Wednesday, October 10, 2012

मंडन मिश्र:मिथक आ यथार्थ

मंडन मिश्र:मिथक आ यथार्थ

पच्चीस बरख सं लागल लगन आब अपन अन्तिम रूप लेब' जा रहल अछि. किछु मित्र कें बूझल हेतनि जे हम मंडन मिश्र पर चुपचाप बहुत दिन सं काज मे भीडल रही. दुखद छल ई देखब जे बारह सय बरख बीति गेल, मुदा हमरा लोकनि हुनक कोनो जीवनी नहि तैयार क' सकलहुं, कोनहु भाषा मे, जाहि मे मिथक आ यथार्थ कें ठीक-ठीक बिटियायल गेल हो. ई मैथिली पोथी, मैथिली अकादमी, पटना प्रकाशित क' रहल अछि. जल्दिये ई अहांक हाथ मे हएत....

Thursday, September 6, 2012

मैथिली लेखनक समस्या


मैथिली लेखनक समस्या 
तारानंद वियोगी 

सबगोटे अनुभव करैत हएब जे मैथिलीक प्रमुख लेखक लोकनि आइ ठहराव के अवस्था मे आबि गेल छथि। सब के मोन मे योजना छनि जे एक दिन कोनो धांसू किताब लिखता, मुदा दिन कहिया आएत, तकर कोनो ठेकान नहि छै। एखन लोक सुस्ता रहल छथि।
   प्रत्येक वर्ष बहुतो बहुत किताब छपि ' आबि रहल अछि। अधिकतर निहित उद्देश्य सं। मुदा, तहि मे सं अधिकांश के की स्तर छै, ओकरा सं मैथिलीक कतेक संपदा-वृद्धि ' रहल अछि, से सबहक सामने अछि। आठम अनुसूचीक बाद जे रचनात्मक उत्तेजना मैथिली-लेखनक क्षेत्र मे हेबाक चाही छल, तकर कत्तहु नामोनिशान नहि अछि। लोक आराम सं सुस्ता रहल छथि।
    राष्ट्रीय पुस्तक-बाजार मे बिहार पर बहुतो पुस्तक उपलब्ध अछि, मुदा ओहि मे मिथिला कतहु नहि अछि। मिथिलो के लोक जखन लिखै छथि तं ओहि मे मिथिला नहि रहैत अछि। तं हालति अछि। , हम सब सुस्ता रहल छी।
     छोडि देल जाए सुस्ताबैत, से एक रस्ता। किछु उद्यम करी जगबाक, से दोसर रस्ता। दोसर कें क्यो दोसर जगा नहि सकैए--सबहक अपन लोकतांत्रिक वजूद छनि, तें। जगब' पडत अपने सं अपने आप कें। हमरा जागल देखि ' किनसाइत दोसरो जागि जाथि। एहि 'किनसाइत' के व्याप्ति घटैत जाए, 'जरूर' के संभावना बढए, तकरो जतन कर' पडत।
            हम सब देखि लेलहुं जे दोसर कें खगता नहि छै। बाजार के सिद्धान्त छै जे जे चीज उपलब्ध अछि, तकरे उपभोग ' ' संतुष्ट भेनाइ सीखू। जे चीज उपलब्ध नहि अछि, तकरा लेल अहां तपस्या करी कि जतन करी, से बाजारवादक विरुद्ध बात थिक।
            तें, दोसर क्यो आबि ' जगाएत, तकर आशा करब निरर्थक थिक।एहि मिथिला-भूमि पर, एकैसम शताब्दी मे, एकटा हमहूं भेलहुं---से अपन अस्तित्व प्रमाणित करबाक लेल----आउ, हम सब सुस्ती छोडी, किछु करी, किछु बडका काज करी।
     (1) हम सब एकहक टा किताब लिखी----पांच बरखक अंदर मे।
     (2) किताब खिस्सागोई बला गद्य मे हो--फिक्शन अथवा नॅान-फिक्शन। किताब ओहन जे आइ दुनिया भरि मे सब सं बेसी पढल जाइत अछि।
     (3) अपन जीवन के 'बेस्ट' लिखि रहल छी, ताहि मनसूबाक संग लिखी। राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हमर लेखन के हमर मिथिला के पहचान कायम ' सकए, तेहन लिखी।
     (4) जे 'लोकल' अछि, सैह 'ग्लोबल' अछि---तें, अपन टोल के बारे मे, अपन गाम के बारे मे, खास अपना बारे मे लिखी। ओहि चीज के बारे मे, जकरा हम सब सं बेसी नीक सं बुझै छियै।
     (5) भाषा मैथिली हो, से जं नहि तं अंग्रेजी हो, हिन्दी हो---मुदा, विषय-भूमि मिथिला जरूर हो।
     (6) टॅापिक मुद्दा भने जे कोनो हो, मुदा किताब पठनीयताक गुण सं भरल जरूर हो। जे पढब शुरू करए, तकरा बान्हि लियय।
     (7) सब गोटे मिलि ' चलब संस्था-बद्ध ढंग सं काज करब तं राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रय स्तर पर प्रकाशनो संभव हेतै, अनुवादो हेतै। बात निकलतै तं दूर तक जेबे करतै।
                 हम सब किछु गोटे बैसि ' किछु ठोस कार्य-योजना बनेलहुं-, ताहि पर गप करी, मुदा पहिने अहांक विचार जान' चाहब। विमर्श आमंत्रित।

