- सतीश वर्मा
साल 2020क अंत मे तारानन्द वियोगीक एकटा कविता संग्रह बिना कोनो शोरगुल के बहरायल। कविता संग्रहक नाम अछि ‘साखी’। जखन कि होयबाक त’ ई चाही रहय जे एहि कविता संग्रह कें पूरा धूम-धाम संग लोकार्पण होयबाक चाही। से कियैक नहि भेल, ओहि पर विस्तार सँ बहस केर जरूरत अछि। ‘साखी’ कविता संग्रह के कवरक फ्लैपक बादक पृष्ठ पर लिखल अछि- ‘साखी-मैथिली दलित कविता’। कवि अथवा प्रकाशक जे कियो ई लिखलनि अछि- ओ संभवतः परंपरा मे आयल संस्कारवश एना लिखने होताह। ओना हमरा बूझने लिखबाक चाही छल- ‘साखी-मैथिलीक मूल कविता’ अथवा ‘साखी- मैथिलीक प्रतिनिधि कविता’। ओना दलित शब्द भारतीय भाषा साहित्यक स्वीकार्य पद थिक, मुदा हमरा लगैत अछि कोनो साहित्य कें दलित लिखब वा ओकरा श्रेणीबद्ध क' क' हम ओकर व्यापकता आ ओकर सर्व स्वीकार्यता कें रिड्यूस करैत छियै। ओना एकटा बात इहो अछि जे दलित आ स्त्री साहित्यक श्रेणीबद्धता साहित्य कें पाठकीय आ आलोचकीय संस्कार के संग-संग पब्लिक डिस्कोर्स मे सेहो अलग सँ नोटिस करेबा मे मदति पहुंचाबैत अछि।
हमरा हाथ मे जखन साखी कविता संग्रह आयल त’ हम चकित रही। चकित की हतप्रभ रही। आ किछु कविता पढते जे हमर पहिल पाठकीय प्रतिक्रिया छल ओ छल- जुलूम, विस्फोटक। लगैत अछि जे एहि सँ पहिने जतैक मैथिली कविता पढलहुँ से बुढियाक फुसि। वाजिब आ ओरिजनल मैथिली कविता त’ ई थिक। साखी मे आयल कविते टा मैथिलीक मौलिक कविता थिक, मैथिलीक निज कविता थिक आ साखी मे आयल कविता सँ इतर जतेक रास मैथिली कविता एखनधरि लिखल गेल आ लिखल जा रहल अछि, ओ सबटा मैथिलीक कृत्रिम कविता थिक। मैथिलीक अभिजन कविता थिक। आ हमरा जखन कखनहुँ मैथिली साहित्यक गवाही देबाक जरूरति पड़त त’ हम त’ साखी कविता संग्रहक कविता सभ केँ मैथिली साहित्यक Testimonial के रुप मे पटल पर राखब। जेना संग्रह मे आयल कवि तारानन्द वियोगीक ई कविता देखियो- ‘आगू मैथिलीक बाट नहि’
‘ब’ सँ बाभनक
‘भ’ सँ भाषा
‘म’ सँ मैथिली
तखन बीच मे अहां के?
अहां हींग मे आ कि हरदि मे?
अहां गाय मे आ कि बाछा मे?
तखन हँ
कोनो भाँज जँ हो भजियेबाक
आ कि अरजिये जँ कोनो करबाक
तँ जाउ
गुरुआइन सँ मिलियनु ग’
पाछां मे
आ से सत्ते यैह सत अछि, जे मैथिली साहित्य ब्राह्मण साहित्य थिक आ मैथिली भाषा ब्राह्मण भाषा थिक। ब्राह्मण वर्ण सँ इतर जे वर्ण मैथिली भाषा मे साहित्य रचि-गुण रहल अछि ओ न हींग मे अछि, नहि हरदि मे। ओ कतहु नहि अछि। एतबे टा नहि, एही सँ बेसी मैथिली भाषा आ साहित्यक मारूख यथार्थ त’ वियोगीक कविता ‘जय मैथिली जय मिथिला’ मे आयल अछि, खास क’ कविताक अंतिम पांति-
जतय पेट मे बसैत हो दिमाग
आ माथ मे शैतानक अंतरी,
कुंडली मारि बैसब सनातन थिक
प्रेम स कहियो- जय मैथिली जय मिथिला
मैथिली साहित्य आ भाषा दुनू सही अर्थ मे मैथिली महासभाक ओ महाभोजे थिक, जाहि मे रोहू माछक मुड़ी खयबा लेल सभ कियो अपस्यांत रहैत अछि। ब्राह्मण आ कायस्थे टा नहि, राजपूत आ पचपनिया सेहो, आ दलित सेहो खुश रहैत छथि। तखन त' कवि कहैत अछि-
मुदा, कहियो पुछियनु जँ कायस्थ-राजपूत केँ
भाई यो- कै मैथिल
तखन सुनि लिय खेरहा-
गोनूझाक गोंत मे उबडूब करैय मिथिला
उबडुब करैत हो मिथिला कि नहि करैत हो,
मैथिल महासभा बड़का भोज केलक अछि
निमंत्रण देबय आयल छी
बिझो संगहि बुझी
एहि पर तँ राजपूतो खुस, पचपनियो...
