल अछि। राजेश्वर झा अपन पुस्तक 'लोकगाथा-विवेचन'(1974) मे पांच गोट तथा डा. विश्वेश्वर मिश्र अपन पुस्तक 'मैथिली लोकगाथा विवेचन'(2007) मे अठारह गोट लोकगाथा कें शामिल केलनि अछि। डा. प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन कुल मिला क' अड़तीस गोट लोकगाथाक विवरण विभिन्न पुस्तक मे देने छथि। डा. रामदेव झा अपन प्रसिद्ध पुस्तक 'मैथिली लोकसाहित्य: स्वरूप ओ सौन्दर्य' मे बहत्तर गोट लोकगाथाक सूची देने छथि। चन्द्रेशक एक एक लेख मे मैथिली लोकगाथाक संख्या 109 बताओल गेल अछि। युवा लोकविद् आ शोधप्रज्ञ डा. ओमप्रकाश भारती एही संख्या 109 कें प्रामाणिक मानलनि अछि।

        मैथिली लोकगाथा सब वास्तव मे कतेक अछि, तकर ठीक-ठीक गणना कठिन अछि। तकर कारण दूटा। एक तँ मिथिलाक किछु सामाजिक संवर्गक बीच प्रचलित लोकगाथाक एखनहु संकलन संभव नहि भ' सकल होयब संभावित अछि। दोसर, मिथिलाक आधुनिक कालक प्रवेशद्वार पर अवतरित किछु एहनो चरितनायक छथि, जिनकर गाथा एखन हाल-साल मे विकसित भेल अछि। उदाहरणक लेल हमरा लोकनि कारू खिरहरिक गाथा कें देखि सकैत छी। बाबा कारू लक्ष्मीनाथ गोसांइ (1793-1873)क समकालीन छला। बीसम शताब्दी मे आबि क' हुनकर गाथा विकसित भेल आ एकैसम सदी मे एकर लोकप्रियता दिनानुदिन बढ़ि रहल अछि।

      विभिन्न विद्वान लोकनि लोकगाथाक वर्गीकरण भिन्न-भिन्न तरहें कयने छथि। भौगोलिकताक आधार पर डा. रामदेव झा एकर दू वर्ग-- मिथिला जनपदीय आ बहुजनपदीय-- कयने छथि। बहुजनपदीय सँ तात्पर्य अछि एहन गाथा जे आनो प्रान्त मे प्रचलित हो। उदाहरणक लेल बिहुला-विषहरिगाथा कें लेल जा सकैए जे मिथिलाक संग-संग बंगाल आ असम मे सेहो प्रचलित अछि। तहिना लोरिकगाथाक एक वर्सन बंगाल मे प्रचलित अछि तँ एक भिन्न वर्सन छत्तीसगढ़ मे सेहो गाओल जाइत अछि। डा. ओमप्रकाश भारती गाथा-प्रवृत्तिक आधार पर एकर दू वर्ग केलनि अछि-- भगैत(भक्ति-सम्बन्धित) आ महराइ(वीरगाथा)। ज्ञात हो जे महराइये के प्रचलित नाम 'गीत' थिक, जकर उल्लेख ग्रियर्सनक प्रसंग मे कयल गेल। डा. मौन विषयवस्तुक आधार पर तीन वर्ग क्रमश: पौराणिक-अर्द्धपौराणिक, वीरकथात्मक एवं प्रेमकथात्मक केलनि अछि। 

       अपन एक लेख 'लोकगाथाक उद्भव आ स्वरूप' मे पं. गोविन्द झा पुराण संग लोकगाथाक भिन्नताक प्रसंग मे बहुत महत्वपूर्ण बात कहने छथि-- 'मंदिर आ गहबर मानू समाजक बीच विभाजक बनि गेल। शिष्टजन मंदिर धयलनि तँ सामान्यजन गहबर। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि साकार देवताक चरित सूत, व्यास, मुनि आ विविध धर्माचार्य सब रचल जे शिष्टजन मे प्रचलित देवभाषा संस्कृत मे लिपिबद्ध होइत गेल आ आइ बढ़ैत-बढ़ैत रामायण, महाभारत, पुराण आ विविध धर्मग्रन्थक रूप मे ढेर लागल अछि। एहिना गहबर मे स्थापित निराकार दिव्य प्रेतात्मा लोकनिक चरितगाथा अज्ञातनामा लोकसब सामान्यजनक मौखिक भाषा मे रचैत गेलाह जकरा आइ हमरा लोकनि 'लोकगाथा' कहैत छिऐक।'(मैथिली दलित लोकगाथा ओ संस्कृति/ सा.अ./ पृ.183) गहबर मे देवमूर्ति नहि, पिण्ड अथवा पीड़ीक पूजा होइत अछि। ई असल मे चैत्य थिक, जे बौद्धसंस्कृति सँ आयल अछि आ लोकायतक पर्याय बनि गेल अछि। पुराण आ लोकगाथा मे की अंतर छैक, एहि विषय मे पं. गोविन्द झा कहैत छथि जे 'पुराणक ऐतिहासिकता बड़ संदिग्ध मानल जाइत अछि, जखन कि लोकगाथाक ऐतिहासिकता वा सत्यता मे सन्देह करब कठिन। ई नहि कहब जे लोकगाथा मे कल्पना नहि अछि। एकर कल्पना पुराणक कल्पना जकाँ अविश्वसनीय नहि लगैत अछि।दोसर, पुराण मे जे किछु विश्वसनीय वा अविश्वसनीय बात सब भेटैत अछि से संस्कृत साहित्यक भंडार मे बहुतो ठाम भेटि जाइत अछि, किन्तु लोकगाथा मे जे किछु भेटैत अछि से आन कोनहु स्रोत सँ कदाचिते भेटत। लगैत अछि जे हमरा लोकनि युग-युग सँ एक ठाम रहितहु जेना दू भिन्न-भिन्न दुनियांक लोक होइ। एक दुनियांक लोक दोसर दुनियांक लोक सँ एकदम अनचिन्हार, अनभुआर। तेसर, लौकिक जीवनक जे यथार्थ आ रोचक झलक लोकगाथा मे भेटैत अछि से ने पुराण मे भेटत, ने कतहु अन्यत्र।'(उपर्युक्त/ पृ.182)

