Saturday, January 11, 2025

जाॅर्ज ग्रियर्सन आ मैथिली साहित्य मे आधुनिकताक प्रवर्तन


 

--डाॅ.तारानंद वियोगी

7 जनवरी 1851 कें ग्रियर्सनक जन्म डबलिन(आयरलैंड) मे भेल छलनि। कृपया ध्यान राखी, इंगलैंड मे नहि जे कि भारत कें अपन उपनिवेश बना क' राज करैत छल; आयरलैंड मे, जे कि भारते जकां तहिया इंगलैंडक एक उपनिवेश छल।  ट्रिनिटी काॅलेज, कैम्ब्रिज मे हुनकर शिक्षा-दीक्षा भेलनि। काॅलेज मे हुनकर जे गुरु रहथिन-- राॅबर्ट एटकिन्सन, से संस्कृत भाषाक विचक्षण विद्वान रहथि। एतय धरि जे पाणिनिक अष्टाध्यायी संपूर्ण हुनका कण्ठस्थ रहनि जकर प्रयोग मे ओ पटु छला। एकरा अतिरिक्त हुनका ग्रीक, चीनी आ तमिल भाषा पर सेहो असाधारण अधिकार रहनि। अइ सब कारणें कैक भारतीय भाषा सब ओ ट्रिनिटी काॅलेज मे अध्ययनेक समय सीखि गेल छला। मात्र बीस बरखक अवस्था मे, 1871 मे ग्रियर्सन ICS कम्पीट केलनि। आरंभिक प्रशिक्षणक बाद 1873 मे ओ भारत आबि गेला। विवरण भेटैत अछि जे भारत विदा हेबा सँ पहिने जखन ओ अपन गुरु एटकिन्सन सँ भेंट करय गेला, गदगद होइत गुरु हुनका निर्देश देने रहनि जे भारत मे रहैत भारतक भाषा सब पर ओ जरूर उल्लेखनीय काज करथि। हुनकर व्यावहारिक प्रशिक्षण बंगाल मे भेलनि। जैसोर मे ओ डिप्टी मजिस्ट्रेट बनाओल गेला आ जखन 1874क भीषण अकाल पड़ल छल तँ हुनका रिलीफक काज लेल पटना पठाओल गेलनि। ज्ञात हो जे अकाल तँ ताहि दिनक भारत मे अक्सरहां पड़ैत छल, मुदा अइ अकालक महत्व दू बात कें ल' क' विशेष अछि। एक तँ अही समय मे ब्रिटिश सरकार पहिला पहिल फेमिन कोड (अकाल संहिता) बनौने छल। दोसर, अही अकाल पर मैथिल कवि फतूरलाल 'कवित्त अकाली' कविता लिखने छला, जकरा मैथिली कविता मे आधुनिकताक प्रथम प्रवर्तन करबाक श्रेय हमही नहि, विलक्षण विचारक काञ्चीनाथ झा किरण सेहो देने छथिन। ग्रियर्सनक अगिला किछु पोस्टिंग हावड़ा, दिनाजपुर, मुर्शिदाबाद मे भेलनि। अगस्त 1877 मे हुनकर पदस्थापन भागलपुर भेलनि आ तीने मासक बाद ओ मधुबनी पठाओल गेला जतय लगातार तीन साल धरि ओ सबडिवीजनल मजिस्ट्रेटक रूप मे काज केलनि। 1880 मे ओ छुट्टी पर देश गेला आ अही छुट्टी मे अपन प्रेमिका लूसी संग विवाह केलनि। इहो जानब रोचक अछि जे हुनकर गुरु एटकिन्सन वायलिन बजेबाक बेस शौकीन रहथि, जिनका सँ ग्रियर्सन वायलिन बजाएब सेहो सिखने रहथि। अपन किशोरावस्थे सँ एक संगीत-क्लब के मेम्बर रहथि, जतय ओ वायलिन बजाबथि आ हुनकर यैह सौख हुनका लूसी संग प्रेमक आधार बनल रहय। इहो मालूम हुअय जे रिटायरमेन्टक बाद जखन ओ देश घुमला तँ पुस्तकादि लेखनक अतिरिक्त ओ एक आर्केस्ट्रा सेहो ज्वाइन केने रहथि जतय ओ वायलिन बजाबथि। खैर, 1880 मे विवाहक बाद जखन ओ भारत घुरला तखनो हुनकर पोस्टिंग लगातार बिहारे मे बनल रहलनि। ओ पटना आ गयाक कलक्टर रहला। स्कूल इंस्पेक्टरक अतिरिक्त ओ अफीम अधीक्षकक पद पर सेहो रहला। मुदा, मिथिला मे बिताएल हुनकर समय वैह तीन साल रहलनि, जखन हुनकर उमेर 26 सँ 29 साल रहनि आ ओ कुमार रहथि। हुनकर जे फोटो हमरा सब कें भेटैए से एहि उमेरक नहि कोनो भेटैए। मुदा, मैथिली वा मिथिला कें ल' कयल गेल हुनकर काज प्रमुखत: अही अवस्थाक थिक।

गुरु एटकिन्सन जे ग्रियर्सन कें टास्क द' क' भारत पठौने रहथिन, तकर कार्यान्वयन ओ तखने शुरू क' देने रहथि जखन कलकत्ता पहुंचला। ई सब वस्तु एशियाटिक सोसाइटीक जर्नलक तत्कालीन अंक सब, जे कि इन्टरनेट पर सेहो उपलब्ध छै, मे छपल‌ देखल जा सकैए। आ एकर अंतिम परिणति हमसब लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियाक रूप मे देखैत छी, जकर सार-लेखन एगारह खंड आ चौबीस वोल्यूम मे प्रकाशित भेल। ई एक एहन असंभव-सन काज छल जे ने ग्रियर्सन सँ पहिने संसार भरि मे क्यो क' सकल रहथि आ ने हुनका बाद क्यो कतहु क' सकल छथि। एहि वोल्यूम सब मे भारतक 544 बोली आ 179 भाषाक व्याकरण सहित अनुप्रयोग शामिल छै। एतबे नहि, जाबन्तो भाषा-उपभाषाक नमूनाक ओ ध्वनि-रिकाॅर्डिंग सेहो करौने रहथि, जे आइयो इंडिया आफिस लाइब्रेरी मे उपलब्ध छै। मैथिली पर ओ बहुतो काज केलनि। कम सँ कम तीन बेर तं एकर ओ व्याकरणे लिखलनि। लेकिन तकर बादो, लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियाक खंड पांच वोल्यूम दू ओ बिहारी भाषा, मुख्यत: मैथिली कें समर्पित केलखिन। हुनकर समझ रहनि जे हिन्दी अइ प्रान्त लेल तहिना एक विदेशी भाषा थिक, जेना अंग्रेजी। हुनकर प्रस्ताव रहनि जे मैथिली, भोजपुरी आ मगही कें मिला क' एक काजक भाषा, बिहारी भाषा, तहिना बनाओल जा सकैत अछि जेना अतीत मे कहियो पालि बनल छल। हुनकर काज मे मैथिलीक लेल सब सँ पैघ बात ई छै जे मैथिली 544 बोली मे नहि, 179 भाषा मे सँ एक के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त केने अछि।

मैथिली बोली नहि भाषा थिक, अइ बातक बहुत पैघ महत्व कोना अछि, तकर इतिहास मे चली तँ विषय स्पष्ट हैत। इस्ट इंडिया कम्पनी सँ हटा क'  ब्रिटिश शासन मे भारत कें एलाक बाद 1858 मे ICS के आरंभ भेल छल। पहिल बैचक बाद तेरह साल बीतल रहय, जखन ग्रियर्सन ICS अफसर बनल रहथि। अइ बीच, 1870 मे ई जरूरी बूझल गेल जे शासनक मजगूती लेल स्थानीय भाषा सभक ज्ञान रहब उच्चाधिकारीक लेल अनिवार्य रहत। स्थानीय भाषा सब मे वर्नाकूलर कोर्स चालू कयल गेल। ध्यान देबाक बात थिक जे बंगला, उर्दू आदि वर्नाकूलर कोर्स मे शामिल छल, मुदा अइ मे मैथिली नहि छल। 1874 मे ग्रियर्सन अपनहु वर्नाकूलर परीक्षा मे शामिल भ' उत्तीर्णता प्राप्त क' लेलनि। मधुबनी पहुंचलाक थोड़बे दिनक भीतर ओ मैथिली धाराप्रवाह बाजब सीखि गेला आ एत्तुका भाषा, साहित्य आ लोक-परंपरा कें निकट सँ देखलनि तँ हुनका सामने बिलकुल स्पष्ट भ' गेलनि जे मैथिलीक एक विशिष्ट भाषा-संस्कृति अछि आ वर्नाकूलर कोर्स मे शामिल हेबा सँ एकरा वंचित राखब गलत अछि। मैथिली मे कयल गेल हुनकर समस्त कार्य कें अइ नजरिया सँ देखबाक चाही तखनहि एकर असल मर्म उद्घाटित भ' सकैत अछि।

एशियाटिक सोसाइटी जर्नलक 1880 इस्वीक अतिरिक्तांक, जे 1881 मे प्रकाशित भेल, मे ग्रियर्सनक पुस्तक "एन इंट्रोडक्शन आफ मैथिली लैंग्वेज आफ नाॅर्थ बिहार-- कन्टेनिंग ए ग्रामर, क्रिस्टोमैथी एंड वोकेबलरी' प्रकाशित भेल। एकर दू भाग छल-- पहिल भाग मे मैथिलीक व्याकरण छल, आ दोसर मे अनुवाद आ टिप्पणी सहित मैथिली रचना-संचयन तथा शब्दकोश। कुल मिला क' ई पोथी 423 पृष्ठक रहै। पहिल खंड व्याकरण, पंडित गोविन्द झाक कयल अनुवाद संग डाॅ. रमानंद झा रमणक संपादकत्व मे चेतना समिति, पटना सँ छपल अछि आ दोसर भागक पुनर्मुद्रण डाॅ. हेतुकर झाक संपादकत्व मे कल्याणी फाउन्डेशन, दरभंगा सँ भेल अछि।

अइ सभक अतिरिक्त ग्रियर्सन कें संपूर्ण जीवन मे 952 गोट अज्ञात भाषा-कविक रचना कें अनुवाद एवं टिप्पणीक संग प्रकाशित करबाक श्रेय देल जाइत छनि। मोन राखी जे अही मे मनबोधक अमरकृति हरिवंश उर्फ कृष्णजन्म, आ उमापतिक कृति 'पारिजातहरण' सेहो शामिल अछि, जकरा आइ हमसब मैथिलीक गौरवग्रन्थ मानै छियै। आ एतबे किएक, मैथिली लोकगाथा दीनाभद्रीक संपूर्ण पाठ, फतूर कविक कवित्त अकाली, मर्शिया-गीत, नाग-गीत, दू दर्जन सँ बेसी वैष्णव-कवि लोकनिक रचना आदि हुनकर खोज रहनि। विद्यापति कें ल' क' कयल गेल हुनकर काज अलग सँ रेखांकित करबाक योग्य अछि।

हमसब अवगत छी जे 1875 सँ पहिने धरि दुनिया विद्यापति कें एक बंगाली भक्तकविक रूप मे जनैत छल। मिथिलाक स्त्रिगण, शूद्र नटुआ आ मैथिल शिवभक्त लोकनि मे विद्यापतिक पद प्रचलित छल जरूर, मुदा मैथिल विद्वान आ पंडित लोकनिक बीच विद्यापति कें ल' क' कोनो श्रद्धा नहि छल, ने धर्मशास्त्रादि मे हुनका प्रमाण मानबाक चलन छल। एतय धरि जे आगू जखन विद्यापतिक ग्रन्थ सभक खोज शुरू भेल तँ एक पुरुषपरीक्षा कें छोड़ि क' हुनकर कोनो ग्रन्थक पांडुलिपि मिथिला मे नहि पाओल गेल। विडंबना ई छल जे मिथिलाक प्रथम इतिहास-लेखक बिहारीलाल फितरत अपन उर्दू इतिहास-पुस्तक 'आईना-ए-तिरहुत' (1881) मे विद्यापतिक बारे मे  यैह पता लगा सकल रहथि जे विद्यापति बहुत भारी नैयायिक रहथि, तें राजा शिवसिंह हुनका बिसफी ग्राम दान मे देने रहथिन। आइ हमसब नीक जकां अवगत छी आ पं. गोविन्द झा लिखनहु छथि जे विद्यापति और जे किछु रहथु, हुनकर न्यायशास्त्र पढ़बाक वा एहि विषयक ज्ञाता हेबाक कोन्नहु टा साक्ष्य उपलब्ध नहि अछि। 1875 मे स्वयं एक बंगाली विद्वान राजकृष्ण मुखोपाध्याय एहि बातक उद्घाटन केने रहथि जे विद्यापति बंगाली नहि छला, मिथिलाक छला, मैथिल छला। 'विद्यापति' शीर्षक सँ हुनकर ई लेख एक बंगला पत्रिका 'बंग-बन्धु'क ज्येष्ठ, 1875क अंक मे छपल छल। पहिल विद्वान यैह राजकृष्ण मुखोपाध्याय रहथि जे विद्यापतिक असल परिचय जनबाक लेल अन्यान्य स्रोतक अतिरिक्त मिथिलाक पंजी-ग्रन्थक सेहो उपयोग केने रहथि। पैघ बात ई भेल जे जाॅन बीम्स, जे ग्रियर्सन सँ सीनियर, आरंभिक बैचक आईसीएस अफसर छला, मुखोपाध्यायक एहि लेखक अंग्रेजी मे सार-लेखन क' इंडियन एंटीक्वेरी जर्नल मे अक्टूबर, 1875 मे प्रकाशित करबा देलनि। केवल बंगाले नहि, सौंसे संसार मे कोहराम मचि गेल जे विद्यापति बंगाली नहि, मैथिल छथि। राजकृष्ण मुखोपाध्यायक जे गंजन बंगाली लोकनि केलखिन से तँ अलग, एहि घटना-क्रमक बाद जखन ग्रियर्सनक पदस्थापन मिथिला मे भेलनि तँ हुनको पर चतुर्दिक दबाव रहनि जे ओ विद्यापतिक काज कें आगू बढ़ाबथि। दरभंगा-राजक पुस्तकालय बहुत संपन्न छल, मुदा ग्रियर्सन कें ओतय काजक चीज किनसाइते किछु भेटल होइन। ओ सौराठ गेला जतय विद्यापतिक वंशधर लोकनि आब वास करैत रहथि। ओ स्वयं लिखलनि अछि, वंशधर लोकनि जखन हुनका ई कहलकनि जे हमरा  सब लग विद्यापतिक किछुओ किछु टा नहि अछि तँ यूरोपीय संस्कृति मे पोसाएल ग्रियर्सन आश्चर्यक सागर मे मानू निमग्न भ' गेला। उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:-- ई जे कहबी कहल जाइछ से ओहिना नहि। तिरहुत मे ता  रेल चलल लागल रहय। ट्रेन मे गीत गाबि क' भीख मांगबाक रोजगार सेहो ताधरि प्रचलन मे आबि गेल छल। निराश ग्रियर्सन ट्रेन मे भीख मंगनिहार आन्हर गायक लोकनि सँ जे गीत सब संकलित करौलनि, ताहि मे सँ 82 टा गीत विद्यापतिक छलनि जकरा ओ क्रिस्टोमैथी मे संकलित केलनि। सब गोटे जनैत छी जे बाद मे बंगाल, नेपाल आ मिथिला मे भेटल विद्यापतिक समस्त गीत कें एकत्र कयल गेल तँ पाओल गेल जे बांकी गीत सब तँ बंगालो मे भेटल रहै, नेपाल आ मिथिलो मे, लेकिन 55 टा गीत एहन छल जे जँ ग्रियर्सन एकरा संकलित नहि क' लेने रहितथि तँ ई सब गीत आइ लुप्त भ' गेल रहैत, कारण कोन्नहु दोसर स्रोत सं ई सब गीत अप्राप्त अछि। एहि सँ ग्रियर्सनक काजक स्टैन्डर्ड के किछु अनुमान कयल जा सकैए। जखन कि एक मिथ्या भ्रमक शिकार जँ ग्रियर्सन नहि भेल रहितथि, तँ हमर ख्याल अछि जे सब मिला क' जते विद्यापतिगीत जमा भेल, असगर ग्रियर्सन ओतबा क' लेने रहितथि। मिथ्या भ्रम की? यैह जे विद्यापति वैष्णव भक्तकवि छला, जेना कि हुनका बंगाली लोकनि दीक्षित केने रहनि। अपन एही भ्रमक कारण ओ ने तँ नटुआ सब सँ गीत संकलन क' सकला जे लोकनि विदापत नाच आदि मे ई गीत गबै छला, आ ने मिथिलाक स्त्रिगण सँ जे कि हरेक अवसर पर कोरस मे विद्यापति गीत गाओल‌ करथि।

हमसब अइ बात सँ अवगत छी जे अपन लिंग्विस्टिक सर्वे मे मैथिलीक अनेक प्रभेद कें स्वीकार करैत ग्रियर्सन ब्रिटिश जबानाक चंपारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, भागलपुर, पूर्णिया, मुंगेर, संथालपरगनाक अतिरिक्त नेपालक सौंसे तराइ क्षेत्र कें मैथिलीभाषी क्षेत्रक रूप मे चिह्नित केने रहथि। आइयो झूठमूठ के दावा केनिहार लोकनि एतबा क्षेत्र बतबिते छथि। मुदा, आइ क्यो तत तत जिला निवासी लोकनि, जे कि आजुक समस्त उत्तर बिहार तँ भेबे केलै, झारखंड आ नेपालक सेहो एक पैघ भाग भेलै, एहि ठामक निवासी लोकनि अंगिका, वज्जिका, अवधी, मगही आदि भाषा मे बंटि गेल छथि। एकर अस्सल कारण की भेलै, आ मैथिलीक महान चिन्तक ग्रियर्सनक कसौटी सँ आगूक विद्वान चिंतक लोकनि कोना पाछू हटि गेला, आ तकर बहुत खराब प्रतिफल की कोना मैथिली कें भोगय पड़लै, ताहि पर हम की प्रकाश देब, सब गोटे देखिये रहल छी।

ग्रियर्सनक मैथिली व्याकरणक अपन कयल अनुवादक भूमिका मे पं. गोविन्द झा साफ लिखलनि अछि जे मैथिलीक जँ क्यो अस्सल पाणिनि भेला तँ से ग्रियर्सन भेला, महावैयाकरण दीनबन्धु झा नहि, जे कि गोविन्द बाबूक पिता रहथिन आ जिनका 'मैथिलीक पाणिनि' मानल जाएब पंडित-गोष्ठीमान्य रहै। पंडित गोविन्द झा एहन मानबाक कारण सेहो बतबैत छथि। मुख्यत: दू कारण। पहिल तँ ई जे ग्रियर्सन कतहु स्वयं सृष्ट (अपन बनाएल) उदाहरण नहि दैत छथिन। एकर बदला मे ओ दृष्ट (प्रयोग होइत देखल जाइत) उदाहरणक प्रयोग केने छथि। दोसर, जे कि कदाचित सर्वाधिक मूल्यवान अछि, से ई जे महावैयाकरण जीक व्याकरण एकवर्गीय छनि, संभ्रान्त ब्राह्मण समाज द्वारा प्रयुक्त भाषाक विवेचन मात्र, जखन कि ग्रियर्सन सौंसे मिथिला समाज, जाहि मे कि सब धर्म, सब जाति, सब क्षेत्र आ सब समाजक शब्द कें लेलनि। एक अखंड मिथिला, जे केवल ब्राह्मणक नहि, दलित, मुसलमान, आदिवासी आदि सभक छै, तकर रूप ग्रियर्सनक आंखिक सोझा छलनि। स्वयं पं. गोविन्द झा ई बात लिखने छथि, तें अइ पर आगू हमर किछु कहब व्यर्थ हैत, तें हम आगू बढ़ैत छी। हं, एकटा बात जरूर कहब जे ग्रियर्सन समान अग्रचेता चिन्तक कें निष्फल करबाक संपूर्ण श्रेय दरभंगा राज, ओकर छत्रच्छाया मे पोसाएल पंडित वर्ग, आ दरभंगा-मधुबनीक मैथिली पंडितक हुंठता आ दबंगता कें छैक।