आ कि दलिते की कम खुश
मैथिली भाषा आ साहित्य त’ ओनाहितो एकटा महाभोजे थिक। गिद्धक महाभोज। आ गिद्धक एहि महाभोज मे दलितक की काज? गिद्ध सभ बड़ खुश होताह त’ दुटा कुटिया माछ अहां लेल छोड़ि दैत, नहि तँ आंठि-कूठ सँ काज चलाऊ। आ बेसी कबीलती झारबै त’ गिद्धक ग्रास बनबाक सेहो खतरा छै। कतेक लेखक एहि गिद्ध भोज मे गिद्धक ग्रास बनल अछि।
हम सहीये मे गलत रही। हमरा लागल जे साखी मे जे कविता अछि सैह मैथिलीक मूल कविता थिक, मैथिलीक मौलिक कविता थिक। मैथिलीक ओरिजनल कविता थिक। मुदा हमरा मानने सँ की? अनहरा के जागले की आ सूतले की? हमरा मानने सँ कोनो उनटन थोड़बेक भ’ जेतै। मैथिली जकर भाषा छियै, मैथिली भाषाक खतियानी जिनक नाम लिखल छै, ओ जे मानताह वैह हैते ब्रह्म वाक्य। तँ कवि तारानंद वियोगी आ प्रकाशक किसुन संकल्प लोक द्वारा ई लिखब जे साखी- मैथिलीक दलित कविता थिक से सोलहो आना सत थिक आ वाजिब थिक। आ ई लिखब जरूरियो। जँ हिन्दी मे हंस पत्रिकाक संपादक आ बीसम शताब्दीक प्रखर बुद्धिधर्मी राजेन्द्र यादव दलित साहित्य केँ प्रमुखता नहि दैने रहतियथिन त’ हिन्दी साहित्य मे दलित साहित्य कहियो केंद्रीय विषय नहि बनि सकैत रहैक।
दलित कविता, सभ भारतीय भाषा मे लिखल गेल आ लिखल जा रहल अछि। मुदा मैथिली मे कियैक नहि? मराठी, गुजराती, कन्नड, तेलुगू आदि भाषा मे लिखल गेल आ जा रहल दलित कविता सभ त’ सामाजिक आ राजनीतिक परिवर्तनक लेल उर्वर भूमि तैयार कयने अछि। आ हिन्दी मे त’ दलित चेतना वा दलित विमर्श समकालीन हिंदी कविताक केंद्रीय विषये बनि गेल अछि। दलित कविता नहि सिर्फ हिंदी कविता केँ एकटा नव साँचा मे ढालि देने अछि, बल्कि ओकरा नव मोहावरा आ अर्थ प्रदान क’ जीवंत सेहो बनौलैक अछि। सत मानी त’ दलित कविताक आमदक पश्चाते समकालीन हिन्दी कविता केँ मानवीय गरिमा भेटलै आ ओकर फलक लोकतांत्रिक सेहो भेलै। मुदा अफसोच जे सबसँ पुरान भाषा मैथिली भाषाक साहित्य मानवीयताक एहि क्रांति सँ एक्को मिसिया नहि आंदोलित भेल। दलित चेतना मैथिली साहित्य मे ओना त’ मुखर भ’ क’ कमे आयल अछि आ जँ आइलो अछि त’ सहानुभूति आ उपकारे जकां। पहिल बात त’ ई जे मैथिली भाषा मे दलित कवि, दलित कथाकारक गिनती जँ करी त’ ओ गिनती संभवत हाथक दस आंगुरे धरि जाइ क’ खत्म भ’ जाइत आ भ’ सकैत अछि जे दसो आंगुर धरि ओ गिनती नहि जाइ। तखन मैथिली साहित्य मे दलित चेतना आ दलित विमर्श कें हेरब सर्वथा बेमानी। मुदा तारानन्द वियोगीक कविता संग्रह ‘साखी’क आयब मैथिली साहित्य मे सर्वथा एकटा क्रांतिकारी घटना भ’ सकैत अछि, जँ एकरा दलित विमर्शक प्रस्थान बिन्दु मानि लेल जाय। साखी कविता संग्रह पढलाक बाद ओहि ताप आ धाह सँ आंदोलित होयबाक बाद की मैथिली साहित्य मे प्रगतिशील दलित चिंतनक एकटा नव काव्य धारा ल’ क’ समर्थवान कविक खेप आबि सकैत अछि? अयबाक चाही, जँ एहि कविता संग्रहक कविता सभ कें व्यापक बहुजन मानस तक प्रसारित कयल जाय। मुदा से मैथिली मे त’ संभव नहि। स्वयं कवि तारानन्द वियोगी ‘अकादमी मे दलित’ कविता मे लिखैत छथि-
अकादमी मे दलित, माने की?
