Saturday, July 16, 2022

स्वतंत्रता संग्राम आ मैथिलीक संत साहित्य

 


तारानंद वियोगी

भारतीय स्वतंत्रता संग्रामक आदिस्रोत 1857क महाविद्रोह थिक। हम सब अवगत छी जे भारतक अनेको राजा-रजवाड़ा एहि संग्राम मे अंग्रेज (कंपनी) सरकारक विरुद्ध विद्रोह कयने छला। दिल्लीक बादशाह बहादुर शाह जफर तं एकर नायके रहथि। रानी लक्ष्मीबाइक कथा सब गोटे जनैत छी। इहो बात सब गोटे जनैत छी जे मिथिलाक महाराजा एहि विद्रोह मे अंग्रेजक पक्ष मे ठाढ़ छला। पक्षे टा मे नहि, विद्रोह कें दबेबाक लेल जे कंपनी सरकार कें मदति चाहियैक छल, हाथी-घोड़ा-सैनिक-हथियार-नगदी सब किछु सं अंग्रेजक सहायता कयने छला। मने भारतक एहि पहिल स्वतंत्रता-संग्राम मे मिथिला शामिल नहि छल। मुदा, की ई बात कहब सही हेतै? किन्नहु नहि। राजा आ प्रजा मे अंतर होइ छै, एहि ठाम तं शोषक आ शोषितक अंतर सेहो छल। साधारण प्रजाक लेल शोषकक एक रंग जं 'गोरा' छल तं दोसर रंग 'काला', जकरा आम भाषा मे अंग्रेज सब 'यू बस्टर्ड ब्लैक इंडियन' कहैक। मुदा, मिथिलाक महाराजोक तं यैह रंग छलनि।
             तिरहुत के इलाका मे जे एहि महाविद्रोहक असर रहलैक तकर दस्तावेजी विवरण आब 358 पृष्ठ मे प्रकाशित छैक। (गदर इन तिरहुत: ए डाक्यूमेन्टेशन, लेखक अशोक अंशुमान/श्रीकान्त, 2009) प्रसिद्ध मैथिल इतिहासकार डा. विजय कुमार ठाकुर अपन लेख 'तिरहुत मे 1857क आन्दोलन एवं तकर वर्गीय आधार: एक विश्लेषण' मे लिखैत छथि-- 'एहि विद्रोही व्यक्ति सब (जाहि मे सं अधिकांश कें फांसी वा कालापानीक सजाइ भेटलैक) मे सब सं धनवान जे व्यक्ति छला तिनका लग 150 टाका 4 आना मूल्यक संपत्ति छलैक। एहि सं ई स्पष्ट भ' जाइत छैक जे ई सब विद्रोही लोकनि समाजक कमजोर आर्थिक वर्गक सदस्य छलाह। एहि संदर्भ मे ई ध्यान रखबाक योग्य तथ्य अछि जे एहि क्षेत्रक सामन्त एवं राजा लोकनि ब्रिटिश शासनक तरबा चटैत रहलाह एवं 1857क स्वतंत्रता संग्राम कें दबेबा मे ब्रिटिश सरकार कें पूर्ण मददि देलथिन। एहि सं स्पष्ट भ' जाइत अछि जे एहि आन्दोलनक जड़ि समाजक निम्न आर्थिक वर्ग सं जुड़ल छलैक, नहि कि राजा-महाराजा एवं सामन्त सं। 1857क भारतीय स्वतंत्रताक प्रथम संग्रामक ध्वनि तिरहुत मे सेहो सुनल गेल जकर आधार छल कमजोर वर्ग एवं एकर दुश्मन छल तत्कालीन ब्रिटिशक पिछलगुआ सामन्त एवं महाराज लोकनि।' (मैथिली अकादमी पत्रिका, जनवरी-दिसंबर 2007)
             हमरा लोकनि कें ई नहि बिसरबाक चाही जे जकरा हम सब मैथिली साहित्य कहैत छिएक, तकर स्पष्टत: दूटा धारा अछि। एक तं ओ जकरा पंडित, इतिहासकार आ आलोचक लोकनि मैथिली साहित्य मध्य स्थान देलखिन, जकरा इतिहासबद्ध कयल गेल। दोसर इतिहास-वंचित धारा, जे मिथिलाक जन बीच तं पूरे पल्लवित-पुष्पित होइत रहल मुदा विद्वान लोकनिक आंखि ओहि दिस सं सदा मुनायल रहलनि। नव युगक जे अंखिगर मैथिली अध्येता लोकनि छथि तिनका लोकनिक अस्सल पुरुषार्थ एही इतिहास-वंचित जनसाहित्य कें उद्घाटित करब थिक।
