तारानंद वियोगी
नवीन से दोस्ती के अब चालीस साल पार हो चुके हैं। यह यात्रा इतनी लंबी है, और समय इस बीच इतनी तेजी से बदलता चला गया है कि कई बार लगता है, वह सब जैसे युगों पुरानी बात हो।
मेरे गांव महिषी में नवीन का ननिहाल है। उसकी जैसी मां थीं प्रेममयी, भावमयी, इतनी भोली कि पराया कोई लगे ही न। वह मानो कोशी-किनारे की जंगम पैदाइश थीं। उसके नाना और मेरे पिता दोनों ही अपने जमाने के बहादुरों के बहादुर गिने जाते। कहते हैं, हैजे की महामारी जब चली थी, एक मुरदे को जबतक जला आए, पता चला, कोई फिर मर गया है। कई-कई दिनों तक अनथक अविरल दाहसंस्कार करनेवाले सामाजिकों में वे थे, जबकि हमने इस कोरोना-युग में देख ही लिया है कि अपना जनमाया बच्चा भी ऐसे वक्त में कैसे विराना हो जाता है। वह भूपी झा(नवीन के नाना) और मेरे पिता बद्री महतो ही थे, जिन्होंने उन्हीं महामारी के दिनों में यह बड़ा फैसला लिया था कि गांव के पूर्वी किनारे बहनेवाली नदी के पार, जो तब श्मसान-भूमि के रूप में ही प्रसिद्ध थी, घर बनाकर बसने का तय किया था। पहले दोनों एक टोले के थे, अब इधर आकर पड़ोसी हो गये। यही श्मसानभूमि का इलाका है, जहां तारा का मंदिर है, जिनके बारे में राजकमल चौधरी ने कविता लिखी थी कि तेरह हजार बरस पहले मेरुदंड पर्वत की काली चट्टानों से तराशकर निकाली गयी तेरह साल की लड़की हैं वह, जो उनके लिए न उग्र है न तारा है, बस उग्रतारा है। और, यही वह डीह है जहां सदियों पहले पलिवार महिषी मूल के आदि वाशिंदा ब्राह्मण निवास करते थे। यह वही कुल था जिसमें बाद को डा. सर गंगानाथ झा और उनके कृतकार्य पुत्रों--अमरनाथ झा, आदित्यनाथ झा वगैरह हुए। इस वंश की मूल वासभूमि यही जगह थी जो अब श्मसानभूमि के रूप में परिणत थी। काल भी कैसे-कैसे करतब दिखाता है! हम बड़े गर्व कहते, और स्वयं नवीन भी कि पलिवार महिषी कुल का जो मात्र एक घर ब्राह्मण इस गांव में बचा रह गया था, वह नवीन के नाना भूपेन्द्र उर्फ भूपी झा थे। बचपन से ही नवीन का यहां आना-जाना बना रहा। नवीन की परवरिश में सारा का सारा मोहनपुर ही नहीं था, उसमें महिषी भी बहुत गहराई तक पैठी थी।
मुझसे नवीन की दोस्ती हुई, इसके कई बरस पहले मेरे पिता के साथ उसकी दोस्ती हो चुकी थी। बात यह थी कि नवीन का गांव मोहनपुर मेरी बुआ की ससुराल थी। पिता कभी-कभार अपनी बहन के घर आया-जाया करते। ऐसा ही एक अवसर था जब वे मोहनपुर से महिषी लौट रहे थे। पांव-पैदल। रास्ते में उन्हें एक लड़का मिला जो मस्त होकर गाना गाते बढ़ता चला जा रहा था। यह नवीन था। परिचय हुआ तो वह उनके मित्र का नाती निकला, जो ननिहाल के सफर पर था। पिता बताते थे, उस दिन दो घटनाएं हुईं। एक तो यह कि रास्ते में एक बैलगाड़ी वाला इधर ही चला आ रहा था। पिता ने गाड़ीवान से आग्रह किया कि इस बच्चे को बिठा