जेना गोसाउनि घर मे चाली!
आब चाली माने की आ गोसाउनि घर मे चाली माने की-तकर अर्थ बुझवा मे दलित समाज के कोनो परेशानी नहि होयबाक चाही। ई ओतबो मेटाफोरिक नहि छै। चालीक ई बिंब त’ सरिपहुँ मारूख आ बिसबिस्सी उठाय दैय वला अछि। एहि कविताक दोसर पांति मे कवि कहैत छथि-
सम्हरि क’ भैया जोगी, सम्हरि क’
बड़ छलह काबिल तें लेलखुन
-से जुनि पतयबिहह
खगता रहनि, एक
दोसर, यस सर यस सर करबहुन
-तै भरोस पर उठेलखुन!
मैथिली साहित्य मे दलितक स्थिति यस सर यस सर सँ बेसी उपर कहां अछि। से त’ हम आंखि सँ देखल। मैथिली मे दलित साहित्य आ दलित विमर्श तखने केन्द्र मे आयत, जखन दलित स्वयं अपन दर्द, अपन पीड़ा, अपन शोषण आ भेदभावक कथा कहथिन। स्वानुभूति आ सहानुभूति मे बड़ पैघ फर्क होइत छैक। शोषित-पीड़ित दलितक दुख-दर्द, भेदभाव, संघर्ष आ पीड़ा पर कतेक गैर-दलित कवि-लेखक द्वारा सेहो लिखल गेल अछि। किंतु हुनक संवेदना आ चेतना दलितक के प्रति दया, करुणा और सहानुभूति सँ आगू नहि बढ़ि सकल अछि। ओ दलितक प्रति सहृदय त’ अछि, किंतु हुनक पक्षधर कदापि नहि। एक ठाम ओ दलितक प्रति दया आ सहानुभूति देखाबैत छथि आ दोसरे ठाम ओ दलितक दलन आ दुर्दशाक मूल-आधार जाति-व्यवस्थाक कोनो न कोनो रूप मे समर्थन करैत छथि वा ओकरा बारे मे मौन रहैत छथि। दलितक प्रति हुनक चेतनाक ऊत्स ऊर्जा, सक्रियता आ परिवर्तनकामी चेतना सँ रहिते रहैत अछि। ताहि लाथे कोनो दलित कवि केँ दलितक प्रति फुसियाही सहानुभूति प्रदर्शित करय वला गैर-दलित लेखक-कवि सँ कहय पड़ैत अछि जे- 'दो-चार दिन के वास्ते अछूत बनके देख।' दलितक पक्षधरता मे ठाढ भेने बिना दलितक बात करब वा हुनक प्रति सहानुभूति व्यक्त करब बेमानी अछि।
हिन्दी मे दलित साहित्यक अवधारणा तेजी सँ अभरैत ओ धार थिक, जे संपूर्ण हिन्दी साहित्य के पाठ आ समझ केँ नव ढंगे देखबा आ बूझबाक लेल मजबूर करैत अछि। एहि अन्तर्गत एकर अन्तर्वस्तु, स्वरूप आ रचनाकार क’ ल’ एकटा बहस चल रहल अछि, जे कि दलित साहित्यक अन्तर्गत केवल दलितक द्वारा रचित साहित्य कें राखल जयबाक चाही अथवा ओहु साहित्य के, जे गैर दलित द्वारा दलितक जीवन आ दशा पर लिखल गेल अछि। दलित साहित्यकार जेना कि डॉ. धर्मवीर, मोहन दास नैमिशराय, जय प्रकाश कर्दम, श्योराज सिंह बेचैन, पुरुषोत्तम सत्यप्रेमी आदि मानैत छथि जे वास्तविक दलित साहित्य वैह थिक जे दलित द्वारा लिखल गेल अछि। एहि बहस मे ओमप्रकाश वाल्मीकिक मान्यता कने बेसी यथार्थपरक बुझाइ पड़ैत अछि। ओ लिखैत छथि, जे गैर दलितक जीवन मे दलितक प्रवेश सिर्फ पिछला दरवाजाक बाहर धरि अछि आ दलितक जीवन मे गैरदलितक प्रवेश नहि के बराबर अछि। ताहि कारणे ई कहल जा सकैत अछि, जे कोनो गैर दलित जखन दलित पर लिखैत अछि त’ ओहि मे कल्पना अधिक होइत अछि। एकर सबसँ पैघ प्रमाण ‘नाच्यौ बहुत गोपाल’ अछि, जकर लेखक अमृत लाल नागर स्वयं स्वीकारने छलाह, जे ओ दलितक जीवन कें सिर्फ खिड़की सँ देखने छलाह। खिड़की सँ देखब आ ओकरा भोगब दूनू दू बात। दलिते दलितक पीड़ा कें समझि सकैत अछि आ ओहि पीड़ाक प्रामाणिक प्रवक्ता भ’ सकैत अछि। बिना भोगने ओ यथार्थक जड़ि मे पैठ बना पायब दुर्लभ काज थिक। हालांकि परकाया प्रवेशक विद्या सँ कखनहुँ-कखनहुँ साहित्यकार ई संभव क’ लैत अछि। मुदा ई विद्या दुर्लभ अछि। ताहि कारणे यैह अटल सत्य अछि, जे दलित साहित्य जखन दलित साहित्यकारे लिखत तखने ओ ज्यादा यथार्थपूर्ण, प्रभावी आ संवेदनशील होइत। आब सब दुख आ बेलल्ल सन कविता त’ तारानन्द वियोगिये लिख सकैत छलाह, यात्री जी तँ कदापि नहि।
