Thursday, October 13, 2022

सीता (कविता)





तारानंद वियोगी


भीतरघात भेलैक तं पकड़ल जाएत सिपाही

वदतो जं व्याघात भेलै तं नपत गवाही

हारल जं घुरता अपने तं घरहि सहारा

मारल जं दुश्मन गेलैक तं जयजयकारा

सब क्यो रहत निचैन मात्र हां, जी हां कहि क'

करत सदा सब वैह, मुदा किछु दोसर रहि क'

सब के चलत चलाकी, कहु सीता की करती?

एक राम के खातिर ओ कय कय बेर मरती?


देलनि राम वनवास तं जनको कहां बिगड़ला

कहां अक्षौहिणी सेना ल' क' जा क' भिड़ला

कहां भेलनि जे बेकसूर धी भटकय वन मे

मंगबा लै छी एतहि, कहां से अयलनि मन मे?

जं कहबै सीताक भाग्य, पराया धन छलि

नै नै, धनुष उठाबनहारिक तन छलि

मन छल एहन जे लोक पुजैए माथा हुनकर

आर ककर छनि जेहन-जेहन छनि गाथा हुनकर?


उचितन बजने हनुमानो कें देसनिकाला

कहू कतहु ई देखल उपकारीक हवाला?

अन्यायी भागिन वशवर्ती राजा भेला

कतय गेलनि ओ ओज, कतय पुरुखारथ गेला?

घर घुरला लवकुश तं मन हनुमाने पड़लनि

कोना बचल रघुकुलक लाज, मैथिलजन देखलनि

धन्न कही ओइ मन कें जे गुण नै पहिचानल

स्वर्णमयी माया कें सीता क' क' जानल!


पापक बढ़तै चलती, राम बनथि रखबैया

डूबय लागय नाह, कहत जन राम खेबैया

ओइ रामक जे शक्ति छली से कोना हेरयली

अनधनलछमी त्यागि अयोध्या कतय पड़यली

ककरा रहतै मोन जखन जुग व्यापय पापक

ककरा संग गेलै धरती? भेलि ककरा बापक?


धर्मक जं चलती बढ़तै तं जय श्री रामक

ककरो नै रहतै मोन असल मे सीता रामक

तामस जं उठतै तं उजड़त अबल निबल सब

जं मन भेल प्रसन्न तं घर जड़तैक अनाथक

सीता तत्व कथीक? ने ककरो सुरता रहतै

कहू किए ने देशक नारी सदा कुहरतै?


Sunday, October 2, 2022

अहल्या-स्थान के बहाने अहल्या की याद

 



तारानंद वियोगी


दरभंगा जिले का एक गांव है अहियारी, जिसका सम्बन्ध पौराणिक अहल्या से जोड़ा जाता है। वहां अहल्या-स्थान नाम से एक धार्मिक पीठ भी है, और एक प्राचीन मंदिर भी जिसे दरभंगा के महाराज छत्र सिंह ने 1817 में बनवाया था। कहते हैं, गौतम ऋषि का पुराना आश्रम यहीं था जहां वह अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ रहते थे। जब वह घटना हुई, यानी देवराज इन्द्र ने भेस बदलकर छलपूर्वक अहल्या का शील-हरण किया, गौतम अपनी पत्नी को सान्त्वना या हिम्मत क्या देते कि उसे पत्थर हो जाने का शाप दिया, और तब से यह जगह उजाड़ हो गयी। अपनी पत्नी का त्याग करते हुए गौतम ने अपनी जगह बदल ली। रामायण का प्रसिद्ध प्रसंग है कि इस मैदानी इलाके में एक विचित्र ढब के पत्थर को देखकर उस रास्ते जनकपुर जाते राम ने जब गुरु विश्वामित्र से जिज्ञासा की थी, तो उन्होंने वह पूरा वृत्तान्त उन्हें सुनाया था। वृत्तान्त में यह भी था कि शाप सुनकर अहल्या जब अपनी बेकसूरी पर अड़ गयी और बार-बार ऋषि से मिन्नत करने लगी तो गौतम ने ही यह रास्ता सुझाया था कि राम जब इस रास्ते गुजरेंगे तो उनकी चरण-धूलि से पुन: तुम्हारी खोयी देह तुम्हें मिलेगी। लक्ष्मीनाथ गोस्वामी के एक पद में भी आता है-- 'वासब दुराचार ते गौतम दिन्हें शाप ताहि अविचारे/ पाछे जानि अदोष कह्यो तब, भामिनि! शाप अकाट हमारे।' पौराणिक प्रसंगों के अनुसार, यही हुआ। अहल्या की खोयी देह राम की कृपा पाकर उन्हें मिल गयी। लेकिन इसके आगे फिर क्या हुआ? इसपर कहीं कुछ स्पष्ट नहीं मिलता। मानो इतना ही जताना इस प्रासंगिक कथा का अंतिम भवितव्य हो। प्रसंग रामकथा का है। नायक राम हैं। राम की महिमा ख्यापित करना कथा का उद्देश्य है। यह हो गया, तो फिर इसे कौन देखता है कि आगे अहल्या का क्या हुआ! 


विविध प्रसंगों में अहल्या का जो विवरण मिलता है, उसके अनुसार वह अनिन्द्य सुंदरी थी। मिथिला में प्रचलित किंवदन्तियों में भी उन्हें सुन्दर नारियों में सुन्दरतम माना गया है। किंवदन्ती के अनुसार वह ब्रह्मा की मानस-पुत्री थी और स्वयं ब्रह्मा को उसकी सुन्दरता पर इतना अभिमान था कि उसके विवाह के लिए उन्होंने शर्त लगा दी थी कि जो देवता या ऋषि बारह बरसों तक उसे अपने घर में, अपने पास रखकर भी ब्रह्मचर्य-व्रत निभाकर दिखाने की प्रतिज्ञा करे, उसी से वह ब्याही जाएगी। इस असंभव-सी प्रतिज्ञा को कौन निभा पाता, इसलिए सारे देवता और ऋषियों ने हाथ खड़े कर दिये थे, और ऐसे में गौतम ने यह असंभव काम कर दिखाया था। ब्रह्मपुराण लेकिन थोड़ी अलग कहानी बताता है।‌ वहां है कि ब्रह्मा ने छोटी उमर में ही पालन-पोषण के लिए उसे गौतम को सौंप दिया था। गौतम के आश्रम में पलती-पुसती अहल्या जब जवान हुई, गौतम उसे लेकर ब्रह्मा को वापस करने गये। ब्रह्मा को अब उसका विवाह करवाना था। त्रिलोक-दुर्लभ उसकी सुन्दरता पर तमाम देवता और ऋषि इस कदर मुग्ध थे कि हर कोई अपनी दावेदारी पेश कर रहा था। ऐसे में ब्रह्मा ने शर्त रखी कि जो कोई पृथ्वी की दो परिक्रमा पूरी करके सबसे पहले चला आएगा उसी से अहल्या ब्याही जाएगी। हर कोई तो उधर परिक्रमा करने निकला, इधर गौतम ने यह किया कि ब्रह्मा-निवास की अर्धप्रसूता कामधेनु की दो परिक्रमा कर आए और साबित किया कि कामधेनु की प्रदक्षिणा का फल सात द्वीपों वाली पृथ्वी की परिक्रमा के समतुल्य है। ब्रह्मा ने मान लिया और अहल्या गौतम के साथ ब्याह दी गयी। इस प्रसंग से यह संकेत मिलता है कि पालक पिता होने के नाते गौतम की जो भी भूमिका रही हो, वह मन-ही-मन उसे प्यार करने लगे थे, उसके रूप के रसिक थे। 


ब्रह्मपुराण में लेकिन अहल्या के पत्थर बनने की कहानी नहीं आती। वहां है कि वह सूखी नदी बन गयी। उसके उद्धार का उपाय बताया गया कि जब गौतमी नदी की धारा इस ओर होकर गुजरेगी तो उसका शाप-शमन हो जाएगा। स्वाभाविक ही रामकथा के साथ भी वहां इस प्रसंग का कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि रामकथा में अहल्या-प्रसंग को अधिगृहीत किये जाने के पूर्व की स्मृतियां ब्रह्मपुराण में आई हैं। वाल्मीकि रामायण और ब्रह्मपुराण दोनों में लेकिन, यह बात आई है कि गौतम ने अहल्या के साथ-साथ इन्द्र को भी शाप दिया था। वाल्मीकि रामायण में है कि इन्द्र का अंडकोष नष्ट हो जाने का शाप दिया, अर्थात पुंसत्वहीनता का, जिसका इलाज बाद में देवलोक के चिकित्सकों ने मेष(भेड़) के अंडकोष को प्रतिरोपित करके किया और इन्द्र का एक नाम 'मेषवृषण' तभी से प्रसिद्ध हुआ। ब्रह्मपुराण  का शाप सहस्रयोनि होने का शाप था, जिसके लिए उन्हें भी गौतमी नदी के अवतरण का इंतजार करना था, जिसके बाद वह ठीक होकर सहस्राक्ष बनते। दोनों ही जगह लेकिन यह बताया गया है कि इन्द्र भेस बदलकर आया था, और शील-हरण के बाद गौतम ने उसे रंगे हाथ पकड़ लिया था। अन्तर यह है कि ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतमभेषधारी इन्द्र को अहल्या नहीं पहचान पाई थी और उसने उसे गौतम समझकर ही व्यवहार किया था, जबकि वाल्मीकि रामायण बताता है कि अहल्या ने भलीभांति उसे पहचानकर देवराज के  कौतूहल में व्यवहार किया था। जो भी हो, लगता यही है कि आदिम स्मृतियां ब्रह्मपुराण में संरक्षित हैं, जबकि  मानवीय स्वभाव का, देव-स्वभाव का भी, अंकन वाल्मीकि रामायण में ज्यादा हू-ब-हू हुआ है।


