तारानंद वियोगी
वर्तमान समय मे मैथिलीक अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि लोकनि मे सं एक प्रमुख कवि नारायणजी छथि। हुनकर लेखन सं ने केवल मैथिली कविता समृद्ध भेल अछि, अनेक एहन अभिव्यक्ति अछि, जकरा ओ पहिल पहिल बेर मैथिली भाषा मे कहल जा सकब संभव बनौलनि अछि। एहि सं हम सब हुनकर कविक विराटताक अनुमान पाबि सकैत छी।
नारायणजी प्राय: 1980क आसपास कविता लिखब शुरू कयलनि। ओ समय मैथिली कविताक लेल अगियाबैताल बला समय रहैक। सबतरि विरोध, विद्रोह, उखाड़-पछाड़ के धकापेल छल। नारायण जीक कविता एहि सब सं सर्वथा विपरीत छलनि। ओहि मे मौन के महिमा छल, लघु मानव के अभ्यर्थना छल, विस्मय-भाव चरम पर छल, स्वयं जीवनक जे ऐकान्तिक सौन्दर्य होइत छैक तकर बारंबार गायन छल। आ, कविताक जे भाषा छल से तं बुझू जे 'जत देखल से कहिय न पारिय' बला सुधबौकपन सं भरल छल। कहबाक चाही जे नारायण जी अपना पीढ़ीक समस्त कवि लोकनि मे सब सं अलग छला। एतय धरि जे ई चीज आगू हुनका मूल्यांकनो मे बाधक बनल। जं अहां सब सं अलग रहैत छी तं संभव अछि, अहां अबडेरल रहि जाइ। मुदा एहि कवि लेल धनि सन। ओ जेहन छला, तेहने बनल रहला परन्तु आत्मविश्वस्त रहला। हुनक आगूक यात्रा क्षैतिज नहि, ऊर्ध्वाधर भेल। जाहि पथ कें धेलनि तकरे अंतिम बिंदु धरि पहुंचबाक जतन मे लागल रहला।
नारायणजीक कविताक पृष्ठभूमि अख्यास करबाक लेल हमरा लोकनि कें यात्री जीक लग पहुंचय पड़त। अपन सुप्रसिद्ध कविता 'द्वन्द्व' मे ओ मां मिथिलाक असली शक्तिक खोज कयने छला। ओ व्यक्ति 'रूप-गुण अनुसार जे आमक रखै अछि नाम/ धानक रखै अछि नाम' आ जैठां उदय लैत अछि ठीक तहीठाम अस्त होइछ, मने जीवन भरि अपन गाम मे बनल रहैत अछि, वैह समय पड़ला पर मातृभूमिक काज आबि सकैत छथि। यात्री जी लिखलनि--'जननि, तोहर इष्ट तोहर शक्ति/ धन्य थिक ओ व्यक्ति'। ओहि कविता मे ओ अपना कें अभागल मानलनि जे परिस्थितिवश एहन व्यक्ति ओ अपने नहि भ' सकला, परदेस भागय पड़लनि। आगू हमरा लोकनि देखैत छी जे बादक युगक महाप्राण कवि राजकमल चौधरी सेहो एहने अभागल अपना कें मानलनि जे 'अपने गाछीक फूलपात नहि चिन्हैत छी/ बूझल नहि अछि/ गाछ सभक चिड़ै सभक नाम/ बूझल नहि अछि।' मैथिली कविताक आगूक युग मे हमरा लोकनि पबैत छी जे एहन भागबन्त कवि साबित भेला जीवकान्त आ नारायण जी। यैह दुनू किएक? गाम मे तं बहुतो कवि रहला। कहब जरूरी नहि जे गाम मे रहब आ एहि संदर्भ सभक प्रति संवेदनशील आ सजग बनल रहि क' गाम बसब अलग-अलग बात थिक।
नारायणजीक पहिल कविता-संग्रह 1993 मे आएल-- 'हम घर घुरि रहल छी'। जे बाहर रहैत अछि से एक दिन घर घुरैत अछि। नारायण जी सब दिन गामे मे रहला। तखन? ओ एहि पुस्तकक भूमिका मे लिखलनि-- 'हम आइ जतय छी आ जेना छी, अपना सं दूर छी। हम अपना सं प्रेम करय चाहैत छी। अपना मे घुरि अयबाक सर्वाधिक सहज विश्वसनीय डेग थिक हमर कविता।' अपन कविताक चेहरा चिन्हाबैत ओ लिखलनि-- 'हमर कविता/ हमर अन्तरक सब सं तीव्र नदी/ वाग्विलासक हमर जिह्वा कें खालि/ बाहर भ' परती पर बूलि रहल अछि।' देखि सकै छी, अपन सनातन वाग्विलास बला जाहि जिह्वा पर मिथिला अदौ सं गर्व करैत रहल अछि, तकरा खालि देबाक बात नारायण जी अपन काव्यारंभे मे लाधि देलनि।
