Sunday, May 18, 2025

फणीश्वरनाथ रेणुक मैथिली कथा


 

तारानंद वियोगी


रेणुक समकालीन, हुनकर कनिष्ठ मित्र लोकनि मे सँ एक भारतीभक्त (मैथिली पत्रिका 'सोनामाटि'क यशस्वी संपादक) अपन एक संस्मरण-लेख मे लिखने छथि-- 'आकाशवाणीक पटना केन्द्र सँ रेणु जीक मैथिली कहानी सब प्रसारित भेल रहैक, कुल छौ वा आठ। गंगेश गुंजन एवं छत्रानंदक सहयोग सँ हुनकर दूटा कथा हमरा उपलब्ध भ' सकल रहय-- 'जहां पमन को गमन नहि' आ 'अगिनखोर'।शेष पांडुलिपि सभक कोनो पता नहि लागल। ओ पांडुलिपि सब आइयो धरि अनुपलब्ध अछि। उपर्युक्त दू मे सँ पहिल 'सोनामाटि' मे छपल, दोसर छपियो क' नहि छपि सकल-- मने सोनामाटि बिच्चे मे दम तोड़ि बैसल आ ओ कथा छपल फार्मा सभक ढेर मे दबल-पिचायल रहि गेल।'

                 मुदा, वास्तविकता थिक जे ओ दोसर कहानी 'अगिनखोर' प्रेस मे दबल-पिचायल नहि रहि गेल रहय। ओकर पांडुलिपिक रफ प्रति रेणु अपना संग राखि लेने रहथि। यात्री-राजकमल आ रेणुक, अपन रचना सभक रख-रखाव-पद्धति मे बहुत अंतर रहय। हमसब पाबै छी जे जखन ई कथा मैथिली मे नहिये छपि सकल तँ रेणु ओकरा एक बेर फेर सँ हिन्दी मे लिखलनि आ ई कहानी 'धर्मयुग' (5-12 नवंबर,1972) मे प्रकाशित भेल। ई बात हम शुरुए मे कहि दी जे मैथिली मे जहिया कहियो रेणु किछु लिखलनि, आग्रह-अनुरोधे पर लिखलनि, आत्म-प्रेरणा सँ नहि, आ इहो बात रहै जे कोनो मैथिली पत्रिका कें ओ अयाचित रचना नहि पठा सकैत छला। तखन ई अवश्य जे जे क्यो हुनका सँ याचना केलनि, तकरा लेल अवश्य लिखलनि।

        हम गंगेश गुंजन कें पुछलियनि-- 'की रेणु जी मैथिली मे छौ टा वा आठ टा कथा लिखने हेता?' ओ ओहि दिनक स्मृति मे घुरैत उतारा देलनि-- 'नहि, अगब कहानी तँ एते नहि हेतनि, मुदा संस्मरण-वार्ता आदि सबटा कें जँ शामिल क' ली तँ एतबे किएक, एहि सँ बहुत बेसी हेतनि। असल मे आकाशवाणीक दूटा मैथिली प्रोग्राम-- 'भारती' आ 'बाटे-घाटे'--हमरा हाथ मे रहय, जाहि मे हुनका समय-समय पर बजबैत रहै छलहुँ, आ रेणु जी सेहो हमरा सभक आमंत्रण सब बेर स्वीकार करथि। अहाँ सब कें बूझल हो वा नहि, मैथिली लिखबा मे रेणु जी कें ने कहियो कोनो संकोच होइन, ने कोनो असुविधा। हमसब हुनकर एहि उदारताकक खूब लाभ उठाबी।'

       -- मुदा, ओ पांडुलिपि सब?

       -- 72 के बाद हम तँ पटना मे रहलहुँ नहि। बाद मे जखन घूरि क' अयलहुँ तँ पता लागल जे 1975क बाढ़ि मे सबटा वस्तु नष्ट भ' गेलैक।'

          फेर अचानक गुंजन जी कें लागल होइन जे कहीं हम रेणु कें मैथिली लेखक सिद्ध करबाक उत्साह मे तँ नहि छी, ओ बजला-- 'मैथिली मे लिखबाक प्रति हुनका मे कोनो उत्कण्ठा नहि छलनि। व्यक्तिगत पत्र आदिक अलावे किनसाइते ओ कहियो अपना मोनें मैथिली मे लिखने हेता। तखन हँ, ई जरूर रहय जे हमर गुरु मधुकर गंगाधर जेना मैथिली-विरोधी रहथि, रेणु जी मे से भावना कहियो नहि रहलनि।'

           रेणु कें मैथिली लेखक साबित करबाक खगतो कहाँ छै! मैथिली आ मिथिला हुनकर रचना सब में तेना टनटन बजैत अछि, अपन ओहि तमाम आरोह-अवरोहक संग, जे अइ सँ पहिने दुनिया एक विद्यापतियेक साहित्य मे एहन भाषाक उत्सव देखने छल। विद्यापति जे रेणुक एतेक प्रिय रहथिन, से ओहिना नहि। आइ जखन मैथिल लोकनि अपन संकीर्णताक कारण मैथिली कें दू जिला मे समेटि लेलनि अछि, पैघ-पैघ भाषाविद् लोकनि चिन्ता करैत छथि जे विद्यापति द्वारा प्रयुक्त सैकड़ो शब्द आइ दरभंगा-मधुबनी मे प्रचलित नहि अछि, जखन कि अररिया, मुंगेर, बेगूसराय, गोड्डा मे अपन संपूर्ण कलरव, अशेष गूंजक संग विद्यापतिक ओ भाषा-वितान मौजूद अछि।

