युगों का यात्री
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एक जीवनीकार की मुश्किलें
तारानंद वियोगी
देशव्यापी इस लाकडाउन के दौरान, जब सभी प्रकार के सम्मिलन और गोष्ठियों पर रोक थी, वर्चुअल माध्यमों ने एक नये विकल्प की ओर हिन्दी संसार का ध्यान आकृष्ट किया। यह सोशल साइट के पेज पर लेखक का लाइव आना था। दुनिया भर के पाठक यहां अपने लेखक को न केवल देख और सुन सकते थे, बल्कि उनसे सवाल भी कर सकते थे। यह दौर अभी जारी है और उम्मीद की जाती है कि साहित्य के सिकुड़ते प्रसार-माध्यमों के बीच यह नया माध्यम अपनी एक स्थायी जरूरत, स्थायी जगह बना लेगा।
बात लेकिन 'युगों का यात्री' पर करनी है, जिसकी रचना-प्रक्रिया पर चर्चा करने के लिए मुझे भी मेरे प्रकाशक, राजकमल प्रकाशन ने अपने पेज पर आमंत्रित किया। उस सीमित समय के भीतर जितनी बातें की जा सकती थीं, मैंने कीं। लेकिन अपने पाठकों की विविध जिज्ञासाओं ने इस ओर मेरा ध्यान आकृ्ष्ट किया है कि इस बारे में मुझे और भी बातें करनी चाहिए।
मेरे बहुत सारे पाठक इस बात पर आश्चर्य करते हैं कि तीन वर्ष के भीतर इस तरह की कोई किताब कैसे लिखी जा सकती है, जिसमें नागार्जुन का अपना बीहड़ जीवन तो खैर है ही, अपने देश भारत का पिछले सौ वर्षों का पूरा इतिहास है, आजादी के पहले और उसके बाद का। फिर स्वतंत्रता-संग्राम की अंतर्वर्ती धाराएं हैं, किसान आन्दोलन, सशस्त्र भूमिगत आन्दोलन, जमींदारी उन्मूलन के लिए किया गया दीर्घकालीन जनान्दोलन, सारा कुछ है। यह सब इसलिए है कि नागार्जुन इन सब में शामिल रहे थे। फिर मैथिल समाज और हिन्दीपट्टी का पूरा समाजशास्त्र है, वे तमाम उद्यम जिन्हें हमारी भूमि के महामना पुरखों ने शुरू किये मगर जो बाद को घोर अगति में जाकर निमज्जित हुए। बिहार का कम्युनिस्ट आन्दोलन, प्रगतिशील लेखक संघ और इसके समानधर्मा दूसरे लेखक-संघों की गति-कुगति। उन दुर्गम यात्राओं का वृत्तान्त जो नागार्जुन ने अपने शुद्ध यायावरी तेवर में किये। उन हजारों लोगों के अनुभव, जो नागार्जुन के संपर्क-सामीप्य में रहे। फिर उनका साहित्य, जिसे अपने कच्चे माल के लिए हमेशा नागार्जुन के जीवनानुभव और आत्मसंघर्ष पर निर्भर रहना पड़ता था। कोई रचना उन्होंने कब लिखी, उसके पीछे घटना क्या थी, सरकार उस बारे में क्या सोचती थी और खुद नागार्जुन सरकार से कहां जाकर असहमत होते थे। इस तरह की और भी न जाने कितनी चीजें जो लिखते समय तो आसानी से लिख दी गयीं मगर अब अपने लिखे जाने का हिसाब मांगती हैं। अशोक वाजपेयी ने इस पर यह टिप्पणी की है कि इस किताब से उनके साहित्य को भी कहीं बेहतर समझा जा सकेगा। जबकि मुझे मालूम था कि मैं उनके साहित्य पर किताब लिखने नहीं बैठा हूं, मेरा क्षेत्र सीमित है। मुझे तो केवल उनके जीवन पर बात करनी है। लेकिन, आप ही बताएं कि उस लेखक का आप क्या कर सकते हैं जिसके समूचे साहित्य में उसका जीवनानुभव घुसा हुआ हो! यह नागार्जुन थे, जिन्हें ढलती उमर में जब यह पूछा गया था कि क्या आप अपनी आत्मकथा लिखने की योजना रखते हैं, तो उन्होंने मानो नोटिस लेने से इनकार करते हुए जवाब दिया था कि मेरी सारी कविताओं को मिला दो, मेरी आत्मकथा हो जाएगी। अपनी रचना को लेकर इतना भरोसा रखनेवाला लेखक विरल होता है, जबकि दूसरा पक्ष यह भी उनके साथ था कि जिस किसी ने जब भी मांगा, कविता लिखी और वहीं उसको दे दी, छपी तो छपी वरना गयी। जाने कितनी बार की उनकी यात्राओं में उनकी कविता की डायरियां खो जाती थीं। उनके बारे में यह जुमला बहुत ही मशहूर था कि 'बाबा कविता बोते और खोते चलते हैं।'
