Saturday, July 24, 2021

मैथिली आलोचना मे मोहन भारद्वाजक महत्व


 

मैथिली आलोचना मे मोहन भारद्वाजक महत्व

                
फोटो आ आलेख
तारानंद वियोगी

एक समय छल जखन हम अपन राय देने रही जे मैथिलीक मार्क्सवादी/प्रगतिशील आलोचना-पद्धतिक बात होयत आ एकर उद्गाता आ प्रतिष्ठापक पुरुषक प्रश्न उठत तं हमरा लोकनि लग मे दूटा नाम-- कुलानंद मिश्र आ मोहन भारद्वाज मे सं कुलानंदे मिश्र कें चुनबा योग्य पाओल जायत। मुदा जहिया हम ई बात कहने रही, ओ बड्ड पुरान समय छल। कुलानंद मिश्र अपन दूटूक आलोचकीय विवेक के शिखर उच्चता पर छला आ मोहन भारद्वाजक एक्कोटा संकलन वा किताब ताधरि नहि बहरायल रहनि। उपलब्धिक नाम पर हुनका लग मात्र किछु संपादित आ अनूदित किताब रहनि, जे गुणावगुण मे जते औसत छल ओकरा बारे मे ततबे किंबदन्ती सब प्रचलित रहैक। अस्सल मोहन भारद्वाजक पदार्पण एखन बांकी छल।
          साहित्यक बारे मे गपसप करैत ओ ततेक अक्खड़ आ रगड़ी भूमिका मे रहल करथि आ तेना हल्ला क' क' बाजथि जे कतोक बेर ताहि दिन मे हमरा ई ख्याल आएल हैत जे बालापन कि तरुणाइ मे हिनका बात कें साइत क्यो मोजर नै दैत छल होयत, तकर ई कंप्लेक्स थिक। राजनीतिशास्त्रक ओ विधिवत अध्ययन केने छलाह आ हुनकर सोच रहनि जे राजनीतिक रूप सं सचेत हरेक लोक कें अपन समानसोची लोक सभक गुट तैयार करबाक चाही, कोनो तथ्य कें ढकरि क'(विथ ए बैंग) कहबाक चाही। मैथिली गतिविधि मे जहिया ओ सर्वाधिक सक्रिय रहथि, अस्सीक दशक मे, अद्भुत छल मैथिली साहित्यिक पर्यावरण पर हुनकर पकड़ जे हुनका इग्नोर क' क', भने ओ कोन्नहु मंच हो, कोन्नहु विचारधाराक, किछु नहि कयल जा सकैत छल। ताहि पर सं हुनकर मान्यता रहनि जे मंच चाहे विरोधिए लोकनिक किएक ने हो, अपन बात जरूर कहबाक चाही, कारण एक्को टा क्यो श्रोता जं उचित विचार बला भेटि गेला तं बूझल जाय जे हमर एक समांग बढ़ला।
          बाद मे हुनकर एकक बाद एक अनेक पुस्तक आएल। ई पुस्तक सब अपन व्याख्या-विश्लेषण मे टूटूक तं छलहे, स्वर मे सकारात्मक आ प्रभाव मे नवोन्मेषी सेहो छल। अपन लेख सभक अनेक संकलन ओ प्रकाशित करौलनि। विविधविषयी सं ल' क' एकविधानिष्ठ धरि। ओकर कालावधि सेहो बहुत व्यापक। ज्योतिश्वर-विद्यापति सं ल' क' एकैसम सदी मे सद्य: लिखल जाइत साहित्य धरिक ओ सोह लेलनि।  हजार बरख मे चतरल-पसरल मैथिली साहित्यक सीमांकन करबाक हुनकर दृष्टि कतेक फरिच्छ छल से देखल तं एहि समस्त ठाम जा सकैत अछि, मुदा एकर मर्म बुझबाक लेल पुस्तक रूप मे लिखल हुनकर दूटा कृतिक विषये कें बूझि लेब सेहो कम पर्याप्त नहि होयत। हुनकर एकटा पुस्तक डाकवचन पर अछि। ई मैथिल रचनाशीलताक प्राचीनतम स्रोतक विषय मे अछि। आमजनक संवेदना, आमजनक भाषा, आमजनक बेगरता, एतय