             एकटा दृष्टान्त रखला सं बात बेसी फड़िच्छ होयत। ऐतिहासिक स्रोत सं हम सब अवगत छी जे जखन ब्रिटिश सरकार विद्रोह कें दबेबा मे सफल भ' गेल, तं विद्रोही सभक ऊपर जे बदला लेबाक कार्रवाइ शुरू भेल ताहि मे फिरंगी सेनाक द्वारा बीस लाख भारतीय प्रजाक हत्या कयल गेल छल। फिरंगी सेना द्वारा बदला लेबाक ई कार्रवाइ कोना कयल जाइत छल? चिह्नित गाम वा चिह्नित समूह पर अचानक सिपाही सभक धावा होइक आ जे पकड़ल जाय तकरा मारि दैक वा जिंदा पकड़ा गेल तं गामक कोनो उंचगर गाछ ताकि क' खुलेआम फांसी लगा दैक जाहि सं अंग्रेजक अकबाल जुग-जुग धरि बरकरार रहय, प्रजा भय मानय। जं हम कही जे मैथिली मे किछु कविता एहनो उपलब्ध छै जाहि मे एहि कार्रवाइक आंखिक देखल वर्णन कयल गेलैए तं अहां आश्चर्य सं भरि सकै छी।
             लक्ष्मीनाथ गोसांइ परसरमा गामक निवासी रहथि। हुनके गाम लग एक गाम अछि बैरो। ओहि गामक निवासी रहथि रंगलाल दास। दुनू समकालीन रहथि। दुनू वैष्णव संत रहथि। अंतर यैह रहल जे गोसांइ जी ब्राह्मण रहथि जखन कि दास जी यादव। तें मैथिली साहित्यक इतिहास मे लक्ष्मीनाथ गोसांइक बारे मे तं हम सब खूब पढ़ै छी मुदा बेसी लोक एहने हेता जे रंगलाल दासक नाम पहिले बेर सुनैत हेथिन। जखन कि एहि दुनू गोटेक बीच नीक संपर्क रहनि जकर साक्ष्य दुनू गोटेक रचनावली मे भेटैत अछि। 1857क विद्रोह ई दुनू गोटे देखने तं रहबे करथि, अपना-अपना तरहें एहि मे अपन योगदान सेहो देने रहथि। गोसांइ जीक प्रसंग आगू कहब, पहिने रंगलाल दास।
             एहन प्रतीत होइत अछि जे ब्रिटिश सिपाही सभक बदलाक टारगेट संत लोकनिक समूह बनैत छल। किएक बनैत छल होयत? जाहिर बात अछि जे ओ सब सरकारक किछु बिगाड़ने हेता। की बिगाड़ने हेथिन? संतक शक्ये कतेक? मुदा नहि। ओहि समय मे मिथिलाक जते संत लोकनि छला, सभक अपन-अपन भजनमंडली होइत छलनि। गोसांइ जीक अपन मंडली छलनि आ रंगलाल दासक सेहो। सरकारक खुफिया सूत्र ई कहैत छल जे जतय-जतय ई लोकनि भ्रमण करथि, ब्रिटिशक विरुद्ध विद्रोह लेल जनसमूह कें भड़कबैत छला। सब गोटे अवगत छी जे गोसांइ जीक एक शिष्य क्रिश्चियन जौन स्वयं ब्रिटिश छला। एहन कोनो कनेक्शन रंगलाल कें नहि छलनि। रंगलाल दासक भजनमंडली पर जे ब्रिटिश सिपाही सभक हमला भेल छल, ताहि बारे मे ओ एक मार्मिक गीत लिखने छथि। प्राय: ओ हुनकर अंतिमे रचना होयत। ओहि गीत मे पांती अबैत छैक--'हाय रे अल्ला, किदन भेला मीयां कहां दन गेला/ मनु सुतिहार