तारानंद वियोगी
।।भूमिका।।
मिथिला मे कबीरक धमक-- चर्चाक एहन सन नाम रखबाक की अर्थ अछि? धमक कहल जाइ छै कोनो जीवित चलायमान वस्तुक ध्वनि कें, जे दृश्य नहि रहैत छैक, केवल श्रव्य होइत छैक। क्यो छै जकरा हम देखि तं नहि पाबि रहल छी मुदा सूनि पूरा रहल छी। नहि देखबाक पाछू दू कारण भ' सकै छै। कि तं ओहि वस्तु मे रूपे नहि हो वा हो तं तिमिराच्छन्न हो, अथवा देखनहार कें ओ आंखिये नहि होइक जकरा सं ओहि कोटिक वस्तु कें देखल जा सकय। कबीरक संदर्भ मे कही तं मिथिलाक संग ई दूनू कारण हमरा समान रूप सं जिम्मेवार देखाइत अछि।
दोसर एक प्रश्न ई उठै छै जे ई धमक निज आइये सुनि पड़ि रहल अछि आ कि एकर कोनो इतिहासो छै? बहुतो लोक एहन हेता जिनका लागतनि जे कबीरक कनेक्शन मिथिला संग! आश्चर्यजनक! कबीरक पदावली मैथिली मे? आश्चर्यजनक! जेना हमसब आयुवृद्ध भेला पर कोनो व्यक्ति कें विस्मृतिक गंभीर रोग सं ग्रस्त होइत देखै छियै, लोक अपनो नाम बिसरि जाइए, अपन परिवारोक लोक अनचीन्ह भ' जाइ छै। मोन रखबाक चाही जे एहन केवल व्यक्तियेक संग होइत हो से नहि होइ छै। कोनो जाति, कोनो समुदाय, कोनो राष्ट्र सेहो एहि प्रकारक विस्मृतिक शिकार भ' सकै छै। दुनियाक इतिहास एकर उदाहरण सब सं भरल पड़ल अछि।
बहुतो लोक कें लगै छनि जे कबीर हाशियाक आवाज छला, जे कि एकदम्मे असत्य अछि। सन् 1518 मे कबीरक निधन मानल जाइछ आ किछुए दशकक भीतर हुनकर जीवनी लिखा गेल। गागरौनक राजा पीपा, ने केवल कबीरक अनुयायी भेला, हुनका पर बेहद मार्मिक काव्यक रचना केलनि। सतरहम शताब्दीक शुरुआतिये चरण मे कबीरक शिष्य लोकनि ओहि समस्त जगह पर कबीरमठक स्थापना केलनि जतय सं कबीरक कनेक्शन छलनि। कबीरपंथ चलि पड़ल, यद्यपि कि बुझले बात अछि जे स्वयं कबीर कें कोनो पंथ वा संप्रदाय शुरू करबा मे दूर-दूर धरि कोनो रुचि नहि छलनि।
तं, कबीरक ई आदिम चारि मठ जतय-जतय बनल रहै, ओहि मे सं एक मिथिलो छल। एकर प्रवर्तक जागूदासक बारे मे तं कहल जाइत अछि जे अपन पहिल मठ ओ अंधराठाढ़ी मे बनौने छला आ ई मठ जखन सुव्यवस्थित भ' गेल तकर बादे ओ पहिने तं शोभाबसन्तपुर पछाति बिदुपुर गेला जतय अंतकाल धरि रमला आ जे आइ जागूदासी संप्रदायक मुख्यालय(गुरुगादी) थिक। अइ तरहें देखी तं कबीरक धमक सतरहम शताब्दी मे जहिया अखिल भारत मे कतहु आन ठाम सुनाइ पड़ल रहै, ठीकमठीक तहिये, संग-संग, मिथिला मे सेहो सुनाइ पड़ल रहै। तें ई धमक चारि सौ बरस पुरान धमक थिक। हमरा जं आइ पहिल बेर धमक सन लगैत हो तं एकर मतलब थिक जे हम वा हमर समुदाय वा हमर प्रान्त जातीय विस्मृति-रोगक चपेट मे आबि गेल अछि।
मिथिलाक कबीरमठक सम्बन्ध मे दूटा बात एतय हमरा मोन पड़ैत आछि, जकर चर्चा क' देबय चाहै छी। एक तं औराही हिंगनाक कबीरमठ, जकर पूरा वर्णन फणीश्वरनाथ रेणुक उपन्यास 'मैला आंचल' मे आएल अछि। ई मठ छतीसगढ़ी शाखाक मठ थिक जे आइयो व्यवस्थापूर्वक संचालित अछि। दोसर, बरहा गामक कबीरमठ जे वचनवंशीय शाखा सं संबद्ध अछि आ जकर सम्बन्ध मिथिलाक एक महान नेता कामरेड भोगेन्द्र झा सं छैक। जानि नहि कतेको ठाम भोगेन्द्र बाबू अइ प्रसंगक चर्चा केलनि आ लिखलनि। प्रसंग अछि जे एक बेर हुनका कोनो प्राश्निक पुछलखिन जे मिथिला सन रूढ़िवादी प्रान्त मे जनमियो क' आ प्रतिपाल पाबियो क' अहां कें मार्क्सवादी क्रान्तिकारी विचार दिस बढ़बाक प्रेरणा कोना आ कतय सं भेटल। ओ जे उत्तर देने रहथिन तकर सार रहै जे हुनका घरे लग कबीरमठ रहनि, नेनपन सं ओतय जेबाक, साधु लोकनिक संगति मे बैसबाक-उठबाक, चर्चा करबाक, संस्कार अर्जित करबाक अवसर भेटल रहनि। से जं नहि भेटल रहितनि तं रूढ़ि कें तोड़ि ओ एक क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नहि बनि सकै छला।
।।कबीरक मिथिला-कनेक्शन।।