ग्रियर्सनक नजरि मे मिथिलाक ई जे भाषिक अवस्थिति छलैक, तकरा देखबाक लेल हुनकर व्याकरणक अतिरिक्तो बहुत चीज छै जकरा देखल जा सकैए। जेना क्रिस्टोमैथी मे कयल गेल रचना-संचयन कें लेल जाय। सब सँ पहिने ओ दैनिक व्यवहार मे प्रयुक्त कयल जाइत भाषाक उदाहरणक रूप मे "श्री चंपावति निकट दुरमिल झा लिखित पत्र" कें राखलनि। मतलब जे एहि ठामक लोक मे आपसी पत्राचारो धरि मे मैथिलीक उपयोग करबाक चलन छैक। के छलि चंपावति, के छला दुरमिल झा, हमरा सब कें किछु बूझल नहि होइत अछि। ग्रियर्सनो कें किनसाइते बूझल हेतनि। एक मैथिल पिता अपन विधवा बेटी कें जे पत्र लिखने रहथि, सैह कोनो तरहें हुनका धरि पहुंचल रहनि। हुनकर नैतिक आदर्श ई छलनि जे बनौआ (स्वयंसृष्ट) ओ कतहु नहि राखलनि, सदैव दृष्ट प्रयोग पर आश्रित रहला, जकरा कि अवश्ये पूर्ण तर्कसंगत, पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति कहबैक। एकरा बाद ओ 'अथ गीत सलहेसक' रखैत छथि। मने शूद्र वर्ग, दलित वर्ग के धार्मिक क्रियाकांडक भाषा आइयो कोना मैथिलिये थिक, ताहि दिस नजरि दियौलनि। ई बात भिन्न जे सलहेस गीत कें ओ गद्य मानलनि, से अइ कारणें जे मिथिलाक लोकपरंपराक जाबन्तो वैशिष्ट्य सँ ओ ओतबे परिचित भ' सकल रहथि, जतबा कि एक विदेशी शासकक लेल संभव छल। हुनकर शिष्य सुनीति कुमार चटर्जी तँ मिथिलाक लोकपरंपरा सँ अनजान हेबाक कारण वर्णरत्नाकर कें सेहो गद्यग्रन्थे कहलखिन। कोनो आश्चर्य नहि जे अइ मे हुनका संग ग्रियर्सनोक सहमति होइन, कारण तावत (1940) धरि ओ जीवित छला।
           क्रिस्टोमैथीक पद्यखंडक आरंभ गीत मरसीआ सँ कयल गेल अछि। मर्सिया अथवा मरसीआ मुसलमान लोकनिक गीत छियनि, जे कर्बला मे घटित घटना आ इमाम हुसैनक शहादत के स्मृति परक गीत थिक, जकर एक प्रचलित नाम झरनी सेहो छियैक। मुहर्रम एहि गीत सभक गायनक खास अवसर होइत छैक, यद्यपि कि एकर धुन पर लिखल गीत आनो अवसर पर गाओल जाइछ। मैथिली भाषा कोना हिन्दू आ दलितक संग संग मुसलमानोक जीवन मे शामिल छैक, सैह देखाएब एतय ग्रियर्सनक इष्ट छनि। मरसीआ गीतक बाद 'गीत नाग' संकलित छैक। हम सब अवगत छी जे आर्यीकरण सँ पहिने मिथिलाक जे मूल निवासी लोकनि छला, ओहि मे सँ एक जाति नाग सेहो छल। ई लोकनि आदिवासी छला। हमसब अहू बात सँ अवगत छी जे नाग जातिक समाहार ब्राह्मणधर्मक भीतर करबाक उद्देश्ये सँ अपना युग मे विद्यापति व्याडिभक्तितरंगिणी लिखने रहथि। एखन जकरा हमसब मैथिल संस्कृति कहैत छिऐ ताहि महक बहुतो रास चलन आदिवासी नाग लोकनिक संस्कृति सँ आएल अछि-- जेना विवाह मे सिन्दूरदान, ई आर्येतर प्रभाव थिक। मिथिलाक मूलनिवासी लोकनिक जीवन मे कोना मैथिली शामिल छै, से देखाएब एतय ग्रियर्सनक इष्ट छलनि। एतेक रास जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय कोना मैथिली ल' क' जिबैत छथि, से सब देखेलाक बाद ग्रियर्सन समकालीन साहित्य-लेखनक नमूना रखलनि अछि। ओहि समय मे जीवित कवि फतूर लालक 'कवित्त अकाली' वैह कविता थिक। एहि सब अध्यायक अनुवाद आ टिप्पणी लिखबाक बाद ग्रियर्सन दरबारी मैथिली साहित्यक नमूना रखैत छथि जाहि मे पूर्व युगक महाकवि विद्यापति संकलित छथि आ जीवित कवि हर्षनाथ झा। ग्रियर्सन कमेन्ट करैत छथि जे मोटामोटी विद्यापति जे अपना युग मे लिखलनि, तकरे अनुकरण करैत हर्षनाथ झा एखनो लिखि रहल छथि। जखन कि कवित्त अकाली पर टिप्पणी करैत ओ लिखने छला जे महाराज कें किनसाइते एहि कविक नामो सुनल होइन। एतय धरि जे ब्रिटिश शासक लोकनिक सफल रिलीफ-व्यवस्थाक प्रशंसा केनिहार एहि कविक बारे मे सरकारी अधिकारी लोकनि सेहो अइ कविताक प्रकाशन भेलाक बादे जानि सकता।

क्रिस्टोमैथीक संग जे ग्रियर्सन शब्दकोश छपौने छथि, सेहो अद्भुत अछि। पहिनहु कहलहुं जे जतबा जे किछु मैथिली कें ल' क' लिखलनि से सबटा दृष्ट प्रयोग छल, सृष्ट नहि। हुनकर कोशक एक खास गुण छनि जे हरेक शब्दक प्रयोग लेल ओ उदाहरण वाक्य देने छथि। एहि क्रम मे 300 सं बेसी फकड़ा, कहबी आ लोकोक्ति प्रयोग केने छथि। ई विशेषता आन कोनो मैथिली कोश मे अहां कें नहि भेटत। खूबी ई जे एहि सभक संचय ओ समस्त समाज सं, मतलब सब धर्म सब जातिक समाज सं केने छथि। हमरा सभक स्वप्नक जे मिथिला थिक, आश्चर्य लागत जे ग्रियर्सन ओकरे विद्यमान स्वरूप कें रखने छथि। जकर स्वप्न हमसब आइ देखै छी, से अखंड मैथिली समाज तहिया सद्य: विद्यमान रहै। ई बात भिन्न जे मिथिलाक सामंत आ मैथिलीक मैनेजर लोकनिक कुचालि सँ ओहि समाज सँ मैथिली आइ बहुत दूर आबि गेल अछि। आगू हम सब देखैत छी जे सवर्ण समाज सँ ग्रियर्सन जे वस्तु उठौने छला से सब तं आगूक सब लोकोक्ति संग्रह मे बनल रहल, मुदा पछड़ल समूहक जे वस्तु रहैक से लुप्त भ' गेल।
           सब गोटे अवगत छी जे लोक-साहित्य हमेशा प्रगतिशीले हो से जरूरी नहि होइत छैक। उदाहरणक लेल कही जे सब जातिक बीच परस्पर विद्वेषी स्वभावक लोकोक्ति प्रचलित रहैत छैक। जेना बनियांक जी धनियां, जेना तौला भरि अनाज भेल/ जोलहा कें राज भेल, जेना कल कलवार/ खल्ला ओदार, जेना बुड़बक मीयां कें मांझ ठाम बथान आदि। ई सब कहबी, सबटा किताब मे, सबटा संग्रह मे भेटत। मुदा,  एकटा कहबी हम सुनबै छी जे ग्रियर्सन छोड़ि क' कत्तहु नहि भेटत। एकटा शब्द 'सील' के प्रविष्टि लैत ग्रियर्सन एकर अर्थ लिखने छथि-- शालग्राम, अंग्रेजी मे-- a stone, Shalgram stone. प्रयोग देखौलनि अछि--सील, सुत, हरिवंश लै/ बीच गंगा के धार/ एत्तेक लै ब्राह्मण करय/ तैयो ना करह इतिवार। एहि कहबीक अर्थ ओ एहि शब्दें देलनि अछि-- 'If a Brahman swear even by the Shalgram, his son, the Harivans, and in the midst of the Ganges, Don't believe him. एकटा आर कहबीक दृष्टान्त हम ई देखेबाक लेल करब जे आगूक संकलयिता लोकनि कोना एकर अर्थक अनर्थ केलनि अछि। शब्द छैक-- लोकदिनी। अर्थ छै- Maid servent खबासिनी। दृष्टान्त मे कहबी देल गेलैए-- लोकदिनीक पयर जतने ससुरा वास। डेढ़ सौ बरस पुरनका बाबू-बबुआन समाजक चालि बुझनिहार लोक झट द' बुझि जेता जे एहि कहबीक अभिप्राय कते मारक छै। नवकी कनियां सासुर एती तँ ओतय हुनकर वास तखने संभव जखन पति दहीन हेथिन। पति छथिन खबासिनीक वश मे, खबासिनी खुश रहली तँ मालिको खुश रहता। सामंत वर्गक यौनिक अराजकताक ई चित्र थिक, मुदा डाॅ. कमलकान्त झा अपन लोकोक्ति-कोश मे एकर अर्थ देलनि अछि--'लोक जतय रहैत अछि ततहि सब सँ मिलि क' रहय पड़ैत छैक। पैरवी -पैगाम सँ काज नहि चलैत छैक।' मानि लेल जे सैह अर्थ। मुदा कने ई तँ कहल जाउ जे 'पयर जतने' किएक?

मैथिलीक लेल जे स्नेह आ श्रद्धा ग्रियर्सनक हृदय मे छलनि, आश्चर्य लगैत अछि जे ओहि अन्हार युग मे ई वीजन हुनका कतय सँ भेटल रहनि। बंगाल प्रोविंसियल कमिटीक रिपोर्ट (1881) मे ओ हिन्दी वर्सेस मैथिलीक अन्तर्द्वन्द्व पर मैथिलीक पक्ष रखैत लिखलनि-- "The whole genius of Hindi is different from that of the Bihar dialects and they could never, by any possibility, assimilate to it. हिंदीक संपूर्ण प्रतिभा बिहारक बोली सब सँ नितान्त भिन्न अछि आ अइ बातक दूर-दूर धरि कोनो संभावना नहि अछि जे ई लोकनि एकरा कहियो कोनो विधियें आत्मसात क' सकता।" तहिना 'प्ली फाॅर पीपुल्स टंग' मे ओ लिखलनि-- "Let us think that the welfare of 17 millions of Bihar alone is at stake, and set to work at once. आउ हमसब सोची जे असगरे बिहार के 17 मिलियन लोकक कल्याण आइ दांव पर अछि, आ तुरंत काज करबा लेल तैयार भ' जाइ।" ई काज की रहै? रहै जे मैथिली कें ओकर हक भेटैक।
                   ग्रियर्सन जाहि समय मिथिला मे पदस्थापित छला, मिथिला कोर्ट आफ वार्ड्स के अधीन रहै। महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह 1880 मे कार्यभार सम्हारलनि आ तुरंत दरभंगा राजक समस्त कचहरी सब मे हिन्दी भाषाक प्रयोग कें तेना क' अनिवार्य क' देलनि जे तीन मासक भीतर जे अमला हिन्दी नहि सीखि सकला हुनका जबरन रिटायर क' देल गेलनि। ई की छल? ई ब्रिटिश सरकारक साम्प्रदायिकता नीतिक कार्यान्वयन छल। जँ अहां हिन्दू छी तँ अहांक काजक भाषा उर्दू-फारसी नहि, हिन्दी थिक। मैथिली एहि मे कतहु नहि छल। वर्नाकूलर मे मैथिली कें शामिल करबाक लड़ाइ ग्रियर्सन लड़ल छला, महाराज एहि लड़ाइ कें सदा-सर्वदाक लेल दफन क' देलखिन।
            ग्रियर्सन एहि तरहें दीवानगीक हद धरि मैथिली लेल अपस्यांत छला, की एकर कनेको प्रभाव मैथिल बौद्धिक लोकनि पर पड़ल छलनि? प्रो. जयदेव मिश्र लिखैत छथि--"हिनका लोकनि कें तहिना आश्चर्य भेलनि जेना कोनो नव आविष्कार भेल हो। ओ सब सोचलनि जे जखन सात समुद्र पारक विदेशी कें मैथिली मे एते सौन्दर्य भेटि सकैत छैक तं एहि मे अवश्ये अन्तर्निहित श्रेष्ठता छैक। ग्रियर्सनक उदाहरण एकटा क्षितिज कें अनावृत्त क' देलक जे जतबे नव छल ततबे आकर्षक।" (चन्दा झा/पृ.29) मैथिलीक रचनाकार-जगत पर ग्रियर्सनक जे प्रभाव पड़लै ताहि प्रसंग अपन विनिबंध 'चन्दा झा' मे प्रो. झा लिखैत छथि-- ''ग्रियर्सनक साहित्यिक प्रभाव कें जे लोकनि अपरोक्ष रूपें आत्मसात केलनि आ मैथिली मे रचना करबाक लेल अग्रसर भेला, ओ सब छला चन्दा झा, भानुनाथ झा, जीवन झा, रघुनंदन दास, परमेश्वर झा आदि।" (पृ.28)
                आब कने अइ प्रसंग कें देखी जे मैथिली साहित्य मे आधुनिकताक प्रवर्तनक मादे की अभिमत इतिहासकार आ आलोचक लोकनि रखलनि अछि। ई लोकनि चन्दा झा कें प्रवर्तक मानैत छथि। किएक? कोन आधार पर? तँ ओ मिथिला भाषा रामायण लिखलनि। स्थिति देखू जे अइ भाषाक नाम 'मैथिली' जे रखलनि, अपन किताबक नाम बनौलनि, से छला ग्रियर्सन। ग्रियर्सन सँ प्रोत्साहन पाबि आगू चन्दा झा सेहो मैथिली लिख' लगला, से हुनकर जीवनीकार स्वयं गछैत छथि। किरण जी एहि मुद्दा पर बहुत खिन्नता प्रकट करैत ई प्रश्न उठौलनि जे जँ चन्दा झा मैथिली लिखैत रहितथि तँ क्रिस्टोमैथी मे हुनको कविता किएक नहि शामिल भेल? ओ लिखलनि-- "डाॅ. जयकान्त मिश्र चन्दा झा कें आधुनिक मैथिली साहित्यक प्रवर्तक मानि लेलनि मुदा चन्दा झाक छिटपुट, टुटल-फुटल हिन्दी भाषाक रचने सिद्ध करैछ जे ओ एकमात्र मैथिली भाषा कें साहित्यक माध्यम नहि मानैत रहथि। मैथिली भाषा कें गोग्रास जकां किछु क' द' देबाक परिपाटी कें ज्योतिरीश्वरे चला देलनि। चन्दा झा नव की केलनि जाहि सं आधुनिक युगक आरंभकर्ता मानल गेला? इतिहास मे एकर स्पष्टीकरण आवश्यक।" कहब जरूरी नहि जे कोनहु इतिहास मे एकर स्पष्टीकरण आइ धरि नहि आएल। हमरा लोकनि रमानाथ झाक एक अही बात पर फिदा भ' गेलहुं जे विद्यापति सं हर्षनाथ झा धरि 'कृष्णयुग' चलैत छल, जकरा बदलि क' चन्दा झा 'राम-युग' मे प्रवेश करा देलनि। विडंबना देखू जे चन्दा झा पर ग्रियर्सनक व्यापक प्रभाव पड़लाक बादो ओ 'मैथिली' शब्द व्यवहृत नहि क' सकला। मिथिला भाषा कहलनि। एकर तात्पर्य ई छल जे पंडित वर्ग मे मिथिलाक माहात्म्य छल, पुण्यक्षेत्र मिथिला छली। एहि ठामक भाषा 'मैथिली'क कोनो महत्व नहि छल। ई विभक्त मानसिकता आइयो हमसब 'मिथिलाराज'क लेल लड़निहार सेनानी लोकनि मे आइयो देखि सकै छी। एक क्रिश्चियन विदेशी विद्वानक अवदान मैथिल विद्वान लोकनि कोना करितथि, तें एक ब्राह्मण कवि कें ताकल गेल जे रामकथा लिखलनि, भने राम मिथिला मे सबदिन अपूज्य मानल गेल होथि। यैह भेलनि चन्दा झाक नवता। रमानाथ झाक अनुसार एखनो धरि मैथिली साहित्य मे राम-युगे चलि रहल अछि। कहबाक तं ई चाही जे आइ-काल्हि हमसब घनघोर रामराज्य मे निवास क' रहल छी।
                      दुख तं ई देखि क' होइछ जे मैथिली साहित्यक सन्दर्भ मे आधुनिकता वा नवताक मानदंड की हो, आइ धरि सैह नहि स्पष्ट भ' सकल अछि। किरण जी अपना दिस सँ एक मानदंड प्रस्तावित करैत छथि-- "भाषाक संदर्भ मे आधुनिकताक अर्थ अछि-- अंगरेज जाति जकां अपन मातृभाषा कें पवित्र मानब, अपन समस्त भाव-विचारक माध्यम बनाएब, आ अपन भूमिक स्वाधीनता लेल जीवन अर्पित करबाक भावना कें प्रज्वलित करब, राखब।"  मोन राखी, ग्रियर्सन एक सौ सं बेसी भाषाक ज्ञाता रहथि। मैथिलक संग मैथिली, बंगालीक संग बंगला, भोजपुरियाक संग भोजपुरी मे तेना धाराप्रवाह बजैत छला जे चकित क' दैत छल। मुदा, ओ एक अंग्रेजी छोड़ि क' कहियो कोनो भाषा मे लेखन नहि केलनि। मुदा, से अलग बात। मैथिलीक संदर्भ मे किरण जी ग्रियर्सन कें युग-प्रवर्तनक सूत्रधार मानलनि आ कवि फतूर लाल कें आधुनिकताक प्रवर्तक। ओ कहैत छथि-- " हमरा दुख सँ बढ़ि क' लाज होइत अछि अपन समाजक अविवेक पर। राजा-महाराज वा मुंहगर पंडित दू-चारि पांती जोड़ि क' अपन दुख-दर्द अथवा धन-पूत कामना भगवान-भगवती कें सुनौलनि, से सब इतिहास मे जगजियार बना देल गेला। हुनका लोकनिक फकड़ा काव्यक नाम सँ पाठ्यग्रन्थ मे देल गेल आ समस्त मिथिलाक माटिक दुख-दर्दक सजीव चित्र समाज कें देनिहार कवि कें ने इतिहास मे स्थान देल गेल, ने ओकर दुइयो पांती छात्र-पाठक मे परसल गेल। हमर दृष्टियें आधुनिक युगक आरंभ फतूर लाल कवि ओ ग्रियर्सन सँ मानब न्यायसंगत थिक।"

एहि प्रस्तावना पर आइ धरि तँ हमर पुरखा लोकनि कान-बात नहि देलनि, कहल जाय जे 'वार्ता' धरि नहि लेलनि, मुदा इतिहासक मांग थिक जे हमरा लोकनि एहि मुद्दा पर विचार-विमर्श शुरू करी।

Tuesday, December 24, 2024

वर्चस्ववादी संस्कृति बनाम हाशियाक समाज उर्फ पचपनियाक संघर्ष


 

  (संगोष्ठीक आरंभ मे तारानंद वियोगीक बीज-वक्तव्य)


अंतिकाक अइ गोष्ठीक जे नाम राखल गेल अछि-- वर्चस्ववादी संस्कृति बनाम हाशियाक समाज उर्फ पचपनियाक संघर्ष, विश्वास करब कठिन छै जे एकर विषय मैथिली साहित्य छै। मैथिली मे कतहु एहन विषय राखल जाय जाहि मे वर्चस्व, हाशिया आ संघर्षक जिक्र होइ। कहबी छै, सौंसे गाम चोरे तं चोर कहू ककरा? सब क्यो जखन एक्के मतक होथि तं ककर वर्चस्व, आ के हाशिया? जं अनीतियो करै छथि, जेना मानि लिय' पुरस्कारे मे, तं अप्पन लोक करै छथि, हुनका सं मेल-मिलानी क' क' अपन काज सुतारी, ततबे टा पर्याप्त। अइ पर क्यो वर्चस्व के अवधारणा ल' क' आबथि आ हाशियाक चर्च क' क' संघर्षक आह्वान करथि, 'मैथिल समाज' एकर कल्पनो नहि क' सकैत अछि। मुदा अइ गोष्ठीक की करबै जे छव एपिसोड मे अपन मुद्दा उठा रहल अछि आ जकर एक-एक एपिसोडक दर्शक पचीसो हजार मे भ' रहल अछि।   स्पष्ट अछि जे ई मिथिलाक मामला छै। मैथिल विचारक लोकनि अइ मे भाग ल' रहल छथि, आयोजनक भाषा मैथिली छी। अइ तरह सं देखी तं मिथिला-मैथिल-मैथिली अइठां तीनू एकाकार छै। एतय प्रश्न उठाएल गेल अछि जे मिथिला मे एकटा वर्चस्ववादी संस्कृति छै। तकर समानान्तर सेहो एकटा पूर्ण संस्कृति छै, मुदा तकरा हाशिया पर छोड़ि देल गेल अछि। फेर बात छै जे पचपनियां नामक हाशिया पर के मैथिल समुदाय अछि, जकर संस्कृति अबडेरल छै आ ओ वर्चस्व कें तोड़बाक संघर्ष मे लागल अछि।

       पचपनियां शब्द मैथिली डिक्शनरी सब मे कतहु नै भेटत। वर्चस्व के, जाति सं ल' क' क्षेत्र धरि के उपेक्षा के,  अपने मे ई एक स्पष्ट प्रमाण थिक। पचपनियां के भेला? पचपन जाति, मने ठीक पचपन सं अर्थ नै छै, मने बहुतो जाति, धर्म आ संप्रदाय सं बाहर धरि पसरल एकटा मजगूत समुदाय, बहूतो जाति, जकरा आइ ओबीसी,एससी आदि कहै छियै। मैथिली डिक्शनरी मे शब्द अछि--राड़। आरो शब्द अछि सोलकन। जकरा ओइ समाजक लोक अपन आत्मसम्मानवश पचपनियां कहै छथि, तकरे ब्राह्मण लोकनि राड़ आ सोलकन कहै छथिन। तें राड़ आ सोलकने शब्द टा मैथिली डिक्शनरी मे भेटत। मैथिली भाषा पर एक जाति-विशेष के वर्चस्व के प्रमाण एकरा मानबा मे की कोनो हर्ज छै?