             गुंजन जी सँ बहुत दिन पहिने मायानन्द मिश्र पटना रेडियो मे कम्पीयर छला, जखन थोड़बा दिन लेल रेणु पटना रेडियो मे अधिकारीक रूप मे पदस्थापित भेल रहथि। रेणु जीक संग अपन पहिल मुलकातक वर्णन माया बाबू एहि शब्द मे केलनि अछि-- 'ओहि दिन रेडियो मे हम हुनका टेबुल पर गेलहुँ, आ मैथिली मे अपन नाम आ अपन काजक बारे मे बतौलियनि। संगहि 'मैला आँचल' पढ़बाक, सराहबाक बातक संग हुनका सँ भेंटक प्रति उत्सुकताक गप सेहो कहलियनि। ओ ओत्तहि अपन तात्कालिक काज रोकि देलनि। ऊठि क' ठाढ़ होइत अति प्रसन्न भाव आ आन्तरिकताक संग बजला-- 'अरे वाह, अहीं छी! हमहू अहाँ सँ भेंट करबाक लेल बहुत उत्सुक रही।' (असल मे, मायानन्द मिश्र ओहि समय मे दैनिक चौपाल कार्यक्रम मे अबैत छला आ मैथिली बजबाक अपन खास छटा आ अदाक लेल बहुत चर्चित रहथि।) .....आ, हमर हाथ पकड़नहि ओ कैन्टीन दिस बढ़ि गेला। ई स्वयं हमरा लेल आ पटना रेडियोक लेल एक अप्रत्याशित घटना छल। हमरा लेल एहि दुआरे जे एतेक पैघ लेखक हमर पूर्वपरिचित छथि, भने लेखकीय स्तर पर नहि सही। आ, रेडियो लेल एहि दुआरे जे ताहि दिन मे रेडियोक कोनो अफसरक एक अदना-सन स्टाफ आर्टिस्टक हाथ पकड़ि क' चलबाक बात सोचलो नहि जा सकैत छल, आ कैन्टीन मे संग बैसि क' चाह पीबाक बात तँ असंभवे घटना छल। ओहि दिन हुनका संग बहुत रास गपसप भेल। घर-परिवार, कोशी, सहरसा, पूर्णिया आदिक विषय मे। उठैत काल ओ फेर हमर हाथ पकड़ि लेलनि, बजला-- देखू, पटना मे अपन मातृभाषा मे गप केनिहार, कम-सँ-कम हमरा सँ, अहाँ पहिल आदमी छी। हम तँ एतय अपन मातृभाषाक लेल तरसि गेल छी, बुझू।' एहि घटनाक बाद हुनका दुनू गोटेक भेंटघांट लगातार जारी रहलनि।  

                   बाद मे, सन् 1960 मे, जखन रेणु आकाशवाणीक नौकरी छोड़ि चुकल छला, आ स्वतंत्र रूप सँ पढ़बा-लिखबाक काज धरि अपना कें सीमित क' लेने रहथि, मायानंद मिश्र मैथिली मे एक द्वैमासिक पत्रिका 'अभिव्यंजना' नाम सँ निकालब शुरू कयने रहथि, रेणु जीक संपर्क-सामीप्यक लाभ उठबैत हुनका सँ भेंट क' मैथिली कहानीक मांग क' देलनि। माया बाबू स्वयं लिखलनि अछि-- 'हम जनैत रही जे हमर ई आग्रह आग्रह नहि, दुराग्रह थिक, कारण नौकरी छोड़लाक बाद आब ओ पूर्णत: कलमजीवी भ' चुकल रहथि। मुदा, हमर एहि आग्रह पर ओ चौंकलाह। मैथिलिये मे कहलनि-- 'मैथिली कहानी? एहन आग्रह तँ आइ धरि हमरा सँ क्यो नहि कयने छला। हम देब। हम अहाँ कें जरूर देब।' रेणु जे कहानी मायानंद कें देने रहथिन, वैह कथा थिक-- 'नेपथ्यक अभिनेता', जे मैथिली मे हुनकर पहिल कहानी छियनि। मायानंद मिश्र लिखने छथि जे कथा जखन रेणु हुनका देने रहनि, ओ शीर्षकहीन छल। 'नेपथ्यक अभिनेता' मायानंदक देल नाम छल, जे रेणु कें बहुत पसंद पड़लनि। मायानंद जे कि अपनो मूलत: कथाकारे रहथि, एहि कथा कें 'बेस जमल कथा' बतौलनि अछि। 'अभिव्यंजना'क दोसर अंक मे ई कथा छपल, जे कि माया बाबूक शब्द मे 'ओहि अंक कें एक अन्य ऐतिहासिकता प्रदान करैत अछि।'

                ध्यान देबाक बात छै जे मैथिली मे छपल दुनू कथा कें रेणु हिन्दी मे नहि छपबौलनि। हुनकर कुल्लम तिरसठ हिन्दी कहानी सब मे ई दुनू कथा शामिल नहि छै। बहुत बाद मे आबि क' भारत यायावर एहि दुनू कथाक हिन्दी अनुवाद करबौलनि। 'अगिनखोर' जें कि मैथिली मे छपि क' बाहर आबिये नहि सकल तें एकर पुनर्लेखन रेणु हिन्दी मे केलनि। 'अगिनखोर'क रेडियो प्रसारण कें स्मरण करैत गंगेश गुंजन कें रेणुक एक आर मैथिली कथा मोन पड़ि गेलनि। एहि कथा मे रामकृष्ण परमहंसक एक प्रसंग अबैत छल आ रामकथाक एक क्षेपक सेहो। ओकर शीर्षक गुंजन जी मोन नहि पाड़ि सकला। ओ कहानी कतहु छपबो नहि कयल, ने मैथिली मे, ने हिन्दी मे। कते खेदक बात थिक, ओही पटना सँ साप्ताहिक 'मिथिला मिहिर' नियमित बहराइत छल, जतय रेणु रहैत छला। जहिया कहियो हुनका सँ क्यो मैथिली कथा लिखबाक आग्रह केलखिन, ओ कहियो टारलनि नहि। स्पष्ट अछि जे अपन मैथिली लेखनक प्रति हुनका मे उत्कण्ठा भने नहि होइन, मुदा निष्ठा पर्याप्त रहनि। जँ से नहि होइतनि तँ अपन मैथिली कहानी कें ओ एक बेर फेर सँ हिन्दी मे लिखि पारिश्रमिक प्राप्त क' सकैत रहथि। हुनकर कहल ओ आश्चर्य-मिश्रित बात-- 'मैथिली कहानी? मुदा एहन आग्रह तँ आइधरि क्यो हमरा सँ नहि कयने छला। हम देब। जरूर देब।'-- मानू तँ ताहि दिनक मैथिली पत्रकारिताक ललाट पर अंकित कलंक-लेख थिक। किए भाइ? एते पैघ लेखक मैथिली लिखबाक आग्रह नहि टारैत छथि, से बूझल अछि सब कें। मुदा हुनका आग्रह नहि करबनि, कारण ओ ब्राह्मण नहि छथि, वा हिन्दी लेखक छथि तें अछूत छथि। मैथिली कें संकुचित करबा मे कते-कते युग सँ कते-कते महारथी सब लागल छथि, अहाँ अनुमान क' सकै छी। 