अहां कें साइत ई जानि क' आश्चर्य लागत जे कबीरपंथक चारि संप्रदाय जे छलै-- कबीरचौरा, छतीसगढ़ी, जागूदासी आ धनौती-- सब अपन-अपन शाखा-मठ मिथिला मे आबि क' बनेलक। से कोनो एकाध टा बनेने हो सेहो नहि, एहि मठ सभक संख्या सैकड़ा मे छै। स्थानीय जमींदार ओइ मठ कें जमीन देलकै, समाज ओकरा श्रद्धा देलकै, अनुयायीवर्ग ओकरा बल देलकै। बोधगया मे देखने हेबै जे बौद्धधर्मक अनुयायी जे देश सब अछि, सब अपन-अपन मंदिर ओतय बनबेने अछि। कनेक्शन छै कोनो, तें ने? के जानय जे ओइ पुरान पुरखा लोकनि कें ओ सबटा जगह, ओ कुटी बूझल होइन जतय कबीर रमला। विस्मृतिक चपेट मे आएल आजुक के लोक कहि सकैत अछि? मुदा कहबी छै जे जे अकारण तं टिटही सेहो नहि बजैत छैक। भ' सकै छै जे जागूदास अंधराठाढ़ी मे एही दुआरे पहिल मठ बनेने होथि। पंडित गोविन्द झा कतहु लिखने छथि जे सौराठ लगक कोनो गाम कबीरक गाम छलनि, से हुनका गुरु-परंपरा सं सुनल छनि।
दोसर दिस अहां देखबै, एहन मैथिल लोकक संख्या लाखो मे अछि जे कबीरपंथी छथि। हुनकर धार्मिक कृत्य सं ल' क' कौलिक संस्कार धरि कबीरपंथक संहिताक अनुसार होइ छनि। मैथिल कबीरपंथी लोकनिक सुरुहे सं ई हिसाब रहलनि जे हुनका अहां कपड़ा सं, वा विन्यास सं अलग सं नहि चीन्हि सकै छियनि। ओ ठीक ओही तरहें मैथिल जीवन जिबै छथि जेना हम-अहां जिबै छी। हं, भोजन, संस्कार आ धार्मिक क्रियाकांड हुनकर अपन छनि जे कि निजी छनि। उद्दंड समुदाय जकां झंडा फहरबैत, नारा चिचियबैत इतिहास मे कहियो हुनका लोकनि कें नहि देखल गेलनि।
तखन अहां देखबै जे मिथिला मे पचासो एहन गाम छै जकर नाम कबीरक नाम पर छै। जेना कबीरपुर, कबीरचक, कबीरगंज, कबिराहा आदि। दर्जन भरि नाम तं हमरो बुझल अछि, तहिना सब कें बुझल हेतनि। कबीरक नाम पर जे मैथिली मे पद सब गाओल गेल छै तकर संख्याक हिसाब करय लागी तं पांच हजार सं कम नहि हैत। अइ गीत सब कें अहां यूट्यूब पर सेहो सुनि सकै छी। ई गीत सब प्राचीन पांडुलिपि सब मे दर्ज गीतक अतिरिक्तो अछि। मिथिला मे क्यो एहन लोक नहि हेता जे कबीरक बारे मे किछु ने किछु नहि जनैत हेता। कबीरक नाम पर बनल दू-चारि टा फकड़ा सब कें बूझल हेतनि-- कहय कबीर हम कहबे करबह/ नै बुझबह त हम की करबह। कहय कबीर एक लक्कड़ चाही। कबीरदास के उनटे बानी,कहय कबीर सुनो भाइ सन्तो, असली मारि कबीर के आदि-आदि।
ई तं भेल हुनकर व्याप्ति। मुदा, सांस्कृतिक समन्वयन के वास्तविकता की अछि? मैथिली लोकगाथा पर विचार करैत पंडित गोविन्द झाक लिखल एक बात एतय हमरा मोन पड़ैए। कहने छथि, जकरा हमसब मिथिला कहै छियै ओकरा भीतर मे दू अलग-अलग मिथिला बसैए, दू अलग-अलग समुदाय। दुनू एक दोसर सं सर्वथा अनजान, अनचीन्ह, जेना दू अलग-अलग ग्रह के बसिन्दा होथि। ओइ दोसर ग्रहक बसिन्दा समाज कबीरक समाज छियनि। मैथिली साहित्य जें कि एक ग्रह-विशेषेक प्रभाव मे रहल तें ओहि दोसर ग्रहक समुदाय के एतय कोनो मान्यता नहि रहल अछि। मजा के बात ई छै जे ओहि दोसर ग्रहक बसिन्दा कें सेहो कहियो मैथिली साहित्यक कोनो जरूरति नहि पड़लै। ओकर अपन समुन्नत संस्कृति छै, साहित्य छै जे कि मौखिक छै। अपन धार्मिक परंपरा छै। ओ अपनहि मे मस्त अछि।
।।कबीरक वैचारिकता आ हुनकर सरोकार।।
कबीरक अपन खास जीवनदर्शन रहलनि आ जीवनशैली सेहो। कबीर कें अहां निरा साधू, वा गंभीरो अर्थ मे कहू तं मात्र आध्यात्मिक पुरुष, नहि कहि सकै छियनि। हुनकर अपन स्पष्ट सामाजिक लक्ष्य छलनि। हुनकर अध्यात्म के दुइये टा तं खासियत अछि। एक। जे पिंड मे अछि, ठीक-ठीक वैह ब्रह्मांड मे अछि। दोसर जे अछि से एही सिद्धान्त सं जनमल अपर सिद्धान्त थिक। आब जें कि पिंड आ ब्रह्मांड एक्के अछि, तें ई आखिर भैये कोना सकैए जे आदमी-आदमी मे फर्क होइ, धर्म वा संप्रदाय के नाम पर, जाति, नस्ल वा लिंग के नाम पर।
मुदा वास्तविक मे ई दुनिया केहन अछि,देखिये रहल छियै। कबीर नाइंसाफीक अइ दुनिया कें बर्दाश्त नहि करै छथि। ओ उनटि क' कहै छथि-- तुम कत बाभन हम कत सूद? ई भैये कोना सकैए जे आदमी आ आदमी मे फर्क हो, क्यो बाभन हो क्यो शूद्र! ओ तं करारा चाट मारै छथि वर्णवाद पर-- 'मरली मैया चमरा खाले ओका नाम चमाला है/ जीत जीव के जो वध करता ओका कवन हवाला है।' प्रश्न तं सही मे बहुत कड़ा छै। धर्म के नाम पर वध तं भ' रहल अछि जरूर। गैरबराबरी कयल जाइए रहल अछि। आदमी आदमी मे भेद कयल जाइए रहल अछि। एते आक्रमण कबीर पर भेलनि मुदा ओ किए नहि मरै छथि, किए आइयो एते प्रासंगिक छथि, बुझि सकै छी।
