तारानंद वियोगी
एकटा समय रहै जखन समुच्चा उत्तर बिहार मिथिला रहै। संस्कृति दू तरहक। एकटा विदेह-संस्कृति, दोसर लिच्छवि संस्कृति। दुनू संस्कृति बुद्धेक समय मे मिलय लागल छल। आगां चलि क' तं दुनू मिलि क' एक भ' गेल। आइ जकरा हमसब मैथिल संस्कृति कहै छियै, कखनहु नहि बिसरबाक चाही जे ओ एहि दुनूक मिश्रित रूप छियै। तकर बानगी हमसब स्वयं विद्यापतियेक रचना मे पाबि सकै छी जे एहि मिलनक मुखर प्रवक्ता रहथि। मुदा, दुर्भाग्य मिथिलाक जे आइ ई दू जिला मे समटि क' रहि गेल अछि। विद्यापति अपन कविता मे जाहि शब्दावलीक प्रयोग कयने रहथि से आइ दरभंगा-मधुबनी मे नहि बाजल जाइए, बेगूसराय-पूर्णियां-गोड्डा मे बाजल जाइए मुदा मैथिल संस्कृति पर लिखल लेख सब कें पढ़ू तं देखबै, दू जिलाक ब्राह्मण-संस्कृति कें विद्वान लोकनि मैथिल संस्कृति कहैत छथि।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर पूर्णियांक वाशिन्दा रहथि। तरुणावस्थे सं गीत-रचना करबा मे ठीक तहिना प्रवृत्ति रहनि जेना अपना जबाना मे विद्यापति कें रहनि। कोशीक पूब आ पच्छिमक संस्कार मे बहुत अंतर। पूब मे लोकमत के अधिक सम्मान जखन कि पच्छिमक संस्कार धर्मशास्त्र-कर्मकांड सं नाकोनाक तोपल। बुद्धो कहियो मिथिला एला तं पूबे एला। एहि दिसक भाषा मे एकटा बेलौस ताजगी, रवानगी। श्रम के महिमा बेसी जगजगार, कारण जीवन कर्मठ आ संघर्षपूर्ण। ठोर-ठोर पर एहन-एहन गीत, जकरा दिस पच्छिमक पंडित-समाज कनडेरियो तकबाक लेल कहियो तैयार नहि। रवीन्द्रक संस्कार एहि सब गुण सं लबालब निर्मित भेल रहनि।
रवीन्द्र अपन गीत-रचना छठम दशक मे ठीक ओही समय मे आरंभ कयने रहथि जखन मैथिली नवकविताक चला-चलती परवान पर रहै। ओहि युगक तमाम प्रतिभाशाली कवि, यात्री-राजकमल सं ल' क' रमानंद रेणु धरि छंद आ परंपरा सं दूरे रहबाक लेल प्रतिबद्ध। मुदा, रवीन्द्र गीत लिखथि आ मंच पर तकरा गाबि क' प्रस्तुत करथि। मोन पड़ैए जे सुपौलक ओहि परम ऐतिहासिक कविसम्मेलन, जकर आयोजक किसुनजी रहथि आ अध्यक्षता आ संचालन राजकमल चौधरी करैत रहथि, ओहि मे रवीन्द्र सेहो एक आमंत्रित कवि रहथि, मंच पर बैसल रहथि, मुदा राजकमल कविसम्मेलन मे हुनका शामिल करबा सं कठोरतापूर्वक इनकार क' देलनि। स्वयं अपन अध्यक्षीय कविता पढ़लाक बाद कविसम्मेलनक समाप्तिक घोषणा करैत ओ कहने रहथि जे कविसम्मेलन समाप्त भेल, आब अहांसब रवीन्द्र आदिक गीत सुनू। अहां अख्यास क' सकै छी जे एक नव कविक लेल एहन परिस्थितिक सामना करब कते अप्रिय भ' सकै छै। मुदा, प्रतिभाक एक इहो निसानी छी जे एहना परिस्थिति सं ओ कुंठित नहि होइछ, उनटे एकरा चुनौतीक रूप मे लैत अछि आ कोनो नव बाट बहार करबा मे अपना कें झोंकि दैत दैत अछि। रवीन्द्र यैह केलनि। आगू कहियो ओ कवियश:प्रार्थी भ' क' कवि-समाजक मुंह नहि तकलनि। ओ एक नवीन दिशाक संधान केलनि, जकर गमक सं मैथिलीक आगामी रचनाशीलता गमगम करैत अछि।