रज़ी अहमद तन्हा


रज़ी अहमद तन्हा उर्दू के सुपरिचित गज़लगो हैं। अररिया (बिहार) के रहने वाले हैं। बिहार राज्य खाद्य निगम में प्रबन्धक हैं। उनकी पहली पोस्टिंग महिषी में हुई। महिषी मेरा गांव है, और यह राजकमल चौधरी एवं मण्डन मिश्र का भी गांव है। मै उन दिनों गांव के कालेज का विद्यार्थी था। मैंने उनसे उर्दू सीखी, उन्होंने मैथिली में कविताएं लिखीं। साहित्य की ढेर सारी बातें मैंने तन्हा जी से सीखी हैं, जिन्हें मैं सम्मान से "सर" कहता हूं। १९८२ का वाकया है कि उन्होंने एक गजल लिखी, जिसकी रदीफ 'वियोगी' थी, और वो गजल उन्होंने मुझे समर्पित की। अब उन्होंने फेसबुक पर पोस्ट किया है कि वो गजल "बज्म-ए-सहरा" के अगस्त २०१२ के अंक में प्रकाशित हुई है। देखा तो वो दिन आखों के आगे मूर्तिमान हो उठे।

चंदा, तारे, आकाश वियोगी
किरण-किरण परकाश वियोगी

कुछ पल उसको गुमसुम तकते
मिल जाए वो काश, वियोगी

कौन मिलेगा हमसे आकर
किसको है अवकाश, वियोगी

कंधा दे, तो दे अब कौन
जीवन बेबस लाश, वियोगी

चारों मिलके फेंट रहे हैं
जीवन जैसे ताश, वियोगी

तेरा ही तो मीत है तन्हा
खोल दे बाहुपाश, वियोगी



Sunday, August 19, 2012

वियोगी के नागार्जुन(अशोक वाजपेयी)