             रेणुक मैथिली कथाक सब सँ पैघ विशेषता ई छनि जे ओ सब मुख्यधाराक कहानी थिक। जेहन आ जाहि स्तरक कहानी रेणु हिन्दी मे लिखलनि, ठीक-ठीक तेहने मैथिली मे। कहब जरूरी नहि जे हरेक भाषाक लेल/ भाषा के, लेखकक मोन मे एक स्पष्ट आभामंडल बनल होइत अछि। जखन लेखक कोनो खास भाषा मे लिखि रहल होइत अछि तँ एहि आभामंडल सँ आवश्यक रूपें घेरायल रहैत अछि। कोनो भाषाक प्रति जँ लेखकक दृष्टि कमतर रहैत अछि तँ जाहिरा तौर पर से ओकर लिखल वस्तुक कथ्य आ ट्रीटमेन्ट दुनू मे प्रतिध्वनित होयबे करैत अछि। जेना, अपन आखिरी दिन मे नंदकिशोर नवल यात्रीपरक अपन एक संस्मरण मे लिखलनि जे मैथिली मे तँ एखनो महाकाव्ये लिखल जाइत अछि, महाकाव्येक युग चलि रहल अछि। मैथिल भाइलोकनि कें भने ई बात खराब लागनि, मुदा चौबगली देखू तँ नवल जीक कथन निरर्थक नहि लागत। एहना स्थिति मे ओहि भाषाक जे पाठक हेता, ओहो ओही स्तरक हेता। एहना स्थिति मे कोनो पैघ आधुनिक लेखक जँ मैथिली मे लिखत तँ एहि आभामंडल सँ तँ जरूर ओकर पल्ला पड़तै। अहाँ कें साइत भरोस करब मोश्किल होयत जे मैथिलीक महान आलोचक रमानाथ झा जखन अंग्रेजी लिखि रहल होथि तँ टी.एस.इलियट कें अपन आदर्श मानैत गजब के वस्तुनिष्ठ विश्लेषक नजरि आबथि, मुदा वैह आचार्य अपन मैथिली-लेखन मे प्राचीन ब्राह्मणवादी आदर्शे धरि अपना कें सीमित राखब मैथिली-लेखनक लेल पर्याप्त मानैत छला। राजकमल चौधरी सेहो अपन हिन्दी आ मैथिली लेखन मे अलग-अलग चीन्हल जा सकैत छथि, ओना दुनू जगह अपना-अपना तरहक नवता आ प्रयोगशीलता मौजूद छनि। यात्री नागार्जुन एहि मे सब सँ अलग छथि आ हुनका लेखन मे ई फांक लगभग गायब अछि। रेणु के मैथिली-लेखन मे सेहो हमसब यैह बात पबैत छी। लेखक जँ सही मे पैघ हुअय तँ अपन मेधा सँ कोनो खास भाषाक बनल-बनाएल लीक कें, ओकर आभामंडल कें तहस-नहस क' दैत छैक। एहि सब सँ भाषाक औरदा आ ओकर ओज बढ़ैत छैक। 

              उदाहरणक संग गप कयल जाइ तँ बात बेसी साफ होयत। 'नेपथ्यक अभिनेता' ठीक ओही संकट पर लिखल गेल कथा थिक जे कि रेणुक दू अन्य हिन्दी कथा 'ठेस' आ 'रसप्रिया' मे आयल अछि। ने सिरीचन हारि मानबा लेल तैयार अछि, ने मिरदंगिया। एहि कथाक अभिनेता सेहो हारबा लेल तैयार नहि अछि। एम्हर समय तते तेजी सँ बदलि रहल अछि जे एहि कलाकार सभक जीयब कठिन कयने अछि।  'लोक' के युग-युग व्यापी संस्कृति विलुप्ति के कगार पर अछि। अधखिज्जू आधुनिकता आ देखावटी लोकतंत्र पाबि क' पूंजी आरो अधिक बलिष्ठ, आरो बेसी घातक भ' चुकल अछि, जे धरोहर सभक सत्यानाश क' देबा पर तुलल अछि। काल्हि धरि जाहि आसन पर सामंत लोकनि छला, ओही आसन पर आइ पूंजीपति अछि आ राजनीति तँ बुझू ओकर खबासिन छियै। ओकरा लेल कथी थिक संस्कृति, कथी थिक धरोहर? सब गोटे जनैत छी जे 'लोक'क जीवंत संस्कृति सँ लगातार दूरी बरतनिहार एहि 'गोबरपट्टी' सँ रेणु कते आहत रहैत छला। लोक-धरोहर सभक उजड़ैत जेबाक जेहन दारुण चिन्ता हमरा सब कें रेणु लग मे भेटैत अछि, एक रहू कारण सँ ओ अपन समकालीन भारतीय भाषा सभक लेखक मे अन्यतम छथि। 