जे उच्चवर्णक बौद्धिक हेता हुनकर ध्यान किनसाइते अइ बात दिस गेल हेतनि जे वास्तव मे जे विक्टिम अछि, पीड़ित अछि वर्णव्यवस्था के, ओकरा मनोविज्ञान पर एकर की असर पड़ैत हेतै? ओइ लोक के आवाज छथिन कबीर। बिहार मे अहां ओइ लोक के संख्या देखियौ, तखन मिथिलो कें देख लियौ, यैह लोक बहुसंख्यक छथि। हिनकर आवाज छथिन कबीर। ई कबीरपंथक सामाजिक पक्ष छिऐ। बांकी हुनका सभक धार्मिको पक्ष अइ लोक सं भिन्न छनि। ओ मंदिर नै जेता, सत्संग करेता। ओइ मे प्रवचन हेतै। बुद्धदेव के देशना सब कें मोन पाड़ियौ। ओइ अवसर पर ज्ञान आ चेतना के माहौल बनै छलै। ओकर परतर मंदिर-तीर्थ जाइ बला लेकिन आदमी-आदमी मे फर्क करैबलाक चेतनाविहीन कर्मकांड कोना क' सकैत अछि? ओइ ठाम बेहोशी नहि छै। चेतना छै। कबीर अपन कविता मे अही चेतना के बात करै छथिन। मने मूल अभिप्राय मे। बांकी तं हुनकर कविता पूरे दृश्यात्मक छनि। ओइ ठाम ब्याह अछि, गौना अछि। पिया अछि, विरहिणी अछि। नैहर के लोक बहुत चंठ छै। बेचारो कें सुरक्षित अपन सासुर जेबाक छै। पंथ बहुत दूर छै। दृश्य के तं बुझू पूरा महाकाव्य छनि कबीर के काव्य। ओइ दृश्य के भीतर अध्यात्म छै, ओइ मे मनुष्यता के गुणगान अछि। मुदा ओकरो भीतर एक सामाजिक कारक सक्रिय छै। ओ छियै-- आदमी आ आदमी मे भेद कोना भ' सकै छै? आखिर पिंड आ ब्रह्मांड तं एक्के छथि। कबीर बेर-बेर ई प्रश्न उठबैत भेटता जे जाहि प्रेम के साधना सं स्वयं राम भेटि सकै छथि, ओही राम के बनाओल एत्तेक सारा लोक अपना मे प्रेमपूर्वक किए नहि रहि सकैत अछि? विद्वान लोकनि कें ई बात बुझल हेतनि जे कबीरक कविता संग पहिल बेर न्याय केनिहार आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी हुनका कविता कें 'फोकट के माल' कहने रहथिन। फोकट के माल अर्थात ऊपरी आमदनी। मने जे कबीरक तं सामाजिक सरोकारे तते व्यापक छनि जे कविता जं हुनका लग नहियो रहितनि तं हुनकर पूज्यता मे कोनो कमी नहि आबितनि। मुदा ई तं तत्व के बात भेलै। कबीरक कविते तं कारण थिक जे ओहि युग सं हमरा लोकनिक आजुक युग धरि हुनका पहुंचेने छनि।
।।की कबीर मैथिल छला?।।
कबीरक संदर्भ मे मिथिलाक उच्चवर्ण सदा असहिष्णु रहल। उच्चवर्णक महात्मा वा परमहंसे ने क्यो भने भ' गेल होथि, कबीरक प्रति एहि असहिष्णुता आ अवमानना मे कमी नहि आनि सकला। कते भारी विडंबनाक बात छी जे अपना ओतक लोक परमहंस भैयो क' आदमी-आदमी मे विभेदक बिमारी सं मुक्त नहि भ' पबैत अछि। विना उदाहरण देने कहब तं साइत अहां विश्वास नहि करबै। परमहंस लक्ष्मीनाथ गोसांइ मैथिलीक बड़ भारी संतकवि मानल जाइत छथि, यद्यपि कि हुनकर पूरा गीतावली उनटा लिय' कुल्लम बाइसे टा पद मात्र हुनकर मैथिली मे छनि बांकी छनि सधुक्कड़ी वा ब्रजभाषा मे। कबीर सं हुनका कते घृणा रहनि तकर पता हुनकर अइ पांती सं पाबि सकै छी-- 'रहे एक कोइ पापी घाती, मरल मगह मे जाई/ खात न ताहि गिद्ध कौआ खग, कुक्कुर देख पड़ाई/ गलि गये मांस चाम भौ न्यारा केश हाड़ बिलगाई/ जय गंगा, गंगा कहु भोरे जौं सुख चाहत भाई।' भोरे उठि क' जय गंगा जय गंगा करू, अइ मे चेतना के कोनो जरूरत छै दूर दूर धरि? मुदा, कबीर कहै छथि-- 'चेत करू बाबा, बिलैया मारय मटकी।' कतय पाबी चेत? ओतय तं भोरे उठि गंगा-गंगा कहने सब पाप नष्ट भ' जाइत अछि। कबीर मुश्किल पैदा करै छथिन। क्यो देवता मनुक्खक उपकारी नहि भ' सकैए, जागय पड़तै आदमी कें अपने। अपने चेतना ओकर उपकारी भ' सकै छै।
