Tuesday, February 11, 2025

तारानंद वियोगी से आशुतोष कुमार ठाकुर का इंटरव्यू (सम्पूर्ण)


 आशुतोष--अपने आरंभिक जीवन और उन जीवनानुभवों के बारे में कुछ बताएं, जिन्होंने आपको लेखन के लिए प्रेरित किया? कौन-सी परिस्थितियां रहीं कि आपने साहित्य को ही लक्ष्य बना लिया?

           तारानंद--मेरा जन्म कृषि मजदूरों के एक विस्थापित परिवार में हुआ था। कोशी बांध निर्माण परियोजना से जो लाखों परिवार छिन्नमूल हुए, उनमें मेरा परिवार भी था। दादा परसौनी (सुपौल) से उपटकर महिषी आए थे। दादा की ही तरह गांव के हर वाशिन्दे का घर-द्वार, सारी जमीनें कोशी ने लील ली थीं। हर कोई अपनी-अपनी सुविधा से अलग-अलग जगहों पर जा बसे। इस तरह, बचपन की पहली बात तो यही कि मैं एक ऐसे गांव का निवासी था, जहां अपने वंश का कोई न था। पिता की सबसे बड़ी देन यह रही कि इस हादसे को मैंने भी उनकी ही तरह सदा पाॅजीटिव लिया। अपना कोई नहीं, यानी कि हर कोई अपना। पिता ने अपनी बहादुरी और ईमानदार सेवावृत्ति से ऐसा व्यक्तित्व बनाया था कि प्रभाव भले कुछ न रहा हो, लेकिन अच्छे और निष्पक्ष आदमी की उनकी स्पष्ट पहचान थी। पिता कोई औपचारिक शिक्षा तो नहीं पा सके थे लेकिन दस्तखत करना जानते थे, और शिक्षा का महत्व उनकी नजर में सर्वोपरि था। आठ-दस की उमर में दो साल उनके साथ रहने का मौका मिला और यही समय मेरे जीवन में आमूलचूल परिवर्तन का समय था। उन्होंने पढ़ने-लिखने की ललक मुझमें भर दी। अनेक महापुरुषों के प्रसंग उन्हें मालूम थे, जिनके दृष्टान्त मुझे दिया करते। दो बातें मुझे खास तौर पर याद हैं जो मुझमें प्रतिफलित हुए। एक, गांधीजी का यह कथन कि लिखावट का बुरा होना अधूरी शिक्षा की निशानी है। दूसरे, नेहरूजी के बारे में उनकी दी हुई यह जानकारी कि लिखित शब्दों के प्रति वो इतने संवेदनशील थे कि कहीं फेका हुआ कागज भी उठाकर देखते जरूर कि उसमें क्या लिखा है।

          मेरा गांव, महिषी पुराने जमाने से ही संस्कृत अध्ययन-अध्यापन का गढ़ था। मेरे समय तक यह परंपरा मौजूद थी। अनेक बुजुर्ग यह राय देते मिल जाते कि तुम्हें संस्कृत पढ़ना चाहिए। गांव में दो हाइ स्कूल थे लेकिन मैं संस्कृतवाले में गया। पिता ने जो संस्कार दिया था, उसे फूलने-फलने का पूरा अवसर यहां मिला। छोटी उमर में ही मैंने हजारों किताबें पढ़ ली थीं। पढ़ते-पढ़ते ही लिखने का खयाल किस बात से आया, यह बताता हूं। साहित्य-लेखन की परंपरा भी महिषीवासियों में हमेशा से रही है। राजकमल चौधरी के बारे में तो तब मुझे कुछ भी मालूम नहीं था। एक दिन किसी से यह जानकर कि वह गीत, जो मुझे बहुत पसंद था और मैं बड़े मन से उसे गाता था, वह अपने ही गांव के इन महाशय ने लिखा है। यह मेरे लिए सचमुच एक आश्चर्यजनक बात थी। महाशय उमर में मुझसे बड़े थे लेकिन आम आदमियों जैसे थे। अब तो मेरे लिए उस गीत का संदर्भ ही बदल गया था। वह अगर लिख सकते हैं तो मैं भी तो लिख सकता हूं, इसी उत्सुकता ने मुझे लेखन की ओर आकर्षित किया। पन्द्रह-सोलह की उमर में तो मैं राजकमल के काम में लग गया था जिसकी कथा 'जीवन क्या जिया' में आई है। जिस साल मैंने मैट्रिक की परीक्षा दी थी, उसी साल मेरी पहली रचना 'मिथिला मिहिर' में छपी थी। उसमें निरंतरता भी रही और विविधता भी। पहले ही साल मेरी कविता, लेख और कहानी तीनो छपे।

            पढ़ना और लिखना, कुल दो ही काम थे जिन्हें करके मैं आनंदित होता था। रचनाएं छपने लगीं तो यह देखकर मुझे और भी अच्छा लगा कि पढ़ने वालों को ये चीजें अच्छी लगती हैं। मित्र भी बढ़ने लगे, पहचान भी बनने लगी। मैट्रिक का रिजल्ट आने पर जब मुझे नेशनल स्काॅरशिप मिले तो मानो मेरे सबसे बड़े सवाल का जवाब मिल गया था। जिस काम में मेरा आनंद था, मेरे लिए यह जानना आश्चर्यजनक था कि मेरी उन्नति भी उसी में थी। मैंने खुद को साहित्य के लिए समर्पित कर दिया।


आशुतोष--आज जब आप अपनी आरंभिक रचनाओं से गुजरते हैं, तो क्या पाते हैं? वे चुनौतियां जिनके होते हुए, और जिनकी वजह से भी, आप यहां तक पहुंच सके! कैसे-कैसे दिन देखे?


तारानंद--चुनौतियों वाली बात आपने अच्छी कही। वे ढेर सारी चुनौतियां ही थीं, जिनकी वजह से जो भी कुछ संभव हुआ, कर सका। जब आप पराये होते हैं और आपको आक्रान्त करने के लिए जो जतन किये जाते हैं, उन्हें ही तो हम चुनौती कहते हैं। मेरा जन्म शूद्रों के एक परिवार में हुआ था, जबकि मेरा गांव ब्राह्मण-वर्चस्वी गांव था। पढ़ने-लिखने के आनंद ने स्वाभाविक ही ऐसी परिस्थिति बना दी कि कक्षा में हमेशा फर्स्ट आता। बचपन में तो यही मेरे लिए सबसे बड़ा संकट बनकर उभरा। स्वभाव से मिलनसार और जरूरतमंदों का सहायक रहा हूं। कहना चाहिये कि पिता का दिया संस्कार तो यह था ही, यह मेरे बचपन की एक रणनीति भी थी जो मेरे संघर्षों को कम करने के काम आती थी।

