Tuesday, November 15, 2022

बिहार में बिहार नहीं: संस्कृति का संकट

 


तारानंद वियोगी



             बाबा नागार्जुन की एक प्रसिद्ध मैथिली कविता है-- मीनी मिथिला। उसमें क्या है कि एक झा जी बरसों पहले दिल्ली जा बसे। गांव से जुड़े थे, यानी कि गांव की तमाम जड़-जंगम चीजों से। लेकिन अब गांव छूट रहा था तो उन्होंने क्या किया कि गांव को ही दिल्ली में ला बसाया। गांव के पर्व-त्योहार, रीति-रिवाज, पेड़-पौधे, भोजन-छाजन, प्रतीक-मिथक-- सारे यहां उठा लाये, और दिल्ली में रहकर भी एक ठीक-ठाक मैथिल जीवन निबाहते रहे। कवि को वह महाशय अपनी उपलब्धियां बड़े गर्व से सुनाते हैं। लेकिन, कविता का अंत दारुण है। वहां बड़ा भारी अफसोस है कि झा जी की अगली पीढ़ी इन सब चीजों से ऊब गयी है और पंजाबी हुई जा रही है। वह कविता हमें बताती है कि गांव को आप बाहर उठाकर नहीं ले जा सकते, क्योंकि जिन चीजों को आप अपनी संस्कृति समझकर ले जा रहे हैं वे केवल भौतिक उपादान हो सकते हैं, संस्कृति नहीं। संस्कृति कोई गाय नहीं है कि गले में रस्सी बांधकर आप जहां चाहें ले जाएं और कटिया भर दूध दूहकर बताएं कि लो, यह हमारी संस्कृति है।

             आज बिहार के गांव उजड़ रहे हैं। फकत रोजगार के लिए अगर स्त्री-पुरुष को अलग-अलग रहना पड़े, तो संस्कृति के हिसाब से इसे अविकास का स्पष्ट लक्षण माना गया है। अतीत की दारुण कथाएं हमें भिखारी ठाकुर की रचनाओं में मिलती हैं। सौ वर्ष गुजर जाने के बावजूद हालात पूरी तरह बदल गये हों, ऐसा बिलकुल भी नहीं है। जो थोड़ी सुविधा में हैं वे स्त्री के साथ गांव को ही उठाकर शहर चले जा रहे हैं। थोड़ा विकास किया व्यक्ति गांव छोड़ता है, और यदि भरपूर विकास कर ले तो देश ही छोड़ देता है।

             साठ-सत्तर बरस पहले तो किसी बिहारी के बच्चे गांव छूटने के दशकों बाद जाकर पंजाबी हो पाते थे, अब तो आलम यह है कि पंजाब वगैरह ही उतरकर गांव में आ घुसा है। बच्चे को अब कहीं जाने की जरूरत भी न रही। भूमंडलीकरण ने हमारे घर में तो देशी-विदेशी सबको ला घुसाया लेकिन इसी तर्ज पर हमरा भी प्रसार हुआ रहता, यह नहीं हुआ। हम केवल दूसरों के उपभोक्ता और नकलची बनकर रह गये।

             जिसे हम बिहार की संस्कृति कहते हैं वह असल में 'लोक' की संस्कृति है। शास्त्रीय संस्कृति थोपने की कोशिश जब भी कभी अतीत में हुई, बड़े आराम से लोक ने इसे अपने रंग में रंग डाला। शास्त्रकारों की भी मजबूरी बनी रही कि वे 'लोकाचार' को सबसे बड़ा नियामक तत्व मानने को बाध्य होते रहे। लेकिन आज हालत क्या है? हजार वर्षों से बिहार के लोग लाखों देवी-देवताओं की 'सेवा' करते आए हैं। ये लोकदेवता हमारे कुलदेवता होते हैं जिन्हें पिण्ड के रूप में जाने कब से पूजा जाता रहा है। यह पिण्ड दर असल बौद्धों का चैत्य है, जिसे हमारे पूर्वजों ने अपने कुलदेवता के रूप में सेवित किया। इन देवताओं में से कोई डोम, कोई मुसहर, कोई दुसाध, यहां तक कि बालापीर और मीरा साहब जैसे देवता मुसलमान हैं। हिन्दुओं के कुलदेवता के रूप में मुसलमान पीरों की पूजा? जी हां, यह बिहार की संस्कृति की अपनी खास विशेषता है। एक लोकगीत में एक मुसलमान लड़की, यह पूछने पर कि इतना प्यारा बच्चा तुम्हें किस देवता के आशीर्वाद से मिला, वह बताती है-- 'गेलियै जनकपुर, पुजलियै सिया जानकी, ऊहे देलखिन गोदी के बलकबे जी।' यह पारस्परिकता बिहार की अपनी सांस्कृतिक विरासत है। यहां बहुलता का सम्मान रहा है, एकरंग, एकरस संस्कृति कभी बिहार की संस्कृति नहीं हो सकती।

             खानपान की दुनिया की ओर ही नजर डालें तो बिहार के पास इतनी सारी चीजे हैं, और वे इतने आकर्षक भी कि दुनिया भर में छा जाएं। मैंने कहीं पढ़ा, मशहूर अंग्रेज भाषाशास्त्री जार्ज ग्रियर्सन कभी अधिकारी होकर मधुबनी में पोस्टेड रहे जहां सुबह का नाश्ता दही-चूरा प्रचलित था। यह चीज उन्हें इतनी पसंद आई कि अपने देश लौटकर भी जबतक वह जिये, सुबह के नाश्ते में दही-चूरा ही लेते रहे। लिट्टी-चोखा हो, अनरसा, खाजा या कि तिलकोर, कितनी दूर जा रही हैं ये सब चीजें? अब तो है कि समूचे देश में आप कहीं भी चले जाएं, गिनी-चुनी चीजे हैं जो आपको मिलती हैं और आप मजे से खाते भी हैं। वहां बिहार कहीं नहीं है। बिहार में ही बिहार नहीं, तो और कहां उम्मीद की जा सकती है?

             आज समूची दुनिया में भोजपुरी गीतों को यौनिक उच्छृंखलता के लिए जाना जाता है। यहां तक कि इसी की देखादेखी इसे मैथिली आदि बिहार की अन्य भाषाओं में भी पर्याप्त प्रसार मिल गया है। लेकिन आपको क्या लगता है? यही भोजपुरी की पहचान है? जी नहीं, यह दस-पांच लफंगों का कारनामा है जिन्होंने यह सब किया तो था केवल रुपये कमाने के लिए लेकिन हम तबतक इतने पतित हो चुके थे कि हमने उन्हें रुपये के साथ-साथ सम्मान भी दिया। कोई संस्कृति यक-ब-यक मर थोड़े ही जाती है? वह पहले अपना रूप बदलती है। भाषा तो लोकल बनी रहती है लेकिन कन्टेन्ट किसी और का ले आया जाता है। हम-आप क्या कर सकते हैं? केवल शोक मना सकते हैं? जी नहीं, हालात को बदलने की कोशिश भी कर सकते हैं। बहुत सारे लोग कर भी रहे हैं। ये ही लोग असल में बिहार की समकालीन संस्कृति के नायक हैं।

             

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