तो, लोग प्रश्न करते हैं कि तीन ही वर्ष में आपने यह सब इतना कुछ कैसे कर लिया, जबकि आप पूर्णकालिक लेखक हैं भी नहीं। अपने पाठकों के इस प्रश्न का मैं सम्मान करता हूं और मानता हूं कि एक सार्थक रचना कई प्रकार के विस्मय रचती है। सच पूछें तो तीन वर्ष की अवधि केवल वह समय है जो मैंने इसे लिखने में लगाया। इसकी तैयारी के लिए जो समय लगा, निश्चय ही वह इसमें शामिल नहीं है। और, सच तो यह भी है कि उस तमाम लगे समय को आप वर्ष के मात्रक से तोल भी नहीं सकते। उसमें तो पूरा जीवन लगा होता है। कई बार जीवन की त्वरा वर्ष के मानक को ध्वस्त कर जाती है, सो अलग। साफ कहूं कि मेरी राय में लेखकों को सिर्फ उन्हीं विषयों पर अपनी किताब लिखनी चाहिए जो जीवन भर का उनका साथी रहा हो। ऊपरी तौर पर लगता है कि भइ, तब तो लेखक के पास लिखने को कुछ भी नहीं रहेगा। आखिर ऐसे विषय हो भी कितने सकते हैं जिनसे लेखक का जीवन भर का साथ रहा हो! लेकिन वास्तविक सच देखें तो ऐसा कतई नहीं है। एक संवेदनशील भाषिक प्राणी को आप इतना कम करके भी न आंके। और ज्यादा न भी हो तो कम-से-कम सौ चीजें तो हर लेखक के खाते में जरूर आएंगी, जिनसे उसकी जनम भर की संगत रहती है। 'जनम भर की संगत' कहना भी कोई निरापद काम नहीं है। मेरा मतलब है, इतनी पुरानी कि इस बीच जीवन में कई-कई मोड़ आ गये हों। जब आप पुरानी संगत के विषयों पर लिखते हैं तो सारा कुछ इस आश्वस्ति के साथ खुलता है कि जैसे उसमें लेखक का 'स्व' बसा हो। ऐसे में जो आन्तरिकता लेखक को, उन लेखन के दिनों में पूरी तरह डुबोए रहती है, वही चीजें जब किताब से होकर पाठक के पास पहुंचती हैं तो उसे भी निमज्जित किये बगैर नहीं रहतीं। पुरानी कहाबत है कि जो दिल से आता है, वही दिल तक जाता है। जिन रचनाओं में हमें प्रबल पठनीयता का गुण मिलता है, ध्यान दें तो इसकी वजह केवल शिल्प की जादूगरी भर नहीं होती। अंदर बहुत सारी चीजें अन्तर्भुक्त रहती हैं। वहां 'जनम भर की संगत' जैसी चीज की गंध भी होती है। दिल से निकले होने की मन्द्र मधुर ध्वनियां वहां तैरती मिलती हैं।
लेखक को अपने गहन जीवनानुभव के विषयों पर ही लिखना चाहिए, मगर अधिकतर लेखक यह नहीं कर पाते, क्योंकि साहित्य की तत्कालीन रूढ़ियां और उसका बाजार उसे ऐसा करने की सुविधा नहीं देते। कुछ विधाएं अधिक सम्मानदायक मानी जाती हैं, कुछ का बाजार चमकीला होता है, कुछ तो तात्कालिकता की मांग तक से अनुप्रेरित होकर लिखी गयी रहती हैं। बाजार, पुरस्कार और लोकप्रियता की ओर लेखक साकांक्ष हो तो यह मुश्किल है कि वह अपने जीवनानुभव पर एकाग्र रह पाएगा। इसके कई कारण होते हैं। हमारे कई अनुभव ऐसे हो सकते हैं जिनके लिए साहित्य के पास कोई लोकप्रिय विधा नहीं होती। फिर यह भी संभव है कि बाजार के पास, या 'समकाल' के पास ऐसी किसी रचना के लिए कोई परवाह ही न हो। यह गहन निस्संगता की स्थिति भी हो सकती है। पुराने जमाने के कवि स्वान्त:सुखाय की बात करते थे। लेकिन यह बात किसी भी जमाने के लिए बराबर की सच हो सकती है, जिसका अर्थ हमेशा सामाजिकता से, सामाजिक संदर्भों से कटना ही नहीं होता। यह भी हो सकता है कि लेखक ने कोई ऐसी रचना लिखी जो उस जमाने के फैशन में शामिल नहीं थी, उसका कोई सहृदय सामाजिक वर्ग तक नहीं था। कई बार हमें यह देखकर चकित होना पड़ता है कि भरपूर सामाजिकता से पगी कोई रचना किसी ऐसे लेखक ने लिखी जो स्वान्त:सुखाय लिख रहा था। यह और कुछ नहीं, अपने काल की रूढ़ियों, गतानुगतिकताओं का अतिक्रमण है। फिर यह भी है कि हर जीवनानुभव अपने लिए अलग-अलग शैली, अलग-अलग अनुशासन की मांग रखता है, और हमेशा यह जरूरी नही कि बाजार के पास उसके लिए जगह हो। या अगर हो भी तो चटकीला हो, प्रतिष्ठादायक हो। तो, स्थिति यह बनती है अभिव्यक्ति की आंतरिक जरूरत बाजार की उपलब्धताओं पर निर्भर नहीं रह सकती।