              'ठेस'क सिरीचन एहि कारण सँ उजड़ैत अछि जे आब प्लास्टिक बाजार मे आबि गेल छै आ प्लास्टिकक बनल शीतलपाटी लोक कें सस्ते टा नहि, आकर्षको लागय लगलैक अछि। मिरदंगिया विदापत नाच के मूलगैन रहल अछि। मूलगैन होयब कते पैघ बात भेलै, से जाननिहार जानिते हेता। विदापत नाच आब बीतल जबानाक बात बनि क' रहि गेल, जकर कलाकार सब आब संभ्रान्त बाबू-बबुआन सँ भीखो धरि पेबाक हकदार नहि रहल। किएक? एहि दुआरे जे विदापत नाच आब पछड़ल आ जाहिल समुदाय के मनोरंजनक वस्तु बनि क' रहि गेल। जें कि तथाकथित लोकतंत्र आब आबि गेल छै, तें पछड़ल-जाहिल समुदाय सेहो अपना कें पछड़ल-जाहिल मानबा लेल तैयार नहि अछि। एहि कारण सँ जाहि समुदाय विशेषक ई धरोहर छल, ओहो आब एहि परंपरा कें आगू ल' जेबाक लेल तैयार नहि अछि। रेणुक रेखाचित्र 'विदापत नाच'(1941) कें ध्यान मे राखि क' देखी तँ रेणु अपन रचनाशीलताक आरंभे एही चिन्ता सब सँ कयने रहथि। 

            नेपथ्यक ई अभिनेता पारसी थियेटरक विख्यात अभिनेता रहल अछि। देशक चुनौटा पन्द्रह टा थियेटर कंपनी मे ओ काज क' चुकल अछि। अपना जबाना मे ओकर लोकप्रियता एहन रहै जे लोक ओकर एक झलक पाबै लेल भीड़ लगा दैत छल। भारत मे सिनेमा आयल तँ थियेटर कें उजाड़ि देलक। सबटा कंपनी सब बेराबेरी बन्द भ' गेलै। मिरदंगिये जकाँ ई अभिनेता सेहो रोड पर आबि गेल। बदलल माध्यम आ माहौल के संग एडजस्ट करबाक कोशिश ओ नहि कयने हो, सेहो नहि। एहि मामला मे ओ सिरीचन आ मिरदंगिया दुनू सँ आगू बढ़ल नायक थिक। कहानी सँ पता लगैत अछि, सिनेमाक चला-चलती देखि क' ओ फिल्मनगरी बंबई धरि सेहो गेल, मुदा ओहि ठामक रेवाज आ कल्चर तते अलग रहै जे ओतय ठठब ओकर मोन नहि मानलकै। ओ गर्दिश के मारल जरूर अछि मुदा हारल नहि अछि। आब ओ एक बिलकुल नब विधा मे काज शुरू केलक अछि। आब ओकरा अटैची मे तरह-तरह के मुखौटा भरल रहैत अछि, आ एकटा करिया लुंगी, जकर उपयोग ओ ग्रीनरूम के रूप मे करैए। ओ मुखौटा सब ओहि-ओहि ड्रामाक मशहूर नायक सभक छियै, जकर करतब देखबाक कद्रदान एखनो बहुत ठाम बचल छै। अपना लुंगी सँ ओ मुँह झंपैत अछि, आ भीतर खट द' मुखौटा बदलि, लुंगी हटबैत अपन मुखौटाक अनुरूप ड्रामा सभक डायलाॅग बाज' लगैत अछि, उचित वाचिक-आंगिक अभिनयक संग। ढेर रास लोक जमा भ' जाइत छैक। ओ पुरान दिन लोक सभक आँखि मे जिन्दा भ' उठैत छैक। बच्चा सँ ल' क' बूढ़-बुढ़ानुस धरिक भरपूर मनोरंजन होइत छैक आ, कार्यक्रमक अन्त मे अपन टोपी कें भिक्षापात्र बना क' ओ दर्शक सब सँ आना-दू आना मांगि लैत अछि। बंबइ भने ओकर सब किछु छीनि लेने हो मुदा एक कला छै जे ओ बंबइये मे सिखलक अछि-- पूरा आत्मविश्वास संग फूसि बजबाक कला। आब ओ ककरो सँ बेझिझक कहि सकैत अछि-- 'साब, एक्सक्यूज मी, फाॅर लास्ट टू डेज आइ एम हंग्री, वेरी हंग्री, मांगने की हिम्मत नहीं होती किसी से।' एहि स्थिति मे अभिव्यंजना-संपादक माया बाबूक कहल ई बात तँ ठीक छै जे ई कथा नौटंकीक प्रख्यात पात्रक अंतिम समयक आर्थिक तंगी आ उपेक्षाक कथा थिक, जकर एक झलक पयबाक लेल ओहि बीतल समय मे लोक, बच्चा सँ बूढ़ धरि, तरसैत छल। मुदा तैयो ई मानबाक संगति हम नहि देखैत छी जे कलाकार आब रिटायर्ड भ' गेल अछि। नहि, रिटायर्ड नहि भेल अछि, ओ तँ पूरा जुझारूपनक संग जीवनसंघर्ष मे शामिल अछि आ कलासाधना मे सेहो। एहि कलाक माध्यम आ रूप-रंग भने बदलि गेल हो, मुदा ओकरा रोजी-रोटी देबा मे आइयो कले काज आबि रहल अछि।

