Sunday, June 1, 2025

रेणु आ यात्री नागार्जुन

 


तारानंद वियोगी


फणीश्वरनाथ रेणुक ओ फोटो संभव छै, कहियो अहाँक नजरि मे आयल होयत, औराही हिंगना बला, जाहि मे ओ खेतक कदबा कयल माटि मे अपन संगी-साथी संगें धान रोपबा लेल उतरल छथि। कुल जमा दस गोटे हेता। सभक हाथ मे बिचड़ाक पुल्ठी अछि, आ मोन मे किछु नब करबाक रोमांच। अपनें रेणु लुंगी कें दोहरा क' ढेका बान्हि लेने छथि। दू-तीन गोटे एहनो छथि जे अति उत्साह मे खेतक पेंक मे उतरि तँ गेल छथि, मुदा आब कपड़ा गन्दा हेबाक द्वन्द्व मे फँसल छथि। एखन फोटो सेशन चलि रहल छै। आब ओ लोकनि रोपनी शुरू करहे बला छथि। मुदा, एहि दस गोटे मे सँ एक एहनो छथि जे फोटो सेशनक बिनु कोनो परवाह कयने खेत मे झुकि चुकला अछि, एनमेन तहिना जेना कोनो किसान रोपनी करैत अछि। स्वाभाविके जे ओहि आदमीक चेहरा देखार नहि पड़ि रहलैए। ओ आधा धोती पहिरने छथि,आधा ढट्ठा ओढ़ि क' माथ कें झांपि लेने छथि। हुनकर संपूर्ण ध्यान रोपनी पर छनि। फोटो मे साफ देखाइ छै जे हुनकर दहिना हाथक अंगुरी सब बिचड़ाक जड़िक संग कदबाक वक्षस्थल मे ढुकल छनि। आदमी बुजुर्ग छथि आ रोपनी-कलाक पुरान ओस्ताद जकाँ लगैत छथि। के छथि ओ? ओ यात्री नागार्जुन छथि। औराही हिंगना मे रेणुक खेत मे एखन धान रोपि रहला अछि। तारीख थिक 29 जुलाइ 1973। यात्री रेणुक गाम आयल छथि जतय एखन रोपनीक सीजन चलि रहल छै। रेणु एहि तरहक हरेक सीजन मे गाम जरूर अबै छला। अक्सरहां तँ सहमना साहित्यिक जन सेहो एहि दिन मे उमड़ि आयल कहथि। एतय, इहो अनुमान लगाओल जा सकैत अछि जे एहि आइडियाक जनक सेहो यात्रिये होथि कि चलै चलू, आइ अपना सब धानक रोपनी करी। एहि आइडिया कें एक आर नब आयाम दैत रेणु फोटो सेशन आयोजित क' लेलनि अछि। जें कि फोटोग्राफर फोटो घीचि लेलनि, फोटो कें क्यो किताब मे छापि देलनि वा डिजिटल क' देलनि तँ बात हमरो अहाँ धरि पहुँचि गेल अछि।

              ठीक ओही राति नागार्जुन एकटा कविता लिखने छला। ओ कविता रेणुक गामक बारे मे अछि आ स्वयं रेणुक बारे मे। शीर्षक देलनि अछि-- 'मैला आंचल।' कविता देखल जाय---

पंक-पृथुल कर-चरण हुए चंदन अनुलेपित

बकी छवियां अंकित, सबके स्वर हैं टेपित

एक दूसरे की काया पर पांक थोपते

औराही के खेतों में हम धान रोपते

मूल गंध की मदिर हवा में मगन हुए हैं

माँ के उर पर, शिशु-सम हुलसित मगन हुए हैं

सोनामाटी महक रही है रोम-रोम से

श्वेत कुसुम झरते हैं तुम पर नील व्योम से

कृषकपुत्र मैं, तुम तो खुद दर्दी किसान हो

मुरलीधर के सात सुरों की सरस तान हो

धन्य जादुई मैला आंचल, धन्य-धन्य तुम

सहज सलोने तुम अपूर्व, अनुपम, अनन्य तुम।

              एहि अवसर पर सभक फोटोक अतिरिक्त स्वर सेहो टेप कयल गेल रहय, तकर सूचना हमरा लोकनि कें नागार्जुनक एहि कविते सँ प्राप्त होइत अछि। ओहि दिनक ओहि स्वर सब कें सूनि पाबी, तकर अवसर आब हमरा लोकनि कें साइत कहियो नहि भेटि पाओत। एहन प्रतीत होइत अछि जे ओहि दिनका संगत मे रेणु कोनो बहुत सुंदर गीत गौने हेता जे यात्री कें बहुत पसंद आयल हेतनि। एकर खबरि हमरा लोकनि कें कविताक पांती 'मुरलीधर के सात सुरों की मधुर तान तुम' सँ भेटैत अछि। रेणुक बारे मे जाननिहार लोकनि नीक जकाँ जनैत छथि जे रेणु बहुत मधुर गबैत छला। आ एतबे नहि, लोकगीत आ लोकगाथा सभक एक बड़ पैघ भंडार हुनका कंठ मे विराजै छल, हुनकर ठोर पर बसै छल। सारंगा सदाबृज आ लोरिकायन के तँ समुच्चा गाथे हुनका याद रहनि। नागार्जुन एतय रेणु कें 'दर्दी किसान' बतौलनि अछि, जखन कि इहो कोनो कम दर्दीला नहि अछि जे अपना कें केवल एक 'कृषकपुत्र' कहैत छथि, मने कि ओ, जकरा सँ दर्दी किसान हेबाक सौभाग्य एक पीढ़ी पहिनहि छीनि लेल गेल। औराही हुनका बहुत बहुत नीक लगलनि अछि। ओतय हुनका ओ 'मूल गंध' भेटलनि अछि, जाहि मे पृथ्वीक नेह ओकर उत्पादकता बनि क' प्रकट होइत अछि। ओतुक्का माटि 'सोना माटी' थिक। रेणुक खासियत ई छनि जे ई सोनामाटि हुनकर रोम-रोम सँ प्रकट भेलनि अछि। रेणु जे अपन उपन्यासक नाम 'मैला आंचल' राखने छला, तकरा पाछू एक गँहीर व्यंग्य छल। ओहि उपन्यास कें महान बनबै मे जाहि वस्तु सभक योगदान छैक ताहि मे सँ एक ई नाम सेहो थिक जकरा पाछू व्यंग्यक एक अचूक गहराइ छैक। ओ बात ठीक ओतहि सँ एहि कविता मे सेहो उतरि आयल अछि। नागार्जुन एकरा सिम्पली 'जादुई' बतबै छथि। रेणु, जे नागार्जुन कें 'बड़भाय' वा 'भैयाजी' कहै छला, हुनका प्रति कते प्रेम, कते वत्सलता नागार्जुनक हृदय मे छलनि, तकरो किछु पता एहि कविता सँ नीक जकाँ लगैत अछि। कवि नागार्जुनक कहब छनि एहि धरतीक नील व्योम सँ रेणुक ऊपर श्वेत कुसुम झहरैत अछि। यशक रंग श्वेत बताओल गेल अछि। फेर फेर ओ कहैत छथि-- 'सहज सलोने तुम अपूर्व, अनुपम, अनन्य तुम।' एतय प्रयोग कयल गेल हरेक विशेषण कोना विशेष अछि, तकर पता हमरा लोकनि कें नागार्जुनक ओहि लेख सँ लगैत अछि जे ओ रेणुक निधनक लगले बाद हुनका पर लिखने रहथि।

             रेणु आ यात्री नागार्जुनक सम्बन्ध बहुत पुरान छलनि। दुनू मिथिला समाज सँ अबै छला। दुनू धरती संग समान रूपेंदस जुड़ल, धरतीक धनी। आम जनताक संग दुनूक जुड़ाव एक्के रंग। लोकवृत्ति आ लोकविधा सब मे दुनूक मोन एक्के समान अनुरक्त। दुनू संघर्षधर्मा, सत्ताधारी पार्टीक आलोचक। दुनू गोटेक अपन-अपन राजनीतिक प्रतिबद्धता छलनि, जकरा विना सामाजिक सरोकार अधूरा पड़ैत छल। मध्यकाले सँ ई परंपरा चलैत आयल अछि जे मिथिला-भूमि सँ जे क्यो महान साहित्यकार भेला, अपन तमाम काजक अतिरिक्त मिथिलाक भाषा मैथिली मे ओ किछु ने किछु जरूर लिखलनि। रेणु सेहो मैथिली मे लिखलनि मुदा नागार्जुन बेसी लिखलनि। जीवन पर्यन्त हिनका दुनूक संलग्नता अपन भूमि आ भाषाक संग समान रूपें बनल रहलनि। रेणुक संलग्नता अपेक्षाकृत बेसी गँहीर छलनि, ई बात भिन्न जे दुनू गोटेक अभिव्यक्तिक माध्यम सेहो अलग-अलग छलनि। रेणु जहिना दर्दी किसान छला, ठीक तहिना मर्मी इन्सान। हुनकर ई मर्म अनेक अनेक आयाम मे प्रकट होइ छलनि। नागार्जुन अपन लेख मे कहने छथि-- 'रेणु लग मे ने तँ कथ्य-सामग्रीक कमी रहनि, ने शैलीक नमूना सभक अकाल। सामाजिक घनिष्ठता रेणु कें कहियो गुफानिबद्ध नहि होबय दैत रहनि। जतय कतहु ओ रहला, लोक हुनका घेरने रहैत छलनि। फारबिसगंज, पटना, इलाहाबाद, कलकत्ता-- जतय कतहु देखलियनि आ जहिया कहियो-- निर्जन एकान्त मे किनसाइते कहियो देखने हेबनि।'

               विद्यापतिक ओतय 'सुपुरुष'क बहुत माहात्म्य अछि। एकरे कतहु विद्यापति सुजन कहै छथि तँ कतहु सज्जन। हुनकर एक मशहूर काव्यपंक्ति छनि-- 'सज्जन जन सँ नेह कठिन थिक।' ई एक पांती मिथिलाक नब-पुरान पंडित लोकनि कें सैयो बरस सँ तेहन परेशान करैत रहलनि अछि कि पुछू नहि। आइ धरि हुनका लोकनिक बुद्धि मे अँटलनि नहि जे भाइ, सज्जन जन संग नेह करब कठिन कोना होयत, ई तँ आरो बेसी आसान आ विधेय हेबाक चाही। बात एतय धरि चलि आयल कि धृष्ट पंडित लोकनि विद्यापतिक पाठ मे संशोधन क' देलनि। अपन संकलन सब मे पाठ देलनि-- 'सज्जन जन सँ नेह उचित थिक।' 'कठिन' कें बदलि क' 'उचित' क' क' मानू ई लोकनि ई टंटे खतम क' देलनि जे कठिन अछि आ कि कठिन नहि अछि। मुदा, एहि बातक मर्म रेणु सन व्यक्ति बुझि सकैत छला।  नागार्जुन लिखलनि अछि-- 'लोकगीत, लोकलय, लोककला आदि जतेक जे कोनो तत्व लोकजीवन कें समग्रता प्रदान करैत अछि, ओहि समस्त तत्वक समन्वित प्रतीक छला फणीश्वरनाथ रेणु।' विद्यापतिक समय तँ आब रहल नहि, मुदा सुपुरुष, सुजन, सज्जनक मूर्त रूप हमरा लोकनि रेणुक साहित्य मे देखि सकै छी। अहाँ 'तीसरी कसम' के हीरामन कें मोन पाड़ू आ अख्यास करियौ जे ओहि आदमी, हीरामन पर ककर मोन नहि रीझि जायत, जेना ओहि नायिकाक सेहो मोन रीझि गेल रहै। मुदा, एहि नेह कें निरंतर बनौने राखि सकब, ओकरा संग निरंतर बनल रहि सकब आ निबाहि सकब कते कठिन छैक! कहल जाइछ जे व्यक्ति तँ जनम लैत आ मरैत रहैत अछि, मुदा 'लोक' अमर होइत अछि। नागार्जुन फेर कहै छथि-- 'बावनदास सँ ल' क' अगिनखोर धरि नहि जानि कतेको कैरेक्टर रेणु पाठकक सोझा रखलनि अछि। ओहि मे सँ एक-एक कैरेक्टर कें बहुत बारीकी संग तरासल गेल छैक। ढेरक ढेर प्राणवंत शब्दचित्र हमरा लोकनि कें गुदबुदाबितो अछि आ ग्रामजीवनक आंतरिक विसंगति सभक दिस ध्यानो आकृष्ट करैत चलैत अछि। छोट-छोट खुशी, तुनुकमिजाजीक नान्हि-नान्हि क्षण सब, राग-द्वेषक ओझरायल गुत्थी सब, रूप-रस-गन्ध-स्पर्श आ नादक छिटफुट चमत्कार सब-- आओर ने जानि कते की सब व्यंजना छलकैत चलैत अछि रेणुक कथाकृति सब मे।'

               रेणुक संग यात्री नागार्जुनक सम्बन्ध पुराने टा नहि, आत्मीय सेहो ततबे छल। दुनू गोटे जहिया जतय कतहु भेंट होइन, मैथिलिए मे गपसप करै छला। पत्राचारक भाषा सेहो मैथिलिये भेल करनि, तकर एक झलक हुनकर रचनावलियो मे आयल छनि। एक पत्रक हम एतय चर्च करब, जकर एक-एक शब्द सँ रेणुक आन्तरिकता झलकैत छनि। पत्र 18.12.1954(वा 1955)क लिखल थिक। लगले 'मैला आंचल' पैघ प्रकाशक ओतय सँ छपलनि अछि। रेणु गाम आयल छथि। आइ साइत ओ कोनो गुदरिया बबाजी सँ राजा भरथरीक गाथा सुनलनि अछि, से मगन छथि। लगैए, साधू जरूर बहुत मधुर, बहुत मार्मिक ढंग सँ गौने हेता। रेणु नोट क' लेलनि अछि। गाथाक एक नमहर अंश ओ नागार्जुन कें पत्र मे लिखने छथि, जे अद्भुत अछि। ओहि गीत मे संन्यासी बनलाक बारह बरखक बाद, सिद्ध जोगी बनि क' राजा भरथरीक अपन नगर पधारबाक वर्णन छैक। एहन प्रतीत होइत अछि मानू अपन पछिला पत्र मे नागार्जुन जिज्ञासा कयने होथि जे एम्हर राजा भरथरी, मने रेणु, लगातार चुप किएक छथि। तकर उतारा एहि ठाम अयलैक अछि। लिखै छथि-- 'जाहि दिन नग्र पधारयो राजा भरथरी/मजरल बगियन मे आम/ फुलवा जे फूले कचनार राजा/ लाली रे उड़य असमान/ लाल-लाल सेमली के बाग फूले/ धरती धरेला धेयान।' मने जे गामक पर्यावरण मोहक पर्यावरण राजा भरथरी कें तेना क' बान्हि लेने छनि जे चुप भेने विना कोनो रस्ते नहि बचलैक अछि।