जैसे, जीवनी विधा को ही लें। इस विधा में काम तो कई उच्च कोटि के हुए हैं, एक किताब के तौर पर उन रचनाओं की अपनी ख्याति भी है, बाजार भी। लेकिन यह सब ऐकान्तिक रूप से उस किताब की उपलब्धियां हैं, विधा की नहीं। वरना यह क्योंकर होता कि जिस विधा में 'कलम का सिपाही' और 'आवारा मसीहा' जैसी कृतियां लिखी गयीं, उस जीवनी-लेखन विधा को क्रियेटिव लेखन का दरजा तक प्राप्त नहीं है। उपन्यास लिखने की तुलना में इसे एक दोयम लेखन की हैसियत हासिल है। फिर यह भी है कि जीवनी-लेखन और प्रकाशन की कोई व्यस्थित परंपरा भी नहीं है, न बाजार। राजनेताओं और सामाजिक सुधारकों, धार्मिक झंडाबरदारों की जीवनी का अपना पाठक-वर्ग है, जरूरी नहीं कि वह साहित्य का पाठक हो। लेकिन, साहित्यकारों और दूसरी कलाविधाओं के वरिष्ठों की जीवनियां लिखने की परंपरा क्यों नहीं है? पर, यह सारे सवाल अपनी जगह हैं। लेखक की अपने विषय के साथ अंतरंगता इन सभी झंझटों से बचाकर उसे आगे निकाल ले जाती है। यह उसकी चिन्ता की वजह नहीं बनता कि उसके लिखे को कौन-सा दरजा मिलने वाला है। वहां रचना की आंतरिक जरूरत ही मुख्य होती है। वह रचना, जो उसके जीवनानुभव से निकलकर आती है।
नागार्जुन से मेरी पहली मुलाकात, बहुत शुरूआती दिनों में, जब मैं मुश्किल से सतरह-अठारह का रहा होऊंगा, हुई थी। उनसे उस पहली मुलाकात में हुई बातचीत का उल्लेख मैंने 'तुमि चिर सारथि' में किया है कि कैसे जब मैंने उनसे कहा कि बाबा, आपने इतना समय, इतना मान मुझे दिया यह मेरा सौभाग्य है, तो उन्होंने तपाक से कहा था कि अरे, सौभाग्य तो हमेशा फिफ्टी-फिफ्टी होता है। उन दिनों वह अपनी प्रसिद्धि के शिखर पर थे, लेकिन एक अनजान नौजवान से मिलने की यह गर्मजोशी उनमें थी, जो निहायत विशेष थी। जाहिर है, ऐसे लोगों को आप भूल नहीं सकते। वह बार-बार आपकी स्मृति में झांकते रहेंगे। हद यह थी कि इस स्मृति को उपस्थिति में बदल देने की पहल भी वही अपनी ओर से शुरू कर देते थे--पत्रों से, बुलावा देकर, खुद उपस्थित होकर। जबतक जिये, कमोबेश मैं उनकी संगत में बना रहा। यह इतना गहन था कि उनके निधन से बात खत्म नहीं हो सकती थी। अनेक रूपों में वह मेरे जीवन में रहे चले आए। 'तुमि चिर सारथि' उनके निधन पर लिखी गयी थी। और अब जबकि पचपन पार हूं, कई घाट-कुघाट भटक आया हूं उनकी संगत बरकरार रखते, अब जब उनकी जीवनी पर काम करता हूं तो स्वाभाविक है कि उनका व्यक्तित्व, या और भी तमाम बातें आन्तरिकता से मुखरित होंगी। उसमें मेरे जीवनानुभव को शामिल होने से आप नहीं रोक सकते।
मेरे सामने सबसे बड़ा सवाल था कि इस किताब की रूपरेखा क्या होगी! नागार्जुन के जीने का, और लिखने का भी, ढंग ऐसा था कि वह किसी एक व्यक्ति की तरह लगते ही नहीं थे। खुद कहते थे कि 'व्यक्ति तो जरूर हूं वरना 'व्यक्त' कैसे होता! किसी भी हाल में लेकिन इकाई नहीं हूं, सामूहिक मन की दहाई, सैकड़ा, हजार... जो समझ लो।' वह उन लेखकों में से थे जिनके जीवन में उनके काल का इतिहास शामिल रहता है, और वह खुद इतिहास में। कमलेश्वर ने बड़ा अच्छा तो लिखा है कि आप भारत-भूमि पर कहीं भी चले जाएं, कोई-न-कोई आदमी आपको ऐसा दिख जाएगा जो ठीक-ठीक नागार्जुन जैसा