               सुदूर इलाका सँ चलि क' कलाकार फारबिसगंज आयल अछि, जतय के बारे मे ओकर समझ छै जे 'मिथिला देस में आज भी नाटक के काफी शौकीन लोग हैं।' मजा के बात छै जे साठि-पैंसठ बरस पहिने फारबिसगंज के गनती मिथिला देस मे रहै, से स्वयं रेणु जी लिखलनि अछि। मुदा आइ बीच मे एहन राजनीति आबि गेल छै जे साइत रेणु जीक धियोपुता कें से मानबा मे असुविधाक बोध होइन। एकटा दोसर सत्य इहो छै जे एहि कथा कें लिखल जेबाक बादो कम सँ कम चालीस साल धरि मिथिला मे, एकर गाम-गाम मे नाटक जिन्दा छल। से नाटक सब लगभग ओही ढब-ढांचा के, जेहन कि नौटंकी कंपनी सब मे भेल करैत छल। एकरा लोक उत्तर बिहारक ग्रामीण रंगमंच कहल करै छथि। एहि कला कें चालीस बरस बादो धरि सिनेमा नहि खा सकल छल। सिनेमाक गाना सब जखन निच्चां उतरि क' आर्केष्ट्राक रूप मे गाम-गाम पहुँचल, तखनहि एहि ग्रामीण रंगमंचक अंतिम खात्मा भेलैक। 

          एहि कथा मे कला-समीक्षकक सेहो आगमन भेलैक अछि। ई देखब रोचक अछि जे सामान्यत: समीक्षा-दृष्टिक बल पर बांहि पुजौनिहार लोकनि कते पश्चगामी होइत छथि। सांप के भागि गेलाक बाद लाठी पिटपिटेनहार जमातक 'लोक' मे बहुत खिल्ली उड़ाओल जाइत छैक। रेणुक कला-समीक्षक कें एहि सँ कनेको कम नहि मानल जाय। हुनकर आनो अनेक रचना सब मे एहन लोकक बारे मे हुनकर यैह नजरिया प्रकट भेल अछि। तात्पर्य पश्चगामिता सँ अछि, जकरा समीक्षा-सिद्धान्तक रूप मे महिमा-मंडित करबाक चलन रहल अछि। वास्तविकता ई थिक जे मामला चाहे सृजनात्मक साहित्यक हो कि स्वयं व्यक्तिक जीवनक मार्मिकता-- हमसब पबैत छी जे एकर मर्म ठीक-ठीक पकड़बाक काज मे समीक्षक लोकनि बहुधा असफल रहैत छथि। एहि कथा मे तकरो एक प्रसंग अयलैक अछि। 

            आठ-नौ बरखक उमर रहल हेतै कथावाचकक, जखन ओ गुलाबबागक मेला मे पहिल बेर कोनो थियेटर देखने छल, आ ओही पहिल शो मे एहि अभिनेता कें सेहो देखने छल-- नेपथ्यक एहि अभिनेता कें, जकर की नाम रहै, तकर चर्चा रेणु एक्को बेर नहि कतहु कयने छथि। ओ छुट्टीक समय छल। स्कूल जखन खुलल, तँ थियेटरक एहि अतीन्द्रिय अनुभव कें बालक लोकनि एक दोसर कें सुनाइये रहल छला कि एही बीच समीक्षकक आगमन भेल। ओ आर क्यो नहि, कथावाचकेक सहपाठी बकुल बनर्जी छल, जकर उमर सेहो आठे-नौ बरस रहै। रेणु लिखैत छथि-- 'बड़ चंसगर, जन्मजात आर्टक्रिटिक, ओकरा कथनानुसार अइ नकली कंपनी मे-- पछिला बरस नागेसरबाग मेला मे ऐल असली कंपनीक छटुआ लोक सब छलै।' कोनो एक कंपनी मे काज केनिहार कलाकार जँ ओकरा छोड़ि क' दोसर कंपनी मे चलि जाय, तँ ओ (दोसर) कंपनी नकली कोना भ' गेल? मुदा रेणु बतबैत छथि जे केवल कलाकारे जन्मजात नहि होइछ, समीक्षक सेहो जन्मजाते होइत अछि। समीक्षकक एक तेसर मुद्रा सेहो होइ छै, ओकरो रेणु एतय उठा अनने छथि। एते मजा के चीज कें नकली ठहरेबा सँ जखन कथावाचक उदास भ' जाइत अछि, तँ अपन मित्रक प्रीत्यर्थ समीक्षक झट अपन मुद्रा बदलि लैत अछि-- 'तोव एक ठो बात हाइ-- ईस कंपनी में जिस मानुस ने रेलवे पोर्टर का पार्ट ये किया है, वह नागेसरबाग में आया कंपनी में भी यही पार्ट करता था, उसको तो नकली नेही कहने सोकते।' मतलब, जकरा हमसब समीक्षा-सिद्धान्त कहैत छियै, ओकरो प्रावधान सब सुविधा आ परिस्थितिक हिसाब सँ बदलि जेबाक लेल अभिशप्त रहैत अछि‌।

                 अन्त मे आबि क' कथा जतय अपन सर्वाधिक मार्मिक स्थल पर पहुंचैत अछि, मने कि बूढ़ा कलाकारक ई कथन-- 'साब, एक्सक्यूज मी, फाॅर लास्ट टू डेज आइ एम हंग्री, वेरी हंग्री-- संयोग कहियौ जे बकुल बनर्जी ओतय उपस्थित छल। रेणु लिखैत छथि-- 'जन्मजात आर्ट क्रिटिक हमर सहपाठी बकुल बनर्जी आइयो कला आ कलाकार कें चिन्हबाक धंधा ओहिना करैत अछि, सब दिन ओ एके रहल। हमरा दिस तकैत बकुल बाजल-- तू भी इसका बात मे फँस गये, मुझसे काल यह कह रहा था-- फाॅर टू डेज आइ एम हंग्री....!'