       मतिनाथ मिश्र अपन डिक्शनरी मे राड़ शब्दक अर्थ देलनि अछि--असभ्य, असंस्कृत। असभ्य तं चलू मानि लेबा योग्य छै कारण अहांक सभ्यता सं ओकर सभ्यता भिन्न छै। एहि ठाम इतर के अर्थ मे नञ् के प्रयोग भेल हुअय, मानि लेल। मुदा, 'असंस्कृत' पर कने ध्यान देल जाय, एहन लोक जकरा संस्कृतक  शिक्षा प्राप्त नहि छल। कोना रहतै? ओ रैयत छल, शोषित छल, जानि-बूझि क' हजार वर्षक उद्यम सं निरक्षर राखल गेल छल। मुदा समस्या छै जे जकरा लग संस्कृत नै हो, से की संस्कृतियो सं हीन अछि? एतय तं सैह मानल गेल छै। कते मूर्खतापूर्ण बात छै! मैथिली साहित्यक आविष्कारक आ प्रथम प्रयोक्ता पचपनियां लोकनि छला, तकर प्रत्यक्ष  प्रमाण मौजूद छै, आ बड़को-बड़को लोक, जेना आचार्य रमानाथ झा एकरा स्वीकार केलनि अछि। जं संस्कृति नै तं साहित्य कोना? तखन फेर ई मैथिली साहित्य आएल कतय सं? मुदा ब्राह्मण लेखक लोकनि असंस्कृत कहै छथिन! कते विरोधाभासी बात छै! 'पग-पग पोखरि माछ-मखान/ सरस बोल मुस्की मुंह पान' मे ब्राह्मण-संस्कृतिक कथी छै? माछ मारैए ओ, मखान उपजाबैए-फोड़ैए ओ, पान उपजाबैए ओ, भय सं हो कि प्रीति सं सरस बोल बोलबाक लेल मजबूर अछि वैह, तखन ब्राह्मण बाबूक कथी भेलनि? मुंहे टा ने!  

       पं. गोविन्द झा कतहु लिखने छथि जे मिथिलाक भीतर दूटा समाज बसैत अछि जे एक दोसरक यथार्थ सं तहिना अपरिचित, अनजान छथि जेना दू अलग अलग ग्रहक प्राणी होथि। ई दूटा समाज भेल ब्राह्मण आ पचपनियां। ब्राह्मण किच्छु नै जनैत छथि ओहि समाजक बारे मे, ने धर्म-मर्म, ने जीवनदर्शन, ने नीति-प्रणाली मुदा जजमेन्ट क' दैत छथि जे ओ असंस्कृत अछि। गोविन्द बाबू ई बात देखि पबैत छथि, धन्यवाद छनि, मुदा, अपन डिक्शनरी मे ओहो पचपनियां नै, राड़ शब्दक अर्थ देलनि अछि। अर्थ देलनि अछि-- निम्न सामाजिक वर्गक लोक, शूद्र। ओ 'राड़-रोहिया' शब्द सेहो देने छथि जकर अंग्रेजी अर्थटा देलनि-- riff-raff. कामिल बुल्केक डिक्शनरी मे अइ शब्दक अर्थ अछि-- कुली-कबाड़ी, निम्नवर्ग। मतलब, बात सामाजिक अवस्था सं आगू बढ़ि क' विपन्न आर्थिक अवस्था धरि चलि अबैत अछि। तें, अइ विषय पर विचार केवल साहित्यक सीमा मे सीमित रहनिहार लोक के वश के बात नै छी। समाजशास्त्र, इतिहास, आर्थिकी सब अनुशासन सं अइ पर विचार करबाक जरूरत अछि। जे वर्ण मे छोट, से वर्गो मे छोट। एतय हमरा मनु मोन पड़ैत छथि जिनकर देल व्यवस्था रहनि जे शूद्र लग मे जं धन जमा भ' जाय तं राजा कें चाही जे ओ छीनि लियए, जब्त क' लियए। 

       आइ धरि मैथिल संस्कृति पर जे लेख सब लिखल गेल, तकरा सब कें पढ़ू तं स्पष्ट होइ छै जे एतुक्का विद्वान लोकनि, आधुनिको अध्येता लोकनि, एकछाहा ब्राह्मण संस्कृति कें मैथिल संस्कृति मानैत रहला अछि। मिथिला मे तं समस्या एतय धरि रहय जे कोनो खास ब्राह्मणोक छुअल पानि कोनो खास दोसर ब्राह्मण नै पिबै छला। 

       चाहे मिथिलाक इतिहास हो कि मैथिली साहित्यक इतिहास, ओ ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणक बारे मे लिखित वस्तु छी। अनचोके मे रमानाथ झा सन विद्वान एकरा स्वीकारो केलनि अछि। पचपनियांक ने कोनो समाजशास्त्र आएल अछि ने आर्थिकी। ई सब आब एबाक छै।

      गोष्ठीक आरंभ मे एतय हम अपन किछु बात सारांश रूप मे कहय चाहै छी--

 1. मिथिला कहियो बंगाल के गुरु रहय। रवीन्द्रनाथ मैथिली कें अपन मासी(मौसी) भाषा कहलनि, मने एक जेनरेशन ऊपर। से बंगाल कतय सं कतय पहुंचि गेल आ मिथिला अधोगति मे डूबल के डूबल रहि गेल। ने अपन राज्य भेलै, ने बंगाली जाति जकां अपन सामुदायिक पहचान बनि सकलै। किए? यैह वर्चस्ववादी संस्कृति एकर जिम्मेदार छी। वर्चस्वक लेल समाज कें विखंडित क' क' राखल गेल। खंड पखंड कयल जाइत रहल।

 2. पचपनियांक वस्तु कें मैथिली साहित्य मानबा सं हुंठ जकां इनकार कयल गेलै। महापंडित राहुल सांकृत्यायन कहै छथि जे सिद्धसाहित्यक भाषा मैथिली छी, मुदा मैथिली साहित्यक इतिहास के मुख्यधारा मे ओकर कोनो स्थान नै छै। किए? ओ वर्णव्यवस्थाक विरोध मे लिखल साहित्य थिक। विद्यापतिक पद के दूटा पांडुलिपि मिथिला मे पाओल गेल। मैथिली मे कबीरक हजारो पद छनि। ओही समय मे जं कबीरक पांडुलिपि ताकल जाइत तं कम सं 200 भेटितय। मुदा ओ तं पराया रहथि, ब्राह्मणधर्मक आलोचक रहथि।‌ ई परायापन कतेको ठाम अकारण आ आत्मघाती सेहो भेल अछि। जेना, सब क्यो जनै छी जे विद्यापति गीत कें मंच पर एकल गायन के रूप मे पहिल प्रयोग पं.मांगनलाल खवास केलनि। अइ सं पहिने ई स्त्री आ नटुआ द्वारा कोरस मात्र गायल जाइत रहय। ई प्रयोग कते महान छल से आइ हम सब बूझि सकै छी जखन विद्यापति संगीत अपन एक वैश्विक पहचान कायम क' लेने अछि। मुदा, ब्राह्मण विचारक लोकनि तहिया एकर घोर विरोध केने छला। रमानाथ बाबू तं 'विद्यापति-संगीत' पर अपन लेख लिखैत, एकल गायन के घृणापूर्वक विरोध करैत मांगनलालक नाम तक नै लेलनि। हुनकर अभिमत रहनि जे विद्यापति-संगीतक पवित्रता बनेने रखबाक लेल एकरा बैजनाथधामक पंडा लोकनि जेना कीर्तन मे कोरस गबै छथि, केवल तहिना गाओल जेबाक चाही। अइ सं पता चलैत अछि जे वर्चस्व बनौने रखबाक जिद मे लोक अपन भाषा आ भूमि तक के भविष्य कें कोना बिसरि जाइत छथि।

 3. मिथिलाक राजा ब्राह्मण छला तें ब्राह्मण लोकनि राजा संग मैथिली कें जोड़ि लेलनि। साहित्य कें अबल-दुबल के वाणी हेबाक चाही। मुदा मैथिली शोषित के नै, शोषक के भाषा बनल।

 ई संघर्ष के भाषा नै भ' सकल, जी हजूरी के भाषा भ' क' रहि गेल। आइयो मैथिलीक नाम पर जते प्रतिष्ठान अछि, पुरस्कार अछि, हबगब अछि, आंखि खोलि क' देखू तं सबटाक सबटा राजाक स्थापित मैथिल महासभाक  अचेत अंधानुकरण मे बाझल देखार पड़त। जखन कि, सत्य की थिक? की खंडवला राजवंश मैथिली साहित्यक वास्तविक शुभचिंतक छल? इतिहास कहैत अछि, किन्नहु नहि। ओ लोकनि संगीतक प्रेमी छला जरूर, गीत गेबा लेल गीतकार लोकनि कें अपन छत्रछाया मे राखल करथि जरूर, बस।  बांकी हुनका सब लेल भाषा-साहित्यक नाम पर जे छल, संस्कृत छल। साहित्य जं हुनका प्राथमिकता मे रहितनि तं विद्यापतिक बाद आर क्यो महान कवि किए ने मिथिला मे जनमि सकला? किए रमानाथ झा दुखी भ' क' कहै छथि जे 500 बरस धरि केवल प्रतिभाहीन लोक सब के द्वारा विद्यापतिक नकल होइत रहल?      

               तात्पर्य, जे आगुओ मैथिली साहित्य शोषकेक पक्ष मे वर्चस्ववाद चलबैत रहय, तकर कोनो ठोस ऐतिहासिक कारक मौजूद नै छै। तें अइ स्थिति‌ कें बदलबाक चाही। साहित्यक जे स्वाभाविक गुणधर्म छै, शोषितक पक्ष मे हैब, अबल-दुबलक पैरोकार बनब, तकरा मैथिलीयो धरि पहुंचय देबाक चाही।

 4. वर्चस्व यथावत बनेने रहबाक लेल भाषाक मानकीकरण कयल गेल। एहि मानकीकरण के आतंक तेहने रहलै जेना संस्कृत मे पाणिनि व्याकरणक। ओइ सं क्यो बाहर नै जा सकै छथि। एकर फल भेल जे मैथिली दू जिला धरि सिमटि क' रहि गेल। राजधानी क्षेत्र धरि। से कोनो आइये नै। 100 बरस पहिने रासबिहारी लाल दास अपन किताब मे ई बात लिखने छथि। लिखने छथि जे मैथिली दरभंगा-मधुबनी इलाकाक भाषा छी। इतिहास साबित करैत अछि जे मिथिलाक अधोगतिक कारण यैह वर्चस्व बुद्धि छल।

 5. आइ जे मैथिली साहित्य लिखल जा रहल अछि, एकछाहा एकवर्गीय आदर्श, एकवर्गीय भंगिमा, कथनशैली तक सीमित अछि। पचपनियां लेखक आइ नहि छथि, से बात नहि। रवीन्द्र कुमार चौधरीक गणना पर भरोस करी तं आइ जं मैथिली मे 500 लेखक ब्राह्मण छथि तं 450 लेखक गैरब्राह्मण छथि। मुदा, माहौल एहन जबदाह अछि जे सब क्यो के कंडीशनिंग क' क' एहन बना देल गेल छै जे पचपनियां समाजक यथार्थ, ओकर आदर्श, ओकर सौन्दर्यशास्त्र नै आबि पाबय जे कि स्वभाव सं वर्णव्यवस्था विरोधी होइत अछि। अध्यक्ष बना क' हुअय आ कि सम्मान द' क', ओकरा बाध्य कयल जाइछ जे ब्राह्मण आदर्श सं बहार नै निकलथि। जे निकलै छथि, तिनकर निंदा खिधांस तेना कयल जाइछ जेना ओ मातृहंता होथि। परिणाम होइछ जे दृष्टिवान आ आत्माभिमानी लोक मैथिली-तैथिली सं एकाते भेल रहैत छथि। मिथिलाक पैघ-पैघ प्रतिभा आन-आन भाषाक हाथें बन्हकी लगबा पर मजबूर अछि।

 6. प्रश्न उठैत अछि जे ब्राह्मण आ पचपनियांक बीच जे अंतर छै, जे गैरबराबरी छै, से की शाश्वत छी? एकदम नहि। ई विरोध शाश्वत नहि थिक, केवल स्वार्थ-साधनक लेल रचल गेल चालि थिक। एकर एक-दू दृष्टान्त। आइ हरेक मैथिलक घर मे गोसाउनिक पीड़ी होइत अछि। पीड़ी अर्थात चैत्य। हमरा लोकनि जनै छी जे बौद्ध लोकनि चैत्यपूजक छला। इतिहास सं पता चलैत अछि जे विदेह लोकनि चैत्यपूजक नहि छला। तखन आइ हम सब चैत्यपूजक कोना भेलहुं? असल मे मैथिल संस्कृति जकरा आइ हम सब कहि सकै छियै, ओ केवल विदेहक संस्कृति नहि थिक। ओइ मे बहुतो तत्व लिच्छवि सं आएल छै, बहुतो तत्व कोल, किरात, नाग लोकनि सं। मैथिलक विवाह मे सिन्दूरदान जे होइत अछि से आदिवासी प्राय: नाग संस्कृति सं आएल अछि। अनेक विधान, पात्र, वस्तु आदि तं मुगल संस्कृति सं आएल अछि। लोकदेवता धर्मराजक आराधना ब्राह्मणोक घर मे होइत अछि, जखन कि ई निर्गुण देवता थिका आ हिनक पूजा-परंपरा सीधा बौद्ध परंपराक जीवित रूप छी। ज्योतिरीश्वर कें बौद्ध सं घृणा छलनि मुदा चौरासी सिद्ध कें ओ अपन पुस्तक मे श्रद्धेय स्थान देलनि, जखन कि ई सिद्ध लोकनि बौद्ध छला। ब्राह्मणोक धिया-पुता कें जखन खरी धराओल जाइ तं पहिल आलेखन होइ छल-- ओनामासीधं। मने, ओम् नम: सिद्धम्। विद्यापति आदिवासी समाजक नागपूजा कें मान्यता दैत व्याडीभक्तितरंगिणी लिखलनि। विद्यापतिक गीत मे सैकड़ो एहन शब्द प्रयोग भेल अछि जे दरभंगा-मधुबनी मे आइ लुप्त भ' चुकल अछि, मुदा बेगूसराय, किशनगंज के पचपनिया समाज मे आइयो प्रचलित अछि। 

 7.  आ आइ मानि लिय' जे विरोध शाश्वत आ अहैतुक भ' गेल हो, तखन? जेना सांप कें देखि क' साधारण मनुष्य कें इच्छा जगै छै जे एकर फण कें थकुचि दी, तहिना जं ब्राह्मण लोकनि कें राड़ कें देखि क' होइत हो, तखन? पहिल तं बात ई जे जं ई सत्य हेबो करय तं असंस्कृत ब्राह्मण-वर्गेक सत्य भ' सकैत अछि। एक लेखक वा विचारकक नहि। लेखक-विचारक कें तं परिष्कृत बुद्धिक हेबाक चाहियनि। साहित्य तं अपन रचयिता कें उदात्त बनबैत छैक। मुदा, मानि लिय' जे कोनो अवचेतन जन्य दुरवस्थाक कारण ब्राह्मण लेखक अपना कें परिष्कृत नहि क' पबैत होथि, तखन? एहना स्थिति मे स्वयं पचपनिया वर्गक लेखकक की कर्तव्य थिक?  ओहो जं ब्राह्मणे आदर्श, ब्राह्मणदृष्टियेक यथार्थक गुणगान करैत रहता, तं ई केहन ऐतिहासिक गद्दारी भेलै! हुनका लोकनि कें तं आबो अपन सत्य, अपना समाजक, अपना इतिहासक सत्य लिखबाक चाही। अपन ज्वलन्त यथार्थ कें तप्पत तप्पत साहित्य मे अनबाक चाही। अपना समाजक भवितव्यता पर गंभीर हेबाक चाही। एक। दोसर जे एहन मैथिल जे मैथिलीक वर्तमान वर्चस्ववादी पर्यावरण सं दुखी छथि आ मैथिली-तैथिली सं दूरे रहब पसंद करै छथि, हुनका लगै छनि जे ओ कोनो ब्राह्मणक रैयत नहि थिका। सही बात। रैयत ओ ठीके किनको नै छिया। लेकिन, मैथिली हुनको मातृभाषा छी। मैथिलीक सम्मानक प्रश्न हुनको आत्मसम्मानक प्रश्न छियनि। जं अइ ठामक पर्यावरण गंदा छै तं ओकरा बदलब हुनको जिम्मेवारी छियनि, हुनको लेल चुनौती छियनि। तें एहन लोक कें तं आब सांस्कृतिक रूप सं अवश्य घर घूरि एबाक चाही आ मैथिली मे अपन काज करबाक चाही।

Wednesday, April 17, 2024

मैथिली कविताक हजार वर्ष: पुस्तक-परिचय


 --तारानंद वियोगी


यात्री जीक जीवनी 'युगों का यात्री' लिखबा काल हमरा बहुत जोर इच्छा जागल छल जे प्राचीन साहित्यक अध्ययन करी। संस्कृतक विद्यार्थी रहबाक दुआरे संस्कृतक प्राचीन साहित्य तं थोड़ेक पढ़लो छल मुदा संस्कृतेतर प्राचीन साहित्यक कहियो गंहीर अवगाहन करी, से अवसर नहि भेटल रहय। यात्री जी कें ई सुयोग भेटलनि जे बहुत सुरुहे मे ओ दुन्नू प्राचीन साहित्यक गंहीर अध्ययन क' गेला। कहबाक तं चाही जे तीस-पैंतीसक उमेर धरि हुनका मुख्यत: जे साहित्य पढ़ल रहनि से प्राचीने साहित्य छल।