धरि कि रचनाशीलता सेहो आमजनेक। अपन दोसर पुस्तक ओ यात्री जीक उपन्यास 'बलचनमा' पर लिखलनि। ई मैथिल रचनाशीलताक उत्तर सीमा छल, जतय सं हम सब अपन साहित्य कें समकालीन साहित्य कहैत छिऐक। ई काल खासमखास ओ काल थिक जकर असर आ नुकसान सं हमर सभक वर्तमान ने मात्र प्रभावित अछि , कहबाक चाही जे गहमागट्ट डूबल अछि। एहू ठाम वैह सब बात। आमजनक संवेदना, आमजनक भाषा, आमजनक बेगरता, एतय धरि जे रचनाशीलता सेहो आमेजनक। जननिहार लोक सब ई बात जनैत छथि जे यात्री जी ई उपन्यास 'शूद्र मैथिली' मे लिखने छला। जे मिथिला एकैसम सदीक एहि दोसर दशक मे आबियो क' सुभाष चंद्र यादवक 'गुलो' कें बरदास्त करबा योग्य नहि भ' सकल अछि, ओ सत्तर बरख पहिने पचासक दशक मे कतय छल होयत, सहजे अनुमान क' सकै छी। मुदा मोहन भारद्वाज अपन सर्वश्रेष्ठ लेखन ओही उपन्यास कें समर्पित कयलनि।
          हुनकर आलोचना-यात्रा ठीक ओहिना शुरू भेल छल जेना कोनो आन आलोचकक शुरू होइत छैक। कथा-कहानी तं सुरुहे मे छूटि गेलनि। सुरुहे मे ओ अपन आत्मविस्तार कें प्राप्त कयलनि आ आनक लिखल वस्तु कें मोजर देबाक उदारता विकसित कयलनि। एक गंभीर आलोचनात्मक प्रयत्न अपना रचनाक स्थान पर आनक रचना कें वरीयता देबाक उपक्रम थिक। ई सर्वजानित बात थिक जे एक कविक तुलना मे एक आलोचकक काज बेसी भारी आ जटिल होइत छैक। मुदा, मैथिलीक पर्यावरण एहन रहल जतय आलोचकक लेल कोनो सम्मानजनक स्थान कहियो नहि रहलैक। जखन क्यो मैथिली आलोचनाक अखाड़ा मे उतरैत अछि तं कमोबेस ई अवधारिये क' उतरैत अछि जे ओकर काजक मूल्यांकनक कोनो निकष समाज लग नहि छैक, आ तें सम्मानो नहि छैक। मोहन भारद्वाज सब दिन एकतरफा चललाह। कोनो रचनाकार कें मूल्यांकित करबाक हुनकर निकष बहुत कठोर छलनि, ई बात सब क्यो जनैत छी। ओहिठाम मायानंद मिश्र आ जीवकान्तक लेल सेहो पासमार्क प्राप्त करब एक कठिन बात छल। मुदा, हुनकर दोसर पक्ष सेहो हमरा लोकनि नीक जकां जनैत छी। नवपीढ़ीक जे क्यो युवा हुनका संपर्क मे अयलनि, ओकरा ओ आंखि-पांखि देबाक जतन कयलनि, आगूक रस्ता बतौलनि, हरेक नीक-अधला प्रसंग मे ओकरा संग ठाढ़ भेला। हुनका लग देस-विदेसक मैथिली अध्येता सभक पहुंचब तते निरंतरतापूर्ण छल जे हुनकर शत्रु लोकनि हुनकर आवास कें 'अकालतख्त' कहल करथि।
          समकालीन साहित्यक आलोचना सं होइत ओ मैथिली साहित्यक पृ्ष्ठभूमि कें अनावृत्त करबाक दिशा मे बढ़ला। ओ बारंबार कहल करथि जे आजुक साहित्य कें परखबाक लेल अतीत आ परंपराक ठीक ठीक ज्ञान होयब जरूरी अछि। ई कतेक जरूरी बात छल, से मर्म कें बुझनिहार लोक अख्यास क' सकैत छथि। डाक आ यात्रीक बाद जे काज हुनका सब सं जरूरी लगैत छलनि से छला विद्यापति। ओ विद्यापति पर एक मुकम्मल किताब लिखय चाहैत रहथि। झंझटि ई