लगेगा, जबकि मुक्तिबोध को छोड़कर और कोई दूसरा हिन्दी लेखक ऐसा नहीं हुआ जो आम जन की प्रतिच्छवि बनकर बराबर इस तरह खड़ा जाए। लेकिन, प्रतिभा और उद्यम आदमी को भीड़ से अलग करते चलते हैं। इसी की वजह से तो इतिहास में शामिल होना भी हो पाता है। जाहिर है, ऐसे आदमी की जब आप जीवन-कथा लिखेंगे तो उसकी वैयक्तिकता से बाहर जाकर दूर-दूर तक के इलाके आपको खंगालने होंगे। इधर वैयक्तिकता जो होगी, वह भी वैयक्तिक-सी नहीं दिखेगी। लेकिन, विषय के साथ जीवनीकार की अंतरंगता हो तो वह जहाज-भर की सारी रूई धुनने को तैयार हो जाता है।
एक छोटा-सा उदाहरण दूं तो बात ज्यादा साफ होगी। नागार्जुन से जब लोग पूछते थे कि राजनीति की ओर आपका झुकाव कैसे हुआ, जबकि आप तो बौद्धमठ में निवास करने वाले एक भिक्षु थे, तो वह स्वामी सहजानंद का नाम लेते हुए उन्हें अपना राजनीतिक गुरु बताते थे, और कहते थे कि श्रीलंका से लौटकर भिक्षुवेश में ही उन्होंने स्वामी जी द्वारा आयोजित एक महीने तक चलनेवाले 'समर स्कूल आफ पालिटिक्स' में भाग लिया था, उसमें देश भर के तपे तपाए समाजवादी और साम्यवादी क्लास लेते थे। बस, इतना ही बताते थे। इस स्कूल के बारे में इससे ज्यादा न कहीं कुछ उन्होंने लिखा, या किसी को बताया। वह स्वतंत्रता संग्राम का समय था। सहजानंद उग्र वामपंथ की राजनीति करते थे। वे उन दिनों किसान सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, और बिहार का किसान आन्दोलन निर्णायक रूप से सक्रिय और उग्र हो रहा था। समूचे स्वतंत्रता संग्राम की या फिर किसान आन्दोलन की ही बात की जाए तो महीने भर चले इस स्कूल का कोई खास महत्व नहीं था। ऐसे स्कूल तो उन दिनों अक्सर चलते रहते थे, क्योंकि उस जमाने के अग्रणी नेताओं की यह समझ थी कि जनता को राजनीतिक रूप से शिक्षित और सचेत करने के लिए ऐसे स्कूल चलते रहने चाहिए। इसमें पर्याप्त जन-सहयोग मिलता था और यहां तक कि उन दिनों की कांग्रेस सरकार(1937) का भी सपोर्ट रहता था, इसलिए ऐसे स्कूल तो अक्सर यत्र-तत्र चलते रहते थे। इतने विशाल किसान आन्दोलन में, और उससे भी विशाल स्वतंत्रता संग्राम में भला ऐसे किसी एक स्कूल की क्या अहमियत हो सकती थी? इसलिए इतिहास की किताबों में, यहां तक कि राज्य के स्वतंत्रता संग्राम में बिहार की भागीदारी पर कई वोल्यूम में लिखे गये इतिहास-पुस्तकों में भी, इस स्कूल के बारे में कुछ भी लिखा हुआ नहीं मिलता था। लेकिन, एक जीवनीकार की समस्या देखिये कि जिस स्कूल की कोई खास अहमियत नहीं मानी गयी, उसके लिए वही सबसे बड़ी घटना है क्योंकि उसके चरितनायक के राजनीतिक विचार वहीं निर्मित होते हैं। हर कोई जानता है कि नागार्जुन न केवल एक स्पष्ट और सचेत राजनीतिक नजरिया रखनेवाले लेखक थे, बल्कि पार्टी की सदस्यता लेकर, उसके अधिकारी बनकर उन्होंने सक्रिय राजनीति भी की थी। इस अनुमान के आधार पर कि क्रान्तिकारी राजनीति के प्रति ब्रिटिश सरकार का रवैया सख्त था तो जरूर ही उसने इन गतिविधियों के ऊपर अपने जासूस लगाये होंगे, मैं सरकारी अभिलेखागारों में सीआईडी रिपोर्ट्स की पुरानी फाइलें खंगालता था। अनुमान सच था। सहजानंद की हर गतिविधि पर खुफिया विभाग की नजर थी। और, जहां तक इस स्कूल का सवाल है, इसके बारे में तो खुफिया के डीआईजी की बीस पृष्ठों की भेजी एक रिपोर्ट मुझे मिली, जिसमें यहां तक अंकित था कि किस दिन के किस क्लास में किस आदमी ने क्या पढ़ाया, क्या आपत्तिजनक, विद्रोहात्मक, भड़कानेवाली बातें कीं। हां यह जरूर था कि कोर कमिटी की जो गुप्त बैठकें हर रोज होती थीं, वहां खुफिया का सूत्र बाधित था। तो, यह सब करना होता है।