वियोगी के नागार्जुन

अशोक वाजपेयी

हिन्दी में ऐसा कम ही हुआ है कि किसी युवा लेखक ने विस्तार से किसी वरिष्ठ लेखक के साथ बिताए अपने समय का विस्तृत संस्मरण लिखा हो। ऐसा तो और भी कम है जिसमें कुछ आत्मालोचन भी हो अपने चरितनायक के महिमामंडन के अलावा। 'पहल' पत्रिका ने मैथिली कवि तारानंद वियोगी का एक लंबा संस्मरण पुस्तिका के रूप में मैथिली से हिन्दी में अनुवाद कर 'तुमि चिर सारथि' के नाम से प्रकाशित किया है। वह नागार्जुन पर है और अपनी आत्मीयता और कृतज्ञता में विशेष होते हुए बहुत पठनीय भी है। मुझे दोपहर को डाक से पत्रिका की एक प्रति मिली और मैं बैठे-बैठे उसे पूरा पढ गया। बाबा की सहजता-दुष्टता के बहुत सारे किस्से प्रचलित रहे हैं। उनकी पारिवारिकता भी, जिसमें देश भर के कई लेखकों और पाठकों के परिवार शामिल थे, सुविख्यात है। इस संस्मरण से उनके कई गुणों और अपने को बेहद गंभीरता से न लेने के सहज स्वभाव की संपुष्टि होती है। बाबा अपने बडे, विख्यात और बुजुर्ग होने का बोझ डाल कर नहीं चलते थे। उन जैसा व्यक्ति अपनी उम्र के सातवें-आठवें दशक में एक दलित युवा के जीवन का, बिना उपदेश दिए, लगभग अपने उदाहरण और स्फूर्त और व्यंग उक्तियों से कैसे कायाकल्प कर सका, इसकी यह संस्मरण मर्मकथा है।
      नागार्जुन गहरे शास्त्रज्ञ और लोक-विदग्ध व्यक्ति थे। वे अक्सर कई विलक्षण नए शब्द गढते थे जिनके कई नमूने इस संस्मरण में हैं --चिबिल्ला, जीभ-घसीटन, वचन-बहत्तर, बिसुनबिलाड, गिदराभकोल, वंशबुडावन, फटकचंद, सिग्नेचर-सनिचरा। उनकी व्यंग उक्तियों की भी बहार है--'खाओगे खेसारी और हगोगे कलाकंद....', 'सोऊंगा खढ के घर में और सपने देखूंगा नौलखा का....', 'घोडे का सौन्दर्यबोध तब जाग्रत होता है जब वह हरी-हरी घास देखता है', 'गंगा में उतर जाएंगे और तब मूतेंगे' आदि।
     नागार्जुन अपनी बेबाकी के लिए खासे कुख्यात रहे हैं। उसके भी कई नए उदाहरण इस विवरण में हैं। कुछ देखिए--- 'धर्म जो है....वह मात्र अफीम ही नहीं है। वह अमृत भी है। अब आप कहेंगे कि वहां सिर्फ भजन-कीर्तन ही होता था, तो सो नहीं। वह उद्बोधन करता था, अपने विचार भी प्रकट करता था', ... 'आज नेता का काम है विष्ठाशोधन',... 'अविवाहित मातृत्व को पकडिए। उसे अपना समर्थन दीजिए। हां, खतरे तो हैं ही। लेकिन यह भी तो देखिए कि वैवाहिक व्यवस्था से कम खतरे हैं या ज्यादा। मुझे तो लगता है कि कम खतरे हैं',.... 'आप कहते हैं भारत या बिहार, तो वह तो मेरे लिए अमूर्त है, मूर्त है तो मात्र वह स्थान, जहां हम निवास करते हैं।'
          प्रगतिशीलता के साथ नागार्जुन के कठिन संबंध का भी कुछ जिक्र इस संस्मरण में है। बाबा ने वियोगी से कहा था कि जब वह इंदिरा गांधी की इमर्जेंसी के खिलाफ खडे हुए तो तमाम प्रगतिशीलों को लगा था 'साला बूढा' सठिया गया है और 'जब उसी  बाबा ने संपूर्ण क्रान्ति के विरोध में कविता लिखी तो प्रगतिशीलों ने इस बात को उनके सठिया जाने के प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत किया।वियोगी जी ने यह उचित प्रश्न किया है कि 'उन्हें अपने आधुनिक और प्रगतिशील साहित्य का प्रथम पुरुष मानने वाले एक ग्रंथ तक नहीं निकाल पाए।यह पढना भी दिलचस्प है कि 'प्रतिबद्धता के बिना लेखक का कोई मूल्य नहीं है--मैं कहता। बाबा सरपट मेरी बात को काट देते--श्रेष्ठ लेखन के लिए प्रतिबद्धता कथमपि आवश्यक नहीं है..(उनका तात्पर्य होता--प्रतिबद्धता तो व्यक्तित्व में होना चाहिए, केवल लेखन में हो तो उसका क्या मूल्य?)....मैं कलावादी समीक्षा-दृष्टि के खिलाफ खडा होता तो वे इसके पक्ष में बाइस तथ्य और तर्क देते।........बाबा, संघर्ष ही जीवन का नाम है तो वह कह उठते---बिलकुल नहीं। जीवन का नाम आनंद है।'

 ("कभी कभार", जनसत्ता,दिल्ली,18 जून 2006)