लीजिये। नवीन गाड़ी पर जा बैठे और गाना गाकर सुनाते रास्ता कटा। दूसरी घटना जो हुई उसकी पृष्ठभूमि बताना जरूरी होगा। मैं जब आठवीं कक्षा में पढ़ता था, अपने एक ग्रामीण कवि की देखादेखी फिल्मी धुनों की पैरोडी पर तारा की स्तुति के गीत लिखने लगा था। थोड़े ही दिनो में वे गीत इतने लोकप्रिय हुए कि गांव की हर कीर्तनमंडली में गाये जाने लगे। फिर यह हुआ कि हमारे सहपाठियों ने आपस में चंदा करके सोलह गीतों की एक पुस्तिका छपवा दी। मेरे पिता न के बराबर पढ़े-लिखे थे लेकिन लिखा-पढ़ी के काम के प्रति उनके मन में इतना सम्मान था कि यह आश्चर्य करने-जैसी बात लगती थी। किसी का बेटा हाइस्कूल की उमर में कविताई करने लगे तो आम तौर पर यह पिता के लिए दुख मानने की बात हुआ करती थी। मेरे पिता के साथ इसके बिलकुल उलट बात थी। मेरे गीत छपने से वह अपने को गौरवान्वित महसूस करने लगे थे। और उस पुस्तिका की कुछ प्रतियां तो हमेशा अपने साथ लेकर चलते थे। उस दिन भी उनकी जेब में वह थी। उन्होंने नवीन से कहा-- आप गाना अच्छा गाते हैं विद्यार्थी। इसमें से किसी गीत को गाइये। और, यह गायन रास्ते भर होता चला। बैलगाड़ी पर बैठे बालक नवीन, और गाड़ी के पीछे-पीछे पैदल चलते मेरे पिता। (नवीन को वह सदा 'नवीन बाबू' बुलाते थे।) नवीन को तो ये दोनों प्रसंग याद हैं ही, संयोग की बात कि जिस दिन पिता यह कहानी मुझे और मयंक को सुना रहे थे, हम टेपरिकार्डर पर इसे रिकार्ड कर रहे थे। अब भी मेरे पास उनकी, मां की भी, आवाजें हैं, मेरी बड़ी-बड़ी दौलतों में वे एक हैं।
इसके बरसों बाद, सहरसा में आयोजित विद्यापति-पर्व का अवसर था जब हम पहली बार मिले थे। सहज और स्वाभाविक मैत्री उभर आई थी। हम एक जैसे संघर्षशील थे, एक जैसे कोशी की गीली पांक को आत्मा में धारण किये दुनिया भर घूम आने का ख्वाब देखते थे। नवीन उन दिनों सहरसा कालेज में एम.ए.(मैथिली) कर रहे थे, और मैं महिषी के संस्कृत कालेज में शास्त्री का विद्यार्थी था। उन दिनों के जो एपिसोड्स थे, मैंने तो कहीं-कहीं लिखा भी है, पूरी कहानी बयान की जाए तो एक मुकम्मल किताब बनेगी। राजकमल चौधरी की खोज, महीनों महीना राजकमल की स्मृति के तरंगों को ढ़ूंढ़ते, लिपिबद्ध करते, आम लोगों तक उसकी खुशबू पहुंचाने के आयोजन करते, पत्रिकाओं के विशेषांक प्रायोजित करते, प्रकाशकों की खोज करते-- इन सब की एक लंबी शृंखला है। कमाल यह था कि व्यक्तिगत रूप से हम दोनों ही उन दिनों साधनहीन थे। पास में जो पूंजी थी, वह केवल मन का उत्साह और तन का परिश्रम ही था।