          एकटा विन्दु अबैत छैक जखन मार्मिकता आ समीक्षाक बीच सीधा मुठभिड़ान सँ बचब संभव नहि रहि जाइछ। यैह बात एहि कथाक अन्त मे आबि क' भेलैए। कथावाचक कें बकुलक कहल ई बात बहुत ओछ, बहुत तुच्छ लगलै। दुखी भ' क' ओ बकुल कें पुछैत अछि-- 'ठीक-ठीक बताना बकुल, इसके डोलते काया के पिंजड़े में जो पंछी बोल रहा है, उसकी बोली को सुनकर तुमको कुछ नहीं लगा?'

             -- 'कुछ नहीं लागता तो काल्ह ठो सारा दिन इसके साथ भीख मांगता? चोन्दा तो भीख ही हुई!'-- ई बकुल थिक जे अपन समीक्षाक सीमा स्वीकार क' रहल अछि।तखन एक दीर्घ नि:श्वासक संग ओ सीमा नांघि जाइत अछि। कहैत अछि-- 'क्या बताएं-- कैसा लगा! लगा, तुम्हारे अथवा मित्रगणों के साथ रात भर भागकर थियेटर देखने गया हूँ, हाॅस्टल से।' कथावाचकक प्रतीति सेहो किछु एहने अछि-- 'हाँ बकुल, मुझे भी कुछ ऐसा ही लगा।' अनुभूतिक ई एकता समीक्षा-दम्भ के धराशायी भेलाक बादे संभव अछि, जकर तात्पर्य भेल जीवनक मार्मिकताक स्वीकार। एहि तरहें देखी तँ एहि कथाक विषय, सामने देखार पड़ि रहल दृश्य सब सँ कतहु बेसी गहन, अधिक व्यापक अछि।

            जेना कि पहिने कहि चुकल छी, भाषाक प्रश्न रेणुक लेल दोयम भेल करनि। मुख्य प्रश्न वस्तुक छल आ ओकर रूप-विन्यास के, जकर एते पैघ सिद्ध कलाकार एतय आर क्यो नहि भेला। जें कि जे कोनो वस्तु ओ लिखलनि भने ओ हिन्दिये मे हो, मुदा ओ सबटा मिथिलाक बारे मे अछि, ओतहि के कहन मे, ओतहि के गढ़न, ओत्तहि के दिलक पतियेबा मे, अत: स्वाभाविक रूप सँ हिन्दी आ मैथिली मे लिखल वस्तु सब अलग-अलग स्केल पर नहि देखाइछ। कते आश्चर्यजनक बात थिक जे 'अगिनखोर' सन कहानी ओ मैथिली मे लिखने छला, जखन कि तहिया हिन्दियो मे एहि तरहक वस्तु लिखब चलन मे नहि छल, मैथिलीक तँ बाते छोड़ू।

