Tuesday, February 11, 2025

तारानंद वियोगी से आशुतोष कुमार ठाकुर का इंटरव्यू (सम्पूर्ण)


 आशुतोष--अपने आरंभिक जीवन और उन जीवनानुभवों के बारे में कुछ बताएं, जिन्होंने आपको लेखन के लिए प्रेरित किया? कौन-सी परिस्थितियां रहीं कि आपने साहित्य को ही लक्ष्य बना लिया?

           तारानंद--मेरा जन्म कृषि मजदूरों के एक विस्थापित परिवार में हुआ था। कोशी बांध निर्माण परियोजना से जो लाखों परिवार छिन्नमूल हुए, उनमें मेरा परिवार भी था। दादा परसौनी (सुपौल) से उपटकर महिषी आए थे। दादा की ही तरह गांव के हर वाशिन्दे का घर-द्वार, सारी जमीनें कोशी ने लील ली थीं। हर कोई अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग जगहों पर जा बसे। इस तरह, बचपन की पहली बात तो यही कि मैं एक ऐसे गांव का निवासी था, जहां अपने वंश का कोई न था। पिता की सबसे बड़ी देन यह रही कि इस हादसे को मैंने भी उनकी ही तरह सदा पाॅजीटिव लिया। अपना कोई नहीं, यानी कि हर कोई अपना। पिता ने अपनी बहादुरी और ईमानदार सेवावृत्ति से ऐसा व्यक्तित्व बनाया था कि प्रभाव भले कुछ न रहा हो, लेकिन अच्छे और निष्पक्ष आदमी की उनकी स्पष्ट पहचान थी। पिता कोई औपचारिक शिक्षा तो नहीं पा सके थे लेकिन दस्तखत करना जानते थे, और शिक्षा का महत्व उनकी नजर में सर्वोपरि था। आठ-दस की उमर में दो साल उनके साथ रहने का मौका मिला और यही समय मेरे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन का समय था। उन्होंने पढ़ने-लिखने की ललक मुझमें भर दी। अनेक महापुरुषों के प्रसंग उन्हें मालूम थे, जिनके दृष्टान्त मुझे दिया करते। दो बातें मुझे खास तौर पर याद हैं जो मुझमें प्रतिफलित हुए। एक, गांधीजी का यह कथन कि लिखावट का बुरा होना अधूरी शिक्षा की निशानी है। दूसरे, नेहरूजी के बारे में उनकी दी हुई यह जानकारी कि लिखित शब्दों के प्रति वो इतने संवेदनशील थे कि कहीं फेका हुआ कागज भी उठाकर देखते जरूर कि उसमें क्या लिखा है।

          मेरा गांव, महिषी पुराने जमाने से ही संस्कृत अध्ययन-अध्यापन का गढ़ था। मेरे समय तक यह परंपरा मौजूद थी। अनेक बुजुर्ग यह राय देते मिल जाते कि तुम्हें संस्कृत पढ़ना चाहिए। गांव में दो हाइ स्कूल थे लेकिन मैं संस्कृतवाले में गया। पिता ने जो संस्कार दिया था, उसे फूलने-फलने का पूरा अवसर यहां मिला। छोटी उमर में ही मैंने हजारों किताबें पढ़ ली थीं। पढ़ते-पढ़ते ही लिखने का खयाल किस बात से आया, यह बताता हूं। साहित्य-लेखन की परंपरा भी महिषीवासियों में हमेशा से रही है। राजकमल चौधरी के बारे में तो तब मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। एक दिन किसी से यह जानकर कि वह गीत, जो मुझे बहुत पसंद था और मैं बड़े मन से उसे गाता था, वह अपने ही गांव के इन महाशय ने लिखा है। यह मेरे लिए सचमुच एक आश्चर्यजनक बात थी। महाशय उमर में मुझसे बड़े थे लेकिन आम आदमियों जैसे थे। अब तो मेरे लिए उस गीत का संदर्भ ही बदल गया था। वह अगर लिख सकते हैं तो मैं भी तो लिख सकता हूं, इसी उत्सुकता ने मुझे लेखन की ओर आकर्षित किया। पन्द्रह-सोलह की उमर में तो मैं राजकमल के काम में लग गया था जिसकी कथा 'जीवन क्या जिया' में आई है। जिस साल मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, उसी साल मेरी पहली रचना 'मिथिला मिहिर' में छपी थी। उसमें निरंतरता भी रही और विविधता भी। पहले ही साल मेरी कविता, लेख और कहानी तीनो छपे।

            पढ़ना और लिखना, कुल दो ही काम थे जिन्हें करके मैं आनंदित होता था। रचनाएं छपने लगीं तो यह देखकर मुझे और भी अच्छा लगा कि पढ़ने वालों को ये चीजें अच्छी लगती हैं। मित्र भी बढ़ने लगे, पहचान भी बनने लगी। मैट्रिक का रिजल्ट आने पर जब मुझे नेशनल स्काॅरशिप मिले तो मानो मेरे सबसे बड़े सवाल का जवाब मिल गया था। जिस काम में मेरा आनंद था, मेरे लिए यह जानना आश्चर्यजनक था कि मेरी उन्नति भी उसी में थी। मैंने खुद को साहित्य के लिए समर्पित कर दिया।


आशुतोष--आज जब आप अपनी आरंभिक रचनाओं से गुजरते हैं, तो क्या पाते हैं? वे चुनौतियां जिनके होते हुए, और जिनकी वजह से भी, आप यहां तक पहुंच सके! कैसे-कैसे दिन देखे?


तारानंद--चुनौतियों वाली बात आपने अच्छी कही। वे ढेर सारी चुनौतियां ही थीं, जिनकी वजह से जो भी कुछ संभव हुआ, कर सका। जब आप पराये होते हैं और आपको आक्रान्त करने के लिए जो जतन किये जाते हैं, उन्हें ही तो हम चुनौती कहते हैं। मेरा जन्म शूद्रों के एक परिवार में हुआ था, जबकि मेरा गांव ब्राह्मण-वर्चस्वी गांव था। पढ़ने-लिखने के आनंद ने स्वाभाविक ही ऐसी परिस्थिति बना दी कि कक्षा में हमेशा फर्स्ट आता। बचपन में तो यही मेरे लिए सबसे बड़ा संकट बनकर उभरा। स्वभाव से मिलनसार और जरूरतमंदों का सहायक रहा हूं। कहना चाहिये कि पिता का दिया संस्कार तो यह था ही, यह मेरे बचपन की एक रणनीति भी थी जो मेरे संघर्षों को कम करने के काम आती थी।

          दो-एक घटनाएं बताऊं तो बात थोड़ी स्पष्ट होगी। उन दिनों तक हमारे गांव में न पक्की सड़क पहुंची थी न बिजली। मेरे घर में लालटेन भी नहीं थी। अब देखिये। किसी रोज रात को पढ़ने बैठा हूं। कोई इतनी अच्छी किताब है कि जिसे पूरा किये विना चैन नहीं पड़ता। दोपहर रात को मां की नींद खुली और उन्होंने घर में डिबिया जलते पाया तो चिन्तित होकर झांकी। मुझे पढ़ते देख झल्ला गयी है कि अब सो जाओ। उनकी चिन्ता है कि किरासन बहुत महँगा भी है, दुर्लभ भी। यह हालत थी। एक और घटना सुनें। सब दिन से मेरी आदत रही है कि बहुत तेज कदम से चलता हूं। नौंवें-दसवें का छात्र रहा होऊंगा। एक दिन गांव की सड़क से गुजर रहा था कि एक देवता की नजर पड़ गयी। उन्होंने मां-बहन की दस गालियां दीं। क्यों भाई? तो, इतना तेज क्यों चलते हो? आहिश्ते चलो कि किसी को कुछ पूछने या समझने की जरूरत हो तो आराम से पूछ-समझ सके।

           मैं लिख चुका हूं और यहां फिर से आपको बताता हूं कि बाबा नागार्जुन का प्रवेश ऐसे वक्त पर मेरे जीवन में हुआ कि मैं नष्ट होने से बचा रह गया। वह भी एक ब्राह्मण थे, इस बात ने मानो मुझ पर संजीवनी-सा असर किया। वरना, ढेर सारे शूद्र युवक मैंने देखे हैं जिन्होंने ब्राह्मणों के दुर्व्यवहार की प्रतिहिंसा में जलते हुए अपना जीवन नष्ट कर लिया। उन दिनों तो नहीं, पर बाद में जाकर यह तथ्य मेरे सामने उद्घाटित हुआ कि जिस मैथिली साहित्य में मैं पिछले चालीस साल से अनवरत काम करता आ रहा हूं वह भी अंतत: क्या है? ब्राह्मण-वर्चस्वी महिषी गांव का ही एक बड़ा संस्करण है।

           अपनी ही पुरानी रचनाओं को पढ़ूं तो कई बार खीज होती है कि इसे ऐसा नहीं वैसा लिखना था। लेकिन कई बार बड़ा अचरज होता है कि उन दिनों मैं ऐसा लिख सका। हां, कई दूसरे रचनाकारों की तरह मुझे कभी अपनी किसी रचना को डिज-आॅन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जीवन को धारा कहते हैं लेकिन केन्द्रक तो कोई हो जिसे आप जीवनाधार बता सकें। कुछ होना चाहिये कि जिसे बचाने के लिए आप ढेर सारी दूसरी चीजों को छोड़ सकें। उस विस्थापित कृषि-मजदूर के बेटे को लगातार भीतर जीवित पाता हूं।


आशुतोष--'बाभनक गाम' आपकी बहुत प्रसिद्ध कविता है।  क्या आप इस कविता के पीछे की प्रेरणा और रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बता सकते हैं?


तारानंद--'बाभनक गाम' कविता जिन दिनों छपी थी, सन 2000 में, मैथिलों के समाज में बहुत खलबली मची थी। बहुत सारे साहित्यकार ऐसे थे, साहित्यकार भी उन्हें कैसे कहा जाए-- उन्हें तो ब्राह्मणवाद का वामपंथी मुखौटा ही कहना होगा, वे लोग स्थायी रूप से मेरे दुश्मन हो गये। वैसे भी, मैथिली का रिवाज है कि इसका कोई कवि युवापन में भले उग्र वामपंथ का भूमिगत लड़ाका ही क्यों न रह चुका हो लेकिन उसका बुढ़ापा आरएसएस की छांव में ही आकर शरण पाता है। अभी पिछले साल मैथिली के एक बड़े लेखक पं. गोविन्द झा का देहान्त हुआ है। पंडित जी ने सौ साल की जिंदगी पाई। जवानी में वह भी कोई कम विद्रोही नहीं थे, लेकिन इधर के वर्षों में आधुनिकता को लेकर उन्होंने अपनी यह स्थापना दी थी कि यहां जो जितना बड़ा पापी होता है, वह उतना ही महान लेखक माना जाता है जैसे यात्री नागार्जुन और राजकमल चौधरी। तो, यहां यही रिवाज चलता आया है। इस कविता के छपने से मेरे गांव के कई लोग बड़े आक्रोशित हुए, तरह-तरह से मुझे हानि पहँचाने की कोशिश हुई। मेरे एक ब्राह्मण कवि-मित्र ने 'अंतिका' के उस अंक की थोक प्रतियां खरीदीं और मेरे गांव के घर-घर में बँटवाया कि लोग गुस्से में आकर मेरे घर में आग लगा दें। खैर, बाद में तो श्रीधरम ने इस कविता पर लेख लिखा, अनुवाद किया तो यह कविता बाहर भी बहुत प्रसिद्ध हुई। अंबेदकरनामा पर रतनलाल और संजीव चंदन ने मिलकर इसपर शो किया। लेकिन, आप इसे पढ़कर देखिये। इसे ढंग की दलित कविता कहने में भी शायद आपको संकोच हो। वजह है करुणा, जो ब्राह्मणों के अजन्मे बच्चों के लिए हैं। मतलब, उन अजन्मों ने इनका क्या बिगाड़ा कि सभ्य इंसान वाली मानसिकता के साथ जीवन में उनके प्रवेश को भी ये अभागे असंभव बना रहे हैं।

      प्रेरणा और प्रक्रिया के बारे में आपने पूछा। अबतक किसी ने पूछा नहीं और मैंने बताया भी नहीं है। आप जानते हैं कि अपने गांव से मैं गहराई से जुड़ा रहा हूं। अगर आप मुझे यह आफर दें कि संसार की किसी भी जगह पर जाकर एक महीने की छुट्टी गुजारूं, तो मैं अपने गांव को चुनूंगा। इतना। दशहरे का त्योहार हमारे यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। हर साल मैं इस मौके पर गांव जरूर जाता था। और, मेरी एक आदत उन दिनों थी कि इस अवसर पर मित्र और युवा साहित्यकारों को आमंत्रित करता था। दो-तीन दिन सब साथ रहते, चर्चा-परिचर्चा होती और हर दिन शाम को रचना-शिविर करते थे, जिसमें ताजा रचनाएं लिखी जातीं, उनका वाचन होता। देर रात तक यह सब चलता था। 1999 के दशहरे की बात है। नवमी की सुबह-सुबह अतिथि युवा लेखक पंकज पराशर ने मुझे बताया कि रात में जब सबलोग सोने गये तो कोई ब्राह्मण-देवता मेरे बंद दरवाजे के बाहर खड़े होकर मेरा नाम लेते हुए, लगभग रात भर मुझे मां-बहन की गालियां देते रहे। और, ये तब की बात है जब मुझे डिप्टी कलक्टर हुए पांच साल से ज्यादा हो चुके थे। मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं थी। गाली देनेवाले का कलेजा किस बात से जला होगा, यह भी मैं समझ रहा था। देखिये, दुनिया कहां से कहां चली गयी लेकिन गांव का ब्राह्मण अब भी इस बात से परेशान होता है कि शूद्रों के घर सभ्य लोग क्यों बैठते हैं। मुझे दुख हुआ। बरसों बीत गये थे, गांव जरा सा भी नहीं बदला था। मुझे गांव की आनेवाली पीढ़ियों के लिए दुख हुआ। यह कविता उसी शाम के रचना-शिविर में लिखी गयी थी। पंकज भी क्षुब्ध हुए थे। उन्होंने भी बहुत तीखी कविता उस शाम लिखी थी।

       बिलकुल आरंभ से ही मैं मैथिली में अलग तरह की कविताएं लिखता था। जाहिर है, मेरी अनुभूतियां मेरी तरह से अभिव्यक्त होती थीं। ये कविताएं पत्रिकाओं में छपीं और कमोबेश नोटिश भी की गयीं। 1996 में जब मेरा पहला संग्रह 'हस्तक्षेप' छपा, तो इसकी समीक्षा प्रख्यात कवि जीवकान्त ने की। तारीफ की कई बातें कहीं, इस संग्रह का आना मैथिली के लिए एक उपलब्धि जैसा बताया गया, आदि-आदि। लेकिन, उन्होंने अपनी समीक्षा का शीर्षक दिया-- 'मैथिली में दलित कविता का हस्तक्षेप'। मेरा तो जो हुआ, स्वयं जीवकान्त की बड़ी निंदा की गयी कि परम पवित्र मां मैथिली को खंडित करने का षड्यंत्र करते हैं कि दलित कविता की बात कर रहे हैं। समूची दुनिया जानती है, विद्यापति के बाद मिथिला में सबसे बड़े कवि यात्री नागार्जुन हुए, लेकिन आप जरा सर्वे कर लीजिए। जो अपने को सच्चा मैथिल मानते हैं उनके होठों पर आज भी नागार्जुन के लिए मां-बहन की गालियां मिलेंगी। मिथिला जरा भी नहीं बदली आशुतोष। आप देखिये।


आशुतोष--आपकी पुस्तकें 'कर्मधारय' और 'बहुवचन' बहुत सराही गई हैं।  क्या आप इन किताबों में विचार किये गए विषयों पर कुछ बताना चाहेंगे? ये पुस्तकें मैथिली साहित्य के व्यापक परिदृश्य में कैसे योगदान देती हैं?