तहिया कविसम्मेलनो बहुत होइ। विद्यापति समारोह ताधरि पूर्ण रूप सं मिथिला-समाज मे लोकप्रिय भ' गेल छल। एकर प्रतीकात्मक महत्व एहि दुआरे बहुत बेसी रहैक जे स्वयं विद्यापति एक कवि रहथि। मुदा, विद्यापति स्वयं गीते लिखलनि तें गीतोक महत्व कनेको कम नहि मानल जाय। एकर बाद जे कायदा चलन पकड़लकैक जे कविसम्मेलनक बाद गीतनाद होइक, हमर आकलन अछि जे एकर आइडिया-मास्टर रवीन्द्रे रहथि। एहि गीतनाद कार्यक्रम, जकरा आब आजन-बाजन संगे सांस्कृतिक कार्यक्रम मे परिणत क' देल गेलैए, तकर तहिया एहन रुतबा रहै जे सब कवि मिलि क' जं दू घंटाक काव्यपाठ करथि तं कतेको मंच पर एहन अवसर उपस्थित भेल जे असगरे रवीन्द्र, बाद मे हुनकर सहगायक महेन्द्र मिला क' 'रवीन्द्र-महेन्द्र', काव्यप्रेमी जनताक आग्रह-अनुरोध पर दू-दू घंटा धरि अपन गीत सुनबथि। ओ पहिल व्यक्तित्व भेला जे मैथिली मंचक स्टार कलाकार बनि क' स्थापित भेला।
रवीन्द्रक गीत-काव्यक आयाम बहुत व्यापक रहनि। तहिना हुनकर विषय-विस्तार। मिथिलाक जनजीवनक कोनो पक्ष किनसाइते एहन हो जे रवीन्द्रक गीत मे अयबा सं बचल रहि गेल हो। किसानी जीवन हुनकर प्रमुख रचनाधार। तकर हजारो पक्ष, आ से समस्त हुनकर गीत सब मे अहां कें जगजगार भेटत। बच्चाक जन्म, ओकर बाल-लीला, ओकर सातो रंगक युवापन, ओकर पर्यावरण, ओकर संस्कार आ संघर्ष, धर्मक रंग-रूप, धर्मक नाम पर चलैत ठिकेदारी आ पाखंड, मैथिल संस्कृतिक समावेशी प्रवृत्ति जतय एक ककुरो-बिलाइक लेल सहिष्णुता आ सहभागक समावेश पाओल जाइछ। जेहन यथार्थवादी हुनकर वस्तु-विन्यास, ततबे समावेशी हुनकर भाषा। हुनकर भाषा मे सौंसे मिथिलाक समस्त समुदायक चहल-पहल देखार पड़त। एतय धरि जे ओ सधुक्कड़ी भाषा मे सेहो गीत लिखलनि, जे कि लक्ष्मीनाथ गोसांइक बादे सं चलन सं बाहर छल। गीत-विधाक हिसाबें उचितो यैह छियैक जे जाहि समुदायक वस्तु अहां रचना मे उठबै छियै, तकरे अनुरूप अहां कें भाषाक चयन करय पड़त। गीत-भाषा पर रवीन्द्रक पकड़ ततेक सधल रहनि जे विना प्रयासक ओ ओ भाषा विन्यस्त भ' जाइ छलै जे कि ओहि गीत-वस्तुक मांग होइ छल।
मैथिली गीत-परंपरा मे रवीन्द्रक सब सं पैघ अवदान छनि-- मैथिली लोकधुनक पुनर्स्थापना। ई कते भारी बात छल आ विना कोनो होहल्ला मचौने वा काव्यान्दोलनक सूत्रपात कयने रवीन्द्र एकरा बखूबी अंजाम द' सकला, तकरा लेल हमरा लोकनि कें इतिहास दिस कनेक ताक' पड़त। हमसब अवगत छी जे रवीन्द्र सं पहिने मधुप जी लोकगीतक क्षेत्र मे अग्रणी रचनाकार छला। मिथिला क्षेत्र मे हिन्दी फिल्मी गीतक अधिकाधिक प्रसार सं