किसान सभा में जब नागार्जुन कार्यकर्ता नियुक्त हुए, उन्हें स्वामी जी ने उस चंपारण में काम बढ़ाने भेजा जो गांधीजी का 'बैनामा' जिला कहलाता था। यह चंपारण सत्याग्रह का असर था कि गांधी के खिलाफ वहां कोई भी कुछ सुनना नहीं चाहता था, जबकि सहजानंद की पूरी राजनीति गांधी के खिलाफ थी। खिलाफ तो असल में वह जमीन्दारों के थी, लेकिन गांधी का इस मुद्दे पर लगातार चुप रहना उन्हें भी इस जद में ले आता था। इसे नागार्जुन की संगठन-क्षमता के प्रमाण के तौर पर देखा जाना चाहिए कि सहजानंद ने उस कठिन जगह पर काम करने भेजा जहां लोग समाजवादियों की आमसभा करने के लिए अपनी जमीन तक देने के लिए तैयार नहीं होते थे। वहां नागार्जुन के साथ जो टीम थी, वह बिलकुल वही टीम थी जिन्होंने भगतसिंह और चन्द्रशेखर आजाद, बैकुंठ शुक्ल के साथ काम किया था। बैकुंठ के भाई केदारमणि तो तमाम समय नागार्जुन के साथ बने रहे, यहां तक कि भागलपुर जेल में भी दोनों साथ ही बंद थे।
अब लेकिन मुश्किल यह कि इन सब चीजों के बारे में नागार्जुन का कहा हुआ या लिखा हुआ कुछ खास नहीं मिलता था। सहजानंद ने अपनी आत्मकथा में चंपारण की चुनौतियों और उसके निराकरण का वर्णन तो खूब किया है, यहां तक कि अपने अग्रगामी कार्यकर्ता दल की बड़ी तारीफ की है, लेकिन नागार्जुन का कहीं नाम नहीं लिया है, किसी का भी नहीं लिया है। इधर,नागार्जुन की एक प्रवृत्ति हम यह देखते हैं कि अपने जिन जीवनानुभवों को उन्होंने लेखन का विषय बनाया, उसपर या तो उपन्यास लिखे हैं या फिर कविताएं। इन सृजनात्मक विधाओं की अपनी सीमा है कि उन्हें आप निर्द्वन्द्व होकर इतिहास की तरह उपयोग नहीं कर सकते। कदम-कदम पर यथार्थ के बीच कल्पना के मिश्रित रहने का खतरा रहता है। और कुछ न करें तो नाम-गाम ही बदल देंगे। ऐसे में कोई जीवनीकार क्या करे? आसान रास्ता तो यही है कि ऐसे मामलों को छोड़ ही दिया जाए, जैसा कि ज्यादातर लोग करते भी हैं। मैंने लेकिन कुछ आगे बढ़ने का फैसला किया। इस बीच आकर क्या हुआ है कि बिहार सरकार के अभिलेखागार ने किसान आन्दोलन से संबंधित मूल दस्तावेजों को लेकर कुछ किताबें प्रकाशित की हैं, बाकी चीजें, यदि अध्येता चाहे तो मूल रूप में या डिजीटल रूप में उन्हें देखने की सुविधा वे देते है। उन दस्तावेजों को जब मैंने देखा, पाया कि सहजानंद की प्राय: हर मीटिंग पर खुफिया की निगरानी थी, और बराबर ही उसकी भेजी रिपोर्ट पाई जा सकती है। पाया कि उन सभाओं में जिन खतरनाक लोगों को उन्होंने चिह्नित किया हुआ होता था, उनमें एक भिक्षु नागार्जुन भी होते थे। इस तरह तमाम चीजों को मिलाएं तो एक संगति-सी बनती जाती थी।
नागार्जुन ने जो अपना प्रसिद्ध उपन्यास 'बलचनमा' लिखा, उसमें उनके किसान आन्दोलन दौर के जीवनानुभव वर्णित हैं। नागार्जुन के उपन्यासों में कल्पना और यथार्थ का संतुलन बिलकुल अलग ढंग का होता था। बहुत जरूरी हो तभी वह कल्पना का सहारा लेते वरना यथार्थ ही इतने भरपूर और सघन थे कि कल्पना की जरूरत ही नहीं पड़ती थी। लेकिन मुश्किल यह कि वहां उन्होंने लोगों और जगहों और अवसरों और माध्यमों के नाम बदल दिये होते थे। जैसा कि मैंने कहा, इनका उपयोग आप इतिहास की तरह निर्द्वन्द्व नहीं कर सकते थे। पर, जब आप 'बलचनमा' और 'मेरा जीवनसंघर्ष' को साथ मिलाकर पढ़ते हैं तो तमाम औपन्यासिकता पर से परदा उठ जाता है। उन दिनों 'जनता' साप्ताहिक निकलती थी, जिसके संपादक रामवृक्ष बेनीपुरी थे। उपन्यास में इसका नाम 'क्रान्ति' दिया गया है। यह किसान आन्दोलन का लगभग मुखपत्र था। बहुत सारे संदर्भ दिये हैं कि वहां ऐसा छपा, उसने ऐसा लिखा आदि, तो इसका फैसला आप 'जनता' के उन अंकों को देखकर कर सकते हैं।