सब दुख दीहह गोसाँइ
लेकिन बाभन पड़ोसिया नै दीहह
चंठ बाभन पड़ोसिया
नै सठै जोगी हो,
मोचाड़ि क’ गाड़ि देतह तोरा माटितर खन्दान समेत
लेकिन बाभनक द्वेष तैयो नै सठै छै
जनम-जनम के भरल छै बिखक घैल
ओकर बुन्न छलके छै चहुँदिस हमरा लेल तोरा लेल
झरके छै ओहि सँ ओकर संततियो, से अलग बात छै
हौ, असली बाभन अपन सन्ततियो के नै होई छै
ओ होई छै सिरिफ-सिरिफ अपन आप केँ
आ कि ककर होई छे- कहह
अपना दुखेँ कानै छी जँ
तँ कानियो नै होइए
लागैए खुशी मनबैत हएत पड़ोसिया हमर रुदन पर
हँसे छी तँ हँसि ने होइए जोगी हो
अनचोक्के जँ सुनलक डकूबा
तँ उनट-बिनट करत पोलटिस
परदेसी जँ कियो एला पाहुन हमर दरवज्जा
ओह तेना-तेना करत छल-छद्म सँ हमला
जे होइए, कोशी मे जा डूबि मरी नीज एहि काल
एहन कोन वेदना आ यातना कवि केँ ई कहबा लेल विवश करैत अछि, जे ओ कहैत छथि कोशी मे जाय क’ डूबि मरी। जातिगत अपमान आ भेदभावक पीड़ा आ दंश झैलेत-झैलैत कविक दुख एतेक निसहाय भेल अछि, जे कवि कहैत छथि जे- सब दुख दीहह गोसाँइ/लेकिन बाभन पड़ोसिया नै दीहह/चंठ बाभन पड़ोसिया।
ई कविता दरअसल बाभनक प्रति कोनो डाह आ आक्रोश भाव सँ नहि लिखल गेल अछि। ई त’ वर्चस्ववादी वर्ण व्यवस्थाक ओ सनातन दंश थिक, जकर दर्द कें दलित सदियो सँ सहैत आबि रहल अछि। एहि मे बाभनक कोनो दोष नहि। साहित्य संवेदनाक क्षेत्र अछि। सत्ते लिखने छलाह छायावादक प्रवर्तक कवि सुमित्रानंदन पंत जे -'वियोगी होगा पहला कवि, आह से निकला होगा गान'। एहि काव्य पंक्तिक कविता आह आ दर्द सँ निकलैत अछि। एहि सँ ई आशय आ अर्थ निकलैत अछि जे नीक कविता वैह होयत जे आहत मन वा पीड़ाक गर्भ सँ निकलत आ एहने कविता जीवंत सेहो होयत। दर्दक अनुभूति जतेक गहींर आ तीव्र होयत, कविता ओतबेक नीक आ उत्कृष्ट होयत। कविताक संदर्भ मे आह आ दर्द मुहावरा नहि, अकाट्य सत्य थिक आ ई दलित कविता पर एकदम सटीक बैठैत अछि। दलित कविता दर्द सँ निकलैत अछि, कियैक तँ सदियों सँ दलित दर्द कें सहैत आबि रहल अछि आ पीड़ाक अनुभव करैत आबि रहल अछि। दर्द के अलावा ओकरा किछु नहि भेटल अछि। दलित कविता मे दर्दक अभिव्यक्ति प्रमुख होइत अछि। यैह दर्द आ पीड़ाक टीस मे तारानन्द वियोगी ‘बेलल्ल’ सन कविता लिखने हेताह। एहि कविता मे त’ दलित मनक लाचारगी, बेचारगी आ निसहाय होयबाक एकटा पीड़ा अभरि क’ आबैत अछि-
बहुत घृणास्पद कोनो एक शब्द
हम हुनका लेल प्रयोग करय चाहैत छी
नमहर गर्भवला शब्द
जाहि मे हमरा मोनक सबटा घृणा ल’ सकय अटान
हम आब ओहि शब्दें हुनका
कोना क’ गरियाबियनि हो कोना क’
कहै छियनि नीच, जे कि ओ हजार गुना छथि
मुदा ‘नीच’ तँ पहिनहि हमरा कहि चुकला अछि
महिषासुर थिका चंड-मुंड के जोड़ी बनैने
मुदा सेहो तँ हमरे लोकनिक नाम छल
ने चंडाल कहि सके छियनि ने म्लेच्छ