तारानंद-- ये दोनों मेरे आलोचनात्मक निबन्धों की किताबें हैं। मैथिली आलोचना के साथ दिक्कत यह रही कि हर नया आलोचक पुराने आचार्यों की ओर मुखातिब होता है, मानो आलोचना-कर्म कोई काउन्सिलिंग हो जिसमें सफल होने पर आपको स्थायी नौकरी लग जानेवाली हो, या फिर आप भवसागर पार कर जानेवाले हों। अपनी आलोचना में पहली चोट तो मैंने इसी प्रथा पर मारी। मैंने तो भूमिकाओं में साफ-साफ यह बात लिख दी कि मैं माननीयों को, मठाधीशों को संबोधित नहीं हूं, अपनी किताब उन साधारण पाठकों के लिए लिख रहा हूं जो मैथिली साहित्य को उसकी गहन वास्तविकता में जानना चाहते हैं। दूसरी चीज क्या रही कि संस्कृत और प्राचीन साहित्य की जानकारी रहने के कारण मुझमें एक आत्मविश्वास बना रहा। देखिये, पुरानी कही सच बात है कि भय भी शक्ति देता है। फल हुआ कि अपनी स्थापनाओं में मैं किसी से भी डरा नहीं। कर्मधारय में पांच अध्याय हैं। पहला अध्याय है कि बीसवीं सदी में मैथिली के महान लेखक कौन हुए और क्यों? अध्याय का शीर्षक है-- शताब्दी के सूत्रधार। इसमें मैंने जिन चार लेखकों को चुना वे थे-- यात्री नागार्जुन, हरिमोहन झा, काञ्चीनाथ झा किरण और राजकमल चौधरी। अब देखिये, इस सूची में न सुरेन्द्र झा सुमन हैं, न चन्द्रनाथ मिश्र अमर। काशीकान्त मिश्र मधुप भी नहीं हैं। और तो और, कविवर सीताराम झा भी नहीं हैं, न कविशेखर बदरीनाथ झा। दूसरे अध्याय 'समय-साक्षी' में अन्य महत्वपूर्ण लेखक-- धूमकेतु, जीवकान्त, किसुन, कुलानंद मिश्र वगैरह पर अध्याय दिये गये। तीसरा अध्याय 'परिदृश्य' है, जिसके चौदह लेखों में आप समकालीन कथासाहित्य की विधाओं, प्रवृत्तियों, उपलब्धियों का अवलोकन कर सकते हैं। शताब्दी के अंत में जो विधाओं का रुझान देखा गया, उसपर भी विस्तार से चर्चा है। अगला अध्याय समकालीन कविता पर है और अंतिम 'चतुर्दिक' नामक ऐसा अध्याय है जहां आप मिथिला के समाज, समय, पुरातनता और आधुनिकता के द्वन्द्व वगैरह को देख सकते हैं। यहां दो लेख मैथिली पत्रकारिता पर भी हैं और एक लेख अनूदित साहित्य की गुणवत्ता पर भी। 

      मैथिलों की यह समझ रही है कि आलोचना भले मुखामुखी कर ली जाए, लेकिन यह लिखने की चीज नहीं है। इसीलिए  मिथिला के इतिहास की सामग्रियां आप किंवदन्तियों और दन्तकथाओं में ही पाएंगे। आलोचक से यहां लोग घृणा करते हैं और उन्हें पुरस्कार आदि के योग्य नहीं माना जाता। मेरे साथ बड़ी सुविधा यह रही कि पहले से ही लोग मुझसे घृणा करते थे। किसी ने पुरस्कार के लिए चुना भी तो मैं ही हील-हुज्जत करता रहा। कुछ पुरस्कार तो बाकायदा लिखित आपत्ति करते हुए मैंने अस्वीकार किये।

       दूसरी किताब 'बहुवचन' मुख्यत: मिथिला में नवजागरण-तत्वों की तलाश का उपक्रम है।  उन्नीसवीं सदी के अंत से शुरू हुआ अभियान किस तरह समूची बीसवीं सदी, और आजतक भी, मिथिला समाज को प्रभावित करता आया, और मैथिली साहित्य की विभिन्न विधाओं में योग्य लेखकों ने इसे किस तरह अभिलिखित किया, यहां इसका विश्लेषण है। यहां स्पष्ट कर दूं कि देश के अन्य समाजों की तरह बहुलता की संस्कृति मिथिला के भी वृहत्तर समाज की रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश परंपरित मैथिली साहित्य सिर्फ ब्राह्मण-संस्कृति को मैथिल संस्कृति साबित करने का दुराग्रही रहा है। 'कर्मधारय' में जहां आलोचना को एक्टीविज्म के तौर पर बरतने की कोशिश है, वहीं 'बहुवचन' वृहत्तर बहुल सांस्कृतिक मिथिला के पदचाप सुनने की कोशिश है। एक बात आलोचना की भाषा पर। मानक शैली का जो निर्धारण एकबार आचार्य रमानाथ झा ने कर दिया, वामपंथी आलोचकों ने भी अपने औजार भले बदल लिये हों लेकिन आलोचना की शैली और भाषा में वे वहीं-के-वहीं बने रहे। मेरे लिए इन सब का कोई मूल्य नहीं था, क्योंकि मैं शुरू से ही सृजनात्मक लेखन की भावना के साथ ही आलोचना के साथ बर्ताव करता आया हूं।

         मेरे निष्कर्षों ने परिदृश्य में हस्तक्षेप तो जरूर किया है। आज जो बिलकुल नयी पीढ़ी के पाठक मैथिली में आए हैं, दुनिया भर की जानकारी से लैस, और अब अपनी मातृभाषा के मर्म से और दशा-दिशा से परिचित होना चाहते हैं, मुझे खुशी है यह कहते हुए कि अपनी आंख के तौर पर वे मेरा इस्तेमाल करते हैं। मैथिली के लोगों में अक्सर इस नैतिकता की कमी पाई जाती है कि अगर किसी के विचार को उद्धृत करें तो नामोल्लेख भी कर दें। लेकिन, मेरे जैसा आदमी तो इसी को बहुत मानता है कि मेरी कही बात दस कलमों से अभिलिखित की जा रही है।


आशुतोष-यात्री नागार्जुन एक अद्भुत कवि और लेखक हुए।  अपने संस्मरण 'तुमि चिर सारथि'(मैथिली) और जीवनी 'युगों का यात्री'(हिन्दी) में आपने नागार्जुन के जीवन पर विलक्षण ढंग से प्रकाश डाला है।  नागार्जुन के साथ आपके रिश्ते ने आपकी लेखन-शैली और दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित किया?


तारानंद-- देखिये, जिन दिनों मैं बाबा की संगत में आया था, सभी अर्थों में वह बहुत बड़े थे, और मैं बहुत छोटा। छुटपन से ही मैं डायरी लिखता था। बाबा की कही बातें मेरे लिए इतनी वजनदार होती थीं कि हर दिन की बात मैं लिख लेने की कोशिश करता। आम तौर पर लोग यह नहीं कर पाते। जानते हैं क्यों? क्योंकि किसी को इतना बड़ा स्वीकारना, भले ही आप एक बच्चा हों, आपके अहंकार को चोट पहुंचाता है। मैंने वहां लिखा है, वे बातें मैंने इसलिए नोट नहीं की थीं कि इनके सहारे मुझे कुछ लिखना था, बल्कि इसलिए कि ये मेरे जीवन के काम आने वाली थीं। चूंकि समूचे जीवन के साथ मैंने उनके प्रवाह में बहने की कामना की थी, यह अलग करना जरा मुश्किल है कि शैली और दृष्टिकोण किस हद तक प्रभावित हुए। बाबा गद्य लिखने पर बहुत जोर देते थे। फर्स्ट हैंड अनुभूति को ही वह लिखने की चीज मानते थे। किसी खास कविता को किस भाषा-शैली में लिखा जाए कि बात बने, इसके लिए मैंने 75 पार की उमर में उन्हें परेशान होते देखा है। लेखन में शिल्प की उतनी भर जरूरत होती है कि आपकी अनुभूति शब्दों में ठीक-ठीक अँट जाएं। इतने बड़े कवि की संगत में जब आप ये सारी घटनाएं घटते हुए साक्षात देखते हैं तो बात सीधे दिल-दिमाग तक पहुँचती है। अलग से आपको प्रभाव खोजने की जरूरत नहीं होती।

        बाबा की एक आदत थी कि मैथिली का कोई बहुत प्रतिभाशाली कवि उनसे मिले तो वह मैथिली के साथ-साथ हिन्दी में लिखने का सुझाव देते थे। मैं पहले से ही हिन्दी में लिखता था। मेरी कई आरंभिक कविताएं ज्ञानरंजन जी ने 'पहल' में छापी थीं। लेकिन, आप शायद आश्चर्य करें, मेरे साथ बिलकुल उलटा हुआ था। मुझे उन्होंने मैथिली, और सिर्फ मैथिली में लिखने का सुझाव दिया था। अब सोचता हूं तो लगता है कि मैथिली के साथ चिपके ब्राह्मण-वर्चस्व को लेकर उनकी चिन्ता ही इस सुझाव के पीछे रही होगी। अपने बारे में वह अक्सर बताते थे कि उन्हें यदि कोई उनके असली स्वरूप में देखना चाहे तो उसे उनकी मैथिली कविताएं पढ़नी चाहिए। बहुत फर्क है। अब जैसे राजनीतिक कविताओं को ही लीजिये जिसके लिए उनकी विशेष प्रसिद्धि है। मैथिली की राजनीतिक कविताएं बहुत अलग हैं। तात्कालिकता के बदले उनमें एक स्थायित्व है जो जन और अभिजन की राजनीति और कूटयांत्रिकी को बिलकुल अलग तरीके से बेनकाब करता है। कविता में राजनीति को कुछ इसी तरह लाने काम मैं भी अपने तरीके से करता रहा।

       


आशुतोष-- राजकमल चौधरी, मैथिली और हिंदी में एक और प्रभावशाली लेखक हैं। आप दोनों एक ही गांव महिसी के निवासी रहे हैं।  आपने राजकमल पर हिन्दी में एक यादगार पुस्तक 'जीवन क्या जिया' लिखी है।  राजकमल चौधरी के लेखन ने मैथिली साहित्य की गति को किस प्रकार प्रभावित किया है?


तारानंद-- यात्री ने जिस ऊंचाई तक मैथिली कविता और उपन्यास  को पहुँचा दिया था, यह एक कठिन चुनौती थी कि आगे यह कौन सी राह पकड़ेगी। राजकमल को यात्री ने ही तैयार किया था और बढ़ावा दिया कि वे आगे बढ़ें। उनकी अनुभूतियां ज्यादा जटिल थीं तो जरूरी था कि भाषा और शिल्प भी नये ढंग का उन्हें चाहिये था। यह काम वह बखूबी कर सके। राजकमल के पहले कोई बौद्धिक कविता-वाचक मैथिली कविता में नहीं आया था, क्योंकि ऐसे जटिल विषय ही नहीं आए थे। यह विस्तार इसे राजकमल से मिला। राजकमल की मैथिली कहानी को साथ रखकर यदि आप सोचें तो यह सवाल उठेगा कि वह ज्यादा बड़े कथाकार थे कि ज्यादा बड़े कवि? जाहिर है, दोनों ही विधाओं के अपने अलग-अलग मानदंड हैं और उन्होंने दोनों में अलग-अलग सिद्धियां प्राप्त की थीं। आगे की मैथिली कहानी को आप देखें तो पाएंगे कि राजकमल के बाद मैथिली की आधुनिक कहानी दो अलग-अलग धाराओं में फूटी, उन्हें लोग ललित-धारा और राजकमल-धारा कहते हैं। ललित के यहां यथार्थवादी गद्य है तो राजकमल के यहां संवेदनाओं की इतनी तरलता कि उनके गद्य के भीतर से एक विरल किस्म की काव्यात्मकता आपको झांकती मिलेगी। 

       राजकमल ने मैथिली की कई परतियां तोड़ीं। ऐसे-ऐसे विषय और पात्र ले आए कि कोई दंग रह जाए। कई लोग उन्हें 'पतित-पावन' कहते मिलेंगे, लेकिन असल बात है कि किन सामन्ती शक्तियों को उन्होंने बेपर्द किया और इसकी आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी। मैथिली की कविता हो या कहानी, आप देखेंगे, राजकमल के बाद वैसी ही नहीं रही जैसी उनके पहले थी।



आशुतोष-- आप मैथिली साहित्य की वर्तमान स्थिति को कैसे देखते हैं, और पिछले कुछ वर्षों में आपने क्या रुझान या परिवर्तन देखे हैं?


तारानंद-- उस अभागन भाषा-साहित्य के बारे में भला मैं क्या कह सकता हूं जिसका सम्पूर्ण वर्तमान संकीर्ण ब्राह्मणवादियों और थर्ड क्लास के दलालों के हाथों गिरवी है! यह एक अलग तथ्य है कि एक हजार के लगभग नये-पुराने लेखक आज मैथिली में लिख रहे हैं, जिनमें कम-से-कम चालीस प्रतिशत लोग ब्राह्मणेतर हैं। यह भी अलग बात है कि ब्राह्मणेतर लेखक भी चीज वही लिख रहे हैं जिनके आदर्श ब्राह्मणवादी हैं। यह भी एक तथ्य है कि इन हजार लेखकों में कम-से-कम पचास तो जरूर ऐसे हैं जो उच्च गुणवत्ता की रचना कर रहे हैं। लेकिन, आपको यह देखना चाहिए कि मैथिली के वर्तमान माहौल में उन उच्च गुणवत्तावालों की पूछ कितनी है, पुरस्कृत-सम्मानित कितने किये जा रहे हैं! मतलब, नहीं किये जा रहे। एक समानान्तर घटिया साहित्य-संसार खड़ा किया जा रहा है जहां भाड़े के लोगों से कोर्स और सम्मान के लिए किताबें लिखवाई जा रही हैं। ब्राह्मण लड़ाके आज अलग मिथिला राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि जो चीजें उन्हें मिली हुई हैं, जैसे अष्टम अनुसूची, विश्वविद्यालय, अकादमियां वगैरह, उनके संचालन में अपनी कपटपूर्ण विवेकहीनता का अच्छा परिचय दे रहे हैं। हां, यह जरूर है कि पिछले दशक से मैथिली के स्त्री-लेखन में आशातीत उर्वरता देखी जा रही है। यह बात मुझे बेहद अच्छी लगती है।

        देखिये, हमारे-जैसे लोगों ने भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा नहीं लिया था, क्योंकि जन्म ही देर से हुआ था। लेकिन, हम-जैसे लोग इन तमाम विपरीत हालात के बावजूद यदि मैथिली में काम कर रहे हैं तो इसके पीछे बात यही है कि अपनी मातृभाषा की मुक्ति के लिए वही स्वतंत्रता-संग्रामियों वाला उत्साह अपने भीतर पाते हैं। लेकिन कहना होगा कि इस चीज के भी आखिरी दिन चल रहे हैं, क्योंकि उस संग्राम के आदर्श पूरी तरह ध्वस्त किये जा चुके हैं। ऐसा तो नहीं होगा कि मैथिली मर जाएगी, क्योंकि  जब अंग्रेजी के विश्वव्यापी साम्राज्य के बावजूद ब्रिटेन के कुछेक लाख लोगों की केल्टिक और गेलिक भाषाएं नहीं मरीं जिनके मर जाने की भविष्यवाणी एक शताब्दी से की जा रही है, तो मैथिली क्या मरेगी! लेकिन आपको पता है, अतीत में हुए लेखकों ने मैथिली साहित्य को जो बौद्धिक संपदा की परंपरा दी है, उसके बचे रहने में मुझे पूरा संशय है। कुछ दशक बाद आप पाएंगे, मैथिली का लेखन उसी स्तर पर सिमट जाएगा जैसा मगही, वज्जिका वगैरह का है। इस डैमेज को कंट्रोल करने में यदि आप-जैसे लोग कुछ कर सकते हों तो जरूर करना चाहिये।

आशुतोष-- क्या मैथिली साहित्य में दलित महिला लेखन और अल्पसंख्यक लेखन जैसी कोई उभरती आवाजें हैं जो आपको विशेष रूप से आशाजनक या उल्लेखनीय लगती हैं?


तारानंद-- मुस्लिम लेखकों ने तो अरसे से मैथिली में काम किया है, जिनमें फजलुर रहमान हाशमी का लेखन उल्लेखनीय रहा है। वर्तमान में कई युवा सक्रिय हैं जिनके लेखन में अलग तेवर भी दिखता है। इनमें मुख्य रूप से मैं जियाउर रहमान जाफरी, गुफरान जिलानी और मुख्तार आलम के नाम लेना चाहूंगा। मंजर सुलेमान आलोचना में अच्छा कर सकते हैं, यदि निरंतरता रख सकें। दलित महिला लेखन यद्यपि आरंभिक चरण में है लेकिन ध्यान आकृष्ट करने की क्षमता रखता है। विभा कुमारी एक कबीरपंथी परिवार से हैं, जिनकी रचनाओं में आपको एक अलग मजबूती दीख पड़ेगी।


 

आशुतोष-- सबाल्टर्न अभिव्यक्ति में लगे एक लेखक के रूप में आपने किन चुनौतियों का सामना किया है? क्या आप मैथिली में अपने लेखन के माध्यम से हाशिए की आवाज़ों को आगे लाने में रुचि रखते हैं?


तारानंद-- आशुतोष जी, मैथिली जिसे कहते हैं वह तो असल में हाशिये का ही आविष्कार है। वरना, हजार वर्ष पहले जब यहां लिखने-पढ़ने की परंपरा निकली, ब्राह्मणों को भला 'भाखा' से क्या मतलब हो सकता था? मिथिला पांडित्य का देस था और ब्राह्मणों की भाषा संस्कृत थी। विद्यापति की भी निंदा मैथिलों ने इसी आधार पर की थी कि उन्होंने भाखा में कविताई करने की ढिठाई की थी। आज भी मिथिला के बहुसंख्यक पिछड़े दलितों के धार्मिक कर्मकांड की भाषा भी मैथिली ही है। लोकदेवताओं की गाथाएं मैथिली में गाई जाती हैं और देवता भी भगत की देह में प्रविष्ट होकर मैथिली में ही कहते-सुनते हैं। ब्राह्मणों के धार्मिक कृत्य की भाषा मैथिली नहीं, संस्कृत है। ऐसे में किसे हाशिया कहें किसे केन्द्रक? मध्यकाल में जब नेपाल और मिथिला के राजदरबारों में रोजगार की भाषा मैथिली बनी तो शिक्षित पंडितों ने इसमें रुचि लेना शुरू किया। बीसवीं सदी में तो दरभंगा राज ने शासनादेश के तहत मैथिली को मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की जातीय भाषा बना ली जो जमींदारी उन्मूलन के बाद भी बदस्तूर कायम रहा। जिनकी आविष्कृत भाषा थी यह, जिनके रोजमर्रा के काम आती थी, जिनकी संस्कृति का वाहक थी, वे चूंकि रैयत थे, मैथिली शोषकों की भाषा बनकर रह गयी, शोषितों से उसे छीन लिया गया। आप इतिहास देखें, 1881 में जिस एक लंबी कविता 'कवित्त अकाली'(कवि फतूरलाल) को ग्रियर्सन ने कन्टम्परोरी राइटिंग के रूप में पेश किया था,उसका जिक्र आप क्या किसी भी इतिहास-ग्रन्थ में, आलोचना में,काव्यसंग्रहों में पा सकते हैं? उस समूची परंपरा की ही निष्ठुर अवहेलना की गयी। जबकि कोई भी अध्येता जिसकी रुचि मैथिल संस्कृति की सुन्दरताओं में हो, को इसे देखने के लिए ठीक उसी जगह जाना होगा जहां की तमाम राहें संकीर्ण ब्राह्मणवादी आचार्यों ने दुर्गम कर दी हैं। असल में आम तौर पर जिसे 'मिथिला' कहा जाता है वह कोई एक संस्कृति का नहीं, कम-से-कम दो संस्कृतियों का क्षेत्र है। मिथिला के भीतर मिथिला। पं. गोविन्द झा ने कहीं ठीक लिखा था कि एक भूभाग में बसावट के बावजूद ये दोनों संस्कृतियां एक दूसरे से इतनी भिन्न और दूर और परस्पर अबूझ हैं कि मानो दो अलग-अलग ग्रहों के वासी हों। यह दूरी यहां तक बढ़ गयी है कि बहुसंख्यक मिथिला को यह भी पता नहीं है कि मैथिली साहित्य नामक भी कोई चीज है, और वहां उनकी संस्कृति की चर्चा भी गाहे-ब-गाहे लोकसंस्कृति कहकर होती है।

        यह सही बात है कि मैंने अपने लेखन में हमेशा वृहत्तर मिथिला के ही संधान की कोशिश की है। इतिहास में भी गया हूं तो वहीं जहां अंधाधुंध अंधेरे को कोई चुनौती देता व्यक्ति दिखा है। लेकिन, मैं पाता हूं और सभी मानते हैं कि आज भी मिथिला के लिए यह रास्ता आम रास्ता नहीं बन पाया है।



आशुतोष-- आपने मैथिल दृष्टिकोण से कबीर पर एक उल्लेखनीय पुस्तक 'कबीर आ हुनक मैथिली पदावली' भी लिखी है।  कबीर-दर्शन के मैथिली भाषा में निरूपण को आप किस प्रकार देखते हैं?


