Friday, March 3, 2023

रेणु की मैथिली रचनाएं

 रेणु की मैथिली रचनाएं


तारानंद वियोगी


रेणु के समकालीन कनिष्ठ मित्रों में से एक भारतीभक्त ने उनकी मैथिली कहानियों के बारे में लिखा है-- 'आकाशवाणी के पटना केन्द्र से उनकी मैथिली कहानियां प्रसारित हुई थीं, कुल छह या आठ। गंगेश गुंजन और छत्रानंद के सहयोग से दो कहानियां मुझे उपलब्ध हो पाई थीं-- 'जहां पमन को गमन नहि' और 'अगिनखोर'। शेष पांडुलिपियों का कुछ पता नहीं चला। वे आज तक अनुपलब्ध हैं। उपर्युक्त दो में से पहली 'सोनामाटि' में छपी थी, दूसरी छपकर भी नहीं छपी-- यानी सोनामाटि बीच में ही दम तोड़ बैठी और वह कहानी छपे फार्मों के साथ दबी-घुटी प्रेस में ही रह गयी।'

              लेकिन वास्तविकता है कि वह कहानी प्रेस में दबी-घुटी नहीं रह गयी। उसकी पांडुलिपि की प्रति रेणु ने अपने साथ रख ली थी। नागार्जुन-राजकमल और रेणु के रखरखाव में यह बड़ा अंतर था। हम पाते हैं कि मूल मैथिली में जब यह कहानी नहीं छपी-- मैथिली में जब भी कभी वह लिखते, आग्रह-अनुरोध पर ही लिखते थे, आत्म-प्रेरणा से नहीं, और संपादकों को अयाचित रचना भी नहीं भेज सकते थे-- रेणु ने 'अगिनखोर' को हिन्दी में रूपान्तरित कर लिया और यह कहानी 'धर्मयुग' (5-12 नवंबर 1972) में छपी।

              मैंने गंगेश गुंजन से पूछा-- 'क्या उन्होंने छह-आठ कहानियां मैथिली में लिखी थीं?' उन्होंने उन पुराने दिनों को याद करते हुए बताया-- 'नहीं, कहानियां तो इतनी नहीं होंगी, लेकिन संस्मरण-वार्ता आदि को भी शामिल कर लें तो इतनी क्या, इससे ज्यादा ही होंगी। दरअसल 'भारती' और 'बाटे-घाटे' (आकाशवाणी पटना के मैथिली कार्यक्रम) में हम उन्हें अक्सर बुलाते रहते थे, और वे भी हमारा आमंत्रण सहर्ष स्वीकार करते। मैथिली लिखने में न उन्हें संकोच था न असुविधा। हम इसका यथासंभव लाभ उठाते।'

              -- लेकिन वे पांडुलिपियां?

              -- 72 के बाद तो मैं पटना रेडियो में रहा नहीं। बाद में जब लौटकर आया, पता चला, 75 की बाढ़ में सारी चीजें नष्ट हो गयीं।'

               फिर, गुंजन जी को जैसे लगा कि मैं उन्हें मैथिली लेखक साबित करनेवाला हूं, उन्होंने साफ किया-- 'मैथिली में लिखने के प्रति उनमें कोई उत्कंठा नहीं थी। व्यक्तिगत पत्रों के सिवा शायद ही कभी उन्होंने स्वप्रेरणा से कभी कुछ मैथिली में लिखा हो। हां, तब यह जरूर था कि मेरे गुरु मधुकर गंगाधर की तरह वे मैथिली-विरोधी नहीं थे।'

               उन्हें मैथिली लेखक साबित करने की जरूरत भी क्या है? मिथिला तो उनकी रचनाओं में इस कदर टनाटन बोलती है, तमाम आरोह-अवरोहों के साथ कि इसके पहले दुनिया ने विद्यापति में ही भाषा का यह उत्सव चलते हुए देखा था। विद्यापति रेणु के प्रिय यों ही नहीं थे। आज जब मैथिलों ने अपनी संकीर्णता के कारण मैथिली को दो जिलों में समेट लिया है, बड़े-बड़े भाषाविद् भी सिर पीटते हैं कि विद्यापति द्वारा प्रयुक्त शब्द आज दरभंगा-मधुबनी में प्रचलित नहीं हैं, लेकिन अररिया, मुंगेर और बेगूसराय में समूचे कलरव, समूची गूंज के साथ विद्यापति का वह समूचा भाषा-वितान मौजूद है।