सहरसा हमारा जिला मुख्यालय था। वहां साहित्य के कई दिग्गज बसते थे लेकिन साहित्यिक गतिविधियां शून्य के करीब थीं। हमने तमाम अग्रजों को साथ जोड़ा। उनमें एक ओर मायानंद मिश्र, महाप्रकाश, सुभाष चन्द्र यादव थे, तो दूसरी ओर गीतकार नवल, रामचैतन्य धीरज, शेखर कुमार झा वगैरह भी थे। इस अनौपचारिक मंच का नाम 'अनवरत' था, जिसके लिए नवल ने यह गीत लिखा था-- 'नगर-नगर, गाम-गाम, गली ओ गली/ अनवरत के लेल हम तं अनवरत चली।' तब हम तीन हुआ करते थे, हमदोनों के अतिरिक्त मेरा लंगोटिया दोस्त मयंक मिश्र, जिससे नवीन की कभी न पटी। लेकिन हां, हमारी गतिकी पर इसका कभी असर भी न पड़ा। मयंक मुझे साइकिल पर लादकर महिषी से लाता, सारी गतिविधियां करके वापस हम महिषी लौट जाते, कभी-कभी तो रात के दो बजे। शेखर झा के डेरे पर महीनों साथ रहकर छेदी झा द्विजवर पर रिसर्च करने का भी एक रोचक अध्याय है। कभी-कभी जो अति रोचक घटनाएं घटीं, जैसे एक उस रात तय करके हमलोग मायानंद मिश्र के गीत-गजल रिकार्ड करने बैठे। ओह, पता भी न चला कि वह समूची रात किस तरह बीत गयी थी। पीने-पिलाने का सिलसिला चलता रहा था और सारी रात माया बाबू अपने गीत-गजल गाते रहे। उस गोष्ठी में महाप्रकाश थे हमारे साथ, और शशिकान्त वर्मा भी, सतीश वर्मा के पिता। उस रात के फोटोग्राफ्स तो मुझे याद आते हैं, लेकिन कैसेट? वह शायद मैंने केदार(कानन) को दिया था।
केदार हमारी मित्रमंडली के सबसे मजबूत स्तम्भ थे। और, इस वजह से सुपौल हमारी दूसरी राजधानी। चौथे दोस्त के रूप में आगे प्रदीप बिहारी का आगमन हुआ तो हमने बाकायदा 'चतुरंग' की घोषणा कर दी। प्रदीप ने इतिहास के इस अध्याय को यूं अविस्मरणीय बना दिया कि अपने प्रकाशन का नाम ही चतुरंग प्रकाशन रख लिया। नवलेखन को मैथिली साहित्य के इतिहास में प्रतिष्ठापित करने का तब हमारा जुनून ऐसा था कि 'चतुरंग' का लक्ष्य-वाक्य मैंने इस तरह लिखा था-- 'साजि चतुरंग सैन, जंग जीतन कें चलल छी'।और जानते हैं, इस प्रकाशन की पहली किताब कौन-सी थी? वह मेरी गजलों किताब 'अपन युद्धक साक्ष्य' थी। उस किताब की छपाई में हम सब ने जो पापड़ बेले थे, ओह, आज वे कितने स्वादिष्ट लगते हैं!
दरभंगा से साहित्याचार्य की पढ़ाई पूरी कर जब मैं पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. करने पहुंचा, तबतक नवीन डालटनगंज के एक कालेज में प्राध्यापक लग गये थे। बिहार तब एक था और पटना से डालटनगंज को पलामू एक्सप्रेस जोड़ता था। अब होने यह लगा कि पांच दिन वहां रहकर नवीन हर शनिवार को पटना आ जाता और सप्ताहान्त हम साथ बिताते थे। वह नवीन की सृजनशीलता के उन्मेष का दौर था। समूचे मैथिली-संसार में तबतक 'योजना-मास्टर' के रूप में मेरी प्रसिद्धि हो चुकी थी। जब भी हम मित्रगण मिलते, हमेशा नयी-नयी योजनाएं बनतीं और उन्हें कार्यरूप देने में हम जुट जाते। सच कहा जाए तो अपने होने और लिखने से जितना जो कुछ मैं समकालीन मैथिली साहित्य को प्रभावित कर पाया, वह सब इन्हीं योजनाओं में से पांच प्रतिशत अंश का प्रसाद था। यही वह दौर था जब बाबा नागार्जुन पटना में, मेरे बगलवाले मकान (हरिहर प्रसाद जी के आवास) में ठहरे हुए थे। इसकी समूची कथा 'तुमि चिर सारथि' में आ चुकी है। नवीन के लेखन की गति तब इतनी तेज थी कि जितना लोग महीनों में न लिख पाएं उतना वह पांच दिन में लिख जाता था। वह लगभग उन सभी विधाओं में काम कर रहा था, जिनमें मैंने किया था। कई विधाएं तो प्रकृति से ही विद्रोहात्मक थीं। जैसे मैथिली में गजलें। लघुकथाएं। एक-से-एक सुंदर गजलें और लघुकथाएं नवीन ने उन दिनों लिखी थीं और हलचल मचा दिया था। आलोचना भी उनमें एक विधा थी लेकिन उसके यहां मुख्य स्थान कविता को प्राप्त था। एक शनिवार की वह सुबह भुलाये नहीं भूलती कि जब मेरे कमरे में चारों तरफ नवीन की नयी रचनाएं पसरी थीं और वह तल्लीन होकर मुझे सुना रहा था कि इसी बीच लाठी ठकठकाते बाबा आ धमके। कविताएं चल रही हैं, यह जानकर उनका मूड बन गया। नवीन से कहा-- सुनाइये कविताएं। कितनी बड़ी बात थी! कविता का शीर्ष एक नवोदित कवि को उसकी कविताओं के लिए आमंत्रित कर रहा था। नवीन यदि सचमुच के नवोदित होते तो कोई मुश्किल नहीं थी, झटपट सुना डालते। मगर, वह मेरा मुंह ताकने लगे। जितनी मैंने अबतक सुनी थी, अपने जानते बेस्ट की उन्हें याद दिलाई और संकोच से भरे नवीन ने वह कविता बाबा को सुनाई। इसके बाद जो हुआ था, सारथि पढ़ चुका हर पाठक जानता है। घंटों तक बाबा उस कविता की व्याख्या करते रहे, किस तरह कोई एक अच्छी कविता लिख सकता है, इसके सारे सूत्र बाबा ने उसी कविता से निकालने शुरू किये। जाहिर है, उसमें आलोचना ही अधिक थी, लेकिन यह एक ऐसा सुअवसर था जो हमें या हमारे मित्रों में केवल नवीन को नसीब हुआ था। हां, बाद को जब हमने 'श्वेतपत्र' छापा तो बाबा ने प्रदीप बिहारी की कहानी पढ़ी थी और उसकी पीठ ठोकते हुए यह कहा था कि यह मैथिली कहानी में विश्वशिशु की पैदाइश है।
यहां एक-दो बातें और न कह दी जाएं तो हमारे उन दिनों का स्वभाव पूरा खुलेगा नहीं। बड़े-बड़े महापुरुष ही जो काम कभी अतीत में कर पाये थे, हमने अपनी तरुणाई में ही उसे कर दिखाया था। यह था-- संप्रदाय की स्थापना। हमारे संप्रदाय का नाम 'कलाकार संप्रदाय' था। कलाकार से यह न समझियेगा कि तबला-हारमोनियम या रंग-कूचियों से हमारा कोई वास्ता था। ग्रामीण रंगमंचों पर तरह-तरह के पार्ट हमने खेले थे जरूर, लेकिन यहां वह भी नहीं था। कला यानी कि खुशनुमा जीवन की कला। तमाम अभावों, अनीतियों, संघर्षों के बावजूद। जाहिर है, इस संप्रदाय में जाति-धर्म जैसे परंपरित ढकोसलों की कोई जगह न थी। आपस में या अन्यों के साथ भी हम अक्सर ऐसे करतब करते रहते कि सारी उदासीनता दूर हो जाए और आदमी हंस पड़े, संलग्न हो जाए। इस संप्रदाय के एक मजबूत स्तम्भ हमारे प्राचीन मित्र आशुतोष झा थे। और मयंक मिश्र तो थे ही। हुआ क्या कि आजीवन कलाकारी करते-करते जबतक मैं पटना वि. वि. से एम.ए. करूं तबतक आशुतोष की नौकरी हाइस्कूल में लग गयी। उनकी पहली और अंतिम भी, पोस्टिंग गढ़वा में हुई जो डालटनगंज का पड़ोसी शहर है। अब ये दोनों कलाकार साथ हो गये। नवीन की प्राथमिकता साहित्य थी, जिसके कारण हफ्ते-हफ्ते वह पटना आता। ऐसा कुछ आशुतोष के साथ नहीं था। पर, छुट्टियां जब होतीं, जैसे गरमियों की, तो दोनों साथ ही गांव आते थे।