           एहि हिसाब सं देखी तं आधुनिक युग उनटा चलैत अछि। एक तं लोक कें साधारणतया पढ़ले नहि रहैत छैक। जं पढ़लो रहल तं आधुनिक साहित्य पढ़ल रहैत छैक। जं पट्ठा कने चंसगर रहल तं आधुनिको मे भारतीय नहि, पाश्चात्य साहित्य पढ़ल रहैत छैक।‌ प्राचीन भारतीय साहित्यक जं गप करी, भारतीय साहित्य मे सेहो संस्कृतेतर प्राचीन साहित्य ततेक विराट छैक जे कदाचित संस्कृतो सं बेसी व्यापक आ विविधतापूर्ण छै। 

           लोक कें पहिने अपन मातृभाषाक प्राचीन साहित्य सं अध्ययन शुरू करबाक चाही। साहित्यक क्षेत्र मे, भने कोनहु रूप मे, जे क्यो सक्रिय छथि हुनका लेल तं हम कहब, अपन प्राचीन साहित्य सं सर्वांगत: अवगत होयब हुनकर अनिवार्य धर्म छियनि। से सब विचारैत हम निर्णय कयल जे मैथिलीक प्राचीन साहित्यक अध्ययन करी। 2019 मे हम एकर तैयारी मे भिड़लहुं आ 2020-21 मे जखन सौंसे संसार कोरोनाक मारि सं कुहरैत अपन-अपन घर मे बंद छल, बंद हमहू छलहुं, हम अपन भाषाक प्राचीन साहित्यक अध्ययन मे डूबल रहलहुं। पहिले फेज मे कोरोना सं संक्रमित, गंभीर बीमार भ' चुकल रही। भयानक विकराल समय तं तकर बाद आएल, से हमरो घर धरि पहुंचल। एहि सभक बादो ओहि समयक विकरालताक आगू हम अवसादग्रस्त नहि भेलहुं। तकर एक प्रमुख कारण, हमरा लगैत अछि जे हम एतय छलहुंए नहि, हम तं प्राचीन साहित्यक आभामंडलक बीच कतहु सन्हियायल रही, ओकरहि सुरक्षाकवच मे रक्षित। 

           अपन एहि अध्ययन-क्रम मे, मैथिलीक प्राचीन साहित्य कें पढ़ैत हम जे किछु पाओल, किताबक ई दुनू खंड तकर एक प्रतिवेदन थिक।‌ इतिहास एकरा कहल जाय, ताहि मे हमरा संकोच अछि। इतिहासक जे अपन अनुशासन होइत छैक तकर अवगति तं जरूर अछि, मुदा ओकरा लेल जे निस्संगताक मांग कयल जाइत छैक से हमरा बराबर गैरजरूरी लागल अछि। हम जे किछु पढ़लहुं, ओहि मे डुबलहुं, तें ओकर अनुभव बतबैत हम अपना कें एकात क' ली, से ने हम क' सकल छी आ ने से करब कतहु सं हमरा जरूरी लागल अछि। हमरा बराबर लगैत रहल अछि जे इतिहासक जं एक अनुशासन अछि तं ठीक तहिना साहित्यक सेहो अपन अनुशासन छैक। संसारक अनेकानेक विचारक लोकनि साहित्य कें एक स्वायत्त शास्त्र मानलनि अछि आ भारत मे तं से मानले गेलैक अछि। प्राचीन साहित्य आ आधुनिक साहित्यक अंतर कें बेकछबैत हजारीप्रसाद द्विवेदी कतहु लिखने छथि जे प्राचीन साहित्यकार जतय स्वयं अपना रचना सं असंलग्न आ तटस्थ रहैत छला, ओ केवल ओहि आश्रयदाता राजा वा ओहि पार्थिव-अपार्थिव विषयक घेरा मे घेरायल रहथि, तकर विपरीत आधुनिक साहित्यकार अपन रचना सं अपन व्यक्तित्व आ विचार कें एकात नहि राखि सकैत छथि। एकर उदाहरण मैथिलीक आधुनिक साहित्य मे भरल पड़ल अछि, एतय धरि जे साहित्यक इतिहास आ आलोचना मे सेहो। माने जे जयकान्त बाबू वा रमानाथ बाबू वा माया बाबूक व्यक्तित्व आ विचार जेना हुनकर लेखन मे, इतिहास-लेखनो मे साफ-साफ एलनि अछि, ठीक तहिना हमरो व्यक्तित्व आ विचार एहि किताब मे व्यक्त भेल अछि। मुदा निस्संगता सं परिपूरित नहि होइतो ओ लोकनि इतिहासकार कहबै छथि, हमरा से कहेबा मे घोर एतराज अछि।

           हमर एक आदरणीय गुरु कहल करथि जे जं अहां कें कोनो विषय पर किछु अध्ययन करबाक अछि तं अहां पहिने ओहि विषयक आथोरिटी के पता लगाउ। नहि, ओ आथोरिटी नहि, 'मास्टर्स' कहने रहथि। तं, हमर अध्ययनक प्रक्रिया ई रहल जे पहिने हम आरिजिनल टेक्स्ट कें पढ़लहुं, तखन ओहि विषयक आथोरिटी विद्वान जे किछु लिखने छथि तकरा पढ़लहुं। आ तकरा बाद मैथिली साहित्यक इतिहासकार आ आलोचक लोकनि जे ओकर व्याख्या कयने छथि, तकरा पढ़लहुं। कहब आवश्यक नहि जे ई आम रास्ता नहि छैक। लोक टेक्स्ट पढ़ै छथि आ अपन इतिहासकार वा आलोचक कें पढ़ै छथि। एतबो चीज के क' पबैत अछि? जकरा सही मे ज्ञानक भूख रहै छै सैह कि ने? अहां एतबो करबाक अपेक्षा कोनो मैथिलीक विद्यार्थी सं थोड़बे क' सकै छी? एतय धरि जे प्रोफेसरो सं नहि क' सकै छी। 

           मुदा, एतबा जं क्यो क' सकथि तं हुनका समक्ष ई तथ्य उद्घाटित भेने विना नहि रहतनि जे वास्तव मे अपना भाषाक इतिहासकार आ आलोचक लोकनि अपन बद्धमूल धारणा सभक प्रति कोना अन्ध बनल छथिन। कते भीषण संकीर्णता सं गछारल छथिन जे अहां जं हुनका आंखियें अपन परंपरा कें ताकय निकली तं पक्का अछि जे अहां रस्ता भुतिया जायब आ सत्यक निकट किन्नहु नहि पहुंचि सकब, बरु आर कनी दूरे चलि जायब। कते आश्चर्यक बात थिक जे आरिजिनल टेक्स्ट तं ठीक वैह अछि जकरा ओ पढ़लनि आ हमहू-अहां पढ़ैत छी। मुदा अर्थ कते बदलि जाइछ! दृष्टान्तक संग बात करी तं बात बेसी साफ होयत। विद्यापतिपरक अपन एक लेख मे डा. काञ्चीनाथ झा किरण विद्यापतिक अनेको काव्यपंक्ति एहि बात कें देखेबाक लेल उद्धृत करैत छथिन जे मैथिल पुरुषक पुरुषार्थ के कते उच्च मानदंड विद्यापति लग मे रहनि। मने मैथिल पुरुष कतेक महान होइत छला। आब जं अहां विद्यापतिक ओहि मूल गीत कें समुच्चा देखि जाइ जाहि ठाम सं ई काव्यपंक्ति सब लेल गेल अछि, तं अहां आकाश सं खसब। घोर आश्चर्य सं भरि जायब जे जाहि गीत मे विद्यापति मैथिल पुरुषक कुपुरुषता आ नीचताक कटु वर्णन कयने छथिन, ई पांती सब ताहि ठामक छी। असल मे भेल ई छैक जे स्त्री एहन नीच पुरुष कें निर्बाहि रहल अछि तं एहि पाछू जे ओकर अपन मनोवैज्ञानिक मजगूती छैक, उद्धृत पांती सब तकर बखान करबा लेल लिखल गेल अछि। मुदा, किरण जी पांती तं वैह ल' लेलनि मुदा संदर्भ कें ठीक उनटा घुमा देलखिन। कहने छलै स्त्री अपन मनोभावक बारे मे, तकरा घुमा क' पुरुष पर लागू देखा देलखिन। एहन अनर्थ कतहु होइ? जे गीत विद्यापति मैथिल पुरुषक निन्दाक वास्ते लिखलनि तकर अर्थ उनटा क' कतहु मैथिल पुरुषक महानताक वर्णन ओकरा बता देल जाइ? (पांती सभक, गीत सभक संदर्भ एतय नहि देलहुं अछि कारण ओ सब एहि किताब मे यथास्थान वर्णित छै।) मुदा, एकरा ओ लोकनि 'मैथिल आंखि' कहै छथिन। यथार्थ कें जबरन अपना पक्ष मे घीचि आनि ओकर ठीक विपरीत अर्थ लगा क' अपन विजयक झंडा फहरा ली, की एहि चतुरतेक नाम मैथिल आंखि छी?

           एहि प्रकारक दृष्टान्त सब अनंत छै आ ताहि मे सं किछु के नोटिस एहि किताब मे यथास्थान लेल गेल अछि।

           सिद्धसाहित्य कें मैथिली साहित्य नहि मानल जाइत रहल अछि। ओकरे समकालीन वा सद्य: उत्तरवर्ती डाकवचन कें सेहो मैथिली साहित्य नहि मानल जाइछ। मैथिली साहित्यक शुभारंभ लेल निविष्ट कुलक कोनो ब्राह्मण लेखकक अवतीर्ण होयब कदाचित अपरिहार्य छल तें ज्योतिरीश्वर सं मैथिली साहित्यक शुभारंभ मानल जाइछ। ज्योतिरीश्वरक काव्य कें सुनीति बाबू गद्य कहि देलनि तं आगू ककरो मजाल नहि भेलै जे ओकरा काव्य साबित करबाक चेष्टा करितथि, भने स्वयं ज्योतिरीश्वरे ओकरा काव्य किए ने मानने होथु। । वर्णरत्नाकरक सह-संपादक बबुआ मिश्र स्वयं आश्चर्य व्यक्त करैत भूमिका मे लिखलनि जे संसारक कोनो साहित्यक आरंभ गद्य सं नहि भेल अछि। मुदा, संसारक लेल जे असंभव छलैक से मैथिली साहित्य मे आबि क' संभव मानि लेल गेलै, जेना मिथिला-मैथिली संसार सं बाहर शिवक त्रिशूल पर बसल हो।

           विश्वकवि रवीन्द्रनाथ मैथिली कें अपन मौसी-भाषा मानैत छला। मने मातृस्थानीय, अपन भाषा बंगला सं एक पीढ़ी प्राचीन। मुदा मैथिली साहित्यक इतिहास सब कहैत अछि जे नहि, मैथिली मे तं कैक शताब्दीक बाद साहित्य शुरू भेलैक, ताहि हिसाबें बंगला तं मैथिलीक नानी वा परनानी लागत। कहब आवश्यक नहि जे ई सबटा खुराफात आधुनिक युगक देन थिक जकरा पाछू मैथिल महासभा आ दरभंगाराज के राजनीति  जिम्मेदार छल। दरभंगाराज आ मैथिल महासभाक पतन भेना सात दशक सं बेसी समय बीति चुकल अछि। मुदा मैथिली साहित्य टस्स सं मस्स नहि भेल अछि। बरु एकर संकीर्णता आ कट्टरता दिनानुदिन बढ़िते गेल अछि। अद्यतन उदाहरण मायानंद मिश्रक इतिहास(2013) थिक। एहि सब बातक संदर्भ सहित चर्चा एहि किताब मे ठाम-ठाम भेटत। खास तौर पर मैथिली साहित्यक इतिहासकार लोकनि उत्तरोत्तर जाहि तरहें संकीर्ण सं संकीर्णतर होइत गेला अछि, से हमरा लेल घोर चिन्ताक विषय बनल अछि। कारण, दुनियां भरिक इतिहास समयक संग वस्तुनिष्ठ होइत गेल अछि, जखन कि मैथिलीक गति पाछू मुंहें छैक। मैथिलीक हरेक अध्येता लेल ई चिन्ताक विषय हेबाक चाही।

           साहित्येतिहास आ आलोचना सृजनात्मक रचना के उपकारी विधा मानल जाइत छै। कोनो टेक्स्ट के अर्थ आ संदर्भ नहि पूरा स्फुट होइत हो तं लोक इतिहास वा आलोचना लग जाइत अछि। मुदा, एकटा फिल्मी कहबी छै जे नैया जं डगमग डोलय तं मांझी पार लगाबय/ मांझिये जं नाह डुबाबय तं ओकरा के बचाबय? तं, सैह परि। अर्थ आ संदर्भ स्फुट कतय सं होयत जे उनटे अहां तेना ओझरा जायब जे अक्क चलत ने बक्क। उदाहरण सं बात बेसी स्पष्ट होयत। संसारक कोनो साहित्यक आरंभ गद्य सं नहि भेल अछि मुदा मैथिलीक भेल अछि। तं, एकटा स्वाभाविक प्रश्न उठैत छैक जे ज्योतिरीश्वर कें एहन कोन बेगरता पड़ल छलनि जे ओ देसी भाषा मे गद्य लिखितथि, कारण प्रशस्ति तं हुनकर कविता आ नाटक लेल छलनि। सुनीति बाबूक कहब भेलनि जे ई रचना ओ कथावाचक लोकनिक लेल लिखलनि। कथावाचक के भेला? वैह जेना आइ घनेरो कथावाचक सब कें टीवी पर भागवत वा रामकथा सुनबैत देखैत छियनि। सुनीति बाबू एक बेर जे भाखि गेला कोन मैथिलक मजाल जे कहथिन नै, प्राचीन मिथिलाक ब्राह्मण लोकनि तं कथावाचनक पेशा मे नहि छला, हुनकर सभक पेशा तं पंडिताइ वा पुरहिताइ होइत छलनि। नहि। सब इतिहासकार एही बात कें दोहरबैत चलि गेला। कतबो भारी उपकार सुनीति बाबू मैथिलीक कयने होथि, मुदा ई तं मानैए पड़त जे हुनका बंगालक परंपराक जेहन ठीक-ठीक अवगति छलनि, तेहन मिथिलाक परंपराक नहि। हुनका संग जे सहायक संपादक रहथिन बबुआ मिश्र, ओहो बेचारे चूड़ान्त संभ्रान्त पंडित। लोक, लोकपरंपरा आ लोकभाषाक हुनको ज्ञान ततबे जतबा सनातनी संस्कृतज्ञ कें भेल ताकय। तें एहि बातक दिस किनको ध्याने नहि गेलनि जे मिथिलाक लोक-परंपरा मे मौखिक महाकाव्य होइ छैक, जेना लोरिक, जकर उल्लेख स्वयं ज्योतिरीश्वरो केलनि अछि। से सब किछु नहि। गद्य तं गद्य। सत्य सं दूर रहथि मुदा उनटे गौरव मे झुमैत रहला मैथिल विद्वान लोकनि जे पूर्वांचलक प्रथम गद्यकृति मैथिली मे लिखल गेल। ओकर पाछू अन्हार, ओकर आगू अन्हार, मुदा बीच मे गद्यक प्रकाश टिमटिमाइत रहल। एकटा परदेसीय विद्वानक स्थापना मे चूक भ' सकै छै, तकरा फरियेबाक लेल तं अहां देसीय आथोरिटी लग जायब ने? मुदा, कहबी छै जे लटकलें बेटा तं गेलें बेटा। तं सैह। अहां आर बेसी ओझरा क' परेशान भ' सकै छी।

           एहन बात सब अनेको छैक। तकर विवरण संदर्भ-सहित ठाम-ठाम एहि किताब मे आयल छैक। मैथिली साहित्यक इतिहास सब मे सिद्धसाहित्यक चर्चा जरूर ठाम-ठाम भेटत मुदा कतहु इतिहासकार ओकरा प्राक् मैथिली कहि पिंड छोड़बैत देखार पड़ता, जेना जयकान्त बाबू। तं क्यो एहि आधार पर ओकरा निरस्त करता जे ओ (सिद्धसाहित्य) मैथिली मे चलि नहि सकल, जेना माया बाबू। पं. बबुआ मिश्रक अभिमत कें स्मरण करी तं सिद्धसाहित्य आ डाकवचन कें किएक मैथिली साहित्य नहि मानल गेल, तकर समाधान भ' जाइत अछि। सिद्धसाहित्य कें ओ मैथिली साहित्य सं बाहर एहि दुआरे रखलनि जे ओ 'पंडितमंडली मे अद्यापि सर्वमान्य नहि भेल अछि।' कहब जरूरी अछि जे एहि निकष पर ओ पंडितमंडली मे कहियो सर्वमान्य नहि भ' सकैत अछि कारण ओहि मे तमाम बात ब्राह्मणधर्मक विरुद्ध भरल पड़ल अछि, कर्मकांड आ वर्णव्यवस्थाक धज्जी उड़ा देल गेल छै। ओ कोना सर्वमान्य भ' सकैत अछि?