               गुंजन जी के वर्षों पहले मायानंद मिश्र पटना रेडियो में कम्पीयर थे जब रेणु ने भी थोड़े दिन आकाशवाणी में अधिकारी की नौकरी की थी। पहली मुलाकात का वर्णन मायानंद मिश्र ने किया है-- 'उस दिन मैं उनकी टेबुल पर गया और मैथिली में अपना नाम तथा रेडियो में अपने काम के बारे में बताया। साथ ही, मैला आंचल पढ़ने, सराहने और मिलने की उत्सुकता की बातें भी बताईं। उन्होंने वहीं अपने तात्कालिक काम को रोक दिया। उठ खड़े हुए और अति प्रसन्न भाव और आन्तरिकता से हाथ मिलाते हुए मैथिली में ही उत्तर दिया-- 'तो आप ही हैं! अरे! मैं भी आपसे मिलने के लिए उत्सुक था।' (मायानंद उन दिनों दैनिक कार्यक्रम चौपाल में आते थे और अपनी मैथिली बोलने की शैली के कारण अत्यन्त लोकप्रिय थे।)...और, मेरा हाथ पकड़े ही कैन्टीन की तरफ चले। यह रेडियो और मेरे, दोनों के लिए अप्रत्याशित घटना थी। मेरे लिए इसलिए कि इतना बड़ा लेखक मुझसे पूर्वपरिचित है, भले लेखकीय स्तर पर नहीं। और रेडियो के लिए इसलिए कि उन दिनों कोई भी अफसर एक अदना स्टाफ आर्टिस्ट का हाथ पकड़कर नहीं चलता था, और वह भी कैन्टीन में तो चाय नहीं ही पीता था। बहुत बातें हुईं। घर-परिवार, कोशी, सहरसा, पूर्णियां आदि के बारे में। उठते समय उन्होंने फिर मेरा हाथ पकड़ लिया, कहा-- देखिये, पटना में अपनी मातृभाषा में बोलनेवाले, कम से कम मुझसे, आप पहले आदमी हैं। मैं यहां अपनी मातृभाषा के लिए तरस जाता हूं।' आगे भी उनलोगों का मिलना-जुलना जारी रहा।

               बाद में सन साठ में, जब रेणु ने आकाशवाणी की नौकरी छोड़ दी थी और स्वतंत्र रूप से पढ़ने-लिखने का काम कर रहे थे, मायानंद मिश्र ने मैथिली में एक द्वैमासिक पत्रिका 'अभिव्यंजना' नाम से निकालने का विचार किया था। रेणु के संपर्क-सामीप्य का लाभ उठाते हुए उन्होंने उनसे पत्रिका के लिए मैथिली कहानी की मांग कर दी। लिखा है-- 'मैं जानता था कि यह मेरा आग्रह नहीं, दुराग्रह था। तबतक (शायद) रेणु जी रेडियो छोड़कर शुद्ध कलमजीवी हो चुके थे। मेरे इस आग्रह पर वह थोड़ा चौंके। मैथिली में ही कहा-- 'मैथिली कहानी? लेकिन ऐसा आग्रह तो आजतक किसी ने नहीं किया था। मैं जरूर दूंगा।' उन्होंने जो कहानी दी, वह 'नेपथ्यक अभिनेता' है, जो मैथिली में उनकी पहली कहानी थी। मायानंद मिश्र ने लिखा है, रेणु ने बगैर शीर्षक डाले यह कहानी उन्हें दी थी, और जब संपादक ने शीर्षक दिया, यह नाम रेणु को बहुत पसंद आया था। मायानंद, जो खुद भी कथाकार थे, ने इस कहानी को 'जमी हुई कहानी' बताया है जो 'अभिव्यंजना' के दूसरे अंक में छपी, 'जो उस पत्रिका को एक अन्य ऐतिहासिकता देती है।'