            तखन, गाम-घरक बात सब बतबैत छथि। पहिल बात तँ यैह जे गाम अबैत रहब रेणु कें एहि लेल जरूरी छलनि जे पुरान वस्तु सब कें, धरोहर सब कें नष्ट हेबा सँ बचाओल जा सकय। कहब जरूरी नहि जे ई काज करब, आर्थिक अभाववश वा पयर मे घुरघुरा बान्हल रहबाक कारण, यात्री बुतें कहियो पार नहि लगलनि। यैह मुख्य कारण छै जे गाम छुटबाक, विस्थापनक पीड़ा सँ यात्री नागार्जुनक काव्य सब दिन आक्रान्त रहल। खैर, एतबा लिखबाक बाद रेणु अपना गामक ओहि नौजवान लड़काक जिक्र करैत छथि जे हुनका चैलेंज कयने रहनि जे गाम कें ध' क' रहब अहाँ बुते पार नहि लागत। ओ इहो बतबै छथि जे ओहि नौजवान कें उतारा की देलखिन। देलखिन जे हौ बाबू, गरदनि मे घैला बान्हि क' हम कुइयां मे पैसि गेलियहे, तें आब एतय सँ बहरेबाक उपाय नहि। तखन बतबै छथिन जे गामक जंगल के एक सियार बताह भ' गेलैए, तें आब लोक बिनु लाठी के घर सँ नहि बहराइत अछि। रेणु लग मे लाठी छलनि नहि, ककरो सँ मँगलखिन तँ जवाब देलकनि जे अहाँ अपन लाठी अपने बनाउ, अहाँ तँ गाम बसबा लेल आयल छी कि ने! एही क्रम मे हुनका अपन पिता मोन पड़लखिन जे रासि-रासि के लाठी रखबाक शौखीन छला। इहो लिखि जाइ छथि जे बांसक जंगल मे ढुकि क' सही लाठी बला बांसक पहिचान करब सेहो एक मेंही कला छिऐक। बतबै छथि जे मोन लायक लाठी प्राप्त करबाक लेल पिता केहन केहन लोक सभक संग दोस्ती जोड़ने रहथि। पछिला पत्र मे यात्री हुनका सुझाव देने रहथिन जे रेणु कें ओतय बन्दूक के लाइसेन्स ल' लेबाक चाहियनि। रेणु कें ई बात नहि जरूरी लगलनि, तकर उतारा दै छथिन जे विश्वकोशक चोर एखन धरि गाम तक नहि पहुँचल अछि। आ, जतय धरि शिकार करबाक बात छै तँ रेणुक गुलैंती चलेबाक 'पेराकटिस' तते जबर्दस्त छनि जे ओकरा आगू बन्दूक फेल छै। तखन, रेणु ओहि खंडकाव्य-- 'दो पीर: एक नदी'-- के प्लाॅट बतब' लागै छथिन जकरा लिखबाक विचार हुनका मोन मे एखन चलि रहल छनि। दू पीर-- मने ग्रामदेवता जीन पीर आ ग्रामरक्षक चेथरिया पीर। नदी दुलारी दाइ! नदी के गुण गाब' लगै छथि जे एहि समुच्चा इलाकाक बबुआन लोकनिक बबुआनी एही दुलारी दाइ के प्रताप पर निर्भर छनि। कोशी जहिया एहि इलाका सँ विदा हुअय लगली, हुनकर पांच बहीन रहनि, सब कें ओ बांझ बनबैत गेलखिन। सब सँ छोटकी एहि दुलारी दाइ पर हुनका बड़ करुणा रहनि, तें ई बेचारो बचल रहि गेली। अपन 'भैयाजी' सँ रेणु आशीर्वाद मँगै छथि जे एहि खंडकाव्य कें ओ पूरा लिखि सकथि आ से शुभ आ सुन्दर दुनू बनि पाबय। फेर ई सूचना दै छथिन जे पछिला किछु मास सँ मैथिली मासिक 'वैदेही' हुनका गामक पुस्तकालय मे आयब बन्न भ' गेलैए, मतलब जे प्रकाशक कें ई शिकाइत पहुँचा देल जाइन, आ सुझाव मँगै छथि जे 'आर्यावर्त'क ग्राहक बनल जाय कि नहि बनल जाय! पत्रक अन्त मे लतिका जी सँ मिलि क' सब समाचार बता देबाक अनुरोध छै, आ ई बात सेहो जे हुनका भरोस द' देल जाइन जे हुनकर हिदायत सभक पालन पूर्णत: करिते हम गामक जीवन जीबि रहल छी। मुदा, सब सँ अन्त मे लिखने छथिन जे 'हम जे मैथिली मे पांती लिखैक धृष्टता क' रहल छी-- से तकर की हैत?' एहि पत्र सँ दुनू गोटेक बीचक आत्मीयता आ सामीप्य-भावने टाक परिचय नहि भेटैछ, इहो साफ अछि जे दुनू गोटेक जीवनक प्राथमिकता सब की छलनि, कथी मे सुख छलनि, कथी मे दुख।

            सोचि क' देखी तँ ई आत्मीयता कोनो मामूली बात नहि छल। यात्रीक पहिल उपन्यास 'पारो' 1946 मे छपि क' आबि गेल छल। ई रचना छल मैथिलीक, मुदा ताहि सँ बहुत ऊपर जा क' बिहारक एक अद्भुत संभावनाशील उपन्यासकारक रूप मे हुनकर छवि देश भरि मे स्थापित भ' गेल छल। 1948 मे छपल 'रतिनाथ की चाची' हुनका स्थापित उपन्यासकारक पंक्ति मे आनि देने रहनि। मुदा, 'बलचनमा' (1952) छपलाक बाद तँ नागार्जुनक गणना हिन्दीक प्रथम श्रेणीक उपन्यासकारक रूप मे हुअय लागल छल। एहि उपन्यास मे आलोचक लोकनि 'प्रेमचन्दक परम्पराक स्पष्ट विकास' देखि रहल छला। 'आंचलिक' शब्द सेहो उपन्यासक विशेषणक रूप मे तहिये पहिल बेर प्रयोग मे आयल छल आ नागार्जुन हिन्दीक पहिल आंचलिक उपन्यासकार मानल गेल रहथि। एहि समस्त घटनाक बाद 'मैला आंचल' आयल छल।एहि उपन्यास कें ल' क' शुरुआती दिन मे तँ किछु संशय छल, मुदा किछुए समयक बाद 'मैला आंचल' हिन्दीक सर्वश्रेष्ठ उपन्यास सभक सूची मे शामिल क' लेल गेल। निस्सन्देह 'मैला आंचल'क सफलता 'बलचनमा' सँ बढ़ि क' रहय। रेणु नीक जकाँ जनै छला जे एहि उपन्यास कें लिखि क' ओ हिन्दी उपन्यासक क्षेत्र मे की क' गेला अछि।

                 एहना स्थिति मे दुनू लेखकक बीच प्रतिस्पर्द्धात्मक कटुता उत्पन्न हेबाक खतरा तँ भइये सकैत छल। ताहू मे तखन, जखन कि कोनो गप्पगोष्ठी मे नागार्जुन एना बाजि गेल छला जे हींग तँ कोनो खाद्य कें स्वादिष्ट बनेबाक लेल खोंटि क' बस कनेक टा प्रयोग कयल जाइत छैक, मुदा रेणु तँ मैला आंचल मे हींगक शरबत बना देलनि अछि। यद्यपि कि हींग सँ हुनक तात्पर्य स्थानीय मने मैथिलीक शब्दादि वा कथन-भंगिमा सँ छलनि। मुदा, रेणु धरि ई प्रतिक्रिया पहुँचलनि तँ ओ विना विचलित भेने मुस्किया क' रहि गेला। ई असल मे उपन्यास-कलाक मसला सँ जुड़ल बात छल, जे पारंपरिक समझ सँ भिन्न छल आ तें प्रथम श्रेणीक आलोचक जेना नामवर सिंह वा रामविलास शर्मा आदि नागार्जुनेक बातक समर्थक रहथि। रेणु एहि सब बखेड़ाक कोनो मोजर नहि देलखिन। 1955 मे ओ लिखलनि-- 'सही मायने में प्रेमचन्द की परंपरा को फिर से 'बलचनमा' ने ही अपनाया। नागार्जुन जी पर बहुत भरोसा है मुझे। मेरी स्थिति उस छोटे भाई-सी है, जो अपने बड़े भाई के बल पर बड़ी-बड़ी बातें करता है।'

             हिन्दी-संसार भने नागार्जुन कें आंचलिक उपन्यासकार कहि क' चिह्नित करनि, ओ सदा एहि बात सँ इनकार करैत रहला। जाहि मुद्दा सब कें ल' क' हुनकर उपन्यास सब लिखल गेल रहय, तकरा 'आंचलिक' कहि क' कोटिबद्ध करब हुनका सब दिन अनर्गल लगलनि। रेणुक स्थिति एहि सँ सर्वथा भिन्न छल। ओ स्वयं अपनो, अपन उपन्यास कें 'आंचलिक' कहलनि, आ आनो लोक सँ एहि कारण प्राप्त भेल विशेष कोटि हुनका सदा नीके लगैत रहलनि। नागार्जुन नीक जकाँ बुझि रहल छला जे उपन्यास सब मे ओ की क' रहलाह अछि, आ एहि सँ इतर रेणुक कयल काजक की महत्व छैक। एही दुआरे हमसब देखै छी जे 'मैला आंचल'क एलाक बादो हुनकर उपन्यास-लेखन कोनो तरहें प्रभावित नहि भेलनि। एक के बाद एक हुनकर उपन्यास सब अबैत रहलनि, आ कमोबेश ओकर मिजाज सेहो ओही ढर्रा पर बनल रहलैक। आगू चलि क' जँ हुनकर उपन्यास-लेखन छुटबो केलनि तँ तकर कारण व्यक्तिगत छल। चिर यायावर जकाँ हुनकर निरंतर यात्रा आ सदा जनाकीर्णता सँ घेरायल रहब हुनका एहि तरहें एकाग्रे होयब कठिन क' देलकनि, जकर जरूरति औपन्यासिक गद्य-लेखनक लेल अपरिहार्य रहैत छैक। दोसर ई जे 'भारतीय उपन्यास'क हुनकर समझ सदा हुनका पर सवार रहलनि। मने कि हिन्दी मे लिखल गेल एहन उपन्यास जाहि सँ भारतक यथार्थ के परत सब कें नीक जकाँ बूझल जा सकय। एही सभक दुआरे, समान भूमि, भाषा आ कथा-परिवेश रहलाक बादो दुनू गोटेक बीच परस्पर प्रीति अन्त-अन्त धरि बनल रहलनि।

                रेणुक लेखन कें नागार्जुन कोन तरहें महत्व दैत छथि? स्वाधीनता-प्राप्तिक बाद हिन्दी कथाकृति मे जे ढेर रास परिवर्तन सब आयल रहय, नागार्जुन तकरा संग जोड़ि क' रेणुक महत्व प्रतिष्ठापित करैत छथि। ओ लिखने छथि जे चिन्तन मे तँ ताजगीक नब-नब आभास प्रकट भेबे कयल, शब्द-शिल्पक नब-नब छवि सब सेहो तेजी सँ उभरल। एहि सब मे ताजगी आ अनूठापन अधिकाधिक उजागर हुअय लागल। कथाकार रेणु कें हुनकर समकालीन सभक अपेक्षा ओ एहि दुआरे बेसी महत्वपूर्ण मानै छथि जे हुनकर कृति सभक बुनावट नितान्त घनगर रहनि, आ ढेर रास दुर्लभ आ बहुरंगी छवि सब कें मिला क' ओ एक बेहद ताजातरीन आ अनूप बात कहि जाइ छला। नागार्जुन लिखने छथि-- 'ऐसा उत्कट मेधावी युवक यदि कलकत्ता जैसे महानर में पैदा हुआ होता और यदि वैसा ही सांस्कृतिक परिवेश, तकनीकी उपलब्धियों का वही माहौल इस विलक्षण व्यक्ति को हासिल हुआ रहता तो अनूठी कथाकृतियों के रचयिता होने के साथ-साथ सत्यजित राय की तरह फिल्मनिर्माण की दिशा में भी यह व्यक्ति कीर्तिमान स्थापित कर दिखाता। रेणु की कथाकृतियों में ऐसे बीसियों पात्र भरे पड़े हैं।'

            लेकिन, सबटा सब किछु सपाटे सपाट हो, सेहो बात नहि छल। दुनू गोटेक बीच मतान्तर सेहो कम नहि छलनि। रेणुक प्राण भने औराहीक धनगर पेंक मे बसैत होइन, अथवा हुनकर मोन सब सँ बेसी ठेठ ग्रामीण समाजी लोकनिक संगति मे लगैत होइन, मुदा जखन ओ अपन व्यक्तिगत जीवन दिस घुरै छला तँ अपन दैहिक-मानसिक 'स्व' के प्रति नितान्त सजग भ' गेल करथि। ई चीज हुनकर पीन्हन-ओढ़न सँ ल' क' हुनका रहनी-सहनी धरि मे साफ देखाइत छल। ई सब चीज हुनकर अपना तरहक संभ्रान्तता छलनि। अपन नाम-नाम केश रखबाक सौखक बारे मे ओ स्वयं लिखने छथि-- 'लोग पौधों की देखभाल करते हैं, बालों की देखभाल मेरी हाॅबी है।' अपन एहि 'स्व सजगता' सँ रेणु कें लाभ छलनि जे उच्च बौद्धिक लोकनिक अभिजात आ संभ्रान्त समाज मे हुनका स्वीकार्य बनबै छलनि। ई अपना आप मे एक पैघ लाभ छल, मुदा नागार्जुन कें ई सब बात सदा सँ नापसंद रहनि। अपन आत्मपरिचय लिखैत 'आईने के सामने' मे ओ अपन मजाक उड़बैत रेणु कें सेहो लपेटा मे ल' लेने छथि-- 'ओ आंचलिक कथाकार, तुम्हारी आँखें सचमुच फूटी हुई हैं क्या? अपने अन्य आंचलिक अनुजों से इतना तो तुम्हें सीख ही लेना था कि रहन-सहन का अल्ट्रा माॅडर्न तरीका क्या होता है?' असल मे, रेणुक अपन खास जीवन-शैली छलनि जे नेनपने सँ निर्मित छल, आ जाहि मे नेपालक कोइराला-परिवार आ औराही हिंगनाक  सम्पन्न गृहस्थीक बराबर-बराबर के साझीदारी छल। रेणु एक किसान छला, जखन कि नागार्जुन मात्र एक कृषकपुत्र। ओतय व्यवस्था छल, एतय व्यवस्थाक प्रति विद्रोह। रेणु दर्दी किसान छला, से हुनका मे विशेष छलनि, मुदा छला किसाने।

                 रेणु कें सेहो नागार्जुन सँ कोनो कम शिकाइत होइन, सेहो नहि छल। सब सँ बेसी आपत्ति तँ हुनकर मुद्दा बदलैत रहबाक प्रवृत्ति पर छलनि। 1967 मे बिहारक संविद सरकार उर्दू कें द्वितीय राजभाषा बनेबाक निर्णय लेलक। एहि निर्णयक जोरदार विरोध भेलै। एहि घटना-क्रमक रेणु लगातार रिपोर्टिंग 'दिनमान' मे करैत रहला। स्वयं रेणुक रिपोर्ट सब साक्ष्य दैत अछि जे द्वितीय राजभाषाक पचड़ा मे पड़ब एक गैरजरूरी फैसला छल, आ ई केवल एक मुस्लिम नेता कें संतुष्ट करबाक लेल कयल गेल छल। मामला जें कि उर्दू सँ जुड़ल छल, हिन्दीक कोनो साहित्यकार विरोध मे नहि उतरला। मुदा, नागार्जुन कूदि पड़ला। आब जखन कि द्वितीय राजभाषाक प्रतिफल वा लाभ स्वयं उर्दुएक हक मे केहन- कोना रहल, ई बात नीक जकाँ स्पष्ट भ' चुकल अछि, हमसब आब नीक जकाँ बूझि सकै छी सही मे एहि पचड़ा मे पड़बाक ओ समय नहि छल। समाजवादी लोकनिक हाथ मे सत्ता आयल छलनि। पैघ-पैघ अनेको लक्ष्य ओहिना बचल के बचल पड़ल छल। तुलसी-जयन्तीक दिन गांधीमैदान, पटना मे जे सभा भेल छल, तकर रिपोर्टिंग करैत रेणु लिखने रहथि-- 'मंच पर साहित्य सम्मेलन के वरिष्ठ अधिकारियों के अलावा बैठे हैं-- डाॅ. लक्ष्मी नारायण सुधांशु(कांग्रेस), ठाकुर प्रसाद(जनसंघ) और...और.... नागार्जुन।...प्रस्ताव प्रस्तुत किया नागार्जुन जी ने। प्रस्ताव पढ़ते समय उनकी वाणी बौद्ध-भिक्षु जैसी ही थी। मगर जब प्रस्ताव पर बोलने लगे तो 'नागा बाबा' हो गये।' रेणुक आपत्ति अपना जगह पर जायज छल।

             आगां एहनो समय आयल जखन दुनू गोटे संग-संग राजनीति मे उतरलाह। ओ सम्पूर्ण क्रान्तिक दौर छल। ओहू मे हिन्दीक कोनो प्रगतिशील लेखक शामिल नहि भेल रहथि। बस यैह दू गोटे रहथि। हिन्दी मे नुक्कड़ कविताक आविष्कार सेहो तहिये भेल रहय, जे हद दरजाक परिवर्तन अनबा मे सफल भेल। एहि नुक्कड़ सभाक हिट कवि छला नागार्जुन। रेणु हरेक नुक्कड़ सभा मे जरूर उपस्थित होथि मुदा कविता नहि पढ़थि। हुनकर भूमिका अलग छलनि। सभा जखन खतम हुअय लागय, रेणु आ रामवचन राय गमछा पसारि क' श्रोता-दीर्घा मे घूमि जाथि। ओहि सँ जतबा टाका प्राप्त होइ, ताहि मे सँ लाउडस्पीकर आदिक किराया चुकाओल जाय, आ बांकी बचल पाइ बेगरतूत कवि लोकनि मे बांटि देल जाइन। एक बेगरतूत तँ नागार्जुन जरूरे भेल करथि। ई इमर्जेन्सीक दौर छल।  फेर ओ समय आयल जखन बक्सर जेल मे बन्द नागार्जुन भयंकर बीमार पड़ि गेला। हुनका बचबाक संभावना नहि रहल। ओ रेणुए छला जे बहु भाषाक लेखक लोकनिक दिस सँ प्रधानमंत्रीक नाम ज्ञापन तैयार करौलनि जे हुनका जेल सँ अविलम्ब मुक्त कयल जाइन। ई अलग बात थिक जे रेणु कें जरूरति भरि लेखक लोकनिक हस्ताक्षर भेटि नहि सकलनि, आ अन्तत: जेल-मुक्तिक लेल हाइकोर्टक सहारा लेल गेल। 