ब्राह्मण-धर्म में स्त्री की अभ्यर्थना में 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:' कहे जाने का चलन रहा है। आए दिन भक्तों को आप यह पंक्ति उद्धृत करते हुए सुनेंगे। लेकिन, स्त्री की वास्तविक औकात वहां क्या है और देवता वहां क्यों रमण करते हैं, इसका पता हमें वाल्मीकि रामायण के उस प्रसंग से चलता है कि जब यह सब कांड करके इन्द्र अपनी राजधानी लौटे तो देवताओं की सभा में इसके बारे में उन्होंने क्या प्रतिवेदित किया। बताया कि काम तो उन्होंने बड़े खतरे का किया लेकिन यह देवताओं के हित के लिए जरूरी था। गौतम का तप इसी से क्षीण हो सकता था। राजनीति देखिये। तप क्षीण करना था गौतम का, क्योंकि उनसे इन्द्र को और तमाम देवताओं को सत्ता छिन जाने का खतरा था। लेकिन, शिकार बनी अहल्या। न इन्द्र दुराचार करते, न गौतम को क्रुद्ध होकर शाप देना पड़ता, न उनका तप क्षीण होता! देवताओं की सभा में इन्द्र का संबोधन है--

कुर्वता तपसो विघ्नं गौतमस्य महात्मन:।

क्रोधमुत्पाद्य हि मया सुरकार्यमिदं कृतम्।।

(वाल्मीकि रामायण/ बालकांड/ 49/2)

वाल्मीकि रामायण के एक हिन्दी अनुवादक द्वारिका प्रसाद चतुर्वेदी ने इस श्लोक की जो व्याख्या की है, उसे देखना भी कम दिलचस्प नहीं होगा। लेकिन पहले उनका अनुवाद-- 'महात्मा गौतम की तपस्या में विघ्न डालने के लिए मैंने उन्हें क्रुद्ध कर देवताओं का यह काम बनाया।' अब इसके बारे में उनकी व्याख्या देखी जाए-- 'इन्द्र के इस कथन को मिथ्या न समझना चाहिए। क्योंकि बात सचमुच यही थी। गौतम ने सर्वदेवताओं का स्थान लेने के लिए तप किया था। क्रोधादि दुर्वृत्तियों का प्रादुर्भाव होने से तपस्वी की तपस्या नष्ट हो जाती है। अत: इन्द्र ने महर्षि गौतम की तपस्या को नष्टभ्रष्ट करने के लिए ही उनको क्रुद्ध करने के अभिप्राय से अहल्या के साथ भोग किया था, नहीं तो स्वर्ग में अहल्या से कहीं अधिक सुंदरियों का अभाव नहीं था। मृत्युलोकवासियों के सदनुष्ठानों में देवता अपने स्वार्थ के लिए सदा विघ्न करते चले आए हैं।' देवताओं की प्रवृत्ति का क्या ही शानदार परिचय यहां दिया गया है, मानो वे देवता न हुए इक्कीसवीं सदी के भारतीय राजनेता हुए। संस्कृत ग्रन्थों के हिन्दी अनुवाद का काम एक आधुनिक विधा है। इस पुस्तक का प्रकाशन 1958 में हुआ है। इस प्रकार पंडित चतुर्वेदी की यह मान्यता भी ब्राह्मण-धर्म की एक आधुनिक मान्यता ही समझनी चाहिए, जिसकी जड़ सुदूर अतीत की मान्यता में है। इससे हम समझ सकते हैं कि यहां स्त्री की वास्तविक औकात क्या है। तब से लेकर आधुनिक युग तक।


इससे इतर एक प्रसंग पंचकन्या का है। पुराणों में पंचकन्या उन पांच स्त्रियों को कहा गया है जो विवाहिता तो थीं जरूर, लेकिन उन्हें सदा कुंवारी माना गया है और यह बताया गया है कि सुबह-सुबह इनका नामस्मरण करने से सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। ब्रह्माण्ड पुराण के इस श्लोक में पंचकन्याओं की नामगणना करते हुए उनका माहात्म्य बताया गया है--

अहल्या द्रौपदी तारा कुन्ती मन्दोदरी तथा।

पंचकन्या: स्मरेन्नित्यं महापातकनाशनम्।।(3/7/219)


मैंने तो‌ केवल पापनाशक बताया, पुराणकार तो 'महापातक-नाशक' कह रहे हैं। यह महापातक क्या होता है, इसपर भी जरा गौर कर लें। मत्स्यपुराण में इनकी सूची दी गयी है। ब्रह्महत्या, गुरुपत्नी से समागम, मद्यपान, स्वर्ण की चोरी करना आदि इस कोटि के पाप हैं जिसका दंड मृत्युदंड विहित किया गया है। लेकिन हां, यह सब करनेवाला यदि ब्राह्मण हो तो उसे मृत्युदंड नहीं मिलेगा, बस देशनिकाला दे दिया जाएगा। अब मान लें, पापी ने अपराध किया और पकड़ा नहीं गया, तो?  जो थोड़े भी सामर्थ्यवान होते हैं वे पकड़े कैसे जा सकते हैं, उन्हीं के लिए तो तमाम रास्ते बनाए गये हैं, युग चाहे सतयुग हो ले या घोर कलियुग। लेकिन अपना दिल तो गवाही देता ही रहता है। ऐसे में वह केवल यही कर ले कि इन पंचकन्याओं का नामजाप सुबह-सुबह कर लिया करे। उसके सारे महापातक नष्ट हो जाएंगे। गौर करें, यही अपनी सनातन धर्म-व्यवस्था है। ठीक ही कहा था हरिमोहन झा ने कि अनुष्टुप में श्लोक बनाने के लिए किसी लाइसेन्स की जरूरत नहीं होती। अगर हुई होती तो क्या ऐसी धर्म-व्यवस्थाएं मिल सकती थीं?


मेरी चिन्ता लेकिन यह है कि इन पंचकन्याओं में अहल्या को पहला स्थान दिया गया है, शायद इसलिए कि सबसे ज्यादा प्रवंचित वही रही। तो क्या यह कालान्तर में उसके साथ किया गया न्याय था? भरोसा नहीं होता, क्योंकि आधुनिक पंडितों की मान्यता भी हम ऊपर देख ही चुके हैं। अहल्या की प्रवंचना दोहरी है। सीता भी प्रवंचित थी, लेकिन शास्त्रकारों ने उनके साथ न्याय नहीं किया तो लोकविदों ने किया। मिथिला में सीता की विशाल लोकगाथा न केवल मिलती है, बल्कि उसके तीन-तीन वर्सन उपलब्ध होते हैं। अहल्या की लेकिन कोई गाथा नहीं मिलती। वह लोकगीतों का विषय भी नहीं बनी। उसे देवता का दरजा तो खैर नहीं ही मिला, लोकदेवता का भी नहीं मिला। वाल्मीकि रामायण बताता है कि शापमुक्ति के बाद वापस वह गौतम के नये आश्रम में चली गयी, लेकिन इसपर भी यकीन करना मुश्किल है क्योंकि तबतक तो पुत्र शतानंद का जमाना आ गया था जो जनक के दरबार में राजपुरोहित लग गये थे। क्या वह सचमुच वापस गौतम के पास गयी होगी? तो फिर अहल्या-स्थान की अपनी पृष्ठभूमि क्या है? अहियारी का जो यह मंदिर है, आप आश्चर्य करेंगे कि धुर मिथिला में वह एक ऐसा दुर्लभ मंदिर है जिसकी पुजारन महिला होती है, जबकि मंदिर की  संपत्ति के प्रबंधन के लिए जो महंत हैं, वह पुरुष हैं। वहां बैगन का चढ़ावा चढ़ता है। और, माता अहल्या की महिमा क्या है? किसी के शरीर में मस्सा निकल आए तो वह वहां जाकर मनौती करे, और जब ठीक हो जाए तो बैगन का भार चढ़ाए। बैगन का भार! बैगन‌ का ही क्यों? अहल्या की प्रवंचना एक विशाल प्रश्नचिह्न की तरह हमारे सामने तनकर खड़ी हो जाती है!