अनार्य जँ कहबनि तँ तोंही हमरा टोकबह
जे हम अपन पदक दुरुपयोग क' रहल छी।
निरुपाय बनल छी जोगी, से इतिहास मे लिखिहह
लिखिहह जे एक दिन हम नचार
एकटा निखंड गारि धरि लेल बेलल्ल रहि,
लिखिहह
इतिहास मतलब दलित-शूद्रक गारि देब, इतिहास मतलब दलित-शूद्रक संग भेल अन्याय आ शोषण, इतिहास मतलब दलित-शूद्र पर केल गेल दमन आ दलन। इतिहास मतलब दलितक उत्पीड़न। एहि इतिहास के नहि त’ कवि उनैट सकैत छथि आ नहि कविक मित्र जोगी। ‘बेलल्ल’ कविता मे कवि जोगी सँ त’ यैह कहय लेल चाहैत छथि, जे गारि पढ़वा लेले शब्दो दलित सं छीनि लेल गेल अछि आ ओ ताहू लेल बेलल्ल भेल अछि।
दलित साहित्य, आनंद आ मनोरंजनक साहित्य नहि थिक, बल्कि हिन्दू धर्म आ संस्कृति सँ दलित कें जे यातना आ वेदना भेटल अछि, ओकरा परिवर्तनकामी स्वर मे बदलबाक साहित्य थिक। सम्पूर्ण जनमानस कें संवेदनशील बनेबाक साहित्य थिक दलित साहित्य। दलित साहित्य मे, अनुमान, कल्पना तथा ईश्वरोपासना कतहुँ नहि भेटत। दलित रचनाकारक स्वयंक दुःख-दर्द, पीड़ा, आक्रोश आ दलित समाजक खांटी सच, कविता-कहानी, आत्मकथा आ उपन्यासक रूप मे व्यापक स्तर पर सृजित भ’ रहल अछि। सिर्फ इतिहासेटा मे एकलव्य नहि बनायल गेल छलाहे। एकलव्य त' आइयो बनि रहल छै। जेना देखियो वियोगीक कविता- ‘समाधि पर जनमल तुलसी।’
मंच पर भाषण क’ रहल छलाह विद्वान
ओ हमरे लिखल पोथी सँ संकलित केने छला तथ्य
ओहि ढूह पर चढ़ि ओ फुलौने छला छाती
जकर अन्वेषण हम कने छलहुँ
ओ द’ रहल छला भाषण
आ हम पतियानीक सब सँ पाछूक कुर्सी पर
बैसि क’ सुनि रहल छलहुँ
ओ गरजि रहल छला
आ हम सुनै छलहुँ चुपचाप मौन
हम छलहुँ चुपचाप सुनैत मौन
की हम प्रतीक्षा क’ रहल छलहुँ
जे कतहु एक बेर नाम लेता वक्ता महोदय हमरो,
असहमतिक चरम बिन्दु धरि जा क’
की हम सहमतिक तलाश क’ रहल छलहुँ
स्मृति कें बचौने रखबाक भार
की एक हमरे कपार पर छल
जेना समाधि पर जनमल तुलसी
मने बाभनक गाम मे जनमल शुद्र।
एकलव्य के तँ गुरुदक्षिणा मे द्रोणाचार्य आंगुर काटि क’ मांगि लेने छलाह, मुदा एहि कविता मे त’ गर्दने काटि लेल गेल। एकलव्य के समय मे ऐतिहासिक अन्याय भेल, मुदा कवि वियोगीक समय मे ऐतिहासिक डकैती भेल। दलित विचारक अन्वेषण आ अध्ययन कयल किताब सँ तथ्य कें बलजोरी डाका मारि अपन नाम सँ क' लैब आ फेर सार्वजनिक रुपें ओहि किताबक तथ्य सँ भाषण द’ अपन छाती फुलायब- ई कतुका बौद्धिकता भेल। ई सिर्फ छल-कपटे टा नहि एकरा त’ बौद्धिक छिनतई आ गुंडागर्दीक संज्ञा देबाक चाही, जे एकलव्य सँ ल’ क’ रोहित वेमुला धरि जारी अछि।
वस्तुतः आई राम, कृष्ण ब्राह्मणवाद आ हिंदू धर्म आ संस्कृतिक नायक छथि आ तकरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहल जाइत अछि। मुदा राम आ कृष्णक जिक्र होइते दलित कवि कें शंबूक आ एकलव्य कियैक याद आबि जाइत अछि? कियैक दलित कें हिंदू संस्कृतिक ओ स्वर्णिम अतीत गारि जकां बुझाइत अछि? ताहि कारणे दलित कवि हिंदू संस्कृतिक ओहि तथाकथित गौरवपूर्ण इतिहास आ परंपरा कें न सिर्फ नकारैत आ धिक्कारैत अछि, अपितु ओहि पर थूकैत सेहो छथि। बुद्धशरण हंसक एकटा हिन्दी कविता मे दलित चेतनाक एहि खदबदाहट कें बहुत स्पष्टता से सुनल जा सकैत अछि।