           ठीक तहिना पं. मिश्र डाकवचन कें खुल्लमखुल्ला एहि आधार पर मैथिली साहित्य नहि मानलनि जे ई 'पंडितरचित' आ 'पंडितगोष्ठीमान्य' रचना नहि थिक। कलाकारी देखल जाय। डाकवचन ब्राह्मणधर्मक विरोधी नहि अनुगामी रचना थिक। ओही निकष पर जं ओ एतय टिकल रहितथि तं एकरा मैथिली साहित्य मानि सकै छला कारण ई रचना पंडितगोष्ठीमान्य रहल अछि। मुदा नहि। एतय आबि ओ अपन निकष बदलि लेलनि। हुनकर महानता कहल जाय जे ओ लिखि क' मानलनि। आन विद्वान सब मानैत तं ठीक यैह रहला, जखन कि लिखैत किछु आर रहला। एहन देखावटी दांत बला विद्वान सब अपेक्षाकृत अधिक अपकारी जीव थिका। मैथिलीक पर्यावरण एहन अपकारी जीव सब सं भरल रहल अछि।

           एहि किताब मे प्राय: पहिल बेर मैथिली लोकसाहित्यक अध्ययन मिथिलाक जातीय साहित्यक रूप मे करबाक प्रयास कयल गेल अछि। स्वयं रमानाथ झा एहि बात कें कहियो स्वीकार कयने छला जे मिथिलाक निजी जातीय साहित्य मौखिक रहल अछि आ प्राचीनकालक परिवेश मे राज्याश्रय प्राप्त नहि हेबाक कारण लिखित साहित्यक परंपरा मिथिला मे बहुत बाद मे जा क' शुरू भ' सकल अछि। कते आश्चर्यक बात थिक जे ग्रियर्सन कें विद्यापति आ दीनाभद्री दुनूक गीत लोककंठ सं एक्कहि समय मे प्राप्त भेल छल जकरा ओ उद्यमपूर्वक प्रकाशित करेलनि। विद्यापति तं मिथिलाक संस्कृतिक सिरमौर बनि गेला मुदा दीनाभद्रीक सेहो कोनो सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य छैक वा एहि सं मिथिलाक जातीय साहित्यशैलीक एक प्ररूप विशेषक कोना विलक्षण अभिव्यक्ति भेल अछि, एहि दिस विद्वान लोकनिक आंखि सदा मूनल रहलनि। मानू ई सोचब एक पातक करबाक तुल्य हो।

           छंद मिथिलाक जातीय कविताक वस्तु नहि थिक, ई बात अलग सं कहबाक बेगरतो हम नहि बुझैत छी। मिथिलाक वस्तु थिक राग, ताल, लय। छंद मे मैथिली कविता लिखबाक प्रथम प्रयास मनबोध केलनि आ चन्दा झा तं मानू एकर झड़ी लगा देलनि। हुनकर मिथिलाभाषा रामायण मे अस्सी प्रकारक छंदक प्रयोग भेल अछि। एहि तरहें मैथिली कविता मे छंदक प्रयोग आधुनिक काल मे आबि क' तखन शुरू भेल अछि जखन परजीवी पंडितवर्ग कें मैथिली कें संस्कृतक पिछलग्गू बनायब अपन वर्चस्व लेल परम जरूरी बुझना गेलनि। आइ स्थिति ई अछि जे छंदहीन कविते कें विजातीय आ आधुनिक मानि ओकर अवहेलना करबाक उपदेश लिखल भेटैत अछि। सगरो यैह सुनबै जे छंद थिक मिथिलाक जातीय वस्तु, अप्पन परंपरा जखन कि छंदमुक्त कविता भेल विजातीय वस्तु। अन्हेर कहल जायत एकरा, मुदा सैह पंडितगोष्ठीमान्य छैक।

           किताबक प्रथम खंड मुख्यत: जातीय साहित्य पर केन्द्रित अछि। मिथिलाक जातीय साहित्यक प्राय: समस्त शैली सब कें बुझबाक प्रयास एतय कयल गेल अछि। आ, सिद्धसाहित्य आ वर्णरत्नाकर कें मिथिलाक जातीय साहित्यक प्रथम लिखित अभिलेखक रूप मे बुझबाक कोशिश भेल अछि।

           तहिना, ई किताब मैथिली आलोचनाक प्राय: पहिल किताब छी जतय मुख्यधाराक मैथिली कविताक विकास कें देखबाक लेल कबीरक मैथिली कविताक अध्ययन जरूरी बूझल गेल अछि। सतरहम शताब्दीक बाद कबीरक मैथिली पद ठीक तहिना मिथिला मे प्रचलित रहल अछि जेना मैथिली संस्कारगीत वा मैथिली लोकगाथा। कबीर पदावलीक संरक्षणक  सुचारु व्यवस्था मिथिला मे छल जतय सैकड़ोक संख्या मे कबीरमठ छलैक आ हरेक मठ लग कबीर पदावली परंपरया संरक्षित छल। ध्यान देबाक बात थिक जे एहन कोनो सौभाग्य मिथिला मे विद्यापति कें नहि भेटल रहनि। हुनकर पदावलीक संरक्षणक कतहु कोनो व्यवस्था तं नहिये छल, दोसरो कोनो मैथिली कवि एहन नहि भेला जिनका पद कें संरक्षणक ई गौरव मिथिला मे भेटल हो। हं, एनमेन अहिना बंगाल मे विद्यापति पदावली सेहो संरक्षित छल, मुदा ई बात मिथिलाक नहि बंगालक थिक आ बंगाल मिथिला सं बाहर छल। बंगाल मे 'महाजन' महापुरुषक गौरव विद्यापति कें हासिल छलनि, जकर समरूप जं मिथिला मे हमरा लोकनि खोज करी तं एक कबीरे भेटि सकै छथि।  डा. कमलाकान्त भंडारी अपन पुस्तक मे एक अध्याय इहो देने छथि-- विद्यापति आ कबीर पदावलीक तुलनात्मक अध्ययन। मुदा, मैथिलीक आधुनिक विद्वान लोकनि कबीर सं विद्यापतिक तुलना कें विद्यापतिक हेठी मानैत छथि। मुदा थम्हू। मिथिलेक एक आन आधुनिक विद्वान छथि पूर्णेन्दु रंजन। मिथिला मे कबीरपंथक इतिहास पर ओ किताब लिखने छथि। कबीर पर हुनकर आनो अनेक किताब सब प्रकाशित छनि। हुनका नजरि मे कबीरक तुलना विद्यापति सं करब कबीरक अपमान थिक। किएक? कारण थिक जीवनमूल्य, जे कविताक केन्द्रक होइ छैक। की कहबै एकरा?  तें हम कतहु-कतहु कहितो रहल छी जे अपना सब मिथिला जकरा कहै छियै से कोनो एकटा नहि अछि। दू अलग-अलग द्वीप मे बंटल, दुनू एक दोसर सं सर्वथा अपरिचित, एक दोसरक प्रति घोर अवज्ञा सं भरल। कहब जरूरी नहि जे दुनू मिथिला कें मिलेबाक ने कोनो स्वप्न मिथिलासमाज लग बचल छै ने सेहन्ता। धन्यवाद राजा लोकनि, धन्यवाद पंडित लोकनि, आधुनिक पंडित लोकनि!

           जेना कि हम पहिनहु कहि आयल छी, इतिहास लिखबाक ढंग सं हम ई किताब हम नहि लिखने छी। तें परिभाषा, परिचिति, वर्गीकरण, कालविभाजन आदिक कोनो चर्च एतय नहि भेटत। शुद्ध क' क' ई अपना समाजक प्राचीन कविता कें बुझबाक प्रयास थिक। मुदा, मैथिली साहित्यक इतिहासकार लोकनिक दृ्ष्टि बड़ संकुचित। मान्यता अत्यन्त जराजीर्ण। विचार संकीर्णता सं गछाड़ल। ई सब बात जहां-तहां प्रसंगवश आयल अछि। इतिहास-पुस्तक सब राजदरबार के अनुगामी भ' क' लिखल गेल अछि, जखन कि जमीन्दारी-उन्मूलन ताधरि भ' गेल छलैक। 

           हम सब देखै छी जे ओइनवार लोकनि जाहि तरहें मैथिली रचनाशीलता कें संरक्षण देलनि, से युग एक बेर बितलाक बाद पुन: घूरि क' कहियो नहि एलैक। हं, नेपाल मे आयल। नेपाल मे तं पूरा जगजगार भ' क' आयल जे आइ मध्यकालीन अन्हारक बीच नेपालेक मैथिली साहित्य प्रकाश-स्तम्भ बनल देखाइत अछि। तकरो एहि किताब मे देखबाक चेष्टा भेल अछि।

           खड़ोरय लोकनि संगीत-प्रेमी अवश्य छला आ मैथिली कविताक ओतबे अंश हुनका सब सं प्रोत्साहन पाबि सकल जतबा संगीत लेल वा अधिक सं अधिक मंच लेल उपयोगी छलैक। ताहू मे ब्रजभाषा मैथिलीक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी भ' क' सवार छल। खरोड़य लोकनिक विशेष कृपा ब्रजभाषे पर छलनि, से इतिहास देखबैत अछि।  एकर प्रभूत प्रभाव हमरा लोकनि सतरहम शताब्दीक लोचन मे जगजगार देखै छी। अपन रागतरंगिणी ओ संस्कृत मे लिखलनि। भाषानुवादक प्रश्न एलै तं मैथिली मे नहि, ब्रजभाषा मे कारिका लिखल। मुदा, राजक अनुगामी पंडितवर्ग एकरे देखि तिरपित-तिरपित रहला जे दृष्टान्त तं कम सं कम मैथिली गीतक देलखिन। नहिये दीतथिन तं हम सब हुनकर की बिगाड़ि सकै छलियनि? अवश्ये एकरा राजकृपा मानबाक चाही। खरोड़य काल मे ब्रजभाषाक बढ़ती सदा बनल रहल। तें, आइयो अहां देखब, मिथिलाक घरानेदार गायकी सभक जे बंदिश भेटत से मैथिली मे नहि, ब्रजभाषा मे। एतय धरि जे आधुनिक संभ्रान्त मंच पर विद्यापति-गीत कें प्रतिष्ठापित केनिहार मांगनि गवैया सेहो जखन अपन गायनक बीच छवि-छटाक प्रदर्शन करय लागथि तं बड़ी-बड़ी काल धरि ब्रजभाषा मे रचित कवित्त सब प्रस्तुत करैत रहैत छला।

           केहन दुर्भाग्यक बात थिक जे एहन राजदरबार मे गेबाक लेल जे गीत सब थोड़-बहुत लिखल गेल तकरे बाद मे इतिहासग्रन्थ सब मे मैथिली साहित्यक नामें जानल गेल। समाज मे जे चीज गाओल जाइत छल, सामंतवादक विरोधी कविलोकनि जे कविता करै छला, समाजक मनोरंजन लेल ग्रामकवि लोकनि जे कविता मैथिली मे लिखलनि, से सब अहां कें इतिहास मे कतहु नहि भेटत। तें मध्यकालीन कविताक अध्ययन करैत इतिहास-वंचित काव्यधारा पर नजरि देब हमरा जरूरी लागल अछि। एकरा एकटा आरंभ मात्र बूझल जाय। हम एक व्यक्ति मात्र छी। हमर अनेक सीमा अछि। जखन कि ई काज सामूहिक उद्यमक अपेक्षा करैत अछि। एहन कविता सब कें ताकि निकालब एक सामूहिके प्रयास सं संभव भ' सकैत अछि। हम शुरुआत टा क' सकल छी, सैह बूझल जाय।

           कायदा सं देखी तं 'मैथिली कविताक हजार वर्ष' नामक एहि किताब मे एक खंड आरो हेबाक चाही। आधुनिक कालक, जे चन्दा झा सं शुरू होइतय आ एकैसम शताब्दीक दोसर दशक धरि पहुंचितय। यद्यपि कि अनेकानेक चहलपहल, उतराचौरी, विधागत प्रतिस्पर्धा आ साहित्यक आन्दोलन सब सं भरल ई काल बहुत जटिल रहल अछि आ एकर अध्ययनो एखन धरि ढंग सं नहि भ' सकल अछि। मुदा, तत्काल तं ई हमर योजना सं बाहरक बात छल, हम तं प्राचीन साहित्य पढ़य विदा भेल रही। मोन मे बात जरूर अछि जे आगू जं कहियो सुविधा भेल तं इहो काज हम करबाक प्रयास करब। ई काज एहू दुआरे जरूरी छै जे बीसम शताब्दीक मैथिली कविताक जाबन्तो धारा, प्रवृत्ति, काव्यान्दोलन आ गति-प्रगतिक सांगोपांग विश्लेषण करैत हो तेहन कोनो किताब एखन धरि आयल नहि अछि, जखन कि कथा वा उपन्यासक क्षेत्र मे से आयल छै।

           अइ किताब मे कुल्लम सोलह टा अध्याय अछि। नौ अध्याय पहिल खंड मे आ सात अध्याय दोसर खंड मे। एकरा निरंतरता मे लिखल गेल अछि, जाहि मे चारि बरस सं ऊपर समय हम लगेने छी। मुदा, जे पाठक एक दम्म मे लगातार अइ किताब कें पढ़ता तिनका एक बात ई लागि सकै छनि जे किछु एहन बात सब छै जकर कैक अध्याय मे बेर-बेर उल्लेख कयल गेलैए। ई रिपीटेशन-सन लागि सकैए। मुदा एना जानि-बूझि क' कयल गेलैए। तकर पहिल तं उद्देश्य यैह जे जे पाठक कोनो खास अध्याय लेल उत्सुक भ' क' ओकरा पढ़ता तं ओइ विन्दु सं संदर्भित तमाम बात हुनका ओत्तहि एक ठाम भेटि जेतनि। दोसर, गौर कयने इहो चीज देखबै जे जतय कतहु रिपीटेशन अछि से ठीक-ठीक पछिले शब्दावली मे नहि अछि, संदर्भक मोताबिक ने केवल शब्दावली, टिप्पणी धरि बदलल-सन अछि। कतोक ठाम तं ओइ संदर्भ सं जुड़ल कोनो नव तथ्य ओइठाम आबि जाइत छैक, जकर उल्लेख केवल ओत्तहि टा भेल रहैत छैक।

           कहब जरूरी नहि जे ई किताब हम अकादमिक उद्देश्य सं नहि, सामान्य बौद्धिक पाठक लेल लिखने छी। एहि कोटिक पाठकक मैथिली प्रकाशन-जगत मे आयब एक नव परिघटना छी। ओ दुनिया-जहान के ज्ञान सं भरपूर छथि आ आब अपन देसकोस, अपन संस्कृति, अपन इतिहास कें देखय-जानय चाहै छथि। इहो कहब जरूरी नहि जे जहिया ई नवीन पाठक-वर्ग अदृश्य छला तहियो हम एही अदृश्य पाठक लेल लिखैत रही। कोनो लेखक के लेल ई कोनो छोट उपलब्धि नहि कहल जेतै जे ओकर अदृश्य पाठक ओकर जीबिते जी दृश्यमान भ' गेल हो। परंपरित पाठक सेहो दू-चारि पढ़ि लेथु, एकरा हम सब दिन बोनसे मानल अछि।


           अन्हार कने छंटय, दुनू मिथिला कें एक करबाक स्वप्न-सेहन्ता जागैक, संकीर्णता कम होइ, वस्तुनिष्ठता बढ़य, जतय धरि मैथिली साहित्य पहुंचि चुकल अछि ताहि सं आगू जाय, खसय तं किन्नहु नहि-- मोन तं बड़की टा अछि। तखन तं कहलकै रहय जे जक्कर मोन बसय बड़ दूर/ तक्कर आस विधाता पूर।

                                     --तारानंद वियोगी

     (पोथीक भूमिका सँ। ई पुस्तक दू खंड मे अंतिका प्रकाशन सँ प्रकाशित अछि आ अमेजन पर उपलब्ध अछि।)          

           

           

Saturday, February 17, 2024

लोकगाथा, लोकगीत आ मैथिली साहित्यक विकास


--तारानंद वियोगी


मैथिलीक आदिकालीन साहित्यक बारे मे आचार्य रमानाथ झा लिखलनि अछि-- 'आदिअहि सँ  मिथिला जनपदक एक गोट अपन भाषा छल जे पूर्व मे द्विजाति सँ भिन्न लोक बजैत छल। क्रमश: द्विजाति सेहो ई भाषा बाजए लगलाह। एहि भाषा मे जे रचना भेल से सब जनभाषाक हेतु ओ एकर प्रचार पंडित सँ भिन्न जनता मे भेल ओ वर्णरत्नाकर सँ पूर्व प्राय: एहि मे रचना सेहो पंडित सँ भिन्ने लोक करथि। एहि भाषाक साहित्य तें मौखिक रूपें प्रचलित होइत रहल। राजाक आश्रय नहि रहलें कोनो पैघ ग्रन्थक निर्माण नहि भेल।' (प्राचीन मैथिली साहित्यक रूपरेखा/रचनावली/ खंड-2 पृ.55-56) अपन एही लेख मे, आदिकालीन रचनाकार लोकनिक सोह लैत ओ इहो लिखलनि जे 'अवहट्ठक रूप मे एहि भाषाक जे कोनो रचना उपलब्ध अछि से सब मुख्यत: पंडितक रचना नहि, ब्राह्मणक रचना नहि, साधारण जनसमाजक साहित्य थिक, यथार्थ अर्थ मे लोकसाहित्य थिक जकर रचना प्राय: डाक गोआर अथवा भूसुक राउत सदृश ब्राह्मणेतर जातिक कयल थिक।' (उपर्युक्त/पृ.53)

           दू-तीन बात एतय ध्यान मे राखि लेबा योग्य अछि।  पहिल तँ जे जहिया सँ आधुनिक भारतीय भाषा सब अपन स्वतंत्र स्वरूप धारण करय लागल, ओहि भाषा सब मे मैथिली सेहो एक भाषा छल। दोसर, एहि भाषाक विकास संस्कृत सँ वंचित समाज द्वारा अपन भाषिक अभिव्यक्ति लेल कयल गेल छल। तेसर, राजा वा पंडितक संरक्षण जें कि संस्कृत सँ भिन्न, मैथिली-सन भाषा कें प्राप्त नहि रहलैक, तें एकर संपूर्ण रचनाशीलता मौखिक रूप सँ अभिव्यक्त होइत रहल। एहि सब कारण सँ हमरा सदति ई उचित आ विधेय लगैत अछि जे जखन अहाँ मिथिलाक लोकसाहित्य पर बात करैत छी, तँ ई चीज स्पष्टत: मैथिलीक प्राचीन साहित्य पर बात करब थिक।


मिथिलाक लोकसाहित्य

               आइ 'लोक' शब्द जाहि अर्थ मे प्रयुक्त होइत अछि, ठीक-ठीक एही अर्थ मे एकर प्रयोगक इतिहास कैक हजार साल पुरान अछि। ऋग्वेद मे यद्यपि कि ठीक एही अर्थ मे 'जन' शब्दक प्रयोग बेसी ठाम भेल अछि मुदा 'लोक' सेहो अनेको ठाम प्रयुक्त भेले अछि। पाणिनिक अनुसार लोकृ दर्शने क्रियापद सँ घञ् प्रत्यय केलाक पछाति 'लोक' शब्द बनैत अछि जकर अर्थ भेल देखनिहार, द्रष्टा। एहि 'लोक'क व्यापकता कतेक छल तकर पता महाभारतक एहि कथन सँ पाओल जा सकैत अछि जे 'प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नर:।' लोक कें गहिराइ सँ देखि सकबाक हुनर जे व्यक्ति सीखि लियय से सर्वदर्शी भ' जाइत अछि। ध्यान दी जे सर्वदर्शी शब्दक एतय वैह अर्थ छैक जकरा लेल हमसब त्रिकालज्ञ शब्दक व्यवहार करैत छी। दोसर दिस जँ प्रामाणिकताक विचार करी तँ सब गोटे अवगते छी जे अपना ओतय शास्त्राचार पर लोकाचार भारी पड़ैत अछि। मैथिल संस्कृति मे आइ बहुतो रास एहन वस्तु आ रेवाज शामिल अछि जकर स्रोत विदेहेतर, आर्येतर अछि। जेना गोसांउनिक पीड़ी(चैत्य) लिच्छवि लोकनि, बौद्ध लोकनि सँ आएल अछि, तहिना विवाह मे सिन्दूरदान आदिवासी नागपरंपरा सँ आएल वस्तु थिक। संस्कृत व्याकरणक ई स्मरणीय प्रसंग थिक जे कोनो प्रयोगक शुद्धाशुद्धिक निर्णय वास्ते वार्तिककार ई हल देने रहथि जे 'लोकान् पृच्छ।' अर्थात कोनो प्रयोग शुद्ध अछि कि अशुद्ध, तकर अंतिम निर्णयन लोक-प्रयोगे सँ भ' सकैत अछि।

             मिथिलाक भूभाग लोकसाहित्यक मामिला मे बहुत सम्पन्न रहल अछि। एहि विषयक अधिकारी अध्येता मणिपद्म लिखलनि अछि जे भारतक आन क्षेत्रक तँ बाते छोड़ू, पड़ोसिया बंगाल, असम आ उड़ीसा धरि कें एतेक भारी संख्या मे लोकसाहित्य उपलब्ध नहि छैक। लोकगाथाक प्रसंग मे मणिपद्म लिखलनि अछि-- 'जहाँधरि पूर्वांचलीय लोकगाथाक बात छैक, बंगला, असमिया, उत्कल आ नेपाली भाषा सब मे एतेक उत्कृष्ट कोटिक एतेक लोकगाथा सब नहि छैक। बंगला भाषाक लोकगाथा मे अइ कोटिक दुइये टा लोक-महागाथा छैक-- धर्ममंगल आ विद्या-सुन्दर। असमिया मे जे एकटा तांत्रिक-वैष्णव पृष्ठभूमि पर लोकगाथा छैक ओकर नाम भेल बड़नाथ। नेपाली भाषा मे लोककथा तँ पर्याप्त छैक, किन्तु कोनो एहन (तात्पर्य छनि दुलरा दयाल, सलहेस, अनंगकुसुमा सन अनेको लोकगाथा सँ) जगता ज्योति लोकमहाकाव्य नहि छैक।' (मैथिली लोकगाथाक इतिहास, पृ. 222-223)

             मैथिली लोकसाहित्यक विस्तार अनंत छैक। एकर अध्येता कें एक बात सुरुहे मे गीरह बान्हि लेबाक चाही जे एतुक्का लोकसाहित्ये अन्तत: मिथिला भूभाग मे बसनिहार करोड़ो लोकक आदिम जातीय साहित्य थिक। स्पष्ट क' दी जे 'जातीय' शब्दक अर्थ एतय नस्ल (Race) वा वर्णगत जाति (Caste) सँ नहि, अपितु राष्ट्रीयता (Nationality) सँ अछि। भाषाक आधार पर जेना हमरा लोकनिक बीच बंगाली, गुजराती, मराठी, उड़िया, तमिल आदि जातिक पहचान थिक, ठीक तहिना मैथिल जातिक भाषाई पहचान सँ ई शब्द जुड़ल‌अछि। आन-आन भाषाभाषी प्रदेश सब आगां राजनीतिक इकाइक रूप मे सेहो विकसित भ' सकल तकर मूल कारण छल जे भाषाक आधार पर हिनका लोकनिक जातीयता-बोध सबल छल, जकर अभाव मिथिला मे रहल। 