                आब मजेदार बात छै जे जाहि नागार्जुनक जबर्दस्त फज्झति रेणु हुनकर एहि बयानक लेल कयने छलनि जे 'हँ, द्वितीय राजभाषा मामलाक विरोध करब यदि जनसंघी होयब थिक तँ हम गछै छी, हम सौ बेर जनसंघी हेबाक लेल तैयार छी'--- ओही नागार्जुन कें जखन संपूर्ण क्रान्ति बला जेल-जीवन मे ई बोध भेलनि जे असल मे अपन वैधता प्राप्त करबाक लेल आर एस एस, सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन कें हाइजैक क' लेलक अछि, तँ नागार्जुन ओहि आन्दोलन सँ निकलि बहरेला, जखन कि रेणुक अपन राजनीतिक समझ रहनि जे अन्तो अन्त धरि ओ ओही आन्दोलनक संग बनल रहला। मुदा, जे कि सत्य सेहो छल, रेणुक निधन पर नागार्जुन लिखलनि-- 'प्रशासकीय तानाशाही के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करनेवालों में रेणु अगली कतार में भी आगे ही खड़े रहे।' 

                  आ, जतय धरि रेणुक सम्भ्रान्तता आ जनान्दोलनी तेवरक बीच तारतम्यक प्रश्न अछि, हमरा एतय गोपेश्वर सिंहक लिखल संस्मरणक एक प्रसंग मोन पड़ैत अछि। एक दिन कहियो पटनाक कोनो फुटपाथ बला मजदूर होटल मे नागार्जुन आराम सँ बैसि क' रोटी-तरकारी खा रहल छला। गोपेश्वर जी देखलनि तँ भौचक्क रहि गेला। एखन हाले मे रेणुक देहान्त भेल छलनि। चारू दिस ओ चर्चा मे बनल रहथि। गोपेश्वर सिंह संग गपसप हुअय लगलनि तँ प्रसंगवश गोपेश्वर जी पूछि देलकनि-- 'बाबा, फणीश्वरनाथ रेणु यहाँ रोटी खाते या नहीं?' नागार्जुन तपाक सँ जवाब देलकनि-- 'नहीं। रेणु यहाँ रोटी नहीं खाते, लेकिन वे इन लोगों के लिए गोली जरूर खा लेते।'

(2020)










@

           

Sunday, May 18, 2025

फणीश्वरनाथ रेणुक मैथिली कथा


 

तारानंद वियोगी


रेणुक समकालीन, हुनकर कनिष्ठ मित्र लोकनि मे सँ एक भारतीभक्त (मैथिली पत्रिका 'सोनामाटि'क यशस्वी संपादक) अपन एक संस्मरण-लेख मे लिखने छथि-- 'आकाशवाणीक पटना केन्द्र सँ रेणु जीक मैथिली कहानी सब प्रसारित भेल रहैक, कुल छौ वा आठ। गंगेश गुंजन एवं छत्रानंदक सहयोग सँ हुनकर दूटा कथा हमरा उपलब्ध भ' सकल रहय-- 'जहां पमन को गमन नहि' आ 'अगिनखोर'।शेष पांडुलिपि सभक कोनो पता नहि लागल। ओ पांडुलिपि सब आइयो धरि अनुपलब्ध अछि। उपर्युक्त दू मे सँ पहिल 'सोनामाटि' मे छपल, दोसर छपियो क' नहि छपि सकल-- मने सोनामाटि बिच्चे मे दम तोड़ि बैसल आ ओ कथा छपल फार्मा सभक ढेर मे दबल-पिचायल रहि गेल।'

                 मुदा, वास्तविकता थिक जे ओ दोसर कहानी 'अगिनखोर' प्रेस मे दबल-पिचायल नहि रहि गेल रहय। ओकर पांडुलिपिक रफ प्रति रेणु अपना संग राखि लेने रहथि। यात्री-राजकमल आ रेणुक, अपन रचना सभक रख-रखाव-पद्धति मे बहुत अंतर रहय। हमसब पाबै छी जे जखन ई कथा मैथिली मे नहिये छपि सकल तँ रेणु ओकरा एक बेर फेर सँ हिन्दी मे लिखलनि आ ई कहानी 'धर्मयुग' (5-12 नवंबर,1972) मे प्रकाशित भेल। ई बात हम शुरुए मे कहि दी जे मैथिली मे जहिया कहियो रेणु किछु लिखलनि, आग्रह-अनुरोधे पर लिखलनि, आत्म-प्रेरणा सँ नहि, आ इहो बात रहै जे कोनो मैथिली पत्रिका कें ओ अयाचित रचना नहि पठा सकैत छला। तखन ई अवश्य जे जे क्यो हुनका सँ याचना केलनि, तकरा लेल अवश्य लिखलनि।

        हम गंगेश गुंजन कें पुछलियनि-- 'की रेणु जी मैथिली मे छौ टा वा आठ टा कथा लिखने हेता?' ओ ओहि दिनक स्मृति मे घुरैत उतारा देलनि-- 'नहि, अगब कहानी तँ एते नहि हेतनि, मुदा संस्मरण-वार्ता आदि सबटा कें जँ शामिल क' ली तँ एतबे किएक, एहि सँ बहुत बेसी हेतनि। असल मे आकाशवाणीक दूटा मैथिली प्रोग्राम-- 'भारती' आ 'बाटे-घाटे'--हमरा हाथ मे रहय, जाहि मे हुनका समय-समय पर बजबैत रहै छलहुँ, आ रेणु जी सेहो हमरा सभक आमंत्रण सब बेर स्वीकार करथि। अहाँ सब कें बूझल हो वा नहि, मैथिली लिखबा मे रेणु जी कें ने कहियो कोनो संकोच होइन, ने कोनो असुविधा। हमसब हुनकर एहि उदारताकक खूब लाभ उठाबी।'

       -- मुदा, ओ पांडुलिपि सब?

       -- 72 के बाद हम तँ पटना मे रहलहुँ नहि। बाद मे जखन घूरि क' अयलहुँ तँ पता लागल जे 1975क बाढ़ि मे सबटा वस्तु नष्ट भ' गेलैक।'

          फेर अचानक गुंजन जी कें लागल होइन जे कहीं हम रेणु कें मैथिली लेखक सिद्ध करबाक उत्साह मे तँ नहि छी, ओ बजला-- 'मैथिली मे लिखबाक प्रति हुनका मे कोनो उत्कण्ठा नहि छलनि। व्यक्तिगत पत्र आदिक अलावे किनसाइते ओ कहियो अपना मोनें मैथिली मे लिखने हेता। तखन हँ, ई जरूर रहय जे हमर गुरु मधुकर गंगाधर जेना मैथिली-विरोधी रहथि, रेणु जी मे से भावना कहियो नहि रहलनि।'

           रेणु कें मैथिली लेखक साबित करबाक खगतो कहाँ छै! मैथिली आ मिथिला हुनकर रचना सब में तेना टनटन बजैत अछि, अपन ओहि तमाम आरोह-अवरोहक संग, जे अइ सँ पहिने दुनिया एक विद्यापतियेक साहित्य मे एहन भाषाक उत्सव देखने छल। विद्यापति जे रेणुक एतेक प्रिय रहथिन, से ओहिना नहि। आइ जखन मैथिल लोकनि अपन संकीर्णताक कारण मैथिली कें दू जिला मे समेटि लेलनि अछि, पैघ-पैघ भाषाविद् लोकनि चिन्ता करैत छथि जे विद्यापति द्वारा प्रयुक्त सैकड़ो शब्द आइ दरभंगा-मधुबनी मे प्रचलित नहि अछि, जखन कि अररिया, मुंगेर, बेगूसराय, गोड्डा मे अपन संपूर्ण कलरव, अशेष गूंजक संग विद्यापतिक ओ भाषा-वितान मौजूद अछि।

             गुंजन जी सँ बहुत दिन पहिने मायानन्द मिश्र पटना रेडियो मे कम्पीयर छला, जखन थोड़बा दिन लेल रेणु पटना रेडियो मे अधिकारीक रूप मे पदस्थापित भेल रहथि। रेणु जीक संग अपन पहिल मुलकातक वर्णन माया बाबू एहि शब्द मे केलनि अछि-- 'ओहि दिन रेडियो मे हम हुनका टेबुल पर गेलहुँ, आ मैथिली मे अपन नाम आ अपन काजक बारे मे बतौलियनि। संगहि 'मैला आँचल' पढ़बाक, सराहबाक बातक संग हुनका सँ भेंटक प्रति उत्सुकताक गप सेहो कहलियनि। ओ ओत्तहि अपन तात्कालिक काज रोकि देलनि। ऊठि क' ठाढ़ होइत अति प्रसन्न भाव आ आन्तरिकताक संग बजला-- 'अरे वाह, अहीं छी! हमहू अहाँ सँ भेंट करबाक लेल बहुत उत्सुक रही।' (असल मे, मायानन्द मिश्र ओहि समय मे दैनिक चौपाल कार्यक्रम मे अबैत छला आ मैथिली बजबाक अपन खास छटा आ अदाक लेल बहुत चर्चित रहथि।) .....आ, हमर हाथ पकड़नहि ओ कैन्टीन दिस बढ़ि गेला। ई स्वयं हमरा लेल आ पटना रेडियोक लेल एक अप्रत्याशित घटना छल। हमरा लेल एहि दुआरे जे एतेक पैघ लेखक हमर पूर्वपरिचित छथि, भने लेखकीय स्तर पर नहि सही। आ, रेडियो लेल एहि दुआरे जे ताहि दिन मे रेडियोक कोनो अफसरक एक अदना-सन स्टाफ आर्टिस्टक हाथ पकड़ि क' चलबाक बात सोचलो नहि जा सकैत छल, आ कैन्टीन मे संग बैसि क' चाह पीबाक बात तँ असंभवे घटना छल। ओहि दिन हुनका संग बहुत रास गपसप भेल। घर-परिवार, कोशी, सहरसा, पूर्णिया आदिक विषय मे। उठैत काल ओ फेर हमर हाथ पकड़ि लेलनि, बजला-- देखू, पटना मे अपन मातृभाषा मे गप केनिहार, कम-सँ-कम हमरा सँ, अहाँ पहिल आदमी छी। हम तँ एतय अपन मातृभाषाक लेल तरसि गेल छी, बुझू।' एहि घटनाक बाद हुनका दुनू गोटेक भेंटघांट लगातार जारी रहलनि।  

                   बाद मे, सन् 1960 मे, जखन रेणु आकाशवाणीक नौकरी छोड़ि चुकल छला, आ स्वतंत्र रूप सँ पढ़बा-लिखबाक काज धरि अपना कें सीमित क' लेने रहथि, मायानंद मिश्र मैथिली मे एक द्वैमासिक पत्रिका 'अभिव्यंजना' नाम सँ निकालब शुरू कयने रहथि, रेणु जीक संपर्क-सामीप्यक लाभ उठबैत हुनका सँ भेंट क' मैथिली कहानीक मांग क' देलनि। माया बाबू स्वयं लिखलनि अछि-- 'हम जनैत रही जे हमर ई आग्रह आग्रह नहि, दुराग्रह थिक, कारण नौकरी छोड़लाक बाद आब ओ पूर्णत: कलमजीवी भ' चुकल रहथि। मुदा, हमर एहि आग्रह पर ओ चौंकलाह। मैथिलिये मे कहलनि-- 'मैथिली कहानी? एहन आग्रह तँ आइ धरि हमरा सँ क्यो नहि कयने छला। हम देब। हम अहाँ कें जरूर देब।' रेणु जे कहानी मायानंद कें देने रहथिन, वैह कथा थिक-- 'नेपथ्यक अभिनेता', जे मैथिली मे हुनकर पहिल कहानी छियनि। मायानंद मिश्र लिखने छथि जे कथा जखन रेणु हुनका देने रहनि, ओ शीर्षकहीन छल। 'नेपथ्यक अभिनेता' मायानंदक देल नाम छल, जे रेणु कें बहुत पसंद पड़लनि। मायानंद जे कि अपनो मूलत: कथाकारे रहथि, एहि कथा कें 'बेस जमल कथा' बतौलनि अछि। 'अभिव्यंजना'क दोसर अंक मे ई कथा छपल, जे कि माया बाबूक शब्द मे 'ओहि अंक कें एक अन्य ऐतिहासिकता प्रदान करैत अछि।'

                ध्यान देबाक बात छै जे मैथिली मे छपल दुनू कथा कें रेणु हिन्दी मे नहि छपबौलनि। हुनकर कुल्लम तिरसठ हिन्दी कहानी सब मे ई दुनू कथा शामिल नहि छै। बहुत बाद मे आबि क' भारत यायावर एहि दुनू कथाक हिन्दी अनुवाद करबौलनि। 'अगिनखोर' जें कि मैथिली मे छपि क' बाहर आबिये नहि सकल तें एकर पुनर्लेखन रेणु हिन्दी मे केलनि। 'अगिनखोर'क रेडियो प्रसारण कें स्मरण करैत गंगेश गुंजन कें रेणुक एक आर मैथिली कथा मोन पड़ि गेलनि। एहि कथा मे रामकृष्ण परमहंसक एक प्रसंग अबैत छल आ रामकथाक एक क्षेपक सेहो। ओकर शीर्षक गुंजन जी मोन नहि पाड़ि सकला। ओ कहानी कतहु छपबो नहि कयल, ने मैथिली मे, ने हिन्दी मे। कते खेदक बात थिक, ओही पटना सँ साप्ताहिक 'मिथिला मिहिर' नियमित बहराइत छल, जतय रेणु रहैत छला। जहिया कहियो हुनका सँ क्यो मैथिली कथा लिखबाक आग्रह केलखिन, ओ कहियो टारलनि नहि। स्पष्ट अछि जे अपन मैथिली लेखनक प्रति हुनका मे उत्कण्ठा भने नहि होइन, मुदा निष्ठा पर्याप्त रहनि। जँ से नहि होइतनि तँ अपन मैथिली कहानी कें ओ एक बेर फेर सँ हिन्दी मे लिखि पारिश्रमिक प्राप्त क' सकैत रहथि। हुनकर कहल ओ आश्चर्य-मिश्रित बात-- 'मैथिली कहानी? मुदा एहन आग्रह तँ आइधरि क्यो हमरा सँ नहि कयने छला। हम देब। जरूर देब।'-- मानू तँ ताहि दिनक मैथिली पत्रकारिताक ललाट पर अंकित कलंक-लेख थिक। किए भाइ? एते पैघ लेखक मैथिली लिखबाक आग्रह नहि टारैत छथि, से बूझल अछि सब कें। मुदा हुनका आग्रह नहि करबनि, कारण ओ ब्राह्मण नहि छथि, वा हिन्दी लेखक छथि तें अछूत छथि। मैथिली कें संकुचित करबा मे कते-कते युग सँ कते-कते महारथी सब लागल छथि, अहाँ अनुमान क' सकै छी। 

             रेणुक मैथिली कथाक सब सँ पैघ विशेषता ई छनि जे ओ सब मुख्यधाराक कहानी थिक। जेहन आ जाहि स्तरक कहानी रेणु हिन्दी मे लिखलनि, ठीक-ठीक तेहने मैथिली मे। कहब जरूरी नहि जे हरेक भाषाक लेल/ भाषा के, लेखकक मोन मे एक स्पष्ट आभामंडल बनल होइत अछि। जखन लेखक कोनो खास भाषा मे लिखि रहल होइत अछि तँ एहि आभामंडल सँ आवश्यक रूपें घेरायल रहैत अछि। कोनो भाषाक प्रति जँ लेखकक दृष्टि कमतर रहैत अछि तँ जाहिरा तौर पर से ओकर लिखल वस्तुक कथ्य आ ट्रीटमेन्ट दुनू मे प्रतिध्वनित होयबे करैत अछि। जेना, अपन आखिरी दिन मे नंदकिशोर नवल यात्रीपरक अपन एक संस्मरण मे लिखलनि जे मैथिली मे तँ एखनो महाकाव्ये लिखल जाइत अछि, महाकाव्येक युग चलि रहल अछि। मैथिल भाइलोकनि कें भने ई बात खराब लागनि, मुदा चौबगली देखू तँ नवल जीक कथन निरर्थक नहि लागत। एहना स्थिति मे ओहि भाषाक जे पाठक हेता, ओहो ओही स्तरक हेता। एहना स्थिति मे कोनो पैघ आधुनिक लेखक जँ मैथिली मे लिखत तँ एहि आभामंडल सँ तँ जरूर ओकर पल्ला पड़तै। अहाँ कें साइत भरोस करब मोश्किल होयत जे मैथिलीक महान आलोचक रमानाथ झा जखन अंग्रेजी लिखि रहल होथि तँ टी.एस.इलियट कें अपन आदर्श मानैत गजब के वस्तुनिष्ठ विश्लेषक नजरि आबथि, मुदा वैह आचार्य अपन मैथिली-लेखन मे प्राचीन ब्राह्मणवादी आदर्शे धरि अपना कें सीमित राखब मैथिली-लेखनक लेल पर्याप्त मानैत छला। राजकमल चौधरी सेहो अपन हिन्दी आ मैथिली लेखन मे अलग-अलग चीन्हल जा सकैत छथि, ओना दुनू जगह अपना-अपना तरहक नवता आ प्रयोगशीलता मौजूद छनि। यात्री नागार्जुन एहि मे सब सँ अलग छथि आ हुनका लेखन मे ई फांक लगभग गायब अछि। रेणु के मैथिली-लेखन मे सेहो हमसब यैह बात पबैत छी। लेखक जँ सही मे पैघ हुअय तँ अपन मेधा सँ कोनो खास भाषाक बनल-बनाएल लीक कें, ओकर आभामंडल कें तहस-नहस क' दैत छैक। एहि सब सँ भाषाक औरदा आ ओकर ओज बढ़ैत छैक। 