आधुनिक कविता में अहल्या एक प्रवंचिता मानवी की तरह ही प्रस्तुत हुई है। उसके विस्तार में जाने का यहां अवकाश नहीं। मैं आपको नागार्जुन की एक कविता पढ़वाता हूं, जो उन्होंने अहल्या‌ पर लिखी और शीर्षक भी 'अहल्या' ही दिया है। कविता है--

नाहक ही

उतना अधिक रूप दिया 

विधाता ने

गौतम की शकल बना के

सचमुच क्या इन्द्र ही आया था?

समान आकृतिवाले--

दो पुरुषों की छाया में

पथरा गयी बेचारी!


यहां छद्मवेशधारी इन्द्र के होने पर संशय किया गया है। तात्पर्य है कि भला फर्क ही क्या पड़ता है कि वह इन्द्र था या इन्द्र नहीं था! मतलब की बात यह है कि वह दूसरा पुरुष था, परपुरुष। उसकी भी गहन लालसा ने ही उसे अहल्या तक खींच लाया होगा, जैसे कभी गौतम को खींच लाया था। इन्द्र अगर देवराज थे तो गौतम भी कोई कम न थे। ब्रह्मा से तर्क कर वह अहल्या को जीत लाये थे, इस मिथक में कदाचित उस वैदिक ऋषि गौतम की स्मृति है जो षड्दर्शनों में सर्वाधिक दिलचस्प न्यायदर्शन के आदिप्रवर्तक थे। किन्तु, जो थे वो थे। अहल्या की तरफ से सोचें तो उस बेचारी को क्या मिला, जबकि दोनों ही तो महिमासंपन्न अतिविशिष्ट ही थे। आकृति यहां दोनों की समान बताई गयी है। लेकिन क्या केवल बाहरी आकृति? वह तो स्वांग भी हो सकता है। बात यहां भीतर की आकृति की है। भीतर का पुरुष भी तो दोनों का एक-सा था, पितृसत्ता के दंभ से उन्मत्त। दोनों ही जगह प्रेम एक छलावा था, लालसा भी। स्त्री के लिए कहीं कोई जगह नहीं थी। बस केवल यह था कि पहला अपने भोग को अपना विशेषाधिकार मानता था, दूसरा उसका उल्लंघन कर उसे अपने भोग की सीमा तक घसीट लाया था। पुरुष तो दोनों ही बड़े थे, महान थे। लेकिन अहल्या को क्या मिला? दो पुरुषों की छाया में भी उस बेचारी के हिस्से तो पथराना ही आया। नागार्जुन शाप को निगेट करते हैं। ब्राह्मण-धर्म के भीतर दूसरे के शाप की जरूरत भी स्त्री को कहां है? प्रेमी पुरुष के भीतर का दंभी लंपट सामने आ जाए बस, उसे तो खुद ही पथरा जाना है!


मैं अहियारी की बात कर रहा था। वहां गौतम-अहल्या का मंदिर है। उसे मिथिला के एक तीर्थ की हैसियत मिली हुई है। मिथिला के प्रमुख तीर्थों की सूची देखें तो यह जगह ऊपर ही कहीं दर्ज मिलेगी। विद्यापति ने इस तीर्थ की चर्चा की है। उनसे भी प्राचीन ग्रन्थों में उसे तीर्थ कहा गया है, ज्यादातर राम को महिमामंडित करने के लिए। लेकिन, आप अगर कभी वहां जाएं तो उस अभागन के नाम दो आंसू टपकाकर जरूर लौटें। ब्राह्मण-धर्म को जी रही स्त्रियों का इससे तर्पण होगा, जो मर गयीं उनका, और जो जी रही हैं, उनका भी। जीते-जी तर्पण!


नारायणजीक पृष्ठभूमि आ काव्य-विकास

 


           तारानंद वियोगी


वर्तमान समय मे मैथिलीक अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि लोकनि मे सं एक प्रमुख कवि नारायणजी छथि। हुनकर लेखन सं ने केवल मैथिली कविता  समृद्ध भेल अछि, अनेक एहन अभिव्यक्ति अछि, जकरा ओ पहिल पहिल बेर मैथिली भाषा मे कहल जा सकब संभव बनौलनि अछि। एहि सं हम सब हुनकर कविक विराटताक अनुमान पाबि सकैत छी।

             नारायणजी प्राय: 1980क आसपास कविता लिखब शुरू कयलनि। ओ समय मैथिली कविताक लेल अगियाबैताल बला समय रहैक। सबतरि विरोध, विद्रोह, उखाड़-पछाड़ के धकापेल छल। नारायण जीक कविता एहि सब सं सर्वथा विपरीत छलनि। ओहि मे मौन के महिमा छल, लघु मानव के अभ्यर्थना छल, विस्मय-भाव चरम पर छल, स्वयं जीवनक जे ऐकान्तिक सौन्दर्य होइत छैक तकर बारंबार गायन छल। आ, कविताक जे भाषा छल से तं बुझू जे 'जत देखल से कहिय न पारिय' बला सुधबौकपन सं भरल छल। कहबाक चाही जे नारायण जी अपना पीढ़ीक समस्त कवि लोकनि मे सब सं अलग छला। एतय धरि जे ई चीज आगू हुनका मूल्यांकनो मे बाधक बनल। जं अहां सब सं अलग रहैत छी तं संभव अछि, अहां अबडेरल रहि जाइ। मुदा एहि कवि लेल धनि सन। ओ जेहन छला, तेहने बनल रहला परन्तु आत्मविश्वस्त रहला। हुनक आगूक यात्रा क्षैतिज नहि, ऊर्ध्वाधर भेल। जाहि पथ कें धेलनि तकरे अंतिम बिंदु धरि पहुंचबाक जतन मे लागल रहला। 

             नारायणजीक कविताक पृष्ठभूमि अख्यास करबाक लेल हमरा लोकनि कें यात्री जीक लग पहुंचय पड़त। अपन सुप्रसिद्ध कविता 'द्वन्द्व' मे ओ मां मिथिलाक असली शक्तिक खोज कयने छला। ओ व्यक्ति 'रूप-गुण अनुसार जे आमक रखै अछि नाम/ धानक रखै अछि नाम' आ जैठां उदय लैत अछि ठीक तहीठाम अस्त होइछ, मने जीवन भरि अपन गाम मे बनल रहैत अछि, वैह समय पड़ला पर मातृभूमिक काज आबि सकैत छथि। यात्री जी लिखलनि--'जननि, तोहर इष्ट तोहर शक्ति/ धन्य थिक ओ व्यक्ति'। ओहि कविता मे ओ अपना कें अभागल मानलनि जे परिस्थितिवश एहन व्यक्ति ओ अपने नहि भ' सकला, परदेस भागय पड़लनि। आगू हमरा लोकनि देखैत छी जे बादक युगक महाप्राण कवि राजकमल चौधरी सेहो एहने अभागल अपना कें मानलनि जे 'अपने गाछीक फूलपात नहि चिन्हैत छी/ बूझल नहि अछि/ गाछ सभक चिड़ै सभक नाम/ बूझल नहि अछि।' मैथिली कविताक आगूक युग मे हमरा लोकनि पबैत छी जे एहन भागबन्त कवि साबित भेला जीवकान्त आ नारायण जी। यैह दुनू किएक? गाम मे तं बहुतो कवि रहला। कहब जरूरी नहि जे गाम मे रहब आ एहि संदर्भ सभक प्रति संवेदनशील आ सजग बनल रहि क' गाम बसब अलग-अलग बात थिक।

             नारायणजीक पहिल कविता-संग्रह 1993 मे आएल-- 'हम घर घुरि रहल छी'। जे बाहर रहैत अछि से एक दिन घर घुरैत अछि। नारायण जी सब दिन गामे मे रहला। तखन? ओ एहि पुस्तकक भूमिका मे लिखलनि-- 'हम आइ जतय छी आ जेना छी, अपना सं दूर छी। हम अपना सं प्रेम करय चाहैत छी। अपना मे घुरि अयबाक सर्वाधिक सहज विश्वसनीय डेग थिक हमर कविता।' अपन कविताक चेहरा चिन्हाबैत ओ लिखलनि-- 'हमर कविता/ हमर अन्तरक सब सं तीव्र नदी/ वाग्विलासक हमर जिह्वा कें खालि/ बाहर भ' परती पर बूलि रहल अछि।' देखि सकै छी, अपन सनातन वाग्विलास बला जाहि जिह्वा पर मिथिला अदौ सं गर्व करैत रहल अछि, तकरा खालि देबाक बात नारायण जी अपन काव्यारंभे मे लाधि देलनि।