          दो-एक घटनाएं बताऊं तो बात थोड़ी स्पष्ट होगी। उन दिनों तक हमारे गांव में न पक्की सड़क पहुंची थी न बिजली। मेरे घर में लालटेन भी नहीं थी। अब देखिये। किसी रोज रात को पढ़ने बैठा हूं। कोई इतनी अच्छी किताब है कि जिसे पूरा किये विना चैन नहीं पड़ता। दोपहर रात को मां की नींद खुली और उन्होंने घर में डिबिया जलते पाया तो चिन्तित होकर झांकी। मुझे पढ़ते देख झल्ला गयी है कि अब सो जाओ। उनकी चिन्ता है कि किरासन बहुत महँगा भी है, दुर्लभ भी। यह हालत थी। एक और घटना सुनें। सब दिन से मेरी आदत रही है कि बहुत तेज कदम से चलता हूं। नौंवें-दसवें का छात्र रहा होऊंगा। एक दिन गांव की सड़क से गुजर रहा था कि एक देवता की नजर पड़ गयी। उन्होंने मां-बहन की दस गालियां दीं। क्यों भाई? तो, इतना तेज क्यों चलते हो? आहिश्ते चलो कि किसी को कुछ पूछने या समझने की जरूरत हो तो आराम से पूछ-समझ सके।

           मैं लिख चुका हूं और यहां फिर से आपको बताता हूं कि बाबा नागार्जुन का प्रवेश ऐसे वक्त पर मेरे जीवन में हुआ कि मैं नष्ट होने से बचा रह गया। वह भी एक ब्राह्मण थे, इस बात ने मानो मुझ पर संजीवनी-सा असर किया। वरना, ढेर सारे शूद्र युवक मैंने देखे हैं जिन्होंने ब्राह्मणों के दुर्व्यवहार की प्रतिहिंसा में जलते हुए अपना जीवन नष्ट कर लिया। उन दिनों तो नहीं, पर बाद में जाकर यह तथ्य मेरे सामने उद्घाटित हुआ कि जिस मैथिली साहित्य में मैं पिछले चालीस साल से अनवरत काम करता आ रहा हूं वह भी अंतत: क्या है? ब्राह्मण-वर्चस्वी महिषी गांव का ही एक बड़ा संस्करण है।

           अपनी ही पुरानी रचनाओं को पढ़ूं तो कई बार खीज होती है कि इसे ऐसा नहीं वैसा लिखना था। लेकिन कई बार बड़ा अचरज होता है कि उन दिनों मैं ऐसा लिख सका। हां, कई दूसरे रचनाकारों की तरह मुझे कभी अपनी किसी रचना को डिज-आॅन करने की जरूरत महसूस नहीं हुई। जीवन को धारा कहते हैं लेकिन केन्द्रक तो कोई हो जिसे आप जीवनाधार बता सकें। कुछ होना चाहिये कि जिसे बचाने के लिए आप ढेर सारी दूसरी चीजों को छोड़ सकें। उस विस्थापित कृषि-मजदूर के बेटे को लगातार भीतर जीवित पाता हूं।


आशुतोष--'बाभनक गाम' आपकी बहुत प्रसिद्ध कविता है।  क्या आप इस कविता के पीछे की प्रेरणा और रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में विस्तार से बता सकते हैं?


तारानंद--'बाभनक गाम' कविता जिन दिनों छपी थी, सन 2000 में, मैथिलों के समाज में बहुत खलबली मची थी। बहुत सारे साहित्यकार ऐसे थे, साहित्यकार भी उन्हें कैसे कहा जाए-- उन्हें तो ब्राह्मणवाद का वामपंथी मुखौटा ही कहना होगा, वे लोग स्थायी रूप से मेरे दुश्मन हो गये। वैसे भी, मैथिली का रिवाज है कि इसका कोई कवि युवापन में भले उग्र वामपंथ का भूमिगत लड़ाका ही क्यों न रह चुका हो लेकिन उसका बुढ़ापा आरएसएस की छांव में ही आकर शरण पाता है। अभी पिछले साल मैथिली के एक बड़े लेखक पं. गोविन्द झा का देहान्त हुआ है। पंडित जी ने सौ साल की जिंदगी पाई। जवानी में वह भी कोई कम विद्रोही नहीं थे, लेकिन इधर के वर्षों में आधुनिकता को लेकर उन्होंने अपनी यह स्थापना दी थी कि यहां जो जितना बड़ा पापी होता है, वह उतना ही महान लेखक माना जाता है जैसे यात्री नागार्जुन और राजकमल चौधरी। तो, यहां यही रिवाज चलता आया है। इस कविता के छपने से मेरे गांव के कई लोग बड़े आक्रोशित हुए, तरह-तरह से मुझे हानि पहँचाने की कोशिश हुई। मेरे एक ब्राह्मण कवि-मित्र ने 'अंतिका' के उस अंक की थोक प्रतियां खरीदीं और मेरे गांव के घर-घर में बँटवाया कि लोग गुस्से में आकर मेरे घर में आग लगा दें। खैर, बाद में तो श्रीधरम ने इस कविता पर लेख लिखा, अनुवाद किया तो यह कविता बाहर भी बहुत प्रसिद्ध हुई। अंबेदकरनामा पर रतनलाल और संजीव चंदन ने मिलकर इसपर शो किया। लेकिन, आप इसे पढ़कर देखिये। इसे ढंग की दलित कविता कहने में भी शायद आपको संकोच हो। वजह है करुणा, जो ब्राह्मणों के अजन्मे बच्चों के लिए हैं। मतलब, उन अजन्मों ने इनका क्या बिगाड़ा कि सभ्य इंसान वाली मानसिकता के साथ जीवन में उनके प्रवेश को भी ये अभागे असंभव बना रहे हैं।

      प्रेरणा और प्रक्रिया के बारे में आपने पूछा। अबतक किसी ने पूछा नहीं और मैंने बताया भी नहीं है। आप जानते हैं कि अपने गांव से मैं गहराई से जुड़ा रहा हूं। अगर आप मुझे यह आफर दें कि संसार की किसी भी जगह पर जाकर एक महीने की छुट्टी गुजारूं, तो मैं अपने गांव को चुनूंगा। इतना। दशहरे का त्योहार हमारे यहां बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। हर साल मैं इस मौके पर गांव जरूर जाता था। और, मेरी एक आदत उन दिनों थी कि इस अवसर पर मित्र और युवा साहित्यकारों को आमंत्रित करता था। दो-तीन दिन सब साथ रहते, चर्चा-परिचर्चा होती और हर दिन शाम को रचना-शिविर करते थे, जिसमें ताजा रचनाएं लिखी जातीं, उनका वाचन होता। देर रात तक यह सब चलता था। 1999 के दशहरे की बात है। नवमी की सुबह-सुबह अतिथि युवा लेखक पंकज पराशर ने मुझे बताया कि रात में जब सबलोग सोने गये तो कोई ब्राह्मण-देवता मेरे बंद दरवाजे के बाहर खड़े होकर मेरा नाम लेते हुए, लगभग रात भर मुझे मां-बहन की गालियां देते रहे। और, ये तब की बात है जब मुझे डिप्टी कलक्टर हुए पांच साल से ज्यादा हो चुके थे। मेरे लिए तो यह नयी बात नहीं थी। गाली देनेवाले का कलेजा किस बात से जला होगा, यह भी मैं समझ रहा था। देखिये, दुनिया कहां से कहां चली गयी लेकिन गांव का ब्राह्मण अब भी इस बात से परेशान होता है कि शूद्रों के घर सभ्य लोग क्यों बैठते हैं। मुझे दुख हुआ। बरसों बीत गये थे, गांव जरा सा भी नहीं बदला था। मुझे गांव की आनेवाली पीढ़ियों के लिए दुख हुआ। यह कविता उसी शाम के रचना-शिविर में लिखी गयी थी। पंकज भी क्षुब्ध हुए थे। उन्होंने भी बहुत तीखी कविता उस शाम लिखी थी।