              उदाहरणक संग गप कयल जाइ तँ बात बेसी साफ होयत। 'नेपथ्यक अभिनेता' ठीक ओही संकट पर लिखल गेल कथा थिक जे कि रेणुक दू अन्य हिन्दी कथा 'ठेस' आ 'रसप्रिया' मे आयल अछि। ने सिरीचन हारि मानबा लेल तैयार अछि, ने मिरदंगिया। एहि कथाक अभिनेता सेहो हारबा लेल तैयार नहि अछि। एम्हर समय तते तेजी सँ बदलि रहल अछि जे एहि कलाकार सभक जीयब कठिन कयने अछि।  'लोक' के युग-युग व्यापी संस्कृति विलुप्ति के कगार पर अछि। अधखिज्जू आधुनिकता आ देखावटी लोकतंत्र पाबि क' पूंजी आरो अधिक बलिष्ठ, आरो बेसी घातक भ' चुकल अछि, जे धरोहर सभक सत्यानाश क' देबा पर तुलल अछि। काल्हि धरि जाहि आसन पर सामंत लोकनि छला, ओही आसन पर आइ पूंजीपति अछि आ राजनीति तँ बुझू ओकर खबासिन छियै। ओकरा लेल कथी थिक संस्कृति, कथी थिक धरोहर? सब गोटे जनैत छी जे 'लोक'क जीवंत संस्कृति सँ लगातार दूरी बरतनिहार एहि 'गोबरपट्टी' सँ रेणु कते आहत रहैत छला। लोक-धरोहर सभक उजड़ैत जेबाक जेहन दारुण चिन्ता हमरा सब कें रेणु लग मे भेटैत अछि, एक रहू कारण सँ ओ अपन समकालीन भारतीय भाषा सभक लेखक मे अन्यतम छथि। 

              'ठेस'क सिरीचन एहि कारण सँ उजड़ैत अछि जे आब प्लास्टिक बाजार मे आबि गेल छै आ प्लास्टिकक बनल शीतलपाटी लोक कें सस्ते टा नहि, आकर्षको लागय लगलैक अछि। मिरदंगिया विदापत नाच के मूलगैन रहल अछि। मूलगैन होयब कते पैघ बात भेलै, से जाननिहार जानिते हेता। विदापत नाच आब बीतल जबानाक बात बनि क' रहि गेल, जकर कलाकार सब आब संभ्रान्त बाबू-बबुआन सँ भीखो धरि पेबाक हकदार नहि रहल। किएक? एहि दुआरे जे विदापत नाच आब पछड़ल आ जाहिल समुदाय के मनोरंजनक वस्तु बनि क' रहि गेल। जें कि तथाकथित लोकतंत्र आब आबि गेल छै, तें पछड़ल-जाहिल समुदाय सेहो अपना कें पछड़ल-जाहिल मानबा लेल तैयार नहि अछि। एहि कारण सँ जाहि समुदाय विशेषक ई धरोहर छल, ओहो आब एहि परंपरा कें आगू ल' जेबाक लेल तैयार नहि अछि। रेणुक रेखाचित्र 'विदापत नाच'(1941) कें ध्यान मे राखि क' देखी तँ रेणु अपन रचनाशीलताक आरंभे एही चिन्ता सब सँ कयने रहथि। 

            नेपथ्यक ई अभिनेता पारसी थियेटरक विख्यात अभिनेता रहल अछि। देशक चुनौटा पन्द्रह टा थियेटर कंपनी मे ओ काज क' चुकल अछि। अपना जबाना मे ओकर लोकप्रियता एहन रहै जे लोक ओकर एक झलक पाबै लेल भीड़ लगा दैत छल। भारत मे सिनेमा आयल तँ थियेटर कें उजाड़ि देलक। सबटा कंपनी सब बेराबेरी बन्द भ' गेलै। मिरदंगिये जकाँ ई अभिनेता सेहो रोड पर आबि गेल। बदलल माध्यम आ माहौल के संग एडजस्ट करबाक कोशिश ओ नहि कयने हो, सेहो नहि। एहि मामला मे ओ सिरीचन आ मिरदंगिया दुनू सँ आगू बढ़ल नायक थिक। कहानी सँ पता लगैत अछि, सिनेमाक चला-चलती देखि क' ओ फिल्मनगरी बंबई धरि सेहो गेल, मुदा ओहि ठामक रेवाज आ कल्चर तते अलग रहै जे ओतय ठठब ओकर मोन नहि मानलकै। ओ गर्दिश के मारल जरूर अछि मुदा हारल नहि अछि। आब ओ एक बिलकुल नब विधा मे काज शुरू केलक अछि। आब ओकरा अटैची मे तरह-तरह के मुखौटा भरल रहैत अछि, आ एकटा करिया लुंगी, जकर उपयोग ओ ग्रीनरूम के रूप मे करैए। ओ मुखौटा सब ओहि-ओहि ड्रामाक मशहूर नायक सभक छियै, जकर करतब देखबाक कद्रदान एखनो बहुत ठाम बचल छै। अपना लुंगी सँ ओ मुँह झंपैत अछि, आ भीतर खट द' मुखौटा बदलि, लुंगी हटबैत अपन मुखौटाक अनुरूप ड्रामा सभक डायलाॅग बाज' लगैत अछि, उचित वाचिक-आंगिक अभिनयक संग। ढेर रास लोक जमा भ' जाइत छैक। ओ पुरान दिन लोक सभक आँखि मे जिन्दा भ' उठैत छैक। बच्चा सँ ल' क' बूढ़-बुढ़ानुस धरिक भरपूर मनोरंजन होइत छैक आ, कार्यक्रमक अन्त मे अपन टोपी कें भिक्षापात्र बना क' ओ दर्शक सब सँ आना-दू आना मांगि लैत अछि। बंबइ भने ओकर सब किछु छीनि लेने हो मुदा एक कला छै जे ओ बंबइये मे सिखलक अछि-- पूरा आत्मविश्वास संग फूसि बजबाक कला। आब ओ ककरो सँ बेझिझक कहि सकैत अछि-- 'साब, एक्सक्यूज मी, फाॅर लास्ट टू डेज आइ एम हंग्री, वेरी हंग्री, मांगने की हिम्मत नहीं होती किसी से।' एहि स्थिति मे अभिव्यंजना-संपादक माया बाबूक कहल ई बात तँ ठीक छै जे ई कथा नौटंकीक प्रख्यात पात्रक अंतिम समयक आर्थिक तंगी आ उपेक्षाक कथा थिक, जकर एक झलक पयबाक लेल ओहि बीतल समय मे लोक, बच्चा सँ बूढ़ धरि, तरसैत छल। मुदा तैयो ई मानबाक संगति हम नहि देखैत छी जे कलाकार आब रिटायर्ड भ' गेल अछि। नहि, रिटायर्ड नहि भेल अछि, ओ तँ पूरा जुझारूपनक संग जीवनसंघर्ष मे शामिल अछि आ कलासाधना मे सेहो। एहि कलाक माध्यम आ रूप-रंग भने बदलि गेल हो, मुदा ओकरा रोजी-रोटी देबा मे आइयो कले काज आबि रहल अछि।

               सुदूर इलाका सँ चलि क' कलाकार फारबिसगंज आयल अछि, जतय के बारे मे ओकर समझ छै जे 'मिथिला देस में आज भी नाटक के काफी शौकीन लोग हैं।' मजा के बात छै जे साठि-पैंसठ बरस पहिने फारबिसगंज के गनती मिथिला देस मे रहै, से स्वयं रेणु जी लिखलनि अछि। मुदा आइ बीच मे एहन राजनीति आबि गेल छै जे साइत रेणु जीक धियोपुता कें से मानबा मे असुविधाक बोध होइन। एकटा दोसर सत्य इहो छै जे एहि कथा कें लिखल जेबाक बादो कम सँ कम चालीस साल धरि मिथिला मे, एकर गाम-गाम मे नाटक जिन्दा छल। से नाटक सब लगभग ओही ढब-ढांचा के, जेहन कि नौटंकी कंपनी सब मे भेल करैत छल। एकरा लोक उत्तर बिहारक ग्रामीण रंगमंच कहल करै छथि। एहि कला कें चालीस बरस बादो धरि सिनेमा नहि खा सकल छल। सिनेमाक गाना सब जखन निच्चां उतरि क' आर्केष्ट्राक रूप मे गाम-गाम पहुँचल, तखनहि एहि ग्रामीण रंगमंचक अंतिम खात्मा भेलैक। 

          एहि कथा मे कला-समीक्षकक सेहो आगमन भेलैक अछि। ई देखब रोचक अछि जे सामान्यत: समीक्षा-दृष्टिक बल पर बांहि पुजौनिहार लोकनि कते पश्चगामी होइत छथि। सांप के भागि गेलाक बाद लाठी पिटपिटेनहार जमातक 'लोक' मे बहुत खिल्ली उड़ाओल जाइत छैक। रेणुक कला-समीक्षक कें एहि सँ कनेको कम नहि मानल जाय। हुनकर आनो अनेक रचना सब मे एहन लोकक बारे मे हुनकर यैह नजरिया प्रकट भेल अछि। तात्पर्य पश्चगामिता सँ अछि, जकरा समीक्षा-सिद्धान्तक रूप मे महिमा-मंडित करबाक चलन रहल अछि। वास्तविकता ई थिक जे मामला चाहे सृजनात्मक साहित्यक हो कि स्वयं व्यक्तिक जीवनक मार्मिकता-- हमसब पबैत छी जे एकर मर्म ठीक-ठीक पकड़बाक काज मे समीक्षक लोकनि बहुधा असफल रहैत छथि। एहि कथा मे तकरो एक प्रसंग अयलैक अछि। 

            आठ-नौ बरखक उमर रहल हेतै कथावाचकक, जखन ओ गुलाबबागक मेला मे पहिल बेर कोनो थियेटर देखने छल, आ ओही पहिल शो मे एहि अभिनेता कें सेहो देखने छल-- नेपथ्यक एहि अभिनेता कें, जकर की नाम रहै, तकर चर्चा रेणु एक्को बेर नहि कतहु कयने छथि। ओ छुट्टीक समय छल। स्कूल जखन खुलल, तँ थियेटरक एहि अतीन्द्रिय अनुभव कें बालक लोकनि एक दोसर कें सुनाइये रहल छला कि एही बीच समीक्षकक आगमन भेल। ओ आर क्यो नहि, कथावाचकेक सहपाठी बकुल बनर्जी छल, जकर उमर सेहो आठे-नौ बरस रहै। रेणु लिखैत छथि-- 'बड़ चंसगर, जन्मजात आर्टक्रिटिक, ओकरा कथनानुसार अइ नकली कंपनी मे-- पछिला बरस नागेसरबाग मेला मे ऐल असली कंपनीक छटुआ लोक सब छलै।' कोनो एक कंपनी मे काज केनिहार कलाकार जँ ओकरा छोड़ि क' दोसर कंपनी मे चलि जाय, तँ ओ (दोसर) कंपनी नकली कोना भ' गेल? मुदा रेणु बतबैत छथि जे केवल कलाकारे जन्मजात नहि होइछ, समीक्षक सेहो जन्मजाते होइत अछि। समीक्षकक एक तेसर मुद्रा सेहो होइ छै, ओकरो रेणु एतय उठा अनने छथि। एते मजा के चीज कें नकली ठहरेबा सँ जखन कथावाचक उदास भ' जाइत अछि, तँ अपन मित्रक प्रीत्यर्थ समीक्षक झट अपन मुद्रा बदलि लैत अछि-- 'तोव एक ठो बात हाइ-- ईस कंपनी में जिस मानुस ने रेलवे पोर्टर का पार्ट ये किया है, वह नागेसरबाग में आया कंपनी में भी यही पार्ट करता था, उसको तो नकली नेही कहने सोकते।' मतलब, जकरा हमसब समीक्षा-सिद्धान्त कहैत छियै, ओकरो प्रावधान सब सुविधा आ परिस्थितिक हिसाब सँ बदलि जेबाक लेल अभिशप्त रहैत अछि‌।

                 अन्त मे आबि क' कथा जतय अपन सर्वाधिक मार्मिक स्थल पर पहुंचैत अछि, मने कि बूढ़ा कलाकारक ई कथन-- 'साब, एक्सक्यूज मी, फाॅर लास्ट टू डेज आइ एम हंग्री, वेरी हंग्री-- संयोग कहियौ जे बकुल बनर्जी ओतय उपस्थित छल। रेणु लिखैत छथि-- 'जन्मजात आर्ट क्रिटिक हमर सहपाठी बकुल बनर्जी आइयो कला आ कलाकार कें चिन्हबाक धंधा ओहिना करैत अछि, सब दिन ओ एके रहल। हमरा दिस तकैत बकुल बाजल-- तू भी इसका बात मे फँस गये, मुझसे काल यह कह रहा था-- फाॅर टू डेज आइ एम हंग्री....!'

          एकटा विन्दु अबैत छैक जखन मार्मिकता आ समीक्षाक बीच सीधा मुठभिड़ान सँ बचब संभव नहि रहि जाइछ। यैह बात एहि कथाक अन्त मे आबि क' भेलैए। कथावाचक कें बकुलक कहल ई बात बहुत ओछ, बहुत तुच्छ लगलै। दुखी भ' क' ओ बकुल कें पुछैत अछि-- 'ठीक-ठीक बताना बकुल, इसके डोलते काया के पिंजड़े में जो पंछी बोल रहा है, उसकी बोली को सुनकर तुमको कुछ नहीं लगा?'

             -- 'कुछ नहीं लागता तो काल्ह ठो सारा दिन इसके साथ भीख मांगता? चोन्दा तो भीख ही हुई!'-- ई बकुल थिक जे अपन समीक्षाक सीमा स्वीकार क' रहल अछि।तखन एक दीर्घ नि:श्वासक संग ओ सीमा नांघि जाइत अछि। कहैत अछि-- 'क्या बताएं-- कैसा लगा! लगा, तुम्हारे अथवा मित्रगणों के साथ रात भर भागकर थियेटर देखने गया हूँ, हाॅस्टल से।' कथावाचकक प्रतीति सेहो किछु एहने अछि-- 'हाँ बकुल, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा।' अनुभूतिक ई एकता समीक्षा-दम्भ के धराशायी भेलाक बादे संभव अछि, जकर तात्पर्य भेल जीवनक मार्मिकताक स्वीकार। एहि तरहें देखी तँ एहि कथाक विषय, सामने देखार पड़ि रहल दृश्य सब सँ कतहु बेसी गहन, अधिक व्यापक अछि।

            जेना कि पहिने कहि चुकल छी, भाषाक प्रश्न रेणुक लेल दोयम भेल करनि। मुख्य प्रश्न वस्तुक छल आ ओकर रूप-विन्यास के, जकर एते पैघ सिद्ध कलाकार एतय आर क्यो नहि भेला। जें कि जे कोनो वस्तु ओ लिखलनि भने ओ हिन्दिये मे हो, मुदा ओ सबटा मिथिलाक बारे मे अछि, ओतहि के कहन मे, ओतहि के गढ़न, ओत्तहि के दिलक पतियेबा मे, अत: स्वाभाविक रूप सँ हिन्दी आ मैथिली मे लिखल वस्तु सब अलग-अलग स्केल पर नहि देखाइछ। कते आश्चर्यजनक बात थिक जे 'अगिनखोर' सन कहानी ओ मैथिली मे लिखने छला, जखन कि तहिया हिन्दियो मे एहि तरहक वस्तु लिखब चलन मे नहि छल, मैथिलीक तँ बाते छोड़ू।