पच्छिम गेला, फोचाइ गेला उत्तर को/ तबला सारंगी ढनमन भेला, ठीठर पड़ला अनमन मे/ जे जे आए फिरि फिरि जावे, जग मे रहिहें कोइ नांही/ सब शिष्य मिलि एकमत होइहें, रंगलाल सुमरहु मन मांही।' (रंगमाला भजनावली/ संपादक जगदीश यादव, 1972) रंगलाल दासक जीवनावधि 1802-1858 बताओल जाइत अछि। एहन प्रतीत होइत अछि जे अंग्रेज सिपाही सभक हमला मे स्वयं रंगलाल आ हुनकर शिष्य ठीठर पकड़ल गेला, आ शहीद भेला। गुमनाम शहीद। बीस लाख मे सं क्यो एक।
             एहि पांती सं एक बात इहो स्पष्ट होइत अछि जे वैष्णव संप्रदायक हिन्दू भक्त रंगलाल दासक एक प्रमुख शिष्य मुसलमान रहथिन। आइ ई बात विचित्र लागि सकैत अछि, मुदा स्मरण रखबाक चाही जे इतिहासबद्ध संतकवि लक्ष्मीनाथ गोसांइक चारि प्रमुख शिष्य सब मे सं एक मोहम्मद गौस खां सेहो मुसलमाने छला। ई प्रसंग अनेक किताब सब मे लिखल भेटत। सत्य यैह छल। समाज एहिना संग-संग मिलि क' जिबैत छल। मुसलमानक अवतारी पुरुष मीरा साहेब, बालापीर आदिक मैथिली गाथा अछि आ हिनका सभक पूजा हिन्दुओक घर मे होइत अछि, आइयो। भारतीय स्वतंत्रता-संग्रामक जे सब सं पैघ आदर्श छल से यैह हिन्दू-मुस्लिम एकता छल। 1858 सं ल' क' 1947 धरि अंग्रेज शासक कोना एहि एकता कें तोड़बाक प्रयास करैत रहल आ अंतत: सफल भेल, तकर कथा आधुनिक भारतक इतिहास सब मे भरल पड़ल अछि।
             आर्य समाजक संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वतीक सम्बन्ध मे ई बात जगजाहिर अछि जे गदर के समय मे ओ लगातार तीन वर्ष धरि भूमिगत रहि क' अवधक इलाका मे किसान सभक बीच विद्रोहक बीज वपन करैत रहला। आगू जं ओ बचल रहला तं तकर कारण हुनकर मौन आ कार्य-परिवर्तन छलनि। ठीक यैह बात हमरा लोकनि लक्ष्मीनाथ गोसांइक संग देखैत छी। ऐतिहासिक दृष्टि अपना क' वास्तविक जीवनी जकरा कहल जाय से तं मिथिला मे लिखले नहि गेल। समुच्चा जीवन-प्रसंग कें मिथक, किंबदन्ती, दन्तकथा आ चमत्कारकथा सं भरि देल गेल। आब तं ओ समय तते दूर आ तिमिराच्छन्न भ' गेल अछि अछि जे वास्तविक तथ्य धरि पहुंचब असंभव भ' गेल अछि। लक्ष्मीनाथक रचना सब कें देखी तं ई बात स्वत: स्पष्ट छैक जे ब्रिटिश शासन-व्यवस्थाक ओ आलोचक रहथि। अपन एक पद मे ओ अंग्रेज शासक लेल 'पामर' शब्दक प्रयोग केलनि अछि-- 'पामर राज करत एहि पुर पर।' तहिना, अंग्रेजक पिछलगुआ जमींदार सभक विरुद्ध हुनकर अनेको पद मे निंदात्मक कथन कयल गेल अछि।