एक बार का वाकया है कि दोनों ने पटना आकर सहरसा की ट्रेन पकड़ी। छोटी लाइन की उन रेलों में सहरसा-रूट में जिन लोगों ने यात्राएं की होंगी, केवल वही बता सकते हैं कि भेड़-बकरियों की तरह ठूंसना किसे कहते हैं और यह भी कि लाठी-बल के सामने बाकी सभी संस्थाएं और कानून किस तरह ध्वस्त हो जाते हैं यह केवल आज की सचाई नहीं हो सकती है। तो, रास्ते में आशुतोष ने दर्जन-भर केले खरीदे तो नवीन को एक नयी कलाकारी सूझ गयी। उसने आशुतोष का रुमाल मांगा। मिस पड़ती भीड़ में भी अगर कोई अर्जेन्ट सिचुएशन आ जाए तो रेल के यात्री परस्पर मिलकर जगह बना ही देते हैं। नवीन ने ऐसा माहौल बनाया कि आस-पास बैठे यात्री जरा-जरा खिसक गये और रुमाल को नवीन ने सीट पर फैला दिया। किसी की समझ में कुछ न आया। आगे यह हुआ कि दोनों केले खाने लगे और नवीन छिलकों को रुमाल पर जमा करता रहा। बात कुछ जरूर है लेकिन वह क्या बात है, यह आशुतोष भी न समझ पाये और अपने रुमाल की दशा पर खिन्न बने रहे। सारे केले जब खत्म हुए, नवीन ने रुमाल को बांधकर पोटली बना ली। आस-पास के तमाम यात्रियों के लिए यह दृश्य आकर्षण का केन्द्र था। सोच रहे होंगे कि जरूर कोई विशेष गुण है छिलके का, लेकिन यह तो देख लिया जाए कि आगे ये बन्धु करते क्या हैं तब पूछा जाएगा। पैकिंग की कला में नवीन यूं भी उस्ताद है। रुमाल की पैकिंग उसने जिस तरह की उसका भी अपना एक आकर्षण था। जब वह पोटली को अपने बैग के अंदर रखने लगा तो आशुतोष का धैर्य जवाब दे गया। उसने पूछा-- यह क्या? नवीन ने अपनी आवाज में अतिरिक्त गंभीरता भरकर उत्तर दिया-- अरे कुछ नहीं, तारानंद की बकरी के लिए ले जा रहा हूं। तारानंद कौन है, उस डिब्बे में किसी को पता नहीं था, लेकिन सबकी हंसी छूट गयी। आशुतोष का तो हंसते-हंसते बुरा हाल था। बात केवल इतनी थी कि गांव में मेरी मां एक दुधारू बकरी पालती थी और चाय हम उसी के दूध की पीते थे।
नवीन ने अपने जीवन का सफर जिस तरह पूरा किया है, जो भी मुकाम पाया है, सारा का सारा उसका खुद का अरजा है। उसके सारे काम, सारी उपलब्धियां जैसे खुद के भीतर की पुकार है, जिसे उसने कार्यरूप दिया। उसकी अपनी कुछ समझदारियां रही हैं। पैसे का उपयोग बहुत सोच-समझकर ही करेगा। नयी पीढ़ी को कभी सिर नहीं चढ़ाएगा, औकात में रखेगा। स्त्री को उत्साह में आकर ही सही, कभी बराबरी का मान दे दे, इसमें सदा सावधानी बरतेगा। गैरजरूरी लोगों से, मुद्दों से सदा परहेज रखेगा। उसके लिए काम प्यारा है चाम नहीं। जिन दोस्तों से वास्ता रखेगा उसके परिवार-भर से जुड़ा रहेगा। साहित्य से हमेशा बड़ा उसने जीवन को माना है, इसलिए सम्बन्ध का निर्वाह कोई उससे सीखे। यह सब चीजें उस भूमि, उस पर्यावरण, अभाव-अभियोग के उन अध्यायों की देन है, जिसने हमेशा नवीन को ऊर्जा से लवरेज रखा है।