                   'जहां पमन को गमन नहि' हुनकर दोसर मैथिली कथा छियनि, एकटा एहन विषय पर, मानू जे समुच्चाक समुच्चा रेणु-साहित्य जेना एक एही आशयक विस्तार होइक। एकर केन्द्र मे गाम छै। सौभाग्यवश ओ गाम नहि, जाहि मे जीबा लेल हम-अहां आइ अभिशप्त छी, अपितु ओ गाम जे पचास बरस पहिने ठीक एही रकबा पर मौजूद छल, जकरा छोड़ि क' हमसब आब बहुत आगू आबि गेल छी। आजुक तँ हाल छै जे की गाम, की शहर, सब ठाम एक्के रंग विषकुम्भ। टीवीक चैनल, हरेक हाथ मे मोबाइल, हरेक दिमाग मे गोबर भरबाक अभियान। पचास बरस पहिने मिथिलाक गाम केहन रहै, तकरे वृत्तान्त सब कें तँ लिखि क' रेणु एते पैघ लेखक बनि गेला। मैथिलीशरण गुप्तक ओ प्रसिद्ध पांती एतय मोन पड़ैत अछि जतय ओ राम कें कहने छनि जे तोहर नामे अपना आप मे काव्य छह, तें राम-गुण गौनिहार क्यो कवि बनि जाय से सहज संभाव्य छै। मोन मानबाक बात छै, रेणुक शब्द मे कही तँ दिल पतियेबाक। हम रामक बदला ई संभाव्यता गाम मे पाबै छी, हमरा लग से मानबाक बहुतो रास उदाहरण अछि। पहिल उदाहरण तँ स्वयं रेणुए छथि, यद्यपि कि ओ बहुत प्रतिभाशाली, बहुत सृजनक्षम लेखक छला। 'जां पमन को गमन नहि' कथा बहुत मार्मिक छै। एकर आरंभे एना भेल छै जे जखन कथावाचक गाम सँ घुरैत छथि तँ हरेक बेर हुनकर मित्र लोकनि पुछै छनि-- 'की यौ! कत' जा क' डूबि जाइत छी?' बीच मे ई कहि दी जे ई कथा बेस लालित्यपूर्ण भाषा आ कहन मे लिखल गेल अछि, जकरा पढ़ैत पाठक कतेको ठाम मुस्कियेने विना नहि रहता। से, रेणुक लेल गाम जायब, डूबि जायब कोना छल, तकर विस्तार एहि ठाम देखल जा सकैए। ओ स्वयं कहै छथि-- 'मने हमरा जँ कहियो डुबबाक मोन होइत अछि तँ हम गाम दिस विदाह होइत छी।' डुबबाक की अर्थ? शहर मे जाबे धरि अखबार नहि आबि जाय तँ 'दीर्घ वा लघु की, कोनो शंकाक निवारण सरलता सँ संभव नहि। मुदा गाम पहुँचितहि अखबारक दिशा अपनहि टूटि जाइत अछि।' दिशा शब्द कें ध्यान दी, जकर प्रयोग पुबारि मिथिला मे शौच-निवृत्तिक अर्थ मे होइत छैक। गाम मे रहनिहार पाँच-सात सौ लोकक लेल दुनियाक कोनो बखेड़ा, जे कि अक्सरहां मीडियाक माध्यम सँ अबैत छैक, ओकर निर्भय-नि:शंक जीवन कें बाधित नहि क' सकैत अछि। गामक दुनिये एक अलग दुनिया छिऐक। लिखै छथि-- 'तें, एक्को सप्ताह गाम सँ भ' अबैत छी तँ लगैत अछि-- सूखल मोन फेर पनिया गेल।जेना कान,आँखि आओर नाक, सब नव भेटि गेल हो।' दोसर बात ई छै जे जहिया-जहिया गाम सँ घुरै छथि, किछु ने किछु नव ल' क' अबिते टा छथि। कोनो बेर नव चूड़ा, नव चाउर, नव गूड़, आर कोनो बेर नव शब्द। कहै छथि-- 'बिनु डुबने एहन नव वस्तु-- शब्दमोती-- ककरो नहि भेटतनि।' एहि बेरुक यात्रा मे जे वस्तु अनलनि अछि, से यैह शब्दमोती सब छैक। बरसात के समय छै। गामक नबका नहरि कोनो ठाम टुटि गेलैए, तें सगरो जलामय अछि। एहि स्थिति कें गाम मे उजहिया कहल जाइ छै, मने मत्स्योत्सव। अघोरीदास हरबाह छथि। हुनका पुछै छथिन कतय टुटलै हौ, तँ उतारा भेटै छै-- ' टूटल नहि छै। कनेक सन 'बिरचि' गेल छै। कतय? दस आरडी लग। कथाक पांती छै-- 'के पतिआओत जे एहन घनघोर गामक ई अघोरीदास हरबाहा-- बासि भातक संग हरियर मरिचाइ जकाँ-- एकहि संग दुइ गोट हरियरे अंग्रेजी शब्द कचरि गेल।' एतबे नहि ने, पुछै छथिन--अपन हर कतय बहैत छहु? मैनरक ओहि पार, साइफन सँ उत्तर-- भीसीक भिठबा पर। तों एम्हर कत' जाइत छह बरद हांकने? अही ठाम कलवर्ट पर जायेब। ई तँ संयोग कहियौ जे कथावाचक कें एक दिन गामक ओहि अहद्दी छौंड़ा सँ मुलकात भ' गेलनि, जे आब सिंचाइ विभागक 'पेट्रोल' भ' गेल अछि। तखन हुनकर बुद्धिवर्द्धन भेलनि जे आरडी भेल रिड्यूस्ड डिस्टैन्ट। मैनर माने माइनर। साइफन आ कलवर्ट मे की अन्तर छै, सेहो बुझलनि। भीसी भेलै-- विलेज चैनल। भारी वर्षा आ बाढ़ि कें देखि एक गोटेक कहब भेलै जे 'एहन बाढ़ि रहल तँ एहि बेर फेर धानक कमीशन।' कमीशन की? ओ नहि जे सब क्यो बुझैत छियै। कमीशन के मतलब भेल अभाव। कथा मे पांती छै-- 'एहन बहुतो विदेशी-देशी शब्द अछि, जकरा हमर गाम बला सुखा क' माछक सुंगठी जकाँ उपयोग करैत अछि।' उदाहरण देने छथि-- अनबन, झगड़ादन, बोला-भुक्की बन्द-- एहि समस्त वस्तुस्थितिक लेल गौआं लोकनि आब एके टा शब्द सँ काज चला लैत अछि-- कनटेस। वाक्य देखू-- आइकाल्हि फलना सँ हुनका कनटेस (कनटेस्ट) चलैत छनि-- फलना बाबू  हुनक सपोट (सपोर्ट) कोना करता! जहाँधरि पोटेसे (प्रोटेस्ट) करता।          

             कथा मे एकठाम अबैत छैक-- 'हमरा गामक कोनो-ने-कोनो टोल मे, कालान्तर मे-- एकाध एहन आदमी फरैत रहला अछि, जे सब अपन-अपन युग मे नव-नव शब्द, नव-नव गारि ओ एक सँ एक बिकटाह कहबी गढ़ि क' हमरा गामक सरस्वती कें 'मुनहर' मे जमा क' गेलाह।' ध्यान राखल जाय-- एहि किसिमक लोक जनमैत नहि छथि, आम-जामुन जकाँ फरैत छथि। एही प्रसंग मे एकटा शब्द-निर्माणक खिस्सा कथावाचक कें मोन पड़ि जाइन छनि। हुनकर एक कविमित्र छलखिन जे गामेक एक भद्र व्यक्तिक सार छला। 'हमरा गाम मे एखनो एहन प्रिय 'कुटुम कें सार्वजनिक सम्पत्ति बूझल जाइत छनि।' से, कविमित्र कें एक बोनिहार एक दिन चुटकी लैत पुछि देलकनि जे बाबू, अपने तँ इसलोक-दुहा-कवित्त बनबैत छी, हमरा एकर अर्थ बुझा दिय' जे 'जहाँ पमन को गमन नहि, रवि ससि उगे न भान/ जो फल बरमाह रचौ नही, सो अबला मांगे दान'-- कहू जे ई कोन फल भेलै? जखन कविजी कें कोनो जवाब नहि फुरलनि तँ वैह बोनिहार कूट करैत बाजल-- की हौ कुटुम? सब 'सोनपिपही' सटकि गेल? स्वाभाविक जे तकरा बाद एक जोरदार पिहकारी पड़ल हेतै। ई शब्द-- सोनपिपही-- की भेलै, ओ केहन होइए? होइतो अछि की नहि? मुदा, गामक सरस्वतीक मुनहर मे एक नव शब्द ओहि दिन आबि क' शामिल भ' गेलैक। कवि महोदय अपन नबका कथा-संग्रहक नामे राखि लेलनि-- सोनपिपही। बाद मे आबि क' जखन ई शब्द ख्यात भेलैक तँ शब्दकोश सब मे एकर अर्थ बताओल गेल-- 'उत्तर बिहार तथा नेपाल तराइ दिस बाज' बला वाद्ययंत्र।'

          एहिना, कृषिविज्ञानक एक शब्द कोना प्रचलन मे आएल रहै, तकर खिस्सा। भेलै ई जीप पर सवार भ' कोनो हाकिम गाम बाटें जाइ छला। देखलनि जे एक बुढ़ा अपन खेत मे मड़ुआ रोपै छला। जीप रोकि क' हाकिम बुढ़ा कें पुछलखिन-- बूढ़ा, धान छोड़कर मड़ुआ क्यों रोपता है? अपन झुकल डांड़ कें सोझ करैत बुढ़ा बजला-- बाबू, अपनेक गाड़ी तँ चारिये गोट पहिया सँ चलैत अछि-- ई पांचम पहिया पाछां दिस किए खोंसि लैत छी? जवाब सुनि हाकिम अकबका गेला। बुढ़ा बजला-- जेना अपनेक ई पांचम पहिया, तहिना हमरा सभक ई मड़ुआ। धान, गहूम, जौ-मकइ हुसि गेल तँ हुसि गेल-- मुदा ई मड़ुआ नहि हुसै बला। हाकिम बेचारे एहि गाम सँ ई शब्द अपन विभाग मे ल' गेला आ नबका शब्द बनलै--'स्टेपनी क्राॅप'।

            यद्यपि कि ई कथा शब्दे सभक बारे मे अछि, तें ई नहि बूझल जाय जे बस एतबे कथा छै, अथवा एकहारा कथा छै। एक एक क' क' गामक अनेक दृश्यावली एहि कथा मे एलैए। भूमिका एकरा बूझल जाय-- 'भगवान तथा भगवतीक सम्मिलित कृपा सँ हमर गाम आइयो धरि घोर गामे अछि। हमरा गाम मे ककरो पढ़ब-लिखब नहि धारैत छैक। धार-साजक गप्प! ककरो पानक लत्तरि लगायब नहि धारैत छैक तँ ककरो नारियर रोपब आ ककरो कुकुर पोसब।तें, हमरा गामक जे केओ दुइयो आखर लिखि लेताह-- से सब गाम छोड़ि विदाह होइत जेताह।' सही मे, 'धार-साज' बला बात कते मार्मिक छै! थोड़-बहुत पढ़ल-लिखल लोक अपन गाम छोड़ैत अछि, बेसी पढ़ल लोक अपन राज्य छोड़ैत अछि आ जँ कायदा सँ पढ़ल हो तँ अपन देशे छोड़ि दैत अछि!

                  जे गाम सँ विदा भ' गेला तिनकर तँ बात छोड़ू। एहि कथा मे ओहि लोक सभक वृत्तान्त एलैए जे गाम कें धयने छथि। नहरि टुटला सँ गाम मे बाढ़ि आयल छै। गामक समस्त लोक उजगहिया मे माछ मारै लेल बहरायल छथि, जाहि मे कथावाचक अपनो छथि। माछ मारबाक वा पकड़बाक औजार की सब? धाँसा-धिम्मरि, टापी, जाल, कोयना आदि। जुवकक तँ बाते की नेनाभुटका सभक सेहो बुट्टी-बुट्टी चमकि रहल अछि एहि मत्स्यक्रीड़ाक उत्साह मे। धाँसा-धिम्मरि मे जखन पोठी-चुन्नी-टेंगरा-पैना आदि नन्हका माछ सब फँसैए तँ केहन लगैत अछि? --'धाँसा-धिम्मरि मे सोनाचानीक लाबा-फरही फुटैत जकाँ।' कोनो धाँसा मे एकाध टा अमेरिकन कबैय देखि क' एक गोटे बजैए-- 'जा-जा, ले अल्हुआ! फोचाय बाबूक पोखरि सेहो उमटाम भेलो रे!' अमेरिकन कबैय फोचाय बाबुए टा के पोखरि मे पोसाइत अछि, तें ओहि कहबैका के अनुमान सोड़हो आना सत्य छै। ता, एक दिस माछ बझौनिहार सभक दल मे कोलाहल भेल-- गंगाजीक माछ! कथावाचक उत्सुकतावश जा क' देखलनि तँ एक गोटेक टापी मे हिलसा माछ फँसल छल। अमेरिकन कबैय कें चिन्हनिहार माछबुझक्कड़ कें आब दोसरे फिकिर ध' लेलकै। ओ चिन्तित स्वर मे बाजल-- 'ओह, ससुरारि दिसुक सब गाम-घर गंगाजी मे भसिया गेल।'

एक इलाकाक मछबाह कें कोनो दोसर इलाकाक माछ देखार पड़ि गेल तँ ओहि इलाकाक जलमग्न हेबाक अनुमान स्वाभाविक रूप सँ भ' जाइत छैक। आ ओहि ठाम तँ तरह-तरह के लोक। क्यो बाजि देलक जे गंगाजीक की बात करै छह, आब तँ बुझह समुद्रोक माछ एतहि भेटि सकै छह! एहि बात पर 'माछक शिकारी सभक रसना एकहि संग सरसरा क' सरस भ' गेल-- एह! समुद्रक माछ? सुनै छियै जे समुद्रक माछ मे नोन देबाक कोनो प्रयोजन नहि। ठीके हौ?' मने बूझि लिय'। गामक जीता-जागता बहुरंगी छवि किताब पर उतारि देने छथि रेणु। एहि कथा मे जे 'शब्दमोती'क उल्लेख भेलैए, तकरे बिछबाक हुनर रहनि रेणु मे, आ ताही लेल ओ गाम जा क' डूबि जाइत छला, आ यैह ओ नेओ थिक जाहि पर रेणु-साहित्यक समुच्चा संवेदना-संसार ठाढ़ छै।

            

Tuesday, February 11, 2025

तारानंद वियोगी से आशुतोष कुमार ठाकुर का इंटरव्यू (सम्पूर्ण)


 आशुतोष--अपने आरंभिक जीवन और उन जीवनानुभवों के बारे में कुछ बताएं, जिन्होंने आपको लेखन के लिए प्रेरित किया? कौन-सी परिस्थितियां रहीं कि आपने साहित्य को ही लक्ष्य बना लिया?

           तारानंद--मेरा जन्म कृषि मजदूरों के एक विस्थापित परिवार में हुआ था। कोशी बांध निर्माण परियोजना से जो लाखों परिवार छिन्नमूल हुए, उनमें मेरा परिवार भी था। दादा परसौनी (सुपौल) से उपटकर महिषी आए थे। दादा की ही तरह गांव के हर वाशिन्दे का घर-द्वार, सारी जमीनें कोशी ने लील ली थीं। हर कोई अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग जगहों पर जा बसे। इस तरह, बचपन की पहली बात तो यही कि मैं एक ऐसे गांव का निवासी था, जहां अपने वंश का कोई न था। पिता की सबसे बड़ी देन यह रही कि इस हादसे को मैंने भी उनकी ही तरह सदा पाॅजीटिव लिया। अपना कोई नहीं, यानी कि हर कोई अपना। पिता ने अपनी बहादुरी और ईमानदार सेवावृत्ति से ऐसा व्यक्तित्व बनाया था कि प्रभाव भले कुछ न रहा हो, लेकिन अच्छे और निष्पक्ष आदमी की उनकी स्पष्ट पहचान थी। पिता कोई औपचारिक शिक्षा तो नहीं पा सके थे लेकिन दस्तखत करना जानते थे, और शिक्षा का महत्व उनकी नजर में सर्वोपरि था। आठ-दस की उमर में दो साल उनके साथ रहने का मौका मिला और यही समय मेरे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन का समय था। उन्होंने पढ़ने-लिखने की ललक मुझमें भर दी। अनेक महापुरुषों के प्रसंग उन्हें मालूम थे, जिनके दृष्टान्त मुझे दिया करते। दो बातें मुझे खास तौर पर याद हैं जो मुझमें प्रतिफलित हुए। एक, गांधीजी का यह कथन कि लिखावट का बुरा होना अधूरी शिक्षा की निशानी है। दूसरे, नेहरूजी के बारे में उनकी दी हुई यह जानकारी कि लिखित शब्दों के प्रति वो इतने संवेदनशील थे कि कहीं फेका हुआ कागज भी उठाकर देखते जरूर कि उसमें क्या लिखा है।

          मेरा गांव, महिषी पुराने जमाने से ही संस्कृत अध्ययन-अध्यापन का गढ़ था। मेरे समय तक यह परंपरा मौजूद थी। अनेक बुजुर्ग यह राय देते मिल जाते कि तुम्हें संस्कृत पढ़ना चाहिए। गांव में दो हाइ स्कूल थे लेकिन मैं संस्कृतवाले में गया। पिता ने जो संस्कार दिया था, उसे फूलने-फलने का पूरा अवसर यहां मिला। छोटी उमर में ही मैंने हजारों किताबें पढ़ ली थीं। पढ़ते-पढ़ते ही लिखने का खयाल किस बात से आया, यह बताता हूं। साहित्य-लेखन की परंपरा भी महिषीवासियों में हमेशा से रही है। राजकमल चौधरी के बारे में तो तब मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। एक दिन किसी से यह जानकर कि वह गीत, जो मुझे बहुत पसंद था और मैं बड़े मन से उसे गाता था, वह अपने ही गांव के इन महाशय ने लिखा है। यह मेरे लिए सचमुच एक आश्चर्यजनक बात थी। महाशय उमर में मुझसे बड़े थे लेकिन आम आदमियों जैसे थे। अब तो मेरे लिए उस गीत का संदर्भ ही बदल गया था। वह अगर लिख सकते हैं तो मैं भी तो लिख सकता हूं, इसी उत्सुकता ने मुझे लेखन की ओर आकर्षित किया। पन्द्रह-सोलह की उमर में तो मैं राजकमल के काम में लग गया था जिसकी कथा 'जीवन क्या जिया' में आई है। जिस साल मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, उसी साल मेरी पहली रचना 'मिथिला मिहिर' में छपी थी। उसमें निरंतरता भी रही और विविधता भी। पहले ही साल मेरी कविता, लेख और कहानी तीनो छपे।

            पढ़ना और लिखना, कुल दो ही काम थे जिन्हें करके मैं आनंदित होता था। रचनाएं छपने लगीं तो यह देखकर मुझे और भी अच्छा लगा कि पढ़ने वालों को ये चीजें अच्छी लगती हैं। मित्र भी बढ़ने लगे, पहचान भी बनने लगी। मैट्रिक का रिजल्ट आने पर जब मुझे नेशनल स्काॅलरशिप मिले तो मानो मेरे सबसे बड़े सवाल का जवाब मिल गया था। जिस काम में मेरा आनंद था, मेरे लिए यह जानना आश्चर्यजनक था कि मेरी उन्नति भी उसी में थी। मैंने खुद को साहित्य के लिए समर्पित कर दिया।


आशुतोष--आज जब आप अपनी आरंभिक रचनाओं से गुजरते हैं, तो क्या पाते हैं? वे चुनौतियां जिनके होते हुए, और जिनकी वजह से भी, आप यहां तक पहुंच सके! कैसे-कैसे दिन देखे?