       मिथिलाक सामाजिक आ सांस्कृतिक जीवनक अत्यन्त सूक्ष्म आ व्यापक  चित्रण लोकगाथा सब मे भेल छैक। यैह कारण थिक जे अपन प्रसिद्ध लेख 'मैथिली लोकगाथाक इतिहास' मे मणिपद्म एहि निष्कर्ष पर पहुँचल रहथि जे 'लोकगाथाक आधार पर मिथिलाक लोक इतिहास (पीपुल्स हिस्ट्री) ज्योतिर्मय भ' उठत। एखन धरि चलि अबैत इतिहासक रूपरेखा, क्रम आ मान्यता बदलि जायत।'(मैथिली लोकगाथाक इतिहास/पृ.223) अद्भुत बात ई छैक जे मैथिलीक जतेक जे कोनो लोकगाथा अछि, ओहि सबटा के चरितनायक लोकनि कमजोर वर्ग, दलित, पछड़ल समूह सँ अबैत अछि। एकर एकमात्र जँ अपवाद अछियो तँ से 'लवहरि-कुसहरि'थिक, जकर नायिका सीता छथि। मुदा, हुनको लोकगाथाक चरितनायक एही दुआरे बनाओल गेल जे पतिगृह सँ निष्कासित ओ एक प्रताड़ित स्त्री छली, जे कि स्वयं संघर्ष क'क' अपन दुनू पुत्र कें सुयोग्य बनेबा मे सफल रहली। लोकगाथाक गहन अवलोकन सँ हमरा लोकनि देखि सकैत छी जे लोकगाथाक समाज जें कि भिन्न अछि, तें एकर आदर्श सेहो भिन्न अछि। एक उदाहरण सँ बात बेसी स्पष्ट भ' सकत। 'नैका बनिजारा' गाथाक नायिका फुलेश्वरी पतिक परदेस चलि गेलाक बाद बहुत प्रताड़ना सहैत अछि, आ अन्तत: अपन दुष्टा ननदि द्वारा स्त्रीदेहक व्यवसायी कुम्भा डोमक हाथें बेचि देल जाइत अछि। जखन परदेसक अभियान पूरा क' क' नैका घर घुरैत छथि तँ अपन स्त्री कें नहि देखि दुखी होइत छथि। समाज सँ जखन सब वृत्तान्त ज्ञात होइत छनि तँ कठिन संघर्ष करैत कुम्भा डोमक चांगुर सँ अपन स्त्री कें मुक्त करबैत छथि आ स्नेहपूर्वक अपन घर अनैत छथि। ओहि गाथाक चरमोत्कर्ष कदाचित एही घटना मे छैक। अपन प्रताड़ित बेकसूर स्त्री कें इंसाफ देबाक जे नैकाक आदर्श छलैक, वैह हुनका अपना समाज मे ततेक पूज्य बनौलकनि जे हुनकर गाथा गाओल जाय लागल। दोसर दिस शिष्ट साहित्यक आदर्श कें देखी तँ हमरा लोकनि बेकसूर सीता कें प्रताड़ित केनिहार पतिये कें पूज्य आ चरितनायक होइत देखैत छी, जखन कि सीताक हरण केनिहार रावण स्त्रीदेहक व्यवसायियो नहि, एक ब्राह्मण राजा छल।

       अपन लेख 'मैथिली लोकगाथाक इतिहास' मे मणिपद्म आठ टा लोकगाथा कें महागाथाक दरजा देने छथि-- दुलरा दयाल, राजा सलहेस, लोरिकाइन, नैका बनिजारा, दीनाभद्री, राय रणपाल, लवहरि-कुसहरि आ अनंगकुसुमा। प्रफुल्ल कुमार सिंहक सूची मे बिहुला सुन्नरि आ विजयमल्ल कें सेहो महागाथा मानल गेल अछि। 'महा' केवल एहि अर्थ मे नहि जे एकर सभक वितान नमहर अछि। जखन हमसब मैथिली लोकगाथा-जगतक अंतरंग मे प्रवेश करैत छी तँ कैकटा रोचक तथ्य सँ सामना होइत अछि। असल मे, मैथिली लोकगाथाक संसार ततेक नम्हर आ जटिल अछि जे कतोक बेर विस्मय मे पड़ा दैत अछि। एहि ठाम महागाथाक संग-संग गाथा-गुच्छ आ गाथा-चक्र कें बुझबाक हम अनुरोध करब। उदाहरणक लेल, जँ अहाँ दुलरा दयाल गाथाक अध्ययन केलाक बाद बहुरा गोढ़िन, केवल महराज, अमर सिंह आ जय सिंहक गाथाक अध्ययन करी तँ एहि सब गाथाक पृष्ठभूमि मे एक गोट तात्विक समरूपता, एकसूत्रता आ एकतानता सन के अनुभव होयत, जेना एक्के राग एहि सब गाथा मे अलग-अलग बंदिश संग गूंजैत हो। प्राय: एहने स्थिति तखन बनैत अछि जखन अहाँ राय रणपाल गाथा पढ़लाक बाद गांगो गोढ़िन आ गुगुलिया गाथाक अध्ययन करी। ठीक तहिना, जोतिक गाथाक बाद जखन कारिख गाथा वा कालिदास गाथा, अन्दू मालि, बेनी महराज, उदय साहु, हरिया-हरिनियां गाथा देखैत छी, किछु एहने प्रतीति होइत अछि। प्रश्न अछि जे एना किएक होइत अछि आ एकर कारण की थिक? जखन मणिपद्म दुलरा दयाल कें महागाथा कहैत छथि तँ हुनका ध्यान मे इहो बात रहै छनि जे एहि गाथाक सहायक गाथा सब सेहो अनेक छैक जे समय बितलाक संग स्वयं मे एक स्वतंत्र गाथाक रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त क' लेलक अछि। मणिपद्म दुलरा दयाल कें महागाथा कहलनि, मुदा असल मे हुनका कमला-गाथा कें महागाथा कहबाक चाहैत छलनि कारण दुलरा दयाल, बहुरा गोढ़िन सहित एहि वर्गक आन गाथा सब कमलाक देव-परिवार सँ संबद्ध अछि। एहि विषयक जिज्ञासु लोकनि कें हमर पुस्तक 'मैथिली कविताक हजार वर्ष' भाग1 के अनुशीलन करबाक चाहियनि जतय लोकगाथा आदि सँ संबद्ध विषय सब पर विस्तार सँ प्रकाश देल गेल अछि।