दोसर कवितासंग्रह 'अंगना एकटा आग्रह थिक' सन् 2000 मे आएल। ओहि ठाम ओ मानव-विकासक युग-युग-व्यापी अभियान कें एकटा आग्रह संग जोड़लनि। भोरे अन्हरोखे स्त्रिगण आंगन बहारैत छथि। आंगन बहारब एकटा आग्रह थिक। बिन बहारने ओ नहि रहतीह। अंगनाक बहारब ओहि आदिम युगक स्मृति थिक, जंगलक विरुद्ध मानव-सभ्यताक विजय-अभियानक। अंगना जंगल नहि भ' जाय पुन:, तकर पुरोधा थिकी स्त्रिगण। स्त्री आ प्रकृति, अपन समस्त पर्यावरण आ लघुसर्जनाक संग, यैह नारायण जीक प्रिय विषय रहलनि अछि। लघुसर्जना की? एकटा उदाहरण। बाढ़ि मे गामक समस्त प्राणी घेरायल अछि। सभक प्राण अवग्रह मे छैक। बकरीक सेहो। बकरी लगातार मेमिया रहल अछि, कारण संकटापन्नताक अभिव्यक्ति के आन कोनो प्रकारक ओकरा ज्ञान नहि छैक। कवि कें चिन्ता होइत छनि जे 'बाढ़ि मे बकरी/चिकरि चिकरि एना/ दोसरक बिसरल मनक अतल सागर मे/ भक्ष्य होयबाक/ अपन उपस्थिति जनबैत अछि।'। तहिना, हुनकर दोसर चिन्ता देखियनु। जनिते छी जे बाघक संख्या दुनियां मे लगातार कम भेल जा रहल अछि। दुनियां भरि मे तकर चिन्ता कयल जा रहल अछि। मुदा, कवि कें खुशी होइत छनि जे अपना सभक गाम-घर मे डोकाक कमी नहि भ' रहल अछि, जखन कि आरि पर टहलान दैत डोका सब हरेक साल जानि नहि कतेक बेगरतूत लोकक मासु खयबाक सेहन्ता कें पूर करैत रहलैक अछि।
तेसर संग्रह 'धरती पर देखू' वर्ष 2015 मे बहरायल तं एहि बेर हुनक काव्यकर्म मे किछु नब तत्व सभक नफा होइत देखल गेल। एखन धरि हुनकर मुख्य काव्य-विषय छलनि-- मिथिलाक रुचिर भूभाग, एकर डीह-डाबर, नदी-पोखरि, चिड़ै-चुनमुन, एकर खेत, खेत मे होइबला जजाति, तकर बीज, बीजक अंकुर, अंकुरोक प्रांकुर, तकरो मूलांकुर। गाम, गामक छोट-छोट अबल-दुबल लोक,गामक सड़क, सड़क कातक अखंड पर्यावरण, गामक मौसम, ऋतु, वर्षा, जलक विविध रूप, जल जे पृथ्वीक अनुराग मे बसैत अछि। कते कहल जाय? आदि आदि कहैत अतल तलातल धरि चलि जाइ, ततेक। राजनीतिक आ बाजारवादी गछाड़ सभक अनेक प्रपंच हुनकर एहि संग्रह मे आएल। गामक मंदिरक बारे मे हुनकर एकटा कविता अछि, जतय देखाओल गेल अछि जे कुकर्म, अपराध, व्यभिचार आदि मंदिर पर एहि दुआरे चलब जारी छै जे मंदिर ककरो बापक नहि थिक। चिंताकुल कवि ई सब देखैत दुखी छथि जे अयोध्या मे फेर बड़का मंदिर बनि रहल छैक। तहिना, बाजार मिथिलाक गाम-गाम मे घरक ड्योढ़ी पर आबि गेल अछि। बाजार आनल गेल छल एहि करारक संग जे बेचत तं बिकयबो करत। मुदा, परिणाम देखि कवि दुखी छथि जे मिथिला केवल खरीदार बनल रहबा लेल मजबूर अछि। बड़ दर्दीला क्रोध छनि कविक-- 'पाद त' बिकाइत अछि/ अहांक वस्तु सब नहि बिकाइत अछि बाजार मे? मनक स्वस्ति बेचू/ ओछाओनक ठांव बेचू/ ठोरक पानि बेचू/ देहक ऊष्मा बेचू.../ अहां बेचि दिय' अपना कें।'
एहि साल वर्ष 2019 मे हुनकर कविता सभक चारिम संग्रह 'जल धरतीक अनुराग मे बसैत अछि' छपल अछि। एहि मे हुनकर सिरीज कविता सब छनि-- जल, सुजाता, वसंत, सपना आ चान। पोथिक भूमिका मे कहलनि अछि-- 'अपन कविता मे हम ओहि स्थानीय मूल्य कें अनबाक चेष्टा क' रहल छी जाहि सं मैथिली कविता कतहु क्षेत्रीयताक नामक कृपा पर नहि, मूल्यवत्ताक आधार पर सगर्व ने मात्र ठाढ़ भ' सकय, अपितु डेग मे डेग मिलाए चलय।' जे आकांक्षा नारायणजी आइ व्यक्त कयलनि अछि, गौरतलब थिक जे ताहि मिजाजक काज ओ पछिला चालीस साल सं ने मात्र करैत आबि रहला अछि, अपितु ओकरा उचित साकांक्षताक संग कमोबेश अकानलो गेल अछि। वर्ष 2000 मे जीवकान्त लिखने छला-- 'कुण्ठारहित ई इजोत मैथिली कविता कें भारतीय भाषा मे उच्चासन देने अछि। आजुक मैथिली कविता भारतीय कविताक मात्र सहगामी नहि, ओहि मे अग्रगामी अछि। नारायण जी एहि भाषाक प्रतिनिधि कवि छथि।'
1 comment:
बहुत नीकसँ लिखल। नारायण जी केँ विषयमे बहुत रास जानकारी भेटल।
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