               गौर करने की बात यह है कि मैथिली में छपी अपनी दोनों कहानियों को रेणु ने हिन्दी में नहीं छपवाया। उनकी तिरसठ हिन्दी कहानियों में ये शामिल नहीं हैं। बहुत बाद में आकर भारत यायावर ने इनका हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कराया। 'अगिनखोर' चूंकि मैथिली में छपकर निकल ही नहीं पाई थी, उन्होंने इसका हिन्दी में पुनर्लेखन किया। अगिनखोर के मैथिली प्रसारण को याद करते हुए गंगेश गुंजन को उनकी एक और मैथिली कहानी की याद आई, जिसमें रामकृष्ण परमहंस का प्रसंग आता था और रामकथा के एक क्षेपक की भी विस्तार से चर्चा थी। उसका शीर्षक गुंजन जी को याद नहीं आ पाया। वह कहानी कहीं छपी भी नहीं। हिन्दी में भी नहीं। कितने खेद की बात है, उसी पटने से 'मिथिला मिहिर' साप्ताहिक नियमित निकलता रहा था, जहां रेणु रहते थे। जब भी लोगों ने उनसे मैथिली में लिखने का आग्रह किया, उन्होंने टाला नहीं। जाहिर है, अपनी मैथिली रचना के लिए उनमें पर्याप्त निष्ठा भी थी, वरना इन्हें हिन्दी में भी छपवाकर वह पारिश्रमिक प्राप्त कर सकते थे।  उनकी वह बात-- 'मैथिली कहानी? लेकिन ऐसा आग्रह तो अबतक मुझसे किसी ने नहीं किया था। मैं जरूर दूंगा।'-- मैथिली के संपादकों, खास तौर पर मिथिलामिहिर, के ललाट पर मुद्रित कलंक-लेख है। क्यों भाई? इसीलिए न कि मैथिली को आपलोग ब्राह्मणों की भाषा मानते थे, और रेणु ब्राह्मण नहीं थे। या फिर, वह तो हिन्दी में लिखते थे इसलिए अछूत थे! मैथिली को संकुचित करने में कितने युगों से कितने महारथी लगे रहे हैं, आप कल्पना कर सकते हैं।

               रेणु की मैथिली कहानी की सबसे बड़ी खासियत तो यह है कि वह मुख्यधारा की कहानी है। जैसी कहानी रेणु हिन्दी में लिखते रहे थे, ठीक वैसी। कहने की जरूरत नहीं कि हर भाषा के लिए/ भाषा का, लेखक के मन में एक स्पष्ट आभामंडल बना होता है। जब लेखक किसी एक भाषा में लिख रहा होता है तो इस आभामंडल से आवश्यक रूप से घिरा होता है। किसी भाषा के प्रति यदि लेखक का खयाल कमतर है तो जाहिराना तौर पर यह चीज उसके कथ्य और ट्रीटमेन्ट दोनों में ही साफ प्रतिध्वनित होगी। जैसे, अपने आखिरी दिनों के एक संस्मरण में नंदकिशोर नवल ने मैथिली रचनाशीलता के बारे में लिखा कि वहां तो अब भी महाकाव्य लिखे जा रहे हैं, महाकाव्यों का युग चल रहा है। और, उन्होंने कोई गलत नहीं लिखा। फिर तो उसके जो पाठक होंगे वे भी तो उसी स्तर के होंगे। ऐसे में कोई आधुनिक लेखक मैथिली में लिखेगा तो इस आभामंडल से प्रभावित तो होगा। केवल जो सचमुच के बड़े लेखक होंगे, वही इस चीज से बचे रह सकते हैं। आप शायद यकीन न करें, मैथिली के नामचीन आलोचक रमानाथ झा जब अंग्रेजी लिख रहे होते तो टी एस इलियट को अपना आदर्श मानते हुए गजब के वस्तुनिष्ठ और विश्लेषक दीखते, लेकिन वही अपने मैथिली लेखन में प्राचीन ब्राह्मणवादी आदर्शों तक सीमित रखने को ही मैथिली रचनाशीलता का पर्याय मानते थे। राजकमल चौधरी भी अपने हिन्दी और मैथिली लेखन में अलग-अलग पहचाने जा सकते हैं, यूं अपनी-अपनी तरह की नवता और प्रयोगशीलता दोनों जगह मौजूद है। नागार्जुन इनमें सबसे अलग हैं जिनमें यह फांक लगभग गायब है। रेणु के मैथिली लेखन में भी यह चीज हमें मिलती है। लेखक अगर सचमुच बड़ा है तो अपनी मेधा से किसी खास भाषा की बनी-बनाई लीक को, उसके आभामंडल को तोड़ डालता है।