             'लक्ष्मीनाथ गीतावली'क संपादक पं. छेदी झा द्विजवर अपन भूमिका मे गोसांइ जीक चमत्कारकथा सभक भरपूर वर्णन करितो ई बात लिखबा सं अपना कें नहि रोकि सकला जे गोसांइ जी कें जहलक सजाइ भेल छलनि। यद्यपि कि ओ एहि घटना कें नेपाल मे घटित भेल बतबैत छथि, मुदा इहो बात संग-संग लिखैत छथि जे भारत मे ओहि समय मे महाविद्रोह मचल छल। गोसांइ जीक जेल जायब आ जेल सं छूटब आइ महा चमत्कारिक कथा जकां सुनाओल जाइत अछि। मुदा, एहि बातक अनुमान करब कठिन नहि जे ओ विद्रोहे भड़कबैत पकड़ल गेल छल हेता आ अपन अंग्रेज शिष्य जौन साहेबक प्रयास सं जमानत पर छूटल हेता।
             1857क स्मृति कोना मिथिलाक जन-समाज मे विविध रूप लय जीवित रहल तकर एक प्रसंग राम प्रकाश शर्मा अपन पुस्तक 'मिथिला का इतिहास' मे लिखने छथि। लिखलनि अछि जे समस्तीपुर जिलाक बालक लोकनि कबड्डी खेलैत काल एखनो एहि पदक प्रयोग करैत छथि। एक दल अंग्रेज बनैत अछि। ओ दल पद पढ़ैत अछि-- 'अमर सिंह के कमर टूटलनि, कुंवर सिंह कें बांहि/ पुछियनु ग' दलभंजन सिंह सं आब लड़ता कि नांहि।' बालक सभक दोसर दल राष्ट्रभक्त विद्रोही बनैत अछि। ओ उतारा दैत अछि-- 'हाथी बेचब, घोड़ा बेचब, सिपाही कें खुआयब/ लड़ब नै तं करब की, नाम की हंसायब?' तहिना, इतिहासकार डा. रत्नेश्वर मिश्र अपन पुस्तक मे पूर्णियां जिला मे प्रचलित एक कबड्डी-फकड़ाक चर्च कयने छथि। ओहि मे अबैत छैक-- 'चल कबड्डी आरा/ सुलतानगंज को मारा।' रत्नेश्वर बाबू एहि फकड़ाक सम्बन्ध विद्रोही लोकनिक द्वारा सुलतानगंज(भागलपुर) मे अंग्रेज सैनिक पर विजय प्राप्त करबाक संग जोड़ैत बाबू कुंवर सिंहक सहायता लेल आरा दिस प्रस्थान करबाक आह्वान संग जोड़लनि अछि। एहि सं हम सब बूझि सकै छी जे एहि ठामक प्रजाक स्टैन्ड राजा-महाराजाक स्टैन्ड सं कोना भिन्न छल।
             चन्दा झा कें मैथिलीक आधुनिक साहित्यक प्रवर्तक कहल जाइत छनि। स्वतंत्रता संग्रामक संदर्भ लैत जं देखी तं चन्दा झा अपना युगक असगर कवि छला जे एहू विषय पर लिखबाक साहस केलनि। हुनकर प्रसिद्ध पद सब गोटे जनैत छी जे
             न्यायक भवन कचहरी नाम
             सब अन्याय भरल तेहि ठाम
             सत्य वचन बिरले जन भाख
             सब मन धनक हरण अभिलाख
                     ई अंग्रेजक न्यायव्यवस्थाक यथातथ्य वर्णन अछि, जखन कि संभ्रान्त लोकक नजरि मे अंग्रेज एक न्यायप्रिय जाति होइ छल। ओ लिखलनि- 'गैया जगतक मैया हे भोला, कटय कसैया हाथ/ हाकिम भेल निरदैया हे भोला, कतय लगायब माथ?' ई हाकिम लोकनि अंग्रेज सरकारक अमला छला, जे भ्रष्टाचार मे आ बदला लेबाक कार्रवाइ मे आकंठ मग्न छला। मुदा इहो मोन रखबाक चाही जे हुनकर एहन कविता सब हुनकर पोथा मे बन्न रहल आ हुनका जिबैत जी प्रकाशित नहि भेल छल। अपन हिन्दी कविता मे तं ओ एहू सं आगू धरि बढ़ला, मुदा ओहो सब आइयो धरि अप्रकाशित अछि। हुनकर सीमा छलनि जे ओ दरभंगाराजक चाकर छला आ दरभंगाराज अंग्रेज सरकारक। मैथिलीक मुख्यधाराक काव्यपरिदृश्य मे हमरा लोकनि सब सं आगू धरि छेदी झा द्विजवर कें जाइत देखैत छियनि जे 1923 मे 'कोइली दूती' प्रकाशित करौने छला।  तकर दंडस्वरूप अंग्रेज सरकार जे हुनकर दशा केलकनि से एक भिन्न प्रसंग थिक, मुदा सब सहैतो सब सं आगू धरि बढ़ला वैह। 'कोइली दूती' मे हरिपुर इलाका, जतय अंग्रेज कोठीपति सभक बास छल, के वर्णन करैत द्विजवर लिखै छथि--