             दोसर कवितासंग्रह 'अंगना एकटा आग्रह थिक' सन् 2000 मे आएल। ओहि ठाम ओ मानव-विकासक युग-युग-व्यापी अभियान कें एकटा आग्रह संग जोड़लनि। भोरे अन्हरोखे स्त्रिगण आंगन बहारैत छथि। आंगन बहारब एकटा आग्रह थिक। बिन बहारने ओ नहि रहतीह। अंगनाक बहारब ओहि आदिम युगक स्मृति थिक, जंगलक विरुद्ध मानव-सभ्यताक विजय-अभियानक। अंगना जंगल नहि भ' जाय पुन:,  तकर पुरोधा थिकी स्त्रिगण। स्त्री आ प्रकृति, अपन समस्त पर्यावरण आ लघुसर्जनाक संग, यैह नारायण जीक प्रिय विषय रहलनि अछि। लघुसर्जना की? एकटा उदाहरण। बाढ़ि मे गामक समस्त प्राणी घेरायल अछि। सभक प्राण अवग्रह मे छैक। बकरीक सेहो। बकरी लगातार मेमिया रहल अछि, कारण संकटापन्नताक अभिव्यक्ति के आन कोनो प्रकारक ओकरा ज्ञान नहि छैक। कवि कें चिन्ता होइत छनि जे 'बाढ़ि मे बकरी/चिकरि चिकरि एना/ दोसरक बिसरल मनक अतल सागर मे/ भक्ष्य होयबाक/ अपन उपस्थिति जनबैत अछि।'। तहिना, हुनकर दोसर चिन्ता देखियनु। जनिते छी जे बाघक संख्या दुनियां मे लगातार कम भेल जा रहल अछि। दुनियां भरि मे तकर चिन्ता कयल जा रहल अछि। मुदा, कवि कें खुशी होइत छनि जे अपना सभक गाम-घर मे डोकाक कमी नहि भ' रहल अछि, जखन कि आरि पर टहलान दैत डोका सब हरेक साल जानि नहि कतेक बेगरतूत लोकक मासु खयबाक सेहन्ता कें पूर करैत रहलैक अछि। 

             तेसर संग्रह 'धरती पर देखू' वर्ष 2015 मे बहरायल तं एहि बेर हुनक काव्यकर्म मे किछु नब तत्व सभक नफा होइत देखल गेल। एखन धरि हुनकर मुख्य काव्य-विषय छलनि-- मिथिलाक रुचिर भूभाग, एकर डीह-डाबर, नदी-पोखरि, चिड़ै-चुनमुन, एकर खेत, खेत मे होइबला जजाति, तकर बीज, बीजक अंकुर, अंकुरोक प्रांकुर, तकरो मूलांकुर। गाम, गामक छोट-छोट अबल-दुबल लोक,गामक सड़क, सड़क कातक अखंड पर्यावरण, गामक मौसम, ऋतु, वर्षा, जलक विविध रूप, जल जे पृथ्वीक अनुराग मे बसैत अछि। कते कहल जाय? आदि आदि कहैत अतल तलातल धरि चलि जाइ, ततेक। राजनीतिक आ बाजारवादी गछाड़ सभक अनेक प्रपंच हुनकर एहि संग्रह मे आएल। गामक मंदिरक बारे मे हुनकर एकटा कविता अछि, जतय देखाओल गेल अछि जे कुकर्म, अपराध, व्यभिचार आदि मंदिर पर एहि दुआरे चलब जारी छै जे मंदिर ककरो बापक नहि थिक। चिंताकुल कवि ई सब देखैत दुखी छथि जे अयोध्या मे फेर बड़का मंदिर बनि रहल छैक। तहिना, बाजार मिथिलाक गाम-गाम मे घरक ड्योढ़ी पर आबि गेल अछि। बाजार आनल गेल छल एहि करारक संग जे बेचत तं बिकयबो करत। मुदा, परिणाम देखि कवि दुखी छथि जे मिथिला केवल खरीदार बनल रहबा लेल मजबूर अछि। बड़ दर्दीला क्रोध छनि कविक-- 'पाद त' बिकाइत अछि/ अहांक वस्तु सब नहि बिकाइत अछि बाजार मे? मनक स्वस्ति बेचू/ ओछाओनक ठांव बेचू/ ठोरक पानि बेचू/ देहक ऊष्मा बेचू.../ अहां बेचि दिय' अपना कें।'

             एहि साल वर्ष 2019 मे हुनकर कविता सभक चारिम संग्रह 'जल धरतीक अनुराग मे बसैत अछि' छपल अछि। एहि मे हुनकर सिरीज कविता सब छनि-- जल, सुजाता, वसंत, सपना आ चान। पोथिक भूमिका मे कहलनि अछि-- 'अपन कविता मे हम ओहि स्थानीय मूल्य कें अनबाक चेष्टा क' रहल छी जाहि सं मैथिली कविता कतहु क्षेत्रीयताक नामक कृपा पर नहि, मूल्यवत्ताक आधार पर सगर्व ने मात्र ठाढ़ भ' सकय, अपितु डेग मे डेग मिलाए चलय।' जे आकांक्षा नारायणजी आइ व्यक्त कयलनि अछि, गौरतलब थिक जे ताहि मिजाजक काज ओ पछिला चालीस साल सं ने मात्र करैत आबि रहला अछि, अपितु ओकरा उचित साकांक्षताक संग कमोबेश अकानलो गेल अछि। वर्ष 2000 मे जीवकान्त लिखने छला-- 'कुण्ठारहित ई इजोत मैथिली कविता कें भारतीय भाषा मे उच्चासन देने अछि। आजुक मैथिली कविता भारतीय कविताक मात्र सहगामी नहि, ओहि मे अग्रगामी अछि। नारायण जी एहि भाषाक प्रतिनिधि कवि छथि।'

             


उषा किरण खानक लेखन-स्वभाव



तारानंद वियोगी


उषाकिरण खान मैथिलीक एक महत्वपूर्ण साहित्यकार तं छथिहे, हुनकर व्यक्तित्वक आओरो कैक टा आयाम सब अछि जे हुनकर लेखन कें पुष्ट आ सबल करैत रहल अछि। मध्यकाले सं, जहिया आधुनिक भारतीय भाषाक रूप मे मैथिलीक जन्म भेल, हम सब देखैत आएल छी जे बहुभाषाविद् आ बहुरचनाप्रवीण लेखकक बेसी सम्मान मिथिला मे रहलैक। ई गुण हमरा लोकनि ज्योतिरीश्वर आ विद्यापतियो मे देखैत छी। आधुनिक युगक सब सं महान लेखक यात्री जी तं एहि मे अनेक नव आयाम जोड़लनि। उषाकिरण बहुभाषाविद् आ बहुभाषाप्रवीण लेखकक कोटि मे अबैत छथि। ओ मैथिलीक संग-संग हिन्दी मे अपन लेखन कयलनि अछि। आ दुनू भाषा मे, दुनू भाषाक लेखन लेल स्वीकृत आ सम्मानित भेलीह अछि। मुदा जेना कि यात्री जी आ रेणु(फणीश्वरनाथ) जीक बारे मे कहल जाइत अछि जे ओ लोकनि हिन्दियो मे लिखैत मैथिलिये लिखलनि, मिथिलेक बात लिखलनि, मिथिलेक दशा आ दिशा हुनकर चिन्ताक केन्द्र मे रहलनि, ठीक वैह बात हम सब उषाकिरणक बारे मे कहि सकैत छी। अपन शोधात्मक कथा-लेखनक क्रम मे जं ओ मिथिला सं बाहरो गेली तं ई चीज झकझक देखार पड़ैत रहलैक जे एक मैथिल हृदयक भावकताक संगहि ओ यथार्थक संग बर्ताव कयलनि अछि। हुनकर अवदान कें अपन प्रान्त आ देश मे चीन्हल गेल, से हमरा लोकनिक लेल एक फूट खुशीक गप थिक।