तारानंद--चुनौतियों वाली बात आपने अच्छी कही। वे ढेर सारी चुनौतियां ही थीं, जिनकी वजह से जो भी कुछ संभव हुआ, कर सका। जब आप पराये होते हैं और आपको आक्रान्त करने के लिए जो जतन किये जाते हैं, उन्हें ही तो हम चुनौती कहते हैं। मेरा जन्म शूद्रों के एक परिवार में हुआ था, जबकि मेरा गांव ब्राह्मण-वर्चस्वी गांव था। पढ़ने-लिखने के आनंद ने स्वाभाविक ही ऐसी परिस्थिति बना दी कि कक्षा में हमेशा फर्स्ट आता। बचपन में तो यही मेरे लिए सबसे बड़ा संकट बनकर उभरा। स्वभाव से मिलनसार और जरूरतमंदों का सहायक रहा हूं। कहना चाहिये कि पिता का दिया संस्कार तो यह था ही, यह मेरे बचपन की एक रणनीति भी थी जो मेरे संघर्षों को कम करने के काम आती थी।

          दो-एक घटनाएं बताऊं तो बात थोड़ी स्पष्ट होगी। उन दिनों तक हमारे गांव में न पक्की सड़क पहुंची थी न बिजली। मेरे घर में लालटेन भी नहीं थी। अब देखिये। किसी रोज रात को पढ़ने बैठा हूं। कोई इतनी अच्छी किताब है कि जिसे पूरा किये विना चैन नहीं पड़ता। दोपहर रात को मां की नींद खुली और उन्होंने घर में डिबिया जलते पाया तो चिन्तित होकर झांकी। मुझे पढ़ते देख झल्ला गयी है कि अब सो जाओ। उनकी चिन्ता है कि किरासन बहुत महँगा भी है, दुर्लभ भी। यह हालत थी। एक और घटना सुनें। सब दिन से मेरी आदत रही है कि बहुत तेज कदम से चलता हूं। नौंवें-दसवें का छात्र रहा होऊंगा। एक दिन गांव की सड़क से गुजर रहा था कि एक देवता की नजर पड़ गयी। उन्होंने मां-बहन की दस गालियां दीं। क्यों भाई? तो, इतना तेज क्यों चलते हो? आहिश्ते चलो कि किसी को कुछ पूछने या समझने की जरूरत हो तो आराम से पूछ-समझ सके।

           मैं लिख चुका हूं और यहां फिर से आपको बताता हूं कि बाबा नागार्जुन का प्रवेश ऐसे वक्त पर मेरे जीवन में हुआ कि मैं नष्ट होने से बचा रह गया। वह भी एक ब्राह्मण थे, इस बात ने मानो मुझ पर संजीवनी-सा असर किया। वरना, ढेर सारे शूद्र युवक मैंने देखे हैं जिन्होंने ब्राह्मणों के दुर्व्यवहार की प्रतिहिंसा में जलते हुए अपना जीवन नष्ट कर लिया। उन दिनों तो नहीं, पर बाद में जाकर यह तथ्य मेरे सामने उद्घाटित हुआ कि जिस मैथिली साहित्य में मैं पिछले चालीस साल से अनवरत काम करता आ रहा हूं वह भी अंतत: क्या है? ब्राह्मण-वर्चस्वी महिषी गांव का ही एक बड़ा संस्करण है।

           अपनी ही पुरानी रचनाओं को पढ़ूं तो कई बार खीज होती है कि इसे ऐसा नहीं वैसा लिखना था। लेकिन कई बार बड़ा अचरज होता है कि उन दिनों मैं ऐसा लिख सका। हां, कई दूसरे रचनाकारों की तरह मुझे कभी अपनी किसी रचना को डिज-आॅन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जीवन को धारा कहते हैं लेकिन केन्द्रक तो कोई हो जिसे आप जीवनाधार बता सकें। कुछ होना चाहिये कि जिसे बचाने के लिए आप ढेर सारी दूसरी चीजों को छोड़ सकें। उस विस्थापित कृषि-मजदूर के बेटे को लगातार भीतर जीवित पाता हूं।


आशुतोष--'बाभनक गाम' आपकी बहुत प्रसिद्ध कविता है।  क्या आप इस कविता के पीछे की प्रेरणा और रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बता सकते हैं?


तारानंद--'बाभनक गाम' कविता जिन दिनों छपी थी, सन 2000 में, मैथिलों के समाज में बहुत खलबली मची थी। बहुत सारे साहित्यकार ऐसे थे, साहित्यकार भी उन्हें कैसे कहा जाए-- उन्हें तो ब्राह्मणवाद का वामपंथी मुखौटा ही कहना होगा, वे लोग स्थायी रूप से मेरे दुश्मन हो गये। वैसे भी, मैथिली का रिवाज है कि इसका कोई कवि युवापन में भले उग्र वामपंथ का भूमिगत लड़ाका ही क्यों न रह चुका हो लेकिन उसका बुढ़ापा आरएसएस की छांव में ही आकर शरण पाता है। अभी पिछले साल मैथिली के एक बड़े लेखक पं. गोविन्द झा का देहान्त हुआ है। पंडित जी ने सौ साल की जिंदगी पाई। जवानी में वह भी कोई कम विद्रोही नहीं थे, लेकिन इधर के वर्षों में आधुनिकता को लेकर उन्होंने अपनी यह स्थापना दी थी कि यहां जो जितना बड़ा पापी होता है, वह उतना ही महान लेखक माना जाता है जैसे यात्री नागार्जुन और राजकमल चौधरी। तो, यहां यही रिवाज चलता आया है। इस कविता के छपने से मेरे गांव के कई लोग बड़े आक्रोशित हुए, तरह-तरह से मुझे हानि पहँचाने की कोशिश हुई। मेरे एक ब्राह्मण कवि-मित्र ने 'अंतिका' के उस अंक की थोक प्रतियां खरीदीं और मेरे गांव के घर-घर में बँटवाया कि लोग गुस्से में आकर मेरे घर में आग लगा दें। खैर, बाद में तो श्रीधरम ने इस कविता पर लेख लिखा, अनुवाद किया तो यह कविता बाहर भी बहुत प्रसिद्ध हुई। अंबेदकरनामा पर रतनलाल और संजीव चंदन ने मिलकर इसपर शो किया। लेकिन, आप इसे पढ़कर देखिये। इसे ढंग की दलित कविता कहने में भी शायद आपको संकोच हो। वजह है करुणा, जो ब्राह्मणों के अजन्मे बच्चों के लिए हैं। मतलब, उन अजन्मों ने इनका क्या बिगाड़ा कि सभ्य इंसान वाली मानसिकता के साथ जीवन में उनके प्रवेश को भी ये अभागे असंभव बना रहे हैं।

      प्रेरणा और प्रक्रिया के बारे में आपने पूछा। अबतक किसी ने पूछा नहीं और मैंने बताया भी नहीं है। आप जानते हैं कि अपने गांव से मैं गहराई से जुड़ा रहा हूं। अगर आप मुझे यह आफर दें कि संसार की किसी भी जगह पर जाकर एक महीने की छुट्टी गुजारूं, तो मैं अपने गांव को चुनूंगा। इतना। दशहरे का त्योहार हमारे यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। हर साल मैं इस मौके पर गांव जरूर जाता था। और, मेरी एक आदत उन दिनों थी कि इस अवसर पर मित्र और युवा साहित्यकारों को आमंत्रित करता था। दो-तीन दिन सब साथ रहते, चर्चा-परिचर्चा होती और हर दिन शाम को रचना-शिविर करते थे, जिसमें ताजा रचनाएं लिखी जातीं, उनका वाचन होता। देर रात तक यह सब चलता था। 1999 के दशहरे की बात है। नवमी की सुबह-सुबह अतिथि युवा लेखक पंकज पराशर ने मुझे बताया कि रात में जब सबलोग सोने गये तो कोई ब्राह्मण-देवता मेरे बंद दरवाजे के बाहर खड़े होकर मेरा नाम लेते हुए, लगभग रात भर मुझे मां-बहन की गालियां देते रहे। और, ये तब की बात है जब मुझे डिप्टी कलक्टर हुए पांच साल से ज्यादा हो चुके थे। मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं थी। गाली देनेवाले का कलेजा किस बात से जला होगा, यह भी मैं समझ रहा था। देखिये, दुनिया कहां से कहां चली गयी लेकिन गांव का ब्राह्मण अब भी इस बात से परेशान होता है कि शूद्रों के घर सभ्य लोग क्यों बैठते हैं। मुझे दुख हुआ। बरसों बीत गये थे, गांव जरा सा भी नहीं बदला था। मुझे गांव की आनेवाली पीढ़ियों के लिए दुख हुआ। यह कविता उसी शाम के रचना-शिविर में लिखी गयी थी। पंकज भी क्षुब्ध हुए थे। उन्होंने भी बहुत तीखी कविता उस शाम लिखी थी।

       बिलकुल आरंभ से ही मैं मैथिली में अलग तरह की कविताएं लिखता था। जाहिर है, मेरी अनुभूतियां मेरी तरह से अभिव्यक्त होती थीं। ये कविताएं पत्रिकाओं में छपीं और कमोबेश नोटिश भी की गयीं। 1996 में जब मेरा पहला संग्रह 'हस्तक्षेप' छपा, तो इसकी समीक्षा प्रख्यात कवि जीवकान्त ने की। तारीफ की कई बातें कहीं, इस संग्रह का आना मैथिली के लिए एक उपलब्धि जैसा बताया गया, आदि-आदि। लेकिन, उन्होंने अपनी समीक्षा का शीर्षक दिया-- 'मैथिली में दलित कविता का हस्तक्षेप'। मेरा तो जो हुआ, स्वयं जीवकान्त की बड़ी निंदा की गयी कि परम पवित्र मां मैथिली को खंडित करने का षड्यंत्र करते हैं कि दलित कविता की बात कर रहे हैं। समूची दुनिया जानती है, विद्यापति के बाद मिथिला में सबसे बड़े कवि यात्री नागार्जुन हुए, लेकिन आप जरा सर्वे कर लीजिए। जो अपने को सच्चा मैथिल मानते हैं उनके होठों पर आज भी नागार्जुन के लिए मां-बहन की गालियां मिलेंगी। मिथिला जरा भी नहीं बदली आशुतोष। आप देखिये।


आशुतोष--आपकी पुस्तकें 'कर्मधारय' और 'बहुवचन' बहुत सराही गई हैं।  क्या आप इन किताबों में विचार किये गए विषयों पर कुछ बताना चाहेंगे? ये पुस्तकें मैथिली साहित्य के व्यापक परिदृश्य में कैसे योगदान देती हैं?


तारानंद-- ये दोनों मेरे आलोचनात्मक निबन्धों की किताबें हैं। मैथिली आलोचना के साथ दिक्कत यह रही कि हर नया आलोचक पुराने आचार्यों की ओर मुखातिब होता है, मानो आलोचना-कर्म कोई काउन्सिलिंग हो जिसमें सफल होने पर आपको स्थायी नौकरी लग जानेवाली हो, या फिर आप भवसागर पार कर जानेवाले हों। अपनी आलोचना में पहली चोट तो मैंने इसी प्रथा पर मारी। मैंने तो भूमिकाओं में साफ-साफ यह बात लिख दी कि मैं माननीयों को, मठाधीशों को संबोधित नहीं हूं, अपनी किताब उन साधारण पाठकों के लिए लिख रहा हूं जो मैथिली साहित्य को उसकी गहन वास्तविकता में जानना चाहते हैं। दूसरी चीज क्या रही कि संस्कृत और प्राचीन साहित्य की जानकारी रहने के कारण मुझमें एक आत्मविश्वास बना रहा। देखिये, पुरानी कही सच बात है कि भय भी शक्ति देता है। फल हुआ कि अपनी स्थापनाओं में मैं किसी से भी डरा नहीं। कर्मधारय में पांच अध्याय हैं। पहला अध्याय है कि बीसवीं सदी में मैथिली के महान लेखक कौन हुए और क्यों? अध्याय का शीर्षक है-- शताब्दी के सूत्रधार। इसमें मैंने जिन चार लेखकों को चुना वे थे-- यात्री नागार्जुन, हरिमोहन झा, काञ्चीनाथ झा किरण और राजकमल चौधरी। अब देखिये, इस सूची में न सुरेन्द्र झा सुमन हैं, न चन्द्रनाथ मिश्र अमर। काशीकान्त मिश्र मधुप भी नहीं हैं। और तो और, कविवर सीताराम झा भी नहीं हैं, न कविशेखर बदरीनाथ झा। दूसरे अध्याय 'समय-साक्षी' में अन्य महत्वपूर्ण लेखक-- धूमकेतु, जीवकान्त, किसुन, कुलानंद मिश्र वगैरह पर अध्याय दिये गये। तीसरा अध्याय 'परिदृश्य' है, जिसके चौदह लेखों में आप समकालीन कथासाहित्य की विधाओं, प्रवृत्तियों, उपलब्धियों का अवलोकन कर सकते हैं। शताब्दी के अंत में जो विधाओं का रुझान देखा गया, उसपर भी विस्तार से चर्चा है। अगला अध्याय समकालीन कविता पर है और अंतिम 'चतुर्दिक' नामक ऐसा अध्याय है जहां आप मिथिला के समाज, समय, पुरातनता और आधुनिकता के द्वन्द्व वगैरह को देख सकते हैं। यहां दो लेख मैथिली पत्रकारिता पर भी हैं और एक लेख अनूदित साहित्य की गुणवत्ता पर भी। 

      मैथिलों की यह समझ रही है कि आलोचना भले मुखामुखी कर ली जाए, लेकिन यह लिखने की चीज नहीं है। इसीलिए  मिथिला के इतिहास की सामग्रियां आप किंवदन्तियों और दन्तकथाओं में ही पाएंगे। आलोचक से यहां लोग घृणा करते हैं और उन्हें पुरस्कार आदि के योग्य नहीं माना जाता। मेरे साथ बड़ी सुविधा यह रही कि पहले से ही लोग मुझसे घृणा करते थे। किसी ने पुरस्कार के लिए चुना भी तो मैं ही हील-हुज्जत करता रहा। कुछ पुरस्कार तो बाकायदा लिखित आपत्ति करते हुए मैंने अस्वीकार किये।

       दूसरी किताब 'बहुवचन' मुख्यत: मिथिला में नवजागरण-तत्वों की तलाश का उपक्रम है।  उन्नीसवीं सदी के अंत से शुरू हुआ अभियान किस तरह समूची बीसवीं सदी, और आजतक भी, मिथिला समाज को प्रभावित करता आया, और मैथिली साहित्य की विभिन्न विधाओं में योग्य लेखकों ने इसे किस तरह अभिलिखित किया, यहां इसका विश्लेषण है। यहां स्पष्ट कर दूं कि देश के अन्य समाजों की तरह बहुलता की संस्कृति मिथिला के भी वृहत्तर समाज की रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश परंपरित मैथिली साहित्य सिर्फ ब्राह्मण-संस्कृति को मैथिल संस्कृति साबित करने का दुराग्रही रहा है। 'कर्मधारय' में जहां आलोचना को एक्टीविज्म के तौर पर बरतने की कोशिश है, वहीं 'बहुवचन' वृहत्तर बहुल सांस्कृतिक मिथिला के पदचाप सुनने की कोशिश है। एक बात आलोचना की भाषा पर। मानक शैली का जो निर्धारण एकबार आचार्य रमानाथ झा ने कर दिया, वामपंथी आलोचकों ने भी अपने औजार भले बदल लिये हों लेकिन आलोचना की शैली और भाषा में वे वहीं-के-वहीं बने रहे। मेरे लिए इन सब का कोई मूल्य नहीं था, क्योंकि मैं शुरू से ही सृजनात्मक लेखन की भावना के साथ ही आलोचना के साथ बर्ताव करता आया हूं।

         मेरे निष्कर्षों ने परिदृश्य में हस्तक्षेप तो जरूर किया है। आज जो बिलकुल नयी पीढ़ी के पाठक मैथिली में आए हैं, दुनिया भर की जानकारी से लैस, और अब अपनी मातृभाषा के मर्म से और दशा-दिशा से परिचित होना चाहते हैं, मुझे खुशी है यह कहते हुए कि अपनी आंख के तौर पर वे मेरा इस्तेमाल करते हैं। मैथिली के लोगों में अक्सर इस नैतिकता की कमी पाई जाती है कि अगर किसी के विचार को उद्धृत करें तो नामोल्लेख भी कर दें। लेकिन, मेरे जैसा आदमी तो इसी को बहुत मानता है कि मेरी कही बात दस कलमों से अभिलिखित की जा रही है।


आशुतोष-यात्री नागार्जुन एक अद्भुत कवि और लेखक हुए।  अपने संस्मरण 'तुमि चिर सारथि'(मैथिली) और जीवनी 'युगों का यात्री'(हिन्दी) में आपने नागार्जुन के जीवन पर विलक्षण ढंग से प्रकाश डाला है।  नागार्जुन के साथ आपके रिश्ते ने आपकी लेखन-शैली और दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित किया?