मधुप जी खिन्न रहै छला। हुनकर सोचब रहनि जे फिल्मी गीतक प्रसार सं समाज भ्रष्ट होयत। एकर काट ओ एहि तरहें निकाललनि जे फिल्मी धुन पर मैथिली गीत लिखय लगला आ से समाजक बीच बेस लोकप्रियता हासिल केलक। मधुप जी मे उच्चकोटिक सृजनात्मक क्षमता छलनि आ ओ स्वातंत्र्योत्तर कविताक वृहत्त्रयी कवि-- सुमन, मधुप, यात्री-- मे सं एक छला। स्वाभाविक छल जे हुनकर गीत सब भने फिल्मिये धुन पर लिखल गेल हो मुदा भावना आ मर्मक स्तर पर ओ गीत सब उच्च गुणवत्ताक होइत छलनि। स्वयं मधुप जी कें तं आगू चलि क' ई भान भ' गेलनि जे ई बाट कुसंस्कृति सं लड़बाक हेतु सम्यक् बाट नहि थिक, तें ओ एहि सं मुक्त भ' गेला मुदा हुनकर फिल्मी धुन बला गीत सब समाज मे ततेक लोकप्रिय भ' चुकल छल जे गीतकार सभक अगिला कैक पीढ़ी एकर नकल करैत मैथिली गीतक स्तर कें रसातल पहुंचा देलनि। जें कि हरेक साल नव-नव फिल्म अबैत रहै छै, ओछ सं ओछतर होइत जेबाक प्रवृत्ति हिन्दी फिल्मी गीतक रहल अछि, एहि समस्त धुन सब पर ओही फिल्मी जुमलाक भाषानुवाद करैत चिरकुट गवैया सब अपने गीतो लिखैत रहला, अपने गबैतो रहला। आइ जे मैथिली सांस्कृतिक कार्यक्रमक मंच सब कें अपभ्रष्ट आ कुसंस्कृतिग्रस्त भेल देखैत छी, तकर कष्ट सब गोटे कें होइत हैत।
मिथिलाक चलन रहलैक अछि जे महाजनो येन गत: स पन्था:। ताहि हिसाबें देखल जाय तं मधुप जी जाहि बाट पर चलला, मिथिलाक आचारशास्त्रक मोताबिक ओकरे नकल करैबला लोक सब नीक मानल जेता। मुदा, इतिहास मे हमरा लोकनि बारंबार देखैत आएल छी जे एहि चलन कें तोड़ि क' जे बाहर निकलला, महापुरुष हुनके मानल जाइत छनि। जेना विद्यापति। चलन पर जं ओ चलल रहितथि तं हुनकर मैथिली गीत वा अवहट्ठ काव्य लिखबाक प्रश्ने नहि उठि सकै छल। इहो बात मुदा ततबे सही छै जे चलन तोड़ि क' बाहर भेनिहार लोकक एतय बड़ खिधांस कयल जाइ छै, हुनका उचित सम्मान सं वंचित कयल जाइछ, हुनकर प्रतिभाक कदर करबाक बदला समाजक प्रवृत्ति हुनकर उपेक्षा दिस रहैत छैक। महाकवि विद्यापतियो धरि कें हमसब एकर शिकार बनल देखै छी।
रवीन्द्रक सब सं पैघ अवदान छनि जे मैथिलीक सैकड़ो विस्मृत लोकधुनक ओ पुनराविष्कार केलनि। ओ मिथिलाक ठेठ जातीय परंपरा कें पकड़लनि। एहि प्रान्तक आम लोक हजार बरस सं जाहि-जाहि विधा मे, जाहि जाहि राग, ताल, लय मे काव्यात्मक अभिव्यक्ति करै छल, ओ समस्त सब किछु रवीन्द्रक रचना मे आबि पुनर्जीवित भेल। एहि प्रयोगक महत्ता अहां एहि तरहें बुझि सकै छी जे एक हजारक करीब जं ओ गीत लिखलनि अछि, तं तकरा प्रस्तुतिक लेल कम सं कम पांच सौ धुन बनौलनि। एहि पांच सौ मे सं मोश्किल सं एक सौ एहन हैत जे चलन मे छल, बांकी चारि सौ हुनकर पुनराविष्कार छल। कमाल ई जे एतेक पैघ काज ओ विना कोनो हो-हल्लाक, विना कोनो काव्यान्दोलन चलौने क' गेला। एहि मे जं क्यो हुनकर सहयोगी भेलखिन तं एकमात्र महेन्द्र, जे अपने साहित्य क्षेत्रक व्यक्ति नहि, केवल एक सह-गायक छला। महेन्द्रक कारण रवीन्द्र मैथिली युगलगीत परंपरा कें सेहो पुनर्जीवित क' सकला।
