Thursday, June 30, 2011
चवन्नी
कुछ लोग मर तो जाते हैं बहुत पहले मगर दफनाए बहुत बाद में जाते हैं। जैसे चवन्नी। रघुवर को अचरज लग रहा था-- आज आकर मरी है चवन्नी? गजब करते हो साहब, मुझे तो पांच बरस से उसके दर्शन नहीं हुए। मैंने कहा--घबराओ मत रघू, ये अठन्नी और टकही भी जल्द ही जाएगी, क्योंकि राज तो ये सलामत रहना ही रहना है। दिक्कत न हनुमान जी को हुई है,न पंडित जी को। उनके लिए तो अच्छा हुआ कि सवा रुपये के पचडे से पिंड छूटा। दिक्कत गरीब को हुई है कि किफायत बरतने का एक स्वीकृति-प्राप्त जरिया उनसे छिन गया। दिक्कत मुझे हुई है कि अपनी गौरी की चवनियां मुस्कान के लिए कोई दूसरा शब्द खोजे से नहीं मिल रहा। तुम ही नहीं मरी हो चवन्नी, तुम्हारे साथ-साथ गरीब की औकात भी थोडी-थोडी मर गई है।
यात्री-स्मरण
काल्हिखन नामवर सिंह यात्री जीक बारे मे एकटा बड सुन्दर बात कहलखिन। ओ एकटा टी०वी० चैनल पर साहित्यिक कार्यक्रम मे बाजिो रहल छला। अवसर छल--केदारनाथ अग्रवाल जन्मशताब्दी-वर्ष। ओ कहलखिन जे चारिटा महान कविक ई जन्मशताब्दी-वर्ष थिक--अज्ञेय, शमशेर, केदार आ नागार्जुन। एहि चारूगोटे मे बहुत अन्तर। अज्ञेय शुरू मे छला जन-सरोकारी, लेकिन आगू चलि क' बडका लोकक लोक बनि गेला आ ज्ञानपीठ पौलनि। शमशेर जबर्दस्त कविता लिखलनि मुदा सब कें सदा प्रसन्न रखलनि आ ककरो दुश्मन नहि बना सकला। केदार तेहन विरल कवि भेला जे जिबिते-जी दुनियां हुनका बिसरि गेलनि। बचला नागार्जुन। ओ अपन ततेक बेसी, ततेक बेसी दुश्मन बनौलनि जे लोक हुनकर नाम नहि सुन' चाहैए। (लोक माने सत्ताधारी, साम्राज्यवादी, पाखंड-जीवी लोक) ओ तं धन्य अछि मिथिला, मैथिल आ मैथिली जे हिन्दी-पट्टी कें हुनका मोन पाडबाक लेल विवश करैत रहैत अछि।
हम सोच' लगलहुं जे वाह वाह, बाहर तं हमर सभक ई जस अछि, मुदा घर के हाल की अछि? जनिते छी जे मैथिलीक इन्टरनेट-पत्रिका जन्म-शताब्दीक वर्षो भरि अल्लड-बल्लड लिखि क' यात्री जीक कद छोट करबाक अभियान मे लागल रहल। अहां कें हंसी लागत मुदा हमरा दया लागैए। असल मे बाबू सब कें विश्वसे नहि भ' रहल चनि जे हाड-मासु के बनल एहनो क्यो चिर नवीन प्रोग्रेसिव मिथिला मे जनमि सकैए। हौ नुनू, फुच्ची ल' क' समुद्र नाप' जयबह तं आखिर कोन निष्कर्ष पर पहुंचबह?
लक्ष्मीनाथ गोसांइ के खोज
लक्ष्मीनाथ गोसांइ के खोज मे लागल छी। खोज माने ई जे ओ असल मे की छला। मिथिला मे हुनका देवता बना क', मंदिर मे स्थापित क' क' पूजल जाइ छनि। मिथिलाक सन्त-परंपराक ओ शिखर थिका। मुदा हम देखै छी जे ओ उनैसम शताब्दी मे व्यापल भारतीय नवजागरण मे मिथिलाक प्रतिनिधि रहथि। धार्मिक आ पंथगत समन्वय, तर्कसंगति, मातृभूमिक प्रति अनन्य प्रेम, एकजुटताक आह्वान, कम्पनी-राजक प्रति घोर घृणा आ आक्रोश आ विद्रोह, देश-वासी कें दुर्गत अवस्था सं बाहर निकालबाक दृढ संकल्प---सभ कथू छनि लक्ष्मीनाथ मे, जे हुनका नवजागरणक नायक साबित करै छनि। १८५७ के क्रान्ति मे ओ प्रत्यक्ष रूप सं भाग लेने रहथि। उत्तर बिहारक क्षेत्र मे ओ भूमिगत रूप सं ठीक ओहिना सक्रिय रहथि जेना अवध के इलाका मे स्वामी दयानन्द सरस्वती सक्रिय रहथि। दयानन्द सरस्वतीक काज आसान रहनि, कारण जे स्थानीय शासन दिस सं झमेला नहि रहनि। लक्षीनाथक काज बड कठिन रहनि, कारण दरभंगा-राज कम्पनी-सरकारक सपोर्ट मे रहए आ क्रान्ति कें कुचलैक वास्ते सैनिक, हाथी-घोडा आ नगदी ल' क' कम्पनीक संग ठाढ छल आ गारंटी केने छल जे मिथिला मे क्रान्ति के बसात नहि ढुक' देत। एहना स्थिति मे लक्षीनाथ कें पकडल गेल छल आ ओ जेल ढुकाओल गेल छला। सजा होइतनि तं कि तं फांसी लटकाओल जाइतथि अथवा कालापानी पठाओल जाइतथि। एहन प्रतीत होइत अछि जे अपन एक अंग्रेज शिष्य अब्राहम जॅानक उद्यम सं ओ रिहा भेला। जॅान जमींदार आ नील-फैक्टरीक मालिक रहथि। आध्यात्मिक रुझानक व्यक्ति ओ मैथिली मे भक्ति-पदक रचना सेहो केने छथि। लक्ष्मीनाथक चारि प्रधान शिष्य मे सं एक जॅान क्रिश्चियन, दोसर मोहम्मद गौस खां मुसलमान, तेसर राजाराम शास्त्री कान्यकुब्ज आ चारिम रघुवर गोसांइ मैथिल छला। लक्ष्मीनाथ कीर्तन-मंडली चलबथि। नेपाल सं ल' क' उत्तर भारतक कैक प्रान्त मे हुनक प्रभाव-क्षेत्र छलनि। हुनक यैह तरीका रहनि विद्रोह कें हवा देबाक। मुदा, मिथिला-राजक लेल ई भेल महापाप, घोर खिधांसक बात। तें एहि बात कैं झांपल-तोपल गेल।लक्ष्मीनाथक देहान्त १८७३ मे भेलनि। हुनक भक्ति-पद सब कें ध्यान सं पढू तं ई सब बात झक-झक देखार पडत। अपन एक पद मे ओ कहै छथि--'पामर राज करत एहि पुर पर' माने जे एहि देश पर दुष्ट शैतान सब राज क' रहल अछि। मिथिलाक बुद्धिजीवी लोकनि आइ दुख करै छथि जे नवजागरणक लहर मिथिला मे फोंक गेल, १८५७ मे हम सब किछु नहि क' सकलहुं। गलत बात अछि। मुदा, समझ मे आएत कोना? मंदिर मे बन्द क' क' हम सब अपन महापुरुष के खाली पूजा करैत रहबै तं अपन रीयल विरासत समझ मे आएत कोना?
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