आधुनिक मैथिली साहित्य मे डा. सुभद्र झा पहिल व्यक्ति भेला जे आत्मबुद्धि रखैत कबीरक अध्ययन केलनि। अपन विश्वप्रसिद्ध ग्रन्थ 'फोरमेशन आफ मैथिली लैंग्वेज' के तैयारी-काल मे ओ कबीरोक मैथिली पदक अध्ययन जरूरी बुझलनि। ओ ओहि विस्मृतिक घटाटोप कें चीरि क' कबीरक मिथिला-कनेक्शन के खोज केलनि। अपन ओ ग्रन्थ छपबा सं दू-तीन बरस पहिनहि ओ कबीर पर एक गंभीर लेख 'संत कबीर की जन्मभूमि तथा उनके कुछ मैथिली पद' लिखलनि। ई लेख बिहार यूनिवर्सिटी जर्नल के भाग दू मे 1956 मे प्रकाशित भेल। लेख मे ओ सबल तर्कपूर्वक मिथिला कें कबीरक जन्मभूमि साबित केलनि। पूरा दुनिया मे कबीरक अध्येता लोकनिक बीच ई लेख खलबली मचा देने रहैक। उनैसम शताब्दीक अंतिम चरण सं ल' क' बीसम शताब्दीक मध्य धरि, जखन मैथिल विद्वान लोकनि विद्यापति कें स्थापित करबाक कोशिश मे लागल छला, ठीक यैह समय छल जखन हिन्दीक विद्वान लोकनि कबीर कें स्थापित करबाक कोशिश मे रहथि। बीच मे सुभद्र बाबू आबि क' ई स्थिति बना देलनि जे कबीरक जन्मभूमिक मुद्दा पर अध्येता लोकनि आगां विचारे करब बंद क' देलनि। एहि मुद्दा कें पूरेपूरी कबीरपंथी लोकनिक आस्था आ विश्वास पर छोड़ि देल गेल। हालसाल मे छपल कबीरपरक किताब सब मे अहां ई चीज देखि सकै छियै।
सुभद्र बाबू की सब तर्क देने रहथि, ताहि पर बात करबा सं पहिने ई जानि लेबाक चाही जे कबीरक कार्यक्षेत्र काशी रहलनि ताहि मे कोनो विवाद नहि छल, एक। दोसर जे तीन स्थान एहन छल-- मगहर, बेलहरा आ काशी, जकरा कबीरक जन्मभूमि सिद्ध करबाक घमासान रहैक। तर्क कोन्नो पक्षक सबल नहि, सभक तर्क मे किछु ने किछु झोल। जेना मगहर बला समर्थक लोकनि के तर्क रहनि जे कबीर अपने लिखने छथि-- 'पहिले दरसन मगहर पाइयो पुनि काशी बसि आई।' हिनका लोकनिक मतें दरसन के मतलब संसारक दर्शन अर्थात जन्म छैक। सुभद्र बाबू विस्तारपूर्वक बतौलनि जे दरसन के अर्थ अइ ठाम मात्र 'ज्ञानक प्रत्यक्षीकरण' छै। काशी मे कबीरक जन्म हेबाक उल्लेख जाहि प्राचीनतम पुस्तक सब मे भेटैए, ओइ मे सं कोनो बीसम शताब्दी सं पहिनेक लिखल नहि थिक। तहिना, बेलहारा के दावा एही दुआरे कयल गेल जे एकर उल्लेख 1909 मे प्रकाशित बनारस जिला गजेटियर मे छपल छै। सब सं प्रबल तर्क काशीक लहरताराक पक्ष मे छल जकरा सुभद्र बाबू तर्कपूर्वक सर्वाधिक व्यर्थ कहलनि। कबीरक जाहि पांती सब-- सकल जनम शिवपुरी गमाया, काशी मे हम प्रकट भये हैं रामानंद चेताये,जनम जनम हम काशी सेइया-- कें आधार बनाओल गेल छल, सुभद्र बाबूक कहब भेलनि जे एहि मे सं कोनो पांती, भने ई कबीरक लिखल होइन कि किनको आनक, मात्र एतबे पता लगैत अछि जे हुनकर जीवनक अधिकांश भाग काशी मे बितलनि, ने कि ई जे काशी मे हुनकर जन्म भेलनि।
सुभद्र बाबू कबीरक मनोविज्ञान कें आधार बना क' जन्मभूमि-विवादक शुरुआत केलनि। ओ कहलनि जे मिला क' देखि लियौ, कबीर जे 'वैष्णव' आ 'शाक्त' शब्दक प्रयोग अपन कविता सब मे केलनि अछि से 'विष्णुक उपासक' वा 'शक्तिक उपासक' के रूप मे करबे नहि केलनि अछि। वैष्णव सं हुनकर अर्थ छनि जे मांसाहारी नहि होथि, सात्विक होथि। तहिना शाक्त, जकरा लेल ओ साकत अथवा साकट शब्द के प्रयोग केने छथि, तकर अर्थ थिक माछ-मासु खाइबला, जीवहत्या करैबला। ओ देखौलनि जे कोना आइयो एहि दुनू शब्दक ठीक-ठीक यैह अर्थ मिथिला मे प्रचलित छै। ओ कहलनि, की भगवान महावीर कें छोड़ि क' कोनो आन संप्रदायक क्यो संत मत्स्यभक्षणक एहन जोरदार खंडन कयने छथि, जेहन कबीरक ओतय पाओल जाइछ? साकत के विरुद्ध कबीर जे सब युक्ति देलनि, काशी वा मगहर मे उत्पन्न संतक एहि तरहक युक्ति कदापि संभव नहि भ' सकैत अछि। निश्चिते कबीर जतय जन्म लेने हेता ओहि ठामक ब्राह्मणलोकनि मत्स्यभोजी रहथि। जतय मत्स्यभक्षणक परंपरा नहि रहतै ओहि ठामक संत कें एहि तरहक युक्ति देबाक आवश्यकते की रहतै? सुभद्र बाबू प्रश्न उठेलनि जे की सूर, तुलसी, मीरा, नामदेव आदिक पद मे एहि तरहें मत्स्यभक्षणक खंडन भेटैए? किए? अइ लेल जे हुनका सब कें एकर आवश्यकते नहि रहनि।