 तारानंद-- यह असल में कबीर के मैथिली पदों का संग्रह है जिसके साथ लगभग 80 पृष्ठों में उनकी मैथिली पदावली की विशिष्टता, परंपरा, कबीर की मिथिला-पृष्ठभूमि और यहां कबीरपंथ के उद्भव-विकास आदि का परिचय दिया गया है। देखिये, सतरहवीं सदी में कबीरपंथ का जब आरंभ हुआ, आरंभिक चार प्रधान मठों में से एक मिथिला में था। अठारहवीं सदी में तो मिथिला की चार सौ से भी अधिक जगहों पर ये मठ क्रियाशील थे। हरेक मठ के पास अपनी पदावली थी जिसमें बड़ी संख्या में मैथिली पद संकलित थे। आप जानते हैं, मिथिला में विद्यापति का कोई संप्रदाय नहीं चला। वह बंगाल में चला। मिथिला में अगर किसी संप्रदाय की चलती रही, तो वह कबीरपंथ था। विद्यापति पदावली के केवल दो पोथे मिथिला में मिले, वह भी साधारण गृहस्थों के घर में जो गीतों के प्रेमी लोग थे। अगर किसी ने उस समय कबीर पदावली की पांडुलिपियां खोजी होतीं तो दो सौ से कम क्या मिलती! लेकिन सवाल है कि खोज करता कौन, और क्यों करता? कबीर का स्वर, आप जानते हैं, ब्राह्मणधर्म की कटु आलोचना का स्वर है। महान भाषाविद् डा. सुभद्र झा ने 1956 में एक लेख लिखकर बहुत सारे अकाट्य तर्क दिये थे कि कबीर का जन्म मिथिला में हुआ था और ब्राह्मणों से हुए टकराव के कारण उन्हें मिथिला से भागना पड़ा था। यहां से वह मगहर गये फिर काशी। उनकी शिष्य-परंपरा की स्मृति में यह बात रही होगी कि प्रधान चार मठों में से एक मिथिला में बना। यूं भी आप देखेंगे कि मांसाहार का जितना कटु विरोध कबीर के यहां मिलता है, वह उनके समकालीन या परवर्ती किसी भी संत के यहां नहीं है। कहने की जरूरत नहीं कि मिथिला की धर्मधारणा शाक्त है और यहां के ब्राह्मण मांसाहार के प्रबल आग्रही

        कबीर को कभी भी, कहीं भी एक निरे आध्यात्मिक संत की तरह इकहरे व्यक्तित्व का व्यक्ति आप नहीं पाएंगे। उनकी संपूर्ण रचनाशीलता का एक सामाजिक लक्ष्य भी अनिवार्य रूप से रहा जो वर्णव्यस्था का कठोर विरोधी, पिंड और ब्रह्माण्ड की एकरूपता का प्रबल आग्रही रहा है। प्रेम का महत्व उनके यहां सर्वोपरि है और यह सवाल वह बार-बार करते हैं कि जिस प्रेम की बदौलत आदमी परमात्मा को पा सकता है, उसी प्रेम के साथ आपस में भाईचारा बनाकर जी क्यों नहीं सकता? ऐसा क्यों होना चाहिए कि एक आदमी तो पूज्य ब्राह्मण हो और दूसरा अछूत दलित? यह सवाल उनकी मैथिली पदावली में प्रमुख रूप से उभरा है। आप समझ सकते हैं कि वे मैथिल कौन रहे होंगे जिन्होंने मिथिला में कबीर की ज्योति फैलाई और इसे अपने धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया! निश्चय ही वे हाशिये के लोग रहे होंगे। अब यह अलग बात है कि उन्हें हाशिये का कहना कितना गैरवाजिब है।


 आशुतोष-- आपकी नवीनतम पुस्तक "मैथिली कविताक हज़ार वर्ष" ने एक बड़े पाठकवर्ग का ध्यान आकृष्ट किया है।आपको इस विशेष विषय पर गहराई से विचार करने के लिए किसने प्रेरित किया और पाठक इस कार्य से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?


 वियोगी: जिन दिनों मैं बाबा नागार्जुन की जीवनी लिख रहा था, उन्हें देखकर बहुत जोर हूक उठी थी कि अपने प्राचीन साहित्य का गहरा अध्ययन मैं भी करूंगा। बाबा के साथ क्या था कि तीस-बत्तीस की उमर तक उन्होंने जो कुछ पढ़ा था वह संस्कृत और संस्कृतेतर प्राचीन साहित्य ही था। मेरे साथ यह नहीं हो पाया था। संस्कृत का विद्यार्थी होने के नाते उसके प्राचीन साहित्य का तो थोड़ा-बहुत अध्ययन था लेकिन मैथिली के प्राचीन साहित्य से बिलकुल ही अनजान था। कहिये कि सीधे मैं संस्कृत के प्राचीन साहित्य से कूदकर आधुनिक साहित्य में आ गया था। 'युगों का यात्री' की सफलता के बाद मेरे पास ढेर सारे प्रकाशकों के प्रस्ताव आए। मैं किसी के लिए कुछ भी नहीं कर सका और लगातार इसी अध्ययन में लगा रहा, चार साल तक। ऐसे अध्ययनों के साथ एक समस्या रहती है कि आपको किसी मध्यस्थ की जरूरत बराबर बनी रहती है जो पाठ के असंदिग्ध आशय तक पहुंचने में आपकी मदद कर सके। जाहिर है, प्राचीन साहित्य मिथिला का था तो मैं मैथिली के इतिहासकारों और आलोचकों का ही मुंह ताकता। आपको शायद दुख हो यह सुनकर कि उन सबने मुझे भीषण रूप से निराश किया। उनके दृष्टिकोण संकीर्ण और दुराग्रह से भरपूर थे। हारकर मैं बंगला और अंग्रेजी की तरफ गया। देखिये, कोई लेखक किताब क्यों लिखता है? इस प्रश्न के बहुत सारे जवाब हो सकते हैं जिनमें एक यह भी है कि उसकी ठीक-ठीक पसंद की कोई किताब चूंकि अबतक लिखी नहीं गयी, इसलिए वह खुद लिखने की कोशिश करता है। इस किताब के बारे में आप यह कह सकते हैं। आरंभ में तो किताब लिखने का खयाल तक नहीं था। बाद में मुझे लगा, क्यों नहीं एक ऐसी किताब होनी चाहिये कि भविष्य के पाठक को मेरी तरह भटकना न पड़े।

          यह किताब छह सौ पृष्ठों की है जिसे दो खंडों में अंतिका प्रकाशन ने छापा है। आठवीं-नौवीं सदी के आसपास जब आधुनिक भारतीय भाषाएं आकार ले रही थीं, वहां से यह किताब शुरू होती है और उन्नीसवीं सदी के अंत पर आकर खत्म होती है। इस सहस्राब्दी को देसी भाषा-संस्कृति की सहस्राब्दी यूं ही नहीं कहा गया है। इस हजार वर्ष के भीतर एक खास भूभाग के लोगों ने अपनी भाषा में किन-किन तरीकों को अपनाकर खुद को अभिव्यक्त किया, यही इसका प्रतिपाद्य है। इसके अंतिम अध्याय का शीर्षक है-- इतिहास-वंचित कवि। अठारवीं-उन्नीसवीं सदी के दर्जनों ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं आज भी मिलती हैं लेकिन मैथिल इतिहासकारों, आलोचकों ने उन्हें जगह नहीं दी क्योंकि वे ब्राह्मणवाद के प्रतिकूल जाते थे। कहना न होगा कि आज जबकि ज्ञान-विनिमय उदार हुआ है, यह संकीर्णता यहां और भी अधिक बढ़ी है। 

          इस किताब का वर्ण्य विषय कविता को इसलिए बनाया गया है क्योंकि बीसवीं सदी के पहले मैथिली में गद्य-लेखन का कोई रिवाज नहीं था। हो सकता है, मेरी यह बात सुनकर आपको ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की याद आये जिसे आधुनिक भारतीय भाषाओं की पहली गद्यकृति के रूप में याद किया जाता है। लेकिन यह बात सिरे से गलत है। बड़े लोगों की गलतियां भी बड़ी होती हैं। 1940 में जब सुनीतिकुमार चटर्जी यह स्थापना दे रहे थे, तो उनके खयाल में बांग्ला संस्कृति थी और उन्हें इस बात का जरा भी इलहाम नहीं था कि मिथिला की लोकसंस्कृति को वह रत्ती भर नहीं जानते। उन्हें तो क्या उनके सहयोगी पंडित बबुआ मिश्र को भी नहीं था, जबकि स्वयं ज्योतिरीश्वर ने इसका संकेत अपनी कृति में दिया हुआ है। सुनीति बाबू का कहना हुआ कि यह किताब कथावाचकों के प्रयोजनार्थ लिखी गयी है। आप आश्चर्य करेंगे कि मिथिला में कभी भी कथावाचन की परंपरा नहीं रही, जो बंगाल में थी। यहां ब्राह्मण पुरोहित का काम करते थे, और पुराणों का वाचन, जिसमें अपनी ओर से व्याख्या या विस्तार देना निषिद्ध था। मिथिला में लोकगाथाओं की एक बड़ी ही समृद्ध परंपरा रही है। इसके नायक दलितवर्ग से आते हैं। लोरिकगाथा की चर्चा तो स्वयं ज्योतिरीश्वर ने भी की है। ग्रियर्सन को जब सलहेस गाथा मिली थी तो वह बहुत आश्चर्यचकित हुए थे कि इसकी संरचना गद्य की है लेकिन इसे मंत्रों की तरह पढ़ा नहीं जाता बल्कि मृदंग आदि वाद्ययंत्रों के साथ सामूहिक रूप से गाया जाता है। उनके इस आश्चर्य को आप 'क्रिस्टोमैथी' में देख सकते हैं। खैर, इस विषय पर एक लंबा अध्याय यहां दिया गया है।

         दूसरी जरूरी बात यह है कि ओइनवार राजाओं के दरबार में विद्यापति हुए, इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि मिथिला के राजा लोग विद्यापति-समान कवियों के प्रणेता थे, जबकि मिथिला में आप पाएंगे कि यही प्रमाणित करने का चलन युग-युग से रहा है। यदि ऐसा ही था तो आप उनसे पूछिये, विद्यापति-जैसे दूसरे प्रतिभाशाली कवि छह सौ वर्षों में कोई एक भी क्यों नहीं पैदा हो सके? बल्कि उलटा हुआ। छह सौ वर्षों तक सैकड़ों कवियों ने हजारों कविताएं विद्यापति की भौंड़ी नकल में लिखीं। कुछ नया हुआ भी तो नेपाल राजाओं के संरक्षण में, और बंगाल के वैष्णव भक्तों के पदों में। मिथिला के परवर्ती राजाओं का शौक संगीत था, साहित्य नहीं। राजदरबार के गवैयों के गाने के लिए जो गीत लिखे गये, उन्हीं को संरक्षण मिला और बाद में केवल उन्हीं को मैथिली साहित्य का दरजा दिया गया। मिथिला के व्यापक जनाकांक्षा की अभिव्यक्ति जिन रचनाओं में हुई है, उसका बहुलांश आज भी मौखिक और असंकलित, अनालोचित है। मैंने यह कोशिश की कि इतिहास का रुख घुमाकर जनता की ओर कर दिया। यूं यह किसी एक आदमी के बूते की बात नहीं है, इसलिए इस प्रयास को आरंभ मानना चाहिये निष्पत्ति नहीं, यह बात मैंने किताब की भूमिका में लिखी है, और आपको भी कह रहा हूं।


आशुतोष-- क्षेत्रीय भाषा में लिखकर आपने जिन चुनौतियों का सामना किया है, इसका कुछ उल्लेख आपने किया। मैं जानना चाहूंगा कि मैथिली में खुद को अभिव्यक्त करने में आपको सबसे अधिक लाभदायक क्या लगता है?


 वियोगी: सबसे लाभदायक है वह स्फूर्ति है जो आपको सिर्फ अपनी मातृभाषा में लिखने से मिलती है। मनोभावनाओं की उत्पत्ति पर अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि उनकी अपनी भाषा भी होती है जिसका स्फुट होना अभी संभावनाओं के भीतर होता है। किन चीजों के लिए आप किन शब्दों और बिंबों को चुनते हैं, यह आपकी अभिव्यक्ति की दिशा और सीमा दोनों तय कर देती हैं। रेणु की तरह यदि आप कड़ा तेवर अपनाएं, तभी वह हिन्दी में संभव हो सकेगी, जबकि उसके अपने खतरे भी हैं।

        यूं तो इन दिनों का समय पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के लिए व्यर्थता-बोध का समय है। और यह बोध दुर्भाग्यवश भाषातीत है। लेकिन यदि आप मैथिली से हैं तो यह बोध घोर और भीषण हो जाता है क्योंकि हर भाषा के पास अपना वैकल्पिक स्पेस है जहां कमोबेश बहुलता के पक्ष में मुखरता है। यह चीज आपके यहां बिलकुल भी नहीं है। 


आशुतोष-- क्या आप ऐसे भविष्य की कल्पना करते हैं जहां मैथिली साहित्य के महत्वपूर्ण कार्यों को, यदि अंग्रेजी में अनूदित किया जाए, तो अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों, जैसे तमिल के पेरुमल मुरुगन, की जेसीबी पुरस्कार विजेता उपलब्धियों के बराबर मान्यता प्राप्त हो सके?  यह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैथिली साहित्य के व्यापक प्रचार और सराहना में कैसे योगदान दे सकता है?


 वियोगी-- सबसे पहले तो पेरुमल मुरुगन को आत्मीय बधाई और उनके लिए शुभकामनाएं क्योंकि मैं महसूस करता हूं कि उनका सम्मान हम सबका भी सम्मान है। किसी महत्वपूर्ण रचना का अंगरेजी में अनूदित होना एक अच्छी और महत्वपूर्ण बात है क्योंकि इससे अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। मैथिली में यह काम बिलकुल ही नहीं हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन, यहां मुझे अपने यहां के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हेतुकर झा की कही एक बात याद आती है। ज्ञान-वैभव से दीप्त प्राचीन मिथिला के पतन और आजवाली मिथिला के उद्भव की सीमारेखा पंजीव्यवस्था को बताते हुए उन्होंने लिखा है कि ज्ञान का स्थान अब जाति ने ले लिया, वैचारिक उदारता के स्थान पर स्वार्थजनित क्षुद्रता का महत्व बढ़ा और जाति-भिन्न लोगों और विषयों के प्रति क्रूर अमानवीयता विकसित हुई। यहां प्रसंग क्षुद्रता का लूंगा। कोई मैथिल लेखक यदि अनुवादक भी है तो उसकी पूरी चेष्टा यही होगी कि वह स्वयं खुद को प्रोजेक्ट करें। अगर आप इन्टरनेट पर सर्च करें तो धूमकेतु और राजमोहन झा को शायद ही कहीं पाएं जबकि घटिया लेखन की प्रचुरता दिखेगी। अब बताइए, धूमकेतु खुद को प्रोजेक्ट करेंगे? मैं, जो अभी जिन्दा हूं, भी नहीं कर सकता तो वे कहां से करेंगे! चूंकि इस क्षेत्र में दृष्टिवान और पेशेवर अनुवादक यहां कोई है ही नहीं, मैथिली का जो प्रतिनिधित्व है वह शर्मिन्दा करनेवाला है, सम्मान लानेवाला नहीं। हां, एक अपवाद ललित कुमार का काम है, जिन्होंने हमारे एक महान लेखक हरिमोहन झा के उपन्यास 'कन्यादान' का अनुवाद The Bride नाम से किया जिसे हार्पर काॅलिन्स ने छापा है और जिसने कई सारे पुरस्कार भी जीते हैं

       फिर भी, सच तो यही है कि यह पूरा मैदान अभी लगभग खाली है। आप-जैसे लोगों को तमाम दूसरे काम स्थगित करके भी इस ओर ध्यान देना चाहिये। नये दृष्टिवान लोग आएं तो ऐसा चमत्कार घटित हो सकता है जो अभी कहीं दूर-दूर तक संभव नहीं लगता।


 आशुतोष--आप युवा और महत्वाकांक्षी लेखकों, विशेषकर मैथिली साहित्य में योगदान देने में रुचि रखने वालों को क्या सलाह देंगे?