             उजर उजर बक बसइछ बड़ बद
             लगहि दछिन खलपति हे कोइलिया।
             तकरा सड़क पर धरब चरण नहि
             नहि तं होयत दुरगति हे कोइलिया।।
                        बीच मे मोन पाड़ि दी, ई 1923 ईस्वीक लिखल पांती छी जखन खास-खास स्थलक लेल कानून रहैक जे इंडियन्स एंड डाग्स आर नाट एलाउड। एम्हर खून खौलैत छनि एहि युवा कविक--
             कियो तिय करथि प्रसव नहि वीरपुत्र
             ओहि देश ओहि पुर प्रान्त हे कोइलिया।
             जनिका सं ओहि खलपतिक हृदयमद
             होइन्ह सकलविधि शान्त हे कोइलिया।।
                       द्विजवर कें हम सब सं आगू बढ़ल कवि एहि लेल कहैत छियनि जे अंग्रेजक बारे मे जे रेखा चंदा झा घीचि देलनि-- विचारो बाबू, राजा है अंगरेज/ चलो ऐन ओ न्याय-धरम से, करो मिजाज न तेज/ कितना अन्यायी को दीन्हों कालापानी भेज/ रक्षा-दक्षा पुलिस खड़ी है, सदा रखो परहेज।' -- यैह मानू मिथिलाक संभ्रान्त कवि-समाजक सीमारेखा भ' गेल। मैथिल महासभाक नीति-निर्देशक सिद्धान्त सब मे पहिले नंबर पर छल-- राजभक्ति। एहि राजभक्ति कें बनौने रखैत तत्कालीन मैथिल कवि लोकनि भरि-भरि मोन अपन देशक महानताक गीत गबैत रहला। देश, जकर दूटा अर्थ छल-- पहिल तं मिथिला, दोसर किछु गोटे लेल भारत।
                       आब एक बेर फेर हमरा लोकनि मैथिलीक संतसाहित्य दिस उनटि क' ताकी। किछु गनल-चुनल महात्मा कें भने मैथिली साहित्यक इतिहास मे शामिल क' लेल गेल हो, मुदा कुल्लम राय यैह बनैत अछि जे कर्मकांडी रंग मे रंगल मैथिली लग वैष्णवभक्तिक लेल कोनो स्थापित निकष नहि छलैक। एकर कारण सब पर चर्चा करी तं विषयान्तर होयत। ताहि सं नीक जे संतसाहित्य मे जे स्वतंत्रताक छटपटाहटि व्यक्त भेलैक अछि, तकर किछु आर रंग सब देखाबी। 1857क महाविद्रोहक समय एक आर संतकवि मैथिली मे लिखि रहल छला। मधुरा गामक निवासी रामसिनेही दासक जीवनकाल 1819-1906 छनि। हुनकर अनेको रचना मे अंग्रेजी दासताक प्रति वैह उत्कट घृणा, वैह प्रबल विद्रोह देखाब दैत अछि जकर एक रूप हम सब द्विजवर जीक आरंभिक रचना मे पबैत छी।
                       रामसिनेही दासक एहि गीत कें देखल जाय जाहि मे ने केवल ब्रिटिश राजक अनीति-अत्याचारक वर्णन भेल अछि अपितु दरभंगा महराज पर सेहो शानदार कटाक्ष कयल गेल अछि--
