(संगोष्ठीक आरंभ मे तारानंद वियोगीक बीज-वक्तव्य)
अंतिकाक अइ गोष्ठीक जे नाम राखल गेल अछि-- वर्चस्ववादी संस्कृति बनाम हाशियाक समाज उर्फ पचपनियाक संघर्ष, विश्वास करब कठिन छै जे एकर विषय मैथिली साहित्य छै। मैथिली मे कतहु एहन विषय राखल जाय जाहि मे वर्चस्व, हाशिया आ संघर्षक जिक्र होइ। कहबी छै, सौंसे गाम चोरे तं चोर कहू ककरा? सब क्यो जखन एक्के मतक होथि तं ककर वर्चस्व, आ के हाशिया? जं अनीतियो करै छथि, जेना मानि लिय' पुरस्कारे मे, तं अप्पन लोक करै छथि, हुनका सं मेल-मिलानी क' क' अपन काज सुतारी, ततबे टा पर्याप्त। अइ पर क्यो वर्चस्व के अवधारणा ल' क' आबथि आ हाशियाक चर्च क' क' संघर्षक आह्वान करथि, 'मैथिल समाज' एकर कल्पनो नहि क' सकैत अछि। मुदा अइ गोष्ठीक की करबै जे छव एपिसोड मे अपन मुद्दा उठा रहल अछि आ जकर एक-एक एपिसोडक दर्शक पचीसो हजार मे भ' रहल अछि। स्पष्ट अछि जे ई मिथिलाक मामला छै। मैथिल विचारक लोकनि अइ मे भाग ल' रहल छथि, आयोजनक भाषा मैथिली छी। अइ तरह सं देखी तं मिथिला-मैथिल-मैथिली अइठां तीनू एकाकार छै। एतय प्रश्न उठाएल गेल अछि जे मिथिला मे एकटा वर्चस्ववादी संस्कृति छै। तकर समानान्तर सेहो एकटा पूर्ण संस्कृति छै, मुदा तकरा हाशिया पर छोड़ि देल गेल अछि। फेर बात छै जे पचपनियां नामक हाशिया पर के मैथिल समुदाय अछि, जकर संस्कृति अबडेरल छै आ ओ वर्चस्व कें तोड़बाक संघर्ष मे लागल अछि।
पचपनियां शब्द मैथिली डिक्शनरी सब मे कतहु नै भेटत। वर्चस्व के, जाति सं ल' क' क्षेत्र धरि के उपेक्षा के, अपने मे ई एक स्पष्ट प्रमाण थिक। पचपनियां के भेला? पचपन जाति, मने ठीक पचपन सं अर्थ नै छै, मने बहुतो जाति, धर्म आ संप्रदाय सं बाहर धरि पसरल एकटा मजगूत समुदाय, बहूतो जाति, जकरा आइ ओबीसी,एससी आदि कहै छियै। मैथिली डिक्शनरी मे शब्द अछि--राड़। आरो शब्द अछि सोलकन। जकरा ओइ समाजक लोक अपन आत्मसम्मानवश पचपनियां कहै छथि, तकरे ब्राह्मण लोकनि राड़ आ सोलकन कहै छथिन। तें राड़ आ सोलकने शब्द टा मैथिली डिक्शनरी मे भेटत। मैथिली भाषा पर एक जाति-विशेष के वर्चस्व के प्रमाण एकरा मानबा मे की कोनो हर्ज छै?