'जब तुम राम का नाम लेते हो
मुझे शंबूक का
कटा सिर दिखने लगता है
जब तुम हनुमान का नाम लेते हो
मुझे गुलामी का दर्द सताने लगता है
तुम्हें अपने घृणित अतीत पर गर्व है
मैं तुम्हारे अतीत पर थूकता हूँ।
मुदा मैथिलीक दलित कवि तारानन्द वियोगी हिन्दू धर्म आ संस्कृति कें धिक्कारे आ नकारे सँ बेसी ओहि धर्म आ संस्कृति मे छिपल राजनीतिक छल-छद्म आ ऐतिहासिक अन्याय, डकैती आ कपट कें नहि सिर्फ नांगट करैत छथि, बल्कि इतिहासक ओरिजनल भाष्य सेहो प्रस्तुत करैत छथि। ‘कृष्ण’ आ ‘कतेक टाक छथि शिव’ हुनक ई दु टा कविता त' सरिपहुँ इतिहास आ हिन्दू धर्मक सभटा भाष्य आ मान्यता केँ उनटि क’ राखि दैत अछि आ से संपूर्ण प्रमाणिकताक संग। एहि संग्रह मे कवि तारानन्द वियोगीक एकटा कविता अछि ‘कृष्ण’। ई अनायास नहि थिक, जे कृष्ण एकटा एहन चरित्र अछि जे सदति लगैत अछि कि ओ हमरे सन अछि आ हमरे बीचक एकटा मनुष्य थिक। कृष्ण पर लिखल वियोगीक एहि कविता मे कृष्णक एकटा दोसरे भाष्य अछि, जे अपना सन लगैत अछि। ई भाष्य थिक कृष्णक मानवीयकरणक भाष्य। कृष्णक लौकिकीकरणक भाष्य।
ततेक सताओल गेला एक नेनपन सं
ततेक
जे 'कृष्ण' बहरेला
नै चिन्ता करी जोगी हौ,
संघर्षे सं बहराइ छथि कृष्ण
जेना छेनी सं प्रतिमाक सौन्दर्य
कृष्णो बुढ़ेला कहिया?
जहिया राजा भेला,
जेना जनको ढहला तखने
जखन दशरथ-घर मे बेटी ब्याहलनि
सोचहक
कोना सन-सन करैत रहै संकट
जम-जम करैत रहै कसाइ
मुदा तखनो
कृष्ण कने काल बंसुरी बजाइये लेथि
नाचिये लेथि थोड़बो थोड़
दोस-महीम संग
मोन पाड़ह
कृष्ण तैखन राजा नै भेल रहथि
जोगी हौ, तोरा तँ कहियो राजा हेबाके नै छह
नै चिन्ता करी
एहि कविता में कवि कृष्ण केँ संघर्ष स’ तपि क’ बाहर निकलल लोकनायक के रूप मे देखैत छथि। ई कविता हमरा बूझने एकटा गंभीर ऐतिहासिक आ सामाजिक विमर्शक मांग करैत अछि। हमरा सत्ते लागि रहल अछि, जे एहि कविता मे कृष्णक मानवीयकरण भेल अछि, कृष्णक लौकिकीकण भेल अछि। माने कवि के मन मे ई बात छै जे कृष्ण कोनो देवता, अवतार नहि, बल्कि एकटा साधारण सन ग्वाला रहैक। ओना त' सभ कियो जानिते अछि जे कृष्णक जन्म पृथ्वीलोक पर मानव रुप मे भेल रहै, मुदा सभटा धर्म ग्रंथ आ भागवत में त' कृष्ण लीलाक मायावी रूप के महिमामंडित करैत हुनका ईश्वर यानी नारायण कहल गेल अछि। मुदा हमरा लागैत अछि, जे एहि कविता मे कवि कृष्ण के देवता नहि मानि, संघर्ष सँ बहराइल एकटा जननायक के रूप में देखि रहल छथि। तहन त’ कवि लिखैत छथि जे- कृष्णो बुढ़ेला कहिया? जहिया राजा भेला। आब हमरा सभ कें ई बूझबा मे कोनो भ्रम नहि होयबाक चाही, जे भगवानो कहियो बूढि होइत छै की? आ ततबे टा नहि, एहि कविता मे कृष्ण प्रतिरोध के पुरोधा के रूप अछि। ई कविता स्पष्ट रूप सँ ई स्थापित करैत अछि जे कृष्ण कें भगवान मानबाक घटना ब्राह्मणवादी कुटिलता अछि। जखन कि सत त’ ई अछि, जे कृष्ण दुख मे पलल-बढ़ल मानवेक रूप मे हमर- अहांक प्रेरणास्रोत छथि।