तारानंद-- पहला तो सुझाव यही दूंगा कि यदि आपके लिखे पर मैथिल भद्रजन जयजय कर रहे हैं तो समझ जाइये कि आपने गलत राह चुन ली है। मैथिली का पर्यावरण आज ऐसा है कि अच्छे लेखन के लिए आप पुरस्कृत तो क्या, दंडित किये जा सकते हैं। सफल लेखक मैं उसे मानता हूं जो अपने लिखे से अपनी भाषा की ताकत बढ़ा देता है, नयी-नयी अभिव्यक्तियों के द्वार खोल देता है। इसके लिए पहली जरूरत तो यही है कि आप मिथिला को जानें-- पंडितों के लिखे के आधार पर नहीं, वैसी जो कि वह वास्तव में है।


Saturday, January 11, 2025

जाॅर्ज ग्रियर्सन आ मैथिली साहित्य मे आधुनिकताक प्रवर्तन


 

--डाॅ.तारानंद वियोगी

7 जनवरी 1851 कें ग्रियर्सनक जन्म डबलिन(आयरलैंड) मे भेल छलनि। कृपया ध्यान राखी, इंगलैंड मे नहि जे कि भारत कें अपन उपनिवेश बना क' राज करैत छल; आयरलैंड मे, जे कि भारते जकां तहिया इंगलैंडक एक उपनिवेश छल।  ट्रिनिटी काॅलेज, कैम्ब्रिज मे हुनकर शिक्षा-दीक्षा भेलनि। काॅलेज मे हुनकर जे गुरु रहथिन-- राॅबर्ट एटकिन्सन, से संस्कृत भाषाक विचक्षण विद्वान रहथि। एतय धरि जे पाणिनिक अष्टाध्यायी संपूर्ण हुनका कण्ठस्थ रहनि जकर प्रयोग मे ओ पटु छला। एकरा अतिरिक्त हुनका ग्रीक, चीनी आ तमिल भाषा पर सेहो असाधारण अधिकार रहनि। अइ सब कारणें कैक भारतीय भाषा सब ओ ट्रिनिटी काॅलेज मे अध्ययनेक समय सीखि गेल छला। मात्र बीस बरखक अवस्था मे, 1871 मे ग्रियर्सन ICS कम्पीट केलनि। आरंभिक प्रशिक्षणक बाद 1873 मे ओ भारत आबि गेला। विवरण भेटैत अछि जे भारत विदा हेबा सँ पहिने जखन ओ अपन गुरु एटकिन्सन सँ भेंट करय गेला, गदगद होइत गुरु हुनका निर्देश देने रहनि जे भारत मे रहैत भारतक भाषा सब पर ओ जरूर उल्लेखनीय काज करथि। हुनकर व्यावहारिक प्रशिक्षण बंगाल मे भेलनि। जैसोर मे ओ डिप्टी मजिस्ट्रेट बनाओल गेला आ जखन 1874क भीषण अकाल पड़ल छल तँ हुनका रिलीफक काज लेल पटना पठाओल गेलनि। ज्ञात हो जे अकाल तँ ताहि दिनक भारत मे अक्सरहां पड़ैत छल, मुदा अइ अकालक महत्व दू बात कें ल' क' विशेष अछि। एक तँ अही समय मे ब्रिटिश सरकार पहिला पहिल फेमिन कोड (अकाल संहिता) बनौने छल। दोसर, अही अकाल पर मैथिल कवि फतूरलाल 'कवित्त अकाली' कविता लिखने छला, जकरा मैथिली कविता मे आधुनिकताक प्रथम प्रवर्तन करबाक श्रेय हमही नहि, विलक्षण विचारक काञ्चीनाथ झा किरण सेहो देने छथिन। ग्रियर्सनक अगिला किछु पोस्टिंग हावड़ा, दिनाजपुर, मुर्शिदाबाद मे भेलनि। अगस्त 1877 मे हुनकर पदस्थापन भागलपुर भेलनि आ तीने मासक बाद ओ मधुबनी पठाओल गेला जतय लगातार तीन साल धरि ओ सबडिवीजनल मजिस्ट्रेटक रूप मे काज केलनि। 1880 मे ओ छुट्टी पर देश गेला आ अही छुट्टी मे अपन प्रेमिका लूसी संग विवाह केलनि। इहो जानब रोचक अछि जे हुनकर गुरु एटकिन्सन वायलिन बजेबाक बेस शौकीन रहथि, जिनका सँ ग्रियर्सन वायलिन बजाएब सेहो सिखने रहथि। अपन किशोरावस्थे सँ एक संगीत-क्लब के मेम्बर रहथि, जतय ओ वायलिन बजाबथि आ हुनकर यैह सौख हुनका लूसी संग प्रेमक आधार बनल रहय। इहो मालूम हुअय जे रिटायरमेन्टक बाद जखन ओ देश घुमला तँ पुस्तकादि लेखनक अतिरिक्त ओ एक आर्केस्ट्रा सेहो ज्वाइन केने रहथि जतय ओ वायलिन बजाबथि। खैर, 1880 मे विवाहक बाद जखन ओ भारत घुरला तखनो हुनकर पोस्टिंग लगातार बिहारे मे बनल रहलनि। ओ पटना आ गयाक कलक्टर रहला। स्कूल इंस्पेक्टरक अतिरिक्त ओ अफीम अधीक्षकक पद पर सेहो रहला। मुदा, मिथिला मे बिताएल हुनकर समय वैह तीन साल रहलनि, जखन हुनकर उमेर 26 सँ 29 साल रहनि आ ओ कुमार रहथि। हुनकर जे फोटो हमरा सब कें भेटैए से एहि उमेरक नहि कोनो भेटैए। मुदा, मैथिली वा मिथिला कें ल' कयल गेल हुनकर काज प्रमुखत: अही अवस्थाक थिक।

गुरु एटकिन्सन जे ग्रियर्सन कें टास्क द' क' भारत पठौने रहथिन, तकर कार्यान्वयन ओ तखने शुरू क' देने रहथि जखन कलकत्ता पहुंचला। ई सब वस्तु एशियाटिक सोसाइटीक जर्नलक तत्कालीन अंक सब, जे कि इन्टरनेट पर सेहो उपलब्ध छै, मे छपल‌ देखल जा सकैए। आ एकर अंतिम परिणति हमसब लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियाक रूप मे देखैत छी, जकर सार-लेखन एगारह खंड आ चौबीस वोल्यूम मे प्रकाशित भेल। ई एक एहन असंभव-सन काज छल जे ने ग्रियर्सन सँ पहिने संसार भरि मे क्यो क' सकल रहथि आ ने हुनका बाद क्यो कतहु क' सकल छथि। एहि वोल्यूम सब मे भारतक 544 बोली आ 179 भाषाक व्याकरण सहित अनुप्रयोग शामिल छै। एतबे नहि, जाबन्तो भाषा-उपभाषाक नमूनाक ओ ध्वनि-रिकाॅर्डिंग सेहो करौने रहथि, जे आइयो इंडिया आफिस लाइब्रेरी मे उपलब्ध छै। मैथिली पर ओ बहुतो काज केलनि। कम सँ कम तीन बेर तं एकर ओ व्याकरणे लिखलनि। लेकिन तकर बादो, लिंग्विस्टिक सर्वे आफ इंडियाक खंड पांच वोल्यूम दू ओ बिहारी भाषा, मुख्यत: मैथिली कें समर्पित केलखिन। हुनकर समझ रहनि जे हिन्दी अइ प्रान्त लेल तहिना एक विदेशी भाषा थिक, जेना अंग्रेजी। हुनकर प्रस्ताव रहनि जे मैथिली, भोजपुरी आ मगही कें मिला क' एक काजक भाषा, बिहारी भाषा, तहिना बनाओल जा सकैत अछि जेना अतीत मे कहियो पालि बनल छल। हुनकर काज मे मैथिलीक लेल सब सँ पैघ बात ई छै जे मैथिली 544 बोली मे नहि, 179 भाषा मे सँ एक के रूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त केने अछि।

मैथिली बोली नहि भाषा थिक, अइ बातक बहुत पैघ महत्व कोना अछि, तकर इतिहास मे चली तँ विषय स्पष्ट हैत। इस्ट इंडिया कम्पनी सँ हटा क'  ब्रिटिश शासन मे भारत कें एलाक बाद 1858 मे ICS के आरंभ भेल छल। पहिल बैचक बाद तेरह साल बीतल रहय, जखन ग्रियर्सन ICS अफसर बनल रहथि। अइ बीच, 1870 मे ई जरूरी बूझल गेल जे शासनक मजगूती लेल स्थानीय भाषा सभक ज्ञान रहब उच्चाधिकारीक लेल अनिवार्य रहत। स्थानीय भाषा सब मे वर्नाकूलर कोर्स चालू कयल गेल। ध्यान देबाक बात थिक जे बंगला, उर्दू आदि वर्नाकूलर कोर्स मे शामिल छल, मुदा अइ मे मैथिली नहि छल। 1874 मे ग्रियर्सन अपनहु वर्नाकूलर परीक्षा मे शामिल भ' उत्तीर्णता प्राप्त क' लेलनि। मधुबनी पहुंचलाक थोड़बे दिनक भीतर ओ मैथिली धाराप्रवाह बाजब सीखि गेला आ एत्तुका भाषा, साहित्य आ लोक-परंपरा कें निकट सँ देखलनि तँ हुनका सामने बिलकुल स्पष्ट भ' गेलनि जे मैथिलीक एक विशिष्ट भाषा-संस्कृति अछि आ वर्नाकूलर कोर्स मे शामिल हेबा सँ एकरा वंचित राखब गलत अछि। मैथिली मे कयल गेल हुनकर समस्त कार्य कें अइ नजरिया सँ देखबाक चाही तखनहि एकर असल मर्म उद्घाटित भ' सकैत अछि।

एशियाटिक सोसाइटी जर्नलक 1880 इस्वीक अतिरिक्तांक, जे 1881 मे प्रकाशित भेल, मे ग्रियर्सनक पुस्तक "एन इंट्रोडक्शन आफ मैथिली लैंग्वेज आफ नाॅर्थ बिहार-- कन्टेनिंग ए ग्रामर, क्रिस्टोमैथी एंड वोकेबलरी' प्रकाशित भेल। एकर दू भाग छल-- पहिल भाग मे मैथिलीक व्याकरण छल, आ दोसर मे अनुवाद आ टिप्पणी सहित मैथिली रचना-संचयन तथा शब्दकोश। कुल मिला क' ई पोथी 423 पृष्ठक रहै। पहिल खंड व्याकरण, पंडित गोविन्द झाक कयल अनुवाद संग डाॅ. रमानंद झा रमणक संपादकत्व मे चेतना समिति, पटना सँ छपल अछि आ दोसर भागक पुनर्मुद्रण डाॅ. हेतुकर झाक संपादकत्व मे कल्याणी फाउन्डेशन, दरभंगा सँ भेल अछि।

अइ सभक अतिरिक्त ग्रियर्सन कें संपूर्ण जीवन मे 952 गोट अज्ञात भाषा-कविक रचना कें अनुवाद एवं टिप्पणीक संग प्रकाशित करबाक श्रेय देल जाइत छनि। मोन राखी जे अही मे मनबोधक अमरकृति हरिवंश उर्फ कृष्णजन्म, आ उमापतिक कृति 'पारिजातहरण' सेहो शामिल अछि, जकरा आइ हमसब मैथिलीक गौरवग्रन्थ मानै छियै। आ एतबे किएक, मैथिली लोकगाथा दीनाभद्रीक संपूर्ण पाठ, फतूर कविक कवित्त अकाली, मर्शिया-गीत, नाग-गीत, दू दर्जन सँ बेसी वैष्णव-कवि लोकनिक रचना आदि हुनकर खोज रहनि। विद्यापति कें ल' क' कयल गेल हुनकर काज अलग सँ रेखांकित करबाक योग्य अछि।

हमसब अवगत छी जे 1875 सँ पहिने धरि दुनिया विद्यापति कें एक बंगाली भक्तकविक रूप मे जनैत छल। मिथिलाक स्त्रिगण, शूद्र नटुआ आ मैथिल शिवभक्त लोकनि मे विद्यापतिक पद प्रचलित छल जरूर, मुदा मैथिल विद्वान आ पंडित लोकनिक बीच विद्यापति कें ल' क' कोनो श्रद्धा नहि छल, ने धर्मशास्त्रादि मे हुनका प्रमाण मानबाक चलन छल। एतय धरि जे आगू जखन विद्यापतिक ग्रन्थ सभक खोज शुरू भेल तँ एक पुरुषपरीक्षा कें छोड़ि क' हुनकर कोनो ग्रन्थक पांडुलिपि मिथिला मे नहि पाओल गेल। विडंबना ई छल जे मिथिलाक प्रथम इतिहास-लेखक बिहारीलाल फितरत अपन उर्दू इतिहास-पुस्तक 'आईना-ए-तिरहुत' (1881) मे विद्यापतिक बारे मे  यैह पता लगा सकल रहथि जे विद्यापति बहुत भारी नैयायिक रहथि, तें राजा शिवसिंह हुनका बिसफी ग्राम दान मे देने रहथिन। आइ हमसब नीक जकां अवगत छी आ पं. गोविन्द झा लिखनहु छथि जे विद्यापति और जे किछु रहथु, हुनकर न्यायशास्त्र पढ़बाक वा एहि विषयक ज्ञाता हेबाक कोन्नहु टा साक्ष्य उपलब्ध नहि अछि। 1875 मे स्वयं एक बंगाली विद्वान राजकृष्ण मुखोपाध्याय एहि बातक उद्घाटन केने रहथि जे विद्यापति बंगाली नहि छला, मिथिलाक छला, मैथिल छला। 'विद्यापति' शीर्षक सँ हुनकर ई लेख एक बंगला पत्रिका 'बंग-बन्धु'क ज्येष्ठ, 1875क अंक मे छपल छल। पहिल विद्वान यैह राजकृष्ण मुखोपाध्याय रहथि जे विद्यापतिक असल परिचय जनबाक लेल अन्यान्य स्रोतक अतिरिक्त मिथिलाक पंजी-ग्रन्थक सेहो उपयोग केने रहथि। पैघ बात ई भेल जे जाॅन बीम्स, जे ग्रियर्सन सँ सीनियर, आरंभिक बैचक आईसीएस अफसर छला, मुखोपाध्यायक एहि लेखक अंग्रेजी मे सार-लेखन क' इंडियन एंटीक्वेरी जर्नल मे अक्टूबर, 1875 मे प्रकाशित करबा देलनि। केवल बंगाले नहि, सौंसे संसार मे कोहराम मचि गेल जे विद्यापति बंगाली नहि, मैथिल छथि। राजकृष्ण मुखोपाध्यायक जे गंजन बंगाली लोकनि केलखिन से तँ अलग, एहि घटना-क्रमक बाद जखन ग्रियर्सनक पदस्थापन मिथिला मे भेलनि तँ हुनको पर चतुर्दिक दबाव रहनि जे ओ विद्यापतिक काज कें आगू बढ़ाबथि। दरभंगा-राजक पुस्तकालय बहुत संपन्न छल, मुदा ग्रियर्सन कें ओतय काजक चीज किनसाइते किछु भेटल होइन। ओ सौराठ गेला जतय विद्यापतिक वंशधर लोकनि आब वास करैत रहथि। ओ स्वयं लिखलनि अछि, वंशधर लोकनि जखन हुनका ई कहलकनि जे हमरा  सब लग विद्यापतिक किछुओ किछु टा नहि अछि तँ यूरोपीय संस्कृति मे पोसाएल ग्रियर्सन आश्चर्यक सागर मे मानू निमग्न भ' गेला। उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथै:-- ई जे कहबी कहल जाइछ से ओहिना नहि। तिरहुत मे ता  रेल चलल लागल रहय। ट्रेन मे गीत गाबि क' भीख मांगबाक रोजगार सेहो ताधरि प्रचलन मे आबि गेल छल। निराश ग्रियर्सन ट्रेन मे भीख मंगनिहार आन्हर गायक लोकनि सँ जे गीत सब संकलित करौलनि, ताहि मे सँ 82 टा गीत विद्यापतिक छलनि जकरा ओ क्रिस्टोमैथी मे संकलित केलनि। सब गोटे जनैत छी जे बाद मे बंगाल, नेपाल आ मिथिला मे भेटल विद्यापतिक समस्त गीत कें एकत्र कयल गेल तँ पाओल गेल जे बांकी गीत सब तँ बंगालो मे भेटल रहै, नेपाल आ मिथिलो मे, लेकिन 55 टा गीत एहन छल जे जँ ग्रियर्सन एकरा संकलित नहि क' लेने रहितथि तँ ई सब गीत आइ लुप्त भ' गेल रहैत, कारण कोन्नहु दोसर स्रोत सं ई सब गीत अप्राप्त अछि। एहि सँ ग्रियर्सनक काजक स्टैन्डर्ड के किछु अनुमान कयल जा सकैए। जखन कि एक मिथ्या भ्रमक शिकार जँ ग्रियर्सन नहि भेल रहितथि, तँ हमर ख्याल अछि जे सब मिला क' जते विद्यापतिगीत जमा भेल, असगर ग्रियर्सन ओतबा क' लेने रहितथि। मिथ्या भ्रम की? यैह जे विद्यापति वैष्णव भक्तकवि छला, जेना कि हुनका बंगाली लोकनि दीक्षित केने रहनि। अपन एही भ्रमक कारण ओ ने तँ नटुआ सब सँ गीत संकलन क' सकला जे लोकनि विदापत नाच आदि मे ई गीत गबै छला, आ ने मिथिलाक स्त्रिगण सँ जे कि हरेक अवसर पर कोरस मे विद्यापति गीत गाओल‌ करथि।

हमसब अइ बात सँ अवगत छी जे अपन लिंग्विस्टिक सर्वे मे मैथिलीक अनेक प्रभेद कें स्वीकार करैत ग्रियर्सन ब्रिटिश जबानाक चंपारण, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, भागलपुर, पूर्णिया, मुंगेर, संथालपरगनाक अतिरिक्त नेपालक सौंसे तराइ क्षेत्र कें मैथिलीभाषी क्षेत्रक रूप मे चिह्नित केने रहथि। आइयो झूठमूठ के दावा केनिहार लोकनि एतबा क्षेत्र बतबिते छथि। मुदा, आइ क्यो तत तत जिला निवासी लोकनि, जे कि आजुक समस्त उत्तर बिहार तँ भेबे केलै, झारखंड आ नेपालक सेहो एक पैघ भाग भेलै, एहि ठामक निवासी लोकनि अंगिका, वज्जिका, अवधी, मगही आदि भाषा मे बंटि गेल छथि। एकर अस्सल कारण की भेलै, आ मैथिलीक महान चिन्तक ग्रियर्सनक कसौटी सँ आगूक विद्वान चिंतक लोकनि कोना पाछू हटि गेला, आ तकर बहुत खराब प्रतिफल की कोना मैथिली कें भोगय पड़लै, ताहि पर हम की प्रकाश देब, सब गोटे देखिये रहल छी।

ग्रियर्सनक मैथिली व्याकरणक अपन कयल अनुवादक भूमिका मे पं. गोविन्द झा साफ लिखलनि अछि जे मैथिलीक जँ क्यो अस्सल पाणिनि भेला तँ से ग्रियर्सन भेला, महावैयाकरण दीनबन्धु झा नहि, जे कि गोविन्द बाबूक पिता रहथिन आ जिनका 'मैथिलीक पाणिनि' मानल जाएब पंडित-गोष्ठीमान्य रहै। पंडित गोविन्द झा एहन मानबाक कारण सेहो बतबैत छथि। मुख्यत: दू कारण। पहिल तँ ई जे ग्रियर्सन कतहु स्वयं सृष्ट (अपन बनाएल) उदाहरण नहि दैत छथिन। एकर बदला मे ओ दृष्ट (प्रयोग होइत देखल जाइत) उदाहरणक प्रयोग केने छथि। दोसर, जे कि कदाचित सर्वाधिक मूल्यवान अछि, से ई जे महावैयाकरण जीक व्याकरण एकवर्गीय छनि, संभ्रान्त ब्राह्मण समाज द्वारा प्रयुक्त भाषाक विवेचन मात्र, जखन कि ग्रियर्सन सौंसे मिथिला समाज, जाहि मे कि सब धर्म, सब जाति, सब क्षेत्र आ सब समाजक शब्द कें लेलनि। एक अखंड मिथिला, जे केवल ब्राह्मणक नहि, दलित, मुसलमान, आदिवासी आदि सभक छै, तकर रूप ग्रियर्सनक आंखिक सोझा छलनि। स्वयं पं. गोविन्द झा ई बात लिखने छथि, तें अइ पर आगू हमर किछु कहब व्यर्थ हैत, तें हम आगू बढ़ैत छी। हं, एकटा बात जरूर कहब जे ग्रियर्सन समान अग्रचेता चिन्तक कें निष्फल करबाक संपूर्ण श्रेय दरभंगा राज, ओकर छत्रच्छाया मे पोसाएल पंडित वर्ग, आ दरभंगा-मधुबनीक मैथिली पंडितक हुंठता आ दबंगता कें छैक।