       बिलकुल आरंभ से ही मैं मैथिली में अलग तरह की कविताएं लिखता था। जाहिर है, मेरी अनुभूतियां मेरी तरह से अभिव्यक्त होती थीं। ये कविताएं पत्रिकाओं में छपीं और कमोबेश नोटिश भी की गयीं। 1996 में जब मेरा पहला संग्रह 'हस्तक्षेप' छपा, तो इसकी समीक्षा प्रख्यात कवि जीवकान्त ने की। तारीफ की कई बातें कहीं, इस संग्रह का आना मैथिली के लिए एक उपलब्धि जैसा बताया गया, आदि-आदि। लेकिन, उन्होंने अपनी समीक्षा का शीर्षक दिया-- 'मैथिली में दलित कविता का हस्तक्षेप'। मेरा तो जो हुआ, स्वयं जीवकान्त की बड़ी निंदा की गयी कि परम पवित्र मां मैथिली को खंडित करने का षड्यंत्र करते हैं कि दलित कविता की बात कर रहे हैं। समूची दुनिया जानती है, विद्यापति के बाद मिथिला में सबसे बड़े कवि यात्री नागार्जुन हुए, लेकिन आप जरा सर्वे कर लीजिए। जो अपने को सच्चा मैथिल मानते हैं उनके होठों पर आज भी नागार्जुन के लिए मां-बहन की गालियां मिलेंगी। मिथिला जरा भी नहीं बदली आशुतोष। आप देखिये।


आशुतोष--आपकी पुस्तकें 'कर्मधारय' और 'बहुवचन' बहुत सराही गई हैं।  क्या आप इन किताबों में विचार किये गए विषयों पर कुछ बताना चाहेंगे? ये पुस्तकें मैथिली साहित्य के व्यापक परिदृश्य में कैसे योगदान देती हैं?


तारानंद-- ये दोनों मेरे आलोचनात्मक निबन्धों की किताबें हैं। मैथिली आलोचना के साथ दिक्कत यह रही कि हर नया आलोचक पुराने आचार्यों की ओर मुखातिब होता है, मानो आलोचना-कर्म कोई काउन्सिलिंग हो जिसमें सफल होने पर आपको स्थायी नौकरी लग जानेवाली हो, या फिर आप भवसागर पार कर जानेवाले हों। अपनी आलोचना में पहली चोट तो मैंने इसी प्रथा पर मारी। मैंने तो भूमिकाओं में साफ-साफ यह बात लिख दी कि मैं माननीयों को, मठाधीशों को संबोधित नहीं हूं, अपनी किताब उन साधारण पाठकों के लिए लिख रहा हूं जो मैथिली साहित्य को उसकी गहन वास्तविकता में जानना चाहते हैं। दूसरी चीज क्या रही कि संस्कृत और प्राचीन साहित्य की जानकारी रहने के कारण मुझमें एक आत्मविश्वास बना रहा। देखिये, पुरानी कही सच बात है कि भय भी शक्ति देता है। फल हुआ कि अपनी स्थापनाओं में मैं किसी से भी डरा नहीं। कर्मधारय में पांच अध्याय हैं। पहला अध्याय है कि बीसवीं सदी में मैथिली के महान लेखक कौन हुए और क्यों? अध्याय का शीर्षक है-- शताब्दी के सूत्रधार। इसमें मैंने जिन चार लेखकों को चुना वे थे-- यात्री नागार्जुन, हरिमोहन झा, काञ्चीनाथ झा किरण और राजकमल चौधरी। अब देखिये, इस सूची में न सुरेन्द्र झा सुमन हैं, न चन्द्रनाथ मिश्र अमर। काशीकान्त मिश्र मधुप भी नहीं हैं। और तो और, कविवर सीताराम झा भी नहीं हैं, न कविशेखर बदरीनाथ झा। दूसरे अध्याय 'समय-साक्षी' में अन्य महत्वपूर्ण लेखक-- धूमकेतु, जीवकान्त, किसुन, कुलानंद मिश्र वगैरह पर अध्याय दिये गये। तीसरा अध्याय 'परिदृश्य' है, जिसके चौदह लेखों में आप समकालीन कथासाहित्य की विधाओं, प्रवृत्तियों, उपलब्धियों का अवलोकन कर सकते हैं। शताब्दी के अंत में जो विधाओं का रुझान देखा गया, उसपर भी विस्तार से चर्चा है। अगला अध्याय समकालीन कविता पर है और अंतिम 'चतुर्दिक' नामक ऐसा अध्याय है जहां आप मिथिला के समाज, समय, पुरातनता और आधुनिकता के द्वन्द्व वगैरह को देख सकते हैं। यहां दो लेख मैथिली पत्रकारिता पर भी हैं और एक लेख अनूदित साहित्य की गुणवत्ता पर भी। 

      मैथिलों की यह समझ रही है कि आलोचना भले मुखामुखी कर ली जाए, लेकिन यह लिखने की चीज नहीं है। इसीलिए  मिथिला के इतिहास की सामग्रियां आप किंवदन्तियों और दन्तकथाओं में ही पाएंगे। आलोचक से यहां लोग घृणा करते हैं और उन्हें पुरस्कार आदि के योग्य नहीं माना जाता। मेरे साथ बड़ी सुविधा यह रही कि पहले से ही लोग मुझसे घृणा करते थे। किसी ने पुरस्कार के लिए चुना भी तो मैं ही हील-हुज्जत करता रहा। कुछ पुरस्कार तो बाकायदा लिखित आपत्ति करते हुए मैंने अस्वीकार किये।

       दूसरी किताब 'बहुवचन' मुख्यत: मिथिला में नवजागरण-तत्वों की तलाश का उपक्रम है।  उन्नीसवीं सदी के अंत से शुरू हुआ अभियान किस तरह समूची बीसवीं सदी, और आजतक भी, मिथिला समाज को प्रभावित करता आया, और मैथिली साहित्य की विभिन्न विधाओं में योग्य लेखकों ने इसे किस तरह अभिलिखित किया, यहां इसका विश्लेषण है। यहां स्पष्ट कर दूं कि देश के अन्य समाजों की तरह बहुलता की संस्कृति मिथिला के भी वृहत्तर समाज की रही है, लेकिन दुर्भाग्यवश परंपरित मैथिली साहित्य सिर्फ ब्राह्मण-संस्कृति को मैथिल संस्कृति साबित करने का दुराग्रही रहा है। 'कर्मधारय' में जहां आलोचना को एक्टीविज्म के तौर पर बरतने की कोशिश है, वहीं 'बहुवचन' वृहत्तर बहुल सांस्कृतिक मिथिला के पदचाप सुनने की कोशिश है। एक बात आलोचना की भाषा पर। मानक शैली का जो निर्धारण एकबार आचार्य रमानाथ झा ने कर दिया, वामपंथी आलोचकों ने भी अपने औजार भले बदल लिये हों लेकिन आलोचना की शैली और भाषा में वे वहीं-के-वहीं बने रहे। मेरे लिए इन सब का कोई मूल्य नहीं था, क्योंकि मैं शुरू से ही सृजनात्मक लेखन की भावना के साथ ही आलोचना के साथ बर्ताव करता आया हूं।