तारानंद-- देखिये, जिन दिनों मैं बाबा की संगत में आया था, सभी अर्थों में वह बहुत बड़े थे, और मैं बहुत छोटा। छुटपन से ही मैं डायरी लिखता था। बाबा की कही बातें मेरे लिए इतनी वजनदार होती थीं कि हर दिन की बात मैं लिख लेने की कोशिश करता। आम तौर पर लोग यह नहीं कर पाते। जानते हैं क्यों? क्योंकि किसी को इतना बड़ा स्वीकारना, भले ही आप एक बच्चा हों, आपके अहंकार को चोट पहुंचाता है। मैंने वहां लिखा है, वे बातें मैंने इसलिए नोट नहीं की थीं कि इनके सहारे मुझे कुछ लिखना था, बल्कि इसलिए कि ये मेरे जीवन के काम आने वाली थीं। चूंकि समूचे जीवन के साथ मैंने उनके प्रवाह में बहने की कामना की थी, यह अलग करना जरा मुश्किल है कि शैली और दृष्टिकोण किस हद तक प्रभावित हुए। बाबा गद्य लिखने पर बहुत जोर देते थे। फर्स्ट हैंड अनुभूति को ही वह लिखने की चीज मानते थे। किसी खास कविता को किस भाषा-शैली में लिखा जाए कि बात बने, इसके लिए मैंने 75 पार की उमर में उन्हें परेशान होते देखा है। लेखन में शिल्प की उतनी भर जरूरत होती है कि आपकी अनुभूति शब्दों में ठीक-ठीक अँट जाएं। इतने बड़े कवि की संगत में जब आप ये सारी घटनाएं घटते हुए साक्षात देखते हैं तो बात सीधे दिल-दिमाग तक पहुँचती है। अलग से आपको प्रभाव खोजने की जरूरत नहीं होती।

        बाबा की एक आदत थी कि मैथिली का कोई बहुत प्रतिभाशाली कवि उनसे मिले तो वह मैथिली के साथ-साथ हिन्दी में लिखने का सुझाव देते थे। मैं पहले से ही हिन्दी में लिखता था। मेरी कई आरंभिक कविताएं ज्ञानरंजन जी ने 'पहल' में छापी थीं। लेकिन, आप शायद आश्चर्य करें, मेरे साथ बिलकुल उलटा हुआ था। मुझे उन्होंने मैथिली, और सिर्फ मैथिली में लिखने का सुझाव दिया था। अब सोचता हूं तो लगता है कि मैथिली के साथ चिपके ब्राह्मण-वर्चस्व को लेकर उनकी चिन्ता ही इस सुझाव के पीछे रही होगी। अपने बारे में वह अक्सर बताते थे कि उन्हें यदि कोई उनके असली स्वरूप में देखना चाहे तो उसे उनकी मैथिली कविताएं पढ़नी चाहिए। बहुत फर्क है। अब जैसे राजनीतिक कविताओं को ही लीजिये जिसके लिए उनकी विशेष प्रसिद्धि है। मैथिली की राजनीतिक कविताएं बहुत अलग हैं। तात्कालिकता के बदले उनमें एक स्थायित्व है जो जन और अभिजन की राजनीति और कूटयांत्रिकी को बिलकुल अलग तरीके से बेनकाब करता है। कविता में राजनीति को कुछ इसी तरह लाने काम मैं भी अपने तरीके से करता रहा।

       


आशुतोष-- राजकमल चौधरी, मैथिली और हिंदी में एक और प्रभावशाली लेखक हैं। आप दोनों एक ही गांव महिसी के निवासी रहे हैं।  आपने राजकमल पर हिन्दी में एक यादगार पुस्तक 'जीवन क्या जिया' लिखी है।  राजकमल चौधरी के लेखन ने मैथिली साहित्य की गति को किस प्रकार प्रभावित किया है?


तारानंद-- यात्री ने जिस ऊंचाई तक मैथिली कविता और उपन्यास  को पहुँचा दिया था, यह एक कठिन चुनौती थी कि आगे यह कौन सी राह पकड़ेगी। राजकमल को यात्री ने ही तैयार किया था और बढ़ावा दिया कि वे आगे बढ़ें। उनकी अनुभूतियां ज्यादा जटिल थीं तो जरूरी था कि भाषा और शिल्प भी नये ढंग का उन्हें चाहिये था। यह काम वह बखूबी कर सके। राजकमल के पहले कोई बौद्धिक कविता-वाचक मैथिली कविता में नहीं आया था, क्योंकि ऐसे जटिल विषय ही नहीं आए थे। यह विस्तार इसे राजकमल से मिला। राजकमल की मैथिली कहानी को साथ रखकर यदि आप सोचें तो यह सवाल उठेगा कि वह ज्यादा बड़े कथाकार थे कि ज्यादा बड़े कवि? जाहिर है, दोनों ही विधाओं के अपने अलग-अलग मानदंड हैं और उन्होंने दोनों में अलग-अलग सिद्धियां प्राप्त की थीं। आगे की मैथिली कहानी को आप देखें तो पाएंगे कि राजकमल के बाद मैथिली की आधुनिक कहानी दो अलग-अलग धाराओं में फूटी, उन्हें लोग ललित-धारा और राजकमल-धारा कहते हैं। ललित के यहां यथार्थवादी गद्य है तो राजकमल के यहां संवेदनाओं की इतनी तरलता कि उनके गद्य के भीतर से एक विरल किस्म की काव्यात्मकता आपको झांकती मिलेगी। 

       राजकमल ने मैथिली की कई परतियां तोड़ीं। ऐसे-ऐसे विषय और पात्र ले आए कि कोई दंग रह जाए। कई लोग उन्हें 'पतित-पावन' कहते मिलेंगे, लेकिन असल बात है कि किन सामन्ती शक्तियों को उन्होंने बेपर्द किया और इसकी आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी। मैथिली की कविता हो या कहानी, आप देखेंगे, राजकमल के बाद वैसी ही नहीं रही जैसी उनके पहले थी।



आशुतोष-- आप मैथिली साहित्य की वर्तमान स्थिति को कैसे देखते हैं, और पिछले कुछ वर्षों में आपने क्या रुझान या परिवर्तन देखे हैं?


तारानंद-- उस अभागन भाषा-साहित्य के बारे में भला मैं क्या कह सकता हूं जिसका सम्पूर्ण वर्तमान संकीर्ण ब्राह्मणवादियों और थर्ड क्लास के दलालों के हाथों गिरवी है! यह एक अलग तथ्य है कि एक हजार के लगभग नये-पुराने लेखक आज मैथिली में लिख रहे हैं, जिनमें कम-से-कम चालीस प्रतिशत लोग ब्राह्मणेतर हैं। यह भी अलग बात है कि ब्राह्मणेतर लेखक भी चीज वही लिख रहे हैं जिनके आदर्श ब्राह्मणवादी हैं। यह भी एक तथ्य है कि इन हजार लेखकों में कम-से-कम पचास तो जरूर ऐसे हैं जो उच्च गुणवत्ता की रचना कर रहे हैं। लेकिन, आपको यह देखना चाहिए कि मैथिली के वर्तमान माहौल में उन उच्च गुणवत्तावालों की पूछ कितनी है, पुरस्कृत-सम्मानित कितने किये जा रहे हैं! मतलब, नहीं किये जा रहे। एक समानान्तर घटिया साहित्य-संसार खड़ा किया जा रहा है जहां भाड़े के लोगों से कोर्स और सम्मान के लिए किताबें लिखवाई जा रही हैं। ब्राह्मण लड़ाके आज अलग मिथिला राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि जो चीजें उन्हें मिली हुई हैं, जैसे अष्टम अनुसूची, विश्वविद्यालय, अकादमियां वगैरह, उनके संचालन में अपनी कपटपूर्ण विवेकहीनता का अच्छा परिचय दे रहे हैं। हां, यह जरूर है कि पिछले दशक से मैथिली के स्त्री-लेखन में आशातीत उर्वरता देखी जा रही है। यह बात मुझे बेहद अच्छी लगती है।

        देखिये, हमारे-जैसे लोगों ने भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा नहीं लिया था, क्योंकि जन्म ही देर से हुआ था। लेकिन, हम-जैसे लोग इन तमाम विपरीत हालात के बावजूद यदि मैथिली में काम कर रहे हैं तो इसके पीछे बात यही है कि अपनी मातृभाषा की मुक्ति के लिए वही स्वतंत्रता-संग्रामियों वाला उत्साह अपने भीतर पाते हैं। लेकिन कहना होगा कि इस चीज के भी आखिरी दिन चल रहे हैं, क्योंकि उस संग्राम के आदर्श पूरी तरह ध्वस्त किये जा चुके हैं। ऐसा तो नहीं होगा कि मैथिली मर जाएगी, क्योंकि  जब अंग्रेजी के विश्वव्यापी साम्राज्य के बावजूद ब्रिटेन के कुछेक लाख लोगों की केल्टिक और गेलिक भाषाएं नहीं मरीं जिनके मर जाने की भविष्यवाणी एक शताब्दी से की जा रही है, तो मैथिली क्या मरेगी! लेकिन आपको पता है, अतीत में हुए लेखकों ने मैथिली साहित्य को जो बौद्धिक संपदा की परंपरा दी है, उसके बचे रहने में मुझे पूरा संशय है। कुछ दशक बाद आप पाएंगे, मैथिली का लेखन उसी स्तर पर सिमट जाएगा जैसा मगही, वज्जिका वगैरह का है। इस डैमेज को कंट्रोल करने में यदि आप-जैसे लोग कुछ कर सकते हों तो जरूर करना चाहिये।

आशुतोष-- क्या मैथिली साहित्य में दलित महिला लेखन और अल्पसंख्यक लेखन जैसी कोई उभरती आवाजें हैं जो आपको विशेष रूप से आशाजनक या उल्लेखनीय लगती हैं?


तारानंद-- मुस्लिम लेखकों ने तो अरसे से मैथिली में काम किया है, जिनमें फजलुर रहमान हाशमी का लेखन उल्लेखनीय रहा है। वर्तमान में कई युवा सक्रिय हैं जिनके लेखन में अलग तेवर भी दिखता है। इनमें मुख्य रूप से मैं जियाउर रहमान जाफरी, गुफरान जिलानी और मुख्तार आलम के नाम लेना चाहूंगा। मंजर सुलेमान आलोचना में अच्छा कर सकते हैं, यदि निरंतरता रख सकें। दलित महिला लेखन यद्यपि आरंभिक चरण में है लेकिन ध्यान आकृष्ट करने की क्षमता रखता है। विभा कुमारी एक कबीरपंथी परिवार से हैं, जिनकी रचनाओं में आपको एक अलग मजबूती दीख पड़ेगी।


 

आशुतोष-- सबाल्टर्न अभिव्यक्ति में लगे एक लेखक के रूप में आपने किन चुनौतियों का सामना किया है? क्या आप मैथिली में अपने लेखन के माध्यम से हाशिए की आवाज़ों को आगे लाने में रुचि रखते हैं?


तारानंद-- आशुतोष जी, मैथिली जिसे कहते हैं वह तो असल में हाशिये का ही आविष्कार है। वरना, हजार वर्ष पहले जब यहां लिखने-पढ़ने की परंपरा निकली, ब्राह्मणों को भला 'भाखा' से क्या मतलब हो सकता था? मिथिला पांडित्य का देस था और ब्राह्मणों की भाषा संस्कृत थी। विद्यापति की भी निंदा मैथिलों ने इसी आधार पर की थी कि उन्होंने भाखा में कविताई करने की ढिठाई की थी। आज भी मिथिला के बहुसंख्यक पिछड़े दलितों के धार्मिक कर्मकांड की भाषा भी मैथिली ही है। लोकदेवताओं की गाथाएं मैथिली में गाई जाती हैं और देवता भी भगत की देह में प्रविष्ट होकर मैथिली में ही कहते-सुनते हैं। ब्राह्मणों के धार्मिक कृत्य की भाषा मैथिली नहीं, संस्कृत है। ऐसे में किसे हाशिया कहें किसे केन्द्रक? मध्यकाल में जब नेपाल और मिथिला के राजदरबारों में रोजगार की भाषा मैथिली बनी तो शिक्षित पंडितों ने इसमें रुचि लेना शुरू किया। बीसवीं सदी में तो दरभंगा राज ने शासनादेश के तहत मैथिली को मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की जातीय भाषा बना ली जो जमींदारी उन्मूलन के बाद भी बदस्तूर कायम रहा। जिनकी आविष्कृत भाषा थी यह, जिनके रोजमर्रा के काम आती थी, जिनकी संस्कृति का वाहक थी, वे चूंकि रैयत थे, मैथिली शोषकों की भाषा बनकर रह गयी, शोषितों से उसे छीन लिया गया। आप इतिहास देखें, 1881 में जिस एक लंबी कविता 'कवित्त अकाली'(कवि फतूरलाल) को ग्रियर्सन ने कन्टम्परोरी राइटिंग के रूप में पेश किया था,उसका जिक्र आप क्या किसी भी इतिहास-ग्रन्थ में, आलोचना में,काव्यसंग्रहों में पा सकते हैं? उस समूची परंपरा की ही निष्ठुर अवहेलना की गयी। जबकि कोई भी अध्येता जिसकी रुचि मैथिल संस्कृति की सुन्दरताओं में हो, को इसे देखने के लिए ठीक उसी जगह जाना होगा जहां की तमाम राहें संकीर्ण ब्राह्मणवादी आचार्यों ने दुर्गम कर दी हैं। असल में आम तौर पर जिसे 'मिथिला' कहा जाता है वह कोई एक संस्कृति का नहीं, कम-से-कम दो संस्कृतियों का क्षेत्र है। मिथिला के भीतर मिथिला। पं. गोविन्द झा ने कहीं ठीक लिखा था कि एक भूभाग में बसावट के बावजूद ये दोनों संस्कृतियां एक दूसरे से इतनी भिन्न और दूर और परस्पर अबूझ हैं कि मानो दो अलग-अलग ग्रहों के वासी हों। यह दूरी यहां तक बढ़ गयी है कि बहुसंख्यक मिथिला को यह भी पता नहीं है कि मैथिली साहित्य नामक भी कोई चीज है, और वहां उनकी संस्कृति की चर्चा भी गाहे-ब-गाहे लोकसंस्कृति कहकर होती है।

        यह सही बात है कि मैंने अपने लेखन में हमेशा वृहत्तर मिथिला के ही संधान की कोशिश की है। इतिहास में भी गया हूं तो वहीं जहां अंधाधुंध अंधेरे को कोई चुनौती देता व्यक्ति दिखा है। लेकिन, मैं पाता हूं और सभी मानते हैं कि आज भी मिथिला के लिए यह रास्ता आम रास्ता नहीं बन पाया है।



आशुतोष-- आपने मैथिल दृष्टिकोण से कबीर पर एक उल्लेखनीय पुस्तक 'कबीर आ हुनक मैथिली पदावली' भी लिखी है।  कबीर-दर्शन के मैथिली भाषा में निरूपण को आप किस प्रकार देखते हैं?