जे एसकर विद्यापति पर एखन धरि कम सं कम पचीस हजार पृष्ठक आलोचना-साहित्य लिखल जा चुकल अछि। ई बात भिन्न जे एहि मे सं सब सं बेसी पृ्ष्ठ बंगला मे छैक आ सब सं कम मैथिली मे। मुदा तैयो एसकर रमानाथ झा पांच सय पेज विद्यापति पर लिखने छथिन। मुदा मोहन भारद्वाजक कहब छलनि जे विद्यापतिक ठीक ठीक मूल्यांकन एखनो धरि नहि भ' सकलनि अछि। एकटा खिस्सा ओ सुनाबथि जे कोना एक बेर सुरेन्द्र झा सुमन हुनका जखन पुछने रहथिन जे आइकालि की लिखि रहल छी आ ओ बतौने रहथिन जे विद्यापति पर लिखि रहल छी, तं सुमन जी कोना आश्चर्यसागर मे निमग्न भ' गेल छला जे यौ, विद्यापति पर आब की लिखि रहल छी? कहब जरूरी नहि जे हुनकर काजक महत्व सभक बुते, मने आचार्यो लोकनिक बुते बूझब आसान नहि छल। हुनकर भविष्यदृष्टि बहुत पुख्ता छलनि। एहि तरहक काज मानू ओ अनागत कालक लेल क' रहल छला। भविष्यक पीढ़ी कें विद्यापति कें, वा कि जीवजगतक कोनो आन विषयवस्तु कें कोना क' बुझबाक चाही, हुनकर ध्यान सदति एहि बात पर रहैत छलनि। अस्तु। विद्यापति पर अपन किताब ओ पूरा नहि क' सकला मुदा जतबे लिखि सकला से पछिला लिखलाहा पर कतेक भारी अछि तकर पता हमरा लोकनि युवा विद्वान लोकनिक आंखि मे पाबि सकैत छी। आंखिये टा मे किएक, आब तं ओकर लिखित रूप सेहो आबय लागल अछि। अरविंद कुमार मिश्रक पुस्तिका कें एकर एक दृष्टान्त मानबाक चाही।
          मोहन भारद्वाजक आलोचना-कर्मक महत्व कें बुझबाक लेल हमरा लोकनि कें मैथिली आलोचनाक इतिहास दिस एक नजरि देखय पड़त। परंपरागत रूप सं जकरा हमरा लोकनि मैथिली काव्यशास्त्र कहैत छिऐक, नहि बिसरबाक चाही जे असल मे ओ संस्कृत काव्यशास्त्र छिऐक। संस्कृतो मे कालान्तर मे गति-प्रगति भेने आलोचनाक अनेक संप्रदाय चलन मे आएल। मुदा एतय से सब नहि, प्राचीनतम जे रससम्प्रदाय छैक, तकरे सीमा मे मैथिली काव्यशास्त्र आबद्ध रहल। छव सय बरख पहिने विद्यापति कें चेतना भेल छलनि जे 'सक्कअ वाणी बहुअ न भावइ' मुदा आधुनिक युग मे आबि हमरा लोकनि ततेक दमित सीदित परबुद्धी बनल रहलहुं जे कहल 'भाषा सौन्दर्यक गति न आन', संस्कृतक शरणापन्न भेने विना मैथिली भाषाक कोनो आन गति नहि छैक। आचार्य रमानाथ झा आलोचना-समीक्षा पर एकाग्र भेला तं हुनक ध्यान मैथिली काव्यशास्त्रक एहि अपंगता दिस गेलनि आ एकर भरपाइ करबाक लेल अपना युगक श्रेष्ठ पाश्चात्य आलोचना-सिद्धान्त, जकर उद्भावक आ प्रतिष्ठाता टी एस इलियट छला, कें अपन कसौटी बनौलनि। तहिया सं आइधरि अंग्रेजीदां मैथिली आलोचना कें हमरा लोकनि ओत्तहि ठमकल देखि सकैत छी। अद्यतन उदाहरण ललितेश मिश्र छथि। एहि सिद्धान्तक आधार पर रमानाथ बाबू ई तं जरूर केलनि जे कविक व्यक्तित्व कें उद्घाटित केलनि जाहि सं कविताक मूल भाव स्फुट भेल, मुदा दू कारण भेल जे इहो सिद्धान्त मैथिली आलोचनाक सिद्धान्त नहि बनि सकल। इलियट अपन समकाल कें उद्घाटित करबाक लेल एकर प्रवर्तन कयने छला मुदा रमानाथ बाबू अपन अतीत कें सोझरेबाक लेल एकर प्रयोग कयलनि। हरेक प्रयोग अपना संग अपन सीमा सेहो नुकौने रहैत अछि। से हमरा लोकनि देखल जे अतीत कें सोझरेबा मे सफल रहलाक बादो ओ अपन समकाल कें स्फुट करबा मे असफल रहि गेला। एकर प्रमुख कारण छल जे संस्कारवश ओ अपने रुचि कें अंतिम प्रमाण मानि लेलनि, जखन कि हुनक पक्षपात अतीतक प्रति छलनि। दोसर जे कविताक समीक्षाक लेल तं ई सिद्धान्त ठीक छल कारण एही बेगरता कें ध्यान मे रखैत एकर प्रवर्तन भेल छल मुदा आन आन विधा जेना कथा, उपन्यास आदिक लेल ई अपर्याप्त साबित भेल। तहिना, कविव्यक्तित्वक स्फुटन लेल तं ई सक्षम छल मुदा पाठाधारित विवेचना एकरा बुतें कदाचित संभव नहि छलैक।
            कुलानंद मिश्र मैथिली आलोचना कें मार्क्सवादी नजरिया प्रदान कयलनि आ अपन अनेक लेख द्वारा एकर प्रतिष्ठापन कयलनि। रचनाक भौतिकतावादी पृष्ठभूमिक विश्वसनीय विश्लेषण तं हुनकर लेखन मे अवश्य आएल आ एहि आधारक पर्याप्त पुष्टि सेहो जे कोना एक रचनाकार अपन समाजार्थिक परिस्थितिक उपजा होइत अछि, से वस्तु स्वयं मोहन भारद्वाजक लेखन मे सेहो पूरा स्पष्टताक संग आएल। मुदा, मैथिलीक मार्क्सवादी आलोचनाक ई विकट सीमा रहल जे ई अपन सैद्धान्तिकी नहि तैयार क' सकल। तें हमरा लोकनि देखब जे मैथिलीक मार्क्सवादी आलोचना मे पहिने तं सैद्धान्तिकीक पैघ-पैघ देशी-विदेशी उद्धरण रहैत अछि जकर कोनो सम्बन्ध मिथिला वा मैथिली सं सामान्यत: नहि रहैछ आ ने ओ मिथिलाक ऐतिहासिक वा समाजार्थिक पृष्ठभूमि कें खोलबा मे किछु मददगार भ' पबैछ।
            मोहन भारद्वाजक आलोचनाक महत्व एही ठाम आबि क' हमरा लोकनि बूझि सकैत छी। मैथिलीक मार्क्सवादी आलोचना मे जे सैद्धान्तिकीक फांक रहैक तकरा ओ मिथिला-विमर्श ल' क' भरलनि आ से करबाक क्रम मे मिथिलाक जन इतिहास, लोकपरंपरा, प्राचीन प्रगतिशील लेखन, लोकवादी परंपरित व्यवहार आदि कें आलोचनाक मुख्यधारा मे आनि प्रतिष्ठित कयलनि। कहब आवश्यक नहि जे ई सब उपक्रम मैथिलीक ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय आलोचना-पद्धतिक विकास लेल उठाओल पहिल सुनिश्चित डेग छल। 1995 मे ओ 'अनवरत' नाम सं अपन आलोचनात्मक लेख सभक पहिल संकलन प्रकाशित करौलनि। ओहू संकलन मे हमरा लोकनि हुनकर एहि अभिनव दृष्टिक झलकी पाबि सकैत छी। जेना जेना ओ अगिला संकलन सभक प्रकाशन करबैत गेला उत्तरोत्तर हुनकर दृष्टि स्फीत आ समावेशी होइत गेलनि। एतय धरि जे निधनक एके वर्ष पूर्व अपन पचहत्तरिम जन्मदिन पर जे पुस्तक ओ लोकार्पित कयलनि, से स्वयं मैथिली आलोचनाक हालसूरति आ भवितव्य पर केन्द्रित छल आ ताहि मे एक वस्तुनिष्ठ साहित्यविमर्शक सुचिन्ता अन्तर्ग्रथित रहैक।
            आलोचनाक भाषा एक भिन्न पक्ष थिक जाहि मे मोहन भारद्वाजक कयल काज हमरा लोकनि कें गौरवान्वित करैत अछि। सब गोटे अवगत छी जे मानक भाषाक सम्बन्ध मे रमानाथ झाक अपन आग्रह रहनि। ई आग्रह ताहिखन तं अत्यधिक प्रबल भ' जाइत छल जखन ओ आलोचना लिखथि। अपन कैक लेख मे तं ओ विधिपूर्वक ई व्यवस्था देने छलाह जे आलोचना जखन कखनहु लिखल जाय निश्चित रूप सं अपन विहित भाषा आ शैलिये मे लिखल जाय। हुनक ई सिद्धान्त वचन कतेक प्रभावकारी भेल तकर पता हम सब एक एही उदाहरण सं पाबि सकैत छी जे जे कुलानंद मिश्र रमानाथ बाबूक आलोचना-सिद्धान्त सं पूरे अलग होइत एक प्रतिरूप रचि देबा मे सफल भेला, हुनको बुतें हुनक एहि विहित भाषा आ शैलीक अनुशासन कें तोड़ब संभव नहि भ' सकल छल। ई काज मोहन भारद्वाज क' सकला, से कदाचित मैथिली साहित्य कें देल गेल हुनक सब सं पैघ अवदान थिक। पहिने जे आलोचना विहित शैली मे होयबाक कारण पूर्वबोधापेक्षी छल, मने ओकरा नीक जकां बुझबाक लेल पंडित विद्वाने लोक सक्षम भ' सकैत छला, आब से आलोचना साधारणो पाठक अपन यथालब्ध बोधक संग बुझबा मे समर्थ भ' गेल। मुदा जं ई कही जे सामान्य जनक भाषा मे आलोचना कें प्रस्तुत क' सकब कोनो सामान्य काज थिक जकरा क्यो बुद्धिमान व्यक्ति अभ्यास सं सिद्ध क' सकैत अछि, तं सेहो कहब गलत होयत कारण भीतरक अन्तर्वस्तु मे जा धरि स्पष्टता आ पारदर्शिता नहि रहतैक केवल बाहरी भाषा मे ओकरा व्यक्त क' लेब एक प्राणहीन कवायद मात्र भ' क' रहि जायत। एकरा लेल समाज संग, इतिहास आ आर्थिकीक संग जे चयन-विवेक, अवगति आ आपकता चाही तकरा साधबाक लेल कोनो लेखक कें ओहिना अपन जीवन समर्पित करय पड़ि सकैत छनि जेना मोहन भारद्वाज कयलनि। एकर कोनो शार्टकट होयब संभावित नहि अछि। कहियो भैयो नहि सकैत अछि।
            आइ जखन ओ हमरा लोकनिक बीच सं परोक्ष भ' गेलाह अछि, हुनकर अनुपस्थिति एक एक मैथिली अध्येताक हृदय सालैत अछि। मानू तं हुनकर उपस्थिति पर हुनकर अनुपस्थिति भारी पड़ि रहल अछि। हमर ख्याल अछि, जेना जेना मैथिली विषयक अध्ययन मे परिपक्वता आ वस्तुपरकता अबैत जयतैक, हुनकर कद आरो आर विराट होइत जायत।

@पटना, 7.2.2020

3 comments:

Unknown said...

बहुत सुचिन्तित,सटीक आ हुनक आलोचना-कर्मक महत्त्वकेँ रखांकित कर'वला एहि खास रचनाकेँ पढ़बाक अवसर देबा लेल,ताहूमे आजुक दिनमे, अहाँकेँ भूरि-भूरि धन्यवाद ।

Unknown said...

भीमनाथ झा

Lalit Jha said...

अग्रज मोहन भारद्वाज मैथिली आलोचना के क्षेत्र में अपन चिर स्मरणीय योगदान के लेल युग युग तक जानल जयताह।
हुनक अवदान पर एहन सुचिंतित, सटीक लेखन के लेल अपने के साधुवाद।