उषा जीक ई सौभाग्य रहलनि जे लिखबाक केवल हुनरे नहि, एकर प्राथमिकता-निर्धारण धरिक संस्कार हुनका विश्वप्रसिद्ध मैथिल कवि यात्री नागार्जुन सं भेटल रहनि। उषाकिरणक पिता यात्री जीक मित्र रहथिन जिनकर निधन बहुत शुरुए मे भ' गेल रहनि, आ यात्री जी अपन विशालहृदयताक अनुरूपे पितृवंचिता एहि कन्याक जीवन मे सब दिन पिताक भूमिकाक निर्वाह करैत रहलखिन। स्वयं उषा जी लिखने छथि जे व्यक्तित्वगत हुनकर मजगूती आ कथा-साहित्य दिस हुनकर लेखन-प्रवृत्ति शुद्ध क' क' यात्री जीक प्रेरणाक फल छल। तखन, एहना स्थिति मे जखन कि क्यो नव लेखक कोनो महान साहित्यकारक प्रेरणा आ संसर्ग मे लेखनक शुरुआत करैत अछि, एकर खतरा सेहो कम नहि रहैत छैक। पुरान कहबी अछि जे विशाल बटवृक्षक नीचां लघु तरु-गुल्मक विकास असंभवप्राय होइछ। खतरा ई छलनि जे यात्री जीक आभामंडल मे ओ बन्हाएल रहि जा सकैत रहथि। मुदा, महान लोकक संगति स्वयं जेना अनेक आपद-विपदक सम्यक समाधान करैत चलैत छैक आ महानताक जे कारक सब होइछ ताहि मे स्वयं इहो एक महत्वपूर्ण कारक होइत अछि। हमरा लोकनि देखैत छी जे स्वयं यात्रिये जी एक दिस जं अधिकाधिक गद्यलेखनक दिस हुनका प्रेरित केलखिन, तं दोसर दिस हुनका सं सर्वथा विपरीत ध्रुव पर स्थापित वरेण्य साहित्यकार अज्ञेय जी संग रचनात्मक संपर्क-सामीप्य हेतु प्रोत्साहित सेहो केलखिन। एकर परिणाम साहित्यक लेल कतेक शुभ आ सुखद भेल तकर हिसाब हमरा लोकनि उषा जीक विशाल रचना-संसार मे पाबि सकैत छी।


उषा जी सदिखन अपना कें कोसिकन्हाक एक उपज मानैत रहल छथि, जकर तात्पर्य थिक जे ओहि माटिक कत भारी इयत्ता छैक, तकरा ध्यान पर लायब। कतेको ठाम ई बात हम कहि चुकल छी जे मिथिला जकरा हमरा हम सब कहैत छी, मोन रखबाक चाही जे एहि मे मिथिलाक भीतर मिथिला छैक। एक दिस जं मैथिल अस्मिताक सामर्थ्य-विस्तार एहि सं देखार होइछ तं दोसर दिस एक समन्वित मैथिल जातीयताक विकास मे ई बाधको बनल रहल अछि।‌ मुदा तकर मूल ओजह भेल एतुक्का पंडित-समाज, जकरा हाथ मे सत्ता तं रहल मुदा अपनहि हेंग जोतबाक दुर्व्यसन नहि कहियो गेल। तें, हम सब देखैत छी जे ब्राह्मण-धर्माचारक संगहि संग लोकायतक लोकाचार सेहो अपन पूरा खिलावट प्राप्त कयने रहल। एतय धरि जे जीव-जगत कें पूरा मिथकीय स्वरूप द' क' ग्रहण करबाक प्रवृत्ति लोकायते दिस सं आएल जे मैथिल अस्मिता कें परिभाषेय स्वरूप धरि पहुंचौलक। मिथिला कें शास्त्र सं गछाड़लनि महामहोपाध्याय पंडित लोकनि, मुदा अपने ओ जाहि पंडिताइन लोकनिक द्वारा गछारल छलाह से स्त्रीगण लोकनि एम्हर लोकायतक हामी, लोकाचारक पैरोकार छली। हम देखैत छी जे एक जातीय इकाइक रूप मे मैथिल अस्मिताक ई अजगुत स्वरूप जते स्पष्ट रूप सं उषाकिरणक कथा-साहित्य मे वर्णित भेल अछि, तते आन कतहु नहि।‌ तें हुनका ओइ ठाम यौनिकताक आधार पर विद्रोह पर उतारू स्त्रीवाद नहि छनि। से मैथिली मे तं नहिये, हिन्दियो कथा-साहित्य मे नहि छनि। जवाबदेहीक अहसास अक्सरहां लोक कें उत्थर आ मतलबी होयबा सं रक्षा करैत छैक। ई अहसास साफ-साफ उषा जीक स्त्री लोकनि मे देखल जा सकैत छैक।


हम पहिनहु कहने छी जे स्त्री आ प्रकृति, ई दुनूटा उषा जीक प्रमुख लेखन-विषय रहलनि अछि। स्त्री जेना कि कहबे केलहुं, अपन संपूर्ण मानवीय गरिमा आ जिम्मेदारीक संग हुनकर कथा-साहित्य मे आएल छनि। ओकर विस्तार बहुत पैघ छैक-- स्थान, काल आ पात्र तीनू तरहें ओ दूर-दूर धरि पसरल छैक। एक दिस जं सुदूर अतीत मे भेलि भामती छथि तं दोसर दिस धहधह जरैत निज अजुका वातावरण मे पोसाएल अजनास, जे अपना दम पर समाज मे परिवर्तन अनबाक स्वप्न देखैत अछि। जाहि गहिराइक संग स्त्रीक भूमिका-विधान उषाकिरण रचैत छथि, कूटचालि चलि क' मनुक्ख-मनुक्खक बीच कयल गेल तमाम प्रकारक विभाजन हुनका लग आबि क' निरस्त भ' जाइत छैक। ब्राह्मण सं ल' क' दलित धरि, हिन्दू सं ल' क' मुसलमान धरि, महामहोपाध्याय सं ल' क' मुरुख-चपाट धरि-- एकटा सूत्र अछि जे स्त्रीक गरिमा आ भूमिका कें बेस समरूप क' क' आंकैत अछि। हुनकर बहुतो पाठक एहन भेटताह जिनका हुनकर स्त्री-पात्र सब मे हसीना सब सं बेसी दीप्तिमती देखार पड़ैत छनि, आ ओ 'हसीना मंजिल' कें हुनकर सर्वश्रेष्ठ कृति मानैत छथि। जखन कि दोसर दिस देखी तं मैथिली कथा-साहित्य मे संपूर्ण मानवीय गरिमा आ इयत्ताक संग एक तं मुसलमान समाजक आमदे बहुत कम भेलैक अछि, दोसर जतबा भेलो छैक ओहि मे मार्मिकताक अकाल देखल जाइत अछि।


उषा जीक साहित्य मे कोशी कातक प्रकृति भरपूर उतरलनि अछि। नदी कातक, ओहू मे खास क' कोशी-सन नदी कातक प्रकृति, से चाहे जड़ हो चाहे जंगम, ततेक खास अछि जे लगहि के पछबारि पारक गतानुगतिक शास्त्रीय वितंडापूर्ण जीवन-चिन्तन सं एहि ठामक लोक के सर्वथा भिन्न मनोनिर्मिति रचलक। एक बेलौस जीवनपद्धति, परस्पर अन्योन्याश्रित, लोकायतक चिर अनुवर्ती, बात-बात मे जीवन-स्पन्दन सं भरल, आ धाराक विरुद्ध चलबा कें जेना अपन इंस्टिंक्ट जकां धारण कयने। नदी आ ओकरा प्रवाह संग जीवन गुदस्त केनिहार भूमि, ओकर फसिल, जंगल, ओकर जीवजन्तु आ तकरा सभक संग सहअस्तित्व बनौने मनुष्य कतय एकमएक भ' जाइत छैक, अंटकर करब मश्किल अछि। एहि संपूर्ण चराचरक‌ नायिका थिकी कोशी। मिथक छैक जे कोशी संग बियाह करय चलि अबैत छैक रन्नू सरदार-- 'नौ गड़ी सिन्नूर हे कोसिका/ देलियह उझीलि हय/ कोसिका तोरा सं/ कयलियह बियाह हे।' मुदा, एम्हर ई चिरकुमारि कोशी छथि। उषे जीक शब्द मे-- 'रन्नू नौ गाड़ी सिन्नुर खसा क' धार कें बान्हि देलकै। ऐं, ई मजाल! सिन्नुरक बोरा खसा हमरा बियाहि लेत? धार मे जेना कोदारिक सान चढ़ि गेलै,  धरती-पिरथी एक क' देलकै कोसिका। बोराक बोरा सिन्नुर तामसक फेन संग कतबैक बालु पर फेकि देलकै। आइयो कासक जड़ि मे ओ ललका सिनूर सटल छै। रन्नू अपन सन मुंह ल' ठामहि घुरलाह। कोसिका कुमारिये छथि।' कखन आ कतय मिथक जीवन मे आबि शामिल भ' जाएत, कखन कोशीक कथा कोशी-कातक लोकक कथा बनि जाएत, प्रकृति आ मनुष्यक जीवन तेना सहरस छैक जे अनुमान धरि करब कठिन अछि। प्रयोगक लेल प्रयोग के देखाबा मे उषाकिरण कहियो नहि पड़लीह, मुदा हुनकर कथा-साहित्य कें ठेकान सं देखब तं ओतय प्रयोग सभक विशाल चित्रशाला देखार पड़त। बहुतो ठाम देखबै जे प्रत्यक्ष भ' क' कोशी कतहु नहि अयलीह अछि, एतय धरि जे हुनकर कोनो आनो उपादान धरि नहि, मुदा ओहू ठाम साफ देखार पड़त जे पृष्ठभूमि मे एकटा कोनो धुन बाजि रहल छैक जे कोशीक अप्पन प्रकृतिक धुन थिक। ओहू कथा (अजनास) मे जे रन्नूक खसाओल सिनूर कें कोसिका काछि क' फेकि दैत छथि, ई नहि बूझब जे ओ निज कोसिके थिकी, ओ थिकी विधायक जीक बेटी अजनास जे मुख्यमंत्रीक भातिजक संग आएल विवाह-प्रस्ताव कें नासकार करैत छैक।