 तारानंद-- यह असल में कबीर के मैथिली पदों का संग्रह है जिसके साथ लगभग 80 पृष्ठों में उनकी मैथिली पदावली की विशिष्टता, परंपरा, कबीर की मिथिला-पृष्ठभूमि और यहां कबीरपंथ के उद्भव-विकास आदि का परिचय दिया गया है। देखिये, सतरहवीं सदी में कबीरपंथ का जब आरंभ हुआ, आरंभिक चार प्रधान मठों में से एक मिथिला में था। अठारहवीं सदी में तो मिथिला की चार सौ से भी अधिक जगहों पर ये मठ क्रियाशील थे। हरेक मठ के पास अपनी पदावली थी जिसमें बड़ी संख्या में मैथिली पद संकलित थे। आप जानते हैं, मिथिला में विद्यापति का कोई संप्रदाय नहीं चला। वह बंगाल में चला। मिथिला में अगर किसी संप्रदाय की चलती रही, तो वह कबीरपंथ था। विद्यापति पदावली के केवल दो पोथे मिथिला में मिले, वह भी साधारण गृहस्थों के घर में जो गीतों के प्रेमी लोग थे। अगर किसी ने उस समय कबीर पदावली की पांडुलिपियां खोजी होतीं तो दो सौ से कम क्या मिलती! लेकिन सवाल है कि खोज करता कौन, और क्यों करता? कबीर का स्वर, आप जानते हैं, ब्राह्मणधर्म की कटु आलोचना का स्वर है। महान भाषाविद् डा. सुभद्र झा ने 1956 में एक लेख लिखकर बहुत सारे अकाट्य तर्क दिये थे कि कबीर का जन्म मिथिला में हुआ था और ब्राह्मणों से हुए टकराव के कारण उन्हें मिथिला से भागना पड़ा था। यहां से वह मगहर गये फिर काशी। उनकी शिष्य-परंपरा की स्मृति में यह बात रही होगी कि प्रधान चार मठों में से एक मिथिला में बना। यूं भी आप देखेंगे कि मांसाहार का जितना कटु विरोध कबीर के यहां मिलता है, वह उनके समकालीन या परवर्ती किसी भी संत के यहां नहीं है। कहने की जरूरत नहीं कि मिथिला की धर्मधारणा शाक्त है और यहां के ब्राह्मण मांसाहार के प्रबल आग्रही।

        कबीर को कभी भी, कहीं भी एक निरे आध्यात्मिक संत की तरह इकहरे व्यक्तित्व का व्यक्ति आप नहीं पाएंगे। उनकी संपूर्ण रचनाशीलता का एक सामाजिक लक्ष्य भी अनिवार्य रूप से रहा जो वर्णव्यस्था का कठोर विरोधी, पिंड और ब्रह्माण्ड की एकरूपता का प्रबल आग्रही रहा है। प्रेम का महत्व उनके यहां सर्वोपरि है और यह सवाल वह बार-बार करते हैं कि जिस प्रेम की बदौलत आदमी परमात्मा को पा सकता है, उसी प्रेम के साथ आपस में भाईचारा बनाकर जी क्यों नहीं सकता? ऐसा क्यों होना चाहिए कि एक आदमी तो पूज्य ब्राह्मण हो और दूसरा अछूत दलित? यह सवाल उनकी मैथिली पदावली में प्रमुख रूप से उभरा है। आप समझ सकते हैं कि वे मैथिल कौन रहे होंगे जिन्होंने मिथिला में कबीर की ज्योति फैलाई और इसे अपने धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया! निश्चय ही वे हाशिये के लोग रहे होंगे। अब यह अलग बात है कि उन्हें हाशिये का कहना कितना गैरवाजिब है।


 आशुतोष-- आपकी नवीनतम पुस्तक "मैथिली कविताक हज़ार वर्ष" ने एक बड़े पाठकवर्ग का ध्यान आकृष्ट किया है।आपको इस विशेष विषय पर गहराई से विचार करने के लिए किसने प्रेरित किया और पाठक इस कार्य से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?


 वियोगी: जिन दिनों मैं बाबा नागार्जुन की जीवनी लिख रहा था, उन्हें देखकर बहुत जोर हूक उठी थी कि अपने प्राचीन साहित्य का गहरा अध्ययन मैं भी करूंगा। बाबा के साथ क्या था कि तीस-बत्तीस की उमर तक उन्होंने जो कुछ पढ़ा था वह संस्कृत और संस्कृतेतर प्राचीन साहित्य ही था। मेरे साथ यह नहीं हो पाया था। संस्कृत का विद्यार्थी होने के नाते उसके प्राचीन साहित्य का तो थोड़ा-बहुत अध्ययन था लेकिन मैथिली के प्राचीन साहित्य से बिलकुल ही अनजान था। कहिये कि सीधे मैं संस्कृत के प्राचीन साहित्य से कूदकर आधुनिक साहित्य में आ गया था। 'युगों का यात्री' की सफलता के बाद मेरे पास ढेर सारे प्रकाशकों के प्रस्ताव आए। मैं किसी के लिए कुछ भी नहीं कर सका और लगातार इसी अध्ययन में लगा रहा, चार साल तक। ऐसे अध्ययनों के साथ एक समस्या रहती है कि आपको किसी मध्यस्थ की जरूरत बराबर बनी रहती है जो पाठ के असंदिग्ध आशय तक पहुंचने में आपकी मदद कर सके। जाहिर है, प्राचीन साहित्य मिथिला का था तो मैं मैथिली के इतिहासकारों और आलोचकों का ही मुंह ताकता। आपको शायद दुख हो यह सुनकर कि उन सबने मुझे भीषण रूप से निराश किया। उनके दृष्टिकोण संकीर्ण और दुराग्रह से भरपूर थे। हारकर मैं बंगला और अंग्रेजी की तरफ गया। देखिये, कोई लेखक किताब क्यों लिखता है? इस प्रश्न के बहुत सारे जवाब हो सकते हैं जिनमें एक यह भी है कि उसकी ठीक-ठीक पसंद की कोई किताब चूंकि अबतक लिखी नहीं गयी, इसलिए वह खुद लिखने की कोशिश करता है। इस किताब के बारे में आप यह कह सकते हैं। आरंभ में तो किताब लिखने का खयाल तक नहीं था। बाद में मुझे लगा, क्यों नहीं एक ऐसी किताब होनी चाहिये कि भविष्य के पाठक को मेरी तरह भटकना न पड़े।

          यह किताब छह सौ पृष्ठों की है जिसे दो खंडों में अंतिका प्रकाशन ने छापा है। आठवीं-नौवीं सदी के आसपास जब आधुनिक भारतीय भाषाएं आकार ले रही थीं, वहां से यह किताब शुरू होती है और उन्नीसवीं सदी के अंत पर आकर खत्म होती है। इस सहस्राब्दी को देसी भाषा-संस्कृति की सहस्राब्दी यूं ही नहीं कहा गया है। इस हजार वर्ष के भीतर एक खास भूभाग के लोगों ने अपनी भाषा में किन-किन तरीकों को अपनाकर खुद को अभिव्यक्त किया, यही इसका प्रतिपाद्य है। इसके अंतिम अध्याय का शीर्षक है-- इतिहास-वंचित कवि। अठारवीं-उन्नीसवीं सदी के दर्जनों ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं आज भी मिलती हैं लेकिन मैथिल इतिहासकारों, आलोचकों ने उन्हें जगह नहीं दी क्योंकि वे ब्राह्मणवाद के प्रतिकूल जाते थे। कहना न होगा कि आज जबकि ज्ञान-विनिमय उदार हुआ है, यह संकीर्णता यहां और भी अधिक बढ़ी है। 

          इस किताब का वर्ण्य विषय कविता को इसलिए बनाया गया है क्योंकि बीसवीं सदी के पहले मैथिली में गद्य-लेखन का कोई रिवाज नहीं था। हो सकता है, मेरी यह बात सुनकर आपको ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की याद आये जिसे आधुनिक भारतीय भाषाओं की पहली गद्यकृति के रूप में याद किया जाता है। लेकिन यह बात सिरे से गलत है। बड़े लोगों की गलतियां भी बड़ी होती हैं। 1940 में जब सुनीतिकुमार चटर्जी यह स्थापना दे रहे थे, तो उनके खयाल में बांग्ला संस्कृति थी और उन्हें इस बात का जरा भी इलहाम नहीं था कि मिथिला की लोकसंस्कृति को वह रत्ती भर नहीं जानते। उन्हें तो क्या उनके सहयोगी पंडित बबुआ मिश्र को भी नहीं था, जबकि स्वयं ज्योतिरीश्वर ने इसका संकेत अपनी कृति में दिया हुआ है। सुनीति बाबू का कहना हुआ कि यह किताब कथावाचकों के प्रयोजनार्थ लिखी गयी है। आप आश्चर्य करेंगे कि मिथिला में कभी भी कथावाचन की परंपरा नहीं रही, जो बंगाल में थी। यहां ब्राह्मण पुरोहित का काम करते थे, और पुराणों का वाचन, जिसमें अपनी ओर से व्याख्या या विस्तार देना निषिद्ध था। मिथिला में लोकगाथाओं की एक बड़ी ही समृद्ध परंपरा रही है। इसके नायक दलितवर्ग से आते हैं। लोरिकगाथा की चर्चा तो स्वयं ज्योतिरीश्वर ने भी की है। ग्रियर्सन को जब सलहेस गाथा मिली थी तो वह बहुत आश्चर्यचकित हुए थे कि इसकी संरचना गद्य की है लेकिन इसे मंत्रों की तरह पढ़ा नहीं जाता बल्कि मृदंग आदि वाद्ययंत्रों के साथ सामूहिक रूप से गाया जाता है। उनके इस आश्चर्य को आप 'क्रिस्टोमैथी' में देख सकते हैं। खैर, इस विषय पर एक लंबा अध्याय यहां दिया गया है।

         दूसरी जरूरी बात यह है कि ओइनवार राजाओं के दरबार में विद्यापति हुए, इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि मिथिला के राजा लोग विद्यापति-समान कवियों के प्रणेता थे, जबकि मिथिला में आप पाएंगे कि यही प्रमाणित करने का चलन युग-युग से रहा है। यदि ऐसा ही था तो आप उनसे पूछिये, विद्यापति-जैसे दूसरे प्रतिभाशाली कवि छह सौ वर्षों में कोई एक भी क्यों नहीं पैदा हो सका? बल्कि उलटा हुआ। छह सौ वर्षों तक सैकड़ों कवियों ने हजारों कविताएं विद्यापति की भौंड़ी नकल में लिखीं। कुछ नया हुआ भी तो नेपाल राजाओं के संरक्षण में, और बंगाल के वैष्णव भक्तों के पदों में। मिथिला के परवर्ती राजाओं का शौक संगीत था, साहित्य नहीं। राजदरबार के गवैयों के गाने के लिए जो गीत लिखे गये, उन्हीं को संरक्षण मिला और बाद में केवल उन्हीं को मैथिली साहित्य का दरजा दिया गया। मिथिला के व्यापक जनाकांक्षा की अभिव्यक्ति जिन रचनाओं में हुई है, उसका बहुलांश आज भी मौखिक और असंकलित, अनालोचित है। मैंने यह कोशिश की कि इतिहास का रुख घुमाकर जनता की ओर कर दिया। यूं यह किसी एक आदमी के बूते की बात नहीं है, इसलिए इस प्रयास को आरंभ मानना चाहिये निष्पत्ति नहीं, यह बात मैंने किताब की भूमिका में लिखी है, और आपको भी कह रहा हूं।


आशुतोष-- क्षेत्रीय भाषा में लिखकर आपने जिन चुनौतियों का सामना किया है, इसका कुछ उल्लेख आपने किया। मैं जानना चाहूंगा कि मैथिली में खुद को अभिव्यक्त करने में आपको सबसे अधिक लाभदायक क्या लगता है?


 वियोगी: सबसे लाभदायक है वह स्फूर्ति है जो आपको सिर्फ अपनी मातृभाषा में लिखने से मिलती है। मनोभावनाओं की उत्पत्ति पर अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि उनकी अपनी भाषा भी होती है जिसका स्फुट होना अभी संभावनाओं के भीतर होता है। किन चीजों के लिए आप किन शब्दों और बिंबों को चुनते हैं, यह आपकी अभिव्यक्ति की दिशा और सीमा दोनों तय कर देती हैं। रेणु की तरह यदि आप कड़ा तेवर अपनाएं, तभी वह हिन्दी में संभव हो सकेगी, जबकि उसके अपने खतरे भी हैं।

        यूं तो इन दिनों का समय पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के लिए व्यर्थता-बोध का समय है। और यह बोध दुर्भाग्यवश भाषातीत है। लेकिन यदि आप मैथिली से हैं तो यह बोध घोर और भीषण हो जाता है क्योंकि हर भाषा के पास अपना वैकल्पिक स्पेस है जहां कमोबेश बहुलता के पक्ष में मुखरता है। यह चीज आपके यहां बिलकुल भी नहीं है। 


आशुतोष-- क्या आप ऐसे भविष्य की कल्पना करते हैं जहां मैथिली साहित्य के महत्वपूर्ण कार्यों को, यदि अंग्रेजी में अनूदित किया जाए, तो अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों, जैसे तमिल के पेरुमल मुरुगन, की जेसीबी पुरस्कार विजेता उपलब्धियों के बराबर मान्यता प्राप्त हो सके?  यह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैथिली साहित्य के व्यापक प्रचार और सराहना में कैसे योगदान दे सकता है?


 वियोगी-- सबसे पहले तो पेरुमल मुरुगन को आत्मीय बधाई और उनके लिए शुभकामनाएं क्योंकि मैं महसूस करता हूं कि उनका सम्मान हम सबका भी सम्मान है। किसी महत्वपूर्ण रचना का अंगरेजी में अनूदित होना एक अच्छी और महत्वपूर्ण बात है क्योंकि इससे अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। मैथिली में यह काम बिलकुल ही नहीं हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन, यहां मुझे अपने यहां के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हेतुकर झा की कही एक बात याद आती है। ज्ञान-वैभव से दीप्त प्राचीन मिथिला के पतन और आजवाली मिथिला के उद्भव की सीमारेखा पंजीव्यवस्था को बताते हुए उन्होंने लिखा है कि ज्ञान का स्थान अब जाति ने ले लिया, वैचारिक उदारता के स्थान पर स्वार्थजनित क्षुद्रता का महत्व बढ़ा और जाति-भिन्न लोगों और विषयों के प्रति क्रूर अमानवीयता विकसित हुई। यहां प्रसंग क्षुद्रता का लूंगा। कोई मैथिल लेखक यदि अनुवादक भी है तो उसकी पूरी चेष्टा यही होगी कि वह स्वयं खुद को प्रोजेक्ट करें। अगर आप इन्टरनेट पर सर्च करें तो धूमकेतु और राजमोहन झा को शायद ही कहीं पाएं जबकि घटिया लेखन की प्रचुरता दिखेगी। अब बताइए, धूमकेतु खुद को प्रोजेक्ट करेंगे? मैं, जो अभी जिन्दा हूं, भी नहीं कर सकता तो वे कहां से करेंगे! चूंकि इस क्षेत्र में दृष्टिवान और पेशेवर अनुवादक यहां कोई है ही नहीं, मैथिली का जो प्रतिनिधित्व है वह शर्मिन्दा करनेवाला है, सम्मान लानेवाला नहीं। हां, एक अपवाद ललित कुमार का काम है, जिन्होंने हमारे एक महान लेखक हरिमोहन झा के उपन्यास 'कन्यादान' का अनुवाद The Bride नाम से किया जिसे हार्पर काॅलिन्स ने छापा है और जिसने कई सारे पुरस्कार भी जीते हैं

       फिर भी, सच तो यही है कि यह पूरा मैदान अभी लगभग खाली है। आप-जैसे लोगों को तमाम दूसरे काम स्थगित करके भी इस ओर ध्यान देना चाहिये। नये दृष्टिवान लोग आएं तो ऐसा चमत्कार घटित हो सकता है जो अभी कहीं दूर-दूर तक संभव नहीं लगता।


 आशुतोष--आप युवा और महत्वाकांक्षी लेखकों, विशेषकर मैथिली साहित्य में योगदान देने में रुचि रखने वालों को क्या सलाह देंगे?


तारानंद-- पहला तो सुझाव यही दूंगा कि यदि आपके लिखे पर मैथिल भद्रजन जयजय कर रहे हैं तो समझ जाइये कि आपने गलत राह चुन ली है। मैथिली का पर्यावरण आज ऐसा है कि अच्छे लेखन के लिए आप पुरस्कृत तो क्या, दंडित किये जा सकते हैं। सफल लेखक मैं उसे मानता हूं जो अपने लिखे से अपनी भाषा की ताकत बढ़ा देता है, नयी-नयी अभिव्यक्तियों के द्वार खोल देता है। इसके लिए पहली जरूरत तो यही है कि आप मिथिला को जानें-- पंडितों के लिखे के आधार पर नहीं, वैसी जो कि वह वास्तव में है।