ग्रियर्सनक नजरि मे मिथिलाक ई जे भाषिक अवस्थिति छलैक, तकरा देखबाक लेल हुनकर व्याकरणक अतिरिक्तो बहुत चीज छै जकरा देखल जा सकैए। जेना क्रिस्टोमैथी मे कयल गेल रचना-संचयन कें लेल जाय। सब सँ पहिने ओ दैनिक व्यवहार मे प्रयुक्त कयल जाइत भाषाक उदाहरणक रूप मे "श्री चंपावति निकट दुरमिल झा लिखित पत्र" कें राखलनि। मतलब जे एहि ठामक लोक मे आपसी पत्राचारो धरि मे मैथिलीक उपयोग करबाक चलन छैक। के छलि चंपावति, के छला दुरमिल झा, हमरा सब कें किछु बूझल नहि होइत अछि। ग्रियर्सनो कें किनसाइते बूझल हेतनि। एक मैथिल पिता अपन विधवा बेटी कें जे पत्र लिखने रहथि, सैह कोनो तरहें हुनका धरि पहुंचल रहनि। हुनकर नैतिक आदर्श ई छलनि जे बनौआ (स्वयंसृष्ट) ओ कतहु नहि राखलनि, सदैव दृष्ट प्रयोग पर आश्रित रहला, जकरा कि अवश्ये पूर्ण तर्कसंगत, पूर्ण वैज्ञानिक पद्धति कहबैक। एकरा बाद ओ 'अथ गीत सलहेसक' रखैत छथि। मने शूद्र वर्ग, दलित वर्ग के धार्मिक क्रियाकांडक भाषा आइयो कोना मैथिलिये थिक, ताहि दिस नजरि दियौलनि। ई बात भिन्न जे सलहेस गीत कें ओ गद्य मानलनि, से अइ कारणें जे मिथिलाक लोकपरंपराक जाबन्तो वैशिष्ट्य सँ ओ ओतबे परिचित भ' सकल रहथि, जतबा कि एक विदेशी शासकक लेल संभव छल। हुनकर शिष्य सुनीति कुमार चटर्जी तँ मिथिलाक लोकपरंपरा सँ अनजान हेबाक कारण वर्णरत्नाकर कें सेहो गद्यग्रन्थे कहलखिन। कोनो आश्चर्य नहि जे अइ मे हुनका संग ग्रियर्सनोक सहमति होइन, कारण तावत (1940) धरि ओ जीवित छला।
           क्रिस्टोमैथीक पद्यखंडक आरंभ गीत मरसीआ सँ कयल गेल अछि। मर्सिया अथवा मरसीआ मुसलमान लोकनिक गीत छियनि, जे कर्बला मे घटित घटना आ इमाम हुसैनक शहादत के स्मृति परक गीत थिक, जकर एक प्रचलित नाम झरनी सेहो छियैक। मुहर्रम एहि गीत सभक गायनक खास अवसर होइत छैक, यद्यपि कि एकर धुन पर लिखल गीत आनो अवसर पर गाओल जाइछ। मैथिली भाषा कोना हिन्दू आ दलितक संग संग मुसलमानोक जीवन मे शामिल छैक, सैह देखाएब एतय ग्रियर्सनक इष्ट छनि। मरसीआ गीतक बाद 'गीत नाग' संकलित छैक। हम सब अवगत छी जे आर्यीकरण सँ पहिने मिथिलाक जे मूल निवासी लोकनि छला, ओहि मे सँ एक जाति नाग सेहो छल। ई लोकनि आदिवासी छला। हमसब अहू बात सँ अवगत छी जे नाग जातिक समाहार ब्राह्मणधर्मक भीतर करबाक उद्देश्ये सँ अपना युग मे विद्यापति व्याडिभक्तितरंगिणी लिखने रहथि। एखन जकरा हमसब मैथिल संस्कृति कहैत छिऐ ताहि महक बहुतो रास चलन आदिवासी नाग लोकनिक संस्कृति सँ आएल अछि-- जेना विवाह मे सिन्दूरदान, ई आर्येतर प्रभाव थिक। मिथिलाक मूलनिवासी लोकनिक जीवन मे कोना मैथिली शामिल छै, से देखाएब एतय ग्रियर्सनक इष्ट छलनि। एतेक रास जाति, धर्म, वर्ग, समुदाय कोना मैथिली ल' क' जिबैत छथि, से सब देखेलाक बाद ग्रियर्सन समकालीन साहित्य-लेखनक नमूना रखलनि अछि। ओहि समय मे जीवित कवि फतूर लालक 'कवित्त अकाली' वैह कविता थिक। एहि सब अध्यायक अनुवाद आ टिप्पणी लिखबाक बाद ग्रियर्सन दरबारी मैथिली साहित्यक नमूना रखैत छथि जाहि मे पूर्व युगक महाकवि विद्यापति संकलित छथि आ जीवित कवि हर्षनाथ झा। ग्रियर्सन कमेन्ट करैत छथि जे मोटामोटी विद्यापति जे अपना युग मे लिखलनि, तकरे अनुकरण करैत हर्षनाथ झा एखनो लिखि रहल छथि। जखन कि कवित्त अकाली पर टिप्पणी करैत ओ लिखने छला जे महाराज कें किनसाइते एहि कविक नामो सुनल होइन। एतय धरि जे ब्रिटिश शासक लोकनिक सफल रिलीफ-व्यवस्थाक प्रशंसा केनिहार एहि कविक बारे मे सरकारी अधिकारी लोकनि सेहो अइ कविताक प्रकाशन भेलाक बादे जानि सकता।

क्रिस्टोमैथीक संग जे ग्रियर्सन शब्दकोश छपौने छथि, सेहो अद्भुत अछि। पहिनहु कहलहुं जे जतबा जे किछु मैथिली कें ल' क' लिखलनि से सबटा दृष्ट प्रयोग छल, सृष्ट नहि। हुनकर कोशक एक खास गुण छनि जे हरेक शब्दक प्रयोग लेल ओ उदाहरण वाक्य देने छथि। एहि क्रम मे 300 सं बेसी फकड़ा, कहबी आ लोकोक्ति प्रयोग केने छथि। ई विशेषता आन कोनो मैथिली कोश मे अहां कें नहि भेटत। खूबी ई जे एहि सभक संचय ओ समस्त समाज सं, मतलब सब धर्म सब जातिक समाज सं केने छथि। हमरा सभक स्वप्नक जे मिथिला थिक, आश्चर्य लागत जे ग्रियर्सन ओकरे विद्यमान स्वरूप कें रखने छथि। जकर स्वप्न हमसब आइ देखै छी, से अखंड मैथिली समाज तहिया सद्य: विद्यमान रहै। ई बात भिन्न जे मिथिलाक सामंत आ मैथिलीक मैनेजर लोकनिक कुचालि सँ ओहि समाज सँ मैथिली आइ बहुत दूर आबि गेल अछि। आगू हम सब देखैत छी जे सवर्ण समाज सँ ग्रियर्सन जे वस्तु उठौने छला से सब तं आगूक सब लोकोक्ति संग्रह मे बनल रहल, मुदा पछड़ल समूहक जे वस्तु रहैक से लुप्त भ' गेल।
           सब गोटे अवगत छी जे लोक-साहित्य हमेशा प्रगतिशीले हो से जरूरी नहि होइत छैक। उदाहरणक लेल कही जे सब जातिक बीच परस्पर विद्वेषी स्वभावक लोकोक्ति प्रचलित रहैत छैक। जेना बनियांक जी धनियां, जेना तौला भरि अनाज भेल/ जोलहा कें राज भेल, जेना कल कलवार/ खल्ला ओदार, जेना बुड़बक मीयां कें मांझ ठाम बथान आदि। ई सब कहबी, सबटा किताब मे, सबटा संग्रह मे भेटत। मुदा,  एकटा कहबी हम सुनबै छी जे ग्रियर्सन छोड़ि क' कत्तहु नहि भेटत। एकटा शब्द 'सील' के प्रविष्टि लैत ग्रियर्सन एकर अर्थ लिखने छथि-- शालग्राम, अंग्रेजी मे-- a stone, Shalgram stone. प्रयोग देखौलनि अछि--सील, सुत, हरिवंश लै/ बीच गंगा के धार/ एत्तेक लै ब्राह्मण करय/ तैयो ना करह इतिवार। एहि कहबीक अर्थ ओ एहि शब्दें देलनि अछि-- 'If a Brahman swear even by the Shalgram, his son, the Harivans, and in the midst of the Ganges, Don't believe him. एकटा आर कहबीक दृष्टान्त हम ई देखेबाक लेल करब जे आगूक संकलयिता लोकनि कोना एकर अर्थक अनर्थ केलनि अछि। शब्द छैक-- लोकदिनी। अर्थ छै- Maid servent खबासिनी। दृष्टान्त मे कहबी देल गेलैए-- लोकदिनीक पयर जतने ससुरा वास। डेढ़ सौ बरस पुरनका बाबू-बबुआन समाजक चालि बुझनिहार लोक झट द' बुझि जेता जे एहि कहबीक अभिप्राय कते मारक छै। नवकी कनियां सासुर एती तँ ओतय हुनकर वास तखने संभव जखन पति दहीन हेथिन। पति छथिन खबासिनीक वश मे, खबासिनी खुश रहली तँ मालिको खुश रहता। सामंत वर्गक यौनिक अराजकताक ई चित्र थिक, मुदा डाॅ. कमलकान्त झा अपन लोकोक्ति-कोश मे एकर अर्थ देलनि अछि--'लोक जतय रहैत अछि ततहि सब सँ मिलि क' रहय पड़ैत छैक। पैरवी -पैगाम सँ काज नहि चलैत छैक।' मानि लेल जे सैह अर्थ। मुदा कने ई तँ कहल जाउ जे 'पयर जतने' किएक?

मैथिलीक लेल जे स्नेह आ श्रद्धा ग्रियर्सनक हृदय मे छलनि, आश्चर्य लगैत अछि जे ओहि अन्हार युग मे ई वीजन हुनका कतय सँ भेटल रहनि। बंगाल प्रोविंसियल कमिटीक रिपोर्ट (1881) मे ओ हिन्दी वर्सेस मैथिलीक अन्तर्द्वन्द्व पर मैथिलीक पक्ष रखैत लिखलनि-- "The whole genius of Hindi is different from that of the Bihar dialects and they could never, by any possibility, assimilate to it. हिंदीक संपूर्ण प्रतिभा बिहारक बोली सब सँ नितान्त भिन्न अछि आ अइ बातक दूर-दूर धरि कोनो संभावना नहि अछि जे ई लोकनि एकरा कहियो कोनो विधियें आत्मसात क' सकता।" तहिना 'प्ली फाॅर पीपुल्स टंग' मे ओ लिखलनि-- "Let us think that the welfare of 17 millions of Bihar alone is at stake, and set to work at once. आउ हमसब सोची जे असगरे बिहार के 17 मिलियन लोकक कल्याण आइ दांव पर अछि, आ तुरंत काज करबा लेल तैयार भ' जाइ।" ई काज की रहै? रहै जे मैथिली कें ओकर हक भेटैक।
                   ग्रियर्सन जाहि समय मिथिला मे पदस्थापित छला, मिथिला कोर्ट आफ वार्ड्स के अधीन रहै। महाराज लक्ष्मीश्वर सिंह 1880 मे कार्यभार सम्हारलनि आ तुरंत दरभंगा राजक समस्त कचहरी सब मे हिन्दी भाषाक प्रयोग कें तेना क' अनिवार्य क' देलनि जे तीन मासक भीतर जे अमला हिन्दी नहि सीखि सकला हुनका जबरन रिटायर क' देल गेलनि। ई की छल? ई ब्रिटिश सरकारक साम्प्रदायिकता नीतिक कार्यान्वयन छल। जँ अहां हिन्दू छी तँ अहांक काजक भाषा उर्दू-फारसी नहि, हिन्दी थिक। मैथिली एहि मे कतहु नहि छल। वर्नाकूलर मे मैथिली कें शामिल करबाक लड़ाइ ग्रियर्सन लड़ल छला, महाराज एहि लड़ाइ कें सदा-सर्वदाक लेल दफन क' देलखिन।
            ग्रियर्सन एहि तरहें दीवानगीक हद धरि मैथिली लेल अपस्यांत छला, की एकर कनेको प्रभाव मैथिल बौद्धिक लोकनि पर पड़ल छलनि? प्रो. जयदेव मिश्र लिखैत छथि--"हिनका लोकनि कें तहिना आश्चर्य भेलनि जेना कोनो नव आविष्कार भेल हो। ओ सब सोचलनि जे जखन सात समुद्र पारक विदेशी कें मैथिली मे एते सौन्दर्य भेटि सकैत छैक तं एहि मे अवश्ये अन्तर्निहित श्रेष्ठता छैक। ग्रियर्सनक उदाहरण एकटा क्षितिज कें अनावृत्त क' देलक जे जतबे नव छल ततबे आकर्षक।" (चन्दा झा/पृ.29) मैथिलीक रचनाकार-जगत पर ग्रियर्सनक जे प्रभाव पड़लै ताहि प्रसंग अपन विनिबंध 'चन्दा झा' मे प्रो. झा लिखैत छथि-- ''ग्रियर्सनक साहित्यिक प्रभाव कें जे लोकनि अपरोक्ष रूपें आत्मसात केलनि आ मैथिली मे रचना करबाक लेल अग्रसर भेला, ओ सब छला चन्दा झा, भानुनाथ झा, जीवन झा, रघुनंदन दास, परमेश्वर झा आदि।" (पृ.28)
                आब कने अइ प्रसंग कें देखी जे मैथिली साहित्य मे आधुनिकताक प्रवर्तनक मादे की अभिमत इतिहासकार आ आलोचक लोकनि रखलनि अछि। ई लोकनि चन्दा झा कें प्रवर्तक मानैत छथि। किएक? कोन आधार पर? तँ ओ मिथिला भाषा रामायण लिखलनि। स्थिति देखू जे अइ भाषाक नाम 'मैथिली' जे रखलनि, अपन किताबक नाम बनौलनि, से छला ग्रियर्सन। ग्रियर्सन सँ प्रोत्साहन पाबि आगू चन्दा झा सेहो मैथिली लिख' लगला, से हुनकर जीवनीकार स्वयं गछैत छथि। किरण जी एहि मुद्दा पर बहुत खिन्नता प्रकट करैत ई प्रश्न उठौलनि जे जँ चन्दा झा मैथिली लिखैत रहितथि तँ क्रिस्टोमैथी मे हुनको कविता किएक नहि शामिल भेल? ओ लिखलनि-- "डाॅ. जयकान्त मिश्र चन्दा झा कें आधुनिक मैथिली साहित्यक प्रवर्तक मानि लेलनि मुदा चन्दा झाक छिटपुट, टुटल-फुटल हिन्दी भाषाक रचने सिद्ध करैछ जे ओ एकमात्र मैथिली भाषा कें साहित्यक माध्यम नहि मानैत रहथि। मैथिली भाषा कें गोग्रास जकां किछु क' द' देबाक परिपाटी कें ज्योतिरीश्वरे चला देलनि। चन्दा झा नव की केलनि जाहि सं आधुनिक युगक आरंभकर्ता मानल गेला? इतिहास मे एकर स्पष्टीकरण आवश्यक।" कहब जरूरी नहि जे कोनहु इतिहास मे एकर स्पष्टीकरण आइ धरि नहि आएल। हमरा लोकनि रमानाथ झाक एक अही बात पर फिदा भ' गेलहुं जे विद्यापति सं हर्षनाथ झा धरि 'कृष्णयुग' चलैत छल, जकरा बदलि क' चन्दा झा 'राम-युग' मे प्रवेश करा देलनि। विडंबना देखू जे चन्दा झा पर ग्रियर्सनक व्यापक प्रभाव पड़लाक बादो ओ 'मैथिली' शब्द व्यवहृत नहि क' सकला। मिथिला भाषा कहलनि। एकर तात्पर्य ई छल जे पंडित वर्ग मे मिथिलाक माहात्म्य छल, पुण्यक्षेत्र मिथिला छली। एहि ठामक भाषा 'मैथिली'क कोनो महत्व नहि छल। ई विभक्त मानसिकता आइयो हमसब 'मिथिलाराज'क लेल लड़निहार सेनानी लोकनि मे आइयो देखि सकै छी। एक क्रिश्चियन विदेशी विद्वानक अवदान मैथिल विद्वान लोकनि कोना करितथि, तें एक ब्राह्मण कवि कें ताकल गेल जे रामकथा लिखलनि, भने राम मिथिला मे सबदिन अपूज्य मानल गेल होथि। यैह भेलनि चन्दा झाक नवता। रमानाथ झाक अनुसार एखनो धरि मैथिली साहित्य मे राम-युगे चलि रहल अछि। कहबाक तं ई चाही जे आइ-काल्हि हमसब घनघोर रामराज्य मे निवास क' रहल छी।
                      दुख तं ई देखि क' होइछ जे मैथिली साहित्यक सन्दर्भ मे आधुनिकता वा नवताक मानदंड की हो, आइ धरि सैह नहि स्पष्ट भ' सकल अछि। किरण जी अपना दिस सँ एक मानदंड प्रस्तावित करैत छथि-- "भाषाक संदर्भ मे आधुनिकताक अर्थ अछि-- अंगरेज जाति जकां अपन मातृभाषा कें पवित्र मानब, अपन समस्त भाव-विचारक माध्यम बनाएब, आ अपन भूमिक स्वाधीनता लेल जीवन अर्पित करबाक भावना कें प्रज्वलित करब, राखब।"  मोन राखी, ग्रियर्सन एक सौ सं बेसी भाषाक ज्ञाता रहथि। मैथिलक संग मैथिली, बंगालीक संग बंगला, भोजपुरियाक संग भोजपुरी मे तेना धाराप्रवाह बजैत छला जे चकित क' दैत छल। मुदा, ओ एक अंग्रेजी छोड़ि क' कहियो कोनो भाषा मे लेखन नहि केलनि। मुदा, से अलग बात। मैथिलीक संदर्भ मे किरण जी ग्रियर्सन कें युग-प्रवर्तनक सूत्रधार मानलनि आ कवि फतूर लाल कें आधुनिकताक प्रवर्तक। ओ कहैत छथि-- " हमरा दुख सँ बढ़ि क' लाज होइत अछि अपन समाजक अविवेक पर। राजा-महाराज वा मुंहगर पंडित दू-चारि पांती जोड़ि क' अपन दुख-दर्द अथवा धन-पूत कामना भगवान-भगवती कें सुनौलनि, से सब इतिहास मे जगजियार बना देल गेला। हुनका लोकनिक फकड़ा काव्यक नाम सँ पाठ्यग्रन्थ मे देल गेल आ समस्त मिथिलाक माटिक दुख-दर्दक सजीव चित्र समाज कें देनिहार कवि कें ने इतिहास मे स्थान देल गेल, ने ओकर दुइयो पांती छात्र-पाठक मे परसल गेल। हमर दृष्टियें आधुनिक युगक आरंभ फतूर लाल कवि ओ ग्रियर्सन सँ मानब न्यायसंगत थिक।"