          मैथिली लोकसाहित्यक विस्तार व्यापक अछि। अनेक विधा, जेना कथा, दीर्घकथा, कथाकाव्य। कविता विधा कें लिय' तँ प्रबन्धात्मक काव्य लोकगाथा, प्रदर्शकाव्य गद्यपद्यात्मक नाच, गीतिकाव्य मे ततेक विस्तार जे स्वयं लोकगीतेक दस सँ ऊपर प्रकार, आ उपप्रकारक गिनती करी तँ सौ सँ ऊपर। अगेय काव्य फकड़ा, जकरा उक्तिकाव्य कहल जा सकैछ। वचनकाव्य जेना डाकवचन। नेनागीतक स्वभाव अकानी तँ लय आ तुक मे कहल गेल कथाकाव्य सन प्रतीत होयत। आ एहि समस्त विधा सभक पाठशाला कतय? परिवार। अणिमा सिंह लिखने छथि-- 'मुख मे एकर सृष्टि होइछ आ हृदय मे एकर निवास होइछ। एकर केवल मौखिक प्रचार होइत आएल अछि।' (मैथिली लोकगीत/पृ.9) कामरेड चतुरानन मिश्र अपन प्रसिद्ध विनिबंध 'मैथिल संस्कृति के पुनरुत्थान का सवाल' मे एहि ठामक परंपरित परिवार-व्यवस्था कें लोकसाहित्यक प्रधान कर्मशाला कहैत छथि। एकर विस्तार आगू समाज धरि जाइत अछि, जाहि मे कीर्तनमंडली, नाचपार्टी आदि-आदि रूप मे विस्तार पबैछ। एक पीढ़ी सँ दोसर पीढ़ी मे लोकसाहित्य कें संचरित करबाक ई सब स्थायी पाठशाला थिक।


मैथिली लोकगाथा


मैथिली लोकगाथाक प्रथम संकलयिता जाॅर्ज अब्राहम ग्रियर्सन (1851-1941) छथि। ओ मैथिलीक तीन गाथा-- गीत दीनाभद्री, गीत सलहेस एवं गीत नेवारक-- संकलित एवं प्रकाशित करौलनि। एकरा अतिरिक्त गोपीचन्दक गाथा सेहो हुनकर प्रकाशित छनि, जे बहुजनपदीय (जे मिथिलाक संग-संग आनो जनपद मे प्रचलित हो) गाथा थिक। एतय ध्यान देबाक बात थिक जे एहि लोककृति सब कें ओ 'गाथा' नहि, 'गीत' कहलनि। तात्पर्य अछि जे मिथिला-क्षेत्र मे साबिक मे गाथा कें सेहो गीत कहल जाइत छल--एहन गीत जे महाकाव्यात्मक हो आ जकर गायन लेल अधिक समयक अपेक्षा हो। एहि लोककृति सभक लेल अंग्रेजीक 'बैलेड'क अर्थ मे सर्वप्रथम मणिपद्म एकरा 'गाथा' कहलनि। ज्ञात हो जे 'गाथा' एक ऋग्वेदकालीन विधा थिक जे आगां संस्कृतक संग-संग प्राकृत मे सेहो लिखल जाइत जाइत रहल। मुदा, लोकगाथा शब्द सँ जाहि प्रकारक रचना अभिप्रेत अछि, ताहि सँ ई सर्वथा भिन्न छल। मणिपद्म मैथिलीक आठ गोट लोकगाथाक विवरण देने छथि। डा. जयकान्त मिश्र अपन पुस्तक 'मिथिलाक लोकसाहित्यक परिचय' मे दस गोट लोकगाथाक विवरण देने छथि, यद्यपि कि एकरा ओ लोकगाथा नहि 'गाथाकाव्य' कहने छथि। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद सँ प्रकाशित 'लोकगाथा परिचय'(1959) मे मिथिला-क्षेत्रक बीस गोट लोकगाथा कें शामिल कयल गेल अछि। राजेश्वर झा अपन पुस्तक 'लोकगाथा-विवेचन'(1974) मे पांच गोट तथा डा. विश्वेश्वर मिश्र अपन पुस्तक 'मैथिली लोकगाथा विवेचन'(2007) मे अठारह गोट लोकगाथा कें शामिल केलनि अछि। डा. प्रफुल्ल कुमार सिंह मौन कुल मिला क' अड़तीस गोट लोकगाथाक विवरण विभिन्न पुस्तक मे देने छथि। डा. रामदेव झा अपन प्रसिद्ध पुस्तक 'मैथिली लोकसाहित्य: स्वरूप ओ सौन्दर्य' मे बहत्तर गोट लोकगाथाक सूची देने छथि। चन्द्रेशक एक एक लेख मे मैथिली लोकगाथाक संख्या 109 बताओल गेल अछि। युवा लोकविद् आ शोधप्रज्ञ डा. ओमप्रकाश भारती एही संख्या 109 कें प्रामाणिक मानलनि अछि।

        मैथिली लोकगाथा सब वास्तव मे कतेक अछि, तकर ठीक-ठीक गणना कठिन अछि। तकर कारण दूटा। एक तँ मिथिलाक किछु सामाजिक संवर्गक बीच प्रचलित लोकगाथाक एखनहु संकलन संभव नहि भ' सकल होयब संभावित अछि। दोसर, मिथिलाक आधुनिक कालक प्रवेशद्वार पर अवतरित किछु एहनो चरितनायक छथि, जिनकर गाथा एखन हाल-साल मे विकसित भेल अछि। उदाहरणक लेल हमरा लोकनि कारू खिरहरिक गाथा कें देखि सकैत छी। बाबा कारू लक्ष्मीनाथ गोसांइ (1793-1873)क समकालीन छला। बीसम शताब्दी मे आबि क' हुनकर गाथा विकसित भेल आ एकैसम सदी मे एकर लोकप्रियता दिनानुदिन बढ़ि रहल अछि।

      विभिन्न विद्वान लोकनि लोकगाथाक वर्गीकरण भिन्न-भिन्न तरहें कयने छथि। भौगोलिकताक आधार पर डा. रामदेव झा एकर दू वर्ग-- मिथिला जनपदीय आ बहुजनपदीय-- कयने छथि। बहुजनपदीय सँ तात्पर्य अछि एहन गाथा जे आनो प्रान्त मे प्रचलित हो। उदाहरणक लेल बिहुला-विषहरिगाथा कें लेल जा सकैए जे मिथिलाक संग-संग बंगाल आ असम मे सेहो प्रचलित अछि। तहिना लोरिकगाथाक एक वर्सन बंगाल मे प्रचलित अछि तँ एक भिन्न वर्सन छत्तीसगढ़ मे सेहो गाओल जाइत अछि। डा. ओमप्रकाश भारती गाथा-प्रवृत्तिक आधार पर एकर दू वर्ग केलनि अछि-- भगैत(भक्ति-सम्बन्धित) आ महराइ(वीरगाथा)। ज्ञात हो जे महराइये के प्रचलित नाम 'गीत' थिक, जकर उल्लेख ग्रियर्सनक प्रसंग मे कयल गेल। डा. मौन विषयवस्तुक आधार पर तीन वर्ग क्रमश: पौराणिक-अर्द्धपौराणिक, वीरकथात्मक एवं प्रेमकथात्मक केलनि अछि। 

       अपन एक लेख 'लोकगाथाक उद्भव आ स्वरूप' मे पं. गोविन्द झा पुराण संग लोकगाथाक भिन्नताक प्रसंग मे बहुत महत्वपूर्ण बात कहने छथि-- 'मंदिर आ गहबर मानू समाजक बीच विभाजक बनि गेल। शिष्टजन मंदिर धयलनि तँ सामान्यजन गहबर। राम, कृष्ण, बुद्ध आदि साकार देवताक चरित सूत, व्यास, मुनि आ विविध धर्माचार्य सब रचल जे शिष्टजन मे प्रचलित देवभाषा संस्कृत मे लिपिबद्ध होइत गेल आ आइ बढ़ैत-बढ़ैत रामायण, महाभारत, पुराण आ विविध धर्मग्रन्थक रूप मे ढेर लागल अछि। एहिना गहबर मे स्थापित निराकार दिव्य प्रेतात्मा लोकनिक चरितगाथा अज्ञातनामा लोकसब सामान्यजनक मौखिक भाषा मे रचैत गेलाह जकरा आइ हमरा लोकनि 'लोकगाथा' कहैत छिऐक।'(मैथिली दलित लोकगाथा ओ संस्कृति/ सा.अ./ पृ.183) गहबर मे देवमूर्ति नहि, पिण्ड अथवा पीड़ीक पूजा होइत अछि। ई असल मे चैत्य थिक, जे बौद्धसंस्कृति सँ आयल अछि आ लोकायतक पर्याय बनि गेल अछि। पुराण आ लोकगाथा मे की अंतर छैक, एहि विषय मे पं. गोविन्द झा कहैत छथि जे 'पुराणक ऐतिहासिकता बड़ संदिग्ध मानल जाइत अछि, जखन कि लोकगाथाक ऐतिहासिकता वा सत्यता मे सन्देह करब कठिन। ई नहि कहब जे लोकगाथा मे कल्पना नहि अछि। एकर कल्पना पुराणक कल्पना जकाँ अविश्वसनीय नहि लगैत अछि।दोसर, पुराण मे जे किछु विश्वसनीय वा अविश्वसनीय बात सब भेटैत अछि से संस्कृत साहित्यक भंडार मे बहुतो ठाम भेटि जाइत अछि, किन्तु लोकगाथा मे जे किछु भेटैत अछि से आन कोनहु स्रोत सँ कदाचिते भेटत। लगैत अछि जे हमरा लोकनि युग-युग सँ एक ठाम रहितहु जेना दू भिन्न-भिन्न दुनियांक लोक होइ। एक दुनियांक लोक दोसर दुनियांक लोक सँ एकदम अनचिन्हार, अनभुआर। तेसर, लौकिक जीवनक जे यथार्थ आ रोचक झलक लोकगाथा मे भेटैत अछि से ने पुराण मे भेटत, ने कतहु अन्यत्र।'(उपर्युक्त/ पृ.182)

       मिथिलाक सामाजिक आ सांस्कृतिक जीवनक अत्यन्त सूक्ष्म आ व्यापक  चित्रण लोकगाथा सब मे भेल छैक। यैह कारण थिक जे अपन प्रसिद्ध लेख 'मैथिली लोकगाथाक इतिहास' मे मणिपद्म एहि निष्कर्ष पर पहुँचल रहथि जे 'लोकगाथाक आधार पर मिथिलाक लोक इतिहास (पीपुल्स हिस्ट्री) ज्योतिर्मय भ' उठत। एखन धरि चलि अबैत इतिहासक रूपरेखा, क्रम आ मान्यता बदलि जायत।'(मैथिली लोकगाथाक इतिहास/पृ.223) अद्भुत बात ई छैक जे मैथिलीक जतेक जे कोनो लोकगाथा अछि, ओहि सबटा के चरितनायक लोकनि कमजोर वर्ग, दलित, पछड़ल समूह सँ अबैत अछि। एकर एकमात्र जँ अपवाद अछियो तँ से 'लवहरि-कुसहरि'थिक, जकर नायिका सीता छथि। मुदा, हुनको लोकगाथाक चरितनायक एही दुआरे बनाओल गेल जे पतिगृह सँ निष्कासित ओ एक प्रताड़ित स्त्री छली, जे कि स्वयं संघर्ष क'क' अपन दुनू पुत्र कें सुयोग्य बनेबा मे सफल रहली। लोकगाथाक गहन अवलोकन सँ हमरा लोकनि देखि सकैत छी जे लोकगाथाक समाज जें कि भिन्न अछि, तें एकर आदर्श सेहो भिन्न अछि। एक उदाहरण सँ बात बेसी स्पष्ट भ' सकत। 'नैका बनिजारा' गाथाक नायिका फुलेश्वरी पतिक परदेस चलि गेलाक बाद बहुत प्रताड़ना सहैत अछि, आ अन्तत: अपन दुष्टा ननदि द्वारा स्त्रीदेहक व्यवसायी कुम्भा डोमक हाथें बेचि देल जाइत अछि। जखन परदेसक अभियान पूरा क' क' नैका घर घुरैत छथि तँ अपन स्त्री कें नहि देखि दुखी होइत छथि। समाज सँ जखन सब वृत्तान्त ज्ञात होइत छनि तँ कठिन संघर्ष करैत कुम्भा डोमक चांगुर सँ अपन स्त्री कें मुक्त करबैत छथि आ स्नेहपूर्वक अपन घर अनैत छथि। ओहि गाथाक चरमोत्कर्ष कदाचित एही घटना मे छैक। अपन प्रताड़ित बेकसूर स्त्री कें इंसाफ देबाक जे नैकाक आदर्श छलैक, वैह हुनका अपना समाज मे ततेक पूज्य बनौलकनि जे हुनकर गाथा गाओल जाय लागल। दोसर दिस शिष्ट साहित्यक आदर्श कें देखी तँ हमरा लोकनि बेकसूर सीता कें प्रताड़ित केनिहार पतिये कें पूज्य आ चरितनायक होइत देखैत छी, जखन कि सीताक हरण केनिहार रावण स्त्रीदेहक व्यवसायियो नहि, एक ब्राह्मण राजा छल।

       अपन लेख 'मैथिली लोकगाथाक इतिहास' मे मणिपद्म आठ टा लोकगाथा कें महागाथाक दरजा देने छथि-- दुलरा दयाल, राजा सलहेस, लोरिकाइन, नैका बनिजारा, दीनाभद्री, राय रणपाल, लवहरि-कुसहरि आ अनंगकुसुमा। प्रफुल्ल कुमार सिंहक सूची मे बिहुला सुन्नरि आ विजयमल्ल कें सेहो महागाथा मानल गेल अछि। 'महा' केवल एहि अर्थ मे नहि जे एकर सभक वितान नमहर अछि। जखन हमसब मैथिली लोकगाथा-जगतक अंतरंग मे प्रवेश करैत छी तँ कैकटा रोचक तथ्य सँ सामना होइत अछि। असल मे, मैथिली लोकगाथाक संसार ततेक नम्हर आ जटिल अछि जे कतोक बेर विस्मय मे पड़ा दैत अछि। एहि ठाम महागाथाक संग-संग गाथा-गुच्छ आ गाथा-चक्र कें बुझबाक हम अनुरोध करब। उदाहरणक लेल, जँ अहाँ दुलरा दयाल गाथाक अध्ययन केलाक बाद बहुरा गोढ़िन, केवल महराज, अमर सिंह आ जय सिंहक गाथाक अध्ययन करी तँ एहि सब गाथाक पृष्ठभूमि मे एक गोट तात्विक समरूपता, एकसूत्रता आ एकतानता सन के अनुभव होयत, जेना एक्के राग एहि सब गाथा मे अलग-अलग बंदिश संग गूंजैत हो। प्राय: एहने स्थिति तखन बनैत अछि जखन अहाँ राय रणपाल गाथा पढ़लाक बाद गांगो गोढ़िन आ गुगुलिया गाथाक अध्ययन करी। ठीक तहिना, जोतिक गाथाक बाद जखन कारिख गाथा वा कालिदास गाथा, अन्दू मालि, बेनी महराज, उदय साहु, हरिया-हरिनियां गाथा देखैत छी, किछु एहने प्रतीति होइत अछि। प्रश्न अछि जे एना किएक होइत अछि आ एकर कारण की थिक? जखन मणिपद्म दुलरा दयाल कें महागाथा कहैत छथि तँ हुनका ध्यान मे इहो बात रहै छनि जे एहि गाथाक सहायक गाथा सब सेहो अनेक छैक जे समय बितलाक संग स्वयं मे एक स्वतंत्र गाथाक रूप मे प्रसिद्धि प्राप्त क' लेलक अछि। मणिपद्म दुलरा दयाल कें महागाथा कहलनि, मुदा असल मे हुनका कमला-गाथा कें महागाथा कहबाक चाहैत छलनि कारण दुलरा दयाल, बहुरा गोढ़िन सहित एहि वर्गक आन गाथा सब कमलाक देव-परिवार सँ संबद्ध अछि। एहि विषयक जिज्ञासु लोकनि कें हमर पुस्तक 'मैथिली कविताक हजार वर्ष' भाग1 के अनुशीलन करबाक चाहियनि जतय लोकगाथा आदि सँ संबद्ध विषय सब पर विस्तार सँ प्रकाश देल गेल अछि।

       भगैत(भक्ति) शैलीक जे मैथिली लोकगाथा सब अछि, से अद्भुत रूप सँ सर्वभारतीय शास्त्रीय आदर्श सँ छिटकि क' क्षेत्रीय (एहि ठाम तात्पर्य मैथिल) संस्कृतिक आ धर्मनिष्ठाक अपूर्व ऐतिहासिक घटनाक्रमक साक्षी अछि। ऊपर जोतिक आदि गाथा-गुच्छक हम चर्चा केने छी। ई संपूर्ण गाथा-गुच्छ मूलत: धर्मराज-महागाथाक सहायक गाथा सब थिक। जोतिक आ कारिख गाथा पर मैथिली मे शोध भ' चुकल अछि। मुदा आठम शताब्दीक बाद सार्वत्रिक आदर्शक स्थान पर कोना मिथिलाक अपन क्षेत्रीय धर्मनिष्ठा आ संस्कृति विकसित भ' रहल छल आ तकर बचल अवशेष हमरा लोकनि एखनहु की सब देखि पाबि रहल छी, ई बोध कोनहु शोधप्रज्ञक भीतर नहि पाओल गेल अछि। उदाहरणक संग बात करी तँ बेसी स्पष्ट भ' सकत। हमरा अध्ययनक अनुसार धर्मराज-महागाथा सर्वाधिक प्राचीन अछि, जाहि मे वज्रयानी पूजा-पद्धतिक अवशेष हमसब आइयो पाबि सकै छी। एहि पद्धति मे पूजा वा ध्यान ब्राह्मणधर्म जकाँ व्यक्तिगत नहि, अपितु सामूहिक होइत अछि। धर्मराजक पूजा होइत अपना गाम मे देखि सकैत छी, जाहि मे गोलाइ मे भगतिया सब बैसैत छथि आ बीच मे भगता। गाथा जे गाओल जाइछ से मैथिली मे तँ होइतहि अछि, उच्च सामूहिक स्वर मे विविध वाद्ययंत्रक संग भारी गर्जन-तर्जन करैत गाओल जाइछ। ओमप्रकाश भारती एहि गर्जन-तर्जनक सम्बन्ध मानसिक विरेचन संग जोड़ैत कहलनि अछि जे कठोर श्रमक अभ्यास सँ निम्नवर्गक लोक मे शारीरिक शक्ति पर्याप्त होइत छनि, मुदा जीवन मे वीरता प्रदर्शन करबाक अवसर नहि रहैत छनि। अपने सन एक गाथानायकक वीरता-प्रदर्शन गबैत ओ अपना जीवनक विषमता बिसरि जाइत छथि आ एकर भरपाइ ई चिकारी-भोकारी करैत अछि। ( भारती जीक लेख लेल देखी-- मैथिली दलित लोकगाथा ओ संस्कृति/पृ. 32-35) जखन भगताक देह मे देवता अबैत छथि तँ उपस्थित समस्त सामाजिक समुदायक गोहारि होइछ। कमाल बात ई अछि जे धर्मराज एक निराकार देवता छथि, स्वयं गाथा सब मे हुनका निर्गुण आ निरंकार कहल गेल अछि, जखन कि मैथिलीक अनवधान अध्येता लोकनि केवल एहि आधार पर धर्मराज कें सूर्यदेवता कहैत छथि जे हुनकर एक नाम गाथा सब मे 'दिनानाथ' आएल छनि। एहि विषयक गंभीर जानकारीक  लेल जिज्ञासु लोकनि कें शशिभूषण दासगुप्तक प्रख्यात पुस्तक 'Obscure Religious Cults'क अध्ययन करबाक चाही।