उषाकिरणक सौभाग्य रहलनि जे हुनकर नेनपन धुर कोसिकन्हाक एक गाम मे बितलनि, सर्वजातीय सर्वधार्मिक सर्वसाम्प्रदायिक जीवन-संगति मे, आ पुरुषार्थ हुनकर ई रहलनि जे कतबो आगू बढ़ि गेली मुदा आत्मा मे बसल ओहि गाम संग नाता नहि कहियो तोड़लनि। पिता पुरान गांधीवादी, आदर्श समदर्शी, वास्तव के समाजसेवी रहथिन, जनिकर संस्कार सं उषा जीक मानस निर्मित भेल, आ से सब दिन हुनका आंखिक सोझा जीवन्त, प्राणवन्त बनल रहल। मैथिली के तं ओना अंगने कते टाक?  जतबा छैहो, ताहू मे पछबारि पारक गतानुगतिक पंडी जी लोकनि रौरव नरक के दृश्य कें सजीव बनेबा मे अपस्यांत पाओल जाइत रहलाह अछि। एहना मे उषाकिरणक लेखनक समावेशी स्वभाव के खास महत्व अछि।


उषा जीक असल मेधा मुदा, उद्घाटित होइत देखाइत अछि हमरा तैखन, जखन एहि एकैसम सदीक उग्र स्त्रीवादी लोकनि स्त्री-यौनिकताक स्वातंत्र्यक हंगामा ठाढ़ कयने रहैत छथि, आ ई उषाकिरण खान अपन स्वस्थिरचित्त आ मन्द्र वाणी सं स्त्रीक ओहि स्वयम्भू गरिमा आ दायित्वक पक्ष मे अविचल बनल रहैत छथि, जे एहि समुच्चा प्रकृतिक संचालिका थिकी। कते आश्वस्तिक बात थिक जे ई वाणी कोशीक वाणी थिक!

होना देवशंकर नवीन के संग-साथ



तारानंद वियोगी


नवीन से दोस्ती के अब चालीस साल पार हो चुके हैं। यह यात्रा इतनी लंबी है, और समय इस बीच इतनी तेजी से बदलता चला गया है कि कई बार लगता है, वह सब जैसे युगों पुरानी बात हो।

            मेरे गांव महिषी में नवीन का ननिहाल है। उसकी जैसी मां थीं प्रेममयी, भावमयी, इतनी भोली कि पराया कोई लगे ही न। वह मानो कोशी-किनारे की जंगम पैदाइश थीं। उसके नाना और मेरे पिता दोनों ही अपने जमाने के बहादुरों के बहादुर गिने जाते। कहते हैं, हैजे की महामारी जब चली थी, एक मुरदे को जबतक जला आए, पता चला, कोई फिर मर गया है। कई-कई दिनों तक अनथक अविरल दाहसंस्कार करनेवाले सामाजिकों में वे थे, जबकि हमने इस कोरोना-युग में देख ही लिया है कि अपना जनमाया बच्चा भी ऐसे वक्त में कैसे विराना हो जाता है।  वह भूपी झा(नवीन के नाना) और मेरे पिता बद्री महतो ही थे, जिन्होंने उन्हीं महामारी के दिनों में यह बड़ा फैसला लिया था कि गांव के पूर्वी किनारे बहनेवाली नदी के पार, जो तब श्मसान-भूमि के रूप में ही प्रसिद्ध थी, घर बनाकर बसने का तय किया था। पहले दोनों एक टोले के थे, अब इधर आकर पड़ोसी हो गये। यही श्मसानभूमि का इलाका है, जहां तारा का मंदिर है, जिनके बारे में राजकमल चौधरी ने कविता लिखी थी कि तेरह हजार बरस पहले मेरुदंड पर्वत की काली चट्टानों से तराशकर निकाली गयी तेरह साल की लड़की हैं वह, जो उनके लिए न उग्र है न तारा है, बस उग्रतारा है। और, यही वह डीह है जहां सदियों पहले पलिवार महिषी मूल के आदि वाशिंदा ब्राह्मण निवास करते थे। यह वही कुल था जिसमें बाद को डा. सर गंगानाथ झा और उनके कृतकार्य पुत्रों--अमरनाथ झा, आदित्यनाथ झा वगैरह हुए। इस वंश की मूल वासभूमि यही जगह थी जो अब श्मसानभूमि के रूप में परिणत थी। काल भी कैसे-कैसे करतब दिखाता है! हम बड़े गर्व कहते, और स्वयं नवीन भी कि पलिवार महिषी कुल का जो मात्र एक घर ब्राह्मण इस गांव में बचा रह गया था, वह नवीन के नाना भूपेन्द्र उर्फ भूपी झा थे। बचपन से ही नवीन का यहां आना-जाना बना रहा। नवीन की परवरिश में सारा का सारा मोहनपुर ही नहीं था, उसमें महिषी भी बहुत गहराई तक पैठी थी।

            मुझसे नवीन की दोस्ती हुई, इसके कई बरस पहले मेरे पिता के साथ उसकी दोस्ती हो चुकी थी। बात यह थी कि नवीन का गांव मोहनपुर मेरी बुआ की ससुराल थी। पिता कभी-कभार अपनी बहन के घर आया-जाया करते। ऐसा ही एक अवसर था जब वे मोहनपुर से महिषी लौट रहे थे। पांव-पैदल। रास्ते में उन्हें एक लड़का मिला जो मस्त होकर गाना गाते बढ़ता चला जा रहा था। यह नवीन था। परिचय हुआ तो वह उनके मित्र का नाती निकला, जो ननिहाल के सफर पर था। पिता बताते थे, उस दिन दो घटनाएं हुईं। एक तो यह कि रास्ते में एक बैलगाड़ी वाला इधर ही चला आ रहा था। पिता ने गाड़ीवान से आग्रह किया कि इस बच्चे को बिठा लीजिये। नवीन गाड़ी पर जा बैठे और गाना गाकर सुनाते रास्ता कटा। दूसरी घटना जो हुई उसकी पृष्ठभूमि बताना जरूरी होगा। मैं जब आठवीं कक्षा में पढ़ता था, अपने एक ग्रामीण कवि की देखादेखी फिल्मी धुनों की पैरोडी पर तारा की स्तुति के गीत लिखने लगा था। थोड़े ही दिनो में वे गीत इतने लोकप्रिय हुए कि गांव की हर कीर्तनमंडली में गाये जाने लगे। फिर यह हुआ कि हमारे सहपाठियों ने आपस में चंदा करके सोलह गीतों की एक पुस्तिका छपवा दी। मेरे पिता न के बराबर पढ़े-लिखे थे लेकिन लिखा-पढ़ी के काम के प्रति उनके मन में इतना सम्मान था कि यह आश्चर्य करने-जैसी बात लगती थी। किसी का बेटा हाइस्कूल की उमर में कविताई करने लगे तो आम तौर पर यह पिता के लिए दुख मानने की बात हुआ करती थी। मेरे पिता के साथ इसके बिलकुल उलट बात थी। मेरे गीत छपने से वह अपने को गौरवान्वित महसूस करने लगे थे। और उस पुस्तिका की कुछ प्रतियां तो हमेशा अपने साथ लेकर चलते थे। उस दिन भी उनकी जेब में वह थी। उन्होंने नवीन से कहा-- आप गाना अच्छा गाते हैं विद्यार्थी। इसमें से किसी गीत को गाइये। और, यह गायन रास्ते भर होता चला। बैलगाड़ी पर बैठे बालक नवीन, और गाड़ी के पीछे-पीछे पैदल चलते मेरे पिता। (नवीन को वह सदा 'नवीन बाबू' बुलाते थे।)  नवीन को तो ये दोनों प्रसंग याद हैं ही, संयोग की बात कि जिस दिन पिता यह कहानी मुझे और मयंक को सुना रहे थे, हम टेपरिकार्डर पर इसे रिकार्ड कर रहे थे। अब भी मेरे पास उनकी, मां की भी, आवाजें हैं, मेरी बड़ी-बड़ी दौलतों में वे एक हैं।