         मेरे निष्कर्षों ने परिदृश्य में हस्तक्षेप तो जरूर किया है। आज जो बिलकुल नयी पीढ़ी के पाठक मैथिली में आए हैं, दुनिया भर की जानकारी से लैस, और अब अपनी मातृभाषा के मर्म से और दशा-दिशा से परिचित होना चाहते हैं, मुझे खुशी है यह कहते हुए कि अपनी आंख के तौर पर वे मेरा इस्तेमाल करते हैं। मैथिली के लोगों में अक्सर इस नैतिकता की कमी पाई जाती है कि अगर किसी के विचार को उद्धृत करें तो नामोल्लेख भी कर दें। लेकिन, मेरे जैसा आदमी तो इसी को बहुत मानता है कि मेरी कही बात दस कलमों से अभिलिखित की जा रही है।


आशुतोष-यात्री नागार्जुन एक अद्भुत कवि और लेखक हुए।  अपने संस्मरण 'तुमि चिर सारथि'(मैथिली) और जीवनी 'युगों का यात्री'(हिन्दी) में आपने नागार्जुन के जीवन पर विलक्षण ढंग से प्रकाश डाला है।  नागार्जुन के साथ आपके रिश्ते ने आपकी लेखन-शैली और दृष्टिकोण को कैसे प्रभावित किया?


तारानंद-- देखिये, जिन दिनों मैं बाबा की संगत में आया था, सभी अर्थों में वह बहुत बड़े थे, और मैं बहुत छोटा। छुटपन से ही मैं डायरी लिखता था। बाबा की कही बातें मेरे लिए इतनी वजनदार होती थीं कि हर दिन की बात मैं लिख लेने की कोशिश करता। आम तौर पर लोग यह नहीं कर पाते। जानते हैं क्यों? क्योंकि किसी को इतना बड़ा स्वीकारना, भले ही आप एक बच्चा हों, आपके अहंकार को चोट पहुंचाता है। मैंने वहां लिखा है, वे बातें मैंने इसलिए नोट नहीं की थीं कि इनके सहारे मुझे कुछ लिखना था, बल्कि इसलिए कि ये मेरे जीवन के काम आने वाली थीं। चूंकि समूचे जीवन के साथ मैंने उनके प्रवाह में बहने की कामना की थी, यह अलग करना जरा मुश्किल है कि शैली और दृष्टिकोण किस हद तक प्रभावित हुए। बाबा गद्य लिखने पर बहुत जोर देते थे। फर्स्ट हैंड अनुभूति को ही वह लिखने की चीज मानते थे। किसी खास कविता को किस भाषा-शैली में लिखा जाए कि बात बने, इसके लिए मैंने 75 पार की उमर में उन्हें परेशान होते देखा है। लेखन में शिल्प की उतनी भर जरूरत होती है कि आपकी अनुभूति शब्दों में ठीक-ठीक अँट जाएं। इतने बड़े कवि की संगत में जब आप ये सारी घटनाएं घटते हुए साक्षात देखते हैं तो बात सीधे दिल-दिमाग तक पहुँचती है। अलग से आपको प्रभाव खोजने की जरूरत नहीं होती।

        बाबा की एक आदत थी कि मैथिली का कोई बहुत प्रतिभाशाली कवि उनसे मिले तो वह मैथिली के साथ-साथ हिन्दी में लिखने का सुझाव देते थे। मैं पहले से ही हिन्दी में लिखता था। मेरी कई आरंभिक कविताएं ज्ञानरंजन जी ने 'पहल' में छापी थीं। लेकिन, आप शायद आश्चर्य करें, मेरे साथ बिलकुल उलटा हुआ था। मुझे उन्होंने मैथिली, और सिर्फ मैथिली में लिखने का सुझाव दिया था। अब सोचता हूं तो लगता है कि मैथिली के साथ चिपके ब्राह्मण-वर्चस्व को लेकर उनकी चिन्ता ही इस सुझाव के पीछे रही होगी। अपने बारे में वह अक्सर बताते थे कि उन्हें यदि कोई उनके असली स्वरूप में देखना चाहे तो उसे उनकी मैथिली कविताएं पढ़नी चाहिए। बहुत फर्क है। अब जैसे राजनीतिक कविताओं को ही लीजिये जिसके लिए उनकी विशेष प्रसिद्धि है। मैथिली की राजनीतिक कविताएं बहुत अलग हैं। तात्कालिकता के बदले उनमें एक स्थायित्व है जो जन और अभिजन की राजनीति और कूटयांत्रिकी को बिलकुल अलग तरीके से बेनकाब करता है। कविता में राजनीति को कुछ इसी तरह लाने काम मैं भी अपने तरीके से करता रहा।

       


आशुतोष-- राजकमल चौधरी, मैथिली और हिंदी में एक और प्रभावशाली लेखक हैं। आप दोनों एक ही गांव महिसी के निवासी रहे हैं।  आपने राजकमल पर हिन्दी में एक यादगार पुस्तक 'जीवन क्या जिया' लिखी है।  राजकमल चौधरी के लेखन ने मैथिली साहित्य की गति को किस प्रकार प्रभावित किया है?


तारानंद-- यात्री ने जिस ऊंचाई तक मैथिली कविता और उपन्यास  को पहुँचा दिया था, यह एक कठिन चुनौती थी कि आगे यह कौन सी राह पकड़ेगी। राजकमल को यात्री ने ही तैयार किया था और बढ़ावा दिया कि वे आगे बढ़ें। उनकी अनुभूतियां ज्यादा जटिल थीं तो जरूरी था कि भाषा और शिल्प भी नये ढंग का उन्हें चाहिये था। यह काम वह बखूबी कर सके। राजकमल के पहले कोई बौद्धिक कविता-वाचक मैथिली कविता में नहीं आया था, क्योंकि ऐसे जटिल विषय ही नहीं आए थे। यह विस्तार इसे राजकमल से मिला। राजकमल की मैथिली कहानी को साथ रखकर यदि आप सोचें तो यह सवाल उठेगा कि वह ज्यादा बड़े कथाकार थे कि ज्यादा बड़े कवि? जाहिर है, दोनों ही विधाओं के अपने अलग-अलग मानदंड हैं और उन्होंने दोनों में अलग-अलग सिद्धियां प्राप्त की थीं। आगे की मैथिली कहानी को आप देखें तो पाएंगे कि राजकमल के बाद मैथिली की आधुनिक कहानी दो अलग-अलग धाराओं में फूटी, उन्हें लोग ललित-धारा और राजकमल-धारा कहते हैं। ललित के यहां यथार्थवादी गद्य है तो राजकमल के यहां संवेदनाओं की इतनी तरलता कि उनके गद्य के भीतर से एक विरल किस्म की काव्यात्मकता आपको झांकती मिलेगी। 