मतिनाथ मिश्र अपन डिक्शनरी मे राड़ शब्दक अर्थ देलनि अछि--असभ्य, असंस्कृत। असभ्य तं चलू मानि लेबा योग्य छै कारण अहांक सभ्यता सं ओकर सभ्यता भिन्न छै। एहि ठाम इतर के अर्थ मे नञ् के प्रयोग भेल हुअय, मानि लेल। मुदा, 'असंस्कृत' पर कने ध्यान देल जाय, एहन लोक जकरा संस्कृतक शिक्षा प्राप्त नहि छल। कोना रहतै? ओ रैयत छल, शोषित छल, जानि-बूझि क' हजार वर्षक उद्यम सं निरक्षर राखल गेल छल। मुदा समस्या छै जे जकरा लग संस्कृत नै हो, से की संस्कृतियो सं हीन अछि? एतय तं सैह मानल गेल छै। कते मूर्खतापूर्ण बात छै! मैथिली साहित्यक आविष्कारक आ प्रथम प्रयोक्ता पचपनियां लोकनि छला, तकर प्रत्यक्ष प्रमाण मौजूद छै, आ बड़को-बड़को लोक, जेना आचार्य रमानाथ झा एकरा स्वीकार केलनि अछि। जं संस्कृति नै तं साहित्य कोना? तखन फेर ई मैथिली साहित्य आएल कतय सं? मुदा ब्राह्मण लेखक लोकनि असंस्कृत कहै छथिन! कते विरोधाभासी बात छै! 'पग-पग पोखरि माछ-मखान/ सरस बोल मुस्की मुंह पान' मे ब्राह्मण-संस्कृतिक कथी छै? माछ मारैए ओ, मखान उपजाबैए-फोड़ैए ओ, पान उपजाबैए ओ, भय सं हो कि प्रीति सं सरस बोल बोलबाक लेल मजबूर अछि वैह, तखन ब्राह्मण बाबूक कथी भेलनि? मुंहे टा ने!
पं. गोविन्द झा कतहु लिखने छथि जे मिथिलाक भीतर दूटा समाज बसैत अछि जे एक दोसरक यथार्थ सं तहिना अपरिचित, अनजान छथि जेना दू अलग अलग ग्रहक प्राणी होथि। ई दूटा समाज भेल ब्राह्मण आ पचपनियां। ब्राह्मण किच्छु नै जनैत छथि ओहि समाजक बारे मे, ने धर्म-मर्म, ने जीवनदर्शन, ने नीति-प्रणाली मुदा जजमेन्ट क' दैत छथि जे ओ असंस्कृत अछि। गोविन्द बाबू ई बात देखि पबैत छथि, धन्यवाद छनि, मुदा, अपन डिक्शनरी मे ओहो पचपनियां नै, राड़ शब्दक अर्थ देलनि अछि। अर्थ देलनि अछि-- निम्न सामाजिक वर्गक लोक, शूद्र। ओ 'राड़-रोहिया' शब्द सेहो देने छथि जकर अंग्रेजी अर्थटा देलनि-- riff-raff. कामिल बुल्केक डिक्शनरी मे अइ शब्दक अर्थ अछि-- कुली-कबाड़ी, निम्नवर्ग। मतलब, बात सामाजिक अवस्था सं आगू बढ़ि क' विपन्न आर्थिक अवस्था धरि चलि अबैत अछि। तें, अइ विषय पर विचार केवल साहित्यक सीमा मे सीमित रहनिहार लोक के वश के बात नै छी। समाजशास्त्र, इतिहास, आर्थिकी सब अनुशासन सं अइ पर विचार करबाक जरूरत अछि। जे वर्ण मे छोट, से वर्गो मे छोट। एतय हमरा मनु मोन पड़ैत छथि जिनकर देल व्यवस्था रहनि जे शूद्र लग मे जं धन जमा भ' जाय तं राजा कें चाही जे ओ छीनि लियए, जब्त क' लियए।
आइ धरि मैथिल संस्कृति पर जे लेख सब लिखल गेल, तकरा सब कें पढ़ू तं स्पष्ट होइ छै जे एतुक्का विद्वान लोकनि, आधुनिको अध्येता लोकनि, एकछाहा ब्राह्मण संस्कृति कें मैथिल संस्कृति मानैत रहला अछि। मिथिला मे तं समस्या एतय धरि रहय जे कोनो खास ब्राह्मणोक छुअल पानि कोनो खास दोसर ब्राह्मण नै पिबै छला।
चाहे मिथिलाक इतिहास हो कि मैथिली साहित्यक इतिहास, ओ ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणक बारे मे लिखित वस्तु छी। अनचोके मे रमानाथ झा सन विद्वान एकरा स्वीकारो केलनि अछि। पचपनियांक ने कोनो समाजशास्त्र आएल अछि ने आर्थिकी। ई सब आब एबाक छै।