एहि प्रस्तावना पर आइ धरि तँ हमर पुरखा लोकनि कान-बात नहि देलनि, कहल जाय जे 'वार्ता' धरि नहि लेलनि, मुदा इतिहासक मांग थिक जे हमरा लोकनि एहि मुद्दा पर विचार-विमर्श शुरू करी।

Tuesday, December 24, 2024

वर्चस्ववादी संस्कृति बनाम हाशियाक समाज उर्फ पचपनियाक संघर्ष


 

  (संगोष्ठीक आरंभ मे तारानंद वियोगीक बीज-वक्तव्य)


अंतिकाक अइ गोष्ठीक जे नाम राखल गेल अछि-- वर्चस्ववादी संस्कृति बनाम हाशियाक समाज उर्फ पचपनियाक संघर्ष, विश्वास करब कठिन छै जे एकर विषय मैथिली साहित्य छै। मैथिली मे कतहु एहन विषय राखल जाय जाहि मे वर्चस्व, हाशिया आ संघर्षक जिक्र होइ। कहबी छै, सौंसे गाम चोरे तं चोर कहू ककरा? सब क्यो जखन एक्के मतक होथि तं ककर वर्चस्व, आ के हाशिया? जं अनीतियो करै छथि, जेना मानि लिय' पुरस्कारे मे, तं अप्पन लोक करै छथि, हुनका सं मेल-मिलानी क' क' अपन काज सुतारी, ततबे टा पर्याप्त। अइ पर क्यो वर्चस्व के अवधारणा ल' क' आबथि आ हाशियाक चर्च क' क' संघर्षक आह्वान करथि, 'मैथिल समाज' एकर कल्पनो नहि क' सकैत अछि। मुदा अइ गोष्ठीक की करबै जे छव एपिसोड मे अपन मुद्दा उठा रहल अछि आ जकर एक-एक एपिसोडक दर्शक पचीसो हजार मे भ' रहल अछि।   स्पष्ट अछि जे ई मिथिलाक मामला छै। मैथिल विचारक लोकनि अइ मे भाग ल' रहल छथि, आयोजनक भाषा मैथिली छी। अइ तरह सं देखी तं मिथिला-मैथिल-मैथिली अइठां तीनू एकाकार छै। एतय प्रश्न उठाएल गेल अछि जे मिथिला मे एकटा वर्चस्ववादी संस्कृति छै। तकर समानान्तर सेहो एकटा पूर्ण संस्कृति छै, मुदा तकरा हाशिया पर छोड़ि देल गेल अछि। फेर बात छै जे पचपनियां नामक हाशिया पर के मैथिल समुदाय अछि, जकर संस्कृति अबडेरल छै आ ओ वर्चस्व कें तोड़बाक संघर्ष मे लागल अछि।

       पचपनियां शब्द मैथिली डिक्शनरी सब मे कतहु नै भेटत। वर्चस्व के, जाति सं ल' क' क्षेत्र धरि के उपेक्षा के,  अपने मे ई एक स्पष्ट प्रमाण थिक। पचपनियां के भेला? पचपन जाति, मने ठीक पचपन सं अर्थ नै छै, मने बहुतो जाति, धर्म आ संप्रदाय सं बाहर धरि पसरल एकटा मजगूत समुदाय, बहूतो जाति, जकरा आइ ओबीसी,एससी आदि कहै छियै। मैथिली डिक्शनरी मे शब्द अछि--राड़। आरो शब्द अछि सोलकन। जकरा ओइ समाजक लोक अपन आत्मसम्मानवश पचपनियां कहै छथि, तकरे ब्राह्मण लोकनि राड़ आ सोलकन कहै छथिन। तें राड़ आ सोलकने शब्द टा मैथिली डिक्शनरी मे भेटत। मैथिली भाषा पर एक जाति-विशेष के वर्चस्व के प्रमाण एकरा मानबा मे की कोनो हर्ज छै?

       मतिनाथ मिश्र अपन डिक्शनरी मे राड़ शब्दक अर्थ देलनि अछि--असभ्य, असंस्कृत। असभ्य तं चलू मानि लेबा योग्य छै कारण अहांक सभ्यता सं ओकर सभ्यता भिन्न छै। एहि ठाम इतर के अर्थ मे नञ् के प्रयोग भेल हुअय, मानि लेल। मुदा, 'असंस्कृत' पर कने ध्यान देल जाय, एहन लोक जकरा संस्कृतक  शिक्षा प्राप्त नहि छल। कोना रहतै? ओ रैयत छल, शोषित छल, जानि-बूझि क' हजार वर्षक उद्यम सं निरक्षर राखल गेल छल। मुदा समस्या छै जे जकरा लग संस्कृत नै हो, से की संस्कृतियो सं हीन अछि? एतय तं सैह मानल गेल छै। कते मूर्खतापूर्ण बात छै! मैथिली साहित्यक आविष्कारक आ प्रथम प्रयोक्ता पचपनियां लोकनि छला, तकर प्रत्यक्ष  प्रमाण मौजूद छै, आ बड़को-बड़को लोक, जेना आचार्य रमानाथ झा एकरा स्वीकार केलनि अछि। जं संस्कृति नै तं साहित्य कोना? तखन फेर ई मैथिली साहित्य आएल कतय सं? मुदा ब्राह्मण लेखक लोकनि असंस्कृत कहै छथिन! कते विरोधाभासी बात छै! 'पग-पग पोखरि माछ-मखान/ सरस बोल मुस्की मुंह पान' मे ब्राह्मण-संस्कृतिक कथी छै? माछ मारैए ओ, मखान उपजाबैए-फोड़ैए ओ, पान उपजाबैए ओ, भय सं हो कि प्रीति सं सरस बोल बोलबाक लेल मजबूर अछि वैह, तखन ब्राह्मण बाबूक कथी भेलनि? मुंहे टा ने!  

       पं. गोविन्द झा कतहु लिखने छथि जे मिथिलाक भीतर दूटा समाज बसैत अछि जे एक दोसरक यथार्थ सं तहिना अपरिचित, अनजान छथि जेना दू अलग अलग ग्रहक प्राणी होथि। ई दूटा समाज भेल ब्राह्मण आ पचपनियां। ब्राह्मण किच्छु नै जनैत छथि ओहि समाजक बारे मे, ने धर्म-मर्म, ने जीवनदर्शन, ने नीति-प्रणाली मुदा जजमेन्ट क' दैत छथि जे ओ असंस्कृत अछि। गोविन्द बाबू ई बात देखि पबैत छथि, धन्यवाद छनि, मुदा, अपन डिक्शनरी मे ओहो पचपनियां नै, राड़ शब्दक अर्थ देलनि अछि। अर्थ देलनि अछि-- निम्न सामाजिक वर्गक लोक, शूद्र। ओ 'राड़-रोहिया' शब्द सेहो देने छथि जकर अंग्रेजी अर्थटा देलनि-- riff-raff. कामिल बुल्केक डिक्शनरी मे अइ शब्दक अर्थ अछि-- कुली-कबाड़ी, निम्नवर्ग। मतलब, बात सामाजिक अवस्था सं आगू बढ़ि क' विपन्न आर्थिक अवस्था धरि चलि अबैत अछि। तें, अइ विषय पर विचार केवल साहित्यक सीमा मे सीमित रहनिहार लोक के वश के बात नै छी। समाजशास्त्र, इतिहास, आर्थिकी सब अनुशासन सं अइ पर विचार करबाक जरूरत अछि। जे वर्ण मे छोट, से वर्गो मे छोट। एतय हमरा मनु मोन पड़ैत छथि जिनकर देल व्यवस्था रहनि जे शूद्र लग मे जं धन जमा भ' जाय तं राजा कें चाही जे ओ छीनि लियए, जब्त क' लियए। 

       आइ धरि मैथिल संस्कृति पर जे लेख सब लिखल गेल, तकरा सब कें पढ़ू तं स्पष्ट होइ छै जे एतुक्का विद्वान लोकनि, आधुनिको अध्येता लोकनि, एकछाहा ब्राह्मण संस्कृति कें मैथिल संस्कृति मानैत रहला अछि। मिथिला मे तं समस्या एतय धरि रहय जे कोनो खास ब्राह्मणोक छुअल पानि कोनो खास दोसर ब्राह्मण नै पिबै छला। 

       चाहे मिथिलाक इतिहास हो कि मैथिली साहित्यक इतिहास, ओ ब्राह्मण द्वारा ब्राह्मणक बारे मे लिखित वस्तु छी। अनचोके मे रमानाथ झा सन विद्वान एकरा स्वीकारो केलनि अछि। पचपनियांक ने कोनो समाजशास्त्र आएल अछि ने आर्थिकी। ई सब आब एबाक छै।

      गोष्ठीक आरंभ मे एतय हम अपन किछु बात सारांश रूप मे कहय चाहै छी--

 1. मिथिला कहियो बंगाल के गुरु रहय। रवीन्द्रनाथ मैथिली कें अपन मासी(मौसी) भाषा कहलनि, मने एक जेनरेशन ऊपर। से बंगाल कतय सं कतय पहुंचि गेल आ मिथिला अधोगति मे डूबल के डूबल रहि गेल। ने अपन राज्य भेलै, ने बंगाली जाति जकां अपन सामुदायिक पहचान बनि सकलै। किए? यैह वर्चस्ववादी संस्कृति एकर जिम्मेदार छी। वर्चस्वक लेल समाज कें विखंडित क' क' राखल गेल। खंड पखंड कयल जाइत रहल।

 2. पचपनियांक वस्तु कें मैथिली साहित्य मानबा सं हुंठ जकां इनकार कयल गेलै। महापंडित राहुल सांकृत्यायन कहै छथि जे सिद्धसाहित्यक भाषा मैथिली छी, मुदा मैथिली साहित्यक इतिहास के मुख्यधारा मे ओकर कोनो स्थान नै छै। किए? ओ वर्णव्यवस्थाक विरोध मे लिखल साहित्य थिक। विद्यापतिक पद के दूटा पांडुलिपि मिथिला मे पाओल गेल। मैथिली मे कबीरक हजारो पद छनि। ओही समय मे जं कबीरक पांडुलिपि ताकल जाइत तं कम सं 200 भेटितय। मुदा ओ तं पराया रहथि, ब्राह्मणधर्मक आलोचक रहथि।‌ ई परायापन कतेको ठाम अकारण आ आत्मघाती सेहो भेल अछि। जेना, सब क्यो जनै छी जे विद्यापति गीत कें मंच पर एकल गायन के रूप मे पहिल प्रयोग पं.मांगनलाल खवास केलनि। अइ सं पहिने ई स्त्री आ नटुआ द्वारा कोरस मात्र गायल जाइत रहय। ई प्रयोग कते महान छल से आइ हम सब बूझि सकै छी जखन विद्यापति संगीत अपन एक वैश्विक पहचान कायम क' लेने अछि। मुदा, ब्राह्मण विचारक लोकनि तहिया एकर घोर विरोध केने छला। रमानाथ बाबू तं 'विद्यापति-संगीत' पर अपन लेख लिखैत, एकल गायन के घृणापूर्वक विरोध करैत मांगनलालक नाम तक नै लेलनि। हुनकर अभिमत रहनि जे विद्यापति-संगीतक पवित्रता बनेने रखबाक लेल एकरा बैजनाथधामक पंडा लोकनि जेना कीर्तन मे कोरस गबै छथि, केवल तहिना गाओल जेबाक चाही। अइ सं पता चलैत अछि जे वर्चस्व बनौने रखबाक जिद मे लोक अपन भाषा आ भूमि तक के भविष्य कें कोना बिसरि जाइत छथि।

 3. मिथिलाक राजा ब्राह्मण छला तें ब्राह्मण लोकनि राजा संग मैथिली कें जोड़ि लेलनि। साहित्य कें अबल-दुबल के वाणी हेबाक चाही। मुदा मैथिली शोषित के नै, शोषक के भाषा बनल।

 ई संघर्ष के भाषा नै भ' सकल, जी हजूरी के भाषा भ' क' रहि गेल। आइयो मैथिलीक नाम पर जते प्रतिष्ठान अछि, पुरस्कार अछि, हबगब अछि, आंखि खोलि क' देखू तं सबटाक सबटा राजाक स्थापित मैथिल महासभाक  अचेत अंधानुकरण मे बाझल देखार पड़त। जखन कि, सत्य की थिक? की खंडवला राजवंश मैथिली साहित्यक वास्तविक शुभचिंतक छल? इतिहास कहैत अछि, किन्नहु नहि। ओ लोकनि संगीतक प्रेमी छला जरूर, गीत गेबा लेल गीतकार लोकनि कें अपन छत्रछाया मे राखल करथि जरूर, बस।  बांकी हुनका सब लेल भाषा-साहित्यक नाम पर जे छल, संस्कृत छल। साहित्य जं हुनका प्राथमिकता मे रहितनि तं विद्यापतिक बाद आर क्यो महान कवि किए ने मिथिला मे जनमि सकला? किए रमानाथ झा दुखी भ' क' कहै छथि जे 500 बरस धरि केवल प्रतिभाहीन लोक सब के द्वारा विद्यापतिक नकल होइत रहल?      

               तात्पर्य, जे आगुओ मैथिली साहित्य शोषकेक पक्ष मे वर्चस्ववाद चलबैत रहय, तकर कोनो ठोस ऐतिहासिक कारक मौजूद नै छै। तें अइ स्थिति‌ कें बदलबाक चाही। साहित्यक जे स्वाभाविक गुणधर्म छै, शोषितक पक्ष मे हैब, अबल-दुबलक पैरोकार बनब, तकरा मैथिलीयो धरि पहुंचय देबाक चाही।

 4. वर्चस्व यथावत बनेने रहबाक लेल भाषाक मानकीकरण कयल गेल। एहि मानकीकरण के आतंक तेहने रहलै जेना संस्कृत मे पाणिनि व्याकरणक। ओइ सं क्यो बाहर नै जा सकै छथि। एकर फल भेल जे मैथिली दू जिला धरि सिमटि क' रहि गेल। राजधानी क्षेत्र धरि। से कोनो आइये नै। 100 बरस पहिने रासबिहारी लाल दास अपन किताब मे ई बात लिखने छथि। लिखने छथि जे मैथिली दरभंगा-मधुबनी इलाकाक भाषा छी। इतिहास साबित करैत अछि जे मिथिलाक अधोगतिक कारण यैह वर्चस्व बुद्धि छल।

 5. आइ जे मैथिली साहित्य लिखल जा रहल अछि, एकछाहा एकवर्गीय आदर्श, एकवर्गीय भंगिमा, कथनशैली तक सीमित अछि। पचपनियां लेखक आइ नहि छथि, से बात नहि। रवीन्द्र कुमार चौधरीक गणना पर भरोस करी तं आइ जं मैथिली मे 500 लेखक ब्राह्मण छथि तं 450 लेखक गैरब्राह्मण छथि। मुदा, माहौल एहन जबदाह अछि जे सब क्यो के कंडीशनिंग क' क' एहन बना देल गेल छै जे पचपनियां समाजक यथार्थ, ओकर आदर्श, ओकर सौन्दर्यशास्त्र नै आबि पाबय जे कि स्वभाव सं वर्णव्यवस्था विरोधी होइत अछि। अध्यक्ष बना क' हुअय आ कि सम्मान द' क', ओकरा बाध्य कयल जाइछ जे ब्राह्मण आदर्श सं बहार नै निकलथि। जे निकलै छथि, तिनकर निंदा खिधांस तेना कयल जाइछ जेना ओ मातृहंता होथि। परिणाम होइछ जे दृष्टिवान आ आत्माभिमानी लोक मैथिली-तैथिली सं एकाते भेल रहैत छथि। मिथिलाक पैघ-पैघ प्रतिभा आन-आन भाषाक हाथें बन्हकी लगबा पर मजबूर अछि।

 6. प्रश्न उठैत अछि जे ब्राह्मण आ पचपनियांक बीच जे अंतर छै, जे गैरबराबरी छै, से की शाश्वत छी? एकदम नहि। ई विरोध शाश्वत नहि थिक, केवल स्वार्थ-साधनक लेल रचल गेल चालि थिक। एकर एक-दू दृष्टान्त। आइ हरेक मैथिलक घर मे गोसाउनिक पीड़ी होइत अछि। पीड़ी अर्थात चैत्य। हमरा लोकनि जनै छी जे बौद्ध लोकनि चैत्यपूजक छला। इतिहास सं पता चलैत अछि जे विदेह लोकनि चैत्यपूजक नहि छला। तखन आइ हम सब चैत्यपूजक कोना भेलहुं? असल मे मैथिल संस्कृति जकरा आइ हम सब कहि सकै छियै, ओ केवल विदेहक संस्कृति नहि थिक। ओइ मे बहुतो तत्व लिच्छवि सं आएल छै, बहुतो तत्व कोल, किरात, नाग लोकनि सं। मैथिलक विवाह मे सिन्दूरदान जे होइत अछि से आदिवासी प्राय: नाग संस्कृति सं आएल अछि। अनेक विधान, पात्र, वस्तु आदि तं मुगल संस्कृति सं आएल अछि। लोकदेवता धर्मराजक आराधना ब्राह्मणोक घर मे होइत अछि, जखन कि ई निर्गुण देवता थिका आ हिनक पूजा-परंपरा सीधा बौद्ध परंपराक जीवित रूप छी। ज्योतिरीश्वर कें बौद्ध सं घृणा छलनि मुदा चौरासी सिद्ध कें ओ अपन पुस्तक मे श्रद्धेय स्थान देलनि, जखन कि ई सिद्ध लोकनि बौद्ध छला। ब्राह्मणोक धिया-पुता कें जखन खरी धराओल जाइ तं पहिल आलेखन होइ छल-- ओनामासीधं। मने, ओम् नम: सिद्धम्। विद्यापति आदिवासी समाजक नागपूजा कें मान्यता दैत व्याडीभक्तितरंगिणी लिखलनि। विद्यापतिक गीत मे सैकड़ो एहन शब्द प्रयोग भेल अछि जे दरभंगा-मधुबनी मे आइ लुप्त भ' चुकल अछि, मुदा बेगूसराय, किशनगंज के पचपनिया समाज मे आइयो प्रचलित अछि। 