        सीतापति रामचंद्र कोसल रघुराई।।
        विप्र वेद धेनु संत दुखित सकल जीव जंत
        मैथिल नृप ज्ञानवंत विपति-घटा छाई।।
        ब्रिटिश राज करत पाप जनगण बीच बढ्यो दाप
        आबि आब हरहु ताप सत्वर सुखदाई।।
        सबल सुअन भयो मंद देश को दय फटक फंद
        मुंह कान करयो बंद गोरा कटकाई।।
        कहत रामसिनेही दास मारहु खल श्रीनिवास
        हरहु त्रास एक आस चरण केर सांई।।
                     ध्यान राखल जाय जे यैह ओ समय छल जखन मिथिला मे आ मैथिली साहित्य मे रामभक्तिक प्रचलन आरंभ भेल छल। मोहन भारद्वाज अपन एक लेख मे ओहि परिस्थिति सभक व्यापक अध्ययन प्रस्तुत कयने छथि। जमींदार लोकनि तं अपन शोषणमूलक सत्ता कें अनामति रखबाक लेल ठाकुरवाड़ीक स्थापना कयने रहथि, मुदा संत लोकनि रामभक्ति कें अपन सर्वस्व किएक बनाओल? अंग्रेजक अन्यायी शासन अभेद्य आ अच्छेद्य छल। के एकर अंत करितथि? संत लोकनिक तं अपन सीमा होइत छनि। हुनका सब सं स्फुरणा आ प्रेरणा ग्रहण क' सोच तं बदलत समाजक, क्रान्ति तं करता युवा लोकनि, मुदा अपने ओ तं सबटा निवेदन भगवान रामे सं करथिन। अहां देखि सकैत छी जे मैथिली साहित्यक ऐतिहासिक विकास कें रेखांकित करबाक लेल ई कविता कतेक बेसी महत्वपूर्ण अछि। मुदा, बहुत खेद होयत ई देखि क' जे एकर चर्चा कतहु नहि, कोनो संकलन मे ई शामिल नहि, एतय धरि जे स्वतंत्रते पर एकाग्र कवितासंग्रह 'स्वातंत्र्य-स्वर' (संपादक चंद्रनाथ मिश्र अमर) मे सेहो नहि।
                     अपन एक दोसर कविता मे रामसिनेही कहैत छथि--
         राम कहैत रहू, राम कहैत रहू, राम कहैत रहू भाई
         गोरा म्लेच्छ विधर्मी बढ़लै, चहुंदिस खल समुदाई।
         एहि कलिकाल और किछु साधन चलतै नै चतुराई
         निशिवासर सीतावर सुमिरहु रावणारि रघुराई।।
                      राम कें जे एतय रावणारि कहल गेल छनि, हम  ध्यान दियाब' चाहब जे रामक यैह रूप मैथिली मे रामभक्ति-साहित्यक प्रादुर्भाव के प्रस्थानविंदु थिक। गीतक अंतिम पांती मे तं ओ साफ कहै छथि-- 'से शासन बिनसाबथि श्रीपति अपनहि आबि सहाई।'
                      एक एहन तिमिराच्छन्न समाज मे, जतय राजा स्वयं अन्यायी-अत्याचारीक वशवर्ती बनल हो, आ संभ्रान्त समाज अंग्रेजक यशगान करैत अपन मिथिला देश कें महान घोषित करबा मे अपस्यांत हो, मिथिलाक संत लोकनिक द्वारा अंग्रेजी शासनक कटु निन्दा करब, आ ओकर विनाश लेल आह्वान करब एक पैघ बात थिक। ई विषय जें कि साहित्येतिहास मे उपेक्षित रहल अछि, तें नव-नव दृष्टिक अध्येता लोकनि कें एहि दिस प्रवृत्त हेबाक चाहियनि।

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