रांची मे एक बेर संगें रहथि तं पुछलियनि-- भाइ, एहनो लगैए जे किछु छूटि रहल हो? -- मने, हम हुनकर रचनात्मक संतुष्टिक मादे जानय चाहै छलहुं।
बजला-- एह, की पुछै छी वियोगीजी, हमरा तं लगैए जे सबटा छुटले अछि। एखन बहुत काज करबाक अछि यौ।
मायानंद मिश्र पर साहित्य अकादेमीक लेल फिल्म बनबै छलखिन तं हमरा सुपौल बजौलनि। ओह, हुनकर ओ उत्साह, ओ गर्मजोशी। मैथिली लेखकक लेल ओ एक असंभव संभावना छला। एकटा फोटो मोन पड़ि रहल अछि जाहि मे बीच मे रवीन्द्रजी बैसल छथि आ दुनू कात केदार(कानन) आ हम। ओ कते उत्फुल्ल हियाब सं हमरा दुनू गोटेक हाथ धयने रहथि, एखनो धरि अपन हाथ मे हुनकर हाथक धमक महसूस करै छी। बाद मे एक बेर भेटला तं कहय लगला-- एह, अहां दुइये लाइन बजलियै लेकिन एक निर्देशकक रूप मे कहै छी वियोगीजी, ओ दू लाइन ओहि फिल्म के प्राणतत्व छियै। हुनकर मूल्यांकनक वस्तुनिष्ठता पर नहि जाइ छी, हुनकर एहि स्वभावक स्मरण करै छी जे सदा अपन कनिष्ठ कें प्रोत्साहित करबाक, कोनो छोटो उपकार लेल दीर्घ अवधि धरि कृतज्ञताशील बनल रहबाक हुनक स्वभाव छलनि। मैथिली लेखकक हिसाबें देखी तं इहो एक असंभव-सन बात छल।
मैथिलीक दुर्भाग्य रहल आ एखनहु अछिये जे साहित्य अकादेमी सन संस्था एतय चिरकुट मठाधीश आ तिकड़मी चुहार-चुहारिन के पैरक जुत्ता भीतर पैताबा बनल रहल। तें रवीन्द्रक वा हुनका समान आनो युगांतरकारी महापुरुषक सम्मान अकादेमी नहि क' सकल, एहि मे आश्चर्यक कोनो बात नहि अछि। मिथिला मे युगांतरकारी लेखन-परंपरा जखन सदा-सर्वदाक लेल विनष्ट भ' चुकल रहत, तहिये शायद भविष्यक अभागल सब कें एहि बातक सुरता आबय तं आबय। तखन, प्रबोध साहित्य सम्मानक प्रवर्तक संस्था स्वस्ति फाउंडेशन अवश्ये ई सौभाग्य प्राप्त केलक जे रवीन्द्र कें सम्मानित क' क' एक अपूर्व मैथिली जातीय साहित्यक सम्मान क' सकल। बांकी तं मैथिलीक गाड़ी पर आइ दलाल चिरकुट सब के बोझ ततेक बढ़ि गेलैक अछि जे रवीन्द्रक शब्द मे कही तं तं एहि गाड़ी कें आब उनारे बुझू।
लेख के अंत मे, रवीन्द्रक किछु पांती सब तेना क' क' मोन पड़ि रहल अछि जे लिखनहि कुशल। हुनकर गीत पहिल बेर जे हमरा कान मे पड़ल रहय, अपन तरुणाइ मे कहियो बैलगाड़ीक गाड़ीवानक गाओल। ओ एकटा लोरीगीत रहै-- 'सूति रहू बौआ, कहार आबैए/ महफा मे निनियां मलार गाबैए।' ओहि गीत मे एक एहन परिवारक कथा आएल रहै जे कि मिथिलाक अति साधारण लोक अछि, मुदा मैथिली साहित्यक