 7.  आ आइ मानि लिय' जे विरोध शाश्वत आ अहैतुक भ' गेल हो, तखन? जेना सांप कें देखि क' साधारण मनुष्य कें इच्छा जगै छै जे एकर फण कें थकुचि दी, तहिना जं ब्राह्मण लोकनि कें राड़ कें देखि क' होइत हो, तखन? पहिल तं बात ई जे जं ई सत्य हेबो करय तं असंस्कृत ब्राह्मण-वर्गेक सत्य भ' सकैत अछि। एक लेखक वा विचारकक नहि। लेखक-विचारक कें तं परिष्कृत बुद्धिक हेबाक चाहियनि। साहित्य तं अपन रचयिता कें उदात्त बनबैत छैक। मुदा, मानि लिय' जे कोनो अवचेतन जन्य दुरवस्थाक कारण ब्राह्मण लेखक अपना कें परिष्कृत नहि क' पबैत होथि, तखन? एहना स्थिति मे स्वयं पचपनिया वर्गक लेखकक की कर्तव्य थिक?  ओहो जं ब्राह्मणे आदर्श, ब्राह्मणदृष्टियेक यथार्थक गुणगान करैत रहता, तं ई केहन ऐतिहासिक गद्दारी भेलै! हुनका लोकनि कें तं आबो अपन सत्य, अपना समाजक, अपना इतिहासक सत्य लिखबाक चाही। अपन ज्वलन्त यथार्थ कें तप्पत तप्पत साहित्य मे अनबाक चाही। अपना समाजक भवितव्यता पर गंभीर हेबाक चाही। एक। दोसर जे एहन मैथिल जे मैथिलीक वर्तमान वर्चस्ववादी पर्यावरण सं दुखी छथि आ मैथिली-तैथिली सं दूरे रहब पसंद करै छथि, हुनका लगै छनि जे ओ कोनो ब्राह्मणक रैयत नहि थिका। सही बात। रैयत ओ ठीके किनको नै छिया। लेकिन, मैथिली हुनको मातृभाषा छी। मैथिलीक सम्मानक प्रश्न हुनको आत्मसम्मानक प्रश्न छियनि। जं अइ ठामक पर्यावरण गंदा छै तं ओकरा बदलब हुनको जिम्मेवारी छियनि, हुनको लेल चुनौती छियनि। तें एहन लोक कें तं आब सांस्कृतिक रूप सं अवश्य घर घूरि एबाक चाही आ मैथिली मे अपन काज करबाक चाही।

Wednesday, April 17, 2024

मैथिली कविताक हजार वर्ष: पुस्तक-परिचय


 --तारानंद वियोगी


यात्री जीक जीवनी 'युगों का यात्री' लिखबा काल हमरा बहुत जोर इच्छा जागल छल जे प्राचीन साहित्यक अध्ययन करी। संस्कृतक विद्यार्थी रहबाक दुआरे संस्कृतक प्राचीन साहित्य तं थोड़ेक पढ़लो छल मुदा संस्कृतेतर प्राचीन साहित्यक कहियो गंहीर अवगाहन करी, से अवसर नहि भेटल रहय। यात्री जी कें ई सुयोग भेटलनि जे बहुत सुरुहे मे ओ दुन्नू प्राचीन साहित्यक गंहीर अध्ययन क' गेला। कहबाक तं चाही जे तीस-पैंतीसक उमेर धरि हुनका मुख्यत: जे साहित्य पढ़ल रहनि से प्राचीने साहित्य छल।

           एहि हिसाब सं देखी तं आधुनिक युग उनटा चलैत अछि। एक तं लोक कें साधारणतया पढ़ले नहि रहैत छैक। जं पढ़लो रहल तं आधुनिक साहित्य पढ़ल रहैत छैक। जं पट्ठा कने चंसगर रहल तं आधुनिको मे भारतीय नहि, पाश्चात्य साहित्य पढ़ल रहैत छैक।‌ प्राचीन भारतीय साहित्यक जं गप करी, भारतीय साहित्य मे सेहो संस्कृतेतर प्राचीन साहित्य ततेक विराट छैक जे कदाचित संस्कृतो सं बेसी व्यापक आ विविधतापूर्ण छै। 

           लोक कें पहिने अपन मातृभाषाक प्राचीन साहित्य सं अध्ययन शुरू करबाक चाही। साहित्यक क्षेत्र मे, भने कोनहु रूप मे, जे क्यो सक्रिय छथि हुनका लेल तं हम कहब, अपन प्राचीन साहित्य सं सर्वांगत: अवगत होयब हुनकर अनिवार्य धर्म छियनि। से सब विचारैत हम निर्णय कयल जे मैथिलीक प्राचीन साहित्यक अध्ययन करी। 2019 मे हम एकर तैयारी मे भिड़लहुं आ 2020-21 मे जखन सौंसे संसार कोरोनाक मारि सं कुहरैत अपन-अपन घर मे बंद छल, बंद हमहू छलहुं, हम अपन भाषाक प्राचीन साहित्यक अध्ययन मे डूबल रहलहुं। पहिले फेज मे कोरोना सं संक्रमित, गंभीर बीमार भ' चुकल रही। भयानक विकराल समय तं तकर बाद आएल, से हमरो घर धरि पहुंचल। एहि सभक बादो ओहि समयक विकरालताक आगू हम अवसादग्रस्त नहि भेलहुं। तकर एक प्रमुख कारण, हमरा लगैत अछि जे हम एतय छलहुंए नहि, हम तं प्राचीन साहित्यक आभामंडलक बीच कतहु सन्हियायल रही, ओकरहि सुरक्षाकवच मे रक्षित। 

           अपन एहि अध्ययन-क्रम मे, मैथिलीक प्राचीन साहित्य कें पढ़ैत हम जे किछु पाओल, किताबक ई दुनू खंड तकर एक प्रतिवेदन थिक।‌ इतिहास एकरा कहल जाय, ताहि मे हमरा संकोच अछि। इतिहासक जे अपन अनुशासन होइत छैक तकर अवगति तं जरूर अछि, मुदा ओकरा लेल जे निस्संगताक मांग कयल जाइत छैक से हमरा बराबर गैरजरूरी लागल अछि। हम जे किछु पढ़लहुं, ओहि मे डुबलहुं, तें ओकर अनुभव बतबैत हम अपना कें एकात क' ली, से ने हम क' सकल छी आ ने से करब कतहु सं हमरा जरूरी लागल अछि। हमरा बराबर लगैत रहल अछि जे इतिहासक जं एक अनुशासन अछि तं ठीक तहिना साहित्यक सेहो अपन अनुशासन छैक। संसारक अनेकानेक विचारक लोकनि साहित्य कें एक स्वायत्त शास्त्र मानलनि अछि आ भारत मे तं से मानले गेलैक अछि। प्राचीन साहित्य आ आधुनिक साहित्यक अंतर कें बेकछबैत हजारीप्रसाद द्विवेदी कतहु लिखने छथि जे प्राचीन साहित्यकार जतय स्वयं अपना रचना सं असंलग्न आ तटस्थ रहैत छला, ओ केवल ओहि आश्रयदाता राजा वा ओहि पार्थिव-अपार्थिव विषयक घेरा मे घेरायल रहथि, तकर विपरीत आधुनिक साहित्यकार अपन रचना सं अपन व्यक्तित्व आ विचार कें एकात नहि राखि सकैत छथि। एकर उदाहरण मैथिलीक आधुनिक साहित्य मे भरल पड़ल अछि, एतय धरि जे साहित्यक इतिहास आ आलोचना मे सेहो। माने जे जयकान्त बाबू वा रमानाथ बाबू वा माया बाबूक व्यक्तित्व आ विचार जेना हुनकर लेखन मे, इतिहास-लेखनो मे साफ-साफ एलनि अछि, ठीक तहिना हमरो व्यक्तित्व आ विचार एहि किताब मे व्यक्त भेल अछि। मुदा निस्संगता सं परिपूरित नहि होइतो ओ लोकनि इतिहासकार कहबै छथि, हमरा से कहेबा मे घोर एतराज अछि।

           हमर एक आदरणीय गुरु कहल करथि जे जं अहां कें कोनो विषय पर किछु अध्ययन करबाक अछि तं अहां पहिने ओहि विषयक आथोरिटी के पता लगाउ। नहि, ओ आथोरिटी नहि, 'मास्टर्स' कहने रहथि। तं, हमर अध्ययनक प्रक्रिया ई रहल जे पहिने हम आरिजिनल टेक्स्ट कें पढ़लहुं, तखन ओहि विषयक आथोरिटी विद्वान जे किछु लिखने छथि तकरा पढ़लहुं। आ तकरा बाद मैथिली साहित्यक इतिहासकार आ आलोचक लोकनि जे ओकर व्याख्या कयने छथि, तकरा पढ़लहुं। कहब आवश्यक नहि जे ई आम रास्ता नहि छैक। लोक टेक्स्ट पढ़ै छथि आ अपन इतिहासकार वा आलोचक कें पढ़ै छथि। एतबो चीज के क' पबैत अछि? जकरा सही मे ज्ञानक भूख रहै छै सैह कि ने? अहां एतबो करबाक अपेक्षा कोनो मैथिलीक विद्यार्थी सं थोड़बे क' सकै छी? एतय धरि जे प्रोफेसरो सं नहि क' सकै छी। 

           मुदा, एतबा जं क्यो क' सकथि तं हुनका समक्ष ई तथ्य उद्घाटित भेने विना नहि रहतनि जे वास्तव मे अपना भाषाक इतिहासकार आ आलोचक लोकनि अपन बद्धमूल धारणा सभक प्रति कोना अन्ध बनल छथिन। कते भीषण संकीर्णता सं गछारल छथिन जे अहां जं हुनका आंखियें अपन परंपरा कें ताकय निकली तं पक्का अछि जे अहां रस्ता भुतिया जायब आ सत्यक निकट किन्नहु नहि पहुंचि सकब, बरु आर कनी दूरे चलि जायब। कते आश्चर्यक बात थिक जे आरिजिनल टेक्स्ट तं ठीक वैह अछि जकरा ओ पढ़लनि आ हमहू-अहां पढ़ैत छी। मुदा अर्थ कते बदलि जाइछ! दृष्टान्तक संग बात करी तं बात बेसी साफ होयत। विद्यापतिपरक अपन एक लेख मे डा. काञ्चीनाथ झा किरण विद्यापतिक अनेको काव्यपंक्ति एहि बात कें देखेबाक लेल उद्धृत करैत छथिन जे मैथिल पुरुषक पुरुषार्थ के कते उच्च मानदंड विद्यापति लग मे रहनि। मने मैथिल पुरुष कतेक महान होइत छला। आब जं अहां विद्यापतिक ओहि मूल गीत कें समुच्चा देखि जाइ जाहि ठाम सं ई काव्यपंक्ति सब लेल गेल अछि, तं अहां आकाश सं खसब। घोर आश्चर्य सं भरि जायब जे जाहि गीत मे विद्यापति मैथिल पुरुषक कुपुरुषता आ नीचताक कटु वर्णन कयने छथिन, ई पांती सब ताहि ठामक छी। असल मे भेल ई छैक जे स्त्री एहन नीच पुरुष कें निर्बाहि रहल अछि तं एहि पाछू जे ओकर अपन मनोवैज्ञानिक मजगूती छैक, उद्धृत पांती सब तकर बखान करबा लेल लिखल गेल अछि। मुदा, किरण जी पांती तं वैह ल' लेलनि मुदा संदर्भ कें ठीक उनटा घुमा देलखिन। कहने छलै स्त्री अपन मनोभावक बारे मे, तकरा घुमा क' पुरुष पर लागू देखा देलखिन। एहन अनर्थ कतहु होइ? जे गीत विद्यापति मैथिल पुरुषक निन्दाक वास्ते लिखलनि तकर अर्थ उनटा क' कतहु मैथिल पुरुषक महानताक वर्णन ओकरा बता देल जाइ? (पांती सभक, गीत सभक संदर्भ एतय नहि देलहुं अछि कारण ओ सब एहि किताब मे यथास्थान वर्णित छै।) मुदा, एकरा ओ लोकनि 'मैथिल आंखि' कहै छथिन। यथार्थ कें जबरन अपना पक्ष मे घीचि आनि ओकर ठीक विपरीत अर्थ लगा क' अपन विजयक झंडा फहरा ली, की एहि चतुरतेक नाम मैथिल आंखि छी?

           एहि प्रकारक दृष्टान्त सब अनंत छै आ ताहि मे सं किछु के नोटिस एहि किताब मे यथास्थान लेल गेल अछि।

           सिद्धसाहित्य कें मैथिली साहित्य नहि मानल जाइत रहल अछि। ओकरे समकालीन वा सद्य: उत्तरवर्ती डाकवचन कें सेहो मैथिली साहित्य नहि मानल जाइछ। मैथिली साहित्यक शुभारंभ लेल निविष्ट कुलक कोनो ब्राह्मण लेखकक अवतीर्ण होयब कदाचित अपरिहार्य छल तें ज्योतिरीश्वर सं मैथिली साहित्यक शुभारंभ मानल जाइछ। ज्योतिरीश्वरक काव्य कें सुनीति बाबू गद्य कहि देलनि तं आगू ककरो मजाल नहि भेलै जे ओकरा काव्य साबित करबाक चेष्टा करितथि, भने स्वयं ज्योतिरीश्वरे ओकरा काव्य किए ने मानने होथु। । वर्णरत्नाकरक सह-संपादक बबुआ मिश्र स्वयं आश्चर्य व्यक्त करैत भूमिका मे लिखलनि जे संसारक कोनो साहित्यक आरंभ गद्य सं नहि भेल अछि। मुदा, संसारक लेल जे असंभव छलैक से मैथिली साहित्य मे आबि क' संभव मानि लेल गेलै, जेना मिथिला-मैथिली संसार सं बाहर शिवक त्रिशूल पर बसल हो।

           विश्वकवि रवीन्द्रनाथ मैथिली कें अपन मौसी-भाषा मानैत छला। मने मातृस्थानीय, अपन भाषा बंगला सं एक पीढ़ी प्राचीन। मुदा मैथिली साहित्यक इतिहास सब कहैत अछि जे नहि, मैथिली मे तं कैक शताब्दीक बाद साहित्य शुरू भेलैक, ताहि हिसाबें बंगला तं मैथिलीक नानी वा परनानी लागत। कहब आवश्यक नहि जे ई सबटा खुराफात आधुनिक युगक देन थिक जकरा पाछू मैथिल महासभा आ दरभंगाराज के राजनीति  जिम्मेदार छल। दरभंगाराज आ मैथिल महासभाक पतन भेना सात दशक सं बेसी समय बीति चुकल अछि। मुदा मैथिली साहित्य टस्स सं मस्स नहि भेल अछि। बरु एकर संकीर्णता आ कट्टरता दिनानुदिन बढ़िते गेल अछि। अद्यतन उदाहरण मायानंद मिश्रक इतिहास(2013) थिक। एहि सब बातक संदर्भ सहित चर्चा एहि किताब मे ठाम-ठाम भेटत। खास तौर पर मैथिली साहित्यक इतिहासकार लोकनि उत्तरोत्तर जाहि तरहें संकीर्ण सं संकीर्णतर होइत गेला अछि, से हमरा लेल घोर चिन्ताक विषय बनल अछि। कारण, दुनियां भरिक इतिहास समयक संग वस्तुनिष्ठ होइत गेल अछि, जखन कि मैथिलीक गति पाछू मुंहें छैक। मैथिलीक हरेक अध्येता लेल ई चिन्ताक विषय हेबाक चाही।

           साहित्येतिहास आ आलोचना सृजनात्मक रचना के उपकारी विधा मानल जाइत छै। कोनो टेक्स्ट के अर्थ आ संदर्भ नहि पूरा स्फुट होइत हो तं लोक इतिहास वा आलोचना लग जाइत अछि। मुदा, एकटा फिल्मी कहबी छै जे नैया जं डगमग डोलय तं मांझी पार लगाबय/ मांझिये जं नाह डुबाबय तं ओकरा के बचाबय? तं, सैह परि। अर्थ आ संदर्भ स्फुट कतय सं होयत जे उनटे अहां तेना ओझरा जायब जे अक्क चलत ने बक्क। उदाहरण सं बात बेसी स्पष्ट होयत। संसारक कोनो साहित्यक आरंभ गद्य सं नहि भेल अछि मुदा मैथिलीक भेल अछि। तं, एकटा स्वाभाविक प्रश्न उठैत छैक जे ज्योतिरीश्वर कें एहन कोन बेगरता पड़ल छलनि जे ओ देसी भाषा मे गद्य लिखितथि, कारण प्रशस्ति तं हुनकर कविता आ नाटक लेल छलनि। सुनीति बाबूक कहब भेलनि जे ई रचना ओ कथावाचक लोकनिक लेल लिखलनि। कथावाचक के भेला? वैह जेना आइ घनेरो कथावाचक सब कें टीवी पर भागवत वा रामकथा सुनबैत देखैत छियनि। सुनीति बाबू एक बेर जे भाखि गेला कोन मैथिलक मजाल जे कहथिन नै, प्राचीन मिथिलाक ब्राह्मण लोकनि तं कथावाचनक पेशा मे नहि छला, हुनकर सभक पेशा तं पंडिताइ वा पुरहिताइ होइत छलनि। नहि। सब इतिहासकार एही बात कें दोहरबैत चलि गेला। कतबो भारी उपकार सुनीति बाबू मैथिलीक कयने होथि, मुदा ई तं मानैए पड़त जे हुनका बंगालक परंपराक जेहन ठीक-ठीक अवगति छलनि, तेहन मिथिलाक परंपराक नहि। हुनका संग जे सहायक संपादक रहथिन बबुआ मिश्र, ओहो बेचारे चूड़ान्त संभ्रान्त पंडित। लोक, लोकपरंपरा आ लोकभाषाक हुनको ज्ञान ततबे जतबा सनातनी संस्कृतज्ञ कें भेल ताकय। तें एहि बातक दिस किनको ध्याने नहि गेलनि जे मिथिलाक लोक-परंपरा मे मौखिक महाकाव्य होइ छैक, जेना लोरिक, जकर उल्लेख स्वयं ज्योतिरीश्वरो केलनि अछि। से सब किछु नहि। गद्य तं गद्य। सत्य सं दूर रहथि मुदा उनटे गौरव मे झुमैत रहला मैथिल विद्वान लोकनि जे पूर्वांचलक प्रथम गद्यकृति मैथिली मे लिखल गेल। ओकर पाछू अन्हार, ओकर आगू अन्हार, मुदा बीच मे गद्यक प्रकाश टिमटिमाइत रहल। एकटा परदेसीय विद्वानक स्थापना मे चूक भ' सकै छै, तकरा फरियेबाक लेल तं अहां देसीय आथोरिटी लग जायब ने? मुदा, कहबी छै जे लटकलें बेटा तं गेलें बेटा। तं सैह। अहां आर बेसी ओझरा क' परेशान भ' सकै छी।

           एहन बात सब अनेको छैक। तकर विवरण संदर्भ-सहित ठाम-ठाम एहि किताब मे आयल छैक। मैथिली साहित्यक इतिहास सब मे सिद्धसाहित्यक चर्चा जरूर ठाम-ठाम भेटत मुदा कतहु इतिहासकार ओकरा प्राक् मैथिली कहि पिंड छोड़बैत देखार पड़ता, जेना जयकान्त बाबू। तं क्यो एहि आधार पर ओकरा निरस्त करता जे ओ (सिद्धसाहित्य) मैथिली मे चलि नहि सकल, जेना माया बाबू। पं. बबुआ मिश्रक अभिमत कें स्मरण करी तं सिद्धसाहित्य आ डाकवचन कें किएक मैथिली साहित्य नहि मानल गेल, तकर समाधान भ' जाइत अछि। सिद्धसाहित्य कें ओ मैथिली साहित्य सं बाहर एहि दुआरे रखलनि जे ओ 'पंडितमंडली मे अद्यापि सर्वमान्य नहि भेल अछि।' कहब जरूरी अछि जे एहि निकष पर ओ पंडितमंडली मे कहियो सर्वमान्य नहि भ' सकैत अछि कारण ओहि मे तमाम बात ब्राह्मणधर्मक विरुद्ध भरल पड़ल अछि, कर्मकांड आ वर्णव्यवस्थाक धज्जी उड़ा देल गेल छै। ओ कोना सर्वमान्य भ' सकैत अछि?