      धर्मराजक देव-परिवार चौदह देवताक छनि, जिनका समेकित नाम 'चौदह देवान' सँ संबोधित कयल जाइछ। सब सँ रोचक बात ई अछि जे एहि चौदह देवता मे सँ एक मीरा साहेब छथि। मीरा साहेब मुसलमान छथि। हुनकर गाथा 'मीरायन' मैथिली मे अछि। मीरा साहेब धर्मराजक संग-संग पूजित होइत छथि, मने हुनकर पूजाक विना अनुष्ठान पूर्ण नहि भ' सकैछ। एहन प्रतीत होइत अछि जे लोकायतक धर्मधारणा मे सातक संख्या अतिरिक्त रूप सँ महत्वपूर्ण अछि। धर्मराजक पत्नी छथिन शीतला, वा सितला, जिनकर सेहो अपन देव-परिवार छनि, एहि मे सात देवी छथिन। तहिना, कमलाक देव-परिवार मे सेहो सात देवी छथिन। कमाल बात ई अछि जे एहि देव-परिवार मे दुलरा दयाल शामिल नहि छथि, हुनकर हैसियत मात्र एक 'सेवक'क छनि, जखन कि हुनकर पत्नी अमरावती आ सासु बहुरा गोढ़िन कमलाक देव-परिवार मे शामिल छथि। जोतिक, कारिख, कालिदास, अन्दू मालि, बेनीराम आदिक गाथा मूलत: धर्मराज महागाथाक गाथा-गुच्छ थिक। जोतिक अपन कठिन तप सँ धर्मराजक सिद्धि प्राप्त केलनि जकर बदौलत ओ गाथा-नायक भेला। हुनकर पुत्र कारिख सेहो अपन तप मे विशेष रहला, तें ओहो नायकत्व कें प्राप्त केलनि। आ, बिलकुल यैह बात कारिखक पुत्र कालिदासक संग रहलैक। एही क्रमें हमसब आन-आन गाथा-नायकक प्रताप कें बूझि सकैत छी। मिथिलाक स्वतंत्र धर्म-धारणा कतेक संघर्षक बाद स्थापित भ' सकल, तकर बहुतो रास सामग्री हमरा लोकनि कें एहि गाथा सब मे भेटैत अछि। कामरु कमख्याक वर्चस्व कें तोड़ैत कोना कमला  आ धर्मराज मिथिलाक लोकायत परंपरा मे स्थापित भ' सकला तकर वृत्तान्त जतबे रोचक अछि ततबे मार्मिक। गाथा-गुच्छ आ गाथा-चक्र मे अंतर यैह छैक जे गुच्छ मे जतय एकहि महागाथाक अनेकवंशीय चरितनायकक कथा आयल रहैत छैक ओतहि चक्र मे एक्कहि वंश मे उत्पन्न अलग-अलग नायकक यशोगाथा गाओल जाइछ। गाथा-चक्रक एक स्पष्ट दृष्टान्त जोतिक, कारिख आदिक गाथा थिक।

        मौखिक साहित्य कें संतरणशील साहित्य(floating literature) कहल जाइत अछि। एहन साहित्य जे मानू बसात मे उड़ियाइत रहैत अछि। एकर असल तात्पर्य थिक जे हरेक पीढ़ीक प्रस्तोताक रुचि आ प्रतिभाक हिसाब सँ एकर पाठ मे परिवर्तन अबैत जाइ छैक। गाथागायकक अलग-अलग पीढ़ीक दू व्यक्ति मे ने तँ कवित्वशक्ति के समानता संभावित रहै छै आ ने कल्पनाशीलताक। एकर उदाहरण देखने बात बेसी स्पष्ट होयत। दुलरा दयाल गाथाक एक पाठ मणिपद्म कें भेटल रहनि जकरा आधार पर ओ अपन प्रसिद्ध उपन्यास 'दुलरा दयाल' लिखलनि। ओहि उपन्यास कें देखितहि स्पष्ट भ' जाइछ जे ओहि गाथागायक मे कतेक उन्नत कोटिक सौन्दर्यदृष्टि आ कवित्वशक्ति रहल हेतै। मणिपद्म एहि बातक अपील तँ सदति करैत रहला जे मैथिली लोकगाथा सब पर लुप्त भ' जेबाक खतरा मँडरा रहल अछि, मुदा हुनका अपना लग जे पाठ उपलब्ध रहलनि, ओ चाहितथि तँ ग्रियर्सन जकाँ हू-ब-हू ओकरो पाठ प्रकाशित क' दीतथि। मुदा जानि नहि किएक, ई काज ओ नहि क' सकला। गाथाक उक्त पाठ वास्तव मे लुप्त भ' गेल। डा. विश्वेश्वर मिश्र कें दुलरा दयाल गाथाक जे पाठ भेटल रहनि, आ जकरा ओ प्रकाशित करौने छथि, हमसब साफ देखि सकै छी जे एहि गाथागायक लग ने तँ ओ सौन्दर्यदृष्टि छैक ने ओहि कोटिक कवित्वशक्ति। 

एकरा अतिरिक्त एक आर स्थिति होइत छैक जे समयक संग लोकगाथाक आकार आ वर्ण्यविषय मे परिवर्तन होइत जाइत छैक। एकर एक नीक दृष्टान्त दीनाभद्री गाथा भ' सकैत अछि जकर तीन गोट अलग-अलग पाठ मैथिली मे प्रकाशित छैक। एकर प्रथम पाठक संकलन स्वयं ग्रियर्सन 1885मे प्रकाशित करौने छला। असल मे, मैथिली भाषाक लोकगाथा, लोकगीत वा समकालीन लेखन मे किछु सारतत्वो छैक, एहि बातक दिस संसारक ध्यान आकृष्ट केनिहार प्रथम व्यक्ति एक यूरोपीय विद्वान ग्रियर्सने छला, कोनहु मैथिल नहि। ग्रियर्सनक एहि दीनाभद्री गाथा मे कुल सात अध्याय छैक। ग्रियर्सन कें ई गाथा कोन गाम मे कोन गाथावाचक सँ भेटलनि, तकर ओ कोनो उल्लेख नहि कयने छथि। ओ तँ खैर विदेशी मूलक शासकवर्गक अधिकारी रहथि, एकर दोसर पाठ 2007 मे महेन्द्र नारायण राम आ फूलो पासवानक संपादन मे छपल। खेदक विषय जे एहू मे गाथागायकक कोनो नामोल्लेख नहि अछि, जखन कि एकर दुनू संपादक स्वयं दलित समुदाय सँ रहथि। एतय धरि जे सवा सौ वर्ष पहिने ग्रियर्सन द्वारा छपाओल पाठक कोनो सूचनो हुनका लोकनि कें प्राय: नहि छलनि। अस्तु, डा. राम एवं डा. पासवान द्वारा संपादित ई गाथा बढ़ि क' तेरह अध्यायक भ' गेल। एकर तेसर पाठ रमेश रंजनक संपादन मे नेपालक प्रज्ञा प्रतिष्ठान सँ प्रकाशित अछि जाहि मे कथानक अध्याय मे विभाजिते नहि छैक, अपितु निरंतरता मे चलल अछि। एकर गाथागायक सातैन राम (खुरखुरिया, राजबिराज)क ने केवल नाम-गाम देल गेल अछि अपितु फोटुओ छापल हेल अछि। 

        दीनाभद्री गाथा आर्य-अनार्यक बीच युग-युग सँ चलि अबैत  संघर्ष आ आर्यीकरणक दमनकारी प्रक्रियाक दू टूक जानकारी दैबला एक दुर्लभ गाथा थिक। एहि ठाम सब सँ मजेदार स्थिति धर्मक बताओल गेल अछि। तात्पर्य जे शोषण आ दमनचक्रक संदर्भ मे धर्मक अलग सँ कोनहु मूल्ये नहि रहैछ। एहि गाथा मे हमसब देखैत छी जे कनक सिंह(हिन्दू) आ ताहिर मियां(मुसलमान) दुनू एक्कहि समान आर्य छथि, कृषिजीवी आ गोपालक छथि। एतय धरि जे दुर्लभ कामधेनु गाय जाहि कोनो एक व्यक्ति लग उपलब्ध छैक, से कनक सिंह(हिन्दू) नहि अपितु ताहिर मियां(मुसलमान) थिका। अनार्य दीनाभद्रीक अन्यायपूर्ण हत्या मे, आ हुनक समुदाय कें जबरन आर्यीकरणक भीतर समाविष्ट करबा मे एहि दुनू आततायीक बराबर-बराबर भूमिका छनि, धर्मक आधार पर कोनो वैभिन्य नहि अछि। मुदा, मौखिक साहित्यक जाहि संतरणशील स्वभावक ऊपर चर्चा कयल गेल, आगामी पाठ सब मे हमसब देखैत छी जे कतहु दीनाभद्री महादेव मंदिर कें विधर्मी सँ बचेबाक संघर्ष करैत देखल जाइत छथि तँ कतहु मक्का-मदीना पर हुनका विजयपताका फहराबैत देखल जाइत अछि। संतरणशील हेबाक कारण लोकगाथा सभक प्रस्तुति मे अपन समकालीन समयक महाप्रश्न सब कें, संघर्ष सब कें अंटाबेस क' लेबाक अपूर्व क्षमता होइत छैक। तें, एहि दुर्लभ घटना कें एतय घटित होइत अक्सरहां देखल जा सकैछ जे कोना प्राचीन मिथक आ यथार्थवादी समकाल संग-संग लोकगाथा सब मे विहार करैत अछि।

        मैथिलीक विद्वान लोकनि मे कोनो गाथा-विशेष कें कोनो खास जातिक संग जोड़ि क' देखबाक चलन रहलनि अछि। कहि नहि, एहि चलनक आरंभ कोना आ कहिया भेल, मुदा हमसब देखैत छी जे मणिपद्म समान विचक्षण लोकविद् सेहो रहरहां एहि प्रकारक वाक्य निधोख लिखैत देखल जाइत छथि जे 'राजा सलहेस दुसाध जातिक छथि' अथवा 'लोरिक स्वयं यादव छला' अथवा 'दीनाभद्री मुसहरक महापुरुष छला' आदि। एकरा पाछां कारण अक्सर ई बताओल जाइछ जे एहि-एहि महापुरुषक गाथा एही-एही जातिक गाथागायक लोकनि गबैत छथि। खेद अछि ई कहैत जे तथ्यात्मक अध्ययन सँ एहि बातक पुष्टि नहि होइत अछि। अतीतक महापुरुष संग सब क्यो अपन आत्मीयता रखैत अछि, पचपनिया समुदायक सब लोक हुनका प्रति श्रद्धा-भक्ति रखैत छथि, आ सब जातिक लोक गुरु-परंपरा सँ एहि गाथा कें गेबा मे अधिकारिता रखैत छथि, तथ्य सैह कहैत अछि। विद्यापतिक वंश-निर्णय जेना विद्वान लोकनि असंदिग्ध रूप सँ पंजी-ग्रन्थक आधार पर क' सकलाह अछि, कहब आवश्यक नहि जे लोकायतक महापुरुष लोकनिक वंशादि निर्णयनक लेल एहन कोनो दस्तावेज उपलब्ध नहि अछि। दोसर, गाथागायकक जहाँ धरि प्रश्न अछि, कहबे केलहुँ जे विद्वान लोकनि गाथागायकक कंठ सँ गाथा तँ ल' लेलनि मुदा हुनकर नामोल्लेखो धरि करब जरूरी नहि बुझलनि। सोचू तँ ई कते पैघ अन्याय थिक जे जे लोकनि व्यक्तिगत जतन क' क' सैकड़ो-हजारो वर्षक गाथा कें लुप्त हेबा सँ बचौलनि, हुनकर तपस्याक आगू संग्रहकर्ता संपादकक प्रयत्न वास्तव मे कते लघु छनि। गाथागायक लोकनिक जतबा जे नाम-गाम हमरा लोकनि कें उपलब्ध होइत अछि ताहि सँ एहि जाति-संबद्धता विचारक समर्थन नहि होइत अछि। उदाहरणक लेल डा. विश्वेश्वर मिश्र कें नैका बनिजारा गाथा हरिपुर गामक सरोवर यादव सँ प्राप्त भेल रहनि, जखन कि एहि गाथा कें तेली जातिक गाथा कहबाक चलन रहल अछि। तहिना, लोरिक गाथा कें यादवक संग जोड़ल जाइछ, जखन कि ई गाथा हुनका असमा गामक फचन दास आ बाहुरलाल हजाम सँ प्राप्त भेल रहनि। तहिना, बिहुला गाथाक सम्बन्ध तेली जातिक संग जोड़ल जाइछ मुदा एकर प्राप्ति हुनका लगमा गामक सोमन मुखिया लग भेलनि। तें, कोनो लोकगाथा कें जाति-विशेषक संग जोड़बा सँ पहिने पूरा परीक्षण क' लेब उचित थिक।


मैथिली लोकगीत


   लोकगीत मिथिलाक प्राचीनतम भावाभिव्यक्ति-विधा थिक। जहिया आम लोकक चलन मे साहित्य नहि छल, तहियो लोकगीत छल। ओ पहिल व्यक्ति जे आम लोकक भाषा कें अपन साहित्याभिव्यक्ति के माध्यम बनेलथि, धन्य आ प्रणम्य छथि। ओ पीढ़ी सब तँ जरूरे जे एहि चलन कें आम बनेलथि। आइ साहित्य आ लोकसाहित्य मे एते अंतर किए देखार पड़ैए? लोकसाहित्यक ई विधा गीत, एक तँ लयात्मक होइछ, दोसर सरल। साधारण शब्द सब द्वारा एक साधारण जीवनशैलीक चित्रण। मुदा, ई बात सुनबा मे जते आसान अछि, बरतबा मे ततबे कठिन। असल मे जीवन-सत्य कें अभिव्यक्त करबाक ई लिलसे अलग-अलग होइत अछि। डाॅ अणिमा सिंह कहलनि अछि-- 'मैथिल समाज मे जीवन-जिज्ञासा सर्वत्र दर्शनशास्त्रादिक रूप धारण नहि करैछ, वरंच ओ प्राय: सहज भाव सँ गीतकाव्यक रूप मे सेहो परिणत भ' जाइछ। फलत: मैथिली लोकगीतक परिचय मे हुनका लोकनिक समग्र लोकजीवनक परिचय भेटि जाइछ।' (भूमिका/ मैथिली लोकगीत/ पृ.11) तात्पर्य जे मिथिलाक लोकजीवनक वास्तविक स्वरूप एकर दार्शनिक लेखन मे नहि अपितु एकर लोकगीते मे प्राप्त भ' सकैत अछि।

          ओ वस्तु मैथिली लोकगीते छल, जकर रूप आ कथनशैली सँ प्रभावित भ' क' हजार वर्ष पहिने अपन बात एहि भाषाक आश्रय लैत जनता मे ल' जेबाक प्रेरणा सिद्ध लोकनि कें भेटल रहनि। आ ओहो वस्तु यैह थिक जे अपना समय मे विद्यापति कें मैथिली लिखबाक लेल प्रेरित केलकनि।विद्यापति तँ अपन लोकसिद्धता मे तते प्रखर बहरेला जे हुनकर अपन व्यक्तित्व एहि लोक मध्य तिरोहित भ' गेलनि आ ओ एक मिथकपुरुष मात्र बनि क' रहि गेला जे शिवविषयक गीत लिखलनि तँ शिव हुनकर चाकर बनि क' संग रहला, गंगा-गीत लिखलनि तँ गंगा अपन प्रवाह बदलि ल' हुनका समीप अयबा लेल बाध्य भेली। आगू विद्यापतिक भणिता लगा क' अज्ञात कवि लोकनि द्वारा पांच सौ बरस मे हजारो गीत लिखल गेल, एहि ठाम मैथिली लोकगीत आ लोककवि विद्यापति, दुनूक व्यापकता आ विस्तार देखल जा सकैत अछि।

      मुदा प्रश्न अछि जे लोकगीत ककरा कहल जाय? एकर तीनटा उत्तर संभावित अछि-- (1) लोक मे प्रचलित गीत (2) लोकनिर्मित गीत (3) लोक-विषयक गीत। लोकविषयक गीतक विषय मे विद्वान लोकनि मानै छथि जे मात्र लोकविषयक हेबाक कारण कोनो रचना लोकगीत सेहो बनि जाय, ई क्षमता ओकरा मे हैब कठिन बात होइत अछि। जँ शिष्टसाहित्यक कोनो प्रतिभाशाली कवि लोकविषयक गीत लिखथि, आ ओ कवि-व्यक्तित्वक प्रभाववश लोक मे प्रचलित सेहो भ' जाय, तैयो एहि बातक गारंटी नहि अछि जे सदा ओ लोक मे प्रचलित बनल रहत। एकर उदाहरण हमसब मधुप जी आदि कविक गीत मे पाबि सकै छी जे एक समय मे लोकप्रचलित भेलाक बादो आगां प्रचलन सँ बाहर भ' गेल आ आइ ओकर मूल्यांकन शिष्टसाहित्यक कसौटी पर करबा लेल हमसब बाध्य छी। असल लोकगीत होइछ लोकनिर्मित गीत। आब एतय देखल जाय जे 'लोकनिर्मित' मे जे 'लोक' अछि तकर कोनो नाम नहि अछि, ने भ' सकैए। कारण नाम भेने ई निश्चित जे ओकर एक दिन मृत्यु हैब सुनिश्चित अछि। जखन कि 'लोक' अजर-अमर होइत अछि। केहनो प्रतापी राजा हो, ओ एक दिन मरि जाइत अछि। जखन कि प्रजा वा लोक, जे एक सामूहिक संज्ञा थिक, नैरन्तर्य मे ओकर जीवन चलैत रहैत छैक। तें, कोनो रचना कें लोकगीत हेबाक अनिवार्य शर्त थिक ओकर लोकत्व अर्थात रचनाकार-व्यक्तिक विलोप। ई विलुप्तीकरण समाज सेहो करैत रहैत अछि। 'भनहि विद्यापति' लागल जे आइ हजारो गीत भेटैत अछि, संभव जे एक समय मे ओ कवि अपन नाम देने हेता, लोक ओकरा विद्यापति मे परिणत क' लेलक। लोकगीतक रचना सदा सामूहिक होइत अछि। हरेक गितगाइन कें ई सुविधा रहैत छैक जे गीत कें अधिकाधिक मार्मिक आ सुंदर बनेबाक लेल ओ अपनो दिस सँ कलाकारी करैत चलय। एही कारण सँ लोकसाहित्य कें नमनीय कहल जाइत छैक। विश्वक प्रसिद्ध लोकविद् लोकनि अक्सरहां एहि तरहक बात लिखलनि अछि जे लोकगीत कें लिखित रूप देब प्रकारान्तर सँ ओकर हत्या करब थिक, कारण एहि सँ ओकर नमनीयता नष्ट होइत छैक। ई नमनीयता लोकगीत कें हर एक व्यक्तिक अप्पन वस्तु बनबैत छैक। डाॅ.आशुतोष भट्टाचार्यक ई कथन अणिमा सिंह उद्धृत केलनि अछि-- 'लोकसमाज मे प्राय: प्रत्येक व्यक्तिक लेल लोकगीत रस-वस्तु थिक। अपन रचना नहि भेनहु जन-मानस ओकरा बड़ आतुरता और उत्साहक संग अपनाबैछ, किएक तँ ओहि मे अपनहि भावक प्रतिच्छवि पाबैछ। भावक तन्मयता मे अपन और आनक भेद तथा सब प्रकारक भेदभाव भूलि जाइछ।' (मैथिली लोकगीत/ पृ.9)

       मैथिली लोकगीतक कृतकार्य संग्रहकर्ता डाॅ. अणिमा सिंह लिखलनि अछि जे 'आइयो अनेक क्षेत्र एहन अछि जतय सँ लोकगीत संग्रह नहि भ' सकल अछि। लोकगीतक विशाल परिमाण कें देखैत ई कहल जा सकैत अछि जे आइ धरि लोकगीत-संग्रहक लेल जे सब काज भेल अछि ओ सर्वथा अपर्याप्त अछि। (भूमिका/ मैथिली लोकगीत/ पृ.9)