लगभग यही स्थिति हम उनके भिक्षु-जीवन के दिनों का पाते हैं, जहां के अनुभवों पर तो उनका उपन्यास भी नहीं आया। लंका के दिनों के बारे में उन्होंने अपने कुछ मित्रों से बात की थी। कुछ बातें मुझसे की थीं। मेरा यह निर्णय शुरू से ही था कि मौखिक बातों, घटनाओं का उपयोग यहां न करूंगा, केवल मुद्रित, तथ्यात्मक साक्ष्यों को ही आधार बनाया जाएगा। ऐसे में बहुत सारी बातें ऐसी थीं जो उन्होंने मुझे या मित्रों को बताई तो जरूर थीं लेकिन उसका कोई लिखित साक्ष्य मिलना मुश्किल था। वह सब कहीं लिखा, छपा हुआ नहीं मिलता था। इशारे तक में नहीं। सात साल पहले उसी मठ में राहुल सांकृत्यायन रहे थे। नायकपाद सहित सारे के सारे आचार्य वही थे जो तब थे, इसका पता विद्यालंकार परिवेण के इतिहास और परंपराओं को देखने से मिलता है। राहुल जी ने 'मेरी जीवन-यात्रा' में अपने उन दिनों का विस्तृत विवरण दिया है। उससे एक अन्विति बनती है, और चीजें और स्थितियां दृश्यात्मक होती हैं। इसका मैंने विवेकपूर्वक उपयोग किया। यानी कि उनकी बताई जिन बातों की पुष्टि मठ की परंपरा से या राहुल जी की जीवनयात्रा से होती हो तो उसे ग्रहण किया, वरना अपने अनुभव में संचित रखा। पर, गहरी आन्तरिकता से लिखी रचना का एक वैशिष्ट्य यह भी होता है कि लेखक ने जिन बातों को अपने अनुभव में संचित और सीमित कर लिया होता है, उसकी खुशबू भी लेखन में व्याप्त हो जाने से बच नहीं पाती।
ठीक यही समस्या वहां आती है जब द्वितीय विश्वयुद्ध के ऐन शुरुआती दिनों वह तीसरी बार जेल जाते हैं। वह ट्रेन से जा रहे थे। साधू भेस में। सामान नीचे सीट के नीचे बोरों में भरा। वह क्या था तो एक पैम्फलेट के बंडल, 'न एक पाई न एक भाई'। यह सुभाष बोस का दिया नारा था, ब्रिटिश सरकार जो द्वितीय विश्वयुद्ध के लाम पर भेजने के लिए बड़ी संख्या में सिपाहियों की बहाली कर रही थी, और घर-घर से युद्ध फंड के लिए लोगों से दान और चंदा वसूल रही थी, यह उसके विरुद्ध था। नागार्जुन उन दिनों सुभाष बोस के साथ, उनके समर्थन में जनजागृति अभियान पर थे कि न किसी घर से कोई भाई सिपाही भरती में भेजा जाए, न एक पैसे का भी चंदा दिया जाए। उन्होंने बताया है कि रास्ते में सर्च हुआ तो भिक्षु के पास बोरे देखकर पुलिस ने पूछा क्या है, तो बताया आलू है, लेकिन सिपाही ने बोरा खोलकर देख लिया और नागार्जुन गिरफ्तार कर लिये गये। उन दिनों के कानूनी प्रावधान क्या थे, विद्रोही साहित्य को प्रतिबंधित करने के लिए खास प्रावधान क्या किये गये थे, जो साहित्य बरामद किया गया उसमें क्या-क्या चीजें थीं, उनकी भाषा, उनका कंटेन्ट, विधा-- बहुत सारे प्रश्न थे, जिनका उत्तर तलाशना था। सरकार के खुफिया विभाग ने सरकार को भेजे अपने प्रतिवेदनों के साथ प्रतिबंधित साहित्य की प्रतियां भी संलग्न की होती थीं। विद्रोह लेकिन तगड़ा था और ऐसा साहित्य भी बहुत सारा था। मुझे पूरी उम्मीद थी कि उस पैम्फलेट की प्रति भी मुझे मिल जाएगी। बहुत सारी चीजें तो मिली, लेकिन वह नहीं मिल पाई। मैं समझता हूं कि यह काम भविष्य के जीवनीकारों के हिस्से रहेगा। जो कुछ प्रतिबंधित चीजें मुझे मिल सकीं उनका विवरण किताब में आया है।