                   'जहां पमन को गमन नहि' हुनकर दोसर मैथिली कथा छियनि, एकटा एहन विषय पर, मानू जे समुच्चाक समुच्चा रेणु-साहित्य जेना एक एही आशयक विस्तार होइक। एकर केन्द्र मे गाम छै। सौभाग्यवश ओ गाम नहि, जाहि मे जीबा लेल हम-अहां आइ अभिशप्त छी, अपितु ओ गाम जे पचास बरस पहिने ठीक एही रकबा पर मौजूद छल, जकरा छोड़ि क' हमसब आब बहुत आगू आबि गेल छी। आजुक तँ हाल छै जे की गाम, की शहर, सब ठाम एक्के रंग विषकुम्भ। टीवीक चैनल, हरेक हाथ मे मोबाइल, हरेक दिमाग मे गोबर भरबाक अभियान। पचास बरस पहिने मिथिलाक गाम केहन रहै, तकरे वृत्तान्त सब कें तँ लिखि क' रेणु एते पैघ लेखक बनि गेला। मैथिलीशरण गुप्तक ओ प्रसिद्ध पांती एतय मोन पड़ैत अछि जतय ओ राम कें कहने छनि जे तोहर नामे अपना आप मे काव्य छह, तें राम-गुण गौनिहार क्यो कवि बनि जाय से सहज संभाव्य छै। मोन मानबाक बात छै, रेणुक शब्द मे कही तँ दिल पतियेबाक। हम रामक बदला ई संभाव्यता गाम मे पाबै छी, हमरा लग से मानबाक बहुतो रास उदाहरण अछि। पहिल उदाहरण तँ स्वयं रेणुए छथि, यद्यपि कि ओ बहुत प्रतिभाशाली, बहुत सृजनक्षम लेखक छला। 'जां पमन को गमन नहि' कथा बहुत मार्मिक छै। एकर आरंभे एना भेल छै जे जखन कथावाचक गाम सँ घुरैत छथि तँ हरेक बेर हुनकर मित्र लोकनि पुछै छनि-- 'की यौ! कत' जा क' डूबि जाइत छी?' बीच मे ई कहि दी जे ई कथा बेस लालित्यपूर्ण भाषा आ कहन मे लिखल गेल अछि, जकरा पढ़ैत पाठक कतेको ठाम मुस्कियेने विना नहि रहता। से, रेणुक लेल गाम जायब, डूबि जायब कोना छल, तकर विस्तार एहि ठाम देखल जा सकैए। ओ स्वयं कहै छथि-- 'मने हमरा जँ कहियो डुबबाक मोन होइत अछि तँ हम गाम दिस विदाह होइत छी।' डुबबाक की अर्थ? शहर मे जाबे धरि अखबार नहि आबि जाय तँ 'दीर्घ वा लघु की, कोनो शंकाक निवारण सरलता सँ संभव नहि। मुदा गाम पहुँचितहि अखबारक दिशा अपनहि टूटि जाइत अछि।' दिशा शब्द कें ध्यान दी, जकर प्रयोग पुबारि मिथिला मे शौच-निवृत्तिक अर्थ मे होइत छैक। गाम मे रहनिहार पाँच-सात सौ लोकक लेल दुनियाक कोनो बखेड़ा, जे कि अक्सरहां मीडियाक माध्यम सँ अबैत छैक, ओकर निर्भय-नि:शंक जीवन कें बाधित नहि क' सकैत अछि। गामक दुनिये एक अलग दुनिया छिऐक। लिखै छथि-- 'तें, एक्को सप्ताह गाम सँ भ' अबैत छी तँ लगैत अछि-- सूखल मोन फेर पनिया गेल।जेना कान,आँखि आओर नाक, सब नव भेटि गेल हो।' दोसर बात ई छै जे जहिया-जहिया गाम सँ घुरै छथि, किछु ने किछु नव ल' क' अबिते टा छथि। कोनो बेर नव चूड़ा, नव चाउर, नव गूड़, आर कोनो बेर नव शब्द। कहै छथि-- 'बिनु डुबने एहन नव वस्तु-- शब्दमोती-- ककरो नहि भेटतनि।' एहि बेरुक यात्रा मे जे वस्तु अनलनि अछि, से यैह शब्दमोती सब छैक। बरसात के समय छै। गामक नबका नहरि कोनो ठाम टुटि गेलैए, तें सगरो जलामय अछि। एहि स्थिति कें गाम मे उजहिया कहल जाइ छै, मने मत्स्योत्सव। अघोरीदास हरबाह छथि। हुनका पुछै छथिन कतय टुटलै हौ, तँ उतारा भेटै छै-- ' टूटल नहि छै। कनेक सन 'बिरचि' गेल छै। कतय? दस आरडी लग। कथाक पांती छै-- 'के पतिआओत जे एहन घनघोर गामक ई अघोरीदास हरबाहा-- बासि भातक संग हरियर मरिचाइ जकाँ-- एकहि संग दुइ गोट हरियरे अंग्रेजी शब्द कचरि गेल।' एतबे नहि ने, पुछै छथिन--अपन हर कतय बहैत छहु? मैनरक ओहि पार, साइफन सँ उत्तर-- भीसीक भिठबा पर। तों एम्हर कत' जाइत छह बरद हांकने? अही ठाम कलवर्ट पर जायेब। ई तँ संयोग कहियौ जे कथावाचक कें एक दिन गामक ओहि अहद्दी छौंड़ा सँ मुलकात भ' गेलनि, जे आब सिंचाइ विभागक 'पेट्रोल' भ' गेल अछि। तखन हुनकर बुद्धिवर्द्धन भेलनि जे आरडी भेल रिड्यूस्ड डिस्टैन्ट। मैनर माने माइनर। साइफन आ कलवर्ट मे की अन्तर छै, सेहो बुझलनि। भीसी भेलै-- विलेज चैनल। भारी वर्षा आ बाढ़ि कें देखि एक गोटेक कहब भेलै जे 'एहन बाढ़ि रहल तँ एहि बेर फेर धानक कमीशन।' कमीशन की? ओ नहि जे सब क्यो बुझैत छियै। कमीशन के मतलब भेल अभाव। कथा मे पांती छै-- 'एहन बहुतो विदेशी-देशी शब्द अछि, जकरा हमर गाम बला सुखा क' माछक सुंगठी जकाँ उपयोग करैत अछि।' उदाहरण देने छथि-- अनबन, झगड़ादन, बोला-भुक्की बन्द-- एहि समस्त वस्तुस्थितिक लेल गौआं लोकनि आब एके टा शब्द सँ काज चला लैत अछि-- कनटेस। वाक्य देखू-- आइकाल्हि फलना सँ हुनका कनटेस (कनटेस्ट) चलैत छनि-- फलना बाबू  हुनक सपोट (सपोर्ट) कोना करता! जहाँधरि पोटेसे (प्रोटेस्ट) करता।          

             कथा मे एकठाम अबैत छैक-- 'हमरा गामक कोनो-ने-कोनो टोल मे, कालान्तर मे-- एकाध एहन आदमी फरैत रहला अछि, जे सब अपन-अपन युग मे नव-नव शब्द, नव-नव गारि ओ एक सँ एक बिकटाह कहबी गढ़ि क' हमरा गामक सरस्वती कें 'मुनहर' मे जमा क' गेलाह।' ध्यान राखल जाय-- एहि किसिमक लोक जनमैत नहि छथि, आम-जामुन जकाँ फरैत छथि। एही प्रसंग मे एकटा शब्द-निर्माणक खिस्सा कथावाचक कें मोन पड़ि जाइन छनि। हुनकर एक कविमित्र छलखिन जे गामेक एक भद्र व्यक्तिक सार छला। 'हमरा गाम मे एखनो एहन प्रिय 'कुटुम कें सार्वजनिक सम्पत्ति बूझल जाइत छनि।' से, कविमित्र कें एक बोनिहार एक दिन चुटकी लैत पुछि देलकनि जे बाबू, अपने तँ इसलोक-दुहा-कवित्त बनबैत छी, हमरा एकर अर्थ बुझा दिय' जे 'जहाँ पमन को गमन नहि, रवि ससि उगे न भान/ जो फल बरमाह रचौ नही, सो अबला मांगे दान'-- कहू जे ई कोन फल भेलै? जखन कविजी कें कोनो जवाब नहि फुरलनि तँ वैह बोनिहार कूट करैत बाजल-- की हौ कुटुम? सब 'सोनपिपही' सटकि गेल? स्वाभाविक जे तकरा बाद एक जोरदार पिहकारी पड़ल हेतै। ई शब्द-- सोनपिपही-- की भेलै, ओ केहन होइए? होइतो अछि की नहि? मुदा, गामक सरस्वतीक मुनहर मे एक नव शब्द ओहि दिन आबि क' शामिल भ' गेलैक। कवि महोदय अपन नबका कथा-संग्रहक नामे राखि लेलनि-- सोनपिपही। बाद मे आबि क' जखन ई शब्द ख्यात भेलैक तँ शब्दकोश सब मे एकर अर्थ बताओल गेल-- 'उत्तर बिहार तथा नेपाल तराइ दिस बाज' बला वाद्ययंत्र।'