            इसके बरसों बाद, सहरसा में आयोजित विद्यापति-पर्व का अवसर था जब हम पहली बार मिले थे। सहज और स्वाभाविक मैत्री उभर आई थी। हम एक जैसे संघर्षशील थे, एक जैसे कोशी की गीली पांक को आत्मा में धारण किये दुनिया भर घूम‌ आने का ख्वाब देखते थे। नवीन उन दिनों सहरसा कालेज में एम.ए.(मैथिली) कर रहे थे, और मैं महिषी के संस्कृत कालेज में शास्त्री का विद्यार्थी था। उन दिनों के जो एपिसोड्स थे, मैंने तो कहीं-कहीं लिखा भी है, पूरी कहानी बयान की जाए तो एक मुकम्मल किताब बनेगी। राजकमल चौधरी की खोज, महीनों महीना राजकमल की स्मृति के तरंगों को ढ़ूंढ़ते, लिपिबद्ध करते, आम लोगों तक उसकी खुशबू पहुंचाने के आयोजन करते, पत्रिकाओं के विशेषांक प्रायोजित करते, प्रकाशकों की खोज करते-- इन सब की एक लंबी शृंखला है। कमाल यह था कि व्यक्तिगत रूप से हम दोनों ही उन दिनों साधनहीन थे। पास में जो पूंजी थी, वह केवल मन का उत्साह और तन का परिश्रम ही था। 

            सहरसा हमारा जिला मुख्यालय था। वहां साहित्य के कई दिग्गज बसते थे लेकिन साहित्यिक गतिविधियां शून्य के करीब थीं। हमने तमाम अग्रजों को साथ जोड़ा। उनमें एक ओर मायानंद मिश्र, महाप्रकाश, सुभाष चन्द्र यादव थे, तो दूसरी ओर गीतकार नवल, रामचैतन्य धीरज, शेखर कुमार झा वगैरह भी थे। इस अनौपचारिक मंच का नाम 'अनवरत' था, जिसके लिए नवल ने यह गीत लिखा था-- 'नगर-नगर, गाम-गाम, गली ओ गली/ अनवरत के लेल हम तं अनवरत चली।' तब हम तीन हुआ करते थे, हमदोनों के अतिरिक्त मेरा लंगोटिया दोस्त मयंक मिश्र, जिससे नवीन की कभी न पटी। लेकिन हां, हमारी गतिकी पर इसका कभी असर भी न पड़ा। मयंक मुझे साइकिल पर लादकर महिषी से लाता, सारी गतिविधियां करके वापस हम महिषी लौट जाते, कभी-कभी तो रात के दो बजे। शेखर झा के डेरे पर महीनों साथ रहकर छेदी झा द्विजवर पर रिसर्च करने का भी एक रोचक अध्याय है। कभी-कभी जो अति रोचक घटनाएं घटीं, जैसे एक उस रात तय करके हमलोग मायानंद मिश्र के गीत-गजल रिकार्ड करने बैठे। ओह, पता भी न चला कि वह समूची रात किस तरह बीत गयी थी। पीने-पिलाने का सिलसिला चलता रहा था और सारी रात माया बाबू अपने गीत-गजल गाते रहे। उस गोष्ठी में महाप्रकाश थे हमारे साथ, और शशिकान्त वर्मा भी, सतीश वर्मा के पिता। उस रात के फोटोग्राफ्स तो मुझे याद आते हैं, लेकिन कैसेट? वह शायद मैंने केदार(कानन) को दिया था।

            केदार हमारी मित्रमंडली के सबसे मजबूत स्तम्भ थे। और, इस वजह से सुपौल हमारी दूसरी राजधानी। चौथे दोस्त के रूप में आगे प्रदीप बिहारी का आगमन हुआ तो हमने बाकायदा 'चतुरंग' की घोषणा कर दी। प्रदीप ने इतिहास के इस अध्याय को यूं अविस्मरणीय बना दिया कि अपने प्रकाशन का नाम ही चतुरंग प्रकाशन रख लिया। नवलेखन को मैथिली साहित्य के इतिहास में प्रतिष्ठापित करने का तब हमारा जुनून ऐसा था कि 'चतुरंग' का लक्ष्य-वाक्य मैंने इस तरह लिखा था-- 'साजि चतुरंग सैन, जंग जीतन कें चलल छी'।और जानते हैं, इस प्रकाशन की पहली किताब कौन-सी थी? वह मेरी गजलों किताब 'अपन युद्धक साक्ष्य' थी। उस किताब की छपाई में हम सब ने जो पापड़ बेले थे, ओह, आज वे कितने स्वादिष्ट लगते हैं! 

            दरभंगा से साहित्याचार्य की पढ़ाई पूरी कर जब मैं पटना विश्वविद्यालय से एम.ए. करने पहुंचा, तबतक नवीन डालटनगंज के एक कालेज में प्राध्यापक लग गये थे। बिहार तब एक था और पटना से डालटनगंज को पलामू एक्सप्रेस जोड़ता था। अब होने यह लगा कि पांच दिन वहां रहकर नवीन हर शनिवार को पटना आ जाता और सप्ताहान्त हम साथ बिताते थे। वह नवीन की सृजनशीलता के उन्मेष का दौर था। समूचे मैथिली-संसार में तबतक 'योजना-मास्टर' के रूप में मेरी प्रसिद्धि हो चुकी थी। जब भी हम मित्रगण मिलते, हमेशा नयी-नयी योजनाएं बनतीं और उन्हें कार्यरूप देने में हम जुट जाते। सच कहा जाए तो अपने होने और लिखने से जितना जो कुछ मैं समकालीन मैथिली साहित्य को प्रभावित कर पाया, वह सब इन्हीं योजनाओं में से पांच प्रतिशत अंश का प्रसाद था। यही वह दौर था जब बाबा नागार्जुन पटना में, मेरे बगलवाले मकान (हरिहर प्रसाद जी के आवास) में ठहरे हुए थे। इसकी समूची कथा 'तुमि चिर सारथि' में आ चुकी है। नवीन के लेखन की गति तब इतनी तेज थी कि जितना लोग महीनों में न लिख पाएं उतना वह पांच दिन में लिख जाता था। वह लगभग उन सभी विधाओं में काम कर रहा था, जिनमें मैंने किया था। कई विधाएं तो प्रकृति से ही विद्रोहात्मक थीं। जैसे मैथिली में गजलें। लघुकथाएं। एक-से-एक सुंदर गजलें और लघुकथाएं नवीन ने उन दिनों लिखी थीं और हलचल मचा दिया था।  आलोचना भी उनमें एक विधा थी लेकिन उसके यहां मुख्य स्थान कविता को प्राप्त था। एक शनिवार की वह सुबह भुलाये नहीं भूलती कि जब मेरे कमरे में चारों तरफ नवीन की नयी रचनाएं पसरी थीं और वह तल्लीन होकर मुझे सुना रहा था कि इसी बीच लाठी ठकठकाते बाबा आ धमके। कविताएं चल रही हैं, यह जानकर उनका मूड बन गया। नवीन से कहा-- सुनाइये कविताएं। कितनी बड़ी बात थी! कविता का शीर्ष एक नवोदित कवि को उसकी कविताओं के लिए आमंत्रित कर रहा था। नवीन यदि सचमुच के नवोदित होते तो कोई मुश्किल नहीं थी, झटपट सुना डालते। मगर, वह मेरा मुंह ताकने लगे। जितनी मैंने अबतक सुनी थी, अपने जानते बेस्ट की उन्हें याद दिलाई और संकोच से भरे नवीन ने वह कविता बाबा को सुनाई। इसके बाद जो हुआ था, सारथि पढ़ चुका हर पाठक जानता है। घंटों तक बाबा उस कविता की व्याख्या करते रहे, किस तरह कोई एक अच्छी कविता लिख सकता है, इसके सारे सूत्र बाबा ने उसी कविता से निकालने शुरू किये। जाहिर है, उसमें आलोचना ही अधिक थी, लेकिन यह एक ऐसा सुअवसर था जो हमें या हमारे मित्रों में केवल नवीन को नसीब हुआ था। हां, बाद को जब हमने 'श्वेतपत्र' छापा तो बाबा ने प्रदीप बिहारी की कहानी पढ़ी थी और उसकी पीठ ठोकते हुए यह कहा था कि यह मैथिली कहानी में विश्वशिशु की पैदाइश है।