       भगैत(भक्ति) शैलीक जे मैथिली लोकगाथा सब अछि, से अद्भुत रूप सँ सर्वभारतीय शास्त्रीय आदर्श सँ छिटकि क' क्षेत्रीय (एहि ठाम तात्पर्य मैथिल) संस्कृतिक आ धर्मनिष्ठाक अपूर्व ऐतिहासिक घटनाक्रमक साक्षी अछि। ऊपर जोतिक आदि गाथा-गुच्छक हम चर्चा केने छी। ई संपूर्ण गाथा-गुच्छ मूलत: धर्मराज-महागाथाक सहायक गाथा सब थिक। जोतिक आ कारिख गाथा पर मैथिली मे शोध भ' चुकल अछि। मुदा आठम शताब्दीक बाद सार्वत्रिक आदर्शक स्थान पर कोना मिथिलाक अपन क्षेत्रीय धर्मनिष्ठा आ संस्कृति विकसित भ' रहल छल आ तकर बचल अवशेष हमरा लोकनि एखनहु की सब देखि पाबि रहल छी, ई बोध कोनहु शोधप्रज्ञक भीतर नहि पाओल गेल अछि। उदाहरणक संग बात करी तँ बेसी स्पष्ट भ' सकत। हमरा अध्ययनक अनुसार धर्मराज-महागाथा सर्वाधिक प्राचीन अछि, जाहि मे वज्रयानी पूजा-पद्धतिक अवशेष हमसब आइयो पाबि सकै छी। एहि पद्धति मे पूजा वा ध्यान ब्राह्मणधर्म जकाँ व्यक्तिगत नहि, अपितु सामूहिक होइत अछि। धर्मराजक पूजा होइत अपना गाम मे देखि सकैत छी, जाहि मे गोलाइ मे भगतिया सब बैसैत छथि आ बीच मे भगता। गाथा जे गाओल जाइछ से मैथिली मे तँ होइतहि अछि, उच्च सामूहिक स्वर मे विविध वाद्ययंत्रक संग भारी गर्जन-तर्जन करैत गाओल जाइछ। ओमप्रकाश भारती एहि गर्जन-तर्जनक सम्बन्ध मानसिक विरेचन संग जोड़ैत कहलनि अछि जे कठोर श्रमक अभ्यास सँ निम्नवर्गक लोक मे शारीरिक शक्ति पर्याप्त होइत छनि, मुदा जीवन मे वीरता प्रदर्शन करबाक अवसर नहि रहैत छनि। अपने सन एक गाथानायकक वीरता-प्रदर्शन गबैत ओ अपना जीवनक विषमता बिसरि जाइत छथि आ एकर भरपाइ ई चिकारी-भोकारी करैत अछि। ( भारती जीक लेख लेल देखी-- मैथिली दलित लोकगाथा ओ संस्कृति/पृ. 32-35) जखन भगताक देह मे देवता अबैत छथि तँ उपस्थित समस्त सामाजिक समुदायक गोहारि होइछ। कमाल बात ई अछि जे धर्मराज एक निराकार देवता छथि, स्वयं गाथा सब मे हुनका निर्गुण आ निरंकार कहल गेल अछि, जखन कि मैथिलीक अनवधान अध्येता लोकनि केवल एहि आधार पर धर्मराज कें सूर्यदेवता कहैत छथि जे हुनकर एक नाम गाथा सब मे 'दिनानाथ' आएल छनि। एहि विषयक गंभीर जानकारीक  लेल जिज्ञासु लोकनि कें शशिभूषण दासगुप्तक प्रख्यात पुस्तक 'Obscure Religious Cults'क अध्ययन करबाक चाही।

      धर्मराजक देव-परिवार चौदह देवताक छनि, जिनका समेकित नाम 'चौदह देवान' सँ संबोधित कयल जाइछ। सब सँ रोचक बात ई अछि जे एहि चौदह देवता मे सँ एक मीरा साहेब छथि। मीरा साहेब मुसलमान छथि। हुनकर गाथा 'मीरायन' मैथिली मे अछि। मीरा साहेब धर्मराजक संग-संग पूजित होइत छथि, मने हुनकर पूजाक विना अनुष्ठान पूर्ण नहि भ' सकैछ। एहन प्रतीत होइत अछि जे लोकायतक धर्मधारणा मे सातक संख्या अतिरिक्त रूप सँ महत्वपूर्ण अछि। धर्मराजक पत्नी छथिन शीतला, वा सितला, जिनकर सेहो अपन देव-परिवार छनि, एहि मे सात देवी छथिन। तहिना, कमलाक देव-परिवार मे सेहो सात देवी छथिन। कमाल बात ई अछि जे एहि देव-परिवार मे दुलरा दयाल शामिल नहि छथि, हुनकर हैसियत मात्र एक 'सेवक'क छनि, जखन कि हुनकर पत्नी अमरावती आ सासु बहुरा गोढ़िन कमलाक देव-परिवार मे शामिल छथि। जोतिक, कारिख, कालिदास, अन्दू मालि, बेनीराम आदिक गाथा मूलत: धर्मराज महागाथाक गाथा-गुच्छ थिक। जोतिक अपन कठिन तप सँ धर्मराजक सिद्धि प्राप्त केलनि जकर बदौलत ओ गाथा-नायक भेला। हुनकर पुत्र कारिख सेहो अपन तप मे विशेष रहला, तें ओहो नायकत्व कें प्राप्त केलनि। आ, बिलकुल यैह बात कारिखक पुत्र कालिदासक संग रहलैक। एही क्रमें हमसब आन-आन गाथा-नायकक प्रताप कें बूझि सकैत छी। मिथिलाक स्वतंत्र धर्म-धारणा कतेक संघर्षक बाद स्थापित भ' सकल, तकर बहुतो रास सामग्री हमरा लोकनि कें एहि गाथा सब मे भेटैत अछि। कामरु कमख्याक वर्चस्व कें तोड़ैत कोना कमला  आ धर्मराज मिथिलाक लोकायत परंपरा मे स्थापित भ' सकला तकर वृत्तान्त जतबे रोचक अछि ततबे मार्मिक। गाथा-गुच्छ आ गाथा-चक्र मे अंतर यैह छैक जे गुच्छ मे जतय एकहि महागाथाक अनेकवंशीय चरितनायकक कथा आयल रहैत छैक ओतहि चक्र मे एक्कहि वंश मे उत्पन्न अलग-अलग नायकक यशोगाथा गाओल जाइछ। गाथा-चक्रक एक स्पष्ट दृष्टान्त जोतिक, कारिख आदिक गाथा थिक।

        मौखिक साहित्य कें संतरणशील साहित्य(foating literature) कहल जाइत अछि। एहन साहित्य जे मानू बसात मे उड़ियाइत रहैत अछि। एकर असल तात्पर्य थिक जे हरेक पीढ़ीक प्रस्तोताक रुचि आ प्रतिभाक हिसाब सँ एकर पाठ मे परिवर्तन अबैत जाइ छैक। गाथागायकक अलग-अलग पीढ़ीक दू व्यक्ति मे ने तँ कवित्वशक्ति के समानता संभावित रहै छै आ ने कल्पनाशीलताक। एकर उदाहरण देखने बात बेसी स्पष्ट होयत। दुलरा दयाल गाथाक एक पाठ मणिपद्म कें भेटल रहनि जकरा आधार पर ओ अपन प्रसिद्ध उपन्यास 'दुलरा दयाल' लिखलनि। ओहि उपन्यास कें देखितहि स्पष्ट भ' जाइछ जे ओहि गाथागायक मे कतेक उन्नत कोटिक सौन्दर्यदृष्टि आ कवित्वशक्ति रहल हेतै। मणिपद्म एहि बातक अपील तँ सदति करैत रहला जे मैथिली लोकगाथा सब पर लुप्त भ' जेबाक खतरा मँडरा रहल अछि, मुदा हुनका अपना लग जे पाठ उपलब्ध रहलनि, ओ चाहितथि तँ ग्रियर्सन जकाँ हू-ब-हू ओकरो पाठ प्रकाशित क' दीतथि। मुदा जानि नहि किएक, ई काज ओ नहि क' सकला। गाथाक उक्त पाठ वास्तव मे लुप्त भ' गेल। डा. विश्वेश्वर मिश्र कें दुलरा दयाल गाथाक जे पाठ भेटल रहनि, आ जकरा ओ प्रकाशित करौने छथि, हमसब साफ देखि सकै छी जे एहि गाथागायक लग ने तँ ओ सौन्दर्यदृष्टि छैक ने ओहि कोटिक कवित्वशक्ति। 

