Sunday, December 8, 2013

।।जीवन के रास्ते।। जीवकान्त



मैथिली कवि जीवकान्त की कविता

नहीं, ज्यादा रंग नहीं
बहुत थोडा-सा रंग लेना
रंग लेना जैसे बेली का फूल लेता है शाम को
रंग लेना बस जितना जरूरी हो जीवन के लिए
रंग लेते हैं जितना आम के पत्ते
नए कलश में।

नहीं, ज्यादा गंध नहीं
गंध लेना बहुत थोडा-सा
बहुत थोडा-सा गंध जितना नीम-चमेली के फूल लेते हैं
गंध उतना ही ठीक जितना जरूरी हो जीवन के लिए
गंध जितना आम के मंजर लेते हैं।

नहीं, बहुत शब्द नहीं
जोरदार आवाज नहीं
आवाज लेना जितनी गोरैया लेती है अपने प्रियतम के लिए
जरूरी हो जितनी जीवन के लिए
आवाज उतनी ही जिसमें बात करते हैं पीपल के पत्ते हवा से,
थोडी-सी आवाज लेना
जितनी कि आंगन का जांता गेहूं के लिए लेता है।

जीवन के रास्ते हैं बडे सीधे
दिखावा नहीं, बिलकुल दिखावा नहीं
बरसता-भिंगोता बादल होता है जीवन
बरसते बादल में लेकिन रंग होते हैं बहुत थोडे
ध्वनि भी होती है तो साधारण
गंध भी होता है उसमें
विरल गंध।
(अनुवाद--तारानन्द वियोगी)

[उनकी और और रचना पढ़ने के लिए 'संवेद' देखें।]

Wednesday, December 4, 2013

तारानन्द वियोगीक कविता









।।करह चर्चा।।

हरेक चौक पर, चौराहा पर
बथान मे, अखराहा पर
हमरे चर्चा।
हमरे चर्चा कंसार मे, बैसार मे
कनफुसकी मे, तरघुसकी मे
हमरे चर्चा।
हमरे चर्चा ताल मे, चौताल मे, झपताल मे।

वाह रे हम
जोगीलाल,
वाह रे हम।

चर्चा की तं खूब नाक कटलनि
चर्चा की तं खसलनि माथ परहक पाग।
बड काबिल बनै छला, बुझा पडलनि
नै सूझै छलियनि हम सब, सुझा पडलनि।
चर्चा की तं पढलाहा सब मानि नै ककरो दैए
आर की तं आशीष नै मठाधीशक लैए....

वाह रे हम
जोगीलाल,
करह चर्चा जते करबह
हौ बूडि,
हम जं मरलियह तं तहूं मरबह।

हौ, हमहूं जं कोनो असली पढलाहा हएब
तं तोरो बेटा-बेटी कें अपने-सन बनाएब...

करह चर्चा।



।।कने हमरो लाज करू दोस।।

मलिकिनी कनैत रहै छथि
दहो-बहो नोर,
आ हमरा ततबो पलखति नहि
जे हुनकर नोर कने तेना क' पोछियनि
जे आगू थोडे दिन फेर नहि कानथि।

कते दिन भ' गेल जे आफियत सं बैसी कने अलसाएल,
आ बिचारी जे हम सुखी छी कि सुखी नै छी।
अतीत के टुकडी सब कें
घुरा-घुरा आनी अवचेतन सं
, गाय-जकां पाजु करी,
हमरा ततबो पलखति नहि
जे अंटियाबी भविष्य कें--
--एना जं भेल ई करब,
--ओना जं भेल तं ओ करब।
हमरा ततबो पलखति नहि।

,
अहां एम्हर महराज,
जुलुम कोहराम मचौने छी--
--बुझलहुं दोस की, फलनमा लूझि लेलक सेसर पुरस्कार
--चिलनमा कहैए सब चोर छै, सब चुहार
--भुलना-राज मे खूब भुलल भुलक्कड भुलान,
--झुलना-राज मे झुलैत रहथु झूला निक-निक विद्वान।

आखिर की कहए चाहै छी अहां दोस?
बड अन्हेर भ' रहल अछि
तें हम  छोडि दी अपन काज?
हमहूं मटियाइये दी मटियाएल जाइत कें--
की अहां से कहै छी?

हे, कने हमरो लाज करू दोस,
हमरो।

मानि लिय' छोडिये जं हम दी अपन काज,
तं जा क' मलिकिनी के नोर नै पोछबनि ग' यौ,
जे फलनमा आ चिलनमा के छिद्र मे पैसब।

कने हमरो लाज करू दोस।