धर्म, वेद आ ब्राह्मणवाद-ई सभटा प्रपंचक पुलिंदा थिक। एहि मे जे किछु अछि ओ सभटा बाभनक द्वारा आ बाभने के लेल अछि। दलितक हित, सम्मान वा अधिकारक लेल हिन्दू धर्म, वेद आ ब्राह्मणवाद मे कोनोटा जगह आ संरक्षण नहि अछि। ताहि कारणे कवि कें वेद-धर्म मे अपना लेल किछु नहि देखाई दैत अछि। तखन नै वियोगी अपन कविता ‘धरम के नाम पर’ मे लिखैत छथि-
ने हम वेद मे, ने विभेद मे
जेन्ने सँ एले करुण पुकार हम तकर संवेद मे
ने हम जन्तर मे ने मन्तर मे
बुद्धि मे अँटल जैह, सैह हमर अन्तर मे,
तखन, हम कोना हिन्दू
मुदा तै सँ की
चाहता तँ ओ यैह जे वोट दे काल मे हम हिन्दू
अनिष्ट मोल लै काल मे हिन्दू हम
दारू कें सस्त करै काल मे हिन्दू हम
हिन्दू हम भैयारी सँ लड़ै काल मे
हिन्दू हम बम खा क’ मरै काल मे
एहि कविताक राजनीतिक निहितार्थ कतैक पैघ छै आ कतैक मारूख- तकर विस्तार सँ चर्चा होयबाक चाही। एहि कविता मे कवि हिन्दू धर्मक ओहि सांप्रदायिक आ फासीवादी क्रूर चेहरा कें नांगट क’ रहल छथि, जेकरा लेल दलित सिर्फ आ सिर्फ एकटा वोट बैंक आ ओतबे टा नहि, जँ कतो एहि सांप्रदायिक आ फासीवादी हिन्दू धर्म कें धर्म आ जातिक नाम पर दंगा फसाद करबा अपन राजनीतिक गोटी सेट करबाक रहै छै, तखन दलित अचानक सँ हिन्दू भ’ जाइत अछि। सब कें मोने हैत जे साल 2002क गुजरात दंगा मे एकटा फोटो आयल छल। माथ पर भगवा कपड़ा बन्हने, दुनू हाथ ऊपर उठौने हुंकार भरैत एक शख्स के। ओकर एक हाथ मे लोहाक रॉड छल आ चेहरा पर उन्माद आ गुस्सा आ पांछा जरैत अहमदाबाद शहरक धधरा। ई फोटो गुजरात दंगाक सबसँ कुख्यात तस्वीर मे सँ एक छल, जे बाद मे जा क’ 2002क गुजरात दंगाक पोस्टर बॉय बनि गेल। हैवानियत आ दहशत सँ तरबतर एही व्यक्तिक नाम छल अशोक भावनभाई परमार उर्फ अशोक मोची।
अशोक मोचीक एहि फोटो कें देखि क’ कतेक कट्टर हिंदू सभ अपन छाती चौड़ा करैत छल, मोंछ ऐंठत छल। अशोक पर गर्व क’ स्वयं कें ओकरा सँ रिलेट करैत छल। मुदा की अहां जानैत छी 2002क गुजरात दंगा मे शामिल अशोक मोची आब की करैत अछि आ दंगाक बारे मे ओ आब की कहैत अछि? दंगाक समय अशोक बेघर आ बेरोजगार छल। आब ओ अहमदाबाद शहर मे जूता-चप्पल सिबाक काज करैत अछि। ओ एतेक नहि कमा पाबैत अछि, जे अपना सिर लेल छतक इंतजाम क’ सकय। बेघर, फुटपाथ पर सुतैत अछि ओ। गरीबीक कारणे बियाह नहि भ’ सकलै। आ सबसँ पैघ बात जे आब अशोक गुजरात दंगाक निंदा करैत अछि। एतबे टा नहि, ओ दंगा मे शामिल होयबा सँ सेहो इनकार करैत अछि। ओकरा मोताबिक, जाही दिन ओकर तस्वीर लेल गेल, ओहि दिन दंगा भ’ रहल छल। हिंदू मारैत छल मुसलमान सभ कें। कियो हिन्दू ओकरा हाथ मे रॉड थमा क’ गोधरा कांडक बदला लेबय लेल कहने छल। एही दौरान एकटा फोटोग्राफर ओकर फोटो खींच लेलकै। जे फोटो बाद मे कतेक ठाम पब्लिश भेल। मैगजीन्स, अखबार आ न्यूज चैनलो मे छायल रहल। साफ छै जे अशोक मोची सन दलितक इस्तेमाल सिर्फ दंगा मे भीड़ बढ़ेबा लेल आ मारि-काट मचेबा लेल फासीवादी हिन्दू ताकत करैत अछि।