       राजकमल ने मैथिली की कई परतियां तोड़ीं। ऐसे-ऐसे विषय और पात्र ले आए कि कोई दंग रह जाए। कई लोग उन्हें 'पतित-पावन' कहते मिलेंगे, लेकिन असल बात है कि किन सामन्ती शक्तियों को उन्होंने बेपर्द किया और इसकी आर्थिक पृष्ठभूमि क्या थी। मैथिली की कविता हो या कहानी, आप देखेंगे, राजकमल के बाद वैसी ही नहीं रही जैसी उनके पहले थी।



आशुतोष-- आप मैथिली साहित्य की वर्तमान स्थिति को कैसे देखते हैं, और पिछले कुछ वर्षों में आपने क्या रुझान या परिवर्तन देखे हैं?


तारानंद-- उस अभागन भाषा-साहित्य के बारे में भला मैं क्या कह सकता हूं जिसका सम्पूर्ण वर्तमान संकीर्ण ब्राह्मणवादियों और थर्ड क्लास के दलालों के हाथों गिरवी है! यह एक अलग तथ्य है कि एक हजार के लगभग नये-पुराने लेखक आज मैथिली में लिख रहे हैं, जिनमें कम-से-कम चालीस प्रतिशत लोग ब्राह्मणेतर हैं। यह भी अलग बात है कि ब्राह्मणेतर लेखक भी चीज वही लिख रहे हैं जिनके आदर्श ब्राह्मणवादी हैं। यह भी एक तथ्य है कि इन हजार लेखकों में कम-से-कम पचास तो जरूर ऐसे हैं जो उच्च गुणवत्ता की रचना कर रहे हैं। लेकिन, आपको यह देखना चाहिए कि मैथिली के वर्तमान माहौल में उन उच्च गुणवत्तावालों की पूछ कितनी है, पुरस्कृत-सम्मानित कितने किये जा रहे हैं! मतलब, नहीं किये जा रहे। एक समानान्तर घटिया साहित्य-संसार खड़ा किया जा रहा है जहां भाड़े के लोगों से कोर्स और सम्मान के लिए किताबें लिखवाई जा रही हैं। ब्राह्मण लड़ाके आज अलग मिथिला राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि जो चीजें उन्हें मिली हुई हैं, जैसे अष्टम अनुसूची, विश्वविद्यालय, अकादमियां वगैरह, उनके संचालन में अपनी कपटपूर्ण विवेकहीनता का अच्छा परिचय दे रहे हैं। हां, यह जरूर है कि पिछले दशक से मैथिली के स्त्री-लेखन में आशातीत उर्वरता देखी जा रही है। यह बात मुझे बेहद अच्छी लगती है।

        देखिये, हमारे-जैसे लोगों ने भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम में हिस्सा नहीं लिया था, क्योंकि जन्म ही देर से हुआ था। लेकिन, हम-जैसे लोग इन तमाम विपरीत हालात के बावजूद यदि मैथिली में काम कर रहे हैं तो इसके पीछे बात यही है कि अपनी मातृभाषा की मुक्ति के लिए वही स्वतंत्रता-संग्रामियों वाला उत्साह अपने भीतर पाते हैं। लेकिन कहना होगा कि इस चीज के भी आखिरी दिन चल रहे हैं, क्योंकि उस संग्राम के आदर्श पूरी तरह ध्वस्त किये जा चुके हैं। ऐसा तो नहीं होगा कि मैथिली मर जाएगी, क्योंकि  जब अंग्रेजी के विश्वव्यापी साम्राज्य के बावजूद ब्रिटेन के कुछेक लाख लोगों की केल्टिक और गेलिक भाषाएं नहीं मरीं जिनके मर जाने की भविष्यवाणी एक शताब्दी से की जा रही है, तो मैथिली क्या मरेगी! लेकिन आपको पता है, अतीत में हुए लेखकों ने मैथिली साहित्य को जो बौद्धिक संपदा की परंपरा दी है, उसके बचे रहने में मुझे पूरा संशय है। कुछ दशक बाद आप पाएंगे, मैथिली का लेखन उसी स्तर पर सिमट जाएगा जैसा मगही, वज्जिका वगैरह का है। इस डैमेज को कंट्रोल करने में यदि आप-जैसे लोग कुछ कर सकते हों तो जरूर करना चाहिये।

आशुतोष-- क्या मैथिली साहित्य में दलित महिला लेखन और अल्पसंख्यक लेखन जैसी कोई उभरती आवाजें हैं जो आपको विशेष रूप से आशाजनक या उल्लेखनीय लगती हैं?


तारानंद-- मुस्लिम लेखकों ने तो अरसे से मैथिली में काम किया है, जिनमें फजलुर रहमान हाशमी का लेखन उल्लेखनीय रहा है। वर्तमान में कई युवा सक्रिय हैं जिनके लेखन में अलग तेवर भी दिखता है। इनमें मुख्य रूप से मैं जियाउर रहमान जाफरी, गुफरान जिलानी और मुख्तार आलम के नाम लेना चाहूंगा। मंजर सुलेमान आलोचना में अच्छा कर सकते हैं, यदि निरंतरता रख सकें। दलित महिला लेखन यद्यपि आरंभिक चरण में है लेकिन ध्यान आकृष्ट करने की क्षमता रखता है। विभा कुमारी एक कबीरपंथी परिवार से हैं, जिनकी रचनाओं में आपको एक अलग मजबूती दीख पड़ेगी।


 

आशुतोष-- सबाल्टर्न अभिव्यक्ति में लगे एक लेखक के रूप में आपने किन चुनौतियों का सामना किया है? क्या आप मैथिली में अपने लेखन के माध्यम से हाशिए की आवाज़ों को आगे लाने में रुचि रखते हैं?