            यहां एक-दो बातें और न कह दी जाएं तो हमारे उन दिनों का स्वभाव पूरा खुलेगा नहीं। बड़े-बड़े महापुरुष ही जो काम कभी अतीत में कर पाये थे, हमने अपनी तरुणाई में ही उसे कर दिखाया था। यह था-- संप्रदाय की स्थापना। हमारे संप्रदाय का नाम 'कलाकार संप्रदाय' था। कलाकार से यह न समझियेगा कि तबला-हारमोनियम या रंग-कूचियों से हमारा कोई वास्ता था। ग्रामीण रंगमंचों पर तरह-तरह के पार्ट हमने खेले थे जरूर, लेकिन यहां वह भी नहीं था। कला यानी कि खुशनुमा जीवन की कला। तमाम अभावों, अनीतियों, संघर्षों के बावजूद। जाहिर है, इस संप्रदाय में जाति-धर्म जैसे परंपरित ढकोसलों की कोई जगह न थी। आपस में या अन्यों के साथ भी हम अक्सर ऐसे करतब करते रहते कि सारी उदासीनता दूर हो जाए और आदमी हंस पड़े, संलग्न हो जाए। इस संप्रदाय के एक मजबूत स्तम्भ हमारे प्राचीन मित्र आशुतोष झा थे। और मयंक मिश्र तो थे ही। हुआ क्या कि आजीवन कलाकारी करते-करते जबतक मैं पटना वि. वि. से एम.ए. करूं तबतक आशुतोष की नौकरी हाइस्कूल में लग गयी। उनकी पहली और अंतिम भी, पोस्टिंग गढ़वा में हुई जो डालटनगंज का पड़ोसी शहर है। अब ये दोनों कलाकार साथ हो गये। नवीन की प्राथमिकता साहित्य थी, जिसके कारण हफ्ते-हफ्ते वह पटना आता। ऐसा कुछ आशुतोष के साथ नहीं था। पर, छुट्टियां जब होतीं, जैसे गरमियों की, तो दोनों साथ ही गांव आते थे।

            एक बार का वाकया है कि दोनों ने पटना आकर सहरसा की ट्रेन पकड़ी। छोटी लाइन की उन रेलों में सहरसा-रूट में जिन लोगों ने यात्राएं की होंगी, केवल वही बता सकते हैं कि भेड़-बकरियों की तरह ठूंसना किसे कहते हैं और यह भी कि लाठी-बल के सामने बाकी सभी संस्थाएं और कानून किस तरह ध्वस्त हो जाते हैं यह केवल आज की सचाई नहीं हो सकती है। तो, रास्ते में आशुतोष ने दर्जन-भर केले खरीदे तो नवीन को एक नयी कलाकारी सूझ गयी। उसने आशुतोष का रुमाल मांगा। मिस पड़ती भीड़ में भी अगर कोई अर्जेन्ट सिचुएशन आ जाए तो रेल के यात्री परस्पर मिलकर जगह बना ही देते हैं। नवीन ने ऐसा माहौल बनाया कि आस-पास बैठे यात्री जरा-जरा खिसक गये और रुमाल को नवीन ने सीट पर फैला दिया। किसी की समझ में कुछ न आया। आगे यह हुआ कि दोनों केले खाने लगे और नवीन छिलकों को रुमाल पर जमा करता रहा। बात कुछ जरूर है लेकिन वह क्या बात है, यह आशुतोष भी न समझ पाये और अपने रुमाल की दशा पर खिन्न बने रहे। सारे केले जब खत्म हुए, नवीन ने रुमाल को बांधकर पोटली बना ली। आस-पास के तमाम यात्रियों के लिए यह दृश्य आकर्षण का केन्द्र था। सोच रहे होंगे कि जरूर कोई विशेष गुण है छिलके का, लेकिन यह तो देख लिया जाए कि आगे ये बन्धु करते क्या हैं तब पूछा जाएगा। पैकिंग की कला में नवीन यूं भी उस्ताद है। रुमाल की पैकिंग उसने जिस तरह की उसका भी अपना एक आकर्षण था। जब वह पोटली को अपने बैग के अंदर रखने लगा तो आशुतोष का धैर्य जवाब दे गया। उसने पूछा-- यह क्या? नवीन ने अपनी आवाज में अतिरिक्त गंभीरता भरकर उत्तर दिया-- अरे कुछ नहीं, तारानंद की बकरी के लिए ले जा रहा हूं। तारानंद कौन है, उस डिब्बे में किसी को पता नहीं था, लेकिन सबकी हंसी छूट गयी। आशुतोष का तो हंसते-हंसते बुरा हाल था। बात केवल इतनी थी कि गांव में मेरी मां एक दुधारू बकरी पालती थी और चाय हम उसी के दूध की पीते थे।

            नवीन ने अपने जीवन का सफर जिस तरह पूरा किया है, जो भी मुकाम पाया है, सारा का सारा उसका खुद का अरजा है। उसके सारे काम, सारी उपलब्धियां जैसे खुद के भीतर की पुकार है, जिसे उसने कार्यरूप दिया। उसकी अपनी कुछ समझदारियां रही हैं। पैसे का उपयोग बहुत सोच-समझकर ही करेगा। नयी पीढ़ी को कभी सिर नहीं चढ़ाएगा, औकात में रखेगा। स्त्री को उत्साह में आकर ही सही, कभी बराबरी का मान दे दे, इसमें सदा सावधानी बरतेगा। गैरजरूरी लोगों से, मुद्दों से सदा परहेज रखेगा। उसके लिए काम प्यारा है चाम नहीं। जिन दोस्तों से वास्ता रखेगा उसके परिवार-भर से जुड़ा रहेगा। साहित्य से हमेशा बड़ा उसने जीवन को माना है, इसलिए सम्बन्ध का निर्वाह कोई उससे सीखे। यह सब चीजें उस भूमि, उस पर्यावरण, अभाव-अभियोग के उन अध्यायों की देन है, जिसने हमेशा नवीन को ऊर्जा से लवरेज रखा है। 

            उसकी जीवनकथा बहुत कुछ इस शेर के तर्ज पर चलती है कि 'मंजिल तो खैर कब थी हमारे नसीब में/ जो मंजिल पर पहुंचे तो मंजिल बढ़ा ली।' लेकिन, आगे वह दिल्ली गया तो दिल्ली का ही होकर रह गया, जैसे तारकोल की पांक में जाकर कोई फंस गया हो। आगे गांव-घर से, मिथिला से, मिथिला के आमजन और बौद्धिकों से उसकी अनगिन शिकायतें रहीं जो समय के साथ बढ़ती ही गयीं। इसके वाजिब कारण भी थे, इसे मुझसे ज्यादा कौन समझ सकता है? लेकिन कहना होगा कि इन शिकायतों ने बाद में परायेपन की एक ठोस शक्ल ले ली। अपनी पसंद के लोगों से जुड़ा रहा वह जरूर, लेकिन उसी तरह जैसे कर्नाटक या आस्ट्रेलिया के मित्रों से जुड़ा रहा। मिथिला के लिए मैं इसे एक बड़ी दुर्घटना मानता हूं और पाता हूं कि इसमें दोष जितना मिथिला का था उससे कहीं ज्यादा दिल्ली का और नवीन की महत्वाकांक्षाओं का था। जो भूमि खुद ही अबतक सामंती मठाधीशों से पददलित कराहती रही है, उसे किसी सृजेता की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का अवकाश कहां मयस्सर होगा! कहना होगा कि दिल्ली ने मिथिला के इस सपूत को उपलब्धियां भले जितनी दी हो, उसके भीतर की सुंदरता छीन ली, उसे खराब किया।

            मैथिली में नवीन ने बहुत काम किया है, अनेक विधाओं में। उसका मूल्यांकन अबतक कायदे से हो नहीं सका है। यह मैथिली का दुर्भाग्य है कि उससे भी सीनियर, उससे भी बड़े लेखकों का मूल्यांकन नहीं हो सका है। नवीन ने अपने सृजनात्मक लेखन में हाशिये के लोगों का संघर्ष उठाया है। उसकी कथाएं और लघुकथाएं संभ्रान्त समाज पर एक करारा तमाचा हैं। उसकी कविताएं और गजलें उम्मीद की लौ जगानेवाली रचनाएं हैं। पीढ़ियों तक ये कृतियां संघर्षशील युवाओं के काम आएंगीं। वह ताउम्र बाबा नागार्जुन से जुड़ा रहा और अपने लेखन से उनके किये काम को विस्तार देता रहा।

             उसकी रचनात्मक जिद बहुत बलशाली है। कुछ तय कर ले तो कठोर परिश्रम तबतक जारी रख सकता है जबतक उसकी जिद ठोस आकार न ले ले। राजकमल चौधरी पर किया गया उसका काम इसी का प्रतिफल है, वरना उससे पहले कई वीर आए और थककर छोड़ भागे थे। इस चीज ने जरूर उसे अकेला बनाया है। सृजन का हर पथिक एक पड़ाव पर आकर अकेला हो ही जाता है, स्वयं राजकमल यह बात कह गये हैं। मैं अपने इस दोस्त के इसी अकेलेपन को प्यार करता हूं। मुलाकातें तो अब बेहद कम हो गयी हैं लेकिन जब भी हम मिलते हैं, बीच के चालीस साल को चीरकर ठीक उसी जगह आ जमने में पल भर भी नहीं लगता।