एकरा अतिरिक्त एक आर स्थिति होइत छैक जे समयक संग लोकगाथाक आकार आ वर्ण्यविषय मे परिवर्तन होइत जाइत छैक। एकर एक नीक दृष्टान्त दीनाभद्री गाथा भ' सकैत अछि जकर तीन गोट अलग-अलग पाठ मैथिली मे प्रकाशित छैक। एकर प्रथम पाठक संकलन स्वयं ग्रियर्सन 1885मे प्रकाशित करौने छला। असल मे, मैथिली भाषाक लोकगाथा, लोकगीत वा समकालीन लेखन मे किछु सारतत्वो छैक, एहि बातक दिस संसारक ध्यान आकृष्ट केनिहार प्रथम व्यक्ति एक यूरोपीय विद्वान ग्रियर्सने छला, कोनहु मैथिल नहि। ग्रियर्सनक एहि दीनाभद्री गाथा मे कुल सात अध्याय छैक। ग्रियर्सन कें ई गाथा कोन गाम मे कोन गाथावाचक सँ भेटलनि, तकर ओ कोनो उल्लेख नहि कयने छथि। ओ तँ खैर विदेशी मूलक शासकवर्गक अधिकारी रहथि, एकर दोसर पाठ 2007 मे महेन्द्र नारायण राम आ फूलो पासवानक संपादन मे छपल। खेदक विषय जे एहू मे गाथागायकक कोनो नामोल्लेख नहि अछि, जखन कि एकर दुनू संपादक स्वयं दलित समुदाय सँ रहथि। एतय धरि जे सवा सौ वर्ष पहिने ग्रियर्सन द्वारा छपाओल पाठक कोनो सूचनो हुनका लोकनि कें प्राय: नहि छलनि। अस्तु, डा. राम एवं डा. पासवान द्वारा संपादित ई गाथा बढ़ि क' तेरह अध्यायक भ' गेल। एकर तेसर पाठ रमेश रंजनक संपादन मे नेपालक प्रज्ञा प्रतिष्ठान सँ प्रकाशित अछि जाहि मे कथानक अध्याय मे विभाजिते नहि छैक, अपितु निरंतरता मे चलल अछि। एकर गाथागायक सातैन राम (खुरखुरिया, राजबिराज)क ने केवल नाम-गाम देल गेल अछि अपितु फोटुओ छापल हेल अछि। 

        दीनाभद्री गाथा आर्य-अनार्यक बीच युग-युग सँ चलि अबैत  संघर्ष आ आर्यीकरणक दमनकारी प्रक्रियाक दू टूक जानकारी दैबला एक दुर्लभ गाथा थिक। एहि ठाम सब सँ मजेदार स्थिति धर्मक बताओल गेल अछि। तात्पर्य जे शोषण आ दमनचक्रक संदर्भ मे धर्मक अलग सँ कोनहु मूल्ये नहि रहैछ। एहि गाथा मे हमसब देखैत छी जे कनक सिंह(हिन्दू) आ ताहिर मियां(मुसलमान) दुनू एक्कहि समान आर्य छथि, कृषिजीवी आ गोपालक छथि। एतय धरि जे दुर्लभ कामधेनु गाय जाहि कोनो एक व्यक्ति लग उपलब्ध छैक, से कनक सिंह(हिन्दू) नहि अपितु ताहिर मियां(मुसलमान) थिका। अनार्य दीनाभद्रीक अन्यायपूर्ण हत्या मे, आ हुनक समुदाय कें जबरन आर्यीकरणक भीतर समाविष्ट करबा मे एहि दुनू आततायीक बराबर-बराबर भूमिका छनि, धर्मक आधार पर कोनो वैभिन्य नहि अछि। मुदा, मौखिक साहित्यक जाहि संतरणशील स्वभावक ऊपर चर्चा कयल गेल, आगामी पाठ सब मे हमसब देखैत छी जे कतहु दीनाभद्री महादेव मंदिर कें विधर्मी सँ बचेबाक संघर्ष करैत देखल जाइत छथि तँ कतहु मक्का-मदीना पर हुनका विजयपताका फहराबैत देखल जाइत अछि। संतरणशील हेबाक कारण लोकगाथा सभक प्रस्तुति मे अपन समकालीन समयक महाप्रश्न सब कें, संघर्ष सब कें अंटाबेस क' लेबाक अपूर्व क्षमता होइत छैक। तें, एहि दुर्लभ घटना कें एतय घटित होइत अक्सरहां देखल जा सकैछ जे कोना प्राचीन मिथक आ यथार्थवादी समकाल संग-संग लोकगाथा सब मे विहार करैत अछि।

        मैथिलीक विद्वान लोकनि मे कोनो गाथा-विशेष कें कोनो खास जातिक संग जोड़ि क' देखबाक चलन रहलनि अछि। कहि नहि, एहि चलनक आरंभ कोना आ कहिया भेल, मुदा हमसब देखैत छी जे मणिपद्म समान विचक्षण लोकविद् सेहो रहरहां एहि प्रकारक वाक्य निधोख लिखैत देखल जाइत छथि जे 'राजा सलहेस दुसाध जातिक छथि' अथवा 'लोरिक स्वयं यादव छला' अथवा 'दीनाभद्री मुसहरक महापुरुष छला' आदि। एकरा पाछां कारण अक्सर ई बताओल जाइछ जे एहि-एहि महापुरुषक गाथा एही-एही जातिक गाथागायक लोकनि गबैत छथि। खेद अछि ई कहैत जे तथ्यात्मक अध्ययन सँ एहि बातक पुष्टि नहि होइत अछि। अतीतक महापुरुष संग सब क्यो अपन आत्मीयता रखैत अछि, पचपनिया समुदायक सब लोक हुनका प्रति श्रद्धा-भक्ति रखैत छथि, आ सब जातिक लोक गुरु-परंपरा सँ एहि गाथा कें गेबा मे अधिकारिता रखैत छथि, तथ्य सैह कहैत अछि। विद्यापतिक वंश-निर्णय जेना विद्वान लोकनि असंदिग्ध रूप सँ पंजी-ग्रन्थक आधार पर क' सकलाह अछि, कहब आवश्यक नहि जे लोकायतक महापुरुष लोकनिक वंशादि निर्णयनक लेल एहन कोनो दस्तावेज उपलब्ध नहि अछि। दोसर, गाथागायकक जहाँ धरि प्रश्न अछि, कहबे केलहुँ जे विद्वान लोकनि गाथागायकक कंठ सँ गाथा तँ ल' लेलनि मुदा हुनकर नामोल्लेखो धरि करब जरूरी नहि बुझलनि। सोचू तँ ई कते पैघ अन्याय थिक जे जे लोकनि व्यक्तिगत जतन क' क' सैकड़ो-हजारो वर्षक गाथा कें लुप्त हेबा सँ बचौलनि, हुनकर तपस्याक आगू संग्रहकर्ता संपादकक प्रयत्न वास्तव मे कते लघु छनि। गाथागायक लोकनिक जतबा जे नाम-गाम हमरा लोकनि कें उपलब्ध होइत अछि ताहि सँ एहि जाति-संबद्धता विचारक समर्थन नहि होइत अछि। उदाहरणक लेल डा. विश्वेश्वर मिश्र कें नैका बनिजारा गाथा हरिपुर गामक सरोवर यादव सँ प्राप्त भेल रहनि, जखन कि एहि गाथा कें तेली जातिक गाथा कहबाक चलन रहल अछि। तहिना, लोरिक गाथा कें यादवक संग जोड़ल जाइछ, जखन कि ई गाथा हुनका असमा गामक फचन दास आ बाहुरलाल हजाम सँ प्राप्त भेल रहनि। तहिना, बिहुला गाथाक सम्बन्ध तेली जातिक संग जोड़ल जाइछ मुदा एकर प्राप्ति हुनका लगमा गामक सोमन मुखिया लग भेलनि। तें, कोनो लोकगाथा कें जाति-विशेषक संग जोड़बा सँ पहिने पूरा परीक्षण क' लेब उचित थिक।