               उदाहरण के साथ बात करें तो बात ज्यादा साफ होगी। 'नेपथ्यक अभिनेता' कहानी ठीक उसी हादसे की बात उठाती है जो हमें 'ठेस' में या 'रसप्रिया' में देखने को मिलता है। न सिरीचन हार मानने को तैयार है न मिरदंगिया। इस कहानी का अभिनेता भी हारने को तैयार नहीं। इधर जमाना इतनी तेजी से बदल रहा है कि इन सबका जीना दूभर होता गया है। 'लोक' की युग-युगव्यापी संस्कृति विलुप्ति के कगार पर है। अधकचरी आधुनिकता और दिखावे का लोकतंत्र पाकर और भी अधिक बलिष्ठ, और भी अधिक घातक हो चुकी पूंजी ने इन धरोहरों का सत्यानाश कर डाला है। कल तक जो सामंत थे, अब पूंजीपति हैं और राजनीति उनकी चेरी है। उनके लिए संस्कृति क्या और धरोहर क्या? हम सब जानते हैं कि लोक की जीवन्त संस्कृति से लगातार दूरी बरतने वाली इस गोबरपट्टी से रेणु कितने आहत थे। लोक-धरोहरों के उजड़ते जाने की जितनी दारुण चिन्ता हमें रेणु के यहां दिखती है, इस कारण भी अपने समकालीनों में वह अन्यतम हैं। 

               ठेस का सिरीचन इस कारण उजड़ता है कि अब प्लास्टिक बाजार में आ गया है और उससे बनी शीतलपाटी लोगों को सस्ती ही नहीं आकर्षक भी लगने लगी है। मिरदंगिया विदापत नाच का मूलगैन रहा है। विदापत नाच अब बीते जमाने की चीज बनकर रह गया जिसके कलाकार अब संभ्रान्त बाबू-भैयों के यहां भीख भी पाने के हकदार नहीं रहे। क्यों? क्योंकि यह नीच और जाहिल समुदाय के मनोरंजन की चीज है। लोकतंत्र चूंकि आ चुका इसलिए अब कोई भी नीच और जाहिल नहीं बने रहना चाहता। अत: जिनकी यह विरासत थी वे भी इसे त्यागे दे रहे हैं। रेणु के रेखाचित्र 'विदापत नाच'(1941) को ध्यान रखकर कहें तो उन्होंने अपनी लेखकीय यात्रा की शुरुआत ही इन्हीं चिन्ताओं से की थी।

               नेपथ्य का यह अभिनेता पारसी थियेटर का मशहूर हीरो रहा है। देश के चुनिंदा पन्द्रह कंपनियों में वह काम कर चुका है। अपने जमाने में उसकी लोकप्रियता ऐसी थी कि लोग उसकी एक झलक पाने के लिए ललकते थे। सिनेमा ने थियेटर को उजाड़ दिया। सारी कंपनियां बंद हो गयीं। मिरदंगिया की ही तरह अभिनेता भी रोड पर आ गया। बदले माध्यम के साथ एडजस्ट करने की कोशिश उसने न की हो, ऐसा भी नहीं। इस मायने में वह सिरीचन और मिरदंगिया दोनों से आगे का नायक है। कहानी से हमें पता मिलता है, फिल्मों की बड़ी चला-चलती देखकर वह फिल्मनगरी बंबई भी गया, लेकिन वहां का कल्चर कुछ और था। वह उसके भीतर के कलाकार को रास नहीं आया। गर्दिश का मारा है लेकिन अभिनेता हारा नहीं है। अब उसने एक बिल्कुल नयी विधा में काम शुरू किया है। अब उसकी अटैची में तरह-तरह के मुखौटे भरे पड़े रहते हैं, वे सारे के सारे जिनकी भूमिकाओं के कद्रदान यहां-वहां मौजूद हैं। अपनी लुंगी से सिर ढंककर वह ग्रीनरूम का काम निकाल लेता है, झट से मुखौटे बदले और उसके अनुसार डायलाग। लोग जमा हो जाते हैं। वे पुराने दिन लोगों की आंखों में नाच उठते हैं। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सबका भरपूर मनोरंजन होता है। और, सबके अंत में वह अपनी टोपी को भिक्षापात्र बनाकर लोगों से आने-दो आने मांग लेता है। बंबई ने छीना भले जितना भी हो उससे, एक सीख भी जरूर दे दी है। अब वह बेझिझक कह सकता है कथावाचक से कि 'साब, एक्सक्यूज मी, फार लास्ट टू डेज आइ एम हंगरी, वेरी हंगरी, मांगने की हिम्मत नहीं होती किसी से।' ऐसे में अभिव्यंजना-संपादक की कही यह बात तो ठीक है कि यह कहानी नौटंकी के प्रख्यात पात्र के अंतिम दिनों की आर्थिक तंगी और उपेक्षा की कहानी है जिससे बात करने के लिए लड़कों-बच्चों से लेकर बड़ी उम्र के लोग तक    एक जमाने में तरसते थे। फिर भी, यह मानने की संगति नहीं कि वह रिटायर्ड हो चुका है। नहीं, वह जीवनसंघर्ष में शामिल है और कलासाधना में भी, जिसके माध्यम और रूप भले बदल गये हों लेकिन उसे रोजी-रोटी देने में भी आज भी कला ही काम आ रही है। 

