Saturday, July 24, 2021

मैथिली आलोचना मे मोहन भारद्वाजक महत्व


 

मैथिली आलोचना मे मोहन भारद्वाजक महत्व

                
फोटो आ आलेख
तारानंद वियोगी

एक समय छल जखन हम अपन राय देने रही जे मैथिलीक मार्क्सवादी/प्रगतिशील आलोचना-पद्धतिक बात होयत आ एकर उद्गाता आ प्रतिष्ठापक पुरुषक प्रश्न उठत तं हमरा लोकनि लग मे दूटा नाम-- कुलानंद मिश्र आ मोहन भारद्वाज मे सं कुलानंदे मिश्र कें चुनबा योग्य पाओल जायत। मुदा जहिया हम ई बात कहने रही, ओ बड्ड पुरान समय छल। कुलानंद मिश्र अपन दूटूक आलोचकीय विवेक के शिखर उच्चता पर छला आ मोहन भारद्वाजक एक्कोटा संकलन वा किताब ताधरि नहि बहरायल रहनि। उपलब्धिक नाम पर हुनका लग मात्र किछु संपादित आ अनूदित किताब रहनि, जे गुणावगुण मे जते औसत छल ओकरा बारे मे ततबे किंबदन्ती सब प्रचलित रहैक। अस्सल मोहन भारद्वाजक पदार्पण एखन बांकी छल।
          साहित्यक बारे मे गपसप करैत ओ ततेक अक्खड़ आ रगड़ी भूमिका मे रहल करथि आ तेना हल्ला क' क' बाजथि जे कतोक बेर ताहि दिन मे हमरा ई ख्याल आएल हैत जे बालापन कि तरुणाइ मे हिनका बात कें साइत क्यो मोजर नै दैत छल होयत, तकर ई कंप्लेक्स थिक। राजनीतिशास्त्रक ओ विधिवत अध्ययन केने छलाह आ हुनकर सोच रहनि जे राजनीतिक रूप सं सचेत हरेक लोक कें अपन समानसोची लोक सभक गुट तैयार करबाक चाही, कोनो तथ्य कें ढकरि क'(विथ ए बैंग) कहबाक चाही। मैथिली गतिविधि मे जहिया ओ सर्वाधिक सक्रिय रहथि, अस्सीक दशक मे, अद्भुत छल मैथिली साहित्यिक पर्यावरण पर हुनकर पकड़ जे हुनका इग्नोर क' क', भने ओ कोन्नहु मंच हो, कोन्नहु विचारधाराक, किछु नहि कयल जा सकैत छल। ताहि पर सं हुनकर मान्यता रहनि जे मंच चाहे विरोधिए लोकनिक किएक ने हो, अपन बात जरूर कहबाक चाही, कारण एक्को टा क्यो श्रोता जं उचित विचार बला भेटि गेला तं बूझल जाय जे हमर एक समांग बढ़ला।
          बाद मे हुनकर एकक बाद एक अनेक पुस्तक आएल। ई पुस्तक सब अपन व्याख्या-विश्लेषण मे टूटूक तं छलहे, स्वर मे सकारात्मक आ प्रभाव मे नवोन्मेषी सेहो छल। अपन लेख सभक अनेक संकलन ओ प्रकाशित करौलनि। विविधविषयी सं ल' क' एकविधानिष्ठ धरि। ओकर कालावधि सेहो बहुत व्यापक। ज्योतिश्वर-विद्यापति सं ल' क' एकैसम सदी मे सद्य: लिखल जाइत साहित्य धरिक ओ सोह लेलनि।  हजार बरख मे चतरल-पसरल मैथिली साहित्यक सीमांकन करबाक हुनकर दृष्टि कतेक फरिच्छ छल से देखल तं एहि समस्त ठाम जा सकैत अछि, मुदा एकर मर्म बुझबाक लेल पुस्तक रूप मे लिखल हुनकर दूटा कृतिक विषये कें बूझि लेब सेहो कम पर्याप्त नहि होयत। हुनकर एकटा पुस्तक डाकवचन पर अछि। ई मैथिल रचनाशीलताक प्राचीनतम स्रोतक विषय मे अछि। आमजनक संवेदना, आमजनक भाषा, आमजनक बेगरता, एतय धरि कि रचनाशीलता सेहो आमजनेक। अपन दोसर पुस्तक ओ यात्री जीक उपन्यास 'बलचनमा' पर लिखलनि। ई मैथिल रचनाशीलताक उत्तर सीमा छल, जतय सं हम सब अपन साहित्य कें समकालीन साहित्य कहैत छिऐक। ई काल खासमखास ओ काल थिक जकर असर आ नुकसान सं हमर सभक वर्तमान ने मात्र प्रभावित अछि , कहबाक चाही जे गहमागट्ट डूबल अछि। एहू ठाम वैह सब बात। आमजनक संवेदना, आमजनक भाषा, आमजनक बेगरता, एतय धरि जे रचनाशीलता सेहो आमेजनक। जननिहार लोक सब ई बात जनैत छथि जे यात्री जी ई उपन्यास 'शूद्र मैथिली' मे लिखने छला। जे मिथिला एकैसम सदीक एहि दोसर दशक मे आबियो क' सुभाष चंद्र यादवक 'गुलो' कें बरदास्त करबा योग्य नहि भ' सकल अछि, ओ सत्तर बरख पहिने पचासक दशक मे कतय छल होयत, सहजे अनुमान क' सकै छी। मुदा मोहन भारद्वाज अपन सर्वश्रेष्ठ लेखन ओही उपन्यास कें समर्पित कयलनि।
          हुनकर आलोचना-यात्रा ठीक ओहिना शुरू भेल छल जेना कोनो आन आलोचकक शुरू होइत छैक। कथा-कहानी तं सुरुहे मे छूटि गेलनि। सुरुहे मे ओ अपन आत्मविस्तार कें प्राप्त कयलनि आ आनक लिखल वस्तु कें मोजर देबाक उदारता विकसित कयलनि। एक गंभीर आलोचनात्मक प्रयत्न अपना रचनाक स्थान पर आनक रचना कें वरीयता देबाक उपक्रम थिक। ई सर्वजानित बात थिक जे एक कविक तुलना मे एक आलोचकक काज बेसी भारी आ जटिल होइत छैक। मुदा, मैथिलीक पर्यावरण एहन रहल जतय आलोचकक लेल कोनो सम्मानजनक स्थान कहियो नहि रहलैक। जखन क्यो मैथिली आलोचनाक अखाड़ा मे उतरैत अछि तं कमोबेस ई अवधारिये क' उतरैत अछि जे ओकर काजक मूल्यांकनक कोनो निकष समाज लग नहि छैक, आ तें सम्मानो नहि छैक। मोहन भारद्वाज सब दिन एकतरफा चललाह। कोनो रचनाकार कें मूल्यांकित करबाक हुनकर निकष बहुत कठोर छलनि, ई बात सब क्यो जनैत छी। ओहिठाम मायानंद मिश्र आ जीवकान्तक लेल सेहो पासमार्क प्राप्त करब एक कठिन बात छल। मुदा, हुनकर दोसर पक्ष सेहो हमरा लोकनि नीक जकां जनैत छी। नवपीढ़ीक जे क्यो युवा हुनका संपर्क मे अयलनि, ओकरा ओ आंखि-पांखि देबाक जतन कयलनि, आगूक रस्ता बतौलनि, हरेक नीक-अधला प्रसंग मे ओकरा संग ठाढ़ भेला। हुनका लग देस-विदेसक मैथिली अध्येता सभक पहुंचब तते निरंतरतापूर्ण छल जे हुनकर शत्रु लोकनि हुनकर आवास कें 'अकालतख्त' कहल करथि।
          समकालीन साहित्यक आलोचना सं होइत ओ मैथिली साहित्यक पृ्ष्ठभूमि कें अनावृत्त करबाक दिशा मे बढ़ला। ओ बारंबार कहल करथि जे आजुक साहित्य कें परखबाक लेल अतीत आ परंपराक ठीक ठीक ज्ञान होयब जरूरी अछि। ई कतेक जरूरी बात छल, से मर्म कें बुझनिहार लोक अख्यास क' सकैत छथि। डाक आ यात्रीक बाद जे काज हुनका सब सं जरूरी लगैत छलनि से छला विद्यापति। ओ विद्यापति पर एक मुकम्मल किताब लिखय चाहैत रहथि। झंझटि ई जे एसकर विद्यापति पर एखन धरि कम सं कम पचीस हजार पृष्ठक आलोचना-साहित्य लिखल जा चुकल अछि। ई बात भिन्न जे एहि मे सं सब सं बेसी पृ्ष्ठ बंगला मे छैक आ सब सं कम मैथिली मे। मुदा तैयो एसकर रमानाथ झा पांच सय पेज विद्यापति पर लिखने छथिन। मुदा मोहन भारद्वाजक कहब छलनि जे विद्यापतिक ठीक ठीक मूल्यांकन एखनो धरि नहि भ' सकलनि अछि। एकटा खिस्सा ओ सुनाबथि जे कोना एक बेर सुरेन्द्र झा सुमन हुनका जखन पुछने रहथिन जे आइकालि की लिखि रहल छी आ ओ बतौने रहथिन जे विद्यापति पर लिखि रहल छी, तं सुमन जी कोना आश्चर्यसागर मे निमग्न भ' गेल छला जे यौ, विद्यापति पर आब की लिखि रहल छी? कहब जरूरी नहि जे हुनकर काजक महत्व सभक बुते, मने आचार्यो लोकनिक बुते बूझब आसान नहि छल। हुनकर भविष्यदृष्टि बहुत पुख्ता छलनि। एहि तरहक काज मानू ओ अनागत कालक लेल क' रहल छला। भविष्यक पीढ़ी कें विद्यापति कें, वा कि जीवजगतक कोनो आन विषयवस्तु कें कोना क' बुझबाक चाही, हुनकर ध्यान सदति एहि बात पर रहैत छलनि। अस्तु। विद्यापति पर अपन किताब ओ पूरा नहि क' सकला मुदा जतबे लिखि सकला से पछिला लिखलाहा पर कतेक भारी अछि तकर पता हमरा लोकनि युवा विद्वान लोकनिक आंखि मे पाबि सकैत छी। आंखिये टा मे किएक, आब तं ओकर लिखित रूप सेहो आबय लागल अछि। अरविंद कुमार मिश्रक पुस्तिका कें एकर एक दृष्टान्त मानबाक चाही।
          मोहन भारद्वाजक आलोचना-कर्मक महत्व कें बुझबाक लेल हमरा लोकनि कें मैथिली आलोचनाक इतिहास दिस एक नजरि देखय पड़त। परंपरागत रूप सं जकरा हमरा लोकनि मैथिली काव्यशास्त्र कहैत छिऐक, नहि बिसरबाक चाही जे असल मे ओ संस्कृत काव्यशास्त्र छिऐक। संस्कृतो मे कालान्तर मे गति-प्रगति भेने आलोचनाक अनेक संप्रदाय चलन मे आएल। मुदा एतय से सब नहि, प्राचीनतम जे रससम्प्रदाय छैक, तकरे सीमा मे मैथिली काव्यशास्त्र आबद्ध रहल। छव सय बरख पहिने विद्यापति कें चेतना भेल छलनि जे 'सक्कअ वाणी बहुअ न भावइ' मुदा आधुनिक युग मे आबि हमरा लोकनि ततेक दमित सीदित परबुद्धी बनल रहलहुं जे कहल 'भाषा सौन्दर्यक गति न आन', संस्कृतक शरणापन्न भेने विना मैथिली भाषाक कोनो आन गति नहि छैक। आचार्य रमानाथ झा आलोचना-समीक्षा पर एकाग्र भेला तं हुनक ध्यान मैथिली काव्यशास्त्रक एहि अपंगता दिस गेलनि आ एकर भरपाइ करबाक लेल अपना युगक श्रेष्ठ पाश्चात्य आलोचना-सिद्धान्त, जकर उद्भावक आ प्रतिष्ठाता टी एस इलियट छला, कें अपन कसौटी बनौलनि। तहिया सं आइधरि अंग्रेजीदां मैथिली आलोचना कें हमरा लोकनि ओत्तहि ठमकल देखि सकैत छी। अद्यतन उदाहरण ललितेश मिश्र छथि। एहि सिद्धान्तक आधार पर रमानाथ बाबू ई तं जरूर केलनि जे कविक व्यक्तित्व कें उद्घाटित केलनि जाहि सं कविताक मूल भाव स्फुट भेल, मुदा दू कारण भेल जे इहो सिद्धान्त मैथिली आलोचनाक सिद्धान्त नहि बनि सकल। इलियट अपन समकाल कें उद्घाटित करबाक लेल एकर प्रवर्तन कयने छला मुदा रमानाथ बाबू अपन अतीत कें सोझरेबाक लेल एकर प्रयोग कयलनि। हरेक प्रयोग अपना संग अपन सीमा सेहो नुकौने रहैत अछि। से हमरा लोकनि देखल जे अतीत कें सोझरेबा मे सफल रहलाक बादो ओ अपन समकाल कें स्फुट करबा मे असफल रहि गेला। एकर प्रमुख कारण छल जे संस्कारवश ओ अपने रुचि कें अंतिम प्रमाण मानि लेलनि, जखन कि हुनक पक्षपात अतीतक प्रति छलनि। दोसर जे कविताक समीक्षाक लेल तं ई सिद्धान्त ठीक छल कारण एही बेगरता कें ध्यान मे रखैत एकर प्रवर्तन भेल छल मुदा आन आन विधा जेना कथा, उपन्यास आदिक लेल ई अपर्याप्त साबित भेल। तहिना, कविव्यक्तित्वक स्फुटन लेल तं ई सक्षम छल मुदा पाठाधारित विवेचना एकरा बुतें कदाचित संभव नहि छलैक।
            कुलानंद मिश्र मैथिली आलोचना कें मार्क्सवादी नजरिया प्रदान कयलनि आ अपन अनेक लेख द्वारा एकर प्रतिष्ठापन कयलनि। रचनाक भौतिकतावादी पृष्ठभूमिक विश्वसनीय विश्लेषण तं हुनकर लेखन मे अवश्य आएल आ एहि आधारक पर्याप्त पुष्टि सेहो जे कोना एक रचनाकार अपन समाजार्थिक परिस्थितिक उपजा होइत अछि, से वस्तु स्वयं मोहन भारद्वाजक लेखन मे सेहो पूरा स्पष्टताक संग आएल। मुदा, मैथिलीक मार्क्सवादी आलोचनाक ई विकट सीमा रहल जे ई अपन सैद्धान्तिकी नहि तैयार क' सकल। तें हमरा लोकनि देखब जे मैथिलीक मार्क्सवादी आलोचना मे पहिने तं सैद्धान्तिकीक पैघ-पैघ देशी-विदेशी उद्धरण रहैत अछि जकर कोनो सम्बन्ध मिथिला वा मैथिली सं सामान्यत: नहि रहैछ आ ने ओ मिथिलाक ऐतिहासिक वा समाजार्थिक पृष्ठभूमि कें खोलबा मे किछु मददगार भ' पबैछ।
            मोहन भारद्वाजक आलोचनाक महत्व एही ठाम आबि क' हमरा लोकनि बूझि सकैत छी। मैथिलीक मार्क्सवादी आलोचना मे जे सैद्धान्तिकीक फांक रहैक तकरा ओ मिथिला-विमर्श ल' क' भरलनि आ से करबाक क्रम मे मिथिलाक जन इतिहास, लोकपरंपरा, प्राचीन प्रगतिशील लेखन, लोकवादी परंपरित व्यवहार आदि कें आलोचनाक मुख्यधारा मे आनि प्रतिष्ठित कयलनि। कहब आवश्यक नहि जे ई सब उपक्रम मैथिलीक ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय आलोचना-पद्धतिक विकास लेल उठाओल पहिल सुनिश्चित डेग छल। 1995 मे ओ 'अनवरत' नाम सं अपन आलोचनात्मक लेख सभक पहिल संकलन प्रकाशित करौलनि। ओहू संकलन मे हमरा लोकनि हुनकर एहि अभिनव दृष्टिक झलकी पाबि सकैत छी। जेना जेना ओ अगिला संकलन सभक प्रकाशन करबैत गेला उत्तरोत्तर हुनकर दृष्टि स्फीत आ समावेशी होइत गेलनि। एतय धरि जे निधनक एके वर्ष पूर्व अपन पचहत्तरिम जन्मदिन पर जे पुस्तक ओ लोकार्पित कयलनि, से स्वयं मैथिली आलोचनाक हालसूरति आ भवितव्य पर केन्द्रित छल आ ताहि मे एक वस्तुनिष्ठ साहित्यविमर्शक सुचिन्ता अन्तर्ग्रथित रहैक।
            आलोचनाक भाषा एक भिन्न पक्ष थिक जाहि मे मोहन भारद्वाजक कयल काज हमरा लोकनि कें गौरवान्वित करैत अछि। सब गोटे अवगत छी जे मानक भाषाक सम्बन्ध मे रमानाथ झाक अपन आग्रह रहनि। ई आग्रह ताहिखन तं अत्यधिक प्रबल भ' जाइत छल जखन ओ आलोचना लिखथि। अपन कैक लेख मे तं ओ विधिपूर्वक ई व्यवस्था देने छलाह जे आलोचना जखन कखनहु लिखल जाय निश्चित रूप सं अपन विहित भाषा आ शैलिये मे लिखल जाय। हुनक ई सिद्धान्त वचन कतेक प्रभावकारी भेल तकर पता हम सब एक एही उदाहरण सं पाबि सकैत छी जे जे कुलानंद मिश्र रमानाथ बाबूक आलोचना-सिद्धान्त सं पूरे अलग होइत एक प्रतिरूप रचि देबा मे सफल भेला, हुनको बुतें हुनक एहि विहित भाषा आ शैलीक अनुशासन कें तोड़ब संभव नहि भ' सकल छल। ई काज मोहन भारद्वाज क' सकला, से कदाचित मैथिली साहित्य कें देल गेल हुनक सब सं पैघ अवदान थिक। पहिने जे आलोचना विहित शैली मे होयबाक कारण पूर्वबोधापेक्षी छल, मने ओकरा नीक जकां बुझबाक लेल पंडित विद्वाने लोक सक्षम भ' सकैत छला, आब से आलोचना साधारणो पाठक अपन यथालब्ध बोधक संग बुझबा मे समर्थ भ' गेल। मुदा जं ई कही जे सामान्य जनक भाषा मे आलोचना कें प्रस्तुत क' सकब कोनो सामान्य काज थिक जकरा क्यो बुद्धिमान व्यक्ति अभ्यास सं सिद्ध क' सकैत अछि, तं सेहो कहब गलत होयत कारण भीतरक अन्तर्वस्तु मे जा धरि स्पष्टता आ पारदर्शिता नहि रहतैक केवल बाहरी भाषा मे ओकरा व्यक्त क' लेब एक प्राणहीन कवायद मात्र भ' क' रहि जायत। एकरा लेल समाज संग, इतिहास आ आर्थिकीक संग जे चयन-विवेक, अवगति आ आपकता चाही तकरा साधबाक लेल कोनो लेखक कें ओहिना अपन जीवन समर्पित करय पड़ि सकैत छनि जेना मोहन भारद्वाज कयलनि। एकर कोनो शार्टकट होयब संभावित नहि अछि। कहियो भैयो नहि सकैत अछि।
            आइ जखन ओ हमरा लोकनिक बीच सं परोक्ष भ' गेलाह अछि, हुनकर अनुपस्थिति एक एक मैथिली अध्येताक हृदय सालैत अछि। मानू तं हुनकर उपस्थिति पर हुनकर अनुपस्थिति भारी पड़ि रहल अछि। हमर ख्याल अछि, जेना जेना मैथिली विषयक अध्ययन मे परिपक्वता आ वस्तुपरकता अबैत जयतैक, हुनकर कद आरो आर विराट होइत जायत।

@पटना, 7.2.2020

Friday, July 2, 2021

मैथिली आलोचना: स्थिति आ अपेक्षा


 तारानंद वियोगी



मैथिली आलोचनाक आइ की स्थिति अछि आ एकरा सं लोकक की अपेक्षा छै, ताहि पर हम गप करी, एहि सं पहिने कने एक नजरि एहि दिस देखि लेबय चाहब जे एहि आलोचनाक बारे मे आम लोकक समझ केहन छनि। आम लोक माने आम साहित्यक लोक, कारण शुद्ध रूप सं जकरा आम लोक कहल जाय ओकर प्रवेश आलोचना धरि हेबाक प्रश्ने कहां, आम साहित्यिक लोक सेहो आलोचना सं कनछी कटैत, हांजी हांजी करैत कहुना आगूक बाट पकड़ि बढ़ि जाय चाहैत रहैत अछि। आलोचना ककरा चाही? पुरस्कार सब पर जिनकर नजरि छनि तिनका लेल आलोचना बेकार, कारण पुरस्कार कोनो आलोचना पढ़ि क' नहि देल जाइत अछि।  जे स्वान्त:सुखाय लिखै छथि हुनका आलोचना सं काजे की? जे पकिया लेखक छथि हुनको आलोचना सं बहुत मतलब नहि कारण अपन रचनाशीलता कें आलोचना सं दग्ध हेबाक अवकाश ओ नहि छोड़य चाहैत छथि। 

       कतेक लोक दोसरो बात कहै छथि। कहै छथि जे माटि सं जुड़ल भाषा-समाज सब मे आलोचनाक लेल स्पेस कम रहैत छैक। ओतय हृदयधर्मी आपकताक चलन पाओल जाइत छैक, जखन कि आलोचना एक बौद्धिक  उपक्रम थिक। एहि तरहक सोच रखनिहार लोक सब निश्चिते कोनो भाषा मे ओकर आलोचनाक विकास कें ओहि समाजक बौद्धिक विकास सं जोड़ि क देखबाक आग्रही छथि। हमरा मुदा, एहू आग्रह मे कोनो दोष नहि देखाइत अछि। मैथिली माटिक भाषा छी। माटिक भाषा मे लोकक प्रकृत संस्कार सब सं बेसी घनगर रहैत छैक। लोक शिक्षा आ युगीनता बाहर सं सिखैत अछि। साक्षर हेबाक बादो लोक युगीनता कें सिखबा सं इनकार क सकै छथि, सेहो होइ छै।

         अपन स्थिति देखैत छी तं मोन पड़ैत अछि जे मैथिली आलोचनाक संग हमर संबंध कते पुरान अछि। 1982 मे, जखन कि हम एक सद्य:नवागंतुक कवि रही, ओही साल पटना मे नवतुरिया लेखक सम्मेलन आयोजित भेल रहै, आ ओहि मे साहित्यक प्रमुख विधा कविता पर आलोचना-सत्र मे लेख पढ़बाक जिम्मा हमरे पर छल। ओहि प्रसंग छत्रानंद बटुक भाइक ओ बात मोन पड़ैत अछि। पुछने रहथि की करै छी? उत्साह सं उत्तर देने रहियनि, राजकमल कान्वेन्ट स्कूल मे प्रिंसिपल छी। बाजल रहथि, ऐं यौ, तखन तं अहां स्कूलक मास्टर सब एखन धरिये पहिरैत हेता!  मतलब, मैथिली आलोचना मे हमर रुचि अत्यन्त प्राचीन अछि। तें लगभग चालीस वर्षक आलोचना कें निकट सं देखलाक बाद हम आलोचना सं अपेक्षाक बारे मे दू-चारिटा गप कहब आ उम्मीद करब जे एकर जे स्थिति छै से स्वाभाविके रूप सं एहि मे आबि जाएत।

         मैथिली आलोचनाक बारे मे आम राय की अछि? राय अछि जे एकर विकास नहि भ सकल। कि मैथिली मे आलोचना एकदम अवनत दशा मे अछि। जकरा देखू सैह आलोचना पर थुम्हा भरि थूक फेकैत नजर एता जे धुह, ई कोनो जोगरक नहि भ सकल। जे मैथिली आलोचनाक विकास सं सर्वथा अनजान छथि सेहो एहन कहैत भेट जेता जे मैथिली मे आलोचना एखन अपन बाल्यकाल मे अछि। उचिते, एहि तरहक स्थापना देबाक लेल एकमात्र अज्ञानते सं आत्मविश्वास भेट सकैत अछि।

         मुदा प्रश्न अछि जे आम राय एहन किएक अछि? मिथिला-समाज कें अहो रूपं अहो ध्वनि: चाहिऐक, आलोचना नहि चाहिऐक, की बात एतबे अछि आ कि एहि मे मैथिली आलोचनाक अपनो किछु दोख अछि? निश्चिते अपनो दोख अछि। से जं नहि होइत तं कोनो कारण नहि छल जे जाहि भाषा मे रमानाथ झा सन अतंद्र विद्वान आद्य आलोचक भेला, काञ्चीनाथ झा किरण सन तत्वदर्शी विचारक भेला, किसुन जी आ रामानुग्रह झा सन अध्येता समीक्षक, कुलानंद मिश्र आ मोहन भारद्वाज सन पक्षधर विमर्शकार भेला, राजमोहन झा आ जीवकान्त सन दूटूक टिप्पणीकार काज केलनि, अवसर एला पर यात्री जी आ राजकमल चौधरी सन यशस्वी लेखक आलोचनाक पक्ष मे ठाढ़ भेला, कोनो कारण नहि छल जे से आलोचना थूक फेकबा जोग स्थिति मे मानल जाय। तें दोख तं एहि मे आलोचनाक अपनो अछि।

         रमानाथ झाक आलोचनाक एक अध्ययन हम वर्ष 2006 मे प्रकाशित करौने रही। ओहि ठाम हम देखौने रही जे आलोचनाक उच्च मानदंड रचितो रमानाथ बाबू मैथिली आलोचना कें ताहि रूपें प्रतिष्ठापित करबा मे किए असफल रहला, जखन कि हुनके सन स्थिति मे होइतो रामचंद्र शुक्ल हिन्दी आलोचना कें प्रतिष्ठापित करबा मे सफल भेला। असल मे रमानाथ बाबू अतीत गौरवक निस्सन पक्षपाती रहथि आ हुनका लेल प्रयुक्त शब्द 'हंसवृत्ति' अथवा 'नीरक्षीरविवेकी' आदि सनातन जुमलाबाजी सं बेसी महत्वक बात नहि छल। आश्चर्यक बात छल जे टी एस इलियट कें अपन आदर्श मानितो ओ अतीतमुखिये बनल रहला आ युगीन लेखन सं लगभग निरपेक्ष आ असहमत बनल रहला। मैथिली आलोचना कें एकटा स्वरूप द क ओ ठाढ़ तं जरूर केलनि मुदा आलोचना-पुरुषक आंखि ओकर पीठ दिस निरमाओल गेलै, जकर रूपक एखनहु पं गोविन्द झा अपन आत्मकथा मे व्यवहार करै छथि। रमानाथ बाबू आलोचक मे पाओल जाइ बला गुण आ ओकर कार्यप्रणालीक दमदार मार्गदर्शिका बनौलनि आ वैचारिक गद्यलेखन कें शोध आ आलोचनाक रूप मे दू अलग अलग अनुशासन मे विभक्त केलनि। देखय चाही तं हमरा लोकनि देखि सकै छी जे रमानाथ बाबूक आलोचकीय मानदंड तते उच्च छलनि जे हुनक विशाल शिष्यमंडलीक होइतहु हुनका परंपराक क्यो आलोचक नहि भ सकला, जे भेला से विद्वान आ शोधप्रज्ञे भेला। हुनकर सीमा पाठ्यपुस्तक, विश्वविद्यालय आ पुरस्कार-प्रतिष्ठान धरि घेरायल रहल। आइ विश्वविद्यालय सभक मैथिली शोध विभागक की हाल अछि से ककरो सं नुकाएल नहि अछि।

         आधुनिक अर्थ मे जकरा ठीक ठीक आलोचना कहल जाय, तकर शुरुआत मैथिली मे किरण जीक लेखनक संग होइत अछि। मुदा, किरण जीक आक्रोशी आ विद्रोही स्वर अंत अंत धरि हुनका मे बनल रहलनि, एतय धरि जे अपन एक कविता मे, मृत्यु पर्यन्त ई स्वर हुनकर बनल रहनि तकर ओ कामना करैत सेहो देखल गेला। विद्यापति, उमापति, चंदा झा, किरतनिञा नाच, लोकपरंपरा आदि कतेको विषय छल जाहि पर रमानाथ बाबू सं किरण जीक घोर मतभेद छल आ तकरा ओ साफ साफ धारदार भाषा मे लिखबो केलनि। मुदा ओहि जुगजबानाक नायक रमानाथ झा रहथि आ तें किरण जी कें खलनायकक हैसियत भेटलनि आ हुनकर काज कें परिभाषित करबाक लेल एकटा नब शब्द क्वाइन कयल गेल--प्रत्यालोचना। गंहीर नजरि सं देखू तं आश्चर्य लागत जे एते भारी लोक आ सिद्धान्तकार भेलाक बादो मिथिला आ मैथिली कें ल क रमानाथ बाबूक भविष्यदृष्टि किरण जी जकां साफ नहि छलनि। तकर कतेको उदाहरण अछि। मुदा, जाहि तरहें विद्वत्समाज किरण जीक जीताजी हुनकर मूल्यांकन केलनि, ई बात सामने आएल जे 'प्रत्यालोचना' संभ्रान्त समाजक मान्यता आ शास्त्रसम्मत साहित्यदृष्टि के विरोधी चीज थिक। कहब जरूरी नहि जे जकरा ओ लोकनि प्रत्यालोचना कहि रहल छला, वस्तुत: वैह मैथिली आलोचना छल।

         रमानाथ बाबू अपन प्रभावशाली धीर-गंभीर व्यक्तित्व  आ कर्मठ ज्ञानकुशलताक कारण, अनेक प्रभावी शिष्यमंडली सं सुशोभित हिमालयक कठिन शिखर जकां अलंघ्य मानल जाइत रहथि। हुनकर सघन प्रभाव मैथिली साहित्य पर पड़ब अवश्यंभावी छल। मैथिली आलोचना एहि सं दीर्घकालिक रूपें प्रभावित भेल। एहि प्रभाव कें हम आइयो धरि घनगर बनल देखि सकै छी। दूटा दृष्टान्त। मैथिली आलोचनाक मूलस्वभाव अतीतगामी अछि। जे बीति चुकल छै, मैथिली आलोचना कें तकरे चिन्ता करैत देखबै। ओना तं आलोचना विधे अपन स्वभाव मे साहित्यक पश्चगामी होइत अछि, मुदा ओकर पयर अपना जुगक जमीन पर ठाढ़ रहै छै। बुझनिहार बूझि सकै छथि जे अतीतगामी हेबाक बात जे हम कहि रहल छी से एहि सं भिन्न बात थिक। दोसर, मानक भाषाक बहुत आग्रही रमाथ बाबू छला। आलोचनाक अपन विशिष्ट भाषा होइक तकर ओ व्यवस्था देलनि आ एहि व्यवस्था मे आलोचना आबद्ध बनल रहल। हमरा लोकनि आगूक विकास कें देखि चकित भ सकै छी। कुलानंद मिश्र मैथिली आलोचनाक दोसर पैघ सिद्धान्तकार भेला। ओ रमानाथ बाबूक समानान्तर आलोचनाक एक प्रतिरूप ठाढ़ केलनि। ओतय वर्गविभाजित समाज मे साहित्य कें भौतिकताक नजरि सं देखबाक आग्रह छल। समाजार्थिक आधार कोना साहित्य आ साहित्यकार कें उपयोगी आ कालजयी बनबैत छैक, तकरा ओहि ठा देखल जा सकैत छल। आठम-नवम दशक मे कुलानंद जी काज क रहल छला मुदा हुनकर विचारक अवधि आजादी बादक पांचम-छठम दशकक साहित्य छल। मुश्किल तं ई छल जे मानदंड मे रमानाथ बाबूक प्रतिरूप रचितो कुलानंद जीक आलोचना-भाषा रमानाथ बाबूक अनुगामी छल। हुनकर भाषाक जादू सं ओ बाहर नहि निकलि सकलाह। एहि भाषाक जादू कें तोड़ैत हमरा लोकनि मोहन भारद्वाज कें देखै छियनि। कदाचित यैह हुनकर सब सं पैघ देन छनि, यद्यपि कि क्षेत्रीय इतिहास आ स्थानीय समाजशास्त्र कें आधार बना ओ साहित्यालोचनाक एक नव परिपाटी विकसित केलनि। मजा के बात छै जे कि राजमोहन झा आ जीवकान्त अपन आलोचनात्मक लेखन मे अतीतगामिता आ मानक भाषिकता--एहि दुनू अपाय सं कहिया ने बहरा गेल छला। मुदा, हिनका लोकनिक मूल स्वर असहमतिमूलक छल, जकर तात्र्य जे मुख्यधारा ओ कोनो आन पद्धति कें मानि रहल छला, आ एहि तरहें इज्जति उतारितो मानि ओ ओकरे द रहल रहल छला। फलस्वरूप कोनो प्रतिरूप नहि रचि पाबि रहल छला।



              मैथिलीक आम समुदाय मे आलोचक कें नीक नजरि सं नहि देखल जाइछ। प्रकारान्तर सं ईहो वैह बात थिक जे एतय आलोचना कें कोनो जोगरक नहि मानल जाइछ। सामाजिक छविक दृष्टि सं जं विचार करी तं देखब जे कविताक चलन भने सब सं बेसी होउक मुदा कविक छवि कोनो निरस्तुकी पोख्ता छवि नहि अछि। कुलानंद मिश्र सन नास्तिको कवि छथि आ प्रदीप मैथिलीपुत्र सन आस्तिको। कथाकार अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति मे छथि मुदा नितान्त प्रतिगामी सोच रखनिहारो अनेक अयुगीन लोकक प्रवेश कथा-क्षेत्र मे छैक। एहि समस्त लेखक समुदाय मे सं एक आलोचके छथि जिनकर पोखता सामाजिक छवि बनि सकल अछि। परंपरित मैथिल मानदंडक हिसाब सं आलोचक आधुनिक होइत छथि, जिनका साबिक मे अंग्रेजिया कहल जाइन लगभग तेहने। अधिक तं संभावना जे ओ नास्तिक होथि, आ जं से नहियो तं पूजापाठ, धर्मकर्म नुका क, एकान्त मे करैत छथि। धर्मक विचार ओकरा मे नहि पाओल जाइछ। आचार विचार सं अपवित्र, अभक्ष्य खेनिहार, अविहित बरतनिहार। ऊपर सं भारी दोख ई जे राजनीतिक विचार सेहो रखैत अछि। सेहो कोन तं अधिकतर वामपंथी। 'बुद्ध अ इसन अन्हार' रट'बला मैथिल समाज एहि आलोचक समुदाय पर कोना भरोस क सकैत अछि? तें लोक थूक फेकैत छथि आ बजै छथि जे आलोचना कोनो जोगरक नहि भ सकल।

              जं आलोचकक पोख्ता छवि छैक तं अकानबाक विषय थिक जे एकर मने आलोचनाक कोनो तेहन उपलब्धि छैक की नहि? एखन हाल मे हम फेसबुक पर मिथिला स्टुडेन्ट यूनियनक एक विद्यार्थी आदित्य मोहनक एक पोस्ट देखैत रही। कोनो मित्र हुनका हरिमोहन बाबूक पुस्तैनी घर के वीडियो पठौने रहनि। ओहि घरक उजड़ल-उपटल अवस्था देखि क आदित्य बहुत दुखी रहथि आ अपील केने रहथि जे एहि महान साहित्यकारक घर मिथिलाक तीर्थस्थान थिक आ तें आउ, हम सब सामाजिक सहयोग सं एकर पुनर्निर्माण करी। सत्य पूछी तं आदित्यक ई पोस्ट पढ़ि क हमरा मैथिली आलोचनाक ताकत के अनुमान भेल छल। जेठजन कें मोने हेतनि जे एखन हाल तक हरिमोहन बाबू कें 'हास्यरसावतार' कहल जाइत छलनि। हुनका संबंध मे विद्वान लोकनिक राय की रहनि? पहिलुका जुग मे एकवाक्यीय आलोचनाक चलन रहै। जेना उपमा कालिदासस्य,जेना मुरारेस्तृतीयो पन्था:, जेना सूर सूर्य तुलसी शशी। तहिना हरिमोहन बाबू आ यात्री जी पर रहनि-'स्वच्छंद प्रोफेसर टांग-हाथ, दंतावलि पूर्वहि तोड़ि देल। दुर्भाग्य सं संप्रति मैथिलीक 'पारो' कपारो फोड़ि देल।'  प्राचीन परंपराक एहि आलोचकीय स्थापना सं हमरा लोकनि बूझि सकैत छी आजुक युगक दू प्रमुख शलाकापुरुषक बारे मे हुनका लोकनिक राय की रहनि। आइ जे हिनका लोकनिक प्रति समाजक सहमति-भाव छैक, से मैथिली आलोचनाक एक देन थिक। किरण जीक थोड़-बहुत शिकायत कें छोड़ि देल जाय तं हम सब देखब जे मैथिली आलोचनाक समस्त उपक्रम हरिमोहन झा कें समर्थन देबा मे एकमत अछि। किरण जीक जे शिकायत रहनि सेहो हुनकर व्यंग्य पर नहि, हुनकर हास्य पर रहनि आ तकरा द्वारा हुनकर आरोप रहनि जे हरिमोहन बाबू मे करुणाक अभाव रहनि। किरण जीक शिकायत मे सेहो सार रहनि कारण हम सब देखल जे प्रतिपक्षी जखन हुनका रफा-दफा केलकनि तं हास्यरसावतारे कहि क केलकनि। स्वयं राजकमल चौधरीक प्रतिष्ठा सेहो एहने उपक्रमक प्रमाण थिक। आइ जे हमरा लोकनि पढ़ैत छी जे पचासक दशक मे ललित-राजकमल आदिक कथा-युग मैथिली साहित्य मे आधुनिक युगक श्रीगणेश छल, ने कि अंधकार-कालक आरंभ, मोन रखबाक चाही जे एहि मे आलोचनाक केहन भूमिका छैक। दोसर दिस, आलोचना जे नहि क सकल से काज हेबा सं कोना छुटले रहि गेल तकरो दर्जनो उदाहरण हमरा सब लग अछि। जेना महाप्रकाशक कथा-साहित्य। आलोचनाक नजरि एखनहु नहि पड़ल अछि। जहिया पड़त तं पता लागत जे विश्वसाहित्यक दुर्लभ दृष्टान्त कोना मिथिलामिहिरक पन्ना मे हेरायल छै। मैथिलीक  मैनेजर लोकनि जरूरे आलोचनाक एहि ताकत सं वाकिफ छथि तें हमरा लोकनि देखैत छी जे राजकमल चौधरी पर जखन लिखबाक अवसर अबैत छैक तं ओ लोकनि प्राचीन विश्वविद्यालयीय विद्वत्ताक मूर्ति दिनेश झा कें आगू अनैत छथि, जाहि सं नीक जकां राजकमलक श्राद्ध केल जा सकय। आ से ई कोनो दुर्घटना नहि थिक, सुनियोजित कार्यप्रणाली थिक। एहि सं आलोचना पर लगातार थूक फेकैत रहबाक सुविधा बरकरार रहै छै।

              प्राचीन परिपाटीक विद्वान आ आधुनिक आलोचकक दृष्टिकोण मे जे अंतर छै, प्रसंगवश ताहू बारे मे हमरा लोकनि कें किछु गप करबाक चाही। रमानाथ बाबू भने एकाध ठाम अपना कें आलोचक कहि गेल होथि, मुदा ओ मूलत: विद्वाने छला आ सैह कहबाएब हुनका पसंद रहनि। हुनकर जे लेखनशैली अछि सेहो विद्वाने बला अछि। ओहि ठाम लोकतांत्रिक ढंग सं विमर्शक गुंजाइस नहि छैक, एकर बदला ज्ञाता हेबाक ठसक छै आ ताहि कारणें लहजा उपदेशात्मक छै। निरुपाय भेने आधुनिक लोकनि अपन प्रथम आलोचक के रूप मे रमानाथ बाबूक नाम लैत छथि। आ प्राचीन लोकनि कें आधुनिकक सामना करैत जखन निरुपाय भ जाय पड़ैत छैक तं ओ लोकनि रमानाथ बाबू कें बीच मे ठेलि अनैत छथि। पछिला तमाम वर्ष मे यैह खेल चलैत रहल अछि। मुदा, दृष्टिकोण? रमानाथ बाबू पांच सय सं बेसी पृष्ठ मे अपन विद्यापति संबंधी अध्ययन प्रकाशित करौलनि। ओहि मे विद्यापतिक कुलगोत्र-देवता-गुरु-आश्रय दाता आदि समस्त विषयक विशाल अध्ययन छैक। विद्यापति पर किरण जी सेहो लिखलनि आ रमानाथ बाबूक  अध्ययन मे झोल सेहो देखौलनि। हुनक कहब भेलनि जे विद्यापति कें देखबा लेल मैथिल आंखि चाही। मने इहो जे रमानाथ बाबू मे तकर अभाव छनि। ई 'मैथिल आंखि' शब्द आगू आलोचनाक एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द बनि गेल। ई आंखिबला मैथिल निश्चये रमानाथ बाबूक मैथिल सं भिन्न छल। ओतय जूगल कामति, छीतन खबास कें प्रामाणिक मैथिल मानबाक आग्रह छल। रमानाथ बाबू विद्यापति संगीत पर सेहो काज केलनि। ओ समय छल जहिया मिथिला कें नब नब विद्यापति भेटल रहनि आ सौंसे दुनियां पसरबाक गहमागहमी सं मैथिली समाज भरल छल। पचगछिया घरानाक मांगनलाल खबास गायकीक क्षेत्र मे सौंसे देश मे धूम मचेने छला। मांगनलाल विद्यापति कें सेहो गाबथि, आ से बेस प्रशंसित भ रहल छल। ओ पहिल गायक रहथि जे विद्यापति-गीत कें सोलो गेबा जोग धुन मे बन्हने छला, ने तं एहि सं पहिने स्त्रीगण उत्सव आदि मे आ नटुआ नाच मे एकरा जखन गाबथि, कोरस गाबैत छला। मांगनलाल के देखादेखी रामचतुर मल्लिक सेहो गाबय लागल छला। ग्रामोफोन रेकर्ड पहिल पहिल शारदा सिन्हा के बहरेलनि, से मोन रखबाक चाही जे शारदा जी पचगछिया घरानाक शिष्या रहल छथि। अस्तु। एक विशेषज्ञ अध्येताक रूप मे जखन रमानाथ बाबू लग ई प्रश्न उपस्थित भेलनि जे विद्यापति-संगीतक संरक्षण कोना हो, ओ व्यवस्था देलखिन जे विद्यापतिक गीत कखनहु सोलो नहि गाओल जेबाक चाही आ सदति कोरसे गेबाक चाही। वैद्यनाथ धामक पंडा लोकनि किरतन मे जेना विद्यापति गीत गबै छला तकरा ओ आदर्श रूप मानलनि आ तकर संरक्षणक जरूरत बतेलनि। ऊपर हम रमानाथ बाबूक भविष्य-दृष्टिक बात केने रही। तकर हुनका मे कोना अभाव छलनि से एहि ठाम बूझल जा सकैत अछि। सामाजिक प्रोत्साहनक अभाव मे विदापत नाच लुप्त भ गेल आ स्त्रिगणक कोरस निमुन्न मे पतराइत गेल। वैदनाथ धामक गीत ओकर अपनो किरतन सं समयक अनुसार गायब होइत गेल। आइ विद्यापति संगीत जं बचल अछि तं सोलो गायके लोकनिक उद्यम पर बचल अछि। दोसर दिस 'मैथिल आंखि' के अवधारणा समयक संग भकरार होइत गेल अछि आ हरेक युगक मिथिला अपन आदर्श एहि आंखि ल क ताकि लेत, ततबा पर्याप्त अर्थव्यंजना एहि मे भरल छैक। 



          एहि साल मैथिलीक प्रमुख आलोचक लोकनि मे सं एक मोहन भारद्वाज निधन भेलनि, तं तहिया सं मैथिली आलोचनाक प्रति विवेकी जनक हृदय मे बहुत चिन्ता होइत हमरा लोकनि देखि रहल छी। भारद्वाज जी पूर्णकालिक आलोचक रहथि आ मैथिली आलोचनाक इतिहास मे कैकटा नब स्थापना आ नब आलोचना-भाषाक लेल जानल जाइत रहथि। प्राय: दू दशक पहिने ओ 'सांस्कृतिक चेतना'क अवधारणा निरूपित कयने रहथि, जाहि पर सुभाष चंद्र यादव हुनका पर कटु आलोचना लिखने रहथि। समय साबित केलक जे सांस्कृतिक चेतनावादक अवसान दक्षिणपंथी अधिनायकवादे पर जा क होइत अछि आ एहि तरहें सुभाष जीक चिन्ता बेसी सही साबित भेल। मुदा, ई एक सिद्धान्तक बात भेल। अपन दू प्रमुख आलोचना पुस्तक  मे सं दुनू ओ श्रमजीवी मैथिल संस्कृतिक प्रतिष्ठापन मे लिखलनि। हुनकर लेख सब नब समाजार्थिक संदर्भ मे साहित्य कें देखबाक दृष्टि दैत छल। तें चिन्ता स्वाभाविक अछि कारण ओहि तरहक क्यो आलोचक आइ उपलब्ध नहि छथि। मुदा, हियासि क हमरा लोकनि देखी तं पायब जे जेना भारद्वाज जीक अपन खास विशेषता, खास ध्वनि छलनि, तहिना आनो अनेक लोक अपन अपन खास विशेषताक संग मैथिली आलोचना मे सक्रिय रहल छथि। भीमनाथ झा पुरान परंपराक लोक छथि मुदा अपन खास अंदाज मे नब रचनाशीलता कें जाहि तरहें परिभाषित आ मूल्यांकित करबाक काज ओ केलनि अछि सेहो फेर आन ठाम दुर्लभ अछि। हरे कृष्ण झा आलोचनाक क्षेत्र मे लगभग निष्क्रिय छथि मुदा कहियो कदाल जे हुनकर लेख सब अबैत अछि जे तेहन पारंगामी पाठालोचनात्मकता सं लैस रहैत अछि जे तकरो अन्य उदाहरण दुर्लभ अछि। तहिना सुभाष चंद्र यादव। असल मे, आजादी बादक तमाम समय मे जहिया सं मैथिली साहित्य मे आधुनिकताक प्रतिष्ठापन भेलैक अछि, मैथिलीक तमाम विधा मे काज केनिहार काबिल लेखक सब मे आलोचनात्मक विवेक पूरा प्रस्फुटित भेल भेटैत अछि। कहब जरूरी नहि जे जाहि आलोचनात्मक विवेक कें ल क क्यो लेखक दुनियांक यथार्थ मे सं अपन रचनाक लेल वस्तु तकैत अछि, एक नीक आलोचना लिखबाक लेल सेहो ओही आलोचनात्मक विवेक के खगता रहैत छैक। तें हमरा लोकनि देखैत छी जे मूलतः जे कवि छथि जेना सुकान्त सोम, नारायण जी, वा मूलतः जे कथाकार छथि जेना अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, वा जे कवि-कथाकार छथि जेना विभूति आनंद, देवशंकर नवीन, हुनका लोकनिक आलोचना युगीन ऊष्मा सं  भरपूर तं रहिते अछि, आलोचनात्मक विवेक सेहो प्रखर रहैत अछि। जखन कि विश्वविद्यालयक पेशेवर विद्वान सब मे एहि चीजक सिरे सं अभाव भेटत।

          रमानंद झा रमण एहि सब गोटे मे सब सं अलग छथि। ओ एखनुक समय मे एकमात्र पूर्णकालिक सक्रिय आलोचक छथि। हुनकर विषय विस्तार बहुत व्यापक छनि। प्रमुख क्षेत्र मुदा अतीते छियनि। जेना रमानाथ बाबू मध्यकालक अनेक अज्ञात, अचर्चित कवि सभक उद्धार केलनि, रमण जी अनेक आधुनिक अचर्चित अल्पचर्चित रचनाकार सभक कृति आम पाठक धरि सुलभ केलनि। हुनकर काज मे निरंतरता सेहो रहल अछि जे हुनकर अवदान कें पैघ बनबैत अछि। अतीतोन्मुखताक बन्हन कें तोड़ि क ओ युगीन रचनाशीलता कें विश्लेषित करबाक प्रयास सेहो केलनि अछि जकरा हुनकर दर्जनो निबंध मे देखल जा सकैत अछि। मुदा रमण जीक दूटा सीमा छनि जाहि कारणें ओ बन्हन तोड़ि क' बहरा नहि पाओल छथि। एक तं नव रचनाशीलताक प्रति अधिक काल असहमतिक स्वर, दोसर अपन रुचि कें अंतिम प्रमाण मानि लेब। एहि पर विस्तार सं कहियो गप हो तं नीक।

          आइ स्थिति एहन देखाइत अछि जे पूर्णकालिक आलोचकक भरोसें मैथिली आलोचना कें तहिना नहि छोड़ल जा सकैत अछि जेना विश्वविद्यालयीय पेशेवर आलोचनाक भरोसें नहि छोड़ि सकैत छी। हम देखैत छी जे आलोचनाक रैखिक विकास तं खूब भेल अछि, क्षैतिज विकास मे अवश्य कमी अछि। आलोचना मे कोनो एक नवीन अवधारणा एलाक बाद अनेक दृष्टि सं, अनेक आयाम कें ल क ओकर बारंबार व्याख्याक जरूरत रहैत छैक। अक्सरहां असहमति आ विवादक विना कोनो अवधारणा अपन पूर्ण प्रस्फुटन पर नहि पहुंचि सकैत अछि। एहि सब काजक लेल अनेक व्यक्ति चाही। तकर अभाव अवश्य अछि। एक सं एक स्थापना अबैत छैक आ से किताबक, पत्रिकाक पन्ना मे दबल रहि जाइत छैक

           जे लोकनि हल्ला करैत छथि जे आलोचना एखनो नाबालिग अछि से जं हल्ला करबाक बदला ओहि स्थापनाक विरुद्ध एक टिप्पणी लिखि क प्रकाशित करौने  रहितथि आ सैह आनो लोक करतथि तं कहिया ने ई बालिग भ गेल रहैत। वैह बात अछि। हमही सब एकरा अपन अकर्मण्यता सं नाबालिग बनेने छियैक आ हमही सब भोकरै छी जे ई नाबालिग अछि।

           मैथिली आलोचना कोन तरहें अपन स्पष्ट छवि आ शाफ स्वरूप बना चुकल अछि तकर दृष्टान्त लेल हम नवतुरिया लोकनिक लेखन दिस संकेत करब। जाहि नवागंतुक लोकनिक दृष्टि एखन साफ नहि भेलनि अछि आ ने पक्ष मजगूत, ओहो  जखन वैचारिक गद्य लिखै छथि तं आधुनिक आवाज मे, आलोचनाक शैली आ शब्दावली अपनाबैत बजबाक कोशिश करैत छथि। ई अपना आप मे एकटा साक्ष्य थिक जे मैथिली आलोचनाक स्थिति ओते दुर्गत नहि अछि जते भाइ लोकनि प्रचारित करैत छथि।

           एतय हम एकटा सूची राखय चाहै छी जाहि मे आजुक समयक चुनौती कें उठा सकबा मे सक्षम किछु लोकक नाम छैक। पहिल पंचक मे रमानंद झा रमण छथि, जिनकर अतंद्र अन्वेषकता कैक बेर हमरा लोकनि कें रमानथ बाबूक स्मरण करा जाइत अछि। विभूति आनंद छथि जे एक नब तरहक आलोचना-भाषा, संस्मरणात्मक आलोचना-भाषाक अन्वेषक आ प्रयोक्ता छथि। संपूर्ण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मे युगीन साहित्य कें बुझबाक हो तं अशोक छथि, जे मैथिल आंखिक व्यापकताक संधानी छथि। युगीन परिवेश कें रचना कोना अपना संग जज्ब केने रहैत छैक आ तकरा अपन अभिप्राय मे परिणत करै छै, ताहि पर देशंकर नवीनक काज देखबा जोग अछि। तहिना, रचनाक मूल पाठ अपना भीतर कोना हजारो तरहक सामाजिक संवेदना आ तकर अन्तर्कथा धारण केने रहैत छैक ताहि पर शिवशंकर श्रीनिवासक मूल्यवान काज अछि। मैथिलीक ओ पहिल आलोचक छथि जे मूलतः कथालोचकक पहचान बना सकल छथि। दोसर सूची मे पांचटा एहन युवा रचनाकार छथि जे आन आन विधा मे काज करितो समय समय पर अपन आलोचनात्मक लेखन सं आश्वस्त करै छथि। एहि मे छथि पंकज पराशर, श्रीधरम, कमलमोहन चुन्नू, रमण कुमार सिंह आ अजित आजाद। सारंग कुमार आदि सेहो एहि मे शामिल भ सकै छथि जे पहिनेक अपन लेखन सं अपन आलोचकीय क्षमताक प्रति आश्वस्त केने छथि। कहल जाय तं चुनौती उठेबाक असली जिम्मेवारी हिनके लोकनि पर छनि। तेसर सूची मे पांचटा एहन नाम छथि जे मैथिलीक नवागंतुक रचनाकार छथि, आन आन विधा मे लिखै छथि आ जिनकर आलोचकीय क्षमता दिस हमर ध्यान गेल अछि। एहि मे छथि अरुणाभ सौरभ, चंदन कुमार झा, रघुनाथ मुखिया, विकास वत्सनाभ आ ।  ई युवा लोकनि जं अपन आलोचनात्मक क्षमता संग जं जतन करथि तं अपना जे रचनात्मक लाभ हेतनि से तं हेबे करतनि, मैथिली आलोचनाक सेहो गहमागहमी बढ़तैक। 



         अपेक्षाक जहां धरि बात छै, से कोनो अलग सं होइत हो से हमरा नहि बुझाइत अछि। स्थिति जे अछि से सैह अपेक्षा दिस इशारा करैत रहैत छैक। जतय स्थिति कमजोर देखै छी, ओतय सब गोटें मिलि क जोर लगा दियैक, सैह भेल अपेक्षा। अपेक्षा तं हमर सब सं पहिल यैह अछि जे मैथिली आलोचनाक अतीतगामिताक स्वभाव कें हम सब बदली। किछु गोटे के अतीत मे गेनाइ सार्थक होइत छैक। जेना मोहन भारद्वाजक डाकवचन लग गेनाइ। मुदा, मात्र एही लेल हम अतीत मे जाइ जे आलोचनाक टूल्स तहियेक बनल छै, आगूक बनले नहि छै, एकरा हम पथभ्रष्टता बुझैत छी। यदि निकष(टूल्स) के नमूना उपलब्ध नहि छै, तं हमरा बनेबाक चाही। असगरे बनायब जं पार नहि लगैत हो तं जतबा बना सकै छी, बना क अगिला कें बढ़ा देबाक चाही। 

         दोसर बात जे हमरा सब कें ई अपसोच मोन सं निकालि देबाक चाही जे मैथिली मे पूर्णकालिक आलोचक नहि अछि। असल मे युग एहि हिसाब सं मोड़ लेलक अछि जे आगू पूर्णकालिक आलोचक होयबो मुश्किल अछि। क्रिएटिव राइटिंग बेसी चोख भेलैए आ से प्रतिभाशाली सब कें सिद्दत सं आकर्षित करै छनि। आलोचना के कोनो शिक्षा नहि छै। एते एते विश्वविद्यालय मे एते एते शिक्षक मैथिली पढ़ा रहल छथि मुदा ढंग के एकटा आलोचक नहि तैयार भ' सकल। जे अबैत छथि तिनकर साहित्यक समझ क्रिएटिव राइटक स्तर सं बहुते बहुत नीचां रहैत छनि। दोसर छै जे आलोचना लेखन मे लेखक कें बरक्कति नहि छैक। आलोचक कें नापसंद कयल जाइ छै। आलोचना विधा कें द्वितीय श्रेणीक विधा मानल जाइछ। ओहि मे सम्मान नहि छै। देखबे केलहुं जे मोहन भारद्वाज सन के आलोचक कें साहित्य अकादेमी अन्तो अन्त धरि पुरस्कार नहिये देलक आ अपन नकारापन के, नासमझी के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत केलक। मोहन भारद्वाजक परोक्ष भेला सं चिन्तित तं सब क्यो छी, मुदा हमरा सभक भाषाई प्रबंधन कोन तरहें सुधरय से नहि क्यो क पाबि रहल छी।     

           ई एक बात। दोसर जे हरेक क्रिएटिव लेखक कें आलोचना सेहो जरूर लिखबाक चाही। नहि लिखबाक पाछू भय रहैत छैक अपना छुटि जयबाक। अपन नाम लिय' तं सेल्फ प्रोमोशन जकां, तुच्छ काज जकां लगै छै। नहि करियौ तं अपना प्रति अपने कयल अन्याय जकां लगै छै। तें ई भय बहुत वाजिब थिक। मुदा हम तैयो कहब जे लिखबाक चाही कारण आलोचना लिखबाक सुख एक अलग तरहक सुख होइत छैक। ई सुख छै जे हम अपन युग कें देखि रहल छी। द्रष्टा छी हम तं हमरा अपने ओहि दृश्य मे किएक हेबाक हेबाक चाही? ई सुख हमरा आलोचना द सकैए। बाकी आगूक लोक जखन देखता तं अपन सुधारि क देखता। ई हुनक टेन्सन छियनि। हमरा लिखबाक चाही।

           नब सं नबो लोक कें आलोचना लिखबाक चाही। बाधा जे पैदा करैत अछि से से छी अल्पज्ञताक भय। आलोचना लिखबा सं पहिने खूब पढ़ि लेबाक मोन करै छी। आब झंझट ई छै जे पढ़बाक आनंद एक अलगे संप्रदाय के आनंद थिक। ओकरा सामने मे लिखनाइ तुच्छ। एहि प्रकारें अल्पज्ञताक भय आलोचनाक उत्साह कें ध्वस्त क दैत छैक।  तें युवा कें अपना पीढ़ीक बारे मे लिखबाक चाही। ओतय अल्पज्ञताक खतरा न्यून रहै छै। एहि सं असली फैदा ई छै एहि सं आलोचनाक वातावरण सुरभित लगै छै। क्यो आइ पर लिखि रहलाहे, क्यो पछिला दशक पर, क्यो क्यो अतीतो मे आवाजाही बनौने छथि। एखन जे मुरदनी छाएल छै तकर एहि सं निस्तार होयत। 

           तहिना, पुरान प्रतिष्ठित कैक गोट रचनाकार एम्हर फेर सं सक्रिय भेल छथि जेना ललितेश मिश्र, महेन्द्र, गंगानाथ गंगेश आदि। हिनका लोकनिक आलोचकीय क्षमता अचूक छनि। रामदेव झा अपन लेखन आब स्थगित क चुकल छथि। मुदा, कतेक नीक होइत जे क्यो गोटे तैयारी क क हुनकर आ हुनका सन आनो लोकक इन्टरव्यू करितथि। हमरा सभक जबाना मे नब लेखक पुरान रचनाकार सब सं बराबर इन्टरव्यू लेथि, तकर प्रकाशन सं सबहक उपकार होइत छल। सुभाष चंद्र यादव, सुकान्त सोम आ हरे कृष्ण झा आइ लिखि नहि पाबि रहल छथि तं अपेक्षा अछि जतबे होइन लिखथु।

           मोहन भारद्वाज एक समय मे 'मैथिली आलोचना' नाम सं एक पत्रिका निकालब शुरू कयने रहथि, से मोन पड़ैत अछि तं होइत अछि जे एहि खगता कें सेहो क्यो गोटे उठाबथु।

           मैथिली आलोचना कें बेकार आ आलोचक कें पूर्वाग्रही कहब बहुत आसान छै। ततबे आसान जतबा गांधी जी कें बैमान कहब। क्यो उनटि क' उपराग देबय नहि आओत, ने गांधी जी दिस सं ने आलोचना दिस सं। मुदा, मोन राखल जाय, यैह समय होइ छै जखन विवेकी जन कें मूल जड़ि पकड़य पड़ैत छै आ अपन भूमिका तय करय पड़ैत छैक।