मैथिली लोकगीत


   लोकगीत मिथिलाक प्राचीनतम भावाभिव्यक्ति-विधा थिक। जहिया आम लोकक चलन मे साहित्य नहि छल, तहियो लोकगीत छल। ओ पहिल व्यक्ति जे आम लोकक भाषा कें अपन साहित्याभिव्यक्ति के माध्यम बनेलथि, धन्य आ प्रणम्य छथि। ओ पीढ़ी सब तँ जरूरे जे एहि चलन कें आम बनेलथि। आइ साहित्य आ लोकसाहित्य मे एते अंतर किए देखार पड़ैए? लोकसाहित्यक ई विधा गीत, एक तँ लयात्मक होइछ, दोसर सरल। साधारण शब्द सब द्वारा एक साधारण जीवनशैलीक चित्रण। मुदा, ई बात सुनबा मे जते आसान अछि, बरतबा मे ततबे कठिन। असल मे जीवन-सत्य कें अभिव्यक्त करबाक ई लिलसे अलग-अलग होइत अछि। डाॅ अणिमा सिंह कहलनि अछि-- 'मैथिल समाज मे जीवन-जिज्ञासा सर्वत्र दर्शनशास्त्रादिक रूप धारण नहि करैछ, वरंच ओ प्राय: सहज भाव सँ गीतकाव्यक रूप मे सेहो परिणत भ' जाइछ। फलत: मैथिली लोकगीतक परिचय मे हुनका लोकनिक समग्र लोकजीवनक परिचय भेटि जाइछ।' (भूमिका/ मैथिली लोकगीत/ पृ.11) तात्पर्य जे मिथिलाक लोकजीवनक वास्तविक स्वरूप एकर दार्शनिक लेखन मे नहि अपितु एकर लोकगीते मे प्राप्त भ' सकैत अछि।

          ओ वस्तु मैथिली लोकगीते छल, जकर रूप आ कथनशैली सँ प्रभावित भ' क' हजार वर्ष पहिने अपन बात एहि भाषाक आश्रय लैत जनता मे ल' जेबाक प्रेरणा सिद्ध लोकनि कें भेटल रहनि। आ ओहो वस्तु यैह थिक जे अपना समय मे विद्यापति कें मैथिली लिखबाक लेल प्रेरित केलकनि।विद्यापति तँ अपन लोकसिद्धता मे तते प्रखर बहरेला जे हुनकर अपन व्यक्तित्व एहि लोक मध्य तिरोहित भ' गेलनि आ ओ एक मिथकपुरुष मात्र बनि क' रहि गेला जे शिवविषयक गीत लिखलनि तँ शिव हुनकर चाकर बनि क' संग रहला, गंगा-गीत लिखलनि तँ गंगा अपन प्रवाह बदलि ल' हुनका समीप अयबा लेल बाध्य भेली। आगू विद्यापतिक भणिता लगा क' अज्ञात कवि लोकनि द्वारा पांच सौ बरस मे हजारो गीत लिखल गेल, एहि ठाम मैथिली लोकगीत आ लोककवि विद्यापति, दुनूक व्यापकता आ विस्तार देखल जा सकैत अछि।

      मुदा प्रश्न अछि जे लोकगीत ककरा कहल जाय? एकर तीनटा उत्तर संभावित अछि-- (1) लोक मे प्रचलित गीत (2) लोकनिर्मित गीत (3) लोक-विषयक गीत। लोकविषयक गीतक विषय मे विद्वान लोकनि मानै छथि जे मात्र लोकविषयक हेबाक कारण कोनो रचना लोकगीत सेहो बनि जाय, ई क्षमता ओकरा मे हैब कठिन बात होइत अछि। जँ शिष्टसाहित्यक कोनो प्रतिभाशाली कवि लोकविषयक गीत लिखथि, आ ओ कवि-व्यक्तित्वक प्रभाववश लोक मे प्रचलित सेहो भ' जाय, तैयो एहि बातक गारंटी नहि अछि जे सदा ओ लोक मे प्रचलित बनल रहत। एकर उदाहरण हमसब मधुप जी आदि कविक गीत मे पाबि सकै छी जे एक समय मे लोकप्रचलित भेलाक बादो आगां प्रचलन सँ बाहर भ' गेल आ आइ ओकर मूल्यांकन शिष्टसाहित्यक कसौटी पर करबा लेल हमसब बाध्य छी। असल लोकगीत होइछ लोकनिर्मित गीत। आब एतय देखल जाय जे 'लोकनिर्मित' मे जे 'लोक' अछि तकर कोनो नाम नहि अछि, ने भ' सकैए। कारण नाम भेने ई निश्चित जे ओकर एक दिन मृत्यु हैब सुनिश्चित अछि। जखन कि 'लोक' अजर-अमर होइत अछि। केहनो प्रतापी राजा हो, ओ एक दिन मरि जाइत अछि। जखन कि प्रजा वा लोक, जे एक सामूहिक संज्ञा थिक, नैरन्तर्य मे ओकर जीवन चलैत रहैत छैक। तें, कोनो रचना कें लोकगीत हेबाक अनिवार्य शर्त थिक ओकर लोकत्व अर्थात रचनाकार-व्यक्तिक विलोप। ई विलुप्तीकरण समाज सेहो करैत रहैत अछि। 'भनहि विद्यापति' लागल जे आइ हजारो गीत भेटैत अछि, संभव जे एक समय मे ओ कवि अपन नाम देने हेता, लोक ओकरा विद्यापति मे परिणत क' लेलक। लोकगीतक रचना सदा सामूहिक होइत अछि। हरेक गितगाइन कें ई सुविधा रहैत छैक जे गीत कें अधिकाधिक मार्मिक आ सुंदर बनेबाक लेल ओ अपनो दिस सँ कलाकारी करैत चलय। एही कारण सँ लोकसाहित्य कें नमनीय कहल जाइत छैक। विश्वक प्रसिद्ध लोकविद् लोकनि अक्सरहां एहि तरहक बात लिखलनि अछि जे लोकगीत कें लिखित रूप देब प्रकारान्तर सँ ओकर हत्या करब थिक, कारण एहि सँ ओकर नमनीयता नष्ट होइत छैक। ई नमनीयता लोकगीत कें हर एक व्यक्तिक अप्पन वस्तु बनबैत छैक। डाॅ.आशुतोष भट्टाचार्यक ई कथन अणिमा सिंह उद्धृत केलनि अछि-- 'लोकसमाज मे प्राय: प्रत्येक व्यक्तिक लेल लोकगीत रस-वस्तु थिक। अपन रचना नहि भेनहु जन-मानस ओकरा बड़ आतुरता और उत्साहक संग अपनाबैछ, किएक तँ ओहि मे अपनहि भावक प्रतिच्छवि पाबैछ। भावक तन्मयता मे अपन और आनक भेद तथा सब प्रकारक भेदभाव भूलि जाइछ।' (मैथिली लोकगीत/ पृ.9)