उसकी जीवनकथा बहुत कुछ इस शेर के तर्ज पर चलती है कि 'मंजिल तो खैर कब थी हमारे नसीब में/ जो मंजिल पर पहुंचे तो मंजिल बढ़ा ली।' लेकिन, आगे वह दिल्ली गया तो दिल्ली का ही होकर रह गया, जैसे तारकोल की पांक में जाकर कोई फंस गया हो। आगे गांव-घर से, मिथिला से, मिथिला के आमजन और बौद्धिकों से उसकी अनगिन शिकायतें रहीं जो समय के साथ बढ़ती ही गयीं। इसके वाजिब कारण भी थे, इसे मुझसे ज्यादा कौन समझ सकता है? लेकिन कहना होगा कि इन शिकायतों ने बाद में परायेपन की एक ठोस शक्ल ले ली। अपनी पसंद के लोगों से जुड़ा रहा वह जरूर, लेकिन उसी तरह जैसे कर्नाटक या आस्ट्रेलिया के मित्रों से जुड़ा रहा। मिथिला के लिए मैं इसे एक बड़ी दुर्घटना मानता हूं और पाता हूं कि इसमें दोष जितना मिथिला का था उससे कहीं ज्यादा दिल्ली का और नवीन की महत्वाकांक्षाओं का था। जो भूमि खुद ही अबतक सामंती मठाधीशों से पददलित कराहती रही है, उसे किसी सृजेता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का अवकाश कहां मयस्सर होगा! कहना होगा कि दिल्ली ने मिथिला के इस सपूत को उपलब्धियां भले जितनी दी हो, उसके भीतर की सुंदरता छीन ली, उसे खराब किया।
मैथिली में नवीन ने बहुत काम किया है, अनेक विधाओं में। उसका मूल्यांकन अबतक कायदे से हो नहीं सका है। यह मैथिली का दुर्भाग्य है कि उससे भी सीनियर, उससे भी बड़े लेखकों का मूल्यांकन नहीं हो सका है। नवीन ने अपने सृजनात्मक लेखन में हाशिये के लोगों का संघर्ष उठाया है। उसकी कथाएं और लघुकथाएं संभ्रान्त समाज पर एक करारा तमाचा हैं। उसकी कविताएं और गजलें उम्मीद की लौ जगानेवाली रचनाएं हैं। पीढ़ियों तक ये कृतियां संघर्षशील युवाओं के काम आएंगीं। वह ताउम्र बाबा नागार्जुन से जुड़ा रहा और अपने लेखन से उनके किये काम को विस्तार देता रहा।
उसकी रचनात्मक जिद बहुत बलशाली है। कुछ तय कर ले तो कठोर परिश्रम तबतक जारी रख सकता है जबतक उसकी जिद ठोस आकार न ले ले। राजकमल चौधरी पर किया गया उसका काम इसी का प्रतिफल है, वरना उससे पहले कई वीर आए और थककर छोड़ भागे थे। इस चीज ने जरूर उसे अकेला बनाया है। सृजन का हर पथिक एक पड़ाव पर आकर अकेला हो ही जाता है, स्वयं राजकमल यह बात कह गये हैं। मैं अपने इस दोस्त के इसी अकेलेपन को प्यार करता हूं। मुलाकातें तो अब बेहद कम हो गयी हैं लेकिन जब भी हम मिलते हैं, बीच के चालीस साल को चीरकर ठीक उसी जगह आ जमने में पल भर भी नहीं लगता।