शाक्त वा साकत सं कबीरक घृणा जगजाहिर अछि-- 'साकत बाभन मत मिलै, बैस्नो मिले चंडाल'; 'बैस्नो की छपरी भली ना साकत का बड़ गांव'; 'साकत सुनहा दोनों भाई, वौ नींदै वौ भौंकत जाई।' आब मजेदार बात ई छै जे कबीरक निधनक थोड़बे दशक बाद जे अनन्तदास (1590क आसपास) 'परिचई' लिखने छला ओकर आरंभे अइ पद सं होइ छलै-- 'कासी बसे जुलाहा एक/ हरि भगतन की पकड़ी टेक/ बहुत दिना साकत मैं गइया/ अब हरि का गुण ले निरबहिया'-- अइ सं ई पता लगै छै जे कबीर अपने सेहो पहिने साकत छला। ई एक स्थापित तथ्य छै, कारण आनो सूत्र सब सं एकर पुष्टि होइ छै। सुभद्र बाबूक आकलन छनि जे कबीर जखन मिथिला मे रहै छला तखनहि अन्यान्य धार्मिक-सामाजिक वैचारिकता सभक संग हुनकर परिचय भ' गेल छलनि। मैथिल लोकनिक जीवनशैली आ कर्मकांडक ततेक विपरीत प्रभाव हुनका पर पड़लनि जे ओ सदाक लेल हिनका सभक विरोधी भ' गेला, अन्तत: हुनका अपमानित भ' क' मिथिला छोड़ि देब' पड़लनि। कबीर पर लिखल अपन सुप्रसिद्ध किताब 'अकथ कहानी प्रेम की' मे पुरुषोत्तम अग्रवाल शाक्तक प्रति कबीरक घृणाक पृ़्ष्ठभूमि मादे लिखलनि अछि-- 'जिस समूह से जुड़े रहकर आप कट जाएं, उसके साथ आपके सम्बन्ध कुछ ज्यादा ही तनावपूर्ण हो जाते हैं। नापसंदगी में सैद्धान्तिक से कहीं ज्यादा मानीखेज व्यक्तिगत आयाम जुड़ जाता है। भूतपूर्व स्वयंसेवक, संघ के कठोरतम आलोचक होते हैं, और भूतपूर्व कामरेड, कम्युनिस्ट पार्टी के।' मुदा, तैयो फरक अछि। कबीर कें जे घृणा शाक्त सं छलनि, तुलसीदास कें लगभग सैह घृणा, बरु ओहू सं बेसी, निर्गुणियां सब सं छलनि। मुदा फर्क देखू जे तुलसीक घृणा साम्प्रदायिक छनि कारण हुनका जीवन कें जे लोकनि पीड़ित आ संतापित करैत रहलखिन से निर्गुणियां सब नहि रहथि, वैह ब्राह्मण आ ब्राह्मणवादी सब छला जकर समर्थन तुलसी जीवन भरि करैत रहल छला। दोसर दिस, कबीरक घृणा हुनकर व्यक्तिगत संताप, जातीय उपेक्षा, गैरबराबरीक दंश सं जनमल ईमानदार घृणा छलनि। एकरा अहां साम्प्रदायिक नहि कहि सकै छियै।
डा. सुभद्र झाक दोसर तर्क कबीरक बीजक मे संकलित एक पदक समुचित व्याख्या पर आधारित छनि। मानल जाइछ जे ई हुनकर आखिरी कालखंडक रचना छियनि। पंक्ति छनि-- 'लोगा, तुम ही मति के भोरा/ ज्यों पानी पानी मे मिलि गो/ त्यों दुरि मिला कबीरा/ ज्यों मैथिल को सच्चा वास/ त्योंहि मरण होय मगहर पास।' अर्थसंकेत छैक जे एक आध्यात्मिक उत्तराधिकारी के रूप मे मैथिल हैब असाधारण बात थिक जकरा लेल काशी आ मगहर मे कोनो भेद नहि रहि जाइत अछि। एहि ठाम हमरा लोकनि कें मिथिलाक आदिम ज्ञान-परंपरा-- जनक, याज्ञवल्क्य आ गौतम बुद्ध-महावीरक स्मृति आबि सकैत अछि।
तेसर तर्क 'सर्वज्ञसागर' नामक सुप्रसिद्ध कबीरपंथी ग्रन्थ मे आएल एक पदांश सं संबंधित अछि। पदांश अछि-- 'सावन भादव बरसे मेहा/ एते सबद हम कह्यो विदेहा।' प्रसंग कबीर आ धनी धर्मदासक बीच होइत संवादक अछि। एहि पदांश मे आएल 'विदेहा' शब्दक अर्थ हिन्दीक विद्वान लोकनि 'जीवनमुक्त' अवस्था सं लैत रहल रहल छला। सुभद्र बाबू अनेक उदाहरण रखैत ई तथ्य रखलनि जे कबीरक ओतय जीवन्मुक्त अवस्थाक कोनो अवधारणे नहि अछि। मृत्युक अर्थ कबीर लग मे सीधा मृत्यु अछि, जतय ओ अनेक काव्यात्मक उपमान सभक प्रयोग केलनि अछि। कतहु नैहर छुटि जाइत अछि, कतहु सासुर सं लियौन आबि जाइ छै, कतहु घैल फूटि जाइछ, जल मे जल समा जाइत अछि। कबीरक अनेक पद एकर प्रमाण थिक-- 'जा मरने से जग डरे मेरो मन आनंद/ कब मरिहूं कब देखिहूं पूरन परमानंद।' 'कहै कबीर अंत की बारी/ हाथ झाड़ि जैसे चले जुआरी।' सुभद्र बाबूक कहब भेलनि जे 'एते सबद हम कह्यो विदेहा' के अर्थ थिक जे ई सब बात हम अहां कें मिथिलाक भूमि पर ठाढ़ भ' क' कहि रहल छी। मिथिलाक आदिम ज्ञानकर्मसमुच्चय सं भरल परिपूर्ण आध्यात्मिकता के संदर्भ सं भरल परिप्रेक्ष्य मे कबीरक एहि कथनक अर्थ करबाक चाही, से सुभद्र बाबूक तात्पर्य रहनि।
कबीरक मैथिलत्व प्रतिपादित करैत डा. सुभद्र झा हुनकर एक आरो उक्ति उद्धृत केलनि-- 'बोली हमरी पूरबी हमें लखा न कोइ/ हमको तो सोई लखे धुर पूरब का होइ।' हिन्दीक विद्वान लोकनिक मान्यता छलनि जे पूर्वी भाषा मैथिलिये हो से जरूरी नहि। सुदूर पूर्वी भारत मे अवस्थित सब भाषा पूर्वी भाषा थिक। मुदा, सुभद्र बाबू 'सापेक्षता'क प्रश्न ठाढ़ करैत कहलनि जे क्यो व्यक्ति कोन जगह पर ठाढ़ भ' क' कोनो दिशाक बात करैत अछि से एक महत्वपूर्ण अर्थसंकेत होइत छैक। ओ काशीक धरती पर सं अपन बोली कें 'धुर पूरबक बोली' कहि रहल छला तें एकर अर्थ बनारस के बोली वा ओकर लगपास के बोली तं कदापि नहि भ' सकै छै।