               सुदूर इलाके से चलकर वह फारबिसगंज आया है, जहां के बारे में उसकी समझ है कि 'मिथिला देस में आज भी नाटक के काफी शौकीन लोग हैं।' मजे की बात है कि साठ बरस पहले दुनिया फारबिसगंज को भी 'मिथिलादेस' मानती थी। सच यह भी है कि इस कहानी के लिखे जाने के कम-से-कम चालीस बरस बाद तक इस समूचे इलाके में, गांव-गांव में नाटक जिंदा था। ठीक उसी ढब-ढांचे का जैसा कि नौटंकी कंपनियों के नाटक हुआ करते थे। इसे लोग उत्तर बिहार का ग्रामीण रंगमंच कहते हैं। इसे फिल्म न खा सकी थी। फिल्म के गाने जब नीचे उतरके आर्केष्ट्रा के रूप में गांव-गांव पहुंचे तभी इस कला का आखिरी खात्मा हुआ। 

               इस कहानी में कला-समीक्षक का भी आगमन हुआ है और यह देखना दिलचस्प है कि आम तौर पर समीक्षा-दृष्टि के बूते बांह पुजानेवाले कितने पश्चगामी होते हैं। सांप के निकल जाने के बाद रास्ते पर लाठी पटकनेवालों की जमात का लोक मे खूब मजाक उड़ाया जाता है। रेणु के समीक्षक को इनसे कम न समझा जाए। उनकी कितनी ही रचनाओं में उनका यह नजरिया जाहिर हुआ है। यानी कि पश्चगामिता, जिसे समीक्षा-सिद्धान्त के नाम से महिमामंडित करने का चलन भी रहा है, जबकि वास्तविक हालत यह है कि की सृजनात्मक लेखन का मामला हो या कि स्वयं जीवन की मार्मिकता का-- हम पाते हैं कि यह चीज कैसे उसके हाथ आते-आते हर बार फिसल जाती है, इस कहानी का वाकया इसका है।

               आठ-नौ की उमर रही होगी जब कथावाचक ने गुलाबबाग के मेले में पहली बार कोई भी थियेटर देखा था और उसी पहले शो में इस कलाकार को भी, जिसके नाम का उल्लेख यहां रेणु ने समूची कहानी के भीतर कहीं भी नहीं किया है। ये छुट्टी के दिन थे। स्कूल जब खुला तो इस अतीन्द्रिय आनंद का वर्णन दोस्तों को सुनाया ही जा रहा था कि समीक्षक का आगमन हुआ। वह कथावाचक का सहपाठी बकुल बनर्जी भी आठ-नौ वर्ष का ही था, लेकिन रेणु लिखते हैं-- 'बड़ चंसगर, जन्मजात आर्ट क्रिटिक, ओकरा कथनानुसार अइ नकली कंपनी मे-- पछिला बरस नागेसरबाग मेला मे ऐल असली कंपनीक छटुआ लोक सब छलै।' किसी एक कंपनी में काम करनेवाले कलाकार का उसे छोड़ किसी अन्य में आ जाने से वह कंपनी नकली कैसे हो जाएगी? लेकिन रेणु बताते हैं, केवल कलाकार ही जन्मजात नहीं होता, समीक्षक भी जन्मजात ही होता है। समीक्षक की एक तीसरी मुद्रा भी होती है, उसे भी रेणु यहां उठा ले आए हैं। इतने मजे की चीज के नकली ठहराये जाने से कथावाचक‌ जब उदास हो गया होता है, दोस्त समीक्षक झट अपनी मुद्रा बदल लेता है-- 'तोव एक ठो बात हाइ-- ईस कंपनी में जिस मानुस ने रेलवे पोर्टर का पार्ट ये किया है, वह नागेसरबाग में आया कंपनी में भी यही पार्ट करता था, उसको तो नकली नेही कहने सोकते।' मतलब, जिन्हें हम समीक्षा-सिद्धान्त कहते हैं उनके प्रावधान मानो सुविधा और परिस्थिति के अनुसार बदल दिये जाने को अभिशप्त होते हैं।