          एहिना, कृषिविज्ञानक एक शब्द कोना प्रचलन मे आएल रहै, तकर खिस्सा। भेलै ई जीप पर सवार भ' कोनो हाकिम गाम बाटें जाइ छला। देखलनि जे एक बुढ़ा अपन खेत मे मड़ुआ रोपै छला। जीप रोकि क' हाकिम बुढ़ा कें पुछलखिन-- बूढ़ा, धान छोड़कर मड़ुआ क्यों रोपता है? अपन झुकल डांड़ कें सोझ करैत बुढ़ा बजला-- बाबू, अपनेक गाड़ी तँ चारिये गोट पहिया सँ चलैत अछि-- ई पांचम पहिया पाछां दिस किए खोंसि लैत छी? जवाब सुनि हाकिम अकबका गेला। बुढ़ा बजला-- जेना अपनेक ई पांचम पहिया, तहिना हमरा सभक ई मड़ुआ। धान, गहूम, जौ-मकइ हुसि गेल तँ हुसि गेल-- मुदा ई मड़ुआ नहि हुसै बला। हाकिम बेचारे एहि गाम सँ ई शब्द अपन विभाग मे ल' गेला आ नबका शब्द बनलै--'स्टेपनी क्राॅप'।

            यद्यपि कि ई कथा शब्दे सभक बारे मे अछि, तें ई नहि बूझल जाय जे बस एतबे कथा छै, अथवा एकहारा कथा छै। एक एक क' क' गामक अनेक दृश्यावली एहि कथा मे एलैए। भूमिका एकरा बूझल जाय-- 'भगवान तथा भगवतीक सम्मिलित कृपा सँ हमर गाम आइयो धरि घोर गामे अछि। हमरा गाम मे ककरो पढ़ब-लिखब नहि धारैत छैक। धार-साजक गप्प! ककरो पानक लत्तरि लगायब नहि धारैत छैक तँ ककरो नारियर रोपब आ ककरो कुकुर पोसब।तें, हमरा गामक जे केओ दुइयो आखर लिखि लेताह-- से सब गाम छोड़ि विदाह होइत जेताह।' सही मे, 'धार-साज' बला बात कते मार्मिक छै! थोड़-बहुत पढ़ल-लिखल लोक अपन गाम छोड़ैत अछि, बेसी पढ़ल लोक अपन राज्य छोड़ैत अछि आ जँ कायदा सँ पढ़ल हो तँ अपन देशे छोड़ि दैत अछि!

                  जे गाम सँ विदा भ' गेला तिनकर तँ बात छोड़ू। एहि कथा मे ओहि लोक सभक वृत्तान्त एलैए जे गाम कें धयने छथि। नहरि टुटला सँ गाम मे बाढ़ि आयल छै। गामक समस्त लोक उजगहिया मे माछ मारै लेल बहरायल छथि, जाहि मे कथावाचक अपनो छथि। माछ मारबाक वा पकड़बाक औजार की सब? धाँसा-धिम्मरि, टापी, जाल, कोयना आदि। जुवकक तँ बाते की नेनाभुटका सभक सेहो बुट्टी-बुट्टी चमकि रहल अछि एहि मत्स्यक्रीड़ाक उत्साह मे। धाँसा-धिम्मरि मे जखन पोठी-चुन्नी-टेंगरा-पैना आदि नन्हका माछ सब फँसैए तँ केहन लगैत अछि? --'धाँसा-धिम्मरि मे सोनाचानीक लाबा-फरही फुटैत जकाँ।' कोनो धाँसा मे एकाध टा अमेरिकन कबैय देखि क' एक गोटे बजैए-- 'जा-जा, ले अल्हुआ! फोचाय बाबूक पोखरि सेहो उमटाम भेलो रे!' अमेरिकन कबैय फोचाय बाबुए टा के पोखरि मे पोसाइत अछि, तें ओहि कहबैका के अनुमान सोड़हो आना सत्य छै। ता, एक दिस माछ बझौनिहार सभक दल मे कोलाहल भेल-- गंगाजीक माछ! कथावाचक उत्सुकतावश जा क' देखलनि तँ एक गोटेक टापी मे हिलसा माछ फँसल छल। अमेरिकन कबैय कें चिन्हनिहार माछबुझक्कड़ कें आब दोसरे फिकिर ध' लेलकै। ओ चिन्तित स्वर मे बाजल-- 'ओह, ससुरारि दिसुक सब गाम-घर गंगाजी मे भसिया गेल।'

एक इलाकाक मछबाह कें कोनो दोसर इलाकाक माछ देखार पड़ि गेल तँ ओहि इलाकाक जलमग्न हेबाक अनुमान स्वाभाविक रूप सँ भ' जाइत छैक। आ ओहि ठाम तँ तरह-तरह के लोक। क्यो बाजि देलक जे गंगाजीक की बात करै छह, आब तँ बुझह समुद्रोक माछ एतहि भेटि सकै छह! एहि बात पर 'माछक शिकारी सभक रसना एकहि संग सरसरा क' सरस भ' गेल-- एह! समुद्रक माछ? सुनै छियै जे समुद्रक माछ मे नोन देबाक कोनो प्रयोजन नहि। ठीके हौ?' मने बूझि लिय'। गामक जीता-जागता बहुरंगी छवि किताब पर उतारि देने छथि रेणु। एहि कथा मे जे 'शब्दमोती'क उल्लेख भेलैए, तकरे बिछबाक हुनर रहनि रेणु मे, आ ताही लेल ओ गाम जा क' डूबि जाइत छला, आ यैह ओ नेओ थिक जाहि पर रेणु-साहित्यक समुच्चा संवेदना-संसार ठाढ़ छै।