           ठीक तहिना पं. मिश्र डाकवचन कें खुल्लमखुल्ला एहि आधार पर मैथिली साहित्य नहि मानलनि जे ई 'पंडितरचित' आ 'पंडितगोष्ठीमान्य' रचना नहि थिक। कलाकारी देखल जाय। डाकवचन ब्राह्मणधर्मक विरोधी नहि अनुगामी रचना थिक। ओही निकष पर जं ओ एतय टिकल रहितथि तं एकरा मैथिली साहित्य मानि सकै छला कारण ई रचना पंडितगोष्ठीमान्य रहल अछि। मुदा नहि। एतय आबि ओ अपन निकष बदलि लेलनि। हुनकर महानता कहल जाय जे ओ लिखि क' मानलनि। आन विद्वान सब मानैत तं ठीक यैह रहला, जखन कि लिखैत किछु आर रहला। एहन देखावटी दांत बला विद्वान सब अपेक्षाकृत अधिक अपकारी जीव थिका। मैथिलीक पर्यावरण एहन अपकारी जीव सब सं भरल रहल अछि।

           एहि किताब मे प्राय: पहिल बेर मैथिली लोकसाहित्यक अध्ययन मिथिलाक जातीय साहित्यक रूप मे करबाक प्रयास कयल गेल अछि। स्वयं रमानाथ झा एहि बात कें कहियो स्वीकार कयने छला जे मिथिलाक निजी जातीय साहित्य मौखिक रहल अछि आ प्राचीनकालक परिवेश मे राज्याश्रय प्राप्त नहि हेबाक कारण लिखित साहित्यक परंपरा मिथिला मे बहुत बाद मे जा क' शुरू भ' सकल अछि। कते आश्चर्यक बात थिक जे ग्रियर्सन कें विद्यापति आ दीनाभद्री दुनूक गीत लोककंठ सं एक्कहि समय मे प्राप्त भेल छल जकरा ओ उद्यमपूर्वक प्रकाशित करेलनि। विद्यापति तं मिथिलाक संस्कृतिक सिरमौर बनि गेला मुदा दीनाभद्रीक सेहो कोनो सौन्दर्यशास्त्रीय मूल्य छैक वा एहि सं मिथिलाक जातीय साहित्यशैलीक एक प्ररूप विशेषक कोना विलक्षण अभिव्यक्ति भेल अछि, एहि दिस विद्वान लोकनिक आंखि सदा मूनल रहलनि। मानू ई सोचब एक पातक करबाक तुल्य हो।

           छंद मिथिलाक जातीय कविताक वस्तु नहि थिक, ई बात अलग सं कहबाक बेगरतो हम नहि बुझैत छी। मिथिलाक वस्तु थिक राग, ताल, लय। छंद मे मैथिली कविता लिखबाक प्रथम प्रयास मनबोध केलनि आ चन्दा झा तं मानू एकर झड़ी लगा देलनि। हुनकर मिथिलाभाषा रामायण मे अस्सी प्रकारक छंदक प्रयोग भेल अछि। एहि तरहें मैथिली कविता मे छंदक प्रयोग आधुनिक काल मे आबि क' तखन शुरू भेल अछि जखन परजीवी पंडितवर्ग कें मैथिली कें संस्कृतक पिछलग्गू बनायब अपन वर्चस्व लेल परम जरूरी बुझना गेलनि। आइ स्थिति ई अछि जे छंदहीन कविते कें विजातीय आ आधुनिक मानि ओकर अवहेलना करबाक उपदेश लिखल भेटैत अछि। सगरो यैह सुनबै जे छंद थिक मिथिलाक जातीय वस्तु, अप्पन परंपरा जखन कि छंदमुक्त कविता भेल विजातीय वस्तु। अन्हेर कहल जायत एकरा, मुदा सैह पंडितगोष्ठीमान्य छैक।

           किताबक प्रथम खंड मुख्यत: जातीय साहित्य पर केन्द्रित अछि। मिथिलाक जातीय साहित्यक प्राय: समस्त शैली सब कें बुझबाक प्रयास एतय कयल गेल अछि। आ, सिद्धसाहित्य आ वर्णरत्नाकर कें मिथिलाक जातीय साहित्यक प्रथम लिखित अभिलेखक रूप मे बुझबाक कोशिश भेल अछि।

           तहिना, ई किताब मैथिली आलोचनाक प्राय: पहिल किताब छी जतय मुख्यधाराक मैथिली कविताक विकास कें देखबाक लेल कबीरक मैथिली कविताक अध्ययन जरूरी बूझल गेल अछि। सतरहम शताब्दीक बाद कबीरक मैथिली पद ठीक तहिना मिथिला मे प्रचलित रहल अछि जेना मैथिली संस्कारगीत वा मैथिली लोकगाथा। कबीर पदावलीक संरक्षणक  सुचारु व्यवस्था मिथिला मे छल जतय सैकड़ोक संख्या मे कबीरमठ छलैक आ हरेक मठ लग कबीर पदावली परंपरया संरक्षित छल। ध्यान देबाक बात थिक जे एहन कोनो सौभाग्य मिथिला मे विद्यापति कें नहि भेटल रहनि। हुनकर पदावलीक संरक्षणक कतहु कोनो व्यवस्था तं नहिये छल, दोसरो कोनो मैथिली कवि एहन नहि भेला जिनका पद कें संरक्षणक ई गौरव मिथिला मे भेटल हो। हं, एनमेन अहिना बंगाल मे विद्यापति पदावली सेहो संरक्षित छल, मुदा ई बात मिथिलाक नहि बंगालक थिक आ बंगाल मिथिला सं बाहर छल। बंगाल मे 'महाजन' महापुरुषक गौरव विद्यापति कें हासिल छलनि, जकर समरूप जं मिथिला मे हमरा लोकनि खोज करी तं एक कबीरे भेटि सकै छथि।  डा. कमलाकान्त भंडारी अपन पुस्तक मे एक अध्याय इहो देने छथि-- विद्यापति आ कबीर पदावलीक तुलनात्मक अध्ययन। मुदा, मैथिलीक आधुनिक विद्वान लोकनि कबीर सं विद्यापतिक तुलना कें विद्यापतिक हेठी मानैत छथि। मुदा थम्हू। मिथिलेक एक आन आधुनिक विद्वान छथि पूर्णेन्दु रंजन। मिथिला मे कबीरपंथक इतिहास पर ओ किताब लिखने छथि। कबीर पर हुनकर आनो अनेक किताब सब प्रकाशित छनि। हुनका नजरि मे कबीरक तुलना विद्यापति सं करब कबीरक अपमान थिक। किएक? कारण थिक जीवनमूल्य, जे कविताक केन्द्रक होइ छैक। की कहबै एकरा?  तें हम कतहु-कतहु कहितो रहल छी जे अपना सब मिथिला जकरा कहै छियै से कोनो एकटा नहि अछि। दू अलग-अलग द्वीप मे बंटल, दुनू एक दोसर सं सर्वथा अपरिचित, एक दोसरक प्रति घोर अवज्ञा सं भरल। कहब जरूरी नहि जे दुनू मिथिला कें मिलेबाक ने कोनो स्वप्न मिथिलासमाज लग बचल छै ने सेहन्ता। धन्यवाद राजा लोकनि, धन्यवाद पंडित लोकनि, आधुनिक पंडित लोकनि!

           जेना कि हम पहिनहु कहि आयल छी, इतिहास लिखबाक ढंग सं हम ई किताब हम नहि लिखने छी। तें परिभाषा, परिचिति, वर्गीकरण, कालविभाजन आदिक कोनो चर्च एतय नहि भेटत। शुद्ध क' क' ई अपना समाजक प्राचीन कविता कें बुझबाक प्रयास थिक। मुदा, मैथिली साहित्यक इतिहासकार लोकनिक दृ्ष्टि बड़ संकुचित। मान्यता अत्यन्त जराजीर्ण। विचार संकीर्णता सं गछाड़ल। ई सब बात जहां-तहां प्रसंगवश आयल अछि। इतिहास-पुस्तक सब राजदरबार के अनुगामी भ' क' लिखल गेल अछि, जखन कि जमीन्दारी-उन्मूलन ताधरि भ' गेल छलैक। 

           हम सब देखै छी जे ओइनवार लोकनि जाहि तरहें मैथिली रचनाशीलता कें संरक्षण देलनि, से युग एक बेर बितलाक बाद पुन: घूरि क' कहियो नहि एलैक। हं, नेपाल मे आयल। नेपाल मे तं पूरा जगजगार भ' क' आयल जे आइ मध्यकालीन अन्हारक बीच नेपालेक मैथिली साहित्य प्रकाश-स्तम्भ बनल देखाइत अछि। तकरो एहि किताब मे देखबाक चेष्टा भेल अछि।

           खड़ोरय लोकनि संगीत-प्रेमी अवश्य छला आ मैथिली कविताक ओतबे अंश हुनका सब सं प्रोत्साहन पाबि सकल जतबा संगीत लेल वा अधिक सं अधिक मंच लेल उपयोगी छलैक। ताहू मे ब्रजभाषा मैथिलीक प्रबल प्रतिद्वन्द्वी भ' क' सवार छल। खरोड़य लोकनिक विशेष कृपा ब्रजभाषे पर छलनि, से इतिहास देखबैत अछि।  एकर प्रभूत प्रभाव हमरा लोकनि सतरहम शताब्दीक लोचन मे जगजगार देखै छी। अपन रागतरंगिणी ओ संस्कृत मे लिखलनि। भाषानुवादक प्रश्न एलै तं मैथिली मे नहि, ब्रजभाषा मे कारिका लिखल। मुदा, राजक अनुगामी पंडितवर्ग एकरे देखि तिरपित-तिरपित रहला जे दृष्टान्त तं कम सं कम मैथिली गीतक देलखिन। नहिये दीतथिन तं हम सब हुनकर की बिगाड़ि सकै छलियनि? अवश्ये एकरा राजकृपा मानबाक चाही। खरोड़य काल मे ब्रजभाषाक बढ़ती सदा बनल रहल। तें, आइयो अहां देखब, मिथिलाक घरानेदार गायकी सभक जे बंदिश भेटत से मैथिली मे नहि, ब्रजभाषा मे। एतय धरि जे आधुनिक संभ्रान्त मंच पर विद्यापति-गीत कें प्रतिष्ठापित केनिहार मांगनि गवैया सेहो जखन अपन गायनक बीच छवि-छटाक प्रदर्शन करय लागथि तं बड़ी-बड़ी काल धरि ब्रजभाषा मे रचित कवित्त सब प्रस्तुत करैत रहैत छला।

           केहन दुर्भाग्यक बात थिक जे एहन राजदरबार मे गेबाक लेल जे गीत सब थोड़-बहुत लिखल गेल तकरे बाद मे इतिहासग्रन्थ सब मे मैथिली साहित्यक नामें जानल गेल। समाज मे जे चीज गाओल जाइत छल, सामंतवादक विरोधी कविलोकनि जे कविता करै छला, समाजक मनोरंजन लेल ग्रामकवि लोकनि जे कविता मैथिली मे लिखलनि, से सब अहां कें इतिहास मे कतहु नहि भेटत। तें मध्यकालीन कविताक अध्ययन करैत इतिहास-वंचित काव्यधारा पर नजरि देब हमरा जरूरी लागल अछि। एकरा एकटा आरंभ मात्र बूझल जाय। हम एक व्यक्ति मात्र छी। हमर अनेक सीमा अछि। जखन कि ई काज सामूहिक उद्यमक अपेक्षा करैत अछि। एहन कविता सब कें ताकि निकालब एक सामूहिके प्रयास सं संभव भ' सकैत अछि। हम शुरुआत टा क' सकल छी, सैह बूझल जाय।

           कायदा सं देखी तं 'मैथिली कविताक हजार वर्ष' नामक एहि किताब मे एक खंड आरो हेबाक चाही। आधुनिक कालक, जे चन्दा झा सं शुरू होइतय आ एकैसम शताब्दीक दोसर दशक धरि पहुंचितय। यद्यपि कि अनेकानेक चहलपहल, उतराचौरी, विधागत प्रतिस्पर्धा आ साहित्यक आन्दोलन सब सं भरल ई काल बहुत जटिल रहल अछि आ एकर अध्ययनो एखन धरि ढंग सं नहि भ' सकल अछि। मुदा, तत्काल तं ई हमर योजना सं बाहरक बात छल, हम तं प्राचीन साहित्य पढ़य विदा भेल रही। मोन मे बात जरूर अछि जे आगू जं कहियो सुविधा भेल तं इहो काज हम करबाक प्रयास करब। ई काज एहू दुआरे जरूरी छै जे बीसम शताब्दीक मैथिली कविताक जाबन्तो धारा, प्रवृत्ति, काव्यान्दोलन आ गति-प्रगतिक सांगोपांग विश्लेषण करैत हो तेहन कोनो किताब एखन धरि आयल नहि अछि, जखन कि कथा वा उपन्यासक क्षेत्र मे से आयल छै।

           अइ किताब मे कुल्लम सोलह टा अध्याय अछि। नौ अध्याय पहिल खंड मे आ सात अध्याय दोसर खंड मे। एकरा निरंतरता मे लिखल गेल अछि, जाहि मे चारि बरस सं ऊपर समय हम लगेने छी। मुदा, जे पाठक एक दम्म मे लगातार अइ किताब कें पढ़ता तिनका एक बात ई लागि सकै छनि जे किछु एहन बात सब छै जकर कैक अध्याय मे बेर-बेर उल्लेख कयल गेलैए। ई रिपीटेशन-सन लागि सकैए। मुदा एना जानि-बूझि क' कयल गेलैए। तकर पहिल तं उद्देश्य यैह जे जे पाठक कोनो खास अध्याय लेल उत्सुक भ' क' ओकरा पढ़ता तं ओइ विन्दु सं संदर्भित तमाम बात हुनका ओत्तहि एक ठाम भेटि जेतनि। दोसर, गौर कयने इहो चीज देखबै जे जतय कतहु रिपीटेशन अछि से ठीक-ठीक पछिले शब्दावली मे नहि अछि, संदर्भक मोताबिक ने केवल शब्दावली, टिप्पणी धरि बदलल-सन अछि। कतोक ठाम तं ओइ संदर्भ सं जुड़ल कोनो नव तथ्य ओइठाम आबि जाइत छैक, जकर उल्लेख केवल ओत्तहि टा भेल रहैत छैक।

           कहब जरूरी नहि जे ई किताब हम अकादमिक उद्देश्य सं नहि, सामान्य बौद्धिक पाठक लेल लिखने छी। एहि कोटिक पाठकक मैथिली प्रकाशन-जगत मे आयब एक नव परिघटना छी। ओ दुनिया-जहान के ज्ञान सं भरपूर छथि आ आब अपन देसकोस, अपन संस्कृति, अपन इतिहास कें देखय-जानय चाहै छथि। इहो कहब जरूरी नहि जे जहिया ई नवीन पाठक-वर्ग अदृश्य छला तहियो हम एही अदृश्य पाठक लेल लिखैत रही। कोनो लेखक के लेल ई कोनो छोट उपलब्धि नहि कहल जेतै जे ओकर अदृश्य पाठक ओकर जीबिते जी दृश्यमान भ' गेल हो। परंपरित पाठक सेहो दू-चारि पढ़ि लेथु, एकरा हम सब दिन बोनसे मानल अछि।


           अन्हार कने छंटय, दुनू मिथिला कें एक करबाक स्वप्न-सेहन्ता जागैक, संकीर्णता कम होइ, वस्तुनिष्ठता बढ़य, जतय धरि मैथिली साहित्य पहुंचि चुकल अछि ताहि सं आगू जाय, खसय तं किन्नहु नहि-- मोन तं बड़की टा अछि। तखन तं कहलकै रहय जे जक्कर मोन बसय बड़ दूर/ तक्कर आस विधाता पूर।

                                     --तारानंद वियोगी

     (पोथीक भूमिका सँ। ई पुस्तक दू खंड मे अंतिका प्रकाशन सँ प्रकाशित अछि आ अमेजन पर उपलब्ध अछि।)