एतबे टा नहि हिन्दूक लेल दलित सिर्फ आ सिर्फ वोट बैंक होइत छैक। एकर सब सँ जीवित आ जीवंत प्रमाण थिक- मिथिलाक कामेश्वर चौपाल। भाजपा नेता आ श्रीराम जन्मभूमि न्यास समितिक सदस्य कामेश्वर चौपाल कें एखन बिहार चुनावक नतीजा आबैक बाद उपमुख्यमंत्री बनेबाक चर्चा बड़ जोर पकड़ने रहैक। मुदा सब खत्म। की कामेश्वर चौपाल बिहारक डिप्टी सीएम बनि सकलाह? कियैक नहि बनलाह? ओकर कारण अहां सभ सेहो बूझैत छियैक। ई वैह कामेश्वर चौपाल थिकाह, जे राम मंदिर निर्माण आंदोलनक अग्रणी कारसेवक रहथि आ राम मंदिर शिलान्यास कार्यक्रम मे राम मंदिर निर्माणक लेल पहिल शिला कामेश्वर चौपाले राखने छलाह। रोटीक संग रामक नारा देबय वला कामेश्वर चौपाले 9 नवंबर, 1989 कें राम मंदिर निर्माणक लेल भेल शिलान्यास कार्यक्रम मे पहिल ईंट राखने छला।
'रामराज्य में दूध मिला था, कृष्ण राज्य में घी'। ई एकटा जन-गीतक पंक्ति अछि, जे सत्तरक दशक मे उत्तर भारत मे राजनीतिक आ सामाजिक मंच सँ गायल जायत छल। एहि गीतक माध्यमे समाज मे ई संदेश देल जायत छल, जे देशक सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था ठीक नहि अछि। जखन-जखन देशक सामाजिक-आर्थिक स्थिति मे सुधारक बात कयल जायत अछि, तखन-तखन हिंदू नेता सभ रामराज्य के स्थापनाक बात कहैत छथि। एकर अलावा ओ स्वयं कें हिन्दू हेबा पर गर्व करैत अछि आ दलित सभक सेहो आह्वान करैत छथि, जे ओहो स्वयं कें हिंदू मानथि आ हिंदू होयबा पर गर्व करथि। जाहि मर्यादा पुरुषोत्तम राम द्वारा अपने हाथ सँ शूद्र ऋषि शंबूकक गर्दन काटल गेल छल, ओही रामराज्य मे दलितक कोन स्थान? ई एकटा पैघ सवाल अछि। दलित कविता पूरा शिद्दतक संग ऐहन प्रश्न सभ केँ उठाबैत अछि। रामराज्य सवर्ण हिंदूक लेल कल्याणकारी वा स्वर्णिम भ’ सकैत अछि, दलितक लेल ई त स्वतंत्रता विरोधी, दमनकारी आ अन्हार युग सँ बेसी खतरनाक साबित भ’ रहल अछि। बाबा साहेबक लिखल गेल भारतीय संविधान मे देशक समस्त नागरिक लेल समान मौलिक अधिकार प्रदान केल गेल अछि, किंतु दलित केँ आइ धरि हुनक अधिकार नहि भेटल अछि।
एखन धरि दलित कें छोट-मोट अधिकार आ सुविधा द’ हुनक संघर्ष-चेतना के शांत करबाक कोशिश भ’ रहल अछि। मुदा डॉ. अंबेडकरक पैघ संघर्ष आ प्रयास सँ शिक्षित भेल दलित सभ मे आयल अधिकार चेतना अधिकारक नाम पर झुनझुना थामय लेल तैयार किन्नहुँ नहि होयत। सामाजिक आ आर्थिके टा नहि, आब दलितक अधिकार चेतना राजनीतिक अधिकार लेल सेहो पिछला दू दशक सँ संघर्षरत अछि आ एहि आधारभूमि पर लिखल गेल तारानन्द वियोगीक दीर्घ कविता ‘बाभनक गाम’ जे एहि संग्रहक अंत मे अछि, ओकर चर्च कयने बिना एहि कविता संग्रह चर्चा बेमानी। मुदा ‘बाभनक गाम’ दीर्घ कविताक जे वितान अछि आ जे पैघ कैनवास अछि, ओहि पर हमर मानब अछि जे एकटा पूरा पोथी लिखल जा सकैत अछि। ताहि कारणे हम सोचने छी जे ‘बाभनक गाम’ पर विस्तार सँ आ अलग सँ लिखब।
दलित कविताक स्पष्ट मत होइत अछि, जे हमरा आदमी चाही, आ आदमियत चाही। मनुष्यता समाज मे शांति, सदभाव आ सह-अस्तित्वक आधार होइत छै। मनुष्यता होइत तखने दलितक जीवनक अंधकार मिटत आ ओकरा अंदर आत्म-विश्वास आओत। मानवता पनपत तखने दमन, शोषण, अत्याचार, अन्याय, उत्पीड़न खत्म होयत आ समानता संग लोकतंत्रक स्थापना होयत। ताहि कारणे दलित कविता कें ईश्वर, धर्म, धर्माचार्य ककरो चाह नहि अछि। कियैक तँ ईश्वर, आत्मा आदिक अस्तित्व मनुवाद/ब्राह्मणवादक प्रपंच थिक।
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