               अंत में जाकर कहानी जहां अपने सर्वाधिक मार्मिक स्थल पर पहुंचती है, यानी कि बूढ़े कलाकार का यह कहना कि-- 'साब, एक्सक्यूज मी, फार लास्ट टू डेज आइ एम हंगरी, वेरी हंगरी'-- बकुल बनर्जी वहां भी उपस्थित है। रेणु लिखते हैं-- 'जन्मजात आर्ट क्रिटिक हमर सहपाठी बकुल बनर्जी आइयो कला आ कलाकार कें चिन्हबाक धंधा ओहिना करैत अछि, सब दिन ओ एके रहल। हमरा दिस तकैत बकुल बाजल--'तू भी इसका बात में फंस गये, मुझसे काल यह कह रहा था--फार टू डेज आइ एम हंगरी...।'

               एक विंदु आता है जब मार्मिकता और समीक्षा के बीच सीधे मुठभेड़ होने से बचना संभव नहीं रहता। वही इस कहानी के अंत में आकर हुआ है। कथावाचक को बकुल की यह बात बहुत बुरी, बहुत तुच्छ लगती है। दुखी होकर वह पूछता है, 'ठीक-ठीक बताना बकुल, इसके डोलते हुए काया के पिंजड़े में जो पंछी बोल रहा है, उसकी बोली को सुनकर तुमको कुछ नहीं लगा?'

               --'कुछ नहीं लागता तो काल्ह ठो सारा दिन इसके साथ भीख मांगता? चोन्दा तो भीख ही हुई!' --यह बकुल है, जो अपनी समीक्षा की सीमा स्वीकार कर रहा है। फिर लंबी नि:श्वास के साथ वह सीमा लांघ जाता है। कहता है--'क्या बताएं--कैसा लगा! लगा... तुम्हारे अथवा अन्य मित्रगणों के साथ रात-भर भागकर थियेटर देखने गया हूं, होस्टल से।' कथावाचक की प्रतीति भी कुछ ऐसी ही है-- 'हां बकुल, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा।' यह अनुभूति की एकता समीक्षा के दंभ के धराशायी होने पर ही संभव है, जिसका अर्थ है जीवन की मार्मिकता का स्वीकार। इस तरह से देखें तो इस कहानी का विषय सामने दिख रहे दृश्यों से कहीं अधिक गहन, अधिक व्यापक है।  

              जैसा कि पहले कह चुका हूं, भाषा का प्रश्न रेणु के लिए दोयम था। मुख्य प्रश्न वस्तु का था और उसके विन्यास का, जिसका ऐसा बड़ा सिद्ध कलाकार यहां कोई और न हुआ। चूंकि जो कुछ भी उन्होंने लिखा, वह मिथिला के बारे में है, वहीं की कहन में, वहीं के दिल के पतियाने में, अत: स्वाभाविक रूप से हिन्दी और मैथिली में लिखी चीजें हमें अलग-अलग स्केल पर नहीं दिखतीं। कितने आश्चर्य की बात है कि 'अगिनखोर' जैसी कहानी उन्होंने मैथिली में लिखी थी, जबकि हिन्दी में भी तब ऐसी चीजें लिखने का चलन मुश्किल से ही था। 'जहां पमन को गमन नहीं' मैथिली में है, एक ऐसे विषय पर मानो कि समूचा रेणु-साहित्य इसी आशय का विस्तार हो। सब जानते हैं कि उन्होंने जब-तब मौज में आकर कविताएं भी लिखीं। जो चीजें अब बची ही नहीं उनकी तो बात ही क्या करना, लेकिन पढ़कर देख लीजिए, रेणु की सबसे अच्छी कविता जो आपको लग सकती है, वह 'जित्तू बहरदार' है, और वह मैथिली में लिखी गयी है।

               

               

               

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