तारानंद वियोगी
मैथिली आलोचनाक आइ की स्थिति अछि आ एकरा सं लोकक की अपेक्षा छै, ताहि पर हम गप करी, एहि सं पहिने कने एक नजरि एहि दिस देखि लेबय चाहब जे एहि आलोचनाक बारे मे आम लोकक समझ केहन छनि। आम लोक माने आम साहित्यक लोक, कारण शुद्ध रूप सं जकरा आम लोक कहल जाय ओकर प्रवेश आलोचना धरि हेबाक प्रश्ने कहां, आम साहित्यिक लोक सेहो आलोचना सं कनछी कटैत, हांजी हांजी करैत कहुना आगूक बाट पकड़ि बढ़ि जाय चाहैत रहैत अछि। आलोचना ककरा चाही? पुरस्कार सब पर जिनकर नजरि छनि तिनका लेल आलोचना बेकार, कारण पुरस्कार कोनो आलोचना पढ़ि क' नहि देल जाइत अछि। जे स्वान्त:सुखाय लिखै छथि हुनका आलोचना सं काजे की? जे पकिया लेखक छथि हुनको आलोचना सं बहुत मतलब नहि कारण अपन रचनाशीलता कें आलोचना सं दग्ध हेबाक अवकाश ओ नहि छोड़य चाहैत छथि।
कतेक लोक दोसरो बात कहै छथि। कहै छथि जे माटि सं जुड़ल भाषा-समाज सब मे आलोचनाक लेल स्पेस कम रहैत छैक। ओतय हृदयधर्मी आपकताक चलन पाओल जाइत छैक, जखन कि आलोचना एक बौद्धिक उपक्रम थिक। एहि तरहक सोच रखनिहार लोक सब निश्चिते कोनो भाषा मे ओकर आलोचनाक विकास कें ओहि समाजक बौद्धिक विकास सं जोड़ि क देखबाक आग्रही छथि। हमरा मुदा, एहू आग्रह मे कोनो दोष नहि देखाइत अछि। मैथिली माटिक भाषा छी। माटिक भाषा मे लोकक प्रकृत संस्कार सब सं बेसी घनगर रहैत छैक। लोक शिक्षा आ युगीनता बाहर सं सिखैत अछि। साक्षर हेबाक बादो लोक युगीनता कें सिखबा सं इनकार क सकै छथि, सेहो होइ छै।
अपन स्थिति देखैत छी तं मोन पड़ैत अछि जे मैथिली आलोचनाक संग हमर संबंध कते पुरान अछि। 1982 मे, जखन कि हम एक सद्य:नवागंतुक कवि रही, ओही साल पटना मे नवतुरिया लेखक सम्मेलन आयोजित भेल रहै, आ ओहि मे साहित्यक प्रमुख विधा कविता पर आलोचना-सत्र मे लेख पढ़बाक जिम्मा हमरे पर छल। ओहि प्रसंग छत्रानंद बटुक भाइक ओ बात मोन पड़ैत अछि। पुछने रहथि की करै छी? उत्साह सं उत्तर देने रहियनि, राजकमल कान्वेन्ट स्कूल मे प्रिंसिपल छी। बाजल रहथि, ऐं यौ, तखन तं अहां स्कूलक मास्टर सब एखन धरिये पहिरैत हेता! मतलब, मैथिली आलोचना मे हमर रुचि अत्यन्त प्राचीन अछि। तें लगभग चालीस वर्षक आलोचना कें निकट सं देखलाक बाद हम आलोचना सं अपेक्षाक बारे मे दू-चारिटा गप कहब आ उम्मीद करब जे एकर जे स्थिति छै से स्वाभाविके रूप सं एहि मे आबि जाएत।
मैथिली आलोचनाक बारे मे आम राय की अछि? राय अछि जे एकर विकास नहि भ सकल। कि मैथिली मे आलोचना एकदम अवनत दशा मे अछि। जकरा देखू सैह आलोचना पर थुम्हा भरि थूक फेकैत नजर एता जे धुह, ई कोनो जोगरक नहि भ सकल। जे मैथिली आलोचनाक विकास सं सर्वथा अनजान छथि सेहो एहन कहैत भेट जेता जे मैथिली मे आलोचना एखन अपन बाल्यकाल मे अछि। उचिते, एहि तरहक स्थापना देबाक लेल एकमात्र अज्ञानते सं आत्मविश्वास भेट सकैत अछि।
मुदा प्रश्न अछि जे आम राय एहन किएक अछि? मिथिला-समाज कें अहो रूपं अहो ध्वनि: चाहिऐक, आलोचना नहि चाहिऐक, की बात एतबे अछि आ कि एहि मे मैथिली आलोचनाक अपनो किछु दोख अछि? निश्चिते अपनो दोख अछि। से जं नहि होइत तं कोनो कारण नहि छल जे जाहि भाषा मे रमानाथ झा सन अतंद्र विद्वान आद्य आलोचक भेला, काञ्चीनाथ झा किरण सन तत्वदर्शी विचारक भेला, किसुन जी आ रामानुग्रह झा सन अध्येता समीक्षक, कुलानंद मिश्र आ मोहन भारद्वाज सन पक्षधर विमर्शकार भेला, राजमोहन झा आ जीवकान्त सन दूटूक टिप्पणीकार काज केलनि, अवसर एला पर यात्री जी आ राजकमल चौधरी सन यशस्वी लेखक आलोचनाक पक्ष मे ठाढ़ भेला, कोनो कारण नहि छल जे से आलोचना थूक फेकबा जोग स्थिति मे मानल जाय। तें दोख तं एहि मे आलोचनाक अपनो अछि।
रमानाथ झाक आलोचनाक एक अध्ययन हम वर्ष 2006 मे प्रकाशित करौने रही। ओहि ठाम हम देखौने रही जे आलोचनाक उच्च मानदंड रचितो रमानाथ बाबू मैथिली आलोचना कें ताहि रूपें प्रतिष्ठापित करबा मे किए असफल रहला, जखन कि हुनके सन स्थिति मे होइतो रामचंद्र शुक्ल हिन्दी आलोचना कें प्रतिष्ठापित करबा मे सफल भेला। असल मे रमानाथ बाबू अतीत गौरवक निस्सन पक्षपाती रहथि आ हुनका लेल प्रयुक्त शब्द 'हंसवृत्ति' अथवा 'नीरक्षीरविवेकी' आदि सनातन जुमलाबाजी सं बेसी महत्वक बात नहि छल। आश्चर्यक बात छल जे टी एस इलियट कें अपन आदर्श मानितो ओ अतीतमुखिये बनल रहला आ युगीन लेखन सं लगभग निरपेक्ष आ असहमत बनल रहला। मैथिली आलोचना कें एकटा स्वरूप द क ओ ठाढ़ तं जरूर केलनि मुदा आलोचना-पुरुषक आंखि ओकर पीठ दिस निरमाओल गेलै, जकर रूपक एखनहु पं गोविन्द झा अपन आत्मकथा मे व्यवहार करै छथि। रमानाथ बाबू आलोचक मे पाओल जाइ बला गुण आ ओकर कार्यप्रणालीक दमदार मार्गदर्शिका बनौलनि आ वैचारिक गद्यलेखन कें शोध आ आलोचनाक रूप मे दू अलग अलग अनुशासन मे विभक्त केलनि। देखय चाही तं हमरा लोकनि देखि सकै छी जे रमानाथ बाबूक आलोचकीय मानदंड तते उच्च छलनि जे हुनक विशाल शिष्यमंडलीक होइतहु हुनका परंपराक क्यो आलोचक नहि भ सकला, जे भेला से विद्वान आ शोधप्रज्ञे भेला। हुनकर सीमा पाठ्यपुस्तक, विश्वविद्यालय आ पुरस्कार-प्रतिष्ठान धरि घेरायल रहल। आइ विश्वविद्यालय सभक मैथिली शोध विभागक की हाल अछि से ककरो सं नुकाएल नहि अछि।
आधुनिक अर्थ मे जकरा ठीक ठीक आलोचना कहल जाय, तकर शुरुआत मैथिली मे किरण जीक लेखनक संग होइत अछि। मुदा, किरण जीक आक्रोशी आ विद्रोही स्वर अंत अंत धरि हुनका मे बनल रहलनि, एतय धरि जे अपन एक कविता मे, मृत्यु पर्यन्त ई स्वर हुनकर बनल रहनि तकर ओ कामना करैत सेहो देखल गेला। विद्यापति, उमापति, चंदा झा, किरतनिञा नाच, लोकपरंपरा आदि कतेको विषय छल जाहि पर रमानाथ बाबू सं किरण जीक घोर मतभेद छल आ तकरा ओ साफ साफ धारदार भाषा मे लिखबो केलनि। मुदा ओहि जुगजबानाक नायक रमानाथ झा रहथि आ तें किरण जी कें खलनायकक हैसियत भेटलनि आ हुनकर काज कें परिभाषित करबाक लेल एकटा नब शब्द क्वाइन कयल गेल--प्रत्यालोचना। गंहीर नजरि सं देखू तं आश्चर्य लागत जे एते भारी लोक आ सिद्धान्तकार भेलाक बादो मिथिला आ मैथिली कें ल क रमानाथ बाबूक भविष्यदृष्टि किरण जी जकां साफ नहि छलनि। तकर कतेको उदाहरण अछि। मुदा, जाहि तरहें विद्वत्समाज किरण जीक जीताजी हुनकर मूल्यांकन केलनि, ई बात सामने आएल जे 'प्रत्यालोचना' संभ्रान्त समाजक मान्यता आ शास्त्रसम्मत साहित्यदृष्टि के विरोधी चीज थिक। कहब जरूरी नहि जे जकरा ओ लोकनि प्रत्यालोचना कहि रहल छला, वस्तुत: वैह मैथिली आलोचना छल।
रमानाथ बाबू अपन प्रभावशाली धीर-गंभीर व्यक्तित्व आ कर्मठ ज्ञानकुशलताक कारण, अनेक प्रभावी शिष्यमंडली सं सुशोभित हिमालयक कठिन शिखर जकां अलंघ्य मानल जाइत रहथि। हुनकर सघन प्रभाव मैथिली साहित्य पर पड़ब अवश्यंभावी छल। मैथिली आलोचना एहि सं दीर्घकालिक रूपें प्रभावित भेल। एहि प्रभाव कें हम आइयो धरि घनगर बनल देखि सकै छी। दूटा दृष्टान्त। मैथिली आलोचनाक मूलस्वभाव अतीतगामी अछि। जे बीति चुकल छै, मैथिली आलोचना कें तकरे चिन्ता करैत देखबै। ओना तं आलोचना विधे अपन स्वभाव मे साहित्यक पश्चगामी होइत अछि, मुदा ओकर पयर अपना जुगक जमीन पर ठाढ़ रहै छै। बुझनिहार बूझि सकै छथि जे अतीतगामी हेबाक बात जे हम कहि रहल छी से एहि सं भिन्न बात थिक। दोसर, मानक भाषाक बहुत आग्रही रमाथ बाबू छला। आलोचनाक अपन विशिष्ट भाषा होइक तकर ओ व्यवस्था देलनि आ एहि व्यवस्था मे आलोचना आबद्ध बनल रहल। हमरा लोकनि आगूक विकास कें देखि चकित भ सकै छी। कुलानंद मिश्र मैथिली आलोचनाक दोसर पैघ सिद्धान्तकार भेला। ओ रमानाथ बाबूक समानान्तर आलोचनाक एक प्रतिरूप ठाढ़ केलनि। ओतय वर्गविभाजित समाज मे साहित्य कें भौतिकताक नजरि सं देखबाक आग्रह छल। समाजार्थिक आधार कोना साहित्य आ साहित्यकार कें उपयोगी आ कालजयी बनबैत छैक, तकरा ओहि ठा देखल जा सकैत छल। आठम-नवम दशक मे कुलानंद जी काज क रहल छला मुदा हुनकर विचारक अवधि आजादी बादक पांचम-छठम दशकक साहित्य छल। मुश्किल तं ई छल जे मानदंड मे रमानाथ बाबूक प्रतिरूप रचितो कुलानंद जीक आलोचना-भाषा रमानाथ बाबूक अनुगामी छल। हुनकर भाषाक जादू सं ओ बाहर नहि निकलि सकलाह। एहि भाषाक जादू कें तोड़ैत हमरा लोकनि मोहन भारद्वाज कें देखै छियनि। कदाचित यैह हुनकर सब सं पैघ देन छनि, यद्यपि कि क्षेत्रीय इतिहास आ स्थानीय समाजशास्त्र कें आधार बना ओ साहित्यालोचनाक एक नव परिपाटी विकसित केलनि। मजा के बात छै जे कि राजमोहन झा आ जीवकान्त अपन आलोचनात्मक लेखन मे अतीतगामिता आ मानक भाषिकता--एहि दुनू अपाय सं कहिया ने बहरा गेल छला। मुदा, हिनका लोकनिक मूल स्वर असहमतिमूलक छल, जकर तात्र्य जे मुख्यधारा ओ कोनो आन पद्धति कें मानि रहल छला, आ एहि तरहें इज्जति उतारितो मानि ओ ओकरे द रहल रहल छला। फलस्वरूप कोनो प्रतिरूप नहि रचि पाबि रहल छला।
मैथिलीक आम समुदाय मे आलोचक कें नीक नजरि सं नहि देखल जाइछ। प्रकारान्तर सं ईहो वैह बात थिक जे एतय आलोचना कें कोनो जोगरक नहि मानल जाइछ। सामाजिक छविक दृष्टि सं जं विचार करी तं देखब जे कविताक चलन भने सब सं बेसी होउक मुदा कविक छवि कोनो निरस्तुकी पोख्ता छवि नहि अछि। कुलानंद मिश्र सन नास्तिको कवि छथि आ प्रदीप मैथिलीपुत्र सन आस्तिको। कथाकार अपेक्षाकृत बेहतर स्थिति मे छथि मुदा नितान्त प्रतिगामी सोच रखनिहारो अनेक अयुगीन लोकक प्रवेश कथा-क्षेत्र मे छैक। एहि समस्त लेखक समुदाय मे सं एक आलोचके छथि जिनकर पोखता सामाजिक छवि बनि सकल अछि। परंपरित मैथिल मानदंडक हिसाब सं आलोचक आधुनिक होइत छथि, जिनका साबिक मे अंग्रेजिया कहल जाइन लगभग तेहने। अधिक तं संभावना जे ओ नास्तिक होथि, आ जं से नहियो तं पूजापाठ, धर्मकर्म नुका क, एकान्त मे करैत छथि। धर्मक विचार ओकरा मे नहि पाओल जाइछ। आचार विचार सं अपवित्र, अभक्ष्य खेनिहार, अविहित बरतनिहार। ऊपर सं भारी दोख ई जे राजनीतिक विचार सेहो रखैत अछि। सेहो कोन तं अधिकतर वामपंथी। 'बुद्ध अ इसन अन्हार' रट'बला मैथिल समाज एहि आलोचक समुदाय पर कोना भरोस क सकैत अछि? तें लोक थूक फेकैत छथि आ बजै छथि जे आलोचना कोनो जोगरक नहि भ सकल।
जं आलोचकक पोख्ता छवि छैक तं अकानबाक विषय थिक जे एकर मने आलोचनाक कोनो तेहन उपलब्धि छैक की नहि? एखन हाल मे हम फेसबुक पर मिथिला स्टुडेन्ट यूनियनक एक विद्यार्थी आदित्य मोहनक एक पोस्ट देखैत रही। कोनो मित्र हुनका हरिमोहन बाबूक पुस्तैनी घर के वीडियो पठौने रहनि। ओहि घरक उजड़ल-उपटल अवस्था देखि क आदित्य बहुत दुखी रहथि आ अपील केने रहथि जे एहि महान साहित्यकारक घर मिथिलाक तीर्थस्थान थिक आ तें आउ, हम सब सामाजिक सहयोग सं एकर पुनर्निर्माण करी। सत्य पूछी तं आदित्यक ई पोस्ट पढ़ि क हमरा मैथिली आलोचनाक ताकत के अनुमान भेल छल। जेठजन कें मोने हेतनि जे एखन हाल तक हरिमोहन बाबू कें 'हास्यरसावतार' कहल जाइत छलनि। हुनका संबंध मे विद्वान लोकनिक राय की रहनि? पहिलुका जुग मे एकवाक्यीय आलोचनाक चलन रहै। जेना उपमा कालिदासस्य,जेना मुरारेस्तृतीयो पन्था:, जेना सूर सूर्य तुलसी शशी। तहिना हरिमोहन बाबू आ यात्री जी पर रहनि-'स्वच्छंद प्रोफेसर टांग-हाथ, दंतावलि पूर्वहि तोड़ि देल। दुर्भाग्य सं संप्रति मैथिलीक 'पारो' कपारो फोड़ि देल।' प्राचीन परंपराक एहि आलोचकीय स्थापना सं हमरा लोकनि बूझि सकैत छी आजुक युगक दू प्रमुख शलाकापुरुषक बारे मे हुनका लोकनिक राय की रहनि। आइ जे हिनका लोकनिक प्रति समाजक सहमति-भाव छैक, से मैथिली आलोचनाक एक देन थिक। किरण जीक थोड़-बहुत शिकायत कें छोड़ि देल जाय तं हम सब देखब जे मैथिली आलोचनाक समस्त उपक्रम हरिमोहन झा कें समर्थन देबा मे एकमत अछि। किरण जीक जे शिकायत रहनि सेहो हुनकर व्यंग्य पर नहि, हुनकर हास्य पर रहनि आ तकरा द्वारा हुनकर आरोप रहनि जे हरिमोहन बाबू मे करुणाक अभाव रहनि। किरण जीक शिकायत मे सेहो सार रहनि कारण हम सब देखल जे प्रतिपक्षी जखन हुनका रफा-दफा केलकनि तं हास्यरसावतारे कहि क केलकनि। स्वयं राजकमल चौधरीक प्रतिष्ठा सेहो एहने उपक्रमक प्रमाण थिक। आइ जे हमरा लोकनि पढ़ैत छी जे पचासक दशक मे ललित-राजकमल आदिक कथा-युग मैथिली साहित्य मे आधुनिक युगक श्रीगणेश छल, ने कि अंधकार-कालक आरंभ, मोन रखबाक चाही जे एहि मे आलोचनाक केहन भूमिका छैक। दोसर दिस, आलोचना जे नहि क सकल से काज हेबा सं कोना छुटले रहि गेल तकरो दर्जनो उदाहरण हमरा सब लग अछि। जेना महाप्रकाशक कथा-साहित्य। आलोचनाक नजरि एखनहु नहि पड़ल अछि। जहिया पड़त तं पता लागत जे विश्वसाहित्यक दुर्लभ दृष्टान्त कोना मिथिलामिहिरक पन्ना मे हेरायल छै। मैथिलीक मैनेजर लोकनि जरूरे आलोचनाक एहि ताकत सं वाकिफ छथि तें हमरा लोकनि देखैत छी जे राजकमल चौधरी पर जखन लिखबाक अवसर अबैत छैक तं ओ लोकनि प्राचीन विश्वविद्यालयीय विद्वत्ताक मूर्ति दिनेश झा कें आगू अनैत छथि, जाहि सं नीक जकां राजकमलक श्राद्ध केल जा सकय। आ से ई कोनो दुर्घटना नहि थिक, सुनियोजित कार्यप्रणाली थिक। एहि सं आलोचना पर लगातार थूक फेकैत रहबाक सुविधा बरकरार रहै छै।
प्राचीन परिपाटीक विद्वान आ आधुनिक आलोचकक दृष्टिकोण मे जे अंतर छै, प्रसंगवश ताहू बारे मे हमरा लोकनि कें किछु गप करबाक चाही। रमानाथ बाबू भने एकाध ठाम अपना कें आलोचक कहि गेल होथि, मुदा ओ मूलत: विद्वाने छला आ सैह कहबाएब हुनका पसंद रहनि। हुनकर जे लेखनशैली अछि सेहो विद्वाने बला अछि। ओहि ठाम लोकतांत्रिक ढंग सं विमर्शक गुंजाइस नहि छैक, एकर बदला ज्ञाता हेबाक ठसक छै आ ताहि कारणें लहजा उपदेशात्मक छै। निरुपाय भेने आधुनिक लोकनि अपन प्रथम आलोचक के रूप मे रमानाथ बाबूक नाम लैत छथि। आ प्राचीन लोकनि कें आधुनिकक सामना करैत जखन निरुपाय भ जाय पड़ैत छैक तं ओ लोकनि रमानाथ बाबू कें बीच मे ठेलि अनैत छथि। पछिला तमाम वर्ष मे यैह खेल चलैत रहल अछि। मुदा, दृष्टिकोण? रमानाथ बाबू पांच सय सं बेसी पृष्ठ मे अपन विद्यापति संबंधी अध्ययन प्रकाशित करौलनि। ओहि मे विद्यापतिक कुलगोत्र-देवता-गुरु-आश्रय दाता आदि समस्त विषयक विशाल अध्ययन छैक। विद्यापति पर किरण जी सेहो लिखलनि आ रमानाथ बाबूक अध्ययन मे झोल सेहो देखौलनि। हुनक कहब भेलनि जे विद्यापति कें देखबा लेल मैथिल आंखि चाही। मने इहो जे रमानाथ बाबू मे तकर अभाव छनि। ई 'मैथिल आंखि' शब्द आगू आलोचनाक एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द बनि गेल। ई आंखिबला मैथिल निश्चये रमानाथ बाबूक मैथिल सं भिन्न छल। ओतय जूगल कामति, छीतन खबास कें प्रामाणिक मैथिल मानबाक आग्रह छल। रमानाथ बाबू विद्यापति संगीत पर सेहो काज केलनि। ओ समय छल जहिया मिथिला कें नब नब विद्यापति भेटल रहनि आ सौंसे दुनियां पसरबाक गहमागहमी सं मैथिली समाज भरल छल। पचगछिया घरानाक मांगनलाल खबास गायकीक क्षेत्र मे सौंसे देश मे धूम मचेने छला। मांगनलाल विद्यापति कें सेहो गाबथि, आ से बेस प्रशंसित भ रहल छल। ओ पहिल गायक रहथि जे विद्यापति-गीत कें सोलो गेबा जोग धुन मे बन्हने छला, ने तं एहि सं पहिने स्त्रीगण उत्सव आदि मे आ नटुआ नाच मे एकरा जखन गाबथि, कोरस गाबैत छला। मांगनलाल के देखादेखी रामचतुर मल्लिक सेहो गाबय लागल छला। ग्रामोफोन रेकर्ड पहिल पहिल शारदा सिन्हा के बहरेलनि, से मोन रखबाक चाही जे शारदा जी पचगछिया घरानाक शिष्या रहल छथि। अस्तु। एक विशेषज्ञ अध्येताक रूप मे जखन रमानाथ बाबू लग ई प्रश्न उपस्थित भेलनि जे विद्यापति-संगीतक संरक्षण कोना हो, ओ व्यवस्था देलखिन जे विद्यापतिक गीत कखनहु सोलो नहि गाओल जेबाक चाही आ सदति कोरसे गेबाक चाही। वैद्यनाथ धामक पंडा लोकनि किरतन मे जेना विद्यापति गीत गबै छला तकरा ओ आदर्श रूप मानलनि आ तकर संरक्षणक जरूरत बतेलनि। ऊपर हम रमानाथ बाबूक भविष्य-दृष्टिक बात केने रही। तकर हुनका मे कोना अभाव छलनि से एहि ठाम बूझल जा सकैत अछि। सामाजिक प्रोत्साहनक अभाव मे विदापत नाच लुप्त भ गेल आ स्त्रिगणक कोरस निमुन्न मे पतराइत गेल। वैदनाथ धामक गीत ओकर अपनो किरतन सं समयक अनुसार गायब होइत गेल। आइ विद्यापति संगीत जं बचल अछि तं सोलो गायके लोकनिक उद्यम पर बचल अछि। दोसर दिस 'मैथिल आंखि' के अवधारणा समयक संग भकरार होइत गेल अछि आ हरेक युगक मिथिला अपन आदर्श एहि आंखि ल क ताकि लेत, ततबा पर्याप्त अर्थव्यंजना एहि मे भरल छैक।
एहि साल मैथिलीक प्रमुख आलोचक लोकनि मे सं एक मोहन भारद्वाज निधन भेलनि, तं तहिया सं मैथिली आलोचनाक प्रति विवेकी जनक हृदय मे बहुत चिन्ता होइत हमरा लोकनि देखि रहल छी। भारद्वाज जी पूर्णकालिक आलोचक रहथि आ मैथिली आलोचनाक इतिहास मे कैकटा नब स्थापना आ नब आलोचना-भाषाक लेल जानल जाइत रहथि। प्राय: दू दशक पहिने ओ 'सांस्कृतिक चेतना'क अवधारणा निरूपित कयने रहथि, जाहि पर सुभाष चंद्र यादव हुनका पर कटु आलोचना लिखने रहथि। समय साबित केलक जे सांस्कृतिक चेतनावादक अवसान दक्षिणपंथी अधिनायकवादे पर जा क होइत अछि आ एहि तरहें सुभाष जीक चिन्ता बेसी सही साबित भेल। मुदा, ई एक सिद्धान्तक बात भेल। अपन दू प्रमुख आलोचना पुस्तक मे सं दुनू ओ श्रमजीवी मैथिल संस्कृतिक प्रतिष्ठापन मे लिखलनि। हुनकर लेख सब नब समाजार्थिक संदर्भ मे साहित्य कें देखबाक दृष्टि दैत छल। तें चिन्ता स्वाभाविक अछि कारण ओहि तरहक क्यो आलोचक आइ उपलब्ध नहि छथि। मुदा, हियासि क हमरा लोकनि देखी तं पायब जे जेना भारद्वाज जीक अपन खास विशेषता, खास ध्वनि छलनि, तहिना आनो अनेक लोक अपन अपन खास विशेषताक संग मैथिली आलोचना मे सक्रिय रहल छथि। भीमनाथ झा पुरान परंपराक लोक छथि मुदा अपन खास अंदाज मे नब रचनाशीलता कें जाहि तरहें परिभाषित आ मूल्यांकित करबाक काज ओ केलनि अछि सेहो फेर आन ठाम दुर्लभ अछि। हरे कृष्ण झा आलोचनाक क्षेत्र मे लगभग निष्क्रिय छथि मुदा कहियो कदाल जे हुनकर लेख सब अबैत अछि जे तेहन पारंगामी पाठालोचनात्मकता सं लैस रहैत अछि जे तकरो अन्य उदाहरण दुर्लभ अछि। तहिना सुभाष चंद्र यादव। असल मे, आजादी बादक तमाम समय मे जहिया सं मैथिली साहित्य मे आधुनिकताक प्रतिष्ठापन भेलैक अछि, मैथिलीक तमाम विधा मे काज केनिहार काबिल लेखक सब मे आलोचनात्मक विवेक पूरा प्रस्फुटित भेल भेटैत अछि। कहब जरूरी नहि जे जाहि आलोचनात्मक विवेक कें ल क क्यो लेखक दुनियांक यथार्थ मे सं अपन रचनाक लेल वस्तु तकैत अछि, एक नीक आलोचना लिखबाक लेल सेहो ओही आलोचनात्मक विवेक के खगता रहैत छैक। तें हमरा लोकनि देखैत छी जे मूलतः जे कवि छथि जेना सुकान्त सोम, नारायण जी, वा मूलतः जे कथाकार छथि जेना अशोक, शिवशंकर श्रीनिवास, वा जे कवि-कथाकार छथि जेना विभूति आनंद, देवशंकर नवीन, हुनका लोकनिक आलोचना युगीन ऊष्मा सं भरपूर तं रहिते अछि, आलोचनात्मक विवेक सेहो प्रखर रहैत अछि। जखन कि विश्वविद्यालयक पेशेवर विद्वान सब मे एहि चीजक सिरे सं अभाव भेटत।
रमानंद झा रमण एहि सब गोटे मे सब सं अलग छथि। ओ एखनुक समय मे एकमात्र पूर्णकालिक सक्रिय आलोचक छथि। हुनकर विषय विस्तार बहुत व्यापक छनि। प्रमुख क्षेत्र मुदा अतीते छियनि। जेना रमानाथ बाबू मध्यकालक अनेक अज्ञात, अचर्चित कवि सभक उद्धार केलनि, रमण जी अनेक आधुनिक अचर्चित अल्पचर्चित रचनाकार सभक कृति आम पाठक धरि सुलभ केलनि। हुनकर काज मे निरंतरता सेहो रहल अछि जे हुनकर अवदान कें पैघ बनबैत अछि। अतीतोन्मुखताक बन्हन कें तोड़ि क ओ युगीन रचनाशीलता कें विश्लेषित करबाक प्रयास सेहो केलनि अछि जकरा हुनकर दर्जनो निबंध मे देखल जा सकैत अछि। मुदा रमण जीक दूटा सीमा छनि जाहि कारणें ओ बन्हन तोड़ि क' बहरा नहि पाओल छथि। एक तं नव रचनाशीलताक प्रति अधिक काल असहमतिक स्वर, दोसर अपन रुचि कें अंतिम प्रमाण मानि लेब। एहि पर विस्तार सं कहियो गप हो तं नीक।
आइ स्थिति एहन देखाइत अछि जे पूर्णकालिक आलोचकक भरोसें मैथिली आलोचना कें तहिना नहि छोड़ल जा सकैत अछि जेना विश्वविद्यालयीय पेशेवर आलोचनाक भरोसें नहि छोड़ि सकैत छी। हम देखैत छी जे आलोचनाक रैखिक विकास तं खूब भेल अछि, क्षैतिज विकास मे अवश्य कमी अछि। आलोचना मे कोनो एक नवीन अवधारणा एलाक बाद अनेक दृष्टि सं, अनेक आयाम कें ल क ओकर बारंबार व्याख्याक जरूरत रहैत छैक। अक्सरहां असहमति आ विवादक विना कोनो अवधारणा अपन पूर्ण प्रस्फुटन पर नहि पहुंचि सकैत अछि। एहि सब काजक लेल अनेक व्यक्ति चाही। तकर अभाव अवश्य अछि। एक सं एक स्थापना अबैत छैक आ से किताबक, पत्रिकाक पन्ना मे दबल रहि जाइत छैक
जे लोकनि हल्ला करैत छथि जे आलोचना एखनो नाबालिग अछि से जं हल्ला करबाक बदला ओहि स्थापनाक विरुद्ध एक टिप्पणी लिखि क प्रकाशित करौने रहितथि आ सैह आनो लोक करतथि तं कहिया ने ई बालिग भ गेल रहैत। वैह बात अछि। हमही सब एकरा अपन अकर्मण्यता सं नाबालिग बनेने छियैक आ हमही सब भोकरै छी जे ई नाबालिग अछि।
मैथिली आलोचना कोन तरहें अपन स्पष्ट छवि आ शाफ स्वरूप बना चुकल अछि तकर दृष्टान्त लेल हम नवतुरिया लोकनिक लेखन दिस संकेत करब। जाहि नवागंतुक लोकनिक दृष्टि एखन साफ नहि भेलनि अछि आ ने पक्ष मजगूत, ओहो जखन वैचारिक गद्य लिखै छथि तं आधुनिक आवाज मे, आलोचनाक शैली आ शब्दावली अपनाबैत बजबाक कोशिश करैत छथि। ई अपना आप मे एकटा साक्ष्य थिक जे मैथिली आलोचनाक स्थिति ओते दुर्गत नहि अछि जते भाइ लोकनि प्रचारित करैत छथि।
एतय हम एकटा सूची राखय चाहै छी जाहि मे आजुक समयक चुनौती कें उठा सकबा मे सक्षम किछु लोकक नाम छैक। पहिल पंचक मे रमानंद झा रमण छथि, जिनकर अतंद्र अन्वेषकता कैक बेर हमरा लोकनि कें रमानथ बाबूक स्मरण करा जाइत अछि। विभूति आनंद छथि जे एक नब तरहक आलोचना-भाषा, संस्मरणात्मक आलोचना-भाषाक अन्वेषक आ प्रयोक्ता छथि। संपूर्ण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य मे युगीन साहित्य कें बुझबाक हो तं अशोक छथि, जे मैथिल आंखिक व्यापकताक संधानी छथि। युगीन परिवेश कें रचना कोना अपना संग जज्ब केने रहैत छैक आ तकरा अपन अभिप्राय मे परिणत करै छै, ताहि पर देशंकर नवीनक काज देखबा जोग अछि। तहिना, रचनाक मूल पाठ अपना भीतर कोना हजारो तरहक सामाजिक संवेदना आ तकर अन्तर्कथा धारण केने रहैत छैक ताहि पर शिवशंकर श्रीनिवासक मूल्यवान काज अछि। मैथिलीक ओ पहिल आलोचक छथि जे मूलतः कथालोचकक पहचान बना सकल छथि। दोसर सूची मे पांचटा एहन युवा रचनाकार छथि जे आन आन विधा मे काज करितो समय समय पर अपन आलोचनात्मक लेखन सं आश्वस्त करै छथि। एहि मे छथि पंकज पराशर, श्रीधरम, कमलमोहन चुन्नू, रमण कुमार सिंह आ अजित आजाद। सारंग कुमार आदि सेहो एहि मे शामिल भ सकै छथि जे पहिनेक अपन लेखन सं अपन आलोचकीय क्षमताक प्रति आश्वस्त केने छथि। कहल जाय तं चुनौती उठेबाक असली जिम्मेवारी हिनके लोकनि पर छनि। तेसर सूची मे पांचटा एहन नाम छथि जे मैथिलीक नवागंतुक रचनाकार छथि, आन आन विधा मे लिखै छथि आ जिनकर आलोचकीय क्षमता दिस हमर ध्यान गेल अछि। एहि मे छथि अरुणाभ सौरभ, चंदन कुमार झा, रघुनाथ मुखिया, विकास वत्सनाभ आ । ई युवा लोकनि जं अपन आलोचनात्मक क्षमता संग जं जतन करथि तं अपना जे रचनात्मक लाभ हेतनि से तं हेबे करतनि, मैथिली आलोचनाक सेहो गहमागहमी बढ़तैक।
अपेक्षाक जहां धरि बात छै, से कोनो अलग सं होइत हो से हमरा नहि बुझाइत अछि। स्थिति जे अछि से सैह अपेक्षा दिस इशारा करैत रहैत छैक। जतय स्थिति कमजोर देखै छी, ओतय सब गोटें मिलि क जोर लगा दियैक, सैह भेल अपेक्षा। अपेक्षा तं हमर सब सं पहिल यैह अछि जे मैथिली आलोचनाक अतीतगामिताक स्वभाव कें हम सब बदली। किछु गोटे के अतीत मे गेनाइ सार्थक होइत छैक। जेना मोहन भारद्वाजक डाकवचन लग गेनाइ। मुदा, मात्र एही लेल हम अतीत मे जाइ जे आलोचनाक टूल्स तहियेक बनल छै, आगूक बनले नहि छै, एकरा हम पथभ्रष्टता बुझैत छी। यदि निकष(टूल्स) के नमूना उपलब्ध नहि छै, तं हमरा बनेबाक चाही। असगरे बनायब जं पार नहि लगैत हो तं जतबा बना सकै छी, बना क अगिला कें बढ़ा देबाक चाही।
दोसर बात जे हमरा सब कें ई अपसोच मोन सं निकालि देबाक चाही जे मैथिली मे पूर्णकालिक आलोचक नहि अछि। असल मे युग एहि हिसाब सं मोड़ लेलक अछि जे आगू पूर्णकालिक आलोचक होयबो मुश्किल अछि। क्रिएटिव राइटिंग बेसी चोख भेलैए आ से प्रतिभाशाली सब कें सिद्दत सं आकर्षित करै छनि। आलोचना के कोनो शिक्षा नहि छै। एते एते विश्वविद्यालय मे एते एते शिक्षक मैथिली पढ़ा रहल छथि मुदा ढंग के एकटा आलोचक नहि तैयार भ' सकल। जे अबैत छथि तिनकर साहित्यक समझ क्रिएटिव राइटक स्तर सं बहुते बहुत नीचां रहैत छनि। दोसर छै जे आलोचना लेखन मे लेखक कें बरक्कति नहि छैक। आलोचक कें नापसंद कयल जाइ छै। आलोचना विधा कें द्वितीय श्रेणीक विधा मानल जाइछ। ओहि मे सम्मान नहि छै। देखबे केलहुं जे मोहन भारद्वाज सन के आलोचक कें साहित्य अकादेमी अन्तो अन्त धरि पुरस्कार नहिये देलक आ अपन नकारापन के, नासमझी के सुंदर उदाहरण प्रस्तुत केलक। मोहन भारद्वाजक परोक्ष भेला सं चिन्तित तं सब क्यो छी, मुदा हमरा सभक भाषाई प्रबंधन कोन तरहें सुधरय से नहि क्यो क पाबि रहल छी।
ई एक बात। दोसर जे हरेक क्रिएटिव लेखक कें आलोचना सेहो जरूर लिखबाक चाही। नहि लिखबाक पाछू भय रहैत छैक अपना छुटि जयबाक। अपन नाम लिय' तं सेल्फ प्रोमोशन जकां, तुच्छ काज जकां लगै छै। नहि करियौ तं अपना प्रति अपने कयल अन्याय जकां लगै छै। तें ई भय बहुत वाजिब थिक। मुदा हम तैयो कहब जे लिखबाक चाही कारण आलोचना लिखबाक सुख एक अलग तरहक सुख होइत छैक। ई सुख छै जे हम अपन युग कें देखि रहल छी। द्रष्टा छी हम तं हमरा अपने ओहि दृश्य मे किएक हेबाक हेबाक चाही? ई सुख हमरा आलोचना द सकैए। बाकी आगूक लोक जखन देखता तं अपन सुधारि क देखता। ई हुनक टेन्सन छियनि। हमरा लिखबाक चाही।
नब सं नबो लोक कें आलोचना लिखबाक चाही। बाधा जे पैदा करैत अछि से से छी अल्पज्ञताक भय। आलोचना लिखबा सं पहिने खूब पढ़ि लेबाक मोन करै छी। आब झंझट ई छै जे पढ़बाक आनंद एक अलगे संप्रदाय के आनंद थिक। ओकरा सामने मे लिखनाइ तुच्छ। एहि प्रकारें अल्पज्ञताक भय आलोचनाक उत्साह कें ध्वस्त क दैत छैक। तें युवा कें अपना पीढ़ीक बारे मे लिखबाक चाही। ओतय अल्पज्ञताक खतरा न्यून रहै छै। एहि सं असली फैदा ई छै एहि सं आलोचनाक वातावरण सुरभित लगै छै। क्यो आइ पर लिखि रहलाहे, क्यो पछिला दशक पर, क्यो क्यो अतीतो मे आवाजाही बनौने छथि। एखन जे मुरदनी छाएल छै तकर एहि सं निस्तार होयत।
तहिना, पुरान प्रतिष्ठित कैक गोट रचनाकार एम्हर फेर सं सक्रिय भेल छथि जेना ललितेश मिश्र, महेन्द्र, गंगानाथ गंगेश आदि। हिनका लोकनिक आलोचकीय क्षमता अचूक छनि। रामदेव झा अपन लेखन आब स्थगित क चुकल छथि। मुदा, कतेक नीक होइत जे क्यो गोटे तैयारी क क हुनकर आ हुनका सन आनो लोकक इन्टरव्यू करितथि। हमरा सभक जबाना मे नब लेखक पुरान रचनाकार सब सं बराबर इन्टरव्यू लेथि, तकर प्रकाशन सं सबहक उपकार होइत छल। सुभाष चंद्र यादव, सुकान्त सोम आ हरे कृष्ण झा आइ लिखि नहि पाबि रहल छथि तं अपेक्षा अछि जतबे होइन लिखथु।
मोहन भारद्वाज एक समय मे 'मैथिली आलोचना' नाम सं एक पत्रिका निकालब शुरू कयने रहथि, से मोन पड़ैत अछि तं होइत अछि जे एहि खगता कें सेहो क्यो गोटे उठाबथु।
मैथिली आलोचना कें बेकार आ आलोचक कें पूर्वाग्रही कहब बहुत आसान छै। ततबे आसान जतबा गांधी जी कें बैमान कहब। क्यो उनटि क' उपराग देबय नहि आओत, ने गांधी जी दिस सं ने आलोचना दिस सं। मुदा, मोन राखल जाय, यैह समय होइ छै जखन विवेकी जन कें मूल जड़ि पकड़य पड़ैत छै आ अपन भूमिका तय करय पड़ैत छैक।