तारानंद-- आशुतोष जी, मैथिली जिसे कहते हैं वह तो असल में हाशिये का ही आविष्कार है। वरना, हजार वर्ष पहले जब यहां लिखने-पढ़ने की परंपरा निकली, ब्राह्मणों को भला 'भाखा' से क्या मतलब हो सकता था? मिथिला पांडित्य का देस था और ब्राह्मणों की भाषा संस्कृत थी। विद्यापति की भी निंदा मैथिलों ने इसी आधार पर की थी कि उन्होंने भाखा में कविताई करने की ढिठाई की थी। आज भी मिथिला के बहुसंख्यक पिछड़े दलितों के धार्मिक कर्मकांड की भाषा भी मैथिली ही है। लोकदेवताओं की गाथाएं मैथिली में गाई जाती हैं और देवता भी भगत की देह में प्रविष्ट होकर मैथिली में ही कहते-सुनते हैं। ब्राह्मणों के धार्मिक कृत्य की भाषा मैथिली नहीं, संस्कृत है। ऐसे में किसे हाशिया कहें किसे केन्द्रक? मध्यकाल में जब नेपाल और मिथिला के राजदरबारों में रोजगार की भाषा मैथिली बनी तो शिक्षित पंडितों ने इसमें रुचि लेना शुरू किया। बीसवीं सदी में तो दरभंगा राज ने शासनादेश के तहत मैथिली को मैथिल ब्राह्मणों और कर्ण कायस्थों की जातीय भाषा बना ली जो जमींदारी उन्मूलन के बाद भी बदस्तूर कायम रहा। जिनकी आविष्कृत भाषा थी यह, जिनके रोजमर्रा के काम आती थी, जिनकी संस्कृति का वाहक थी, वे चूंकि रैयत थे, मैथिली शोषकों की भाषा बनकर रह गयी, शोषितों से उसे छीन लिया गया। आप इतिहास देखें, 1881 में जिस एक लंबी कविता 'कवित्त अकाली'(कवि फतूरलाल) को ग्रियर्सन ने कन्टम्परोरी राइटिंग के रूप में पेश किया था,उसका जिक्र आप क्या किसी भी इतिहास-ग्रन्थ में, आलोचना में,काव्यसंग्रहों में पा सकते हैं? उस समूची परंपरा की ही निष्ठुर अवहेलना की गयी। जबकि कोई भी अध्येता जिसकी रुचि मैथिल संस्कृति की सुन्दरताओं में हो, को इसे देखने के लिए ठीक उसी जगह जाना होगा जहां की तमाम राहें संकीर्ण ब्राह्मणवादी आचार्यों ने दुर्गम कर दी हैं। असल में आम तौर पर जिसे 'मिथिला' कहा जाता है वह कोई एक संस्कृति का नहीं, कम-से-कम दो संस्कृतियों का क्षेत्र है। मिथिला के भीतर मिथिला। पं. गोविन्द झा ने कहीं ठीक लिखा था कि एक भूभाग में बसावट के बावजूद ये दोनों संस्कृतियां एक दूसरे से इतनी भिन्न और दूर और परस्पर अबूझ हैं कि मानो दो अलग-अलग ग्रहों के वासी हों। यह दूरी यहां तक बढ़ गयी है कि बहुसंख्यक मिथिला को यह भी पता नहीं है कि मैथिली साहित्य नामक भी कोई चीज है, और वहां उनकी संस्कृति की चर्चा भी गाहे-ब-गाहे लोकसंस्कृति कहकर होती है।

        यह सही बात है कि मैंने अपने लेखन में हमेशा वृहत्तर मिथिला के ही संधान की कोशिश की है। इतिहास में भी गया हूं तो वहीं जहां अंधाधुंध अंधेरे को कोई चुनौती देता व्यक्ति दिखा है। लेकिन, मैं पाता हूं और सभी मानते हैं कि आज भी मिथिला के लिए यह रास्ता आम रास्ता नहीं बन पाया है।



आशुतोष-- आपने मैथिल दृष्टिकोण से कबीर पर एक उल्लेखनीय पुस्तक 'कबीर आ हुनक मैथिली पदावली' भी लिखी है।  कबीर-दर्शन के मैथिली भाषा में निरूपण को आप किस प्रकार देखते हैं?


 तारानंद-- यह असल में कबीर के मैथिली पदों का संग्रह है जिसके साथ लगभग 80 पृष्ठों में उनकी मैथिली पदावली की विशिष्टता, परंपरा, कबीर की मिथिला-पृष्ठभूमि और यहां कबीरपंथ के उद्भव-विकास आदि का परिचय दिया गया है। देखिये, सतरहवीं सदी में कबीरपंथ का जब आरंभ हुआ, आरंभिक चार प्रधान मठों में से एक मिथिला में था। अठारहवीं सदी में तो मिथिला की चार सौ से भी अधिक जगहों पर ये मठ क्रियाशील थे। हरेक मठ के पास अपनी पदावली थी जिसमें बड़ी संख्या में मैथिली पद संकलित थे। आप जानते हैं, मिथिला में विद्यापति का कोई संप्रदाय नहीं चला। वह बंगाल में चला। मिथिला में अगर किसी संप्रदाय की चलती रही, तो वह कबीरपंथ था। विद्यापति पदावली के केवल दो पोथे मिथिला में मिले, वह भी साधारण गृहस्थों के घर में जो गीतों के प्रेमी लोग थे। अगर किसी ने उस समय कबीर पदावली की पांडुलिपियां खोजी होतीं तो दो सौ से कम क्या मिलती! लेकिन सवाल है कि खोज करता कौन, और क्यों करता? कबीर का स्वर, आप जानते हैं, ब्राह्मणधर्म की कटु आलोचना का स्वर है। महान भाषाविद् डा. सुभद्र झा ने 1956 में एक लेख लिखकर बहुत सारे अकाट्य तर्क दिये थे कि कबीर का जन्म मिथिला में हुआ था और ब्राह्मणों से हुए टकराव के कारण उन्हें मिथिला से भागना पड़ा था। यहां से वह मगहर गये फिर काशी। उनकी शिष्य-परंपरा की स्मृति में यह बात रही होगी कि प्रधान चार मठों में से एक मिथिला में बना। यूं भी आप देखेंगे कि मांसाहार का जितना कटु विरोध कबीर के यहां मिलता है, वह उनके समकालीन या परवर्ती किसी भी संत के यहां नहीं है। कहने की जरूरत नहीं कि मिथिला की धर्मधारणा शाक्त है और यहां के ब्राह्मण मांसाहार के प्रबल आग्रही

        कबीर को कभी भी, कहीं भी एक निरे आध्यात्मिक संत की तरह इकहरे व्यक्तित्व का व्यक्ति आप नहीं पाएंगे। उनकी संपूर्ण रचनाशीलता का एक सामाजिक लक्ष्य भी अनिवार्य रूप से रहा जो वर्णव्यस्था का कठोर विरोधी, पिंड और ब्रह्माण्ड की एकरूपता का प्रबल आग्रही रहा है। प्रेम का महत्व उनके यहां सर्वोपरि है और यह सवाल वह बार-बार करते हैं कि जिस प्रेम की बदौलत आदमी परमात्मा को पा सकता है, उसी प्रेम के साथ आपस में भाईचारा बनाकर जी क्यों नहीं सकता? ऐसा क्यों होना चाहिए कि एक आदमी तो पूज्य ब्राह्मण हो और दूसरा अछूत दलित? यह सवाल उनकी मैथिली पदावली में प्रमुख रूप से उभरा है। आप समझ सकते हैं कि वे मैथिल कौन रहे होंगे जिन्होंने मिथिला में कबीर की ज्योति फैलाई और इसे अपने धर्म के रूप में प्रतिष्ठित किया! निश्चय ही वे हाशिये के लोग रहे होंगे। अब यह अलग बात है कि उन्हें हाशिये का कहना कितना गैरवाजिब है।


 आशुतोष-- आपकी नवीनतम पुस्तक "मैथिली कविताक हज़ार वर्ष" ने एक बड़े पाठकवर्ग का ध्यान आकृष्ट किया है।आपको इस विशेष विषय पर गहराई से विचार करने के लिए किसने प्रेरित किया और पाठक इस कार्य से क्या अपेक्षा कर सकते हैं?