नागार्जुन के जीवन के दो अलग अलग चरण हमें स्पष्ट दिखाई देते हैं। पहले चरण में गति है, जबरदस्त गति है, दूसरे चरण में इसे हम जैसे अचानक घट जाती हुई देखते हैं। अब गति नहीं, स्थिति है। 'युगों का यात्री' के पहले अध्याय को आप ठीक इसी जगह पर आकर खत्म होता हुआ पाएंगे जहां गति रुकती है। लेकिन सब जानते हैं, गति अचानक से स्थिति पर नहीं पहुंचती। वह पहले धीरे-धीरे घटती है। नागार्जुन का लगभग समूचा कथालेखन इसी घटती गति का विन्यास बताता है। इसे आप दूसरे अध्याय में पाएंगे। इसलिए उस अध्याय की शैली भी आप थोड़ी बदली हुई पाएंगे। तीसरे अध्याय में आकर यह शैली बिलकुल ही बदल जाती है। यह दरअसल गति के स्थिति में निमज्जन की कथा है। पहले अध्याय की समाप्ति ठीक उस जगह आकर होती है जब नागार्जुन फैसला करते हैं कि उन्हें घर को साथ लेकर चलना है, शोभाकान्त जी ने इसे उनके 'सद्गृहस्थ' साबित होने की उनकी सदिच्छा का नाम दिया है, जिसमें कि अन्तत: वह सफल नहीं हो पाए। नागार्जुन के जीवन का यह दिलचस्प पहलू है कि उन्हें स्थिति को गति में स्वेच्छानुसार परिवर्तित करते रहने में महारत हासिल था। हजारों लोगों से एक साथ जुड़े रहने का जो उनका पक्ष था वह यही था। स्थिति को गति में परिवर्तित करने की यांत्रिकी। यात्रा और ठहराव साथ-साथ उनके जीवन में चलते रहते थे। चले, फिर कहीं रुक गये, जी भरकर महसूस किया, फिर चले, रुके, फिर चले। जिन्दगी भर उनके जीवन में यही चलता रहा था। ऐसा रुकना भी हुआ कि कई वर्षों तक रुके रह गये, अक्सर तो ऐसा अपने घर में ही हो जाता था। लेकिन यह शुरुआती दिनों में, जब बच्चे छोटे थे। तरौनी, पटना और दिल्ली। बाद के दिनों में तो रुकने के दिनों की आखिरी संख्या निर्धारित कर ली थी, पन्द्रह। बाद में तो ऐसे गिने चुने घर (शहर) ही रह गये जहां मास-दो मास उनका मन रमता था। अब ऐसे आदमी की जो जीवनी होगी वह सपाट, सरल रैखिक नहीं हो सकती। उसे सारे कुछ को साथ समेटकर चलना होगा, यदि चरितनायक को और उसके समय को मूर्त करना हो तो। लेकिन, यह हरेक जीवनीकार की चुनौती होती है कि वह इतनी सारी अक्ल लगाने के बावजूद अपनी एक शैली निर्मित कर सके, जिससे रचना अन्तत: पढ़ी जा सकने के लायक बची रह सके। वरना, बातें तो वहां आप तमाम लाकर भर देंगे लेकिन वह भराव ऐसा बियावान रच देगा कि किताब ही पढ़ने लायक नहीं बचेगी!
घटनाबहुल दिनों के आख्यान की जो शैली होगी, ठीक वही शैली अल्प घटना, किंतु प्रबल 'स्थिति' के दिनों के लिए नहीं हो सकती। यह एक आसान-सी बात है जिसे हर कोई समझ सकता है। इस बात को कोई और कहे, इससे ज्यादा अच्छी तरह स्वयं नागार्जुन की कविताएं बयान करती हैं। इतनी सारी शैलियां उनके यहां हैं कि चकित करती हैं। वह खुद कहते थे कि कन्टेन्ट अगर सच्चा हो तो अपने लिए अपनी शैली लेकर ही प्रकट होता है, लेखक में तो बस उसे पकड़ पाने का हुनर होना चाहिए। तीसरे अध्याय में आप देखेंगे कि जहां घटना-बहुलता है वहां तो वृत्तान्त की शैली है, यद्यपि कि वह भी ठीक-ठीक पहले अध्याय की तरह नहीं, बल्कि विश्लेषण और पृष्ठभूमि-विवरण के तत्व भी वहां मिले-जुले हैं। लेकिन, जहां अल्पता है वहां की शैली बिलकुल ही बदल गयी है। अपने कुछ गुणों और दुर्गुणों के कारण नागार्जुन खासे चर्चित बने रहते थे। जैसे कि उनका क्रोध या ताजा से ताजा नयी पीढ़ी के साथ उनकी मौजमस्ती, या फिर न नहाने, न मुंह धोने, भोजन के मामले में चटोरेपन आदि-आदि। यहां आकर आप देखेंगे कि एक-एक मामले को उठाकर उसपर लोगों की राय, उनका कथन, उनकी आदतों आदि का मानो कोलाज तैयार कर दिया गया है। इस तरह कंटेन्ट ने खुद अपने लिए शैली इजाद कर ली है।