गोष्ठीक आरंभ मे एतय हम अपन किछु बात सारांश रूप मे कहय चाहै छी--
1. मिथिला कहियो बंगाल के गुरु रहय। रवीन्द्रनाथ मैथिली कें अपन मासी(मौसी) भाषा कहलनि, मने एक जेनरेशन ऊपर। से बंगाल कतय सं कतय पहुंचि गेल आ मिथिला अधोगति मे डूबल के डूबल रहि गेल। ने अपन राज्य भेलै, ने बंगाली जाति जकां अपन सामुदायिक पहचान बनि सकलै। किए? यैह वर्चस्ववादी संस्कृति एकर जिम्मेदार छी। वर्चस्वक लेल समाज कें विखंडित क' क' राखल गेल। खंड पखंड कयल जाइत रहल।
2. पचपनियांक वस्तु कें मैथिली साहित्य मानबा सं हुंठ जकां इनकार कयल गेलै। महापंडित राहुल सांकृत्यायन कहै छथि जे सिद्धसाहित्यक भाषा मैथिली छी, मुदा मैथिली साहित्यक इतिहास के मुख्यधारा मे ओकर कोनो स्थान नै छै। किए? ओ वर्णव्यवस्थाक विरोध मे लिखल साहित्य थिक। विद्यापतिक पद के दूटा पांडुलिपि मिथिला मे पाओल गेल। मैथिली मे कबीरक हजारो पद छनि। ओही समय मे जं कबीरक पांडुलिपि ताकल जाइत तं कम सं 200 भेटितय। मुदा ओ तं पराया रहथि, ब्राह्मणधर्मक आलोचक रहथि। ई परायापन कतेको ठाम अकारण आ आत्मघाती सेहो भेल अछि। जेना, सब क्यो जनै छी जे विद्यापति गीत कें मंच पर एकल गायन के रूप मे पहिल प्रयोग पं.मांगनलाल खवास केलनि। अइ सं पहिने ई स्त्री आ नटुआ द्वारा कोरस मात्र गायल जाइत रहय। ई प्रयोग कते महान छल से आइ हम सब बूझि सकै छी जखन विद्यापति संगीत अपन एक वैश्विक पहचान कायम क' लेने अछि। मुदा, ब्राह्मण विचारक लोकनि तहिया एकर घोर विरोध केने छला। रमानाथ बाबू तं 'विद्यापति-संगीत' पर अपन लेख लिखैत, एकल गायन के घृणापूर्वक विरोध करैत मांगनलालक नाम तक नै लेलनि। हुनकर अभिमत रहनि जे विद्यापति-संगीतक पवित्रता बनेने रखबाक लेल एकरा बैजनाथधामक पंडा लोकनि जेना कीर्तन मे कोरस गबै छथि, केवल तहिना गाओल जेबाक चाही। अइ सं पता चलैत अछि जे वर्चस्व बनौने रखबाक जिद मे लोक अपन भाषा आ भूमि तक के भविष्य कें कोना बिसरि जाइत छथि।
3. मिथिलाक राजा ब्राह्मण छला तें ब्राह्मण लोकनि राजा संग मैथिली कें जोड़ि लेलनि। साहित्य कें अबल-दुबल के वाणी हेबाक चाही। मुदा मैथिली शोषित के नै, शोषक के भाषा बनल।
ई संघर्ष के भाषा नै भ' सकल, जी हजूरी के भाषा भ' क' रहि गेल। आइयो मैथिलीक नाम पर जते प्रतिष्ठान अछि, पुरस्कार अछि, हबगब अछि, आंखि खोलि क' देखू तं सबटाक सबटा राजाक स्थापित मैथिल महासभाक अचेत अंधानुकरण मे बाझल देखार पड़त। जखन कि, सत्य की थिक? की खंडवला राजवंश मैथिली साहित्यक वास्तविक शुभचिंतक छल? इतिहास कहैत अछि, किन्नहु नहि। ओ लोकनि संगीतक प्रेमी छला जरूर, गीत गेबा लेल गीतकार लोकनि कें अपन छत्रछाया मे राखल करथि जरूर, बस। बांकी हुनका सब लेल भाषा-साहित्यक नाम पर जे छल, संस्कृत छल। साहित्य जं हुनका प्राथमिकता मे रहितनि तं विद्यापतिक बाद आर क्यो महान कवि किए ने मिथिला मे जनमि सकला? किए रमानाथ झा दुखी भ' क' कहै छथि जे 500 बरस धरि केवल प्रतिभाहीन लोक सब के द्वारा विद्यापतिक नकल होइत रहल?