पहुंच ओहि आखिरी परिवार धरि नहि रहलैक अछि। गरीब घर थिक। कातिक मास चलि रहलैए जखन गरीबक जीवन कठिन भेल रहै छै। ओहि गीत मे पांती अबैत रहै-- 'आबय दही अगहन, बूनि देबौ मौनी/ नबे नबे अंगा देबौ, कीनि देबौ तौनी/ अखनी तं जिनगी पहाड़ लागैए/ महफा मे...।' कहबे केलहुं जे रवीन्द्रक गीत-विषय बहुत विविधतापूर्ण छनि। ओ मिथिला मे पूजित देवी-देवताक स्तुति मे सेहो बहुत रास गीत लिखलनि। हुनकर गणेश-स्तुतिक एक पद मोन पड़ैए। गणेश-स्तुतिक रचना मैथिली मे नव नहि छैक आ नेपालक मल्ल राजा लोकनि जे 'गणेशक नचारी' लिखने छथि, सेहो सब मोन पड़ैए। रवीन्द्रक गीत मे बालक गणेशक वर्णन एलनि अछि, ई नव बात छै। सब गोटे जनै छी जे गणेशक पिता शिव स्वयं नाट्यगुरु, नर्तन-कलाक उद्भव हुनके पदचालन सं भेल मानल जाइत अछि। नृत्यकलाक जतेक जे कोनो महीनी अछि, सभक मूल उद्भावक शिवे कें मानल जाइन छनि। आब गीतक पांती पर आएल जाय। बालक गणेश एखन बहुत छोट छथि, हाले मे चलब-फिरब सिखलनि अछि, आ तकरा संगहि आनंदमग्न भेला पर कखनो नृत्य सेहो करय लागै छथि। रवीन्द्रक पांती मे खचित चित्र देखल जाय-- 'ठुमुकि ठुमुकि नर्तन करय गणपति/ देखय चकित महेश/ देखय चकित महेश सदाशिव/ विघ्नहरण विघ्नेश।' बालगणेशक प्रथमे नर्तन देखि क' आदिम नृत्यगुरु चकित रहि जाइत छथि, ई जे चित्र अछि, आ जाहि तरहें एकर समावेशन कयल गेल अछि, ई रवीन्द्रे बुते संभव छलनि।
लेखक समापन हम रवीन्द्रक एक अप्रकाशित गीत सं करब। 2006 मे आचार्य रमानाथ झाक शताब्दीवर्षक उपलक्ष मे 'प्रतिमान' नामक संस्था जकर उद्भावक कथाकार अशोक छला, पटना मे एक बहुत सार्थक आयोजन कयने रहय। एहि मे रवीन्द्रजी आयल रहथि आ अवसरक अनुकूल एक टटका गीत प्रस्तुत कयने रहथि। एकरा टेपित कयल गेल रहै आ ततय सं ट्रांसक्राइब क' क' ई गीत हम एतय प्रस्तुत करै छी। गीतक विषय छै जीवन-दर्शन। रवीन्द्रक दार्शनिक आ आधिभौतिक समझ सं से मैथिली साहित्य उपकृत भेल अछि, तकरो बानगी एतय पाओल जा सकैए। गीत अछि--
सत् चितक मानि अनुरोध
अपन अथ-उथ के कयल विरोध
कयल अपनहि पर जमि क' शोध
प्राप्त निष्कर्ष करौलक बोध
अपन अवरोध थिकहुं हम अपने।
अपन गतिरोध थिकहुं हम अपने।।
कुलबोड़न,भव-युग-ताड़न हम
छी कारण तथा निवारण हम
मुंहझांपन, देहउघाड़न हम
हम अगिलह, आगि-पझाबन हम
से जानि भेल उत्पन्न महाविक्षोभ
तं आयल क्रोध, क्रोध पर क्रोध
अपन जड़िखोध थिकहुं हम अपने।।
कटु सत्यक तथ्य मथन कयलहुं
शुभ जीवन हेतु जतन कयलहुं
सब ओझराहटि सोझरा-सोझरा
संतुलनक विधिक चयन कयलहुं
प्रतिशोधक कयल विरोध,
मरल दुर्योध विना प्रतिरोध
कयल सुख-बोध
स्वयं हरिऔध थिकहुं हम अपने
स्वयं हरिऔध थिकहुं अपने।।
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