        मैथिली लोकगीतक की सब विशेषता अछि? डाॅ अणिमा सिंह एकर पांच गोट प्रमुख विशेषताक विवेचना कयने छथि-- (1)मैथिली लोकगीत मे भाषाक सरलता, सुबोधता आ वेगसंपन्नता पाओल जाइछ। (2)एहि गीत सब मे भावक उदारता प्रचुर परिमाण मे भेटैछ। सर्वत्र संकीर्ण भावक भर्त्सना आ उदार भावक प्रशंसा भेटैत अछि। (3) एकर तेसर विशेषता अछि मंगलैषणाक प्राधान्य। लोकगीतकार अपन वैयक्तिक जीवन मे, परिवार मे तथा समाज मे, शांति आ अभ्युदयक मंगलकामना करैत अछि। (4) एकर चतुर्थ विशेषता अछि धर्मोन्मुख जीवनक कामना। प्रत्येक व्यक्ति समाज मे अपन विकास चाहैछ। ई विकास एहन हेबाक चाही जे दोसरक विकास मे बाधक नहि बनैत होइ। (5) मैथिली लोकगीत मे पारिवारिक और सामाजिक सम्बन्धक आदर्शीकरणक प्रयास सर्वत्र दृष्टिगोचर होइछ। आदर्श भाइ, आदर्श बहीन, आदर्श शिष्य, आदर्श मित्र, आदर्श स्वामी, आदर्श सेवक तथा समुन्नत नागरिकक आदर्श एहि गीत सब मे भरल अछि। एहि सब विशेषताक अतिरिक्त डाॅ. रामदेव झा एकर गेयता-विषयक एक आर विशेषता एकर सामूहिक गान-पद्धति कें मानलनि अछि। 

        किछु उदाहरण सँ बात बेसी फड़िच्छ होयत। उदारभावक प्रचुरताक एक दृष्टान्त एहि सोहरगीत मे देखल जा सकैत अछि जतय गितगाइन पुत्रजन्म पर गबैत छथि-- 'सेर जोखि सोनमा लुटायब, पसेरी जोखि रुपया रे/ सौंसे अजोध्या लुटायब, किछु नहि राखब रे।' एहि हार्दिक एवं सामूहिक औदार्य कें ठीक-ठीक पकड़ि पायब सेहो कोनो आसान बात नहि अछि। तकर उदाहरण हमसब प्रसिद्ध लोक अध्येता डाॅ. कृष्णदेव उपाध्यायक एहि निष्कर्ष मे देखि सकै छी जतय ओ कहै छथि जे 'इन उल्लेखों से पता चलता है कि लोकगीतों में वर्णित समाज धनी था, समृद्ध था।' जी नहि, बिलकुल गलत। धनी तँ सौंसे गाम क्यो एकाध व्यक्ति छला जेना गाम भरि मे कतहु एकटा ब्रह्मस्थान। मुदा, ई गीत तँ घर-घर मे गाओल जाइत छल। असल मे ई औदार्य पूर्णत: हृदयगत थिक, भौतिक नहि। तहिना, संकीर्णता, कृपणता एवं बैमानीक सर्वत्र भर्त्सना भेटैत अछि। जट-जटिनक गीत मे ई प्रसंग अबैत छैक-- 'सगरे सुनै छिऐ फलना बड़ धनीक छै रे ना/ एक सेर कें दूइ सेर बनाबै छै रे ना/ चिपड़ी रोटी चुटकी नोन जन सब कें दै छै रे ना/ ओकरा नामें जन सब कानै छै रे ना/ ओकरे पापें पानियो नै पड़ै छै रे ना।' कतोक गीत सब मे एहि प्रकारक आर्थिक अन्यायक विरुद्ध बहुत तीक्ष्ण शब्दावली व्यवहृत भेल अछि। 

          मैथिली लोकगीतक एहन आरो अनेक विशेषता छै जाहि पर विद्वान लोकनिक ध्यान एखनहु नहि गेलनि अछि। एहि मे सँ एकटाक चर्चा मात्र हम एतय करब। कोनहु जाति, जेना मिथिलावासी, के किछु आदिम स्मृति रहै छै, जे लोकसाहित्य मे देखार द' जाइ छै। ई कालगत सेहो खतियाएल जा सकै छै। कमाल बात ई छै जे लोकस्मृतिक बहुतो रास बातक समर्थन लिखित इतिहास सँ सेहो होइ छै, जखन कि बहुतो रास तथ्य फरजी इतिहासक भंडाफोड़ सेहो करैत छै। मैथिलीक एक खेलगीत मे वर्णन अबै छैक-- 'अमर सिंह के कमर टूटलनि, कुमर सिंह के बांही/ पुछियनु ग' दलभंजन सिंह सँ आब लड़ता कि नांही।' गीतक अगिला पद मे एकर जवाबो आएल छै-- 'हाथी बेचब घोड़ा बेचब, दुश्मन कें हरायब/ लड़ब नै तँ करब की, नाम की हँसायब।' बहुत आराम सँ हमसब बूझि सकैत छी जे एहि गीतक स्मृति 1857 के विद्रोहक एक नायक बाबू कुँवर सिंह संग जुड़ल छैक। इतिहास साक्षी अछि जे मिथिलाक राजा 1857क विद्रोह मे अंग्रेजक दिस रहथि, विद्रोह कें कुचलबाक लेल हाथी-घोड़ा-सिपाही सँ अंग्रेज कें मदति कयने रहथि। मुदा एहि ठामक आम जनता अंग्रेजक, आ तें महराजोक खिलाफ रहय। मिथिलाक जननायक ओहि समय भोजपुरक कुँवर सिंह छला, दरभगाक महेश्वर सिंह नहि। एहि सब सँ सम्बन्धित अनेको तथ्यक सोदाहरण विवरण हम अन्यत्र प्रस्तुत कयने छी। दोसर दिस किछु एहनो प्रसंग छै जे इतिहासकारक नजरि सँ ओझल भ' चुकल अछि मुदा लोकस्मृति मे एखनहु बनल अछि। उदाहरणक लेल एहि गीत कें देखि सकै छी-- 'छकौरी छबीला राय/ तक्कर बेटा भुल्ला राय/ पान खाइ ले बंगाला जाय।'  ई वीरबांकुरा भुल्ला राय, जे ओहि छबीला राय के बालक रहथि जिनका हाथ मे छव टा अंगुरी रहैक, आ जे बंगाल कें जीति लेबा मे समर्थ भेल छला, वास्तव मे के छला, कोन गामक निवासी रहथि, कोना-कोना हुनकर विजय-यात्रा भेलनि, एहि बातक जाबन्तो जानकारी इतिहास सँ सर्वथा लुप्त भ' गेल अछि मुदा लोकस्मृति मे एखनहु जीवित अछि।  एकटा बड़ प्रसिद्ध भगवती(काली)गीत हमर-अहाँक माय-बहीन एखनहु गबैत छथि, जाहि मे पांती अबैत छैक-- 'अपने सँ गाबथि काली अपने बजाबथि/ हे माँ, अपनहि सँ करथि बियाह।' एहि गीत कें अणिमा सिंहक संग्रह मे पूरा देखि सकैत छी। भगवती काली असुरक वध कोना-कोना केलनि, एहि गीत मे तकर पूरा विवरण आएल छैक। काली पहिने असुर संग बियाह केलनि, बियाही नारी बनि सभक विश्वास जितलनि, तखन जा क' अंतत: षड्यंत्रपूर्वक समुच्चा खनदान कें कचरि देलखिन। मुदा, एहि युद्धक जे वर्णन लोकस्मृति मे एखनहु सुरक्षित अछि, हमसब देखैत छी जे शिष्टसाहित्य मे एहि तथ्य कें नुका लेल गेल। उदाहरण हमसब दुर्गासप्तशती मे देखि सकै छी जतय एक तँ कालीक एहि प्रसंग कें दुर्गा संग जोड़ि देल छैक, दोसर एकरा अनुसार असुर संग भगवतीक बियाह होइते नहि छैक अपितु एकर प्रस्तावे सुनि क' असुरक खनदान कचरि देल जाइछ।

         एहि सभक अतिरिक्त मैथिल समाज मे सांस्कृतिक सम्मिलन कोना भेल, तकर अत्यन्त प्रामाणिक इतिवृत्त हमसब एतय पाबि सकै छी। संस्कारगीत अन्तर्गत विवाह-प्रसंगक गीत सब मे सिन्दूरदान-गीतक अति महत्व। गीतो सब भरपूर। मुदा, आश्चर्य लागत ई जानि क' जे आर्यसंस्कृतिक वैवाहिक पद्धति सब  मे सिन्दूरदानक कोनो गणने नहि छैक, मुख्य बिध सप्तपदी मात्र थिक। सिन्दूरदान अनार्य नाग आदिवासी लोकनिक संस्कृतिक वस्तु थिक आ ओतहि सँ मिथिला मे आएल अछि। 

         तहिना, धार्मिक सह-जीवन के सेहो लोकसंस्कृति मे बहुत महत्व। एकटा प्रसंग मोन पड़ैत अछि। जमींदारक अत्याचार कते बेसी छलै आ जनता कोना एकर सामना करैत जिबैत छल, तकरो विवरण सब सं लोकगीत भरल छै। एकटा झरनी गीत मे एलैए जे राजाक सिपाही एक अबला मुस्लिम स्त्रीक आंचर ध' लेलकै। अपन सतीत्वक रक्षा लेल ओ स्त्री सिपाही कें बतेलकै जे ओ बालबच्चेदार स्त्री थिक। ओकर बाली उमेरिया कें देखैत सिपाही ओकरा पुछै छै जे गे, तोरा बेटा कोना भेलौ? आ, मैथिली लोकजगतक मानस-सूत्र देखल जाय, ओ युवती बतबै छै जे 'गेलियै जनकपुर पुजलियै सिया जानकी/ ऊहे देलखिन गोदी के बलकबे जी।' क्यो मुसलमान अछि, मात्र एही कारणें सिया जानकी ओकरा लेल अपूज्य भेलखिन अथवा क्यो हिन्दू अछि मात्र एही टा लेल बालापीर अपूज्य भेला, एहि तरहक संकीर्णता अहाँ कें लोकसाहित्य मे कतहु नहि भेटत।

       मैथिली लोकगीतक संसार बहुत विशाल आ व्यापक अछि। लोक-हृदयक हरेक तरहक भावनाक लेल एतय गीत अछि। अनेक लोकविद् अपना-अपना तरहें एकर वर्गीकरण कयने छथि। ई वर्गीकरण सब मुख्यत: पांच प्रकारक अछि-- संस्कारक दृष्टि सँ, रसानुभूतिक प्रणाली सँ, ऋतु आ व्रतक क्रम सँ, विभिन्न जातिक अनुसार आ श्रमक प्रकारताक आधार पर। डाॅ. रामदेव झा मैथिली लोकगीतक छव प्रकार बतौलनि अछि-- संस्कारगीत, उत्सव-व्रतोपासनाक गीत, भक्तिपरक गीत, श्रमोपनोदक गीत, समैया गीत आ मनोरंजक गीत। डाॅ. जयकान्त मिश्र ओना तँ लोकगीतक वर्गीकरण सात भाग मे केलनि अछि-- भजन, देवी-देवताक गीत, पाबनिक गीत, सोहर, संस्कारगीत, समैया गीत, लगनी-- मुदा बड़ पता के एक बात लिखने छथि जे 'मिथिलाक स्त्रिगणक अनुसार एकर विस्तृत विभाजन थिक 'देवपक्षक गीत' आ 'रसपक्षक गीत।' (मिथिलाक लोकसाहित्यक भूमिका/ पृ.83)

         मैथिली लोकगीत पर अनेको बात मोन मे आबि रहल अछि। जेना लोकगीत मे वर्णित मैथिल संस्कृति, लोकगीतक भूगोल, प्रवासक पीड़ा, लोकगीत मे वर्णित जीवन-संघर्ष, लोकगीत मे आएल शहरक मारुख स्मृति, लोकगीत मे वर्णित आर्थिकी, धर्म आ धर्मनिरपेक्षता आदि-आदि। एतय तकर अवकाश नहि अछि। एकरा लेल जिज्ञासु लोक कें अन्यत्र देखबाक चाहियनि।

          


साहित्यक विकास मे अवदान


       मिथिलाक भूभाग मे बसनिहार लोकक संग कविताक सम्बन्ध बहुत प्राचीन रहल अछि। काव्य मे, तुक मे, लय आ भास मे अपन हृदयक भाव व्यक्त करबाक प्रवृत्ति पूर्वांचलीय लोकसमाजक खास विशेषता रहल अछि। यैह कारण भेल जे आधुनिक भारतीय भाषा, जेना मैथिली कें पहिल बेर काव्याभिव्यक्तिक माध्यम बनेबाक घटना सेहो इतिहास मे पहिल बेर एही भूभाग मे भेल। ओ सिद्धसाहित्य छल, जकर रचयिता लोकनि पहिल बेर गीत लिखि रहल छला। एक बिलकुल नवीन विधा, जकर संस्कृत साहित्य मे पूर्णत: अभाव छल। आगां हमसब देखैत छी जे एतहि सँ संस्कृत मे गीत लिखबाक प्रेरणा जयदेव लेलनि। जयदेव सँ कतेको डेग आगूक काज विद्यापति क' गेला। एक तँ ओ मैथिली कें संस्कृतक आसन देलखिन। जयदेव जे बात संस्कृत मे कहि सकल रहथि, तकरा ठेठ अपन बोलचालक भाषा मे कहि जेबाक साहस केलनि। हुनकर खूबी ई रहलनि जे बोलचालक भाषा कें काव्याभिव्यक्तिक माध्यम बनबैतो, ओ साहित्यक उच्च मूल्य आ मानदंड सँ कतहु समझौता नहि केलनि। एखनहु हमसब देखैत छी जे कते गोटे कें बौद्धिक वा वैचारिक बात केवल अंग्रेजिये मे कहल होइत छनि। ई मानसिक विभ्रम छिऐक जे अनभ्यास सँ पैदा होइ छै। ओहि युग मे जनमल विद्यापति एहि विभ्रम सँ बचल रहल छला, तय बात छै जे मातृभाषाक सृजन-परंपरा सँ ओ वाकिफ रहथि। रमानाथ झा 'विद्यापति' मोनोग्राफ मे एक उपकल्पना केने छथि। तदनुसार विद्यापति किशोरावस्थे सँ मैथिली मे गीत लिखै छला। कुटुंब-परिवारक महिला लोकनि अवसर विशेष लेल गीत लिखबाक आग्रह करनि आ ओ लीखि क' देथिन। मिथिलाक सामाजिक ताना-बाना कें देखी तँ ई परंपरा हेबनि धरि जारी रहल अछि। 

        विषय अछि मैथिली लोकसाहित्यक अवदान, मैथिली साहित्यक विकास मे। हमसब आगू देखै छी जे विद्यापति अपन काव्य-प्रतिभा सँ ततेक आगू बढ़ला जे अपन ओहि भाषा, जाहि मे ओ गीत लिखने छला, एक उन्नत साहित्य-भाषाक रूप मे प्रतिष्ठित क' देलनि। बंगाल, असम, ओडीशा धरि मे जखन आधुनिक भारतीय भाषा मे लेखन शुरी भेल तँ ओ भाषा मैथिली छल, जकरा ओ लोकनि ब्रजबुलि वा ब्रजावलि कहलनि। पांच सौ सँ बेसी कवि भेल छथि बंगाल-असम-ओडीशा मे, जे विद्यापतिक भाषा कें आगू बढ़ेलखिन।एहि मे प्रभूत संख्या एहनो कविक रहैक जे स्त्री रहथि, जे मुसलमान रहथि। एही मे सँ एक गोविन्ददास भेला जिनका हमसब अपनेलियनि। जखन कि हुनको सँ बेसी प्रतिभाशाली कवि ज्ञानदास आदि कें एखनहु छोड़नहि छियनि।

        प्रश्न अछि जे विद्यापति कें तँ मानि ली जे गीत लिखबाक प्रेरणा जयदेव सँ भेटलनि आ जयदेव कें सिद्ध लोकनिक काव्य-परंपरा सँ, मुदा प्रश्न अछि जे सिद्ध लोकनि कें लोकभाषा मैथिली मे गीत लिखबाक प्रेरणा कतय सँ भेटलनि? सिद्ध लोकनिक मुख्यालय विक्रमशिला विद्यापीठ रहनि। हुनकर काव्यभाषा लोकभाषा होइत रहनि, जे कि हुनका लोकनिक परंपरे सँ प्रचलित छलनि। दोसर, लोक मे, आम श्रद्धालु जनता मे पहुंचेबाक रहनि। वाजिब रहै जे लोक मे जे काव्यरूप पहिने सँ प्रचलित होइ तकरा ओ अपन‌ माध्यम बनाबथु। सैह भेलै। एम्हर मिथिलाक लोक-समाज एहन रहल जकरा हरेक अवसर लेल गीत चाही। हुनका जीवन-मरण मे गीत शामिल। स्पष्ट अछि जे जाहि लोकसमाजक एक कुनबा सँ सिद्धलोकनि कें गीतक प्रेरणा भेटल छलनि ओही समाजक दोसर कुनबा सँ विद्यापति कें गीतक मांग भेल छलनि। आगू विद्यापति आगां बढैत गेला, हुनकर कुनबा विस्तृत होइत गेल। आगूक पांच सौ वर्ष धरि मिथिलाक कवि लोकनि विद्यापतियेक नकल करैत रहला, जकरा लेल आचार्य रमानाथ झा बेस अप्रसन्नता बारंबार प्रकट कयने छथि। विद्यापतिक अंधाधुंध नकलक दुष्चक्र सँ मध्यकाल मे जे मैथिली कें मुक्ति प्रदान केलक, से नेपालक मल्लवंशीय राजा लोकनि आ हुनका सभक दरबारी कवि लोकनि छला। मुदा ओतहु देखल गेल जे अभिव्यक्तिक प्रधान विधा गीते रहल जाहि मे लोकतत्व भरपूर मौजूद रहैक।

             दोसर दिस, मैथिलीक प्रथम ग्रन्थ हेबाक श्रेय ज्योतिरीश्वरक वर्णरत्नाकर कें छैक, जे लोरिकगाथाक प्रतिरूप रचबाक महत्वाकांक्षा मे लिखल गेल छल। ई बात ओ अपनहु गछने छथि। ओ अपन कृति कें 'काव्य' तँ कहनहि छथि, लोरिक नाचक नाम धरि लेलनि अछि। असल मे ज्योतिरीश्वरक विषय मे सुरुहे सँ बहुत प्रकारक भ्रम आ विवाद विद्वान लोकनिक बीच रहलनि। बहुतो भ्रमक निवारण तँ भ' गेल अछि, मुदा एकरा गद्यग्रन्थ कहबाक चलन एखनहु बनले अछि। सुनीति बाबू भनहि मैथिलीक बड़ उपकार कयने होथु, ई अपेक्षा हुनका सँ कोना कयल जा सकैत छल जे जतबा ज्ञान हुनका बंगालक लोकसंस्कृतिक होइतनि ततबे असंदिग्ध ज्ञान मिथिलाक लोकसंस्कृतिक सेहो होइतनि। से अपेक्षा बबुआ मिश्र सँ सेहो संभव नहि छल कारण ओ संस्कृत परंपराक एक चूड़ान्त पंडित छला। सुनीति बाबू 'कथावाचक' लोकनिक उपकारार्थ एहि कृतिक रचना कयल जायब उपकल्पित केलनि। हुनका की पता जे मिथिला मे पौरोहित्य आ पंडिताइक व्यवसाय छल, कथावाचनक नहि। एहि ठाम एक वर्ग मे कथावाचनक नहि अपितु गाथागायन आ गाथानाचक परंपरा छल। एहि विषय मे अधिक जनबाक लेल डाॅ. काञ्चीनाथ झा किरणक शोधप्रबन्ध पढ़बाक चाही। बहुत रास बात हजार वर्षक पहिल भाग मे सेहो भेटि सकैत अछि। सारांश जे वर्णरत्नाकर लोरिक, सलहेस आदि गाथाक प्रतिरूप रचनाक प्रेरणावश रचल गेल रहय। तें, मैथिली साहित्यक विकास मे लोकसाहित्यक अवदान अतुलनीय अछि।