 वियोगी: जिन दिनों मैं बाबा नागार्जुन की जीवनी लिख रहा था, उन्हें देखकर बहुत जोर हूक उठी थी कि अपने प्राचीन साहित्य का गहरा अध्ययन मैं भी करूंगा। बाबा के साथ क्या था कि तीस-बत्तीस की उमर तक उन्होंने जो कुछ पढ़ा था वह संस्कृत और संस्कृतेतर प्राचीन साहित्य ही था। मेरे साथ यह नहीं हो पाया था। संस्कृत का विद्यार्थी होने के नाते उसके प्राचीन साहित्य का तो थोड़ा-बहुत अध्ययन था लेकिन मैथिली के प्राचीन साहित्य से बिलकुल ही अनजान था। कहिये कि सीधे मैं संस्कृत के प्राचीन साहित्य से कूदकर आधुनिक साहित्य में आ गया था। 'युगों का यात्री' की सफलता के बाद मेरे पास ढेर सारे प्रकाशकों के प्रस्ताव आए। मैं किसी के लिए कुछ भी नहीं कर सका और लगातार इसी अध्ययन में लगा रहा, चार साल तक। ऐसे अध्ययनों के साथ एक समस्या रहती है कि आपको किसी मध्यस्थ की जरूरत बराबर बनी रहती है जो पाठ के असंदिग्ध आशय तक पहुंचने में आपकी मदद कर सके। जाहिर है, प्राचीन साहित्य मिथिला का था तो मैं मैथिली के इतिहासकारों और आलोचकों का ही मुंह ताकता। आपको शायद दुख हो यह सुनकर कि उन सबने मुझे भीषण रूप से निराश किया। उनके दृष्टिकोण संकीर्ण और दुराग्रह से भरपूर थे। हारकर मैं बंगला और अंग्रेजी की तरफ गया। देखिये, कोई लेखक किताब क्यों लिखता है? इस प्रश्न के बहुत सारे जवाब हो सकते हैं जिनमें एक यह भी है कि उसकी ठीक-ठीक पसंद की कोई किताब चूंकि अबतक लिखी नहीं गयी, इसलिए वह खुद लिखने की कोशिश करता है। इस किताब के बारे में आप यह कह सकते हैं। आरंभ में तो किताब लिखने का खयाल तक नहीं था। बाद में मुझे लगा, क्यों नहीं एक ऐसी किताब होनी चाहिये कि भविष्य के पाठक को मेरी तरह भटकना न पड़े।

          यह किताब छह सौ पृष्ठों की है जिसे दो खंडों में अंतिका प्रकाशन ने छापा है। आठवीं-नौवीं सदी के आसपास जब आधुनिक भारतीय भाषाएं आकार ले रही थीं, वहां से यह किताब शुरू होती है और उन्नीसवीं सदी के अंत पर आकर खत्म होती है। इस सहस्राब्दी को देसी भाषा-संस्कृति की सहस्राब्दी यूं ही नहीं कहा गया है। इस हजार वर्ष के भीतर एक खास भूभाग के लोगों ने अपनी भाषा में किन-किन तरीकों को अपनाकर खुद को अभिव्यक्त किया, यही इसका प्रतिपाद्य है। इसके अंतिम अध्याय का शीर्षक है-- इतिहास-वंचित कवि। अठारवीं-उन्नीसवीं सदी के दर्जनों ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं आज भी मिलती हैं लेकिन मैथिल इतिहासकारों, आलोचकों ने उन्हें जगह नहीं दी क्योंकि वे ब्राह्मणवाद के प्रतिकूल जाते थे। कहना न होगा कि आज जबकि ज्ञान-विनिमय उदार हुआ है, यह संकीर्णता यहां और भी अधिक बढ़ी है। 

          इस किताब का वर्ण्य विषय कविता को इसलिए बनाया गया है क्योंकि बीसवीं सदी के पहले मैथिली में गद्य-लेखन का कोई रिवाज नहीं था। हो सकता है, मेरी यह बात सुनकर आपको ज्योतिरीश्वर के वर्णरत्नाकर की याद आये जिसे आधुनिक भारतीय भाषाओं की पहली गद्यकृति के रूप में याद किया जाता है। लेकिन यह बात सिरे से गलत है। बड़े लोगों की गलतियां भी बड़ी होती हैं। 1940 में जब सुनीतिकुमार चटर्जी यह स्थापना दे रहे थे, तो उनके खयाल में बांग्ला संस्कृति थी और उन्हें इस बात का जरा भी इलहाम नहीं था कि मिथिला की लोकसंस्कृति को वह रत्ती भर नहीं जानते। उन्हें तो क्या उनके सहयोगी पंडित बबुआ मिश्र को भी नहीं था, जबकि स्वयं ज्योतिरीश्वर ने इसका संकेत अपनी कृति में दिया हुआ है। सुनीति बाबू का कहना हुआ कि यह किताब कथावाचकों के प्रयोजनार्थ लिखी गयी है। आप आश्चर्य करेंगे कि मिथिला में कभी भी कथावाचन की परंपरा नहीं रही, जो बंगाल में थी। यहां ब्राह्मण पुरोहित का काम करते थे, और पुराणों का वाचन, जिसमें अपनी ओर से व्याख्या या विस्तार देना निषिद्ध था। मिथिला में लोकगाथाओं की एक बड़ी ही समृद्ध परंपरा रही है। इसके नायक दलितवर्ग से आते हैं। लोरिकगाथा की चर्चा तो स्वयं ज्योतिरीश्वर ने भी की है। ग्रियर्सन को जब सलहेस गाथा मिली थी तो वह बहुत आश्चर्यचकित हुए थे कि इसकी संरचना गद्य की है लेकिन इसे मंत्रों की तरह पढ़ा नहीं जाता बल्कि मृदंग आदि वाद्ययंत्रों के साथ सामूहिक रूप से गाया जाता है। उनके इस आश्चर्य को आप 'क्रिस्टोमैथी' में देख सकते हैं। खैर, इस विषय पर एक लंबा अध्याय यहां दिया गया है।

         दूसरी जरूरी बात यह है कि ओइनवार राजाओं के दरबार में विद्यापति हुए, इससे यह प्रमाणित नहीं होता कि मिथिला के राजा लोग विद्यापति-समान कवियों के प्रणेता थे, जबकि मिथिला में आप पाएंगे कि यही प्रमाणित करने का चलन युग-युग से रहा है। यदि ऐसा ही था तो आप उनसे पूछिये, विद्यापति-जैसे दूसरे प्रतिभाशाली कवि छह सौ वर्षों में कोई एक भी क्यों नहीं पैदा हो सके? बल्कि उलटा हुआ। छह सौ वर्षों तक सैकड़ों कवियों ने हजारों कविताएं विद्यापति की भौंड़ी नकल में लिखीं। कुछ नया हुआ भी तो नेपाल राजाओं के संरक्षण में, और बंगाल के वैष्णव भक्तों के पदों में। मिथिला के परवर्ती राजाओं का शौक संगीत था, साहित्य नहीं। राजदरबार के गवैयों के गाने के लिए जो गीत लिखे गये, उन्हीं को संरक्षण मिला और बाद में केवल उन्हीं को मैथिली साहित्य का दरजा दिया गया। मिथिला के व्यापक जनाकांक्षा की अभिव्यक्ति जिन रचनाओं में हुई है, उसका बहुलांश आज भी मौखिक और असंकलित, अनालोचित है। मैंने यह कोशिश की कि इतिहास का रुख घुमाकर जनता की ओर कर दिया। यूं यह किसी एक आदमी के बूते की बात नहीं है, इसलिए इस प्रयास को आरंभ मानना चाहिये निष्पत्ति नहीं, यह बात मैंने किताब की भूमिका में लिखी है, और आपको भी कह रहा हूं।


आशुतोष-- क्षेत्रीय भाषा में लिखकर आपने जिन चुनौतियों का सामना किया है, इसका कुछ उल्लेख आपने किया। मैं जानना चाहूंगा कि मैथिली में खुद को अभिव्यक्त करने में आपको सबसे अधिक लाभदायक क्या लगता है?


 वियोगी: सबसे लाभदायक है वह स्फूर्ति है जो आपको सिर्फ अपनी मातृभाषा में लिखने से मिलती है। मनोभावनाओं की उत्पत्ति पर अगर आप गौर करें तो पाएंगे कि उनकी अपनी भाषा भी होती है जिसका स्फुट होना अभी संभावनाओं के भीतर होता है। किन चीजों के लिए आप किन शब्दों और बिंबों को चुनते हैं, यह आपकी अभिव्यक्ति की दिशा और सीमा दोनों तय कर देती हैं। रेणु की तरह यदि आप कड़ा तेवर अपनाएं, तभी वह हिन्दी में संभव हो सकेगी, जबकि उसके अपने खतरे भी हैं।

        यूं तो इन दिनों का समय पढ़ने-लिखनेवाले लोगों के लिए व्यर्थता-बोध का समय है। और यह बोध दुर्भाग्यवश भाषातीत है। लेकिन यदि आप मैथिली से हैं तो यह बोध घोर और भीषण हो जाता है क्योंकि हर भाषा के पास अपना वैकल्पिक स्पेस है जहां कमोबेश बहुलता के पक्ष में मुखरता है। यह चीज आपके यहां बिलकुल भी नहीं है। 


आशुतोष-- क्या आप ऐसे भविष्य की कल्पना करते हैं जहां मैथिली साहित्य के महत्वपूर्ण कार्यों को, यदि अंग्रेजी में अनूदित किया जाए, तो अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के लेखकों, जैसे तमिल के पेरुमल मुरुगन, की जेसीबी पुरस्कार विजेता उपलब्धियों के बराबर मान्यता प्राप्त हो सके?  यह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मैथिली साहित्य के व्यापक प्रचार और सराहना में कैसे योगदान दे सकता है?


 वियोगी-- सबसे पहले तो पेरुमल मुरुगन को आत्मीय बधाई और उनके लिए शुभकामनाएं क्योंकि मैं महसूस करता हूं कि उनका सम्मान हम सबका भी सम्मान है। किसी महत्वपूर्ण रचना का अंगरेजी में अनूदित होना एक अच्छी और महत्वपूर्ण बात है क्योंकि इससे अनंत संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। मैथिली में यह काम बिलकुल ही नहीं हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। लेकिन, यहां मुझे अपने यहां के एक प्रसिद्ध समाजशास्त्री हेतुकर झा की कही एक बात याद आती है। ज्ञान-वैभव से दीप्त प्राचीन मिथिला के पतन और आजवाली मिथिला के उद्भव की सीमारेखा पंजीव्यवस्था को बताते हुए उन्होंने लिखा है कि ज्ञान का स्थान अब जाति ने ले लिया, वैचारिक उदारता के स्थान पर स्वार्थजनित क्षुद्रता का महत्व बढ़ा और जाति-भिन्न लोगों और विषयों के प्रति क्रूर अमानवीयता विकसित हुई। यहां प्रसंग क्षुद्रता का लूंगा। कोई मैथिल लेखक यदि अनुवादक भी है तो उसकी पूरी चेष्टा यही होगी कि वह स्वयं खुद को प्रोजेक्ट करें। अगर आप इन्टरनेट पर सर्च करें तो धूमकेतु और राजमोहन झा को शायद ही कहीं पाएं जबकि घटिया लेखन की प्रचुरता दिखेगी। अब बताइए, धूमकेतु खुद को प्रोजेक्ट करेंगे? मैं, जो अभी जिन्दा हूं, भी नहीं कर सकता तो वे कहां से करेंगे! चूंकि इस क्षेत्र में दृष्टिवान और पेशेवर अनुवादक यहां कोई है ही नहीं, मैथिली का जो प्रतिनिधित्व है वह शर्मिन्दा करनेवाला है, सम्मान लानेवाला नहीं। हां, एक अपवाद ललित कुमार का काम है, जिन्होंने हमारे एक महान लेखक हरिमोहन झा के उपन्यास 'कन्यादान' का अनुवाद The Bride नाम से किया जिसे हार्पर काॅलिन्स ने छापा है और जिसने कई सारे पुरस्कार भी जीते हैं

       फिर भी, सच तो यही है कि यह पूरा मैदान अभी लगभग खाली है। आप-जैसे लोगों को तमाम दूसरे काम स्थगित करके भी इस ओर ध्यान देना चाहिये। नये दृष्टिवान लोग आएं तो ऐसा चमत्कार घटित हो सकता है जो अभी कहीं दूर-दूर तक संभव नहीं लगता।


 आशुतोष--आप युवा और महत्वाकांक्षी लेखकों, विशेषकर मैथिली साहित्य में योगदान देने में रुचि रखने वालों को क्या सलाह देंगे?


तारानंद-- पहला तो सुझाव यही दूंगा कि यदि आपके लिखे पर मैथिल भद्रजन जयजय कर रहे हैं तो समझ जाइये कि आपने गलत राह चुन ली है। मैथिली का पर्यावरण आज ऐसा है कि अच्छे लेखन के लिए आप पुरस्कृत तो क्या, दंडित किये जा सकते हैं। सफल लेखक मैं उसे मानता हूं जो अपने लिखे से अपनी भाषा की ताकत बढ़ा देता है, नयी-नयी अभिव्यक्तियों के द्वार खोल देता है। इसके लिए पहली जरूरत तो यही है कि आप मिथिला को जानें-- पंडितों के लिखे के आधार पर नहीं, वैसी जो कि वह वास्तव में है।