कुल मिला क' सुभद्र बाबूक ई परिकल्पना छलनि जे मिथिला मे कबीरक जन्म भेलनि आ युवापन मे प्रवेशक अवस्था धरि ओ मिथिले मे रहला। हुनका सन स्वतंत्रचेता व्यक्ति, जे एक विधर्मी-अवर्णी परंपरा सं अबैत छला, कें मिथिलाक कर्मकांडी आ मिथ्याचारी समाज कोन तरहें परेशान कयने हैत तकर सहजे अनुमान अइ बात सं कयल जा सकै छै जे आइ, एकैसमो शताब्दी मे मिथिला मे एहन स्वतंत्रचेता कें बर्दाश्त करबाक सहिष्णुता आ समझदारी नहि आबि सकलैए। एवंक्रमें अपमानित भ' क' कबीर मिथिला सं मगहर गेला आ ओतय अनेक वर्ष बितेलाक बाद काशी। 'गुरुग्रन्थ साहिब' (संकलन वर्ष 1604) मे संकलित एक पद मे कबीर कहै छथि-- 'बारह बरस बालपन बीते, बीस बरस कछु तप न कियो/ तीस बरस कछु देव न पूजा, फिरि पछताना बिरधि भयो।' एहि तीस वर्षक अवस्था धरि कें सुभद्र बाबू मिथिला मे बिताओल अवस्था मानैत छथि। कबीरक जीवन मे महान परिवर्तन एकर बादे आबि क' भेल।
सुभद्र बाबूक अध्ययन मे एहि सूक्ष्म पीड़ा कें हमसब पृष्ठभूमि मे संगीत जकां बजैत देखि सकै छियै जे कबीरक आत्मोन्नति मे मिथिला कोनो उल्लेखनीय भूमिका नहि अदाय क' सकल, तकर बादो कबीर मिथिलाक आध्यात्मिक परंपरा सं अपना कें जुड़ल अनुभव करैत रहला। अंतकाल मे कबीर कें काशी किएक छोड़य पड़लनि-- राजदंड वा कर्मकांडी सभक उत्पातक कारण कि अपन रूढ़िभंजक चेतनाक कारण, तकर कोनो स्पष्ट साक्ष्य नहि भेटैत अछि। मुदा, एतबा धरि साफ अछि जे मगहर के ख्याति एक एहन पापिष्ठ स्थलक रूप मे रहै जतय मुइने लोक कें गदहाक योनि मे जन्म प्राप्त करय पड़ैत छैक। एकर एक दृष्टान्त हमरा लोकनि परमहंस लक्ष्मीनाथक उक्ति मे ऊपर देखिये आएल छी। एहि रूढ़ि के तोड़ब कबीर कें जरूरी लगलनि। अंतकाल मे काशी छोड़ि क' ओ मगहर तं अवश्य आबि गेला मुदा मिथिला घुरबाक उत्साह हुनका नहि भेलनि। एकरा लेल हमसब मिथिलाक कटु पूर्वस्मृति कें जिम्मेवार मानि सकै छियनि। एकर बाद ओ मिथिला आनल गेला अपन शिष्य लोकनिक द्वारा, मठस्थापनाक रूप मे। पहिल मठ अंधराठाढ़ी मे बनल तं के जानय जे ओही ठाम हुनकर जन्मस्थान रहल हेतनि जे कि हुनकर शिष्य सब कें बूझल रहल छल हेतनि।
।।कबीरक मैथिली पदावली।।
मिथिला मे कबीरक पद जाहि रूप मे भेटैत अछि आ मिथिला सं बाहर जाहि रूप मे, ओइ मे बहुत अंतर छैक। आन ठाम कबीरक रचना तीन फारमेट मे छनि-- दोहा, मुक्तक आ गीत।एकरा कहल जाइ छै-- साखी, रमैनी आ पदावली। मिथिला मे भेटल पांडुलिपि सब मे दोहा के अभाव छै। तहिना मैथिली मुक्तक के सेहो। मिथिला मे जे मुक्तक लिखल गेल, जेना कृष्णकारख दास लिखलनि, ओकर भाषा ब्रजभाषा अथवा कचराही छै। कबीरेक नहि, विद्यापतियोक समाज मे भाषाक ई द्वैध मिथिलाक तमाम बौद्धिक लोकनि कें व्यामोह मे ढाठने रहलनि आ मातृभाषाक प्रति निष्ठा कें प्रश्नांकित बनेने रहलनि। जेना लोचन, जे अपन रागतरंगिनी के भाषानुवाद ब्रजभाषा मे लिखलनि, मैथिली मे नहि। मैथिली मे खाली उदाहरण गीत टा देलनि।
मिथिला सं बाहर जे कबीरक पदावली भेटैत अछि, ओकर पांडुलिपि मे देशी-शास्त्रीय राग सभक निर्देश ठीक ओहिना लिखल भेटैत छैक जेना एतय विद्यापतिक पदावली मे। राग गौड़ी, रामकली, आसावरी, केदार, ललित, सारंग, मलार, घनाश्री आदि किछु राग सब थिक जाहि मे कबीरक पद भेटैत अछि। मिथिलाक पांडुलिपि एहि सं सर्वथा भिन्न छै। सुभद्र बाबू लग मे जे पांडुलिपि छलनि, ओ प्राय: डेढ़-दू सौ वर्ष पुरान रहनि। आरंभिक गीत सब तिरहुता मे लिखल छल, बादक कैथी मे। कुल गीतक संख्या 739 रहै, जाहि मे सं 97 टा कें सुभद्र बाबू शुद्ध मैथिली गीत मानने छला।
मैथिली मे कबीरक पद एक्के फारमेट, गीत मे भेटैत अछि। ओहि गीत सभक नौ प्रकार छै-- मंगल, सोहर, झुम्मरि, लगनी, बसन्त, समदाउन, निर्गुण आ सबद। बचल-खुचल गीत सीधे पद कहल जाइ छै जे नवम प्रकार छियैक। अइ गीत सभक जे प्रकार-भेद अछि से लोकभास पर आधारित अछि। मिथिला मे 'लोके' कबीर कें जिन्दा राखलकनि। तें अपन लोकगीतक बाना मे हुनका ढालियो लेलकनि। किछु गीत-प्रकार तं वास्तव मे दुर्लभ अछि। जेना लगनी। ओइ मे जतसारि के गीत, सब सं विरल छै। मैथिली लोकगीतक जे संग्राहक सब भेला, एक अणिमा सिंह कें छोड़ि किनको मैथिली श्रमगीतक संकलन के चेष्टा नहि रहलनि। आइयो ई सब गीत लोक मे जीबैए लेकिन बहुत पछड़ल समाज मे जीबैए। ओतय धरि संग्राहक सब के पहुंच नहि छनि।चाहे बुचरू राम किए ने होथि, हुनको नहि छनि। कहि नहि, दृष्टि नहि छनि कि पैरुख नहि छनि। मजा के बात थिक जे कबीरक सत्संग मे आइयो लगनी-जतसारि गाओल जाइत छनि।