       मैथिली लोकगीतक कृतकार्य संग्रहकर्ता डाॅ. अणिमा सिंह लिखलनि अछि जे 'आइयो अनेक क्षेत्र एहन अछि जतय सँ लोकगीत संग्रह नहि भ' सकल अछि। लोकगीतक विशाल परिमाण कें देखैत ई कहल जा सकैत अछि जे आइ धरि लोकगीत-संग्रहक लेल जे सब काज भेल अछि ओ सर्वथा अपर्याप्त अछि। (भूमिका/ मैथिली लोकगीत/ पृ.9)

        मैथिली लोकगीतक की सब विशेषता अछि? डाॅ अणिमा सिंह एकर पांच गोट प्रमुख विशेषताक विवेचना कयने छथि-- (1)मैथिली लोकगीत मे भाषाक सरलता, सुबोधता आ वेगसंपन्नता पाओल जाइछ। (2)एहि गीत सब मे भावक उदारता प्रचुर परिमाण मे भेटैछ। सर्वत्र संकीर्ण भावक भर्त्सना आ उदार भावक प्रशंसा भेटैत अछि। (3) एकर तेसर विशेषता अछि मंगलैषणाक प्राधान्य। लोकगीतकार अपन वैयक्तिक जीवन मे, परिवार मे तथा समाज मे, शांति आ अभ्युदयक मंगलकामना करैत अछि। (4) एकर चतुर्थ विशेषता अछि धर्मोन्मुख जीवनक कामना। प्रत्येक व्यक्ति समाज मे अपन विकास चाहैछ। ई विकास एहन हेबाक चाही जे दोसरक विकास मे बाधक नहि बनैत होइ। (5) मैथिली लोकगीत मे पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धक आदर्शीकरणक प्रयास सर्वत्र दृष्टिगोचर होइछ। आदर्श भाइ, आदर्श बहीन, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श सेवक तथा समुन्नत नागरिकक आदर्श एहि गीत सब मे भरल अछि। एहि सब विशेषताक अतिरिक्त डाॅ. रामदेव झा एकर गेयता-विषयक एक आर विशेषता एकर सामूहिक गान-पद्धति कें मानलनि अछि। 

        किछु उदाहरण सँ बात बेसी फड़िच्छ होयत। उदारभावक प्रचुरताक एक दृष्टान्त एहि सोहरगीत मे देखल जा सकैत अछि जतय गितगाइन पुत्रजन्म पर गबैत छथि-- 'सेर जोखि सोनमा लुटायब, पसेरी जोखि रुपया रे/ सौंसे अजोध्या लुटायब, किछु नहि राखब रे।' एहि हार्दिक एवं सामूहिक औदार्य कें ठीक-ठीक पकड़ि पायब सेहो कोनो आसान बात नहि अछि। तकर उदाहरण हमसब प्रसिद्ध लोक अध्येता डाॅ. कृष्णदेव उपाध्यायक एहि निष्कर्ष मे देखि सकै छी जतय ओ कहै छथि जे 'इन उल्लेखों से पता चलता है कि लोकगीतों में वर्णित समाज धनी था, समृद्ध था।' जी नहि, बिलकुल गलत। धनी तँ सौंसे गाम क्यो एकाध व्यक्ति छला जेना गाम भरि मे कतहु एकटा ब्रह्मस्थान। मुदा, ई गीत तँ घर-घर मे गाओल जाइत छल। असल मे ई औदार्य पूर्णत: हृदयगत थिक, भौतिक नहि। तहिना, संकीर्णता, कृपणता एवं बैमानीक सर्वत्र भर्त्सना भेटैत अछि। जट-जटिनक गीत मे ई प्रसंग अबैत छैक-- 'सगरे सुनै छिऐ फलना बड़ धनीक छै रे ना/ एक सेर कें दूइ सेर बनाबै छै रे ना/ चिपड़ी रोटी चुटकी नोन जन सब कें दै छै रे ना/ ओकरा नामें जन सब कानै छै रे ना/ ओकरे पापें पानियो नै पड़ै छै रे ना।' कतोक गीत सब मे एहि प्रकारक आर्थिक अन्यायक विरुद्ध बहुत तीक्ष्ण शब्दावली व्यवहृत भेल अछि। 

          मैथिली लोकगीतक एहन आरो अनेक विशेषता छै जाहि पर विद्वान लोकनिक ध्यान एखनहु नहि गेलनि अछि। एहि मे सँ एकटाक चर्चा मात्र हम एतय करब। कोनहु जाति, जेना मिथिलावासी, के किछु आदिम स्मृति रहै छै, जे लोकसाहित्य मे देखार द' जाइ छै। ई कालगत सेहो खतियाएल जा सकै छै। कमाल बात ई छै जे लोकस्मृतिक बहुतो रास बातक समर्थन लिखित इतिहास सँ सेहो होइ छै, जखन कि बहुतो रास तथ्य फरजी इतिहासक भंडाफोड़ सेहो करैत छै। मैथिलीक एक खेलगीत मे वर्णन अबै छैक-- 'अमर सिंह के कमर टूटलनि, कुमर सिंह के बांही/ पुछियनु ग' दलभंजन सिंह सँ आब लड़ता कि नांही।' गीतक अगिला पद मे एकर जवाबो आएल छै-- 'हाथी बेचब घोड़ा बेचब, दुश्मन कें हरायब/ लड़ब नै तँ करब की, नाम की हँसायब।' बहुत आराम सँ हमसब बूझि सकैत छी जे एहि गीतक स्मृति 1857 के विद्रोहक एक नायक बाबू कुँवर सिंह संग जुड़ल छैक। इतिहास साक्षी अछि जे मिथिलाक राजा 1857क विद्रोह मे अंग्रेजक दिस रहथि, विद्रोह कें कुचलबाक लेल हाथी-घोड़ा-सिपाही सँ अंग्रेज कें मदति कयने रहथि। मुदा एहि ठामक आम जनता अंग्रेजक, आ तें महराजोक खिलाफ रहय। मिथिलाक जननायक ओहि समय भोजपुरक कुँवर सिंह छला, दरभगाक महेश्वर सिंह नहि। एहि सब सँ सम्बन्धित अनेको तथ्यक सोदाहरण विवरण हम अन्यत्र प्रस्तुत कयने छी। दोसर दिस किछु एहनो प्रसंग छै जे इतिहासकारक नजरि सँ ओझल भ' चुकल अछि मुदा लोकस्मृति मे एखनहु बनल अछि। उदाहरणक लेल एहि गीत कें देखि सकै छी-- 'छकौरी छबीला राय/ तक्कर बेटा भुल्ला राय/ पान खाइ ले बंगाला जाय।'  ई वीरबांकुरा भुल्ला राय, जे ओहि छबीला राय के बालक रहथि जिनका हाथ मे छव टा अंगुरी रहैक, आ जे बंगाल कें जीति लेबा मे समर्थ भेल छला, वास्तव मे के छला, कोन गामक निवासी रहथि, कोना-कोना हुनकर विजय-यात्रा भेलनि, एहि बातक जाबन्तो जानकारी इतिहास सँ सर्वथा लुप्त भ' गेल अछि मुदा लोकस्मृति मे एखनहु जीवित अछि।  एकटा बड़ प्रसिद्ध भगवती(काली)गीत हमर-अहाँक माय-बहीन एखनहु गबैत छथि, जाहि मे पांती अबैत छैक-- 'अपने सँ गाबथि काली अपने बजाबथि/ हे माँ, अपनहि सँ करथि बियाह।' एहि गीत कें अणिमा सिंहक संग्रह मे पूरा देखि सकैत छी। भगवती काली असुरक वध कोना-कोना केलनि, एहि गीत मे तकर पूरा विवरण आएल छैक। काली पहिने असुर संग बियाह केलनि, बियाही नारी बनि सभक विश्वास जितलनि, तखन जा क' अंतत: षड्यंत्रपूर्वक समुच्चा खनदान कें कचरि देलखिन। मुदा, एहि युद्धक जे वर्णन लोकस्मृति मे एखनहु सुरक्षित अछि, हमसब देखैत छी जे शिष्टसाहित्य मे एहि तथ्य कें नुका लेल गेल। उदाहरण हमसब दुर्गासप्तशती मे देखि सकै छी जतय एक तँ कालीक एहि प्रसंग कें दुर्गा संग जोड़ि देल छैक, दोसर एकरा अनुसार असुर संग भगवतीक बियाह होइते नहि छैक अपितु एकर प्रस्तावे सुनि क' असुरक खनदान कचरि देल जाइछ।