नागार्जुन में एक बड़ी खूबी यह थी कि नितांत घटनाविहीन दिनों को भी घटनाबहुल बना लेने के सौ गुर उन्हें मालूम थे। वह लोगों से घिरे रहते। अलग-अलग जगहों की यात्रा करते रहते। अलग-अलग शैलियों में कविताएं लिखते रहते। उनसे जुड़ा हर आदमी अपने आपमें एक इतिहास होता था। इसके लिए यह जरूरी नहीं कि वह कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति ही हो। वह एक साधारण रिक्शेवाला, कोई किसान, कोई बेरोजगार युवक हो सकता था। सामने वाले की महत्ता नहीं, उसे महत्वपूर्ण बनाती थी खुद नागार्जुन की स्मृति, जहां पहली मुलाकात से लेकर पिछली मुलाकात तक के सारे किस्से जीवन्त और मूर्त बने रहते थे। साधारण की प्रतिष्ठा का जो रूपक हमें नागार्जुन के जीवन और साहित्य में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। नागार्जुन की यायावरी प्रसिद्ध थी। कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक जो भी उनकी पसंदीदा जगहें थीं, और ऐसी जगह हजारों में थी, वहां कम-से-कम दो बार तो वह जरूर ही हो आए थे। लेकिन, आश्चर्य होता है यह देखकर कि स्थानवाची कविताएं नागार्जुन के यहां बहुत ही कम हैं, और व्यक्तिवाची कविताएं तमाम भरी पड़ी है। यह एक महत्वपूर्ण सूत्र देता है कि भूगोल का महत्व उनके लिए जीवंत मनुष्य, और पर्यावरण में मनुष्य के तमाम साथियों से मिलकर ही बनता है-- गाछ-वृक्ष, पशु-पक्षी, यहां तक कि मादा सूअर, नेवला, बच्चा चिनार-- इन तमाम को नागार्जुन की कविता में मुकम्मल नागरिकता हासिल थी। स्थानों का महत्व उनके लिए अतीत, या उसके किसी माहात्म्य को लेकर नहीं, वहां रहनेवाले लोगों को लेकर था, जिनसे उनका जुड़ाव गहन था, उन लोगों तक से जो उन्हें पहचानते तक न थे जबकि नागार्जुन बखूबी उन्हें जानते थे। उनके पुराने मित्र केदारनाथ अग्रवाल ने कहीं लिखा है कि बांदा जब वह जाते थे, शहर के उन नितांत साधारण, मलिन मुहल्लों में भी पहुंचते, यहां तक कि ऐसी जगहों पर जहां स्वयं केदार जी भी कभी नहीं गये होते थे। और, यह भी नहीं कि एक बार हो आए, उन जगहों के बाशिन्दा कई उनके पुराने मित्र भी पाये जाते थे, जिनसे संपर्क कहीं और नहीं, बांदा आने पर ही पहली मुलाकात के दौरान हुई होती थी। तो, गतिहीनता इसे कोई कैसे कह सकता है? अपनी 'स्थिति' को भी गति प्रदान कर देने की जो उनकी यांत्रिकी थी, वह लाजवाब थी। इन सारे प्रसंगों को एक शैली में, जहां कि तमाम छूटे हुए किस्से भी अपना वाजिब प्रतिनिधित्व पहले से ही पा गये प्रतीत हों,में ही कायदे से ढाला जा सकता है। नागार्जुन के इतने संपर्क थे, इतना विस्तार था कि 430 पृ्ष्ठ की एक किताब में उसे पूरा का पूरा समेट पाना असंभव बात है। मैंने वहां स्वीकार भी किया है कि उनकी जीवनी के दसियों वर्सन संभव हो सकते हैं, जिनमें से एक यह है। बावजूद इस विनम्र स्वीकारोक्ति के, वहां किया यह गया है कि तमाम संभावित वर्सन के प्रतिनिधि तत्व यहां आपको दिख जाएंगे। यह चीज इस किताब को गहन और यादगार बनाती है। वैसी, जैसी कि मैं लिखना चाहता था।
लेकिन, सौ बात की एक बात यह है, जैसा कि मैंने किताब की भूमिका में लिखा भी है कि दो-चार साल यदि इस किताब के साथ और बने रहने का अवसर मुझे मिला होता तो यह और भी ज्यादा हू-ब-हू हो सकती थी! लेखक के इस 'किन्तु,परन्तु' का क्या जवाब हो सकता है? बस केवल हम यही याद कर सकते हैं कि पुराने जमाने के हमारे लेखक समूचा जीवन लगाकर भी बस एक किताब ही क्यों लिख पाते होंगे!
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