समदाउन आ निर्गुण मैथिली कविता कें कबीरक देन छियनि। बाद मे उच्चवर्णक संतकवि लोकनि सब सेहो अइ गीत-प्रकार के विकास मे पर्याप्त योगदान देलनि। कते आश्चर्यक बात थिक जे ई गीत सब मूलत: मृत्युक गीत थिक, जखन कि मिथिला मे मृत्युक चर्चो धरि कें अशुभ मानल जाइछ। एकर विपरीत कबीरपंथ मे मृत्यु एक उत्सव थिक। उत्सवबला ई रूप कबीरक बाद आनो समूह धरि पसरल। कहब जरूरी नहि जे विद्यापति जीवन-राग के कवि छला, जखन कि कबीर मृत्यु कें नित्यचर्याक विस्मृति सं बाहर निकालि चेतनाक रूप मे प्रतिष्ठित केलनि। कबीरक कविता मे मानवीय वेदना, प्रश्नाकुलता, रूपासक्ति, सामाजिक संवेदनशीलता आ अस्तित्वगत बेचैनी-- ई सब कथू चेतना सं भरपूर एक एहन निजी अनुभव के रूप मे व्यक्त भेलैए जे देश-कालक सीमा कें तोड़ैत हरेक हृदय कें निजत्वक आभा सं भरि दै छै, बशर्ते कि ओ व्यक्ति कबीर लग ठमकबाक साहस क' सकय। हम बेर-बेर कहैत रहल छी जे विद्यापतिक नकल करब बहुत आसान छै, तें पंडी जी लोकनि अपन रोजी-रोटी लेल (मने राजदरबार मे गायनक लेल) पांच सौ बरख धरि विद्यापतिक नकल करैत रहला। एक आम मैथिल के जे मनोनिर्मिति, संस्कार आ अनुकूलन होइ छै, ठीक-ठीक वैह संस्कार विद्यापतिक रहनि। तें नकल करबाक लेल कुल्लम दुइये टा चीज चाहै छलै-- विषय मे राधा-कृष्णक प्रणय, आ फारमेट मे गीत। ई ककरो लेल, भने ओ कतबो भुसकूल किए नहि हुअय, कोन कठिन छलै? कबीर एकर ठीक विपरीत छला, अति कठिन छला। 'जो घर जारे आपना चले हमारे साथ।' हुनका धरि पहुंचबाक लेल अर्जित संस्कार कें झाड़ि लेबय पड़ैत छलैक।
कबीरक मैथिली गीत मे समुच्चा मिथिला के हबगब अहां कें साफ-साफ देखना जाएत। एही कारणें ई गीत सब नितान्त सरल अछि। बीच-बीच मे पारिभाषिक शब्द सब अबै छै जे कबीरक आध्यात्मिक अवधारणा सब सं जुड़ल अछि। कबीर अपन कविता मे भने सिद्धइ के खूब मखौल उड़ेने होथि, मुदा सरोकार आ परिणति मे हुनकर रचना सब हुनका चर्यागीतेक परंपरा मे ल' जा क' ठाढ़ करै छनि। कोनो कविक कविता के मुख्य शक्ति थिक जे शब्दक कते हद धरि ओ सर्जनात्मक प्रयोग क' पबैत अछि। एहि मे तं कबीर बेजोड़ छथि। पुरान मोहाबरा मे नव संदर्भ भरि दै छथिन। घसल-पिटल शब्दो कें उठा क' अपूर्व चमक सं जगमगा दै छथिन।
कबीरक काव्यरचना कें हजारी बाबू दू फेज मे बांटलखिन अछि। पहिल, आरंभिक कालक, जखन ओ शाक्त-सहित नानाविध साधना मे लागल छला। हुनकर एहन गीत सब मे सामाजिक प्रश्न मुख्य छैक आ आक्रोश प्रधान स्वर। गुरु रामानंदक संगति मे एलाक बाद जखन हुनका सिद्धि भेटि गेलनि, तखनुक गीत सब दोसर फेजक गीत थिक, जकर प्रधान स्वर छैक प्रेम। हुनकर जे मैथिली गीत सब अछि से एही दोसर फेज के थिक। प्रेम आ एहि सं जुड़ल समस्त मनोभाव एहि गीत सभक केन्द्र मे अछि। कतोक गीत मे ओ नितान्त रहस्यात्मक भेल लगैत छथि, एहन गीत सब बुझौवलि सन लगैत अछि जकरा चलन मोताबिक उलटबांसी कहल जाइ छै, यद्यपि अपन अभिप्राय मे ई गीत सब अत्यन्त चेतनाप्रवण अछि। हुनकर किछु एहनो गीत सब मैथिली मे उपलब्ध छनि।
।।समापन।।
कबीरक एक शिष्य छलखिन-- पीपा। ओ गागरोन इस्टेटक राजा छला। कबीर सं जुड़ला तं संत भ' गेला। आइ ओ संत पीपा नामें जानल जाइ छथि। जखन कबीर मरि गेलखिन तं स्वाभाविके जे ओ बहुत दुखी भेला। हुनका स्मृति मे ओ एक पद लिखलनि जे कि प्राय: कबीर पर लिखल पहिल माहात्म्य छल। ओहि पदक आरंभे एहि तरहें होइ छै-- 'जो कलिनाम कबीर न होते/ लोक, बेद अरु कलिजुग मिलि करि भगति रसातल देते।' जं कबीर नहि भेल रहितथि तं भेड़ियाधसान लोक, आडम्बर मे भटकल वेद आ स्वयं कलियुग मिलि क' भक्ति नामक तत्वे कें लुप्त क' दितियै। सोचू तं कोनो संतपुरुषक बारे मे कहल ई कते पैघ बात भेलै!
से कबीर मिथिलाक छला कि मिथिलाक नहि छला, तकर निश्चय करब आब बहुत कठिन भ' गेलैए। ओहुना, पोखरिक कात मे फेकल जन्मौटी बच्चा कोन जगह फेकल भेटल, एकर निश्चय के क' सकैए? व्यक्ति जखन महापुरुष भ' चुकल रहैत अछि, तं पुरना समयक सब कथा कें गढ़ि लेल जाइ छै, एकटा तरतीब द' देल जाइ छै। हुनकर जन्मभूमिक निर्णय जें कि आब तर्क आ प्रमाणक विषये नहि रहल, ई आब कबीरपंथी लोकनिक आस्था आ विश्वासक विषय भ' गेल अछि, आ कबीरपंथी लोकनिक विश्वास छनि जे कबीरक जन्म काशी मे भेल रहनि, तं एहि मे हम-अहां की क' सकै छी? मिथिलाक लेल तं बहुत पैघ बात आइ यैह छियै जे मैथिली मे हुनकर पद छनि, हजारो पद छनि, लाखो ओकर गेनिहार-सुननिहार छथि।
से, अंत मे हम कहब, अहां भने अइ रामक भक्त होइ कि ओइ रामक-- तुलसी जेना रामक भक्त छला, कबीरो ठीक तहिना रामेक भक्त छला, अंतर यैह जे दुनू गोटेक राम अलग-अलग रहथिन। कबीरक एक मजेदार पद छनि जाहि मे ओ चारि प्रकारक राम हेबाक बात कहलनि अछि-- 'एक राम दशरथ के जाया/ दोसर घट-घट मांहि समाया/ तीजे रामक सकल पसारा/ चारिम राम सबहि सञे न्यारा।' भक्ति दुइये प्रकारक होइ छै-- शास्त्रोक्त भक्ति आ काव्योक्त भक्ति। से, अहां भने कोनो रामक विश्वासी होइ, यकीन करू, अहां काव्योक्ते भक्तिक शरणागत होइ छी। आन कोनो उपाय नहि अछि, कारण शास्त्रोक्त भक्ति सं हम-अहां बहुत बहुत दूर आबि गेल छी, एकरे साइत कलियुग कहल जाइत हो। तें हम आग्रह करब, जं अवसर भेटय तं कबीरक देशना कें सुनबा सं नहि चुकब। दुर्लभ छथिन ओ। हमरा सभक बड़भाग से मैथिली मे सेहो छथिन।
अंत मे, कबीरक किछु गीत सं हम व्याख्यानक समाप्ति करय चाहब। पहिल गीत, मंगल--
एकहि हे सखि एक संग विलसय एकहि पलंग रहु सोइ हे
तब तब पिया मोहि देल जगाय जब जब आलस होइ हे।।
एक सखि पूछय पिया के पियारी, दोसर पुछय साधु भाइ हे
कवन रूप तोर पिय के साजनि सो मोहि कहहु बुझाइ हे।।
अदभुद रूप अखंडित साहेब आबय बास सुबास हे
श्वेत कमल ओह पुरुष विराजय असंख ज्योति परकास हे।।
साहेब कबीर मुखमंगल गाओल सन्तो जन लीअउ विचारि हे
एमरिक गौना बहुरि नहि औना फेरु न मनुष अवतार हे।।
दोसर गीत। समदाउन--
मिलि चलु सखिया दिवस भेल रतिया चित भेल जग सञे उदास
पांच भैया के एक बहिन दुलहिनि निशिदिन फिरय उदास
सासुर हमरो दुर बसु साजन नैहर नहि भेल बास।।
लालेलाले डोलिया सबुजिरंग ओहरिया लागि गेल बतिसो कहार
गोड़ लागुं पैयां पडुं अगिला कहरिया तिल एक डोलि बिलमाय।
आएल समदिया उठि चलु साजनि जहां होएत सत बेबहार
औन-पौन के डोलिया हे साजन अमर पड़ल ओहार।।
कौने भैया जयतै संग मोरे सखिया कवने लगौतै पार
सगुण भैया जयतै संग मोरे सखिया निर्गुण लगौतै पार।।
भवजल नदिया अगम बहु धरबा कवने विधि उतरब पार
नैया हमरो सत्य के साजन सतगुरु धयलनि करुआरि।।
साहेब कबीर एह गाओल समदनियां सन्तो जन लिय' न बिचारि
अपन अपन गेंठि सम्हारि राखु ओतय नाहि पैंच-उधार।।
तेसर गीत। चैतावर--
ससुरा से आओल लियनमा हो रामा, सोच लगनमा।।
आओ रे ब्राह्मण, बैसु मोरा आंगन
दिनमा देखु ने सुदिनमा हो रामा, सोच लगनमा।।
गोर लागुं पैयां पड़ुं संग के सहेलिया
चितबत रखियो नयनमा हो रामा, सोच लगनमा।।
छुटि जेतै नहिरा भाइ रे भतिजबा
लुटि जेतै माल खजनमा हो रामा, सोच लगनमा।।
दास कबीर मिलि लीहें सब सञे
दुर्लभ बहुरि अबनमा हो रामा, सोच लगनमा।।
चारिम गीत। बसन्त--
बुझु बुझु पंडित मनचित लाए
कबहु भरल बहए कबहु सुखाए।
खन उगय खन डूबय खन आह
रतन न मिलय पाबे नहि थाह।
नदिया नहि सांकरी बहय बड़ नीर
मच्छ न मरय कमल रहय तीर।
पोहकर नहि बांधल तह घाट
पुरइन नहि कमल मह बाट।
कहहि कबीर ई मन केर धोख
बैठल रहय चलन चहय चोख।।