         एहि सभक अतिरिक्त मैथिल समाज मे सांस्कृतिक सम्मिलन कोना भेल, तकर अत्यन्त प्रामाणिक इतिवृत्त हमसब एतय पाबि सकै छी। संस्कारगीत अन्तर्गत विवाह-प्रसंगक गीत सब मे सिन्दूरदान-गीतक अति महत्व। गीतो सब भरपूर। मुदा, आश्चर्य लागत ई जानि क' जे आर्यसंस्कृतिक वैवाहिक पद्धति सब  मे सिन्दूरदानक कोनो गणने नहि छैक, मुख्य बिध सप्तपदी मात्र थिक। सिन्दूरदान अनार्य नाग आदिवासी लोकनिक संस्कृतिक वस्तु थिक आ ओतहि सँ मिथिला मे आएल अछि। 

         तहिना, धार्मिक सह-जीवन के सेहो लोकसंस्कृति मे बहुत महत्व। एकटा प्रसंग मोन पड़ैत अछि। जमींदारक अत्याचार कते बेसी छलै आ जनता कोना एकर सामना करैत जिबैत छल, तकरो विवरण सब सं लोकगीत भरल छै। एकटा झरनी गीत मे एलैए जे राजाक सिपाही एक अबला मुस्लिम स्त्रीक आंचर ध' लेलकै। अपन सतीत्वक रक्षा लेल ओ स्त्री सिपाही कें बतेलकै जे ओ बालबच्चेदार स्त्री थिक। ओकर बाली उमेरिया कें देखैत सिपाही ओकरा पुछै छै जे गे, तोरा बेटा कोना भेलौ? आ, मैथिली लोकजगतक मानस-सूत्र देखल जाय, ओ युवती बतबै छै जे 'गेलियै जनकपुर पुजलियै सिया जानकी/ ऊहे देलखिन गोदी के बलकबे जी।' क्यो मुसलमान अछि, मात्र एही कारणें सिया जानकी ओकरा लेल अपूज्य भेलखिन अथवा क्यो हिन्दू अछि मात्र एही टा लेल बालापीर अपूज्य भेला, एहि तरहक संकीर्णता अहाँ कें लोकसाहित्य मे कतहु नहि भेटत।

       मैथिली लोकगीतक संसार बहुत विशाल आ व्यापक अछि। लोक-हृदयक हरेक तरहक भावनाक लेल एतय गीत अछि। अनेक लोकविद् अपना-अपना तरहें एकर वर्गीकरण कयने छथि। ई वर्गीकरण सब मुख्यत: पांच प्रकारक अछि-- संस्कारक दृष्टि सँ, रसानुभूतिक प्रणाली सँ, ऋतु आ व्रतक क्रम सँ, विभिन्न जातिक अनुसार आ श्रमक प्रकारताक आधार पर। डाॅ. रामदेव झा मैथिली लोकगीतक छव प्रकार बतौलनि अछि-- संस्कारगीत, उत्सव-व्रतोपासनाक गीत, भक्तिपरक गीत, श्रमोपनोदक गीत, समैया गीत आ मनोरंजक गीत। डाॅ. जयकान्त मिश्र ओना तँ लोकगीतक वर्गीकरण सात भाग मे केलनि अछि-- भजन, देवी-देवताक गीत, पाबनिक गीत, सोहर, संस्कारगीत, समैया गीत, लगनी-- मुदा बड़ पता के एक बात लिखने छथि जे 'मिथिलाक स्त्रिगणक अनुसार एकर विस्तृत विभाजन थिक 'देवपक्षक गीत' आ 'रसपक्षक गीत।' (मिथिलाक लोकसाहित्यक भूमिका/ पृ.83)

         मैथिली लोकगीत पर अनेको बात मोन मे आबि रहल अछि। जेना लोकगीत मे वर्णित मैथिल संस्कृति, लोकगीतक भूगोल, प्रवासक पीड़ा, लोकगीत मे वर्णित जीवन-संघर्ष, लोकगीत मे आएल शहरक मारुख स्मृति, लोकगीत मे वर्णित आर्थिकी, धर्म आ धर्मनिरपेक्षता आदि-आदि। एतय तकर अवकाश नहि अछि। एकरा लेल जिज्ञासु लोक कें अन्यत्र देखबाक चाहियनि।

          


साहित्यक विकास मे अवदान


       मिथिलाक भूभाग मे बसनिहार लोकक संग कविताक सम्बन्ध बहुत प्राचीन रहल अछि। काव्य मे, तुक मे, लय आ भास मे अपन हृदयक भाव व्यक्त करबाक प्रवृत्ति पूर्वांचलीय लोकसमाजक खास विशेषता रहल अछि। यैह कारण भेल जे आधुनिक भारतीय भाषा, जेना मैथिली कें पहिल बेर काव्याभिव्यक्तिक माध्यम बनेबाक घटना सेहो इतिहास मे पहिल बेर एही भूभाग मे भेल। ओ सिद्धसाहित्य छल, जकर रचयिता लोकनि पहिल बेर गीत लिखि रहल छला। एक बिलकुल नवीन विधा, जकर संस्कृत साहित्य मे पूर्णत: अभाव छल। आगां हमसब देखैत छी जे एतहि सँ संस्कृत मे गीत लिखबाक प्रेरणा जयदेव लेलनि। जयदेव सँ कतेको डेग आगूक काज विद्यापति क' गेला। एक तँ ओ मैथिली कें संस्कृतक आसन देलखिन। जयदेव जे बात संस्कृत मे कहि सकल रहथि, तकरा ठेठ अपन बोलचालक भाषा मे कहि जेबाक साहस केलनि। हुनकर खूबी ई रहलनि जे बोलचालक भाषा कें काव्याभिव्यक्तिक माध्यम बनबैतो, ओ साहित्यक उच्च मूल्य आ मानदंड सँ कतहु समझौता नहि केलनि। एखनहु हमसब देखैत छी जे कते गोटे कें बौद्धिक वा वैचारिक बात केवल अंग्रेजिये मे कहल होइत छनि। ई मानसिक विभ्रम छिऐक जे अनभ्यास सँ पैदा होइ छै। ओहि युग मे जनमल विद्यापति एहि विभ्रम सँ बचल रहल छला, तय बात छै जे मातृभाषाक सृजन-परंपरा सँ ओ वाकिफ रहथि। रमानाथ झा 'विद्यापति' मोनोग्राफ मे एक उपकल्पना केने छथि। तदनुसार विद्यापति किशोरावस्थे सँ मैथिली मे गीत लिखै छला। कुटुंब-परिवारक महिला लोकनि अवसर विशेष लेल गीत लिखबाक आग्रह करनि आ ओ लीखि क' देथिन। मिथिलाक सामाजिक ताना-बाना कें देखी तँ ई परंपरा हेबनि धरि जारी रहल अछि। 

        विषय अछि मैथिली लोकसाहित्यक अवदान, मैथिली साहित्यक विकास मे। हमसब आगू देखै छी जे विद्यापति अपन काव्य-प्रतिभा सँ ततेक आगू बढ़ला जे अपन ओहि भाषा, जाहि मे ओ गीत लिखने छला, एक उन्नत साहित्य-भाषाक रूप मे प्रतिष्ठित क' देलनि। बंगाल, असम, ओडीशा धरि मे जखन आधुनिक भारतीय भाषा मे लेखन शुरी भेल तँ ओ भाषा मैथिली छल, जकरा ओ लोकनि ब्रजबुलि वा ब्रजावलि कहलनि। पांच सौ सँ बेसी कवि भेल छथि बंगाल-असम-ओडीशा मे, जे विद्यापतिक भाषा कें आगू बढ़ेलखिन।एहि मे प्रभूत संख्या एहनो कविक रहैक जे स्त्री रहथि, जे मुसलमान रहथि। एही मे सँ एक गोविन्ददास भेला जिनका हमसब अपनेलियनि। जखन कि हुनको सँ बेसी प्रतिभाशाली कवि ज्ञानदास आदि कें एखनहु छोड़नहि छियनि।

        प्रश्न अछि जे विद्यापति कें तँ मानि ली जे गीत लिखबाक प्रेरणा जयदेव सँ भेटलनि आ जयदेव कें सिद्ध लोकनिक काव्य-परंपरा सँ, मुदा प्रश्न अछि जे सिद्ध लोकनि कें लोकभाषा मैथिली मे गीत लिखबाक प्रेरणा कतय सँ भेटलनि? सिद्ध लोकनिक मुख्यालय विक्रमशिला विद्यापीठ रहनि। हुनकर काव्यभाषा लोकभाषा होइत रहनि, जे कि हुनका लोकनिक परंपरे सँ प्रचलित छलनि। दोसर, लोक मे, आम श्रद्धालु जनता मे पहुंचेबाक रहनि। वाजिब रहै जे लोक मे जे काव्यरूप पहिने सँ प्रचलित होइ तकरा ओ अपन‌ माध्यम बनाबथु। सैह भेलै। एम्हर मिथिलाक लोक-समाज एहन रहल जकरा हरेक अवसर लेल गीत चाही। हुनका जीवन-मरण मे गीत शामिल। स्पष्ट अछि जे जाहि लोकसमाजक एक कुनबा सँ सिद्धलोकनि कें गीतक प्रेरणा भेटल छलनि ओही समाजक दोसर कुनबा सँ विद्यापति कें गीतक मांग भेल छलनि। आगू विद्यापति आगां बढैत गेला, हुनकर कुनबा विस्तृत होइत गेल। आगूक पांच सौ वर्ष धरि मिथिलाक कवि लोकनि विद्यापतियेक नकल करैत रहला, जकरा लेल आचार्य रमानाथ झा बेस अप्रसन्नता बारंबार प्रकट कयने छथि। विद्यापतिक अंधाधुंध नकलक दुष्चक्र सँ मध्यकाल मे जे मैथिली कें मुक्ति प्रदान केलक, से नेपालक मल्लवंशीय राजा लोकनि आ हुनका सभक दरबारी कवि लोकनि छला। मुदा ओतहु देखल गेल जे अभिव्यक्तिक प्रधान विधा गीते रहल जाहि मे लोकतत्व भरपूर मौजूद रहैक।

             दोसर दिस, मैथिलीक प्रथम ग्रन्थ हेबाक श्रेय ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकर कें छैक, जे लोरिकगाथाक प्रतिरूप रचबाक महत्वाकांक्षा मे लिखल गेल छल। ई बात ओ अपनहु गछने छथि। ओ अपन कृति कें 'काव्य' तँ कहनहि छथि, लोरिक नाचक नाम धरि लेलनि अछि। असल मे ज्योतिरीश्वरक विषय मे सुरुहे सँ बहुत प्रकारक भ्रम आ विवाद विद्वान लोकनिक बीच रहलनि। बहुतो भ्रमक निवारण तँ भ' गेल अछि, मुदा एकरा गद्यग्रन्थ कहबाक चलन एखनहु बनले अछि। सुनीति बाबू भनहि मैथिलीक बड़ उपकार कयने होथु, ई अपेक्षा हुनका सँ कोना कयल जा सकैत छल जे जतबा ज्ञान हुनका बंगालक लोकसंस्कृतिक होइतनि ततबे असंदिग्ध ज्ञान मिथिलाक लोकसंस्कृतिक सेहो होइतनि। से अपेक्षा बबुआ मिश्र सँ सेहो संभव नहि छल कारण ओ संस्कृत परंपराक एक चूड़ान्त पंडित छला। सुनीति बाबू 'कथावाचक' लोकनिक उपकारार्थ एहि कृतिक रचना कयल जायब उपकल्पित केलनि। हुनका की पता जे मिथिला मे पौरोहित्य आ पंडिताइक व्यवसाय छल, कथावाचनक नहि। एहि ठाम एक वर्ग मे कथावाचनक नहि अपितु गाथागायन आ गाथानाचक परंपरा छल। एहि विषय मे अधिक जनबाक लेल डाॅ. काञ्चीनाथ झा किरणक शोधप्रबन्ध पढ़बाक चाही। बहुत रास बात हजार वर्षक पहिल भाग मे सेहो भेटि सकैत अछि। सारांश जे वर्णरत्नाकर लोरिक, सलहेस आदि गाथाक प्रतिरूप रचनाक प्रेरणावश रचल गेल रहय। तें, मैथिली साहित्यक विकास मे लोकसाहित्यक अवदान अतुलनीय अछि।

            

No comments: