Tuesday, June 29, 2021

बाबा नागार्जुन का अपना शहर


 बाबा नागार्जुन का अपना शहर


तारानंद वियोगी


जेठ पूर्णिमा के दिन बाबा नागार्जुन का जन्म हुआ था। 1911 ईस्वी की यह पूर्णिमा 11 जून को पड़ी थी। लेकिन वह ताउम्र अपना जन्मदिन, 11 जून को नहीं, जेठ पूर्णिमा को ही मनाते। अलग-अलग वर्षों में यह अलग-अलग तारीखों को पड़ती थी। यायावर आदमी थे। भारत के कितने ही शहरों में उनके प्रेमियों ने उनका जन्मदिन उनकी संगत में मनाया होगा। सबसे ज्यादा बार अपने जन्मदिन पर यदि वह किसी एक शहर में उपलब्ध रहे भी, तो वह हिमालय का सुदूरवर्ती कस्बा जहरीखाल था, जहां उनके अत्यन्त प्रिय वाचस्पति रहते थे। लेकिन, वह भी उनका अपना शहर नहीं था। खास अपना जिसे कहा जा सके वह शहर दरभंगा भी नहीं था। दरभंगा से उन्हें कई शिकायतें थीं। महानगरों में उन्हें कलकत्ता पसंद था। लेकिन, अपना शहर जिसे कहा जाए वह तो पटना ही था।

               पटना का जुड़ाव नागार्जुन के जीवन की  लगभग समस्त मोड़ों से रहा है। जब वह एक बौद्धभिक्षु के भेस में आकर स्वतंत्रता-संग्राम की एक अपर धारा, किसान आन्दोलन से जुड़े, सहजानंद सरस्वती और राहुल सांकृत्यायन के साथ सक्रिय राजनीति में उतरे, तब भी इन सब कार्यों की आधारभूमि पटना शहर ही थी। यहीं से वह राहुल जी के साथ अमवारी भी गये थे, सुभाषचन्द्र बोस के साथ लगभग सारे बिहार घूमकर उनकी सभाएं करवाई थीं, यहां तक कि आजादी के बाद पहली बार जब गांधी जी की हत्या पर कविता-सिरीज लिखने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया तो पटना जेल में ही बंद किए गये। दूसरी ओर, बिहार का सर्वोच्च सम्मान राजेन्द्र शिखर सम्मान मुख्यमंत्री के हाथों जहां उन्हें प्रदान किया गया वह जगह भी पटना ही था।

               1940 के ही दशक में जब नागार्जुन ने सक्रिय राजनीति के स्थान पर साहित्य-लेखन को अपना प्रधान कार्य बनाया, उन्होंने अपने रहने की जगह इलाहाबाद चुनी। लेकिन परिवार गांव में रहता था जहां से इलाहाबाद दूर पड़ता था। उन्होंने व्यावहारिक निर्णय लिया कि ऐसी जगह रहें जहां से कुछ घंटों के सफर से गांव पहुंचा जा सके। वह जगह पटना था।  अक्सर वह भारत भर की यात्रा करते रहते थे, लेकिन अपना एक डेरा पटना में जरूर रखते। पटना के बारे में उनकी राय थी कि यहां समूचा बिहार बसता है। बिहार के सभी सांस्कृतिक क्षेत्रों की भाषाएं, रहन-सहन, खान-पान यहां एकाकार दिखता था। वह खुद भी जैसी भोजपुरी बोलते, वैसी ही मगही। जबकि उनकी मातृभाषा मैथिली थी। मैथिलों की प्रतिनिधि संस्था चेतना समिति की स्थापना उन्होंने पटना में की, जिसके लिए जाने कितने संघर्ष उन्हें करने पड़े। वह कहते थे-- पटना क्या है? बिहार का एक विशाल गांव है। 

               वह जमाना पटना के इतिहास में भी साहित्यिक सक्रियता का स्वर्णकाल था। राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाएं पटने से निकलती थीं। कई महारथी थे जिनके पास अपना सुविधासंपन्न प्रेस था और वे साहित्यिक पत्रिकाएं ही निकालते थे। 'बालक' समूचे देश में बाल-साहित्य की सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिष्ठित पत्रिका थी, जिसके नागार्जुन आगे चलकर संपादक भी हुए थे। ऐसी ही एक पत्रिका 'अवंतिका' थी। इन सब में नागार्जुन नियमित लिखते जो उनकी आय का एकमात्र स्रोत होता था। ग्रन्थमाला कार्यालय यहां उनका ठिकाना बना और इसी के संचालक रामदहिन मिश्र ने पहली बार उनसे उपन्यास लिखवाया था। मिश्र जी हिन्दी के लेखक-प्रकाशक थे जबकि नागार्जुन अपना पहला उपन्यास मैथिली में लिखना चाहते थे। रामदहिन मिश्र नागार्जुन के भीतर छिपे एक बड़े उपन्यासकार को देख पा रहे थे। उन्होंने पहली बार उस मैथिली किताब को छापा जिसकी सारी प्रतियां चंद महीनों में बिक गयीं। उधर मिथिला में तो इस  उपन्यास ने हाहाकार ही मचा दिया था। वह 'पारो' था। 

               15 अगस्त 1947 को, आजादी के दिन नागार्जुन पटने में थे, और उस दिन उन्होंने एक यादगार कविता लिखी थे। अपने पार्टी-लाइन से अलग जाकर स्वतंत्रता दिवस के इस पहले सूर्योदय को उन्होंने बहुत उम्मीद से देखा था। दूसरे लोग जहां काला दिवस मना रहे थे, नागार्जुन ने इस अवसर को उत्सव की तरह लिया था, मिठाई बंटवाई थी। सत्ता के वह लगातार अतन्द्र आलोचक बने रहे। यही कारण है कि आगे जब लोकतंत्र को कुचलने का प्रयास हुआ, बिहार से ही संपूर्ण क्रान्ति का आह्वान किया गया। जयप्रकाश नारायण ने अपने आन्दोलन में बौद्धिकों और संस्कृतिकर्मियों, साहित्यिकों की भागीदारी मांगी। पार्टी-लाइन से बाहर जाकर नागार्जुन एक बार फिर से आन्दोलन में कूद पड़े थे। गांधी मैदान में आयोजित जेपी की वह जो ऐतिहासिक सभा थी, जिसके बारे में प्रसिद्ध है कि उतने लोगों का एक साथ जुटान आज तक कभी गांधी मैदान में न हो सका, जेपी ने अपने भाषण की शुरुआत इन्हीं संबोधन शब्दों से की थी, 'आदरणीय नागार्जुन जी, फणीश्वरनाथ रेणु जी....'

               पटना की गली-गली को नागार्जुन पहचानते थे, और गलियां उन्हें पहचानती थीं। आज जब वह नहीं हैं और आधा पुराना आधा नया पटना अपनी नयी पहचान के लिए उतावला बना हुआ है, नागार्जुन की बातें शिद्दत से याद आती हैं।

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