तात्पर्य, जे आगुओ मैथिली साहित्य शोषकेक पक्ष मे वर्चस्ववाद चलबैत रहय, तकर कोनो ठोस ऐतिहासिक कारक मौजूद नै छै। तें अइ स्थिति कें बदलबाक चाही। साहित्यक जे स्वाभाविक गुणधर्म छै, शोषितक पक्ष मे हैब, अबल-दुबलक पैरोकार बनब, तकरा मैथिलीयो धरि पहुंचय देबाक चाही।
4. वर्चस्व यथावत बनेने रहबाक लेल भाषाक मानकीकरण कयल गेल। एहि मानकीकरण के आतंक तेहने रहलै जेना संस्कृत मे पाणिनि व्याकरणक। ओइ सं क्यो बाहर नै जा सकै छथि। एकर फल भेल जे मैथिली दू जिला धरि सिमटि क' रहि गेल। राजधानी क्षेत्र धरि। से कोनो आइये नै। 100 बरस पहिने रासबिहारी लाल दास अपन किताब मे ई बात लिखने छथि। लिखने छथि जे मैथिली दरभंगा-मधुबनी इलाकाक भाषा छी। इतिहास साबित करैत अछि जे मिथिलाक अधोगतिक कारण यैह वर्चस्व बुद्धि छल।
5. आइ जे मैथिली साहित्य लिखल जा रहल अछि, एकछाहा एकवर्गीय आदर्श, एकवर्गीय भंगिमा, कथनशैली तक सीमित अछि। पचपनियां लेखक आइ नहि छथि, से बात नहि। रवीन्द्र कुमार चौधरीक गणना पर भरोस करी तं आइ जं मैथिली मे 500 लेखक ब्राह्मण छथि तं 450 लेखक गैरब्राह्मण छथि। मुदा, माहौल एहन जबदाह अछि जे सब क्यो के कंडीशनिंग क' क' एहन बना देल गेल छै जे पचपनियां समाजक यथार्थ, ओकर आदर्श, ओकर सौन्दर्यशास्त्र नै आबि पाबय जे कि स्वभाव सं वर्णव्यवस्था विरोधी होइत अछि। अध्यक्ष बना क' हुअय आ कि सम्मान द' क', ओकरा बाध्य कयल जाइछ जे ब्राह्मण आदर्श सं बहार नै निकलथि। जे निकलै छथि, तिनकर निंदा खिधांस तेना कयल जाइछ जेना ओ मातृहंता होथि। परिणाम होइछ जे दृष्टिवान आ आत्माभिमानी लोक मैथिली-तैथिली सं एकाते भेल रहैत छथि। मिथिलाक पैघ-पैघ प्रतिभा आन-आन भाषाक हाथें बन्हकी लगबा पर मजबूर अछि।
6. प्रश्न उठैत अछि जे ब्राह्मण आ पचपनियांक बीच जे अंतर छै, जे गैरबराबरी छै, से की शाश्वत छी? एकदम नहि। ई विरोध शाश्वत नहि थिक, केवल स्वार्थ-साधनक लेल रचल गेल चालि थिक। एकर एक-दू दृष्टान्त। आइ हरेक मैथिलक घर मे गोसाउनिक पीड़ी होइत अछि। पीड़ी अर्थात चैत्य। हमरा लोकनि जनै छी जे बौद्ध लोकनि चैत्यपूजक छला। इतिहास सं पता चलैत अछि जे विदेह लोकनि चैत्यपूजक नहि छला। तखन आइ हम सब चैत्यपूजक कोना भेलहुं? असल मे मैथिल संस्कृति जकरा आइ हम सब कहि सकै छियै, ओ केवल विदेहक संस्कृति नहि थिक। ओइ मे बहुतो तत्व लिच्छवि सं आएल छै, बहुतो तत्व कोल, किरात, नाग लोकनि सं। मैथिलक विवाह मे सिन्दूरदान जे होइत अछि से आदिवासी प्राय: नाग संस्कृति सं आएल अछि। अनेक विधान, पात्र, वस्तु आदि तं मुगल संस्कृति सं आएल अछि। लोकदेवता धर्मराजक आराधना ब्राह्मणोक घर मे होइत अछि, जखन कि ई निर्गुण देवता थिका आ हिनक पूजा-परंपरा सीधा बौद्ध परंपराक जीवित रूप छी। ज्योतिरीश्वर कें बौद्ध सं घृणा छलनि मुदा चौरासी सिद्ध कें ओ अपन पुस्तक मे श्रद्धेय स्थान देलनि, जखन कि ई सिद्ध लोकनि बौद्ध छला। ब्राह्मणोक धिया-पुता कें जखन खरी धराओल जाइ तं पहिल आलेखन होइ छल-- ओनामासीधं। मने, ओम् नम: सिद्धम्। विद्यापति आदिवासी समाजक नागपूजा कें मान्यता दैत व्याडीभक्तितरंगिणी लिखलनि। विद्यापतिक गीत मे सैकड़ो एहन शब्द प्रयोग भेल अछि जे दरभंगा-मधुबनी मे आइ लुप्त भ' चुकल अछि, मुदा बेगूसराय, किशनगंज के पचपनिया समाज मे आइयो प्रचलित अछि।
7. आ आइ मानि लिय' जे विरोध शाश्वत आ अहैतुक भ' गेल हो, तखन? जेना सांप कें देखि क' साधारण मनुष्य कें इच्छा जगै छै जे एकर फण कें थकुचि दी, तहिना जं ब्राह्मण लोकनि कें राड़ कें देखि क' होइत हो, तखन? पहिल तं बात ई जे जं ई सत्य हेबो करय तं असंस्कृत ब्राह्मण-वर्गेक सत्य भ' सकैत अछि। एक लेखक वा विचारकक नहि। लेखक-विचारक कें तं परिष्कृत बुद्धिक हेबाक चाहियनि। साहित्य तं अपन रचयिता कें उदात्त बनबैत छैक। मुदा, मानि लिय' जे कोनो अवचेतन जन्य दुरवस्थाक कारण ब्राह्मण लेखक अपना कें परिष्कृत नहि क' पबैत होथि, तखन? एहना स्थिति मे स्वयं पचपनिया वर्गक लेखकक की कर्तव्य थिक? ओहो जं ब्राह्मणे आदर्श, ब्राह्मणदृष्टियेक यथार्थक गुणगान करैत रहता, तं ई केहन ऐतिहासिक गद्दारी भेलै! हुनका लोकनि कें तं आबो अपन सत्य, अपना समाजक, अपना इतिहासक सत्य लिखबाक चाही। अपन ज्वलन्त यथार्थ कें तप्पत तप्पत साहित्य मे अनबाक चाही। अपना समाजक भवितव्यता पर गंभीर हेबाक चाही। एक। दोसर जे एहन मैथिल जे मैथिलीक वर्तमान वर्चस्ववादी पर्यावरण सं दुखी छथि आ मैथिली-तैथिली सं दूरे रहब पसंद करै छथि, हुनका लगै छनि जे ओ कोनो ब्राह्मणक रैयत नहि थिका। सही बात। रैयत ओ ठीके किनको नै छिया। लेकिन, मैथिली हुनको मातृभाषा छी। मैथिलीक सम्मानक प्रश्न हुनको आत्मसम्मानक प्रश्न छियनि। जं अइ ठामक पर्यावरण गंदा छै तं ओकरा बदलब हुनको जिम्मेवारी छियनि, हुनको लेल चुनौती छियनि। तें एहन लोक कें तं आब सांस्कृतिक रूप सं अवश्य घर घूरि एबाक